वर्ष २०१२ जिला धौलप...
 
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वर्ष २०१२ जिला धौलपुर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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फूल?" पूछा माँ ने, "जमना ले गयी" बोली गंगा! "चल ठीक है, मंदिर में चढ़ जाएंगे" बोली माँ! गंगा वापिस हुई, अपने कमरे में अपने वस्त्र उठाये, और चली गयी स्नान करने! दोपहर बीती और चलीं वो कुँए पर पानी भरने जा पहुंची वहीं! कुछ और भी महिलायें थीं वहाँ, एक ऊँट-गाड़ी भी खड़ी थी, कुछ महिलायें बैठी थीं उस पर, और उनके मर्द शायद पानी का इंतज़ाम कर रहे थे! गंगा, चली उस अंधे कुँए की तरफ! अचानक से उसको कल वाली बात याद आई! वो आवाजें! लेकिन माला ने दिमाग सही कर दिया था उसका! शायद वहम ही था! प्रेम में डूबना इस तरह, पागलपन की निशानी तो है ही! शायद कान ही बज उठे हों! वो बैठ गयी वहाँ! और बिछा दीं निगाहें! सामने देखा! वही उँट-गाड़ी जा रही थी, हिलते हिलते! लेकिन कोई आ नहीं रहा था!! 

और तभी लू का एक तेज थपेड़ा आया! गंगा के दानों में दबा वो दुपट्टा निकल गया! सर से भी उड़ गया। उड़ता हुआ, काफी दूर जा गिरा! भागी लेने गंगा! पकड़ लिया, और ओढ़ भी लिया! आ गयी वापिस! फिर से बैठ गयी वहाँ! कुछ पल शान्ति के बीते! 

और फिर एक फुसफुसाहट! "गंगा!" आवाज़ आई, फुसफुसाती हुई! गंगा आसपास देखे! "मेरी गंगा!" फिर से आवाज़ आई! गंगा उठ खड़ी हुई! आसपास देखा! कोई नहीं था वहाँ! गंगा ने उचक उचक के भी देखा! लेकिन कोई नहीं था! "कौन है यहां?" बोली वो! कोई आवाज़ नहीं फिर! कुछ देर, कोई आवाज़ नहीं! गंगा फिर से बैठ गयी! तभी सर से कुछ टकराया उसके! टकरा के, नीचे गिरा! गंगा ने देखा, एक फूल! गुड़हल का फूल! गंगा घबरा गयी! मलेठ। एक जंगली पेड़) के उस पेड़ पर, गुड़हल के फूल? ऐसा कैसे? उठ गयी थी गंगा! "गंगा! मेरी गंगा!!" फिर से आवाज़ आई! नही! नहीं! अब ये वहम नहीं! आवाज़ साफ़ थी! गंगा! मेरी गंगा! "माला?" बोली चिल्ला के गंगा! "क्या हुआ?" बोली माला! चिल्ला के! "इधर, इधर आ जल्दी!" बोली वो। माला भागे भागे आई वहाँ! "ये देख?" उसने ऊँगली से इशारा किया नीचे, फूल की तरफ! "क्या है?" माला ने दोनों हाथ बाँध कर पूछा! "फूल" वो बोली, "कहाँ है फूल?" पूछा माला ने! अब गंगा ने जैसे ही नीचे देखा, फूल नहीं था वहाँ! "यहीं था? मेरे सर से टकराया था? मुझे आवाज़ भी दी किसी ने?" बोली एक ही सांस में 

गंगा! "कुछ नहीं था! दिमाग में तेरे अब और कुछ नहीं बचा!" बोली माला! "सच कह रही हूँ माला मैं" बोली गंगा! 

"मान लिया! लेकिन आवाज़ देने वाला है कहाँ?" पूछा उसने! "पता नहीं" वो बोली, "आ चल, देखते हैं" बोली गंगा का हाथ पकड़ कर! 

अब वे चलीं ढूंढने! उस आवाज़ देने वाले को! "कोई है क्या?" बोली माला! कोई नहीं था! बियाबान, बंजर!! 

और कुछ नहीं! बेजान पत्थर! और कुछ नहीं! लू के थपेड़े झेलती झाड़ियाँ, और कुछ नहीं! "ले, कोई नहीं है!" बोली माला, "लेकिन...........?" बोली गंगा! "कोई लेकिन वेकिन नहीं, चल अब, पानी भर, और चल" बोली वो! हाथ पकड़ कर, ले चली उसे! कुँए पर पहुंचे, पानी भरा और चलीं वापिस! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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लेकिन वो फूल? वो आवाजें? वो भम नहीं था। न ही वहम!! कुछ तो था। कुछ न कुछ तो! यही सोचती हुई, चलती रही गंगा! और माला! उसका उपहास उड़ाती रही! सारे रास्ते! अब मन में भय बैठ चला था गंगा के! और कुछ आशंकाएं भी! भटकाव के रास्ते में आ चुकी थी! भटक रही थी! दिल, दिमाग सब भटकाव में था! वो फूल, वो आवाजें! वो मेरी गंगा!' कहना! भय की बात तो थी ही! आशंका ये, कि कहीं कुछ अनहोनी तो नहीं हो गयी उस भूदेव के संग? अब हआ मुंह कड़वा गंगा का! गंगा के किनारे, कटने लगे, पानी मटमैला हो गया, आशंकाओं की मिट्टी मिलने से! बहुत मनाती दिल को, कि कुछ नहीं हुआ होगा उस भूदेव के संग, लेकिन दिल, फिर वही तूती बजाता! प्रश्नों की तूती! उसी शाम की बात होगी, वैसे साँझ हुई नहीं थी, साँझ होने में अभी देर थी, घर में लगे एक पेड़ का गुहा, अड़ता था बार बार, सोचा गंगा के पिता जी ने, कि काट ही दिया जाए वो, गुद्दा था भी बड़ा ही, और ऊंचा भी था, तो उसके नीचे से सारी वस्तुएं हटा ली गयीं, यही सोचा कि पहले गुद्दे की शाखें काटी 

जाएँ, और फिर गद्दा, यही ठीक था और तरीका भी यही था! तय ये हआ कि पहले पिता जी काटेंगे शाखें, जब थक जाएंगे तो उदयचंद काटेगा! दोनों मामा-भांजे, हुए तैयार! पहले पिताजी चढ़े पेड़ पर! काटी शाखें, फिर उदयचंद चढ़ा, काटीं बड़ी शाखें, नीचे लडकिया, वे शाखे उठा लेटी थीं, रख देती थीं एक तरफ! बार बार वे उतरते रहे और चढ़ते रहे! गुद्दा मज़बूत था, जितना सोचा था उस से कहीं अधिक मज़बूत! थक गए! पानी पिया! और साँझ भी होने को आई। उस समय पेड़ पर चढ़ा वो उदयचंद कुल्हाड़ी चला रहा था! कि गुद्दा टूटा, गुद्दे से अड़ा उसका पाजामा, और धड़ाम नीचे! उदयचंद गिरा नीचे, और गद्दा उसके ऊपर! उदयचंद चिल्लाया, सभी भागे उसकी तरफ, उदयचंद ने उठने की कोशिश की और फिर बेहोश! घर में तो चीख-पुकार मच गयी! सभी लड़कियां रोने लगीं! गंगा भागी भागी गयी पानी लेने, मुंह पर छींटे मारे, लेकिन होश नहीं आया उसको! बदहवास से भागे राम किशोर बाहर, वैद्य को बुलाने, घर में मच गया था कोहराम, गुद्दा तो हटा दिया था, लेकिन उदयचंद चेतनाशून्य हो गया था। कोई दस मिनट के बाद वैदय आये, तब तक चारपाई पर लिटा दिया गया था उसे, नाड़ी की जांच की, उसकी, वैद्य साहब ने बताया कि हालत नाजुक है, हृदयगति गिरती जा रही है, यदि शीघ्र ही कुछ न किया गया तो, प्राण भी जा सकते हैं, सलाह दी उन्होंने, कि अस्पताल ले जाया जाए उसको, बस, और कोई तरीका नहीं! ये सुन तो सभी के कलेजे फट पड़े! इस समय कैसे ले जाएँ? ऊँट-गाड़ी कहाँ से मिले? और शहर तक तो सुबह हो जायेगी, राम किशोर भी आँखों में आंसू भर लाये! गंगा का बुरा हाल, गंगा की माँ का बुरा हाल! जमना अपने भाई को बार बार हिलाये! माला, बार बार छींटे दे। राम किशोर चले गए बाहर! ऊँट-गाड़ी देखने, देर भली न थी, कोई भी अनहोनी हो सकती थी उस समय। "गंगा! मेरी गंगा!" आवाज़ आई गंगा को! गंगा चौंकी! 

