और गंगा के होंठ फैले! पहली बार!! "गंगा?" बोला वो! कुछ न बोली फिर भी! "ए गंगा!" बोला भूदेव! सर उठाया! और आँखों में झाँका भूदेव की! अंदर तक, सिहर सा गया भूदेव!! मुस्कुरा पड़ी गंगा! पहली बार! वो भूदेव, अभी भी हाथ जोड़े खड़ा था! अपनी गंगा के सामने! खुश था बहत! गंगा हंस जो पड़ी थी! और क्या चाहिए था उसको! आँखें मिली हई थीं उन दोनों की, और इन्ही आँखों की मूक भाषा में प्रेम का आदान-प्रादान चल रहा था! कद में गंगा कंधे तक होगी उस भूदेव के! भूदेव सिपाही था, एक कारिंदा! देह उसकी मज़बूत
और गठीली थी। लेकिन दिल मोम हो चला था उसका! वो पहलवान सा जिस्म वाला, हाथ जोड़े खड़ा था! कि एक शब्द भी बोले अगर गंगा, तो जैसे साकार हो जाए उसका जीवन! "गंगा?" बोला वो!
"हाँ?" अब बोली गंगा! "देख, जब मैं जाता हूँ, तो मेरे साथ मेरी देह ही जाती है, मन तेरे साथ यहीं रह जाता है!" बोला वो! गंगा ने आँखें नीचे की अपनी! "तुझे जिस पल से देखा, दिल में उतार लिया मैंने, मैं भाग्यवान हूँ कि मुझे तेरा प्रेम मिला गंगा!" बोला वो! कैसे बड़े बड़े शब्द बोले जा रहा था वो!! "एक नज़र देख?" बोला वो! गंगा ने आँखें उठायीं ऊपर, उसको देखा! आँखों में, प्रेम भरा था! छाया हुआ था! "मैं ब्याह करूंगा तुझसे गंगा!" बोला वो!
आँखें, नीचे हुई! कान गरम हो गए ब्याह शब्द सुनते ही! तभी माला बीच में आ टपकी! "घर में कौन कौन हैं आपके?" पूछा उसने! "घर में, एक बहन है छोटी! बिलकुल तेरे जैसी! नटखट! चंचल! माँ है, एक बड़े भाई हैं, लेकिन वो सपरिवार दौसा में रहते हैं, आते हैं घर में कभी कभार!" बोला वो! "अभी ब्याह की नहीं सोची?" बोली माला! "सोची! लेकिन पहले बहन के हाथ पीले कर,! उसके बाद, ले जाऊँगा इसे, अपनी ब्याहता बना कर!" बोला वो! घोड़े ने सर हिलाया अपना! नथुने फफकारे अपने! "अब चलूँगा गंगा मैं!" बोला वो! घोड़ा मोड़ा, जीन ठीक की, और चढ़ गया! "कुछ और चाहिए हो, तो बताना मुझे! और हाँ माला, कपड़े लाऊंगा तेरे लिए!" बोला वो! "अब चलता हूँ, दूर जाना है मुझे!" वो बोला,
और लगाई एड़ अपने घोड़े को! और घोड़ा, दौड़ पड़ा! देखती रह गयीं वे दोनों उसको जाते
"कितना भला आदमी है न ये गंगा?" बोली माला! गंगा चुप!! "बोल न? बोलती क्यों नहीं? अब तो बराबर का मामला हो गया है। है न भला आदमी?" बोली माला! "हाँ!" बोली गंगा!
"किस्मत वाली है तू वैसे!" बोली माला! देखा माला को, और मुस्कुराई! "कैसे?" पूछा उसने! "कितना प्रेम करता है तुझसे! कितनी दूर से आता है इस भाटे में भी!" बोली माला! सच में! वैसे में, वैसे भाटे में, दूर से आता था भूदेव! मिलने, सिर्फ मिलने, अपनी गंगा को देखने "चल, घर चल अब" बोली माला!
