''अच्छा!" बोला अनुज!
"जी, अब चलता हूँ, मुआफ़ कीजिये, आपको तकलीफ दी" बोला वो चढ़ गया घोड़े पर!
भास्कर जी,
सब समझ गए!
गाँव के बाहर कोई मंदिर नहीं है!
कभी रहा हो,
तो हो सकता है,
लेकिन अनुज!
अनुज को बहुत अच्छा लगा ये,
सीधा साधा हलकारा!
बेचारा,
अपने काम पर ही तो लगा था,
मौलाना हफ़ीज़ साहब को ढूंढ रहा था!
"अच्छा जी, सलाम!" बोला वो!
"सलाम" बोला अनुज!
और अब,
वो हलकारा,
अपने घोड़े को,
एड़ लगाता हुआ,
चला गया वापिस!
दूर तक,
घोड़े के खुरों की टाप,
आती रही!
और कुछ देर बाद,
वो भी आना बंद हो गयीं!
अँधेरे से आया,
अँधेरे में ही,
गायब हो गया!
सन्न रह गए भास्कर जी!
अब तो रोज ही आने लगा था ये!
भय उठ चला!
उलटी-सीधी सोच,
सर चढ़ चली!
किसी तरह से सुबह हुई!
और भास्कर जी,
भागे मेरे पास!
और ये पूरी कहानी,
कह सुनाई!
एक बात स्पष्ट थी!
हलकारा जो कोई भी था,
आक्रामक नहीं था!
सीधा-साधा और,
सरल व्यक्ति था!
कहीं दुबारा आ जाए,
और कि मुसीबत खड़ी हो जाए,
इस से पहले वो,
रोकना चाहते थे,
इस हलकारे को!
इसीलिए आये थे मेरे पास!
ये कहानी जानकर तो,
प्रबल उत्कंठा जाएगी!
गाला ही दबोच लिया उसने तो!
सांस,
ऊपर की ऊपर,
और नीचे की नीचे!
कैसी कैसी छवि बना ली मैंने तो,
उस हलकारे की!
नोहम्मद जमाल खान!
बरेली से आया था वो!
मौलाना साहब को,
उनका कुछ सामान देने,
और कुछ खबर करने!
अगर पता यहीं का लिखा था तो,
भास्कर साहब से पूछना था इस विषय में,
वही बता सकता थे,
वो हलकारा,
दो बार आया था,
एक ही पते पर,
इसका मतलब था,
हलकारे के पास जो पता था,
वो सही था,
उसके कोई ग़फ़लत नहीं थी,
किसी भी क़िस्म की!
और उसका व्यवहार!
वो तो कमाल का था!
तज़ीब भरा!
शालीन!
और दो बार उसने पानी पिया था,
अपनी खाली मुश्क़ भी भरवाई थी,
एक बात और,
उसने कहा था,
कि,
वो गाँव के बाहर बने,
एक मंदिर में ठहरा हुआ है,
और जो पंडित जी हैं वहाँ,
उनका नाम तिलकराज है!
ये भी एक बढ़िया जानकारी थी!
अब इन्ही जानकारी के सहारे,
इस हलकारे की मदद करनी थी!
अब मैंने,
भास्कर साहब से ही पूछा,
'आप कब से रह रहे हैं इसी गाँव में?" मैंने पूछा,
"हमारे तो बाप दादा इसी गाँव में पले बढ़े!" वे बोले,
ये तो काफी लम्बा अरसा था!
"क्या इसी मकान में?" मैंने पूछा,
"नहीं, पिताजी के समय में, ये मकान बनवाया था, हम तब गाँव के अंदर रहा करते थे" वे बोले,
ये थी काम की बात!
"तो पिता जी के समय में, जब आप यहाँ आये तो यहां कोई मौलाना साहब रहते थे?" मैंने पूछा,
"मुझे याद नहीं, बहुत समय बीत गया है" वे बोले,
"याद करो?" मैंने कहा,
"इतना याद है, कि घर में कोई ठठेरा रहा करता था" वे बोले,
"ठठेरा?" मैंने कहा,
"हाँ जी" वे बोले,
अब पड़ा मैं सोच में!
