सलीम शाह भी न आ सके थे,
लेकिन,
मौलाना साहब के पास,
अबतक इतना प्रबंध तो हो ही चुका था,
की बेटी का ब्याह आराम से हो सके!
बेटी ब्याह दी गयी,
बेटी विदा भी हो गयी,
पहुँच गयी अपने ससुराल,
कई दिन बीते,
सलीम शाह साहब को,
जब कोई खबर न आई,
तो उन्होंने,
अपने बेटे को भेजा पता करने,
और तब उसको पता चला,
की वो हलकारा,
कहीं नहीं मिला था किसी से भी,
वो तो अपने घर भी नहीं पहुंचा था,
हलकारे की मौत हुए,
कई दिन बीत चुके थे,
उसकी लाश की पहचान न हो सकी थी,
आज भी,
वहीँ के एक कब्रस्तान में,
दफन है वो हलकारा!
अब कोई,
पत्थर या निशानी बाकी नहीं है!
हाँ, सामान,
उसी के प्रेत ने,
अपनी प्रेत-नैसर्गिकता से,
अपने पास संजोये रखा!
और इसी प्रकार,
वो सारा सामान अभी भी इस हलकारे के पास था!
हलकारा,
मोहम्मद जमाल खान,
भले ही गरीब था,
लेकिन ईमान का बहुत अमीर था वो!
उसके प्रेत ने, जमाल खान की,
मौत के बाद भी,
उन सभी लोगों को तलाशना शुरू किया था!
और ऐसी ही एक तलाश उसे,
भास्कर साहब के घर तक ले आई थी!
मित्रगण!
ऐसे बहुत क़िस्से हैं!
एक क़िस्सा तो,
अभी कोई छह महीने पहले ही गुजरा था!
एक डॉक्टर के साथ!
वो डॉक्टर साहब,
अब अक्सर,
मुझे ही तलाशते रहते हैं!
डॉक्टरी तो अब कर रही हैं,
उनकी साहिबा जी,
और अब वो,
इन आत्माओं की डॉक्टरी करने लगे हैं!
ऐसा वाक़या गुजरा उनके साथ!
खैर,
हल्कारे की बात करते हैं,
अब मामला समझ आ गया था!
मौलाना साहब ने,
बाद में वो गाँव छोड़ दिया था,
सलीम शाह साहब ने,
उनके रहने का बंदोबस्त,
अब बरेली में ही कर दिया था,
बेटा तालीम हांसिल करता,
और साथ ही साथ,
कुछ काम भी किया करता था,
वक़्त आगे बढ़ा,
न मौलाना साहब रहे,
न वो सलीम शाह,
न ही उनका वो बेटा,
मौलाना साहब का बेटा,
कहाँ ढूंढें उन्हें?
दूसरी पुश्त के बाद,
नहीं मालूम किया जा सकता!
अब तक,
जो पता चला था,
वही बहुत था,
सभी ऊपरवाले को प्यारे हो गए,
और रह गया ये हलकारा,
वक़्त की गुबार में,
अपना घोडा दौड़ाता हुआ!
अपना सामान लादे हुए!
उसके लिए,
ये अभी बस,
इसी बीते लम्हे की बात है!
और हमारे लिए,
डेढ़ सौ बरस बीत गए!
बहुत तरस आया मुझे,
इस हलकारे पर!
वो तो अपने फ़र्ज़ की खातिर,
अपने घर भी नहीं लौटा था!
उसी रास्ते का कैदी था वो!
आज भी है!
आज भी,
वहीँ आसपास के गाँव के,
रहने वाले बताते हैं,
कि देर राते गए,
आज भी,
घोड़े के दौड़ने की आवाज़ें आती हैं!
चाहे बरसात हो,
चाहे भीषण गर्मी!
वो हलकारा,
आज भी रास्ता नाप रहा है!
ये कैसा ईमान!
कैसा फ़र्ज़!
मुझे तरस आया,
कि मैं मुक्त कर दूँ उसे,
हमेशा के लिए!
अब चैन से रहे वो!
चला जाए,
आगे रास्ते पर!
जहां से,
उसको नया पड़ाव मिले!
नयी शुरुआत मिले!
बस,
यही था मन में!
अभी बहुत दिन बाकी थे,
उसके लौटने में!
करीब, पच्चीस दिन!
तब आता वो!
मैं दे देता उसका सामान उसे,
कह देता,
नहीं मिले मुझे मौलाना साहब!
उसके क्या भाव होते?
बस!
यही दिल को,
चीर देता था!
क्या सोचेगा?
क्या कहेगा?
बहुत दर्द होता है!
बहुत दर्द!
एक ईमान वाला,
आज इस बेईमान जहां में,
अपने फ़र्ज़ निभाने के लिए,
रास्ता नापता रहता है!