आसपास देखा! "जा, कमरे में जा, फूल उठा, रख दे इसके सीने पर,जा!"आवाज़ आई! गंगा भागी अंदर! न सोचा कि आवाज़ किसने दी। उदयचंद, मौत के मुंह में जाने वाला था, अब क्या सोचे! कमरे में गयी, तो बिस्तर पर फूल पड़े थे। करीब आठ-दस! एक फूल उठाया उसने। और


   
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श्रीशः उपदंडक
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रख दिया उदयचंद के सीने पर। माँ को अटपटा सा लगा! लेकिन तभी! तभी खांसता हुआ उठा उदयचंद! प्राण बच गए थे उसके! तत्क्षण ही अब तो सभी चिपट गए उस से! उदयचंद खड़ा हो गया! मामा के बारे में पूछा, वो सही था, बस खरोंचें थीं!! सीने पर! 

तभी राम किशोर आये! उदयचंद को देखा! तो लिपट पड़े! आंसू बहा बैठे! राम किशोर के साथ तीन लोग और आ गए थे सहायता करने! जब उसको ठीक देखा तो चले गए। उस उदयचंद से हाल पूछ कर उसका! अब माँ ने सारी बात बतायी! कि कैसे ठीक हुआ वो उदयचंद! पिता जी गंगा को ले, कमरे में पहुंचे! फूल पड़े थे बिस्तर पर! नहीं समझे कि कहाँ से आये वे फूल! लेकिन, गंगा! गंगा की आशंकाएं अब आसमान छूने लगी थीं! उस सारी रात गंगा सो न सकी! किसकी आवाज़ है वो? कौन है वो? किसने मदद की उसकी जान बचाने में उस उदयचंद की? अब ऐसे ऐसे सवाल उसके दिमाग में घुमने लगे! मित्रगण! रोज सुबह, फूल मिलते उसको अपने बिस्तर पर! लेकिन आवाज़ नहीं आती थी अब! बस फूल! गंगा उलझी थी बहुत! बहुत! जब भी अंधे कुँए पर जाती, बैठ जाती, सोचती रहती, ताकती रहती रास्ता! लेकिन वो आवाज़, नहीं आई थी उस दिन के बाद से! 

और फिर महीना बीता! अब तो सीने में कैद दिल बाहर को आये। ऐसे ऐसे सवाल करे कि जिनका जवाब बेचारी गंगा के पास था ही नहीं अंदर ही अंदर घुले जा रही थी गंगा! 

और फिर आया वो दिन! जिस दिन गंगा, चली कँए पर पानी लेने! हिसाब से तो, आज आना चाहिए था उसको! बैठी जाकर अंधे कुँए पर, बिछा दीं निगाहें रास्ते पर! और हुआ अब शुरू इंतज़ार! दिल ऐसे धड़के कि जैसे सीना ही फाड़ देगा! सर ऐसे घूमे कि अभी गिरी और अभी गिरी! "गंगा!" आवाज़ आई! वो घबराई। आसपास देखा! कोई नहीं! "मेरी गंगा! प्रेम करता हूँ तुझसे मैं!" आवाज़ आई! गंगा भागी वहाँ से, और जैसे ही रास्ते में आई,नज़र पीछे गयी, रास्ते पर! कोई आ रहा था! तेज घोड़ा दौड़ाते हए! दिल में बजती सारंगी, शहनाई में बदली! माथे पर पड़ी शिकन, चमक में बदलीं! दिल जो सवाल किया करता था बेकार के, अब शांत हआ था! आशंकाएं फिर से आत्महत्या करने चली गयीं! और कुछ ही देर में, आ गया था वो! गंगा कँए की तरफ बढ़ी! वो घोड़े से उतरा! लगाम पकड़ी, मुंह खोला घोड़े का और छोड़ दिया पानी पीने के लिए! आया गंगा के पास। "पानी!" बोला वो! गंगा के बदन में, मन में हिलोरें उठी थीं! 

सारी आशंकाएं मिल गयीं थीं धल में! पानी पिलाया गंगा ने उसे! उसने पानी पिया! और अपना चेहरा साफ़ किया! फिर हाथ पोंछे। गंगा! अंदर ही अंदर गल रही थी! कैसे बताये कि पूरा महीना, कैसे काटा! कैसे एक एक पल काटा! तिल तिल घुट घुट कर! कैसे एक एक लम्हे से लड़ी वो! आँखों में आंसू आये उसके! पोंछती तो पता चला जाता सभी को! खासतौर पर उस भूदेव को! इसीलिए, सर नीचे किये हुए, खड़ी रही! "कैसी है गंगा तू?" पूछा उसने! 

सैलाब टूटा! जज़्बातों का अब फूटा! लिपट गयी उस भूदेव से गंगा! भूदेव हैरान! माला हैरान! "गंगा? मेरी गंगा? क्या बात है?" पूछा उसने! उसको हटाये, तो न हटे! गंगा का चेहरा उसने अपनी ऊँगली से टटोला! और उसकी चिबुक से उठाया ऊपर! गंगा की 


   
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श्रीशः उपदंडक
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आँखों में आंसू दिखे। "क्या बात है गंगा? मुझे बता?? बता मुझे? बता??" घबरा सा गया वो! गंगा न छोड़े उसे! सिसकी ले! "किसी ने कुछ कहा तुझे?" पूछा उसने! न बोले कुछ! "किसी ने देखा तुझे?" पूछा उसने! नहीं बोली एक भी शब्द! "किसी ने कुछ कहा गंगा? गर्दन उतार दूंगा उसकी धड़ से, बता मुझे? बता गंगा?" बोला वो! नहीं बोले! नहीं छोड़े! "ऐसे नहीं, ऐसे नहीं कर गंगा! गंगा! तेरी आँखों में आंसू अच्छे नहीं लगते! नहीं गंगा!" बोला वो! 

और लिपटा लिया उसको अपने भीतर! रख दी गंगा के सर पर अपनी चिबुक! "मुझे बता गंगा? बता क्या हुआ?" बोला वो! गिड़गिड़ाते हुए! याचना सी करते हुए। गंगा हटी! अपनी आँखें पोंछती, इस से पहले रोका उसको भूदेव ने आँखें देखीं! डबडबायी हुई आँखें! अपने कपड़े से, पौंछ दिए आंसू! 

"आ! मेरे साथ आ!" बोला भूदेव! हाथ पकड़ कर, ले चला! वहीं अंधे कुँए के पास! "बैठ, यहाँ बैठ" कपड़ा बिछाते हुए बोला बो, पेड़ के नीचे, उस कुँए की मुंडेर पर! "अब बता, क्या हुआ?" पूछा उसने! 

और अब मित्रगण! सब बता दिया गंगा ने! वो आवाजें! वो फूल! वो उदयचंद वाली घटना! सब बता दिया! भूदेव का माथा ठनका! "मेरी आवाज़ में?" पूछा उसने! गंगा ने हाँ में सर हिलाया! मामला गंभीर था! "आवाज़ यहीं आई थी?" पूछा उसने! "हाँ, यहीं" बोली वो! अपने वस्त्र के अंदर हाथ डाला उसने! और निकाल लिया खंजर! "कौन है यहां?" पूछा उसने! कोई आवाज़ नहीं! "कौन है? सामने आ? इसको आज के बाद तंग किया, तो ऐसी जगह भेजूंगा कि वापिस लौटना नामुमकिन होगा!" बोला गरज के वौ! 

