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वर्ष २०१२, जिला बिजनौर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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वर्ष २०१२, जिला बिजनौर..........चौमासे के दिन थे, उस दिन दो बजे मध्यान्ह का समय रहा होगा, लेकिन बाहर छाये बादलों ने पृथ्वी की सत्ता छीन रखी थी, नृप सूर्य अपदस्थ कर दिए गए थे! बाहर चारों ओर बस मेह की बूँदें और बून्दें और उन बूंदों से गार होती हुई पृथ्वी की नरम त्वचा! कई पक्षी वहाँ पेड़ों की, बल्लियों से बंधी तारों पर बैठे बौछार का लुत्फ़ ले रहे थे! मेरी नज़र ऐसे ही एक कठफोड़वे के जोड़े पर थी, जो समय समय पर चोंच मिलाते और फिर से लुत्फ़ लेने लगते बौछार का! फिर एकदम से वो उड़ गए! स्थान परिवर्तन का लिया, पीछे बंधे मवेशी भी मस्त थे! भैंसें रम्भा रही थीं, बकरियां भी अपनी आवाज़ से अपने होने का प्रमाण दे रही थीं! हवा में मिट्टी की खुश्बू फैली थी! मैं खेस में ढका हुआ, उस पटिया से बने एक कमरे में बैठा था, शर्मा जी एक दूसरी चारपाई पर बैठे थे! बीड़ी चल रही थी दबा कर, वहाँ दो और लोग बैठे थे, बिरजू और केवल सिंह, दोनों रिश्तेदार थे आपस में, घर बिरजू का था, बिरजू एक सरकारी महकमे में मुलाज़िम थे और केवल दिल्ली में अध्यापक थे, उन्ही के कहने पर हम यहाँ आये थे कोई दस बजे करीब, जब चले थे तब भी बारिश थी और बारिश ने यहाँ तक साथ निभाया था, आगे का पता नहीं!

"चाय नहीं आयी, जाने क्या बात हुई?" कहते उठे बिरजू,

छतरी ले बाहर गए और फिर कुछ देर बाद उनका लड़का चाय ले आया, साथ में कुछ बर्फी और नमकीन!

हमारे कप हमे पकड़ाये गए, हमने ले लिए!

चाय पीनी आरम्भ की,

बर्फी भी खायी!

"कितनी दूर होंगे खेत यहाँ से?" शर्मा जी ने पूछा,

"आधा किलोमीटर से अधिक नहीं" केवल बोले,

'अच्छा" वे बोले,

"आखिरी बार कब देखे थे आपने सांप?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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लड़का बता रहा है कि कल तो खेत में घुसने ही नहीं दिया किसी को" बिरजू ने चुस्की भरते हुए कहा चाय की!

"अच्छा!" मैं रोमांचित सा हुआ!

लड़का वहीँ खड़ा था!

"क्या नाम है?" मैंने पूछा,

"नकुल" वो बोला,

"अच्छा" मैंने कहा,

अब फिर से बर्फी खायी मैंने!

लड़का मुझे ही देख रहा था!

"कैसा सांप था वो?" मैंने पूछा,

"हरे-पीले रंग का" वो बोला,

"कितना बड़ा?" मैंने पूछा,

"जी मेरे बराबर होगा" वो बोला,

अर्थात साढ़े पांच फीट!

"और भी थे वहाँ सांप?" मैंने पूछा,

"और नहीं देखे" उसने कहा,

"अच्छा" मैंने कहा,

तभी बिजली कड़की! जैसे मैंने गलत प्रश्न किया हो!

और बारिश तेज हो गयी!

चाय ख़तम हुई तो कप हमने वहाँ नीचे रख दिए!

"किसी को दिखाया नहीं?" मैंने केवल से पूछा,

"दिखाया था जी" वो गला साफ़ करते हुए बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"किसको?" मैंने पूछा,

"एक सपेरा आया था, उसको" वे बोले,

"क्या बोला वो?" मैंने पूछा,

वो गया, सांप देखे, एक एक सांप पकड़ने के पांच सौ रुपये मांगे, बात दो सौ में तय हो गई" वे बोलकर चुप हुए,

"फिर?" मैंने पूछा,

"वो वापिस भाग आया, बोला यहाँ हज़ारों सांप हैं, उसके बसकी बात नहीं" वो बोले,

"फिर?" मैंने हैरान हो कर पूछा,

"फिर की गुरु जी, अब भाग गया वो" उन्होंने बात ख़तम की,

मैं हज़ारो साँपों की कल्पना करने लगा!