वो बड़ी सी,
झोली लिए!
वो मुश्क़ लिए!
उसे तो ये भी नहीं पता,
कि उसकी झोली में है क्या!
मित्रगण!
किसी तरह से दिन काटे!
एक एक,
अलफ़ाज़ याद था मुझे उसका!
उसकी अदब!
तहज़ीब!
मिलनसारिता!
हँसमुखता!
सब याद थी!
बस,
किसी तरह मान जाए वो!
तो दिल का बोझ हल्का हो!
किसी भी तरह!
चाहे कुछ भी करना हो!
कुछ भी!
चाहे,
उसको पकड़ना ही क्यों न पड़े!
मित्रगण!
प्रेतों के विषय में मैं आपको,
और कुछ भी बताता हूँ!
ये प्रेत,
आपको अपने सामर्थ्य से,
वे सब कुछ दिखा सकते हैं,
महसूस करा सकते हैं,
स्पर्श करा सकते हैं,
किसी सुंदरी का भोग भी करा सकते हैं,
धन भी उपलब्ध करा सकते हैं!
बहुत सारे साधक,
जब अपने आराध्य की सिद्धि किया करते हैं,
तो ये उनका रूप धर लेते हैं!
तब स्थिति,
अत्यंत गंभीर हो जाती है!
साधक की,
मृत्यु निश्चित होती है!
इसी कारण से,
प्रेत-माया से बचने हेतु,
पहले कुछ सिद्ध मन्त्रों से,
अपने नेत्र,
और शरीर सब पोषित करना पड़ता है!
यदि आप पोषित हों,
तो कोई भी प्रेत,
आपने समक्ष ठहर नहीं सकता!
एक बात और,
ये भावनाओं पर चोट करते हैं!
आपकी कमज़ोरी का भान होता है इन्हे!
जैसे, किसी प्रिय दिवंगत के दर्शन,
करा सकते हैं!
वो दिवंगत,
अब आपसे जो मांगेगा,
उसे आप सहर्ष देने में तैयार रहेंगे!
स्मरण रहे!
जो इस देह से छूट गया,
वो छूट गया!
रिश्ते नाते,
जात-पात,
संबंध,
धर्म,
मात्र इस देह का ही होता है!
यहीं तक सीमित रहता है!
यही सत्य है!
ये भले प्रेत,
जैसे कि ये खान साहब,
अपने द्वारा रचाये हुए,
संसार में,
विचरते रहते हैं!
निरंतर!
लगातार!
मुझे दया आई थी खान साहब पर,
उनकी इंसानियत पर,
इनकी तहज़ीब पर!
उनकी फ़र्ज़-अदायगी पर!
किसी तरह से,
वो दिन भी काटे हमने!
और ठीक तीसवें दिन,
हम पहुँच गए भास्कर साहब के यहां!
जब हम पहुंचे,
तो भास्कर साहब ने बताया,
कि कोई दस्तक आदि नहीं हुई,
कोई नहीं आया!
घर में शान्ति है!
बस,
आज का दिन भी आखिरी ही था,
उन खान साहब के लिए!
रात हुई,
हम भोजन कर,
सो गए थे,
वो पोटली,
मेरे सिरहाने रखी थी!
मेरी नींद खुल गयी थी,
कोई डेढ़ बजे,
भास्कर साहब भी जाग गए थे,
और शर्मा जी भी,
उस रात,
बिजली नहीं थी गाँव में,
कुछ एक घरों में,
इन्वर्टर लगे थे,
वहीँ कहीं,
कोई प्रकाश नज़र आता था,
वो सरकारी खम्भा,
अपनी अपाहिज बत्ती के साथ,
आज खामोश खड़ा था!
बजे दो,
हम चौकस थे!
मैं नीचे अहाते में आ बैठा था,
वो पोटली लिए,
शर्मा जी भी,
वहीँ आ बैठे थे,
ठीक ढाई बजे,
दस्तक हुई!
और आवाज़ आई,
"भाई साहब?"
"भाई साहब?"
आ गया था वो हलकारा!
मोहम्मद जमाल खान!
शर्मा जी ने,
पानी तैयार रखा था पहले से ही,
दस्तक फिर से हुई,
और अब मैं उठा,
चला बाहर,
दरवाज़ा खोला,
और मेरे सामने,
वही हलकारा खड़ा था!
मुस्कुराते हुए!
वो आगे बढ़ा,
वो बड़ी सी थैली,
ठीक की उसने!
"सलाम आलेकुम भाई साहब!" बोला वो!
"वालेकुम सलाम खान साहब!" मैंने कहा,
"क्या मौलाना साहब मिले आपको?" पूछा उसने,
"नहीं खान साहब" मैंने कहा,
चेहरे से झलकता नूर,
चला गया,
मेरा जवाब सुनते ही!
मायूस सा हो गया!
"कहाँ चले गए?" पूछा उसने,
"पता नहीं! बहुत ढूँढा, शायद रिहाइश बदल ली है उन्होंने" मैंने कहा,
"ओह, अब कैसे पता चले?" वो बोला,
"जानना चाहते हो खान साहब?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, मेहरबानी होगी आपकी!" खुश हो कर बोला वो!
"बता दूंगा, आप ये बताएं, दिन में कहाँ मुलाक़ात हो सकती है आपसे?" मैंने पूछा,
"वो बाहर मंदिर है न? वहीँ" बोला वो,
"ठीक है, मैं कल आता हूँ आपसे मिलने" मैंने कहा,
"ज़रूर! ज़रूर आइये! आपकी इस मेहरबानी का क़र्ज़ नहीं उतार सकता मैं भाई साहब! हुज़ूर!" वो बोला,
"आप अपना फ़र्ज़ निभा रहे हो! तो मैं अपने फ़र्ज़ से कैसे पीछे हट जाऊं!" मैंने कहा,
मुस्कुरा गया वो!
"मैं आता हूँ कल!" मैंने कहा,
"मुझे इंतज़ार रहेगा, आपकी क़दमबोशी का!" वो बोला,
मैं भी,
मुस्कुरा गया!
"ये लो, वो सामान" मैंने कहा,
"आप ही रखिये अभी" वो बोला,
"ठीक है" मैंने कहा,
"पानी पियोगे खान साहब?" शर्मा जी ने पूछा,
"ज़रूर! प्यास तो लगी है!" वो बोला,
"लीजिये फिर!" शर्मा जी ने,
जग आगे किया,
अब उसने,
हाथ से ओख बनायी,
और पानी पीने लगा,
एक बूँद भी,
नीचे नहीं गिरती थी!
तीन जग पानी पी लिया उसने!
और फिर,
अपनी उस फुनगीदार टोपी से,
लटकते हुए,
साफे से,
मुंह पोंछा!
"मुश्क़ भी भर दूँ?" शर्मा जी ने पूछा,
"जी! मेहरबानी!" वो बोला,
अब बाल्टी का सारा पानी,
उस मुश्क़ में डाल दिया!
उसने,
घूंसे मारकर,
जांचा,
पानी भर गया था!
"अब चलूँगा हुज़ूर!" वो बोला,
"ज़रूर!" मैंने कहा,
"आप आइये कल, इत्मीनान से बातें करते हैं" वो बोला,
"मैं ज़रूर आऊंगा खान साहब!" मैं बोला,
अब वो,
घोड़े पर चढ़ा अपने,
सलाम कहा,
हमने भी कहा,
और वो चला गया!
घोड़े के,
खुरों की आवाज़ें दूर तक आती रहीं!
और फिर बंद हो गयीं!
चला गया था गाँव से बाहर!
रात जैसे थम गयी!
आगे ही न बढ़े!
प्रभात को जैसे,
डाँट-डपट कर,
वहीँ खड़े रहने को कह दिया!
मैं सिरहाने रखी,
उस पोटली को,
हाथों से स्पर्श किये जाता!
आँखों में ही,
रात गयी,
किसी तरह!
सुबह के वक़्त,
आँख लगी,
प्रभात कब आया,
पता ही नहीं चला!
करीब नौ बजे,
मैं सो कर उठा,
स्नान आदि से निवृत हुआ,
फिर शर्मा जी भी,
आज साग बनाया हुआ था घर में,
उसके घोटे जाने की,
खुशबू आ रही थी!
लहसुन और हींग की!
पेट में,
आँतों ने करवट ली!
पेट ने मुंह खोला तब!
और फिर भोजन किया!
साग खाया,
मोटी मोटी पानी की,
चूल्हे की रोटियों के साथ!
देसी घी से लबालब कटोरा!
साथ में अचार,
घर का बनाया हुआ!
बाग़ से लायी हुई,
छोटी छोटी कच्ची,
साबुत अम्बियों का!
जब तक डकारों ने,
हार नहीं मान ली,
तब तक खाते ही रहे!
भर गया पेट!
और दिन से कहीं अधिक!
अब किया आराम!
और फिर हुई दोपहर!
अब जाना था हमे खान साहब के पास!
पता था नहीं,
वो मंदिर कहाँ है,
ये न मुझे पता था,
और न, भास्कर साहब को!
इसीलिए,
मैं और शर्मा जी ही चले अब बाहर,
गाँव से बाहर आये,
एक पीपल के नीचे,
अब मैंने अपना कारिंदा,
सुजान, हाज़िर किया!
उसे भेजा,
वो गया,
और वापिस आया!
ले आया था पता!
जो निशानियाँ बतायीं उसने,
हम चल पड़े उधर,
पोटली,
शर्मा जी के पास थी!
बीहड़ था वहाँ!
जंगली झाड़-झंखाड़ के अलावा,
कुछ नहीं था!
अमर बेलों ने,
पेड़ों को गुलाम बना दिया था अपना!
पेड़, उन बेलों को,
उठाये पड़े थे, किसी पालकी की तरह!
हम और आगे बढ़े,
तभी एक दुमई सांप दिखा,
धूप ले रहा था!
हम उस से बचकर आगे बढ़ गए,
एक नाला सा पड़ा,
सूखा पड़ा था,
बरसाती था शायद,
उसको पार किया,
गाँव से अब हम कोई पांच किलोमीटर दूर थे,
कोई नहीं था वहाँ!
न कोई खेत, न कोई चारागाह!
बस कंटीली झाड़ियाँ!
अछूता स्थान था ये!
और तभी मेरी नज़र,
एक टूटे हुए से,
मंदिर पर पड़ी!
अब कुछ शेष नहीं था वहां,
मात्र उन दीवारों के सिवाय!
टूटे पत्थर,
नीचे गिरे थे!
पास में ही,
दीमक की बाम्बियाँ थीं!
दीमक रेंग रही थीं उन पर!
चीलों ने, वहाँ के पेड़ों पर,
घोंसले बनाये हुए थे!
सभी टुकर टुकर,
हमे ही देख रही थीं!
सम्भल सम्भल कर हम आगे बढ़े,
तभी मेरी बाजू से कुछ टकराया,
ये एक बर्रा था!
काट लिया था उसने!
भयानक दर्द हुआ!
लगा किसी ने दहकती सलाख मेरी बाजू में,
घुसेड़ दी हो!
मैंने फ़ौरन ही आक का पौधा ढूँढा,
मिल गया,
तोडा एक पत्ता, और उसका दूध लगा दिया,
बर्फ सी ठंडक मिली मुझे!
अब शर्मा जी ने, उस जगह को,
दबा दबा कर, उस बार्रे का डंक निकाल दिया!
नहीं तो पक जाता और मवाद पड़ जाती!
अब लोहे से रगड़ दिया,
चाबी के छल्ले से! इस से,
अब ये पकता नहीं और दर्द भी कम होने लगा!
अब और आगे बढ़े!
मैं बाजू को सहलाता सहलाता,
आगे बढ़ रहा था,
तभी एक गुहेरा दिखा!
काफी बड़ा था वो!
हमे ही देख रहा था!
वो आगे बढ़ा,
और हम रुके,
मैंने फ़ौरन एक डंडी तोड़ ली,
और कर दी उसकी तरफ!
अब शर्मा जी ने,
एक डंडी ली,
और अपने लाइटर से उसको जला लिया!
वो जली!
तो शर्मा जी ने, कुछ जलती हुई लकड़ियाँ उसके पास फेंकी!
अब भाग वो सरपट!
और जा छिपा झाड़ियों में!
अब आग बुझा दी,
और आगे बढ़े!
और आ गए एक साफ़ सी जगह!
यहां पीपल के पेड़ लगे थे!
बड़े बड़े!
सुनसान!
बियाबान!
जंगली क्षेत्र था ये!
यहीं होना चाहिए था उन खान साहब को!
डेढ़ सौ साल में,
क्या से क्या हो गया था यहां!
कभी इस मंदिर में,
दीये जलते होंगे,
लोगबाग आते होंगे,
रौनक रहती होगी!
और आज!
खामोशी से बैठा था वो मंदिर!
अब मैंने आवाज़ दी!
ज़ोर से!
चिल्ला कर!
"खान साहब?"
"खान साहब?"
दूर से कहीं,
घोड़े के हिनहिनाने की आवाज़ आई!
और सामने से,
दूर सामने,
एक घुड़सवार आते दिखाई दिया!
घोडा, सरपट भागे जा रहा था!
एक ही मिनट में,
घोडा धीमा हुआ!
और आया हमारे सामने!
वो मुस्कुराया!
धीरे धीरे चलता हुआ,
हमारे सामने आ गया!
और उत्तर गया घोड़े से,
घोड़े की गर्दन पर,
दो तीन थाप दी उसने!
"सलाम आलेकुम हुज़ूर!" वो अदब से बोला!
"वालेकुम सलाम खान साहब!" मैंने कहा,
इस धूप में,
उसका गोरा रंग, सुरमा लगी आँखें,
चमक रही थीं!
घोडा खड़ा हो गया,
पाँव फटकारता हुआ,
नथुने चौड़े कर,
साँसे लेता हुआ!
अपनी आँखों की,
पुतलियों को,
घुमाकर हमे देखता रहा!
मैंने उसके अयाल को हाथ लगाया!
बहुत शानदार घोडा था!
अयाल उसकी काफी करीने से कटी हुईं थी!
उसके गले और कंधे की,