और चल पड़ीं घर के लिए, वो कपड़े में लिपटी श्रृंगारदानी, माला के पास ही रही! जा पहुंची घर! माला ने श्रृंगारदानी पकड़ाई उस गंगा को, गंगा उसे ले, अपने कमरे में चली आई! कपड़ा हटाया, तो लकड़ी की एक बहुत ही सुंदर बड़ी सी डिबिया थी वो! उसमे दो कण्डियाँ लगी थीं, एक एक करके खोली उसने! अंदर, एक दर्पण, एक कंघी, चिमटियां और नकचौंटी, इत्र और श्रृंगार की वस्तुएं थीं! और सभी पर, हाथी-दांत का बारीक काम था! देखने में, बहुत ही महंगी
श्रृंगारदानी थी वो! उसने बंद किया जैसे ही उसे,माला आ धमकी अंदर! "दिखा, मुझे भी दिखा न?" बोली माला! गंगा न छोड़े उसे! छीनाझपटी सी होने लगी! और तभी जमना भी आ गयी! उसने भी ज़िद की! तब, देनी पड़ी वो भंगारदानी उसे, माला को! अब माला ने एक एक करके, सारी वस्तुएं देख डाली! बालों में लगने वाली चिमटियां, केशबंध आदि सब लगा के देख लिए गंगा को! गंगा, उस श्रृंगार में, सच में, परी सी लगे। ऐसा संदर सामान था। हाथी-दांत उसके गोरे रंग से मिलान खाता था। "पसंद अच्छी है उसकी!" बोली माला!
अब गंगा, एक एक सामान भरने लगी उस श्रृंगारदानी में! "हाँ! तभी तो तुझे पसंद किया उसने गंगा!!"बोली माला! माला और जमना, चली गयौं, अपने अपने काम पर! रह गयी गंगा! लेकिन अकेली नहीं! भूदेव का अक्स सामने ही खड़ा था उसके! बार बार अपने में सिमट जाती थी गंगा! लगता था, उसके अंग अंग में एक मद भर चला है, अंग उसके जैसे अपने नहीं रहे! नियंत्रण नहीं था उन पर! आँखें बंद हो या खुली, अक्स नहीं जाए वो! कान चाहे ढक ले हाथों से, उसकी आवाज़ नहीं जाए! होंठ, चाहे दांतों में भींच ले, कंपन नहीं जाए! दिमाग, चाहे कहीं भी लगाये,अक्स नहीं जाए दिमाग से! दिल, चाहे हाथ से टटोले, धड़कन नहीं सधे! अंग अब नियंत्रण से बाहर हो चले थे!
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रातें,अब पहले जैसी न रही! वे अब लम्बी और बोझिल लगने लगी थीं! अकेलापन, कभी नहीं काटता था उसे, अब, अकेलापन ही सबसे बड़ा बैरी! दिन, दिन न कटे! बस, हर पल उसका इंतज़ार! हर पल! न भूख, न प्यास! कैसा हाल हो चला था उस गंगा का!! अगला दिन! अगले दिन की बात है। गंगा घर में ही थी, सुबह तो बीत चुकी थी, अब कोई नौ बजे का समय रहा होगा! कि तभी कमरे में माँ आई गंगा की! गंगा, उठ बैठी! "बेटी, कुछ लोग आ रहे हैं आज, तुझे देखने, तैयार रहना, मैंने कह दिया है माला को!" सर पर हाथ फेरते हए माँ बोली! काँटा! जैसे कोई काँटा चुभा पाँव में! पाँव जैसे लहूलुहान हो चला हो! अब कैसे कटे रास्ता? गंगा चिंतित हो गयी! क्या करे? और तभी माला आ गयी अंदर! "माँ आई थी?" पूछा माला ने! "हाँ" बोली गंगा! "कोई आ रहा है, तुझे देखने" बोली माला, "हाँ, माँ ने बताया" बोली गंगा! "अब?" पूछा माला ने! "अब क्या?" बोली गंगा! "क्या करेगी?" पूछा, "पता नहीं" बोली गंगा! "अच्छा। तो आज कुँए तक भी नहीं जा सकेगी तू!" बोली माला! धड़कन!! बढ़ गयी धड़कन! सूख चला हलक! होंठ सूख गए! ये तो सोचा ही नहीं था??? "वो बेचारा आएगा, इंतज़ार करेगा, और लौट जाएगा, भारी मन लेकर" बोली माला!
