मध्यान्ह का समय था उस दिन,
अक्टूबर का महीना था,
बीस दिन बीत चुके थे,
हवा में ठंडक थी,
और मौसम खुशगवार हो चला था अब!
मैं और शर्मा जी,
एक रेलवे स्टेशन पर बैठे थे,
छोटा सा स्टेशन था ये,
बदायूं से थोड़ा पहले,
यहां में अपने जानकार,
मीर साहब से मिलने आया था,
ब्याह हुआ था मीर साहब के पुत्र का,
इसी अवसर पर आये थे हम!
सबकुछ सही निबट गया था,
और वे लोग,
हमे स्टेशन छोड़ने भी आये थे,
स्टेशन के बाहर ही,
हमने उनसे विदा ले ली थी,
यहां से अब हमे गाड़ी पकड़नी थी,
यहाँ से बरेली जाना था,
वहाँ कुछ काम था,
और फिर बरेली से ही वापिस होना था,
गाड़ी आई,
और हम चढ़े,
बैठ गए,
अधिक लम्बा सफर था नहीं,
आराम से कट गया रास्ता,
बरेली पहुंचे,
अपना काम निबटाया,
और फिर शाम को ही,
भोजन आदि से फारिग हो,
रात्रि में,
गाड़ी पकड़,
दिल्ली को रवाना हो गए!
गाड़ी फास्ट पैसेंजर थी!
सुबह ही पहुंची!
कहिर,
आराम से कटी रात!
कोई दिक्कत नहीं हुई!
यहां से हम दोनों,
अपने अपने निवास के लिए चले आये!
अगले दिन मिले,
और फिर,
वहाँ से अपने स्थान के लिए,
रवाना हो गए!
दो दिन बीत गए,
कोई दो दिन बाद,
मेरे पास मेरे एक जानकार,
आये, मिलने के लिए,
भास्कर नाम हैं उनका,
जिला मुज़फ्फर नगर के एक,
गाँव में रहते हैं!
गाँव,
काफी पुराना है उनका,
और काफी समृद्ध भी!
हालचाल पूछा गया,
कारोबार की बातें हुईं,
उनका अपना कारोबार है,
आढ़ती हैं वो लकड़ियों के,
काम अच्छा है,
कुशल से रहता है उनका संयुक्त परिवार!
घर में,
उनके बड़े भाई,
उनका परिवार,
एक छोटा भाई,
उनका भी परिवार,
सभी संग ही रहते हैं,
आजकल,
संयुक्त परिवार बिखरते जा रहे हैं,
एकल हो चले हैं,
ये सब,
आधुनिकता का दंश है!
उसी का परिणाम है!
अब लोगों में,
ऐसा प्रेम-भाव नहीं मिलता!
अब तो सभी,
अपने आप में ही मस्त हैं!
खैर,
एक अजीब सी बात बतायी उन्होंने,
उन्होंने बताया,
कि दो दिन पहले,
वे घर में ही सोये हुए थे,
कोई दो बजे रात को,
दरवाज़े पर,
दस्तक हुई,
उनकी आँख खुली,
वे उठकर बाहर आये,
तब तक उनके बड़े भाई के बड़े लड़के,
अनुज भी जाग चुके थे,
चाचा-भतीजा,
दोनों ही चले बाहर के दरवाज़े की तरफ!
फिर से दस्तक हुई!
कौन हो सकता है?
इतनी रात गए?
कौन है?
दरवाज़ा खोला अनुज ने,
बाहर,
कोई भी नहीं था!
कोई भी नहीं!
वे बाहर आये,
बाहर भी देखा,
कोई नहीं था!
हैरान हुए वो दोनों!
अब पीछे मुड़े,
जैसे ही मुड़े,
और दरवाज़ा बंद किया,
फिर से दस्तक हुई!
अब चौंक पड़े वो!
"कौन है?" अनुज ने पुकारा!
कोई जवाब नहीं आया!
अब फिर से चले दरवाज़े की तरफ!
दस्तक हुई!
"आ रहे हैं, सब्र रखो!" अनुज ने कहा,
और दरवाज़ा खोल दिया!
कोई भी नहीं था!
कौन था?
किसने दस्तक दी?
कौन हो सकता है?
रात के इतने बजे,
कोई शैतानी भी नहीं कर सकता!
उलझ गए दोनों!
और बाहर ही खड़े रहे!
करीब बीस मिनट के बाद,
वे अब अंदर आये!
पता नहीं कौन था!
था भी तो,
आया क्यों नहीं?
कर दिया दरवाज़ा बंद!
और चले आये अंदर!
करीब साढ़े तीन बजे,
आवाज़ आई उनको!
जैसे कोई पुकार रहा हो!
"मौलाना साहब?"
मौलाना साहब?"
अब उठ गए वो!
अनुज भी उठ गया था!
उसने भी सुनी थी वो आवाज़!
दौड़ कर बाहर गए!
दस्तक हुई!
और दरवाज़ा खोल दिया!
कोई नही!
कोई नहीं था वहां!
तो आवाज़ किसने दी?
किसने पुकारा,
मौलाना साहब?
कौन था?
बड़ी हैरत हुई उन्हें!
एक बार को डर भी लगा!
लेकिन,
कोई नहीं आया!
कोई भी नहीं!
फिर से लौटे वापिस!
और अब,
नींद नहीं आई!
दिमाग ने,
खेल खेलना किया शुरू!
कौन हो सकता है?
मौलाना साहब?
यहां तो कोई मौलाना साहब नहीं?
फिर कौन था वो?
आवाज़ साफ़ थी!
कोई साढ़े चार बजे,
फिर से दस्तक हुई!
अब घबरा गए वो!
भय हावी हो चला!
बाहर आये,
अब सब,
जाग चुके थे!
अनुज और उसके पिता जी भी!
फिर से आवाज़ आई,
"मौलाना साहब?"
अनुज भाग चला,
दरवाज़ा खोला!
कोई नहीं था वहां!
सभी आ गए बाहर!
और तभी!
तभी घोड़े के दौड़ने की आवाज़ आई!
जैसे कोई दौड़ा हो घोड़े पर!
हवा सी उडी थी!
अनुज से टकराई थी हवा वो!
वो सहम गया!
डर आगे!
और सभी डर गए!
डर की बात भी थी!
पहले दस्तक,
फिर आवाज़,
दरवाज़ा खोला,
कोई नहीं!
फिर कोई,
घोड़े पर भागा!
और नज़र नहीं आया!
ये क्या हो सकता यही?
कोई भूत?
कोई प्रेत?
बस!
अब क्या था!
सभी डर गए!
कोई प्रेत आया था!
मौलाना साहब को,
ढूंढ रहा था!
न जाने कौन हैं ये,
मौलाना साहब?
फिर तो,
किसी को भी नींद नहीं आई!
हवा हो गयी नींद!
नींद का स्थान,
भय ने ले लिया!
किसी तरह,
सुबह पकड़ी!
और फिर से,
वही याद आ गया!
वही दस्तक!
वही आवाज़!
अगले दिन घर में,
बड़ी उथल-पुथल सी रही,
घर की महिलाओं में भी,
और पुरुष तो थे ही संजीदा,
लेकिन,
हो सकता है वहम ही हो,
अधिक तूल नहीं दिया!
ये मानव की प्रवृति है कि,
जब कोई बात या तथ्य,
उसे समझ नहीं आता,
या उसकी समझ से बाहर होता है तो,
उस दरकिनार कर दिया करता है,
खारिज कर देता है,
और भूलने की कोशिश करता है!
यही भास्कर साहब का,
परिवार कर रहा था!
हाँ,
अनुज थोड़ा संजीदा था,
वो तह तक जाना चाहता था इस मामले की,
उसने बहुत ज़ोर लगाया दिमाग पर,
लेकिन कोई सटीक उत्तर नही मिला उसे!
दिमाग,
उलझा ही रहा!
चलो जी,
वो दिन बीता,
रात आई,
भोजन आदि किया गया,
और फिर सब सो गए,
कल वाली बात को,
भुला कर,
थोड़ा पूजा-अर्चना कर के,
बजे रात के दो!
और हुई बाहर के दरवाज़े पर दस्तक!
चौंक के उठे सभी!
भास्कर साहब चौंक के उठे,
वहाँ से बड़े भाई और उनका लड़का अनुज भी उठा!
आये अपने अपने कमरों से बाहर,
फिर से हुई दस्तक!
अब घबरा गए सारे!
"कौन है?" अनुज वहीँ से खड़े खड़े ही चिल्ल्लाया,
"मौलाना साहब?" आवाज़ आई!
ओह!
ये तो कल वाला ही है!
लेकिन है कौन?
नज़र क्यों नहीं आता?
"यहां कोई मौलाना नहीं है" बोला अनुज,
"पता तो यहीं का है?" आवाज़ आई,
"तुम कौन हो?" आवाज़ आई,
"मैं हलकारा मोहम्मद जमाल खान, बरेली के शाह साहब ने भेजा है" आवाज़ आई!
"यहां कोई मौलाना नहीं है" बोला अनुज,
सब घबरा के,
पानी पानी हो रहे थे!
मारे डर के,
सभी के बदन का पानी,
छूट चला था!
हलक सूख गया था!
दिल पसलियों में जो क़ैद था,
बावरा हुआ जा रहा था!
कलेजा,
मुंह की तरफ आ रहा था!
"कोई नहीं है यहां, कोई भी मौलाना साहब" बोला अनुज!
"अच्छा! थोड़ा पानी ही पिलवा दें, बड़ी मेहरबानी होगी साहब आपकी" बोला वो हलकारा!
बाहर से ही!
अब हुई फजीहत!
कौन जाए पानी देने?
और अब किसी ने पानी माँगा है,
तो कैसे मना किया जाए?
और जाए कौन?
तब,
भास्कर साहब के बड़े भाई,
तैयार हुए,
लेकिन अनुज ने मना कर दिया,
और खुद पानी देने के लिए,
तैयार हो गया!
उसने एक लोटे में पानी लिया,
और सम्भलते क़दम के साथ,
आगे बढ़ा,
अब भास्कर साहब भी आगे बढ़े!
"आ रहा हूँ" बोला अनुज!
"बड़ी मेहरबानी साहब!" बोला वो हलकारा!
भास्कर साहब ने, दरवाज़ा खोल दिया!
सामने जो था,
उसको देख कर,
दोनों के होश फ़ाख़्ता हो गए!
एक घुड़सवार था सामने!
लम्बा-चौड़ा!
काली घनी दाढ़ी लिए,
करीने से रखी दाढ़ी!
सर पर टोपी लगाए,
फुनगी वाली!
कमर में पेटी कैसे,
हरा निक्कर पहने,
फौजी जूते और,
फौजी जुराब पहने,
अंग्रेजी ज़माने की,
वेशभूषा में था वो!
वो नीचे उतरा,
घोड़े ने टाप पटके!
वो आगे आया,
मुस्कुराता हुआ,
अनुज तो उसकी छाती तक भी नहीं आया!
इत्र की ख़ुश्बू आई,
बेल के फूलों की!
वो नीचे झुका,
मुंह के आगे,
ओख बनायी,
अपने हाथ से,
और अनुज को देखा,
सुरमा लगा था उसकी आँखों में,
अनुज ने घबराते हुए,
उसके हाथ में पानी डाला,
हलकारा,
पानी पीने लगा,
पानी खत्म हुआ,
और माँगा उसने,
और पानी लाया गया,
छह! पूरे छह लोटे पानी पिया उसने!
फिर अपने गमछे से,
मुंह पोंछा!
"आपकी बहुत बहुत मेहरबानी! सुबह से अब मिला है पानी! मुश्क़ में, गरम हो चला है!" वो बोला,
उसका व्यवहार,
बहुत मिलनसार था!
मित्रतापूर्ण!
भय जाता रहा उनका!
दरअसल,
अभी सोच में ही थे,
की कौन है ये हलकारा?
"कहाँ से आये हैं आप?" अनुज ने पूछा,
"जी, बरेली के शाह साहब के यहां से!" वो बोला,
"किस से मिलना है आपको?" पूछा अनुज ने,
"यहां पता लिखा है, ये मौलाना साहब का ही पता है, कुछ है उनके लिए, शाह साहब ने भेजा है, ये देखिये!" वो बोला,
ये एक पोटली थी,
भारी सी, उसने हल्कारे ने,
एक हाथ से थामी थी,
और अनुज को दो हाथ लगाने पड़े उसे उठाने में!
कुछ लिखा था उस पर,
लेकिन उर्दू में!
सरकंडे की कलम से,
काली स्याही से!
नहीं पढ़ सका वो!
लौटा दिया वापिस,
हल्कारे ने,
वापिस अपने लटके हुए,
झोले में डाल ली वो पोटली!
अब अपने घोड़े पर चढ़ा,
पहले जीन ठीक की उसकी,
और फिर,
चढ़ गया,
"आपकी बहुत बहुत मेहरबानी!" बोला हलकारा!
वे मात्र,
अपना सर हिला सके!
"सलाम!" बोला हलकारा,
"सलाम" अनुज ने कहा,
अब अपने घोड़े को एड़ लगाई उसने,
और दूर अँधेरे में,
चला गया!
वो गायब हुआ,
बस,
उसके घोड़े की टाप,
सुनाई देते रही!
अवाक थे दोनों ही!
अब सभी दौड़े दौड़े आये वहाँ!
उन दोनों को तो जैसे,
काठ मार गया था!
पत्थर बन गए थे!
जिंझोड़ा उन्हें!
तब होश में आये!
चले वापिस,
अनुज अपने चाचा के साथ ही बैठा,
कैसा सजीला जवान था वो!
पहलवान लगता था!
उसके हाथ देखे?
कैसे मजबूत थे!
उसकी लम्बाई देखी?
अनुज से डेढ़ गुना हो जैसे,
कोई साढ़े सात फ़ीट का!
हैरान रह गए वो!
और वो बेल की ख़ुश्बू!
अभी तक नथुओं में थी!
उस शेष रात तो,
नींद ही नहीं आई किसी को!
अभी तक समझ नहीं आरहा था कि,
वो हलकारा आखिर था कौन?
इस आधुनिक दुनिया में,
कहाँ से आ गया था वो?
गाँव तो खैर,
कोई ढाई सौ साल पुराना था,
ये तो सही था,
लेकिन वो घोड़ा,
वो मुश्क़,
वो थैले?
वो क्या था?
वेशभूषा भी उसकी,
अंग्रेजी ही थी!
जैसे पुरानी सी वेशभूषा,
सर पर,
फुनगी वाली टोपी!
आजकल कौन पहनता है?
और फिर पानी माँगा उसने,
छह लोटे पानी पी गया!
खैर,
पानी पिलाना तो धर्म का कार्य है,
पानी तो शत्रु को भी,
पिला दिया जाता है!
लेकिन फिर वो चला गया,
कहाँ चला गया?
बड़ी अजीब सी बात थी ये!
नींद न आनी थी,
और न ही आई!
काट दी बाकी की रात ऐसे ही,
सोच-विचार में!
अब हुई सुबह,
और फिर कुछ चित-परिचित व्यक्तियों से,
अब सलाह मशविरा किया,
अब जितने मुंह,
उतनी बातें!
मामला और उलझ गया!
वे लोग,
अब अपने कारोबार में लग गए थे,
सारा दिन भर,
फिर भी,
वही हलकारा याद आता रहा!
और यूँ ही हो गयी शाम!
और फिर हुई रात!
अब नींद आये ही नहीं!
बार बार यही लगे कि,
दस्तक हुई है!
कोई आया है!
सभी के कान,
दरवाज़े पर ही लगे रहे!
बजे दो,
ऊँघते हुए भास्कर साहब की,
नींद खुल गयी!
भय के मारे,
उठ खड़े हुए!
घड़ी देखी,
दो बजकर,
दस मिनट हुए थे!
तभी उन्ही के दरवाज़े पर दस्तक हुई!
घबरा गए सभी!
लेकिन ये अनुज था!
वही आया था,
खोल दिया दरवाज़ा उन्होंने,
अनुज,
अंदर आ बैठा,
और तभी गाँव के कुत्ते रोये!
घोड़े की टाप सुनाई दीं!
लग गए कान सभी के दरवाज़े पर!
कुछ पल बीते,
घोड़ा जैसे,
उनके मकान के सामने ही आ रुका!
तेज सांस छोड़ी उस घोड़े ने!
और तभी!
दस्तक हुई!
"मौलाना साहब?" आवाज़ आई!
घिग्घी बंध गयी सभी की!
लेकिन अनुज में हिम्मत थी!
वो जैसे जानता था,
कि ये हलकारा,
कुछ नहीं कहेगा उन्हें!
वो उठा,
और चला बाहर,
भास्कर साहब भी चले उसके साथ!
दरवाज़े तक आये,
दस्तक हुई!
"आते हैं" अनुज ने कहा,
और दरवाज़ा खोल दिया,
सामने वही हलकारा खड़ा था!
एक पोटली लिए हुए!
"अस्सलाम आलेकुम!" बोला हलकारा!
"सलाम!" अनुज ने कहा,
"मौलाना साहब हैं क्या?'' पूछा उसने,
"जी नहीं, यहां कोई मौलाना साहब नहीं हैं" बोला अनुज,
"मौलाना हफ़ीज़ साहब" वो बोला,
"नहीं जी, कोई नहीं है" बोला अनुज!
"अच्छा....." बोला वो,
और पोटली,
घोड़े से लटकी,
एक बड़ी सी बोरी में डाल दी,
"मुआफ़ कीजिये, आपको तकलीफ दी" बोला वो,
"नहीं, कोई तकलीफ नहीं" बोला अनुज!
"एक तकलीफ और दूंगा" बोला वो,
"हाँ, बताइये?" बोला अनुज,
"मेरी मुश्क़ खाली है, थोड़ा पानी मिल जाता तो बड़ी मेहरबानी होती" वो बोला,
"ज़रूर" बोला अनुज,
और चला गया अंदर, पानी लेने!
बाल्टी भर लाया,
और भर दी मुश्क़ में!
"शुक्रिया!" बोला वो,
"अब कहाँ जाओगे?" पूछा अनुज ने!
"वो पंडित जी हैं न, तिलकराज जी? वो गाँव से बाहर? वहीँ ठहरता हूँ, बड़े भले इंसान हैं, वहीँ ठहरता हूँ मैं!" बोला वो हलकारा,