"गाँव में मुस्लिम आबादी कैसी रही होगी तब?" मैंने पूछा,
"बहुत थी जी, आज भी है" वे बोले,
बस यहीं था वो सूत्र,
जो मिल नहीं रहा था,
खैर,
पता करना था ये भी,
दिल्ली से ज़्यादा दूर नहीं है उनका गाँव,
तो सोचा कि,
आज ही चला जाए,
और हम तैयार हो गए!
उसी समय हम निकल पड़े,
रास्ते में एक जगह,
चाय-पकौड़े खाये,
और फिर सीधा गाँव ही जाकर रुके!
खूबसूरत गाँव है उनका!
जब हम पहुंचे,
तो अजान हो रही थी!
शुभ समय पर पहुंचे थे!
घर में चले,
आराम किया,
चाय पी,
और फिर अनुज भी आ गया,
उसने जो वर्णन किया,
उस हलकारे का,
तो उत्कंठा ने कुंडली खोली!
और गर्दन की इर्द गिर्द,
मार दी कुंडली!
उसकी कद-काठी,
रूप,
उसकी वर्दी,
उसकी तहज़ीब,
बेहतरीन थी!
मैं मिलना चाहता था उस से!
अब रहा नहीं जा रहा था!
इतिहास का,
एक पन्ना खुलने,
जा रहा था!
और भी न जाने,
दफन था इस हलकारे के साथ!
अब हुई शाम!
और लगी हुड़क!
हुड़क मिटाने का,
सारा बंदोबस्त था!
और हम मढ़ गए,
करीब नौ बजे,
भोजन इत्यादि कर,
आराम से सोने चले गए!
फिर से बातें होने लगीं!
फिर से वही हलकारा!
रात के दो बजे,
वो दस्तक देता था!
इसलिए दो बजे जागना था!
हम सो गए,
और देखिये,
ठीक डेढ़ बजे,
मेरी आँखों से नींद छू हो गयी!
मैं उठ बैठा!
और छत की मुंडेर से,
बाहर झाँकने लगा!
अँधेरा था वहाँ!
बस,
शौचालय में,
एल बत्ती जली थी,
उसको भी,
कीट-पतंगों ने,
वीभत्स कर दिया था,
चूम चूम के!
अब बजे दो!
शर्मा जी को जगाया मैंने,
वे भी जागे,
और हम, टकटकी लगाए,
सामने उस,
नीम के पेड़ को देखने लगे!
कि अभी आएगा वो!
अभी आएगा!
भास्कर जी,
हमारे पास चले आये,
और आ बैठे!
सवा दो हो गए!
कोई नहीं आया!
दिल धड़का अब!
कि इस पल!
बस!
इस पल!
एक एक पल बीता!
एक एक पल,
एक बरस जैसा!
ढाई बजे!
कोई नहीं आया!
अब मायूसी छायी चेहरे पर!
ये क्या हुआ?
क्यों नहीं आया?
आज क्या बात हुई?
हमारी भनक लग गयी क्या?
फिर क्या हुआ?
मौलाना साहब मिल गए क्या?
मिल गया पता?
न!
कुछ और न!
समझ ही न आये!
सोच की,
दलदल में पाँव तो क्या,
समूचा बदन ही धंस गया!
तीन बज गए!
कोई नहीं आया!
मैं लेट गया,
शर्मा जी भी लेटे,
और भास्कर साहब,
अब नीचे चले!
कोई पौने चार बजे,
दरवाज़े पर,
दस्तक हुई!
कान खड़े हुए मेरे,
श्वान की तरह,
मैं उठा,
शर्मा जी उठे!
और भास्कर साहब, हाँफते हुए ऊपर आये!
अनुज भी आ गया!
अब मैं नीचे भागा!
शर्मा जी के साथ!
फिर से दस्तक हुई!
मैंने झट से दरवाज़ा खोला!
सामने,
मेरे सामने,
एक लम्बा-चौड़ा आदमी खड़ा था!
सर पर,
लाल-काले रंग की फुनगी वाली टोपी पहने!
अंग्रेजी वर्दी पहने!
सीना, चंदे की पेटियों में कसा हुआ,
बड़ा चौड़ा सीना था उसका!
मेरे जैसे ढाई आ जाते!