आँखें देखे माला की! लेकिन अब हो क्या? "मैं तो नहीं जा सकती, काम है" बोली माला! "फिर?" बोली गंगा! "फिर क्या, लौट जाने दे उसे!" बोली माला! दिल, में आवाज़ आई गंगा के! चटक की, जैसे कुछ चटका हो! हाँ, लौट जाने दे, कल फिर आ जाएगा!" बोली माला! कैसे लौट जाने दे? दूर से आता है वो! ऐसे भाटे में!
और उठ गयी माला वहाँ से! कोई हल नहीं निकला!
और फिर दोपहर हुई! कुछ लोग आये थे घर में! अनमने मन से, दो महिलाओं से मिली गंगा! माला के साथ, और साफ़ साफ़ मंशा जाहिर कर दी, उसे ब्याह नहीं करना था अभी! वे महिलायें चली गयीं! फैंसला तो हो गया था! और कुछ ही देर बाद, माँ चली आई अंदर! सीधा गंगा के पास आ बैठी! "मना कर दिया गंगा?" बोली माँ! सर हिलाकर, हाँ कहा, "क्यों?" पूछा माँ ने! अब इस क्यों का जवाब इतना सरल होता, तो जग में कह देती गंगा! चुप रही! कुछ न बोली! "घराना अच्छा है, व्यापारी हैं, अपना कारोबार है, राज करेगी बेटी तू राज!" बोली माँ!
अब कौन से माँ-बाप अपनी संतान का भला नहीं चाहते? नहीं बोली कुछ! चुप ही रही! माँ आखिर उठ गयी! माँ गयी, तो खिड़की से बाहर झाँका गंगा ने! दोपहर, बीत गयी थी। आया होगा वो भूदेव!
और लौट गया होगा! इंतज़ार करते करते! "अच्छा किया तूने!" बोली माला, चौंकी गंगा! "अच्छा किया, मना कर दिया!" बोली माला! खिड़की का पर्दा चढ़ा दिया गंगा ने फिर! आ बैठी बिस्तर पर! "आया होगा वो!" बोली माला।
आँखें देखे माला की गंगा! "कोई बात नहीं, प्रेम में यही तो होता है गंगा!" बोली माला! गंगा सर नीचे किये बैठी रही! "कल आएगा, मिल लेना!" बोली माला! साँझ हो चली थी! आज पानी नहीं आया था, तो दोनों पानी लेने चलीं! मन दुखी था गंगा का! सर नीचे किये, अपने ही ख्यालों में डूबी हुई गंगा, धीरे धीरे चली जा रही थी कुँए की तरफ! और तभी नज़रें सामने पड़ीं! कोई खड़ा था! दोनों ठिठक गयीं!
घोड़ा! घोड़ा खड़ा था वहाँ! लेकिन? वो भूदेव?? कदम तेज हो चले गंगा के जा पहुंची वो उस कुँए तक, तब तक माला भी आ गयी थी, घोड़ा तो बंधा था, लेकिन भूदेव नहीं था वहाँ! आसपास नज़र दौड़ाई, तो सामने, उस अंधे कुँए के पास, कोई बैठा था! धुंधलका था और कुछ झाड़ियाँ भी, तो वो देख नहीं पा रहा होगा! माला को भेजा उसने! और माला गयी उसके पास! वो भूदेव ही था। माला को देख उठ गया था वो।
और आ रहा था माला के संग गंगा के पास आ गया भूदेव। "आज दोपहर बाद नहीं आई तुम गंगा?" पूछा उसने!
क्या बताती गंगा! "मैं इंतज़ार करता रहा सारा दिन तेरा गंगा!" बोला वो! ये कैसा इंतज़ार? दोपहर से साँझ हो गयी, और साँझ तक इंतज़ार? "चल, अब देर हो रही है तुझे, साँझ ढल चुकी है,जा, पानी भर ले, और जा गाँव वापिस' बोला भूदेव! गंगा! गंगा तो खो चुकी थी! खो चुकी थी उस भूदेव के इस प्रेम में। इस इंतज़ार में! "जा गंगा! जल्दी कर, मुझे भी जाना है वापिस" बोला वो! अब माला चली गंगा संग! पानी भरने! पानी भरा, और फिर वो भूदेव, छोड़ने चला उन दोनों को गाँव तक, जब पहुंचा, तो रुका! "गंगा! तु चाहे आ,या नहीं, मैं दोपहर में पहँच जाया करूँगा यहां, जब तक नहीं दिखेगी, वापिस नहीं जाऊँगा!" बोला वो! कह कर, पीछे मुड़ा, और फिर से देखा गंगा को! और लगा कर एड़, घोड़े को, दौड़ा दिया घोड़ा! जाते हए देखती रहीं वो उसको! जब क, अन्धकार में, कहीं ओझल न हो गया वो भूदेव! "इतनी रात गए? जंगलों से,
कैसे जायेगा ये?" बोली माला! दिल धक्क!! दिल में धड़कन बढ़ी! संशय तो सही था! वो क्षेत्र वैसे भी डकैतों के अधीन था! कई दस्यु वहाँ सक्रिय थे! लूट-पाट और डकैतियां आम सी बात र्थी! इसीलिए दिल धक्क! ये प्रेम भी क्या है न! कोई ऐसा अपना हो जाता है, कि अपनी देह से भी अधिक! जिसके लिए ये दिल पल पल तेज धड़कता है! जिसके बिना, अपना कुछ शेष ही नहीं रहता! सब उसका! सब! कैसा प्रेम है न ये!! लौट पड़ीं वापिस आ गयीं घर! पानी रखा! और अपने कमरे में चली। माला भी आ गयी! "मानना पड़ेगा!" बोली वो! "क्या?" पूछा,
"बहुत प्रेम करता है तुझसे!" बोली वो! शर्मा गयी! "सच में, दोपहर से साँझ तक, वहीं बैठा रहा, तेरे लिए!" बोली वो! फिर से शर्मा गयी! "और अब देख, रात को गया है, कब पहुंचेगा वो, और कल, फिर दोपहर बाद आएगा!" बोली वो! याद आ गया गंगा को उसका दौड़ते जाना! "यही तो है सच्चा प्रेम!" बोली माला! झेंप गयी गंगा! कुछ और बातें हुईं! माला उस भूदेव की, तारीफ़ ही करती रही!
रात हुई, तो नींद न आये! कहाँ तक पहुंचा होगा भूदेव? सकुशल? पहुँच तो गया होगा? इतनी रात को? कहाँ होगा? ऐसे ऐसे सवाल नाचें दिमाग में! और गंगा! सामने दीवार पर नज़रें गाड़े सोचती जाए! जमना तो सो चुकी थी! नींद ले रही थी बढ़िया। लेकिन गंगा! प्रेम अगन में झुलस रही थी। अक्स आता था सामने उसका! उसकी आवाज़! और इंतज़ार! दोपहर से, साँझ तलक इंतज़ार! रात गहराई! वो उठी! खिड़की से बाहर झाँका, घुप्प अँधेरा था! आकाश में तारे थे! तारों माँ मद्धम प्रकाश, ज़मीन से छु तो रहा था, लेकिन कण के रूप में! और दिल में भी ऐसा ही अन्धकार था! ओ घुड़सवार! तेरे लिए कोई जाग रहा है अभी तक! बैठ गयी खिड़की किनारे, बाहर झांकते हुए, लालटेन की बत्ती, टिमटिमा रही थी! दीवार पर, रौशनी नृत्य सा कर रही थी! और नृत्य उसके दिल में भी चल रहा था! आशंकाओं का! देर रात, वो फिर से लेटी, करवटें बदलीं उसने! अपने केशों को हाथों से टटोले बार बार! उनके सिरों को, उँगलियों से घुमाए! लेकिन नींद नहीं आये! आखिर में जाकर, उसको नींद
आई, दिलासा देकर दिल को, कि सकुशल पहुँच गया होगा वो! आएगा ज़रूर! ज़रूर आएगा! कल! और सो गयी! अगले दिन! अगले दिन दोपहर बाद, पानी लेने चलीं वो! नज़रें बिछा दीं! सामने देखा, सुनसान था! कुछ
और पल बीते। रास्ता सुनसान! कोई नहीं आ रहा था। मन की आशंकाएं, फट पड़ी हँसते हँसते! गला घोंटे वो गंगा का!