और तभी! तभी कुछ फूल गिरे! गंगा के सामने! गंगा से टकराते हए!! फूल कहाँ से गिरे? उस मलेठ के पेड़ से? मलेठ का पेड़ नहीं गिरा सकता वो लाल फूल! मलेठ का जंगली फूल छोटा और पीले रंग का होता है! छोटा सा, ये देखा वे चौंक पड़े! गंगा ने सही कहा था, की कोई उसको आवाजें देता है, और तो और उसने उदयचंद की मदद भी की थी! गंगा घबरा गयी थी, तो उस भूदेव ने, फ़ौरन ही खींच लिया था उसको अपने अंदर, भुजाओं में भर लिया था, खंजर हाथ में था, कोई यदि सामने ये हिमाकत करता तो अभी चीर के रख देता भूदेव! कलेजे वाला इंसान था भूदेव! दिन रात जंगलों से गुजरा करता था! भय रखने 

वाला होता, तो वो नौकरी ही नहीं कर पाता! "गंगा! जा, तू कुँए पर जा!" बोला भूदेव! "नहीं, आप भी चलो!" बोली वो! "तू जा न?" बोला वो! "नहीं!" वो बोला! भूदेव ने फिर से भुजाओं में भरा उसको। आसपास देखा, उस पेड़ को भी देखा! "हिम्मत है तो सामने आ! कौन है तू?" बोला भूदेव! कोई नहीं आया! "गंगा! मेरी गंगा!"आवाज़ आई! एकदम भूदेव जैसी! भूदेव ने और कसा गंगा को, "गंगा! भाग! जा यहां से?" बोला वो! "नहीं, मैं नहीं जाउंगी!" बोली गंगा! "मान गंगा! ये को प्रेत है, छलावा है, तू जा, कँए पर जा!" बोला वो! हटाया उसको अपने से, लेकिन छोड़े ही न वो! लिपट गयी थी उस से, आँखें बंद किये। तब भूदेव ही हटा पीछे, उसको उठाये हुए! आया रास्ते तक! खंजर तना था अभी तक हाथ में! देख रहा था अभी भी पेड़ को! "तू यहां रह! मैं आया अभी!" कहते ही चल पड़ा भूदेव, उस पेड़ की ओर! गंगा चिल्लाती रही, पुकारती रही,


   
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श्रीशः उपदंडक
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लेकिन जीवट वाला वो भूदेव घबराया नहीं! नहीं घबराया! उसकी गंगा को तंग किया था किसी ने और उसके होते हुए कोई गंगा को तंग करे, ये उसको कहाँ बर्दाश्त होता! चेहरा तमतमा गया उसका! नसें फड़क उठीं! रक्त-प्रवाह तेज हो गया उनमे! भुजाएं फड़क उठीं! कोई होता शरीरी तो उन मज़बूत भुजाओं में जकड़ा, दम ही तोड़ देता! "कौन है? सामने आ?" बोला भूदेव! "तू जा! छोड़ दे मेरी गंगा को! जा! छोड़ देता हूँ तुझे!" आवाज़ आई! ये सुन, और भड़का भूदेव! "सामने आ कर बात कर? तू समझता है मैं डर गया? सामने आ मेरे?" चीखा भूदेव! 

और वहां गंगा, गंगा का वक्ष तेजी से ऊपर नीचे हो रहा था! क्या करे वो! असमंजस में थी वो! जब नहीं बना, तो भाग छूटी वहाँ से, और जा पहुंची भूदेव के पास! बाजू पकड़ ली भूदेव की उसने। भूदेव ने उसको अपने पीछे कर लिया, खुद सामने रह कर! एक हाथ से पकड़े रहा 

वो! 

"हरामज़ादे! सामने तो आ? हिम्मत नहीं है? मेरी गंगा को कुछ भी हुआ, तू तेरा हाल तू ही 

जानेगा!" बोला भूदेव! ठहाका गूंजा!! "सामने तो आ? आ ज़रा?" दहाड़ा भूदेव! तेज लू सी चली! अंधड़ सा! आँखें मिंच गयीं गंगा की, लेकिन वो बाकरा भूदेव, आदि था इसका! रोज ऐसे अंधड़ झेलता था वो! ऐसी ही चटक धूप में आना जाना रहता था उसका! 

और सामने, उस कुंए की मुंडेर के पास, प्रकट हुआ वो! एक पच्चीस-छब्बीस बरस का । जवान! राजपुताना सिपाही सा! अधफाड़ दाढ़ी थी उसकी! काले रंग की, काले रंग की मूंछे थीं, घनी मूंछे! सर पर साफ़ा बांधे, कमर में तलवार लटकाये! चंद्राकार तलवार थी उसकी! कमर में खंजर भी खोंसा हुआ था उसने! गोरा-चिट्टा! लम्बा-चौड़ा ऊंची कद-काठी वाला था वो! हार्थों में अंगूठियां पहने हुआ था! रत्नों की अंगूठियां! खड़ा खड़ा, मुस्कुरा रहा था! गंगा उसको देख, सिहर गयी थी! लेकिन उस भूदेव के नथुने फड़क उठे थे! सीना फ़ैल गया था गरम श्वासों से! "कौन है तू?" पूछाभूदेव ने! "तेजराज!" बोला वो, हंसकर! "क्या चाहता है?" बोला भूदेव! "गंगा! मेरी गंगा!" बोला वो! गंगा डरे! चिपक जाए उस से! और भूदेव! भूदेव सरंक्षण दे उसे!! अपने हाथ से थामे रहे उसे! "आज के बाद, कभी गंगा के सामने आ मत जाना। कभी तंग नहीं करना। नहीं तो अंजाम बहुत बुरा होगा तेरा!" बोला भूदेव! खंजर दिखा कर उसे! "तू अगर इसे प्यार नहीं होता, तो तेरे टुकड़े कर देता मैं, इसी समय! लेकिन मेरी गंगा, 

आंसू बहाये, ये मुझे बर्दाश्त नहीं, इसीलिए, छोड़ देता हूँ तुझे, जा, कभी नहीं आना!!" वो बोला! इतना कह लोप हो गया वो! 

और गंगा, सिमट गयी भूदेव की बाहों में! डर गयी थी! घबरा गयी थी, बदन से कंपकंपी छूट रही थी! "न! न गंगा न! मत घबरा! मत डर! इसका इंतज़ाम करता हूँ मैं! मत घबरा! तू जा, पानी भर, मैं छोड़ के आता हूँ तुझे! मत डर! बोला वो! । 

और ले चला, उठाकर उसे! माला को कुछ समझा नहीं आया था, कि क्या हुआ, क्या हो रहा था वहां! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"चल माला, पानी भर और चल यहां से" बोला भूदेव! माला ने पानी भरा, गंगा ने भी भरा, और भूदेव चला उनको छोड़ने! गाँव आया, तो मुड़ा, "सुन गंगा! कल नहीं आना तू पानी भरने, मैं आऊंगा, उसका इंतज़ाम करता हूँ, डरना नहीं! घबराना नहीं!" बोला वो, 

और लगा दी एड़ घोड़े को अपनी और दौड़ पड़ा। जब कुंए के पास से गुजरा, तो वही तेजराज, खड़ा था उसी अंधे कुँए के पास! तलवार निकले, घूरते हुए उस आते हुए भूदेव को! भूदेव का घोडा हिनहिनाया! और भूदेव ने लगाम कस लीं घोड़े की आया वहीं कुँए तक, उस तेजराज को देखा, घोड़े से उतरा और चला उसकी तरफ ही! 

आ गया उसके पास ही! बस कोई चार फ़ीट दूर! "फिर मरने चला आया?" बोला तेजराज! "अरे तेरी क्या औकात मुझे मारने की तेजराज!" बोला भूदेव! हंसा! तेजराज हंसा! ये सुनते ही! "तू छोड़ दे उसका पीछा तेजराज!" बोला भूदेव। "गंगा मेरी है!" चीख के बोला! "गंगा मेरी है, ये तू भी जानता है!" बोला भूदेव! "नहीं, मेरी है वो!" गुस्से में आँखें पीली करते हुए बोला वो! "तो तु ऐसे नहीं मानेगा?" बोला भूदेव! "तेरे बसकी जो हो, कर ले, गंगा मेरी है है!" बोला तेजराज! कोई शरीरी होता, तो इतनी बात पर, काट के चार टुकड़े कर देता वो भूदेव! और डाल देता उसी कुँए में! "करूँगा! ज़रूर करूंगा!" बोला वौ! 

और मुड़ा वो पीछे! आया घोड़े तक! बैठा और चल दिया वापिस! तेजराज झट से लोप हुआ! वहां घर में, तबीयत बिगड़ गयी थी गंगा की, भय बैठ गया था, और सबसे बड़ा भय ये की कहीं वो नुकसान न पहुंचा दे उस भूदेव को! पिता जी घर में थे, गंगा का माथा छुआ, तो तीव्र ज्वर था, गए बाहर तभी, और कुछ देर बाद, ले आये वैद्य को, वैद्य ने जांच की, और कुछ दवा दे दी, दवा क्या असर करती, बस ये कि नींद आ गयी उसको बस! उस रात! 