पहलवान!
उसकी कलाइयां ऐसी,
जैसे मेरी पिंडलियाँ!
गोरा रंग!
आँखों में सुरमा!
छोटी से करीने से रखी दाढ़ी!
हंसमुख चेहरा!
निक्कर पहना था,
घुटने तक का,
पिंडलियाँ ऐसी थीं जैसे,
खम्बा कोई!
मज़बूत देह!
"सलाम आलेकुम!" वो बोला,
पूरी तहज़ीब से!
"वालेकुम अस सलाम!" मैंने भी अदब से कहा,
क्या दमदार आवाज़ थी!
रौबदार!
"जी मुआफ कीजियेगा, मुझे मौलाना साहब से मिलना है, इंतहाई ज़रूरी है!" वो बोला,
"मौलाना साहब से?" मैंने पूछा,
"जी हुज़ूर! क्या आपकी वाक़फ़ियत है उनसे? मैं बड़ा परेशान हूँ, वे मिले जाएँ तो उनको उनकी अमानत सौंप दूँ!" वो बोला!
"क्या अमानत है उनकी?" मैंने पूछा,
"जी ये पोटली है, बरेली वाले शाह साहब हैं न? उन्होंने भेजी है!" वो बोला,
और उसने वो पोटली,
घोड़े पर लगी,
बड़ी सी बोरी से निकाल कर,
दिखाई मुझे!
उर्दू में लिखा था,
मैं बांच गया,
मौलाना हफ़ीज़!
गाँव का नाम भी यही था!
अफ़सोस!
मौलाना साहब नहीं थे अब यहां!
"क्या है इसमें?" मैंने पूछा,
"जी, मुझे नहीं मालूम" वो बोला,
'अच्छा" मैंने कहा,
और तभी बेला के इत्र की सुगंध आई!
घोड़े ने, पाँव और,
अपने पूंछ फटकारे!
"क्या अंदर हैं मौलाना साहब?" पूछा उसने,
मुझे बहुत तरस आया!
ये हलकारा,
आज भी अपने कर्त्तव्य पर डटा है!
मौत के बाद भी!
"जी नहीं, वे यहां नहीं हैं" मैंने कहा,
मायूस हो गया बेचारा!
पोटली, वापिस बोरी में डाल दी,
"एक गुजारिश है" वो बोला,
"जी, बोलिए?" मैंने कहा,
"वो एक भाई-जान पानी पिलाते हैं, सुबह से घूम रहा हूँ, ज़रा पानी मिल जाए, तो बड़ी मेहरबानी होगी आपकी" वो बोला,
"ज़रूर!' मैंने कहा!
शर्मा जी, वापिस गए,
और पानी की बाल्टी ले आये,
लोटे से पानी पिलाया उसको,
छह लोटे पानी पिया उसने!
"जी मुश्क़ भी भर लूँ? आप कहें तो?" उनसे पूछा,
"हाँ! हाँ! क्यों नहीं!" मैंने कहा,
अब शर्मा जी गए,
पानी लाये,
दो बाल्टी पानी,
आ गया मुश्क़ में!
"आपकी बहुत बहुत मेहरबानी हुज़ूर!" वो बोला,
मैं उसकी,
सादगी पर,
तहज़ीब पर,
मुस्कुरा गया!
"आपका नाम क्या है?" मैंने पूछा,
"जी, मोहम्मद जमाल खान" वो बोला,
"कहाँ के रहने वाले हैं आप?" मैंने पूछा,
"जी बरेली के पास एक गाँव है, ***** नाम का, वहीँ रहता हूँ" वो बोला,
नाम बता दिया उसने!
"और अब कहाँ ठहरे हुए हो? मैंने पूछा,
"जी गाँव के बाहर, एक मंदिर हैं, वहाँ पंडित तिलकराज जी रहते हैं, वहीँ रुका हूँ, बड़े भले आदमी हैं" वो बोला,
"अच्छा!" मैंने कहा!
अब वो अपने घोड़े पर चढ़ा,
घूमा,
और हमे देखा,
"ज़हमत उठाने लिए, मैं कर्ज़दार हूँ आपका!" वो बोला,
"कैसी ज़हमत?" मैंने पूछा,
"जी, इतनी बातें करने के लिए!" वो मुस्कुरा के बोला,
"कोई बात नहीं!" मैंने कहा,
"अब इज़ाज़त दें, अब चलूँगा!" वो बोला,
"ज़रूर!" मैंने कहा,
"सलाम!" वो बोला,
"सलाम खान साहब!" मैंने कहा,
वो आगे चल चुका था,
सलाम कहते ही,
जब मैंने कहा,
तो रुक गया!
मुझे देखा,
मैं आगे गया,
"कहाँ के साहब हुज़ूर!" वो बोला,
और बढ़ गया आगे!
दूर,
आवाज़ें आती रहीं,
घोड़े की टाप की!
और फिर,
वे भी ओझल हो चलीं!
उस बाकी रात,
नींद नहीं आई!
आनी ही किसे थी!
मैं तो और ज़्यादा परेशान हो चला था!
उस हलकारे ने तो,
जैसे चैन उड़ा लिया था!
क्या खूब तहज़ीब झलकती थी!
सच में,
उसके बोलने का तरीका,
शालीनता ज़ाहिर करता था!
ईमानदारी भरी पड़ी थी!
बस उस बेचारे को,
मौलाना साहब नहीं मिल रहे थे!
अब जिस समय ये मौलाना साहब,
रहे होंगे,
उस समय ये हलकारा चला होगा बरेली से!
रास्ते में क्या हुआ,
यहीं आकर उलझ जाते थे हम!
ये न उसे मालूम था,
और न हमे!
अब यहीं आकर,
कर्ण-पिशाचिनी का आह्वान किया जाता है,
वो बताती तो है,
लेकिन अपनी ही डामरी भाषा में,
जैसे समय को घोत,
पुरुष को शिंड,
स्त्री को भगा,
मृत्यु को काहूल,
ऐसे शब्द होते हैं उसके!
ये डामरी भाषा भी सीखी ही जाती है!
जिनका सम्पूर्ण अस्तित्व हुआ करता है,
उनसे डामरी भाषा में ही बातचीत होती है!
प्रेत, जिन्न, भूत ये,
हमारी ही भाषा जानते हैं और बोलते हैं,
जिनको अंग्रेजी का ज्ञान रहा होगा,
वो अंग्रेजी भी बोलते हैं,
ये हलकारा,
ख़ालिस उर्दू बोलता था!
जो उस समय,
शाही-ज़ुबान और लोकभाषा का,
दर्ज़ा ले चुकी थी!
कम से कम,
मुस्लिम-शासित प्रदेशों में!
उर्दू की एक ख़ासियत है,
इसने,
अपने अल्फ़ाज़ों के साथ,
दूसरी भाषा के भी कुछ अलफ़ाज़,
अपने में शामिल किये हैं,
जैसे डाक, टिकट आदि,
और इसके अलफ़ाज़,
सभी भाषाओं ने लिए हैं!
अंग्रेजी ने तो सबसे ज़्यादा,
जैसे पायजामा, चाौकीदार, खाकी आदि,
ऐसी ही ज़ुबान ये हलकारा बोल रहा था!
वर्दी अंग्रेजी थी उसकी,
इसका मतलब,
वो सरकारी मुलाज़िम रहा होगा,
लेकिन इसका पता लगाना बेहद मुश्किल था!
हाँ, गाँव का नाम था हमारे पास,
लेकिन अब तो,
कई पुश्तें गुजर गयी थीं!
अब पता लगाना मुमक़िन ही न था!
अब एकमात्र विकल्प,
ये कर्ण-पिशाचिनी ही थी!
वही बता सकती थी!
खैर साहब,
सुबह हुई!
हम फ़ारिग हुए!
बेल के इत्र की,
वो सुगंध,
अभी तक नथुनों में थी!
बेहतरीन इत्र रहा होगा वो!
चाय-नाश्ता किया,
और फिर बाद में भोजन,
और फिर आराम,
अब जैसे,
उस हल्कारे का इंतज़ार था!
मन में,
व्याग्रता थी बहुत!
व्याकुलता,
चरम पर,
जा पहुंची थी!
शाम हुई,
और फिर रात,
हम अपने अपने,
बिस्तर में जा घुसे!
इस बार,
भास्कर साहब भी हमारे साथ ही थे!
हम सो गए,
आराम से तो नहीं सोये,
लेकिन सो ही गए,
कोई दो बजे नींद खुली,
लगा,
जैसे घोड़े की टाप सुनी हो!
मैंने खिड़की से बाहर झाँका,
कोई नहीं था,
नीम के पेड़ के पास,
एक बिजली के खम्बे पर,
लगी लाइट,
कभी जलती थी,
कभी बंद हो जाती थी,
यही खेल चल रहा था उसका,
कभी फ़ड़फ़ड़ा उठती!
अब जागे शर्मा जी!
और फिर भास्कर साहब!
हम नीचे आ गए,
और आ बैठे अहाते में,
जहां कुर्सियां पड़ी थीं!
अँधेरा नाच रहा था!
प्रकाश से,
लोहा ले रहा था!
वो फड़फड़ाती हुई लाइट,
इस बार जल उठी!
कीट-पतंगे झपट पड़े!
और झम्म से फिर बंद हो गयी!
दो बज चुके थे!
कोई सवा दो बजे,
दस्तक हुई!
आ गया हलकारा!
उसी का इंतज़ार था!
दस्तक धीमी थी!
बहुत धीमी,
जैसे एक ऊँगली से ही,
दरवाज़े को ठोका गया हो!
मैं आगे बढ़ चला,
संग में शर्मा जी भी!
और दरवाज़ा खोल दिया!
सामने,
वहीँ हलकारा खड़ा था!
मुस्कुराते हुए,
वो पोटली लिए हुए!
"अस्सलाम आलेकुम!" वो बोला,
"वालेकुम सलाम!" मैंने कहा,
अब वो उतरा नीचे,
पोटली लिए हुए,
वही रोज़ का क़िस्सा!
"तक़लीफ़ के लिए मुआफ़ी चाहूंगा!" वो बोला,
"कोई तक़लीफ़ नहीं खान साहब!" मैंने कहा!
वो हंस पड़ा!
शालीनता से,
"मौलाना साहब तो हैं नहीं यहां?" मैंने काः,
"जी, आपने बता ही दिया था, मैं अर्से से ढूंढ रहा हूँ, मिले नहीं, आपकी वाक़फ़ियत है उनसे, मैं अब बार बार आपको तक़लीफ़ देने का वायज़ नहीं बनना चाहता" वो बोला,
वाक़फ़ियत!
उसको लग रहा था कि,
मैं जानता था मौलाना साहब को!
चलो कोई बात नहीं!
ऐसा ही सही!
कम से कम,
इसे सुक़ून तो मिले!
"तक़लीफ़ का वायज़? नहीं खान साहब! कैसे वायज़! आप अपनी रोजी का फ़र्ज़ पूरा कर रहे हैं!" मैंने कहा,
"जी ये तो ज़र्रानवाज़ी है आपकी, इस ख़ाक़सार के लिए!" वो बोला,
"ऐसा नहीं है खान साहब, क़तई नहीं!" मैंने कहा,
"आपसे कुछ कहना चाहूंगा, ग़र आप इज़ाज़त दें" वो बोला,
"जी कहिये?" मैंने कहा,
"मैं काफी अर्से से यहीं घूम-फिर रहा हूँ, माल-असबाब बहुत है, आप एक काम करें, ये मौलाना साहब का सामान, आप रख लें, आप जब भी मिलें उनसे, तो कहियेगा कि मोहम्मद जमाल खान हलकारा आया था, आप मिले नहीं तो उसने ये सामान आपको दे दिया है, आप ले लें अब" वो बोला,
ये कहाँ फंसा दिया जमाल खान ने!
किसी और का सामान,
मैं कैसे ले लूँ?
न जाने क्या हो?
एक मन तो किया,
कि मना ही कर दूँ,
और एक मन किया,
कि ले ही लूँ,
ताकि आगे रास्ता निकले कुछ!
"ज़रूर!" मैंने कहा,
"बड़ी मेहरबानी आपकी हुज़ूर, बड़ी मेहरबानी!" बोला हलकारा!
और वो पोटली,
काफी भारी थी वो पोटली!