और तभी! कोई आता दिखाई दिया! वही! घोड़ा दौड़ाते! होंठों पर मुस्कुराहट आई!
आशंकाओं ने आमहत्या की मन में ही! वो सकुशल था! आ रहा था! और आ गया! घोड़े के खुरों की आवाज़ थमी! घोड़े ने नथुने फफकारे अपने!
और फिर आवाज़ आई! "पानी!" बोला वो भूदेव!
झट से घड़ा आगे कर दिया। ओख में डाला पानी, काफी पानी पिया उसने! "माला?" बोला वो! "हाँ?" आई माला! पानी पिला रही थी घोड़े को! "ये ले! कपड़े!" बोला वो!
और घोड़े पर बंधी हुई एक पोटली दे दी माला को! "पसंद आएंगे तुझे!" बोला वो! माला से रहा न गया! खोल ली पोटली! बहूत शानदार कपड़े लाया था माला के लिए! चार जोड़ी! राजस्थानी परिधान! महंगे थे बहुत! माला ने शायद ही पहने हों ऐसे कपड़े! "अच्छे हैं न?" पूछा उसने! "हाँ! बहुत अच्छे!" बोली माला!
खुश थी माला! बाँध ली थी पोटली!
और गंगा! उन दोनों को ही देखे जाए! सुने जाए! और फिर पलटा वो गंगा की तरफ! "कैसी हैं गंगा तू?" पूछा उसने! "ठीक" वो बोली, हल्के से! "तू कल क्यों नहीं आई थी?" पूछा उसने!
क्या बताये! आखिर में माला ने बता दिया और ये भी, कि मना कर दिया गंगाने! "गंगा! तू मेरी ही है! मेरी ही रहेगी! मैं ब्याह करूंगा तुझसे!" बोला वो! सरस शब्द! गरस देह! (गरस मायने कांपती हुई) गंगा शांत! सारे शब्द सुने! "कल कब पहुंचे?" पूछा माला ने। वो हंसा! "देर रात! कोई ढाई बजे!" बोला वो!
"कोई दिक्कत तो नहीं हुई?" पूछामाला ने! "नहीं, कैसे होती! गंगा जो जाग रही थी! देख रही थी मुझे!" बोला वो! हाँ! जाग रही थी तब तो गंगा!! "है या नहीं गंगा?" पूछा उसने! सर हिलाकर, हाँ कही! "देखा! मैं जानता था! मेरी गंगा जाग रही होगी!" बोला वो! गंगा के मन में तार झनझनाएं! तन, सनसनाये! भाव, आएं जाएँ! "गंगा?" बोला वो! "हाँ?" बोली गंगा! "तू मेले में जाती है?" पूछा उसने! "आज तक नहीं गयी' बोली माला! "अबकी चल, कह दे माता और पिता जी से!" बोला वो! "वो नहीं मानेंगे!" बोली माला! "कह के तो देख ले?" बोला वो! "पूछ लूंगी!" बोली माला! "मैं वहीं मिलंगा तुझे!" बोला वो! गंगा ने सर हिलाया। मेला, बस कोई चार दिन दूर था! "अब चलता हूँ मैं!" बोला वो! उसने कपडे ठीक किये अपने! "आज दूर जाना है मुझे, रात तक पहुंचूंगा!" बोला वो! "कहाँ?" पूछा माला ने, "है कहीं" बोला वो! गंगा चुपसुने! "कल नहीं आ पाउँगा गंगा मैं!" बोला वो! "क्यों?" पूछा माला ने! "वापसी नहीं हो सकेगी!" बोला वो। "तो परसों?" बोली माला! "हाँ, परसौं! कुछ चाहिए गंगा?" पूछा उसने!
सर हिलाकर, न कही! "कभी मुंह से भी बोल लिया कर गंगा मुझे चैन पड़ जायेगा!" बोला बो!
और नहीं बोली! बस मुस्कुरा दी! "गंगा! मुझे बात किया कर! मुझे बहुत अच्छा लगेगा! करेगी न?" बोला वो! "हाँ!" वो बोली "बस एक ही शब्द सीखा है क्या गंगा, बोलना?" पूछा उसने! हंस पड़ी। इस बार हंसी नहीं रुकी। हंस पड़ा वो भी! "कितनी सुंदर लगती है ऐसे तू! हंसती रहा कर गंगा!" बोला वो! "तुझे कुछ चाहिए गंगा?" पूछा उसने! "नहीं" बोली गंगा! "चल में लेता आऊंगा! अब जा! मैं भी जाता हूँ!" बोला वो!
और चढ़ा घोड़े पर! लगाई एड़,और दौड़ पड़ा! जाते हए, देखती रही उसको गंगा! चला गया वो! अब कुछ शेष न रहा! बस वो उड़ती धूल, नीचे बैठती रही! "अब चल गंगा" बोली माला! "हाँ, चल" बोली गंगा!
और चल दीं घर के लिए! अपनी पोटली, अपनी बगल में दबा, माला भी चल पड़ी! "कल तो आएगा नहीं वो!" बोली माला! "हाँ, पता है" वो बोली, "अब कैसे लगेगा मन?" बोली माला! "लग जायेगा!" बोली गंगा! "ओहो! अच्छा?" बोली माला! "हाँ! लग जायेगा!" बोली गंगा!
"देखते हैं!" छेड़ा फिर से माला ने! पहुंच गयीं घर! घर में पिता जी थे, जाने वाले थे अपने व्यापार के काम से बाहर, संग उनके, वो उदयचंद भी था! उसने भी काम जोड़ना था अपना, इसीलिए संग था उनके! "गंगा!" बुलाया पिता जी ने! गयी दौड़ी दौड़ी! "कुछ लाना है बिटिया?" पूछा पिता जी ने! "नहीं" बोली वो! "कुछ चाहिए हो तो बता?" बोले पिता जी!
"नहीं" वो बोली! "चल ठीक है, मैं आ जाऊँगा आठ दिन में" बोले वो, अक्सर जाते थे, ऐसे ही आठ-दस दिन में वापिस आते थे! कोई नयी बात नहीं थी! और फिर चले गए पिता जी, घर के बाहर एक ऊँट-गाड़ी खड़ी थी, कुछ सामान रखा उसमे, और चले गए। अंदर अपने कमरे में थी गंगा! आई माला अंदर! "गंगा?" बोली माला! "हाँ, बोल?" गंगा बोली, "अब कैसे जायेगी मेले?" बोली वो! "मतलब?" बोली गंगा! "पिता जी तो गए! अब कैसे जायेगी?" बोली बो!