सोयी हुई थी गंगा! ज्वर टूटा नहीं था अभी तक, माँ और माला, वहीं बैठे थे, उसके सर पर पट्टियाँ बदलते हए ठंडे पानी की, आँख लगी गंगा की, और उसने एक सपना देखा, सपना कि पिता जी कहीं बाहर गए हए हैं, बाहर, ऊँट-गाड़ी फिसल गयी रास्ते से, पिता जी गिरे, 

और गिरते ही उनकी गर्दन टूट गयी, घर आई उनके तो केवल उनकी लाश! चिल्ला के उठी गंगा! पिताजी, पिता जी, पिता जी को बुलाओ?" चीखी वो! चीख पिता जी ने भी सुनी, दौड़े आये! "क्या हुआ?" पूछा, "आप नहीं जाना कहीं कल बाहर, नहीं जाना!" बोली वो! बोलती रही! अटपटा सा लगा पिता जी को! गंगा कभी ऐसा नहीं बोला करती! शायद तबीयत खराब है, इसीलिए ऐसा बोल रही है! "नहीं जाऊँगा" बोले वो! 

अब तसल्ली हुई गंगा को! रात गहराई, तो नींद आई,सो गयी। सुबह हुई! गंगा की नींद देर से खुली, ज्वर अभी भी था, बदन टूटा हुआ था, माला पास ही बैठी थी उसके, पंखा झलती हुई! "कैसी है तू अब?" पूछा माला ने, "ठीक हूँ" बोली गंगा, हाथ लगा के देखा माला ने, ज्वर बहुत था अभी भी! "कहाँ चली?" पूछा उसने, "अभी आई" बोली वो! चली गयी बाहर, फिर लौट के आई कुछ देर में, बैठ गयी, "पिता जी कहाँ हैं?" पूछा उसने, "गए हैं" बोली माला, "क्या? कहाँ?" पूछा उसने, "अपने व्यापार के सिलसिले में" बोली माला, अब घबराई वो! उठी, भागी माँ के पास! "पिता जी कहाँ हैं?" पूछा उसने, "वो तो गए?" बोली माँ! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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बैठ गयी वहीं, सर पकड़ कर! रोने लगी! माँ परेशान! पूछा माँ ने बहुत! सपना! वो सपना! रोई बहुत गंगा.........आशंकाओं में घिर गयी थी....... लेट गयी वहीं, रोते रोते........... गंगा, बेचारी, कहाँ फंसी.......... वो दिन, बहुत बेचैनी से कटा, एक तो वो सपना, पिता जी की कुशलता, और वो भूदेव, मना कर के गया था उसे, की कल गंगा नहीं आये वहाँ, और भूदेव ही इंतजाम कर लेगा उसका! और भूदेव ने इंतज़ाम भी कर लिया था, भूदेव के एक जानकार थे, छिंदा, छिंदा के एक गुरु थे, बाबा बिन्ना, भूदेव सुबह ही चला गया था उनके पास, छिंदा से मिला वो, और छिंदा ले गया भूदेव को बाबा बिन्ना के पास, बाबा बिन्ना ने सारी बात सुनी, और आश्वासन दिया कि वो प्रेत तेजराज, पकड़ लिया जाएगा, और फिर कभी तंग नहीं करेगा किसी को भी, लगता था कि बहुत समय सोने के बाद अब जाग गया था वो, और अगर वो अब गंगा को प्रेम करने लगा है, तो मामला गंभीर है, और सबसे अधिक खतरा इस समय भूदेव को ही है, भूदेव ने बाबा बीनना से यही कहा, कि चाहे कुछ भी करना पड़े, चाहे कुछ भी, उस प्रेत तेजराज को पकड़ना अत्यंत ही आवश्यक है! बाबा बिन्ना ने सारी बात समझ ली और फिर अभिमंत्रित भस्म दी भूदेव को, उसको वो भस्म उसी स्थान पर बिखेर देनी थी, बाकी का काम बाबा बिन्ना ने कर ही देना था! भूदेव वो भस्म लेकर दौड़ पड़ा! जानता था कि गंगा भी खतरे में है, भरी धूप में चलना था उसे, वो चलता रहा! और दोपहर बाद तक पहुँच गया वो उस जगह! कुआं खाली था! कोई नहीं था वहां, चिलचिलाती धूप थी यहां, घोड़े को ले गया कुए के पास, नांद में पानी भरा था, अक्सर औरतें नांद को भर ही दिया करती थीं, जानवर, मवेशी पानी पी लिया करते थे वहाँ से, इसीलिए, घोड़ा भी पीने लगा पानी, अब, चला भूदेव वो भस्म लेकर उस अंधे कॅए की तरफ! और वो पुड़िया खोल, बिखेर दी भस्म वहीं! तीन बार चीख की आवाजें उठीं! और फिर सब शांत! भूदेव हंसा! और चिल्ला चिल्ला के उसको पुकारा! कोई नहीं आया! शायद बाबा बिन्ना ने पकड़ लिया था उसको! आज आना नहीं था उस गंगा को, तो अपना घोड़ा लिया, और चल पड़ा वापिस! उसकी मंजिल थी, बाबा बिन्ना! वहीं जाकर मालूमात होती अब! बियाबान और उस सुनसान को लांघता चल पड़ा था! जीवट वाला था वो भूदेव! उधर, गंगा की तबीयत खराब थी, ज्वर टूटे नहीं टूट रहा था, औषधियां ले रही थी, लेकिन ज्वर, बदन तोड़े दे रहा था उसका, ऊपर से वो सपना, और पिता की सकुशलता, सताए जा 

रही थी उसे! रह रह कर ध्यान आता उसे उस भूदेव का! भूदेव की हिम्मत के कारण टिकी हुई थी अभी तक, नहीं तो बिखर ही जाती कांच के मानिंद! वो रात बीती, बहुत कष्टकारी रात थी, माला, साये की तरह साथ थी, ज्वर कुछ हल्का अवश्य ही था, लेकिन टूटा नहीं था, मुंह कड़वा था उसका, कुछ खाए नहीं बन रहा था, चेहरा मुरझा सा गया था बेचारी का! दोपहर बीती और वे चलीं कुए की तरफ, किसी तरह से, हाँफते हाँफते पहुंची थी वो उधर, बैठ गए थी, लेकिन आज उस अंधे कुँए पर नहीं, उस कुँए की मुंडेर पर ही, कुछ ही देर में आने वाला था वो भूदेव! नज़रें बिछा दीं उसने, कोई आ रहा था! घोड़े पर, भागता हुआ, वो भदेव ही था! खड़ी हई वो गंगा, और आयी रास्ते पर, बीचोंबीच! आ गया था भूदेव! घोड़ा हांफता हुआ, रुक गया था, उसकी लगाम छोड़ी भूदेव ने, तो घोड़ा पानी पीने के लिए, नांद की तरफ मुड़ गया! भूदेव


   
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श्रीशः उपदंडक
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ने चेहरा देखा उस गंगा का! पानी भी नहीं माँगा उसने! गंगा के पास आया, गंगा को देखा, आँखों से बूंदें छलक आयीं आसुओं की! न देखा गया उस से! जा चिपटा उस से! भर लिया सीने में! सर पर हाथ फेरा! भींच लिया अपने अंदर! "क्या बात है गंगा?" घबरा के पूछा गंगा से! गंगा ने आंसू पोंछे अपने! 

और बता दी सारी बात सपने की! "न घबरा! कुछ नहीं होगा पिता जी को! कुछ नहीं होगा! अब सब खत्म है, वो नहीं करेगा तंग! पकड़ लिया है उसको! कर दिया है इंतज़ाम!" बोला भूदेव! कुछ हिम्मत बंधी गंगा की! "आ, उधर आ! बोला भूदेव! चली गंगा साथ उसके! आये उस अंधे कुँए के पास! और तभी फूल बरस गए गंगा के ऊपर! गंगा चौंकी! भूदेव चौंका! आसपास देखा, गंगा को चक्कर सा आया, संभाला भूदेव ने! गंगा नहीं सम्भल सकी, बेहोश हो गयी थी गंगा! माला फ़ौरन, उसको गिरते देख, भागी आई वहां! घबराई हुई सी, आँखें फाड़े, बार बार गंगा का नाम पुकारते हुए, हिलाती रही उसको! आसपास देखा भूदेव ने! तो कुंए से थोड़ा दूर, खड़ा था तेजराज! आव देखा न ताव! भूदेव अपना खंजर लिए, दौड़ पड़ा उसकी तरफ! हवा थी! क्या करता! कई वार किये! कुछ न 

हुआ! 

"मुझे बंधवाने गया था तू?" बोला तेजराज! बौखलाया सा खड़ा था वो भूदेव! "मुझे बंधवाने गया था न?" बोला वो! "हाँ! तुझे बंधवा के ही छोडूंगा!"बोला भूदेव! हंसा! ठहाका मारा उसने! "तुझे कहा था मैंने, चला जा, तू नहीं माना! नहीं माना न?" बोला तेजराज! "मानूंगा भी नहीं हरामजादे!" बोला भदेव! फिर क्या था! हवा में उठा लिए भूदेव को उसने! और फेंक के मारा उसको पत्थर पर! भूदेव के जिस्म में जान थी, गिरा लेकिन उठ गया, फिर से हवा में उठाया, और फिर से फेंका! इस बार एक दीवार पर गिरा, अबकी चोट लगी भूदेव को! और जैसे ही उठने की कोशिश की, गिरेबान से पकड़ लिया उस भूदेव को उसने! भूदेव का गला घुटता इस से पहले ही आवाज़ 

आई गंगा की! "ठहरो!" गंगा भागती हुई आई, होश आ गया था उसे! "छोड़ दो इन्हे!" गिड़गिड़ाते हए बोली गंगा! छोड़ दिया! भूदेव, बेहोशी की कगार पर था! "छोड़ दिया गंगा! तेरे कहने पर! आज के बाद ये कभी इधर आया, तो जान से मार दूंगा इसे! समझा दे इसे गंगा! और समझ ले, तू मेरी है, मेरी ही रहेगी!" बोला तेजराज! पीछे हटा और लोप हुआ! "पानी ला माला?" बोली गंगा! माला भागी! ले आई पानी, पानी पिलाया भूदेव को! पानी पिया भूदेव ने! खड़ा किया उसे, सहारा देकर, भूदेव खड़ा हुआ, और गंगा, लग गयी गले उसके! "नहीं घबरा गंगा! तुझे कोई अलग नहीं कर सकता मुझसे!" बोला वो! गंगा रोये! आंसू बहाये! 

और वो घायल भूदेव, हिम्मत बंधाये उसकी! "मत रो गंगा! मेरे दिल में टीस उठती है" बोला भूदेव! माला, सब देख रही थी, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था! "गंगा, गंगा, एक काम कर, अब जा तू, सुन, मेरी बात सुन!" बोला वो! चलन एकी कोशिश की, तो एक पाँव मुड़ गया था पूरा! शायद हड्डी टूटी गया थी जोड़ से भूदेव की, ये देख गंगा रो पड़ी, बुरी तरह से! "मत रो गंगा! गंगा, मत रो" बोला पीड़ा बर्दाश्त करते हुए भूदेव! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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गंगा सहारा दे उसे, खड़ा किया, फिर भी,अपने एक पाँव पर टिका रहा भूदेव! "सुन, मेरी बात सुन, तू घर जा अपने, अब आऊंगा तेरे घर, तेरा हाथ मांगने गंगा! और तुझे, इस बला से मुक्त करवाऊंगा सबसे पहले, एक काम कर, कपड़ा बांड दे मेरे पाँव पर, बिठा दे घोड़े पर, चल गंगा!" बोला वो! 

गंगा ने बिठाया उसे! पाँव में अपना दुपट्टा बाँध दिया! पीड़ा बहुत थी, करता रहा बर्दाश्त! "मुझे घोड़े पर बिठा दे" बोला वो! माला और गंगा ने, घोड़े पर बिठाया उसको! मुस्कुराया, अपने हाथ से गंगा के आंसू पोंछे, गंगा, बहुत जल्दी, बहुत जल्दी आऊंगा तेरे पास, इत्र हाथ मांगे, तू अपना ख़याल रखना, ठीक है?" बोला वो! सर हिलाकर हाँ कही गंगा ने! "जा गंगा, जा, माला पानी भर ले,और ले जा इसे" बोला वो, पानी भर लिया उन्होंने "चल, चल अब गंगा" बोला वो, वे चल दी, वापिस, बीच बीच में रुक जाती गंगा, भूदेव, हाथ से आगे चलते रहने का इशारा करता, जब चली गयीं, तो घोड़े को एक पाँव से लगाई एड़, और दौड़ा दिया घोड़ा उसने! 

आ गयीं वो घर, अब माला को सब बता दिया गंगा ने, माला के होश उड़ गए! माला ने पूछा कि क्या माँ को बता दूँ ये बात? तो मना कर दिया गंगा ने! मित्रगण! चार दिन बीते! इन चार दिनों में, कोई फूल नहीं दिखा! 

और पिता जी आये, संग उदयचंद के! सकुशल! गंगा की आशंकाएं गायब हो गयीं। बैठे पिता जी, माला पानी लायी! गंगा भी संग खड़ी थी उनके! "अरे इस बार कमाल हो गया!" बोले पिता जी, "कैसा कमाल?" पूछा माँ ने! "ऊँट-गाडी, वापसी में खिसक गयी सड़क से, और सब नीचे, मेरी गदन आ गयी जुए के बीच, लेकिन कमाल हुआ!" बोले वो! "क्या?" माँ ने पूछा! "जैसे ही मैं गिरा, वो जुआ पकड़ लिया एक आदमी ने। आदमी दमदार था। और निकाल लिया उसने मुझे उसमे से! उदयचंद को भी उठा लिया! एक खरोंच भी नहीं लगी हमें, हाँ, दूसरों की अस्थियां टूट गयीं!" वे बोले! 

"कौन था वो आदमी?" पूछा माँ ने! "एक सिपाही! तेजराज नाम था उसका!" वे बोले! तेजराज! नाम सुन, माला और गंगा पलटी पीछे, धीरे धीरे! आयीं अपने कमरे तक, कांपती हुई, और क्या देखा! बिस्तर पर, फूल पड़े थे, गुड़हल के ताज़ा फूल! 

सजाये हुए, एक कतार में!! गंगा को अब गुस्सा आया! वो फूल उठाये, और फेंक दिए बाहर खिड़की से! बस, अब बहुत हुआ इस तेजराज का नाटक! बैठ गयी गुस्से में, सोचते हुए उस तेजराज के बारे में, माला 

भी आ बैठी उसके संग, माला कुछ बोल न सकी क्योंकि गंगा गुस्से में थी! "भूदेव ने तो कहा था कि इंतज़ाम हो जाएगा?" बोली माला, गंगा कुछ न बोली, बस बाहर झांकती रही, "गंगा?" बोली माला, फिर कुछ न बोली, माला चुप लगा गयी, गंगा से मज़ाक करना तो सही था, लेकिन अगर गुस्से में हो, तो बात अलग ही होती, गंगा उसको ही डॉट देती, "गंगा? पिता जी को बता दे सब" बोली माला, गंगा ने गुस्से से देखा उसे, सिहर गयी भय से माला, खड़ी हुई, अपना दुपट्टा बदला, "आ माला मेरे साथ" बोली गंगा, "कहाँ?" पूछा माला ने! "तुझे चलना है या नहीं पूछा गंगा ने, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब खड़ी हो गयी माला, "चल गंगा" बोली वो, 

और धड़धड़ाते हुए, चली गयीं बाहर, किसी ने रोका भी नहीं! "गंगा?" बोली माला, "हुं?" बोली गंगा! "कहाँ जा रही है तू?" पूछा माला ने, "उस अंधे कुँए के पास" बोली गंगा! माला ने सुना, और वहीं ठहर गयी, गंगा भी रुकी, माला को देखा, लेकिन कहा कुछ नहीं 

उसने, और बढ़ गयी आगे, आज तो कुछ ठान ही रखा था गंगा ने! जब नहीं रुकी गंगा, तो माला भी भाग आई उसके पास, "गंगा?" बोली माला, गंगा कुछ न बोली! "गंगा, एक बार पिता जी को बता देती तो अच्छा रहता" बोली माला, कुछ नहीं बोली वो! चलती रही गंगा! गंगा आगे आगे, माला पीछे पीछे! और आ गया वो अँधा कुआँ! माला वहीं रुक गयी! और गंगा, उस कुँए को निहारते हए, चली उस तरफ ही! जैसे ही पहंची, फूलों की बरसात सी होने लगी! कुछ सर पर गिरे, तो झाड़ दिए अपने सर से! "सामने आओ मेरे?" बोली वो! और आया वो तेजराज सामने! कुँए के पास खड़ा हुआ, हतप्रभ सा, चकित सा! "तू आ गयी गंगा! तू आ गयी!" बोला वो, मुस्कुरा कर, गंगा गुस्से में देखती रही उसे! "तू गुस्सा है गंगा?" बोला वो! कुछ न बोली गंगा! बस फुनकती रही! "गंगा! गुस्सा न हो, बहुत प्रेम करता हूँ तुझसे, सच्ची!" वो बोला, सच्ची? हाँ! बोला था भूदेव ने एक दो बार, यही शब्द, सच्ची! अब सर घूमा उसका! तो क्या?? तो 

क्या?? "हाँ! वो मैं ही था गंगा!" बोला वौ! रूप धर के आया था? भूदेव का? ये तेजराज? "हाँ, वो श्रृंगारदानी, तेरे लिए लाया था न मैं, तूने ली भी थी, तेरे घर की टांडी पर रखी है जो, वो, वो मैंने ही दी थी गंगा! मैं बहुत प्रेम करता हूँ तुझसे गंगा! बहुत प्रेम!" बोला तेजराज! अब जैसे चक्कर आये गंगा को! कहाँ फंसी गंगा! "गंगा, मैं तो तुझे बरसों से प्रेम करता हूँ, बरसों से, जब से तू यहां आ कर बैठती है, तब से, मैं, इस, इस कुँए में रहता हूँ,अँधा कुआँ, यही है वो अंधा कुआँ, बरसों से पड़ा रहा, छिपा रहा, बाहर नहीं निकला, लेकिन तेरा रूप देख, मैं आया बाहर, तुझे, देखा करता था मैं, मैं तो, बहुत प्रेम करता हूँ गंगा तुझे, इसीलिए, उस उदयचंद को बचाया, कि तू दुखी न हो, तेरे पिता को बचाया मैंने, गंगा! मेरा प्रेम स्वीकार ले गंगा!" बोला वो, थोड़ा पास आकर, आँखों 

में, प्रेम परोसे! 

गंगा पीछे हटी! वो आगे बढ़ा! "गंगा! जानता हूँ, मैं प्रेत हैं! जानता हूँ! मुझे मार डाला गया था गंगा, मैं खूब लड़ा, खूब, पार नहीं पड़ी मेरी, मुझे डाल दिया गया इसमें, गंगा, तभी से यहां हूँ मैं, अकेला, कोई नहीं है मेरा, तुझसे प्रीत हई मेरी, गंगा, स्वीकार ले मेरा प्रेम!" गिड़गिड़ा सा गया वो! गंगा की बोलती बंद थी! होंठ काँप रहे थे, कब गिर जाए नीचे, पता नहीं था! "जानता हूँ, तेरे जी में कौन है, वो भूदेव, है न, अब कभी नहीं आएगा वो यहां, कभी नहीं गंगा! मेरे प्रेम जो आड़े आएगा, उसे नहीं छोड़ने वाला मैं, और गंगा, वो क्या देगा तुझे, 

क्या? देख, ये देख!" बोला वो, और हवा में दोनों हाथ मार कर, फेंकता रहा वहाँ आभूषण ही आभूषण! सोने के आभूषण! गंगा के कान फ़टे! प्राण हलक़ में आये, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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आँखों में आंसू छलके, उस, उस भूदेव के लिए, जो अब नहीं आना था कभी.. गंगा, भाग ली वहाँ से! आँखों से आंसू टपक रहे थे। साँसें तक जाती कब उसकी, पता नहीं था, भाग रही थी, माला पीछे पीछे आवाज़ दे रही थी, और गंगा, घर की तरफ, भागे जा रही 

थी! 

एक और आवाज़ थी पीछे, जो दुःख भरे लहजे में गूंज रही थी, उस तेजराज की, 'गंगा........ गंगा....मत जा......मत जा गंगा.........मत जा........... 

गंगा घर पहुंची, होशोहवास नहीं थे उसके उसके पास, घर में घुसी, तो कमरे में आई, कमरे में आई तो बिस्तर पर चढ़ी, और टांडी से वो श्रृंगारदानी उठायी, और फेंक दी बाहर वो श्रृंगारदानी, जैसे ही गिरी नीचे ज़मीन पर,आग पकड़ ली उसने, और हो गयी राख! अब गंगा, गंगा न रही! गंगा का चुलबुलापन, सब छू हो गया, वो अब गंभीर, शून्य में ताकने वाली बन गयी, माला रोज जाती कुँए पर. इंतज़ार करती, उस भूदेव का, और वो भूदेव, नहीं आया उसके बाद कभी, कहाँ था, पता नहीं, कहाँ गया, पता नहीं! कोई बीस दिन बीते, गंगा की अब सभी को चिंता होती, माला ने सब बता दिया था उस भूदेव के बारे में, उस अंधे कँए के प्रेत के बारे में उन्हें, वे तो भय से काँप गए थे, गंगा किसी से बात नहीं करती, किसी से भी, बस चुपचाप लेटी ही रहती,माँ-बाप ने इलाज करवाया गंगा का, गंगा पर कोई असर न होता, बड़े बड़े ओझा आये, सभी विफल, भोपा आये, अलख जगी, 

कुछ न हुआ! लेकिन फूल! अनवरत उसके सिरहाने रखे होते सुबह! गंगा उठाकर फेंक देती सभी के सभी! गंगा बदल गयी थी, हंसी और मुस्कान, जैसे सब भूल गयी थी... कोई महीना बीता, भूदेव, नहीं आया था उस दिन के बाद से, एक रात, गंगा सोयी हुई थी, थक-हारकर सो गयी थी खुद से लड़ते लड़ते! यादों से लड़ते लड़ते! उस अक्स से लड़ते लड़ते! रत आधी हुई होगी तब! "गंगा?" आवाज़ आई उसे! त्यौरियां में हरकत सी हई उसके! "गंगा?" कोई बोला, 

आवाज़ फुसफुसाहट की थी! "गंगा?" आवाज़ फिर से आई, 

आँख खुल गयी उसकी! कमरे में कोई नहीं था, बस डिबिया जली थी, "गंगा?" आवाज़ आई फिर से! गंगा ने खिड़की का पर्दा सरकाया, सामने देखा, कोई खड़ा था, लेकिन कौन? गौर से देखा, वो तेजराज था, जब गंगा ने उसको देखा, तो बैठ गया था नीचे, और बैठे बैठे ही, सरके आ रहा था उस खिड़की की तरफ! 

आया खिड़की के पास, आलती-पालती मार के बैठ गया था! "गंगा?" बोला वो! कुछ न बोली गंगा! "मुझसे गुस्सा है? अब नहीं आती तू कुँए पर?" पूछा उसने, 

गंगा चुप! कुँए का तो औचित्य शेष था ही नहीं अब! भूदेव का क्या हुआ, कहाँ गया, सोचा ही नहीं था गंगा ने! सोचते ही, कलेजा मुंह को आता था! "गंगा?" बोला वो फिर! गंगा अपनी सोच से बाहर निकली तभी! "मैं अकेला हूँ गंगा, तरस खा मुझ पर, गंगा, मेरी गंगा." रोते रोते हाथ जोड़ते हुए बोला वो! 

गंगा शांत! न पड़ा था असर गंगा पर, उसके इस रोने का! "अकेला, बहुत बरसों से अकेला हूँ मैं गंगा" फिर से गिड़गिड़ा के बोला वो, गंगा ने पर्दा डाल दिया खिड़की पर, और बैठ गयी, एक


   
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श्रीशः उपदंडक
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कुर्सी पर, खिड़की के बाहर से, आवाजें आती रहीं, बार बार, गंगा! गंगा! "गंगा?" वो फिर से बोला! खिड़की के बाहर से। गंगा ने जवाब नहीं दिया, बैठी रही कुर्सी पर 

वो आँखें बंद किये! "गंगा? ऐसा न कर, तेरे हाथ जोड़ता हूँ मैं!" बोला वो! न सुना, अनसुना किया! "गंगा? एक बार, एक बार, एक बार देख!" बोला वो! नहीं सुना!! नहीं देखा! "गंगा? ऐसा मत कर, मत कर ऐसा!" बोला वो! फिर नहीं सुना! "गंगा! कुछ लाया हूँ तेरे लिए, देख, देख तो सही?" फिर से गिड़गिड़ाया वो! नहीं सुना! जितना सुनती, भूदेव याद आता! न जाने कहाँ था वो! किस हाल में, न जाने, क्या हाल किया है इस तेजराज ने उसका! "गंगा, देख न? देख तो सही, एक बार, बस एक बार!" बोला वो! 

अब गंगा को गुस्सा आया! झिड़कने के लिए उठी वो उसे! खिड़की का पर्दा खोला उसने, तो खड़ा था सामने, सामने, हाथ जोड़े हुए, चुप सा! नीचे झुका! एक पोटली थी, "गंगा! ये ले, तेरे लिए! तेरे लिए लाया मैं, बहुत दूर से लाया हूँ! मेरी अपनी! तू ले ले, अब कोई नहीं है मेरा, कोई नहीं तेरे बिना गंगा! मैं अकेला हूँ, अकेला!" बोला बो! गंगा, न झिड़क सकी उसे! याद आई भूदेव की! भूदेव भी तो लाता था! वही याद आया उसे! वो भी दूर से लाता था! "गंगा? रख ले इसे! रख ले! मेरा कहा मान गंगा! रख ले!" बोला वो! चुप गंगा! आँखों में आंसू लिए, चुप गंगा! आवाज़ बंद हो गयी बाहर से! गंगा फिर से कुर्सी पर जा बैठी, न आई आवाज़ उसे अब कोई भी! बैठे बैठ घंटा गुजर गया, कोई आवाज़ नहीं आई। वो उठी, और पर्दा सरकाया, तो । खिड़की के पास, एक पोटली रखी थी, बंधी हई, वहाँ एक लकड़ी के पल्ले से! उसने पोटली उस लकड़ी के पल्ले से खोली, और अंदर ली, पोटली भारी थी, अब मुंह खोला उसका, तो उस 

पोटली में गहने थे, गहने, सोने के! "गंगा! ये मेरी माँ के हैं! तेरे लिए लाया हूँ, रख ले, रख ले गंगा, रख ले, मेरे किसी काम के नहीं, किसी काम के नहीं ये गहने" आवाज़ आई फिर से उसी की, गंगा ने देखा, तो बैठा हुआ था, हाथ जोड़े, गंगा को देखते हए, "रख ले, एहसान कर दे गंगा, तेरे लिए लाया हूँ, मेरे किसी काम के नहीं, माँ के थे, मेरी बींदणी के लिए, वो जो बंगणी हैं न, वो दादी की है, रख ले, मेरा दिल रख ले इन्हे रख कर गंगा! रख ले।" फिर से गिड़गिड़ाया तेजराज! वापिस लटका दी गंगा ने पोटली वहीं! उसी पल्ले पर! रोपड़ा! रो पड़ा तेजराज! बुरी तरह से! सरका दिया पर्दा उसने! और बैठ गयी! उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था! कुछ समझ नहीं! "गंगा! गंगा!" बोला वो फिर, बाहर से! शायद, उस रात रोता ही रहा वो! कुर्सी पर कब आँख लग गयी पता ही नहीं चला उसे! सो गयी थी, सुबह जब पक्षी चहचहाए तो आँख खुली! पर्दा सरकाया, बाहर झाँका, कोई नहीं था, जा चुका था तेजराज! उसी दिन, पिता जी गए बाहर, और गंगा ने मन बनाया कुँए पर जाने का, दिल तो फटता लेकिन न जाने क्यों मन में बहुत इच्छा थी जाने की माला खुश थी, कम से कम, इस झंझावत से वो निकली तो सही! आयीं गाँव के बाहर, और देखा रास्ता! रास्ता देखा, तो हक उठी दिल में! गंगा, खड़ी हो गयी वहीं! आँखों में सैलाब उमड़ने लगा! आँखें डबडबा गयीं फौरन ही! भांप गयी फ़ौरन ही माला! "चल गंगा?" बोली माला, पाँव जम गए थे उसके! "गंगा? चल?" बोली माला! कैसे चले! गंगा तो थम गयी थी! प्रवाह रुक गया था! "आ, चल" बोली माला, चली गंगा, धीरे धीरे! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और चली आई कुँए तक, बाट जोहती आँखें, नहीं मानीं! बिछा दीं नज़रें। सामने, उस धूल भरे रास्ते में! रास्ता बियाबान! सुनसान! सन्नाटे का आलम! कोई नहीं आ रहा था, और आना भी नही था! सहसा, नज़र पड़ी उस कुँए पर! चल पड़ी उधर ही! मना किया माला ने, लेकिन नहीं मानी गंगा! माला अब चिंतित! कहीं अनहोनी न हो जाए! क्या करे? किसको 

बुलाये? दुविधा में माला! न गंगा के पास जाते बने, और न वापिस गाँव! 

और उधर, गंगा जा पहुंची उस कुँए पर! 

आँखों में क्रोध था! आँखें चौडी थीं और नथुने फड़क रहे थे! कोमलांगी गंगा, पाषाणंगी सी प्रतीत हो रही था! और तभी, तभी फूल बरसे! गुड़हल के फूल! ताज़े! ओस लगे फूल! "सामने आ?" चिल्लाई गंगा! 

आ गया सामने! भीरु सा खड़ा था कुँए के पास! बस कोई चार फ़ीट दूर! "भूदेव कहाँ हैं?" पूछा उसने! तेजराज चौंका! "गंगा?" बोला वो! "मर गयी गंगा!" बोली वो! "ऐसा न बोल गंगा! ऐसा न बोल, मर तो मैं गया हूँ, मैं, देख, मैं मर गया हूँ, ऐसा न बोल, जी दुखता है मेरा, ऐसा न बोल, ऐसे बोल कभी न बोलना, तुझे कोई नहीं मार सकता, तू तो गंगा है! मेरी गंगा! ऐसा न बोल, न बोल गंगा!" दोनों हाथ हिला के बोला तेजराज! "कहाँ हैं भूदेव?" पूछा गंगाने! न बोला कुछ! खड़ा रहा भीरु सा! "बता?" बोली गंगा! नहीं बोला कुछ। "क्या किया तूने उनके साथ? बता?" पूछा गंगा ने! नहीं बोला कुछ भी! खड़ा रहा, चुपचाप, नज़रें नीची किये बस! "तू, प्रेम करता है न मुझसे?" पूछा गंगा ने! "हां!! हाँ! गंगा! बहुत बहुत प्रेम करता हूँ, बहुत!" बोला वो! "क्या यही मायने हैं प्रेम के?" पूछा गंगा ने! 

चुप! 

सांप सा सूंघा उसे! "बता?? क्या यही मायने हैं?" पूछा गंगा ने! 

"मैं नहीं समझा" बोला वो! "नहीं समझा या समझना नहीं चाहता?" बोली गंगा! "नहीं समझा, माई सौगंध" सरपर हाथ रखे हुए बोला वो! "तू समझ भी नहीं सकता!" बोली गंगा! डर सा गया था वो! सच में। डर सा गया था। "भूदेव कहाँ हैं?" पूछा, "नहीं पता" बोला वो, "तुझे नहीं पता?" बोली वो, "हाँ, नहीं पता" बोला वो! "कहीं तूने....?" वो बोली, और इस से पहले पूरा करती, वो बोल पड़ा! "नहीं! नहीं गंगा! नहीं! ऐसा न सोच गंगा!" बोला वो! बैठ गया था, जैसे क्षमा याचना मांग रहा हो! "तो कहाँ है?" पूछा फिर से! "नहीं पता!" वो बोला, फिर गंगा ने घूरा उसे! 

आँखें नीची किये हुए, बैठा रहा! "गंगा?" बोला वो, थोड़ी देर बाद, गंगा ने देखा उसे! "ये!" बोला, पोटली पीठ में से निकालते हए, खोंस रखी थी उसने! 

आगे कर दी पोटली उसने! "ये मेरी दादी और माँ के हैं,रख ले गंगा!" बोला वो! गंगा गुस्से मैं!! "नहीं!" बोली वो! "रख ले न गंगा?" बोला वो! "नहीं" बोली गंगा! "कोई ले जाएगा! ले, रख ले!" बोला वो! "ले जाएगा तो ले जाने दे!" बोली गंगा! खड़ा हुआ! पोटली लिए हुए! "गंगा, तभी मेरा क़त्ल किया गया था हल्के से बोला, अब गंगा ने देखा उसे! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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आँखें नीची किये हुए, खड़ा था वो! गंगा आगे गयी, बिना डर के, उसके पास! गंगा आगे बढ़ी, उस तेजराज के पास, जिसने अभी कहा था कि उसका क़त्ल हुआ था उन्ही जेवरों के कारण, तेजराज चुप खड़ा था, चुप, डरपोक जैसा, वो डरता था उस गंगा से! गयी उसके पास तो वो पीछे हटा, वो और आगे गयी तो और पीछे हटा! "रुक जा गंगा! रुक जा!" बोला वो! । गंगा न समझ सकी कुछ! क्यों हट रहा था पीछे वो? "रुक जा गंगा" बोला वो, हाथ आगे करके, गंगा एक कदम आगे बढ़ी, तो वो झट से कुँए की दूसरी ओर चला गया! वहीं खड़ा हो गया, 

आँखें नीची किये और वो पोटली लिए! "गंगा, बताता हूँ तुझे" बोला वो, गंगा वहीं खड़ी रही! सुन रही थी उसको! अब अपने गाँव का नाम बताया उसने गंगा को, वो गाँव दूर था वहां से, कोई बीस किलोमीटर, वहीं का रहने वाला था वो, वो एक सैनिक था, सेना में था, तेजराज नाम के अनुसार बहुत कुशल तलवारबाज था, शस्त्र-विद्या में निपुण था! घर में एक बड़ा भाई,जो अपंग था, एक छोटी बहन, जो अनब्याही थी अभी, और माँ थी, पिता काफी समय पहले गुजर चुके थे, सारी गुजर-बसर का जिम्मा अब इसी तेजराज पर था, बड़ा भी अपंग था, एक हाथ और एक पॉव, नहीं काम करते थे उसके, चलता-फिरता भी मुश्किल से था, भाई का अच्छा ख़याल रखता था तेजराज, बहन की शादी के लिए, लगा हआ था अपनी माँ के संग, और इसी तरह एक रिश्ता मिला, बात बन गयी थी, बहन का ब्याह कर दिया था तेजराज ने, बहुत खुश था वो, चूंकि माँ खुश थी, सबसे बड़ी ज़िम्मेवारी निभा दी थी उसने! समय बीता तो माँ ने उसकी शादी की भी बात की, उसकी शादी हो जाए, तो सभी को सुख मिले, माँ भी वृद्ध थी, अब हाथ-पाँव नहीं चलते थे, ऊपर से वो अपंग और लाचार भाई, तेजराज ने कह दिया था कि माँ जैसा चाहे, वैसा उसको मंजूर है, और इस तरह से और समय बीता, एक रिश्ता भी मिला, दो माह के बाद वापिस घर लौट रहा था वो, घर आया, तो जो पूँजी लाया था कमा के,रख दी माँ के हाथों में! माँ ने रिश्ता बताया उसको, हाँ कर दी उसने, रिश्ता तय हो गया फिर, और ब्याह होने में कुछ ही दिन शेष थे, घर में खुशियों का माहौल था, अपंग भाई भी खुश था! लेकिन खुशियों को लगी नज़र! शादी का माहौल था, और घर में डाका पड़ गया। बहुत बहादुरी से लड़ा तेजराज, और तभी उसकी माँ ने दी उसे वो पोटली, जिसमे उसकी दादी और उसकी माँ के जेवर थे, ये उसकी ब्याहता के लिए थे, किसी के हाथ न लगें इसीलिए उनको सुरक्षित रखना ज़रूर था, रात के अंधेरे में, वो 

तेजराज, भाग चला, चिंता तो थी माँ की और भाई की उसे, लेकिन डकैतों को तो माल चाहिए था, इसीलिए भाग चले उसके पीछे! "गंगा! मैं भागा, उस समय तेरा गाँव बसा न था, मैं बीहड़ों को पार करता भागता रहा अपने घोड़े पर, चांदनी खिली हुई थी उस रात, गंगा, आठ-दस आदमी लगे थे मेरे पीछे, अचानक मुझे ये कुआँ दिखा, मैंने वो पोटली यहां रख दी, और भाग चला, वो, वो जो दीवार है न गंगा? वहाँ, तब ये कोठरी थी, चौकसी की कोठरी, मैं जा छिपा उसमे, लेकिन ढूंढ लिया उन्होंने मुझे, मैं बहुत लड़ा, घायल भी हुआ, लेकिन बताया नहीं उन ज़ेवरों के बारे में, आखिर गंगा, मैं टूट गया, मेरा सीधा हाथ कट के गिर गया, और अगले ही वार से, मेरा सर, धड़ से अलग हो गया, गंगा..." बोला वो! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और रो पड़ा,रोते रोते, बैठ गया नीचे! "मैं छूट नहीं सका गंगा, माँ की याद आई, बड़े भाई की याद आई, मैं गया घर, तभी की तभी, 

माँ नहीं मिली जीवित, और न मेरा बड़ा भाई भी, मैं तड़प कर रह गया, और फिर इस, इस कुँए में वास किया, कि कभी बाहर नहीं आऊंगा, तंग नहीं करूँगा किसी को भी, हमेशा, यहीं पड़ा रहूंगा मैं, मैं सौइयों बरस यहीं पड़ा रहा गंगा, चपचाप, अलग, अकेला..." बोला वो, गंगा सुन रही थी उसकी कहानी, एक एक शब्द, बड़े गौर से, "गंगा, तू यहाँ आकर बैठा करती थी, जब पानी लेने आती थी, मैं तुझे गुनगुनाते सुनता, लेकिन हिम्मत नहीं कर सका तुझे देखने की, बरस गुजरे, और एक दिन, मैंने तुझे देखा, जब देखा, तो तुझसे लग्न हो चली, प्रीत जग गयी मन में, जी लग गया तुझसे, लेकिन फिर भी तुझे कभी नहीं बताया, मैं तुझे अपना ही मानने लगा गंगा, तुझे आते जाते देखता, रुझे हँसते देखता तो मैं खुश होता, तेरा इंतज़ार करता, कि तू कब आएगी, तू आती, तो मैं तुझे 

देख झूम पड़ता गंगा! लेकिन कभी तुझसे नहीं कहा मैंने, जानता था, मैं प्रेत हूँ और तू जिंदा, मैं खूब समझाता अपने आपको, लेकिन प्रीत न मानी मेरी, फिर भी नहीं आया तेरे सामने....बस यही सोचता कि ये पोटली तुझे दे दूँ गंगा " बोला तेजराज, "फिर क्यों आया मेरे सामने?" गंगा ने तपाक से पूछ लिया, "नहीं आता गंगा मैं, नहीं आता" बोला वो, "तो क्यों?" पूछा उसने, "वो, वो भूदेव, वो आ गया था" बोला वो, 

गंगा, भूदेव का नाम सुन, फिर से मुरझाने सी लगी, याद भारी होने लगी, "गंगा, ये रख ले" बोला वो, "नहीं" बोली गंगा, 

"रख ले गंगा" बोला वो, "नहीं" बोली वो, "गुस्सा है मुझे?" पूछा उसने, गंगा कुछ नहीं बोली उस से! "बोल न गंगा?" बोला वो! नहीं बोली! बार बार यही कहता रहा कि पोटली रख ले गंगा! 

और फिर गंगा पलटी, जैसे ही पलटी, "गंगा??" बोला वो, नहीं रुकी, "गंगा? रुक ज़रा' बोला वो, रुकी तब, "मानता हूँ, तेरा दिल दुखाया है मैंने, लेकिन, मेरा सोच, मेरे जी पर क्या गुजरी?" पूछा उसने। गंगा ने देखा उसको, घूर कर, 

और पलटी फिर, "रुक?"बोला वो, नहीं रुकी, "रुक जा गंगा! गंगा?? गंगा?" बोलता रहा वो! नहीं रुकी, सीधा कुँए पर गयी, चुपचाप, "चल माला" बोली गंगा! "चल" बोली माला, 

और चल पड़ी घर के लिए! पीछे से,आवाज़ आती रही, गंगा! रुक जा! रुक जा गंगा! 

आ गयी घर, घर अब काटने को लगे उसे, कहाँ फंसी थी वो! कैसा प्रेम! एक दैहिक प्रेमी, जिसका कोई अता-पता नहीं, एक अशरीरी प्रेमी, जो टूट कर प्रेम करता है उसे! 

रात हुई, 

और गंगा अपने से खूब लड़ने के बाद, सो गयी थी, लेकिन नींद में भी, उसको उसी भूदेव की बातें याद आती थीं! वो पल, वो बातें! सब! "गंगा?" आवाज़ आई उसे! 

गंगा की आँखें खली! "गंगा?" फिर से आवाज़ आई! गंगा खड़ी हुई, आवाज़ खिड़की से आई थी! पर्दा सरकाया तो सामने तेजराज था, मुस्कुराता हुआ! हाथ दोनों पीछे किये हुए! "गंगा? बाहर


   
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