"फिर जी एक ओझा बुलाया हमने" अब बिरजू ने बात आगे बढ़ाई,

"अच्छा! फिर?" मैंने पूछा,

"वो खेत में गया और बोला कोई धन का चक्कर है, फिर बोला नहीं कोई चुड़ैल है यहाँ, फिर बोला कि कोई समाधि है यहाँ, फिर वो भी भाग गया!" वे बोले,

"कमाल है" मैंने कहा,

"हम डर गए जी" बिरजू ने कहा,

"अच्छा, स्वाभाविक ही है डरना" मैंने कहा,

"जी फिर एक साधू बाबा आये, बोले, तीन मरेंगे इस कुनबे में" बिरजू ने कहा,

"तीन?" मुझे आश्चर्य हुआ!

"हाँ जी" वे बोले,

"साधू बाबा ने कुछ बताया नहीं बचने का उपाय?" मैंने पूछा,

"नहीं जी" वे बोले,

विचित्र और अद्भुत मामला था ये!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब जिज्ञासा रुपी सांप मन में कुंडली खोलने को आमादा था, लग रहा था कोई बहुत बड़ा रहस्य है वहाँ, लेकिन यहाँ तो वर्षा ऐसी थी कि बाहर जाते आदमी को ज़मीन में ही चिपका दे! मेघ और साथ दें उसका! ऐसा कि जैसे दैविक-मंडल से निष्कासित कर दिया गया हो वर्षा देवी को! और भेज दिया गया हो मृत्युलोक में! और अब न तो भूमि ही शरण दे और न ही आकाश! फंस के रह गयी थी! यहाँ के मानस और लपेट लिए थे उसने अपनी खीझ मिटाने के लिए!

फिर से बिजली कौंधी!

कान में घुसी तो पता चला कि बादल हलके नहीं है! बहुत दमखम बाकी है उनमे अभी!

"और किसने देखा उनको?" मैंने पूछा,

"हमारे पडोसी है बृज लाल, उन्होंने" केवल ने कहा,

"क्या देखा?" मैंने पूछा,

"उन्होंने अजीब सी बात बताई" वे बोले,

"क्या?" मैंने उत्सुकता से पूछा,

"उन्होंने बताया कि सांप खेत में एक गड्ढे से निकल रहे थे और फिर वहीँ घूम घूम कर फिर से गड्ढे में जा रहे थे" वे बोले,

चौंक पड़ा मैं!

अब मन में लगी लग गयी!

लेकिन ये बारिश! बारिश तो थमने का नाम ही न ले!

"कोई फसल लगाईं है अभी?" मैंने पूछा,

"नहीं जी" वे बोले,

"कोई आहत तो नहीं हुआ आज तक?" मैंने पूछा,

"नहीं जी" वे बोले,

और कोई बात?" मैंने पूछा,

"हाँ जी" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्या?" मैंने पूछा,

"किसी महिला और बालक-बालिकाओं को नहीं दिखा वहाँ कुछ भी, आज तक" वे बोले,

एक और रहस्य! एक और रहस्य की माला मैंने धारण की!

अब ये अछूते क्यों?

हैरत है न?

क्यों मित्रगण!

खैर!

मैं उठा, बाहर देखा, बारिश ने तो परदे बिछाए थे!

"आज नहीं रुकने वाली ये" मैंने कहा,

"लम्बा ही कार्यक्रम है इसका" शर्मा जी बोले,

"हाँ" मैंने कहा,

मैं फिर वापिस आ बैठा चारपाई पर!

"आज तो लग्गी लगी है जी मेह की" बिरजू ने कहा,

"हाँ, आ तो ज़िद पर अड़ी है!" मैंने कहा,

तभी एक व्यक्ति अंदर आया, बिरजू ने उसको चाचा कह कर अंदर बिठाया, उम्र होगी कोई सत्तर बरस! उसने नमस्कार की हमसे तो हमने भी की!

"मैं कुछ बताऊँ?" उसने कहा,

"बताओ चाचा" मैंने कहा,

"मैं उस बख़त होउंगा कोई पन्द्र बरस का, तब ऐसा ही हुआ था, सांप ही सांप घिर आये थे यहाँ, तब एक बाबा जी आये थे उन्होंने सांत किया था उनको, अब फिर से जाग गए हैं" चाचा ने कहा,

काम की बात!

"कुछ बताया था बाबा जी ने?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"नहीं जी, खेत में गुड़ की इक्कीस भेलियां गड़वायीं थीं उन्होंने" चाचा बोले,

भेलियां? गुड़ की?

सांप की हत्या??

कोई श्राप?

रहस्य की माला अब फंदा बनी!

 

झड़ी लगी थी बाहर, अंदर झड़ी रहस्य की तैयार थी!

"तो बाबा ने कुछ नहीं बताया?" मैंने बुज़ुर्ग से पूछा,

"नाह!" वे बोले,

"सांप फिर नहीं दिखाई दिए?" मैंने पूछा,

"नाह जी" वे बोले,

"चाचा? आपको क्या लगता है, ऐसा क्यों होता है?" मैंने पूछा,

"सुनी सुनाई बातें हैं जी" वे बोले,

"बताओ, हमे भी सुनाओ?" मैंने कहा,

"कहते है कई सौ साल पहले यहाँ एक औरत नाग देवता की पूजा करती थी, उसका पति बीमार रहता था, नाग देवता से उसने संतान मांगी, अब संतान भाग्य में थी नहीं, सो नाग देवता ने ऐसा काम किया कि......" कहते कहते खांसने लगे,

रोमांच! रोम रोम खड़ा हो गया!

"हाँ चाचा फिर?" मैंने पूछा,

"नाग देवता ने ऐसा किया कि एक नाग वहाँ छोड़ दिया उनकी संतान बना कर, रात में नाग होता और दिन में बालक" वे बोले और गला साफ़ करने लगे,

मेरा तो एक एक रोंगटा खड़ा हो गया बाबा की सुनी सुनाई बात सुनकर!

"फिर?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"समय गुजरा, लड़का बड़ा हुआ, एक नाग कन्या रीझि उस पर, अपने साथ चलने को कहा, लड़के ने मना कर दिया, वो अपने बूढ़े माँ-बाप को छोड़ने को तैयार नहीं था" वे बोले,

"वाह" मैंने उस अनजान नाग-पुरुष को नमन किया!

"वो कन्या रोज आती रात को और सुबह चली जाती, ये भनक लगी सोनिला सपेरे बाबा को" वे बोले और रुके,

"फिर?" दिल धड़का और मैंने कहा,

"फिर क्या, सपेरे बाबा ने जाल बुना, लड़का फंस गया, पकड़ा गया बाबा द्वारा, बूढ़े माँ-बाप रो रो कर मर गए, वो कन्या पूछते पूछते हार गयी" वे बोले,

"ओह"

मैंने तो जैसे कल्पना कर ली थी सारे दृश्य कि, लेकिन इस सपेरे बाबा सोनिला ने धुंए के मानिंद सारा घरौंदा उड़ा दिया!

"फिर?" मैंने पूछा,

"कहते हैं यहाँ वही कन्या अपने साथियों के साथ उसी लड़के को ढूंढने आती है, और अब आ गयी है" वे बोले,

अगर ये किवदंती भी है, तो भी इसमें सच्चाई होगी! क्योंकि आधार हमेशा होता है! दस प्रतिशत भी सच्चाई थी तो भी ये घटनाक्रम भयानक था! तथ्य जुटाने थे! ताकि सच्चाई सामने आ सके!

"ये बारिश!" मैंने मन में कहा,

बारिश ने बाँध रखा था मुझे!

हिलोरें! हिलोरें! ऊंची ऊंची! हिलोरे सर उठा रही थीं!

पर क्या करता!

क्या होता!

बारिश! ये बारिश!

चाचा ने और पेंच घुसा जोड़ और कड़े कर दिए थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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चाचा उठे!

सनसनी फैलायी!

और चले गए!

"शर्मा जी?" मैंने कहा,

वो अवाक!

शायद उनकी कल्पना का घरौंदा अभी सुरक्षित था!

"शर्मा जी?" मैंने फिर से कहा,

"अ...हाँ?" वे आये कल्पना से बाहर!

"कहाँ खोये हुए हो?" मैंने पूछा,

"वहीँ, नाग पुरुष में" वे बोले,

"अच्छा?" मैंने कहा,

"हाँ, चाचा ने तो रोम रोम पुलकित कर दिया और रहस्य का घड़ा भर दिया!" वे बोले,

सच ही कहा था उन्होंने!

इसमें झूठ क्या!

"सही कहा आपने" मैंने कहा,

"क्या लगता है आपको?" उन्होंने पूछा,

"राज! कोई राज है दफ़न!" मैंने कहा,

"यक़ीनन" वे बोले,

राज तो था ही!

एक अनजान राज!

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और जैसा शुबहा था वही हुआ, बारिश आखिर नहीं बंद हुई! मन मसोसते हुए बस प्रार्थना करते रहे कि बारिश बंद हो तो हम आगे बढ़ें!

उस दिन अनवरत बारिश हुई, रात को खाना खा कर बस सो लिए, अब जागने से कोई फायदा नहीं था!

सो गए!

अगली सुबह उठे!

हर्षोउल्लास!

बारिश बंद और सूर्य को वापिस सत्ता मिली! नभ पर चल पड़े!

हाथ जोड़ लिए उनके तभी!

नहाये-धोये, जल्दी जल्दी चाय-नाश्ता किया और केवल और बिरजू के साथ चल दिए खेतों की ओर! कुलांचे भरते जैसे हिरन का बच्चा कुलांचे भरता है!

खेत में पहुंचे!

मिटटी अभी गीली थी, लेकिन सही था, चला जा सकता था घास वाली पगडण्डी पर! चल पड़े, और फिर बिरजू के खेत आ गए!

"या हैं खेत हमारे गुरु जी" बिरजू ने कहा,

"अच्छा!" मैंने कहा,

खेतों का क्षेत्रफल बहुत था!

"यही होता है, मेरा मतलब यहीं दिखायी देते हैं वे?" मैंने पूछा,

"जी वहाँ पेड़ों के पास" वे बोले,

"तो वहीँ चलो" मैंने कहा,

अब वो ठिठके!

मैं समझ गया! उनको वही रहने दिया खड़े!

"शर्मा जी आइये आप मेरे साथ" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे आ गए,

"चलो" मैंने कहा,

"चलिए" वे बोले और चले मेरे पीछे,

हमने एक पगडण्डी पकड़ी, और बचते बचाते चल पड़े, वहाँ कुछ नीम के पेड़ खड़े थे, एक आद शीशम भी था, कुछ श्वेतार्क भी लगे थे!

"गुरु जी, वो देखिये!" शर्मा जी ने रुकते हुए कहा और एक ओर इशारा किया,

मैंने वहीँ देखा,

वहाँ करीब पंद्रह सांप बैठे थे फ़न फैलाये, एक वृत्त सा बना कर!

"हाँ, दिख गए" मैंने कहा,

नीचे भूमि देखी तो वहाँ सांपो के निशान, रेंगने के!

"तो ये सच कहते हैं!" मैंने कहा,

"हाँ" शर्मा जी भी बोले,

"चलिए, इनके पास चलते हैं" मैंने कहा,

"चलिए" मैंने कहा,

हम वहाँ से एक दूसरी पगडण्डी पर चल दिया, सांप वहाँ से करीब छह फीट दूर ही रहे होंगे,

अब मैंने सर्प-मोहिनी विद्या को जागृत किया!

कस्तूरी की सुगंध फ़ैल गयी!

मिट्टी गीली थी वहाँ, लेकिन वहाँ एक बिजली का ट्रांसफार्मर लगा था, वहाँ स्थान पक्का था, वहीँ चले हम!

वहाँ पहुंचे!

सभी सांप हमारी तरफ घूमे!

ये सभी फ़नधर थे! विषैले! काटे तो पानी न मांगे आदमी!

"आइये शर्मा जी" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"चलिए" वे बोले.

अब हम आ गए एक पक्की ज़मीन पर!

अब मैंने यहाँ कलुष-मंत्र चलाया! अपने एवं शर्मा जी के नेत्र पोषित किये मैंने! और jab आँखें खोलीं तो दृश्य बड़ा ही भयावह था सामने!

एक छोटा सा मंदिर!

उसमे प्रज्ज्वलित एक अष्टमुखी दिया!

ऊपर नाग कढ़े हुए!

और हर तरफ रक्त ही रक्त!

जैसे नरसंहार हुआ हो वहाँ!

बड़ा ही दुर्गन्धमय स्थान था वो!

लेकिन कोई कटा-फटा शव नहीं था वहाँ, कोई भी नहीं! एक पशु भी नहीं!

"ये क्या है?"

"पता नहीं" मैंने कहा,

कुछ पल हम भी भटके रहे वहाँ!

 

बड़ी अजब गजब सी जगह थी! मंदिर भी ज़यादा बड़ा नहीं होगा, बस यही कोई सवा हाथ का, ज़यादा ऊंचा भी नहीं, बस कोई तीन-चार फीट, ये किसी सर्प को समर्पित था ये निश्चित था, लेकिन कौन? ये पता नहीं था! और यही पता लगाने हम यहीं थे! अब मुसीबत ये थी कि कलुष-मंत्र की एक हद है और अपनी हद वो दिखा चुका था, वहाँ जो भी था वो दिख रहा था, अब मुझे और अधिक जानने के लिए वहाँ तक जाना ज़रूरी था, वहाँ सर्प थे, कोई मायावी नहीं बल्कि असली!

"क्या करें?" मैंने शर्मा जी से पूछा,

"पता तो लगाना ही होगा" वे बोले,

"ठीक है, चलें अंदर?" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"चलिए" वे बोले,

अब साहब, हमने अपने जूते उतार,

जुराब उतार उनमे खोंसे,

पैंट ऊपर तक मोडीं, और तैयार हुए,

नीचे जाने को.

मैंने कलुष मंत्र वापिस किया और फिर,

फिर पूर्वाक्ष-मंत्र का जाप किया, ये कलुष से अधिक शक्तिशाली होता है! इस मंत्र से अपने व शर्मा जी के नेत्र पोषित किये नेत्र खोले, भयानक मिर्चों जैसी पीड़ा के साथ नेत्र खुले, और दृश्य स्पष्ट हुआ!

वहाँ कोई शक्ति मौजूद थी! कोई बड़ी शक्ति! मुझे गंध आयी, तीक्ष्ण सर्पगंध!

"कौन है यहाँ?" मैंने पूछा,

एक भयानक फुफकार!

सच कहता हूँ, कोई और हो तो प्राण एड़ी में आ जाएँ उसको सुनकर!

"कौन है, सामने आओ?" मैंने कहा,

फिर से गरज भरी फुफकार!

और इस बार कुछ विष-बूँद हम पर भी गिरी, महीन फुहार के रूप में!

लेकिन आया कोई नहीं!

अब हम उतर गए नीचे, नीचे उतारते ही टखनों तक कीचड़ में डूब गए, आराम आराम से उस मंदिर की ओर गए,

तभी एक और ज़बरदस्त फुफकार! जैसे कोई रोकना चाहता हो हमको!

अब मैंने सर्प-मोचिनी विद्या का जाप किया और महाताम-विद्या जागृत कर ली! आगे बढे!

मई मंदिर तक आगे आया, मंदिर जहां बना था वहाँ उस स्थान से पहले एक बड़ी सी नाली दिखायी दे रही थी, जो दूर से नहीं दिखती थी, मैंने और शर्मा जी ने उसमे नीचे देखा, देखते ही रोंगटे खड़े हो गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वहाँ कटे हुए नरमुंड पड़े थे! असंख्य नरमुंड! कटे हाथ-पाँव! भयानक दृश्य! और वहाँ उस नाली में भयंकर सांप! काले, मटमैले, भूरे, दुरंगे आदि! सब के सब मृत्यु के परकाले! सभी यमराज से अधिकृत! प्राण लेने को अधिकृत!

"ये क्या है?" शर्मा जी ने पूछा,

"सम्भवतः कोई बलि-स्थान लगता है" मैंने कहा,

"है तो कुछ ऐसा ही" वे बोले,

"आइए, पीछे चलते हैं इसके" मैंने कहा,

"ठीक" वे बोले,

हम उस नाली के साथ चलते चलते मंदिर के पीछे जाने लगे,

तभी!

फिर से फुफकार!

भयानक भुजंग फुफकार!

मैं आज़िज़ आ गया था! ये तो मेरे लिए चुनौती थी!

मैंने तभी यूपभंग-मंत्र पढ़ा और थूक दिया!

और थूकते ही!

थूकते ही, एक काला सा बादल हमारे ऊपर आया, जैसे बदली कोई! ये एक दीर्घाकार महासर्प था, वो सामने गिरा हमारे!

एक बार को तो मैं भी घबरा गया!

यूपभंग-अधिष्ठात्री ने उठा के उसको फेंक मारा था हमारे समक्ष!

इस से पहले मुझे कुछ समझ आता वो महासर्प लोप हो गया!

सिहरन!

सिहरन सर से लेकर पाँव तक!

जैसे खड़े खड़े ही ज्वर चढ़ गया हो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं आगे बढ़ा, शर्मा जी के साथ!

फिर अचानक से रुका!

सामने कोई अस्सी फीट पर कुछ कन्याएं खड़ी दिखीं! चेहरे किसी के नहीं दिख रहे थे, बस काले वस्त्र! उनके आसपास सर्प ही सर्प!

भयानक दृश्य!

"ये कोई महामाया है गुरु जी!" शर्मा जी थूक निगलते हुए बोले,

"निःसंदेह!" मैंने कहा,

हम ठिठक के वहीँ ठहर गए!

तभी कन्याएं पीछे हट पड़ीं! जैसे हमारे पीछे कोई आ रहा हो! मैंने पीछे देखा, वहाँ कोई नहीं! कोई भी नहीं!

सामने देखा!

सारी कन्याएं लोप!

रेंगते सर्प भी लोप!

"शर्मा जी, ऐसे ही खड़े रहिये" मैंने चेताया उनको,

वे खड़े हो गए, स्थिर!

और मैं भी!

 

वे और मैं ठिठक के खड़े थे, जस के तस! यहाँ कोई महाशक्ति थी ये तय था, वो दीर्घाकार सर्प इसका प्रमाण था! वहाँ जैसे शून्य का ही राज हो, कोई ध्वनि नहीं, किसी भी प्रकार की, बस जो कुछ हमें सुनायी पड़ रहा था वो थी हमारी श्वास-ध्वनि और ह्रदय-स्पंदन!

"गुरु जी?" शर्मा जी ने पूछा,

"हाँ?" मैंने उत्तर दिया,

"ये माया है?" उन्होंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"नहीं" मैंने उत्तर दिया,

"तो ये सब?" उन्होंने कहा,

"वास्तविक" मैंने कहा,

"कैसे सम्भव है?'' उन्होंने पूछा,

"कोई कुछ कहना चाहता है" मैंने कहा,

और तभी जैसे धरती हिली, मैं और शर्मा जी धम्म से नीचे गिर पड़े!

हम गिरे नहीं थे!

नहीं!

हमे गिराया गया था!

लेकिन किसने?

ये था प्रश्न!

अब ये तो साबित था, वहाँ कुछ ऐसा था जो मेरे बस में नहीं था!

कोई दैविक?

अथवा

कोई आसुरिक?

था तो अवश्य ही!

हम बड़ी मुश्किल से कहे दे, कीचड़ में लथपथ हो गए, सर तक कीचड़-काचड़ में सन गए!

मैंने मंत्र वापिस लिए और अब चले वापिस!

हौदी तक पहुंचे, साफ़ सफाई की, और किसी तरह से वापिस आये, रुमाल से साफ़ किया और फिर जूते-ज़ुराब पहन वापिस आये!

मौसम साफ़ था!

हम आये तो केवल और बिरजू बड़ी बेचैनी से हमारा इंतज़ार करते मिले,


   
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