अरे! हाँ! अब कैसे जायेगी गंगा मेले में! "चल रहने दे! फिर कभी" बोली माला! "हाँ" गंगा बोली, दुःख तो हुआ उसे! "अगली बार जब जायेगी तो तेरा ब्याह हो चुका होगा उस से! फिर तो अपने आप ही ले जायेगा वो तुझे!" बोली माला! गंगा मुस्कुरा पड़ी! उस रात भी, नींद नहीं आई सही से! और वो तो खैर अब आनी भी नहीं थी! नींद और चैन, उड़न-छू हो जाया करते हैं। और गंगा भी कोई अछूती नहीं थी इस से! भोजन करती तो स्वाद नहीं आता! कुछ काम करती, तो शून्य में निहारने लगती! और छोड़ना पड़ता काम! बस बिस्तर, और वही यादें। उस रोज, दोपहर के बाद, वे गयीं कुँए पर! पानी भरने से पहले, गंगा जा बैठी अंधे कुँए पर! वही ख़याल! आज आना तो था नहीं उसको! ये तो पता ही था! फिर भी, बार बार पीछे मुड़कर देख लिया करती थी वो, वो रास्ता! लेकिन कोई आये, तो दिखे न! किसी ने आना ही नहीं था! कम से कम उस दिन! "गंगा?" माला चिल्लाई! तन्द्रा टूटी गंगा की! पलकें पीटीं! "आ जा?" बोली माला। पानी भर गया था शायद! चल पड़ी गंगा! "ले,अब चल" बोली माला!
धीमे कदमों से, चलते हए, उठाया घड़ा, और फिर से देखा रास्ते को! सूना पड़ा था रास्ता! "नहीं आएगा वो आज!" बोली माला! घड़ा उठाया माला ने, और आई गंगा के पास! "चल अब!" बोली माला!
और अब, चल पड़ी गंगा! घर की तरफ! पीछे मुड़के देखा! "अरे! नहीं आएगा वो!" बोली माला! चल पड़ी फिर आगे! और पहुँच गयीं घर! सारा दिन बोझिल कटा! एक एक पल एक एक घटी समान! एक एक घटी, एक एक अहोरात्र समान! रात में चैन नहीं! दिन बोझिल कटे!
क्या करे गंगा!
और फिर आया अगला दिन! हुई दोपहर
और चल पड़ी गंगा घड़ा उठाये उस माला के साथ! "आज बात करना उस से!" बोली माला! "हाँ, ठीक है" बोली गंगा! "तुझे तरस नहीं आता उस पर?" बोली माला! "तरस? कैसा तरस?" पूछा गंगा ने! "कितनी दूर से आता है तुझे देखने। तुझसे बात करने! और तू? पत्थर सी खड़ी रहती है!" बोली माला! मुस्कुरा गयी गंगा!
और आ गए दोनों वहीं! कॅए पर! नज़रें बिछायीं! और हाथ आगे कर, आँखों के ऊपर, गड़ा दीं आँखें! कुछ ही देर बाद, कोई आ रहा था! घोड़ा तेज तेज दौड़ाये!
आ गया पास! उतरा! और आया गंगा के पास! "पानी!" बोला वो!
अब घड़ा किया आगे उसने। और पिलाया पानी! पानी पिया उसने, अपना चेहरा धोया। और फिर पौंछा! "कैसे है गंगा तू?" पूछा उसने!
"ठीक" बोली गंगा! नज़रें चुराते हुए! "और घर में?" पूछा उसने! "सब ठीक" बोली वो! "और माला? तू?" पूछा उसने "मैं भी ठीक!" बोली माला! अब माला आ गयी थी पास उनके! "ये मेले न जा सकेगी!" बोली माला! "क्यों?" पूछा उसने! "पिता जी नहीं हैं घर पर" बोली वो! "अच्छा, क्या करते हैं?" पूछा उसने, "व्यापारी हैं। बोली माला! "अच्छा, फिर तो गए होंगे कहीं?" पूछा उसने! "हाँ" माला बोली! "कोई बात नहीं! मैं ले आऊंगा इसके लिए कुछ!" बोला वो! "हाँ, ये तो नहीं जायेगी! बेचारी!" हंस पड़ी माला! "बेचारी न कह माला इसको! मैं हूँ न इसका!" वो बोला! माला और हंसी! "बता न गंगा?हँ या नहीं?" पूछा उसने! अब गंगा के प्राण सूखें! क्या बोले! "बोल गंगा?" बोला वो! सामने आया! अपना हाथ आगे बढ़ाया! फिर रोका! फिर बढ़ाया! और फिर पीछे खींच लिया! "तु बोलती नहीