मुझे दे दी,
मैंने शर्मा जी को दे दी,
वो खुश हो गए,
माथे से जैसे,
पसीना झिड़का उसने!
और फिर,
एक बड़ी सी किताब निकाली,
इक डिब्बा,
उसमे क़लम दवात थी,
क़लम डुबोई उसने,
और मुझे दे दी,
"हुज़ूर, यहां दस्तख़त कर दें!" वो बोला,
मैंने क़लम ली,
मज़बूत कलेरी सरकंडे से,
बनी थी वो क़लम!
स्याही भी,
ख़ुशबूदार थी!
गहरे काले रंग की स्याही!
अब मैंने,
उर्दू में नाम लिख दिया,
उसने नाम पर,
फूंक मारी,
दो चार बार,
सुखाई गयी थी वो!
जब सूख गयी,
और किताब रख ली उसने वापिस,
और वो डिब्बा भी!
लकड़ी से बना,
शानदार डिब्बा!
चार गुणा छह इंच का रहा होगा!
"आपका बहुत अहसानमंद रहूँगा मैं हुज़ूर!" बोला वो!
मैं मुस्कुराया!
"जमाल साहब! कोई अहसान नहीं! आपकी मदद-ओ-इमदाद करना मेरा इंसानी फ़र्ज़ है!" मैंने कहा,
"आपको बेहद तक़लीफ़ दी मैंने, मुआफ़ी चाहूंगा, अब चलता हूँ" वो बोला,
"पानी नहीं पियेंगे?" मैंने पूछा,
"जी, ज़रूर पिऊंगा, आप पिलाएंगे तो!" वो बोला,
"और मुश्क़ भरी है?" मैंने पूछा,
"देखता हूँ जी" वो बोला,
मुश्क़ में,
घूँसा मारा उसने,
और पानी डोलने की आवाज़ सुनी,
पानी कम था,
जितनी तेज आवाज़,
उतना कम पानी!
"भरवा देता हूँ!" मैंने कहा,
मुस्कुरा गया वो!
अब पानी ले आये शर्मा जी,
उसने फिर से,
छह लोटे पानी पिया,
और उसकी मुश्क़ भी,
भर दी हमने!
वो बहुत खुश हुआ!
"जमाल साहब, एक बात कहना चाहूंगा" मैंने कहा,
"जी! ज़रूर, फ़रमाइये?" वो बोला,
"ग़र मौलाना साहब, न मिले मुझे, तो क्या होगा?" मैंने पूछा,
"ग़र न मिलें, तो मैं एक महीने बाद आऊंगा, आज के ही दिन, ले जाऊँगा वापिस, आप फ़िक़्रमंद न हों हुज़ूर!" वो बोला,
"ये सही रहेगा!" मैंने कहा,
"अब चलता हूँ हुज़ूर!" वो बोला,
"जी" मैंने कहा,
अब उसने अपना घोड़ा घुमाया,
और अब चढ़ा उस पर,
हमे देखा,
"सलाम हुज़ूर!" वो बोला,
"सलाम जमाल साहब!" मैंने कहा,
और वो दौड़ पड़ा आगे!
घोड़ा हिनहिनाया उसका!
और चला गया,
दूर अँधेरे में!
अब हम अंदर आये,
वो पोटली देखी,
चमकदार थी,
सुनहरी सी!
काफी भारी थी!
न जाने क्या बंधा था उसमे!
मैंने उसको हिला के देखा,
कोई आवाज़ नहीं आई!
कोई ठोस चीज़ नहीं लग रही थी उसमे!
हाथ की सिलाई थी,
हाथ की सिलाई से,
बनी थी ये पोटली!
काम बेहद,
शानदार था!
वक़्त की गर्द भी,
गला न सकी थी उसको!
अब ये देखना था कि,
उस पोटली में है क्या!
तभी कुछ पता चलता!
दिल धड़क रहा था!
बहुत तेज़!
बहुत तेज़!
कांपते और लरजते हुए,
हाथों से मैंने वो रस्सी खोलने की,
कोशिश की,
कोई मोहर आदि नहीं लगी थी,
दो रस्सियाँ बंधी थीं,
रस्सियाँ, मज़बूत,
रेशों से बनायी गयी थीं,
प्राकृतिक छल से,
वो कट तो ज़रूर सकती थीं,
लेकिन टूट नहीं सकती थीं!
मैं, शर्मा जी और भास्कर साहब,
और वो अनुज,
साँसें थामे देख रहे थे!
ऐसा सामान मैंने पहले भी देखा था,
एक बार,
मुरादाबाद में,
ऐसे ही एक प्रेत ने,
मुझे एक पोटली दी थी,
कि ये पोटली उसके पोते को दे दी जाए,
उस पोटली में स्वर्ण की तीन सौ गेंद थीं,
एक एक गेंद साढ़े दस ग्राम की थी!
मुझे कभी उसका पोता नहीं मिला,
न परपोता ही,
आखिर में,
मुझे वो स्वर्ण माँ गंगा में ही प्रवाहित करना पड़ा,
न तो वो मेरी अमानत थी,
न मेरा अपना धन,
न मेरा पैतृक धन,
मेरा कोई अधिकार नहीं था,
मैं नहीं चाहता था कि उस प्रेत का धन,
किसी को दूँ,
और वो,
अय्याशियों में लगे,
इसी कारण से,
मैंने प्रवाहित कर दिया था!
अब ये पोटली!
ये भी मेरी अमानत नहीं थी!
ये तो,
मुझे मेरे विश्वास पर दी गयी थी,
कि ये मैं,
उन मौलाना साहब को दे दूँ,
अब, न मौलाना साहब ही थे,
और उनके ख़ानदान का,
मुझे रत्ती भर भी नहीं पता था!
लेकिन इसको खोलना ज़रूरी था,
ताकि,
आगे का रास्ता खुले,
अब मैंने वो रस्सी खोली,
रस्सी खुली,
फिर दूसरी रस्सी खोली,
पहली,
लाल रंग की थी,
दूसरी काले रंग की,
दूसरी भी खोली,
वो भी खुल गयी,
अब मैंने उस पोटली का मुंह चौड़ा किया,
अंदर झाँका,
अंदर एक और काली पोटली थी,
ये भी बंधी थी,
अब ये भी खोली,
और उसमे से एक और पोटली निकली!
लाल रंग की,
अब वो खोली,
उसमे, एक बड़ी सी पोटली थी,
और दो छोटी पोटलियाँ,
पहले बड़ी पोटली खोली,
इसमें एक ख़त था!
मौलाना साहब के नाम!
और लिखने वाले थे मोहम्मद सलीम शाह साहब!
बरेली का पता था उसमे!
मैंने ख़त पढ़ा,
उर्दू में लिखा था ये ख़त,
और जो पता चला,
उस से मैं भावुक हो गया!
मौलाना साहब ने अपनी लड़की ब्याहनी थी,
पैसे की हालत ठीक नहीं थी उनकी,
मौलाना साहब का बेटा छोटा था तब,
तब वे शाह साहब से मिले,
शाह साहब के बेटों को,
पढ़ाई करायी थी मौलाना साहब ने,
और अब बेटी के ब्याह के उस मौके पर,
शाह साहब ने,
मौलाना साहब के लिए,
ये मदद भेजी थी,
मैंने,
पोटली खोली,
इसमें, बेहतरीन कपड़े थे!
चार बुर्क़े, और भी कई महंगे कपडे!
अब छोटी पोटली खोली,
इसमें स्वर्ण था, जेवर! गिन्नियां!
करीब चार सौ ग्राम!
शुद्ध स्वर्ण!
चांदी,
करीब, एक किलो!
दिल धड़क उठा मेरा!
उस लड़की की कल्पना कर ली मैंने तो उसी क्षण!
जनाब सलीम शाह की इंसानियत के,
कसीदे पढ़ने लगा मैं!
अब तीसरी पोटली खोली!
इसमें अंग्रेजी सिक्के थे!
चांदी के! उस समय ये एक मोटी रक़म थी!
मेरे हाथ काँप गए!
और फिर,
दिल रो पड़ा!
ऐसा क्या हुआ था?
जिसके कारण,
ये सामान, ये अमानत,
न मिल सकी मौलाना साहब को?
क्या हुआ उस अभागी लड़की का?
क्या हुआ था?
मन में,
दर्द उभरा!
और ये हलकारा,
बेचारा,
क्यों नहीं पहुँच सका?
क्या वजह हुई?
दिल में,
कांटे चुभ गए!
इतिहास,
सब छिपाए हुए था!
अपने परदे के पीछे!
बहुत कुछ था इसके पीछे,
और अब!
ये पर्दा फाड़ना था!
झांकना था!
असलियत से, अब,
रु-ब-रु होना था!
ये बेहद अहम था!
बेहद अहम!
मैं धम्म से कुर्सी पर बैठ गया!
अनुज और भास्कर जी ने,
वे सिक्के उठाये,
और ले जाने लगे,
दिखाने दूसरे सदस्यों को!
मैंने मना कर दिया,
ये हमारी अमानत नहीं थी,
ये मौलाना साहब की अमानत थी,
जो सलीम साहब ने भेजी थी,
मौलाना साहब के बेटी के,
निक़ाह के लिए,
तो ये अमानत अब उस बेटी की थी,
उस बहन की थी,
जिसका पता नहीं क्या हुआ होगा,
दिल में टीस उठने लगी!
जैसे,
वो मेरी ही बहन थी,
मेरी ही,
कोई अपनी!
वो मौलाना साहब,
बाप थे उस लड़की के,
एक बाप पर क्या गुजरी होगी,
मन उदास हो गया बहुत!
शर्मा जी भी,
गहरी सोच में डूब गए!
न जाने क्या क्या,
होता है दुनिया में!
हम सोचते क्या है,
क्या मंसूबे बनाते हैं,
सब के सब,
उस ऊपरवाले के,
एक चाबुक में,
धुंआ हो जाते हैं!
अब यही पता लगाना था!
और इसका पता,
मुझे मेरे स्थान से ही चलता!
अब मेरे पास, आवश्यक,
वस्तुएं भी थीं!
काम आराम से हो जाता!
रहस्य से पर्दा,
उठ जाता!
सारी कहानी,
सामने आ जाती!
इतिहास,
उठा देता पर्दा!
अब मैंने सारा सामान,
जस का तस उस पोटली में भरा,
सारी पोटलिया,
उस बड़ी पोटली में भरीं,
और उस बड़ी पोटली को,
अब उन रस्सियों से बाँध दिया!
जस का तस!
आज निकलना था यहां से!
हम नहाये-धोये,
निवृत हुए,
चाय नाश्ता किया,
उसके बाद,
थोड़ी देर बाद,
किया भोजन,
और फिर कुछ आराम!
जल्दी पड़ी थी बहुत!
कब निकलें यहां से और कब,
अपने स्थान पहुंचें!
ताकि सारी कहानी पता चले!
मित्रगण!
दोपहर को कोई,
दो बजे,
शिकंजी पी,
हम निकल पड़े अपने स्थान के लिए!
और शाम तक,
हम पहुँच गए अपने स्थान!
भास्कर साहब,
जो चाहते थे,
वो हो ही गया था,
अब नहीं आने वाला था,
वो हलकारा उनके घर,
अब वो,
एक महीने बाद ही आता!
वो पोटली,
हम ले ही आये थे अपने संग!
भास्कर साहब बैठे कुछ देर,
चाय पी,
और उसके बाद,
उन्होंने विदा ली!
वे तो चले गए,
और फंस गए हम!
अब,
बेचैनी साथ ही न छोड़े!
उस रात क्रिया नहीं की जा सकती थी,
क्रिया,
दो दिन बाद ही की,
जा सकती थी!
और ये दो दिन,
और एक रात!
मानों,
जैसे कई साल के बराबर लग रहे थे!
बड़े बेचैन थे!
न खाना ही अच्छा लगे,
न घूमना ही,
न मदिरा ही,
मदिरा तो,
और शूल गड़ा देती थी!
ध्यान केंद्रित हो जाता था!
और फिर सामने,
वही हलकारा आ खड़ा होता था!
मुस्कुराता!
शीरी ज़ुबान के शीरी अलफ़ाज़!
वो रात बीती,
अगला दिन आया,
किसी तरह,
वो पहाड़ सा दिन भी काटा!
वो रात भी,
और फिर अगला दिन भी!
फिर आई रात!
आज तेजी थी!
मेरे हर काम में तेजी!
आज!
कर्ण-पिशाचिनी का आह्वान करना था!
आया उचित समय!
मैं भोग आदि लेकर,
और वो,
पोटली लेकर,
चल पड़ा अपने,
क्रिया कक्ष में!
लप्प-झप्प में,
अपना आसन बिछाया!
और अलख उठा दी!
समस्त नमन किये!
भोग-थाल सजाये,
दीप जलाये!
और कर दिया आह्वान मैंने!
करीब आधा घंटा हुआ!
और मदमाती,
इठलाती,
काम-सुंदरी की तरह,
कर्ण-पिशाचिनी प्रकट हुई!
अट्ठहास किया उसने!
और प्रयोजन पूछा!
मैंने प्रयोजन बता दिया!
भोग लेने के पश्चात,
वो लोप हुई!
और मेरे कानों में,
उसके भीषण स्वर गूंजे!
और जो मुझे पता चला,
वो बहुत ही दर्दनाक कहानी थी,
ऐसी एक कहानी,
जो करीब डेढ़ सौ सालों से,
दफन थी.
वक़्त के क़ब्रस्तान में!
आज उठ गया था पर्दा!
इतिहास ने,
खोल दिया था वो कक्ष,
जिसमे,
ये कहानी थी,
इसके अवशेष थे!
कहानी कुछ यूँ है,
मेरे शब्दों में,
इस गाँव में,
जहां आज भास्कर परिवार रहा करता है,
यहीं करीब डेढ़ सौ साल पहले,
एक मौलाना हफ़ीज़ साहब रहा करते थे,
बेहद शरीफ और क़ाबिल इंसान था वे,
तब हिन्दुस्तान के किसी भी हिस्से में,
हिन्दू-मुस्लिम तहज़ीब में बहुत प्रेम था!
सभी एक दूसरे के सुख-दुःख में शरीक़ हुआ करते थे!
सियासी माहौल नहीं था!
मंदिर और मस्जिद,
सभी आमने सामने थीं!
सभी मान करते थे उनका!
आपसी प्रेम बहुत हुआ करता था!
ऐसे ही ये मौलाना साहब भी थे!
अच्छा रुतबा था उनका गाँव में,
दोनों ही क़ौमों में,
वे सभी के काम आते!
सभी बालकों को,
बालिकाओं को,
किसी भी तबके के ही हों,
बराबर तालीम दिया करते थे!
मौलाना साहब के दो औलाद थीं,
एक बेटी और एक बेटा,
जब बेटी जवान हुई,
तो चिंता हुई मौलाना साहब को,
एक रिश्ता आया,
बहुत उम्दा रिश्ता था ये,
मौलाना साहब, वापिस नहीं जाने देना चाहते थे ये रिश्ता,
अब फ़िक़्र थी तो बस इंतज़ामात की,
इसके लिए,
उन्होंने अपने रिश्तेदारों से,
दोस्तों से,
सबसे मदद की गुहार की,
सभी ने अपने अपने सामर्थ्य से,
मदद की,
ऐसे ही एक थे उनके जानकार,
वे बरेली में थे,
मौलाना साहब उनसे मिले,
और बताया उन्हें,
सलीम साहब ने उनको मदद करने का वायदा किया,
और भेज दिया इत्मीनान के साथ,
सामान इकठ्ठा करने में,
उन्हें कुछ दिन लगे,
और जब इंतज़ाम हो गया,
तो एक हलकारे को,
वो सामान,
उस फलां गाँव में,
फलां आदमी को देने के लिए भेजा,
हलकारा, साहब का जानकार था,
अगले दिन शाम को,
वो हलकारा,
चल पड़ा सामान देने,
कुछ और भी सामान था उसके पास,
वो देता गया सभी को,
और जब वो,
उस गाँव तक पहुंचा,
बारिश हुई बहुत तेज,
तब वो हलकारा,
उस गाँव के पास बने एक मंदिर में पहुंचा,
यहां उसे,
पंडित तिलकराज जी मिले,
उन्होंने उस हलकारे की मदद की,
रात बिताने के लिए,
जगह दी,
और भोजन भी दिया,
हलकारे ने खाया,
और सो गया,
सुबह वो उठा, स्नान आदि किया,
और रात के बचा खाना खाया,
पंडित जी से मिला और निकल गया,
ये अल-सुबह का वक़्त था!
कोई साढ़े चार का समय रहा होगा,
हलकारे का घोड़ा भागे जा रहा था,
रास्ता कच्चा था,
झाड़ियाँ थीं,
पानी भरा पड़ा था,
और एक जगह,
जब वो हलकारा,
निकला एक पेड़ के नीचे से,
तो दूसरा पेड़ झूल गया उसके ऊपर!
जड़ समेत उनके ऊपर गिरा वो पेड़,
पेड़ पीपल का था,
बहुत बड़ा पेड़ रहा होगा वो!
उसका घोड़ा भी दबा,
और वो भी,
वो चिल्ला भी न सका,
और उसी जगह वो हलकारा,
मारा गया!
हलकारा मोहम्मद जमाल खान!
ये थी कहने मोहम्मद जमाल खान,
हलकारे के!
अब सवाल ये,
कि वो हलकारा,
इतने साल कहाँ रहा?
यही तो है असली कहानी!
असली तथ्य!
जब किसी व्यक्ति का पुनर्जन्म होता है,
वो,
कम से कम बारह वर्ष बाद होता है!
ये बारह वर्ष,
कहाँ रहता है वो?
ये है एक अदृश्य योनि!
जिसके बारे में,
बहुत कम ज्ञाता है!
इसको भूत-योनि भी नहीं कहा जाता,
ये एक अदृश्य योनि है,
इसमें वो आत्मा,
क़ैद रहती है!
उसकी चेतना,
स्मृतियाँ,
सब क़ैद!
बस,
इस हलकारे के साथ,
ये अदृश्य योनि,
डेढ़ सौ साल की थी!
देश सौ साल बाद,
वो प्रेत योनि में आया!
स्मृतियाँ जागीं,
फ़र्ज़ याद आया!
और इसीलिए,
वो हलकारा,
भास्कर साहब के यहां आया था!
वहीँ क्यों?
क्योंकि डेढ़ सौ साल पहले,
ये आधा मकान,
पीछे का,
उन्ही मौलाना साहब का मदरसा था!
अब मौलाना साहब का क्या हुआ?
उनकी बेटी का?
मौलाना साहब के पास,
सलीम शाह साहब की भेजी वो मदद,
न आ सकी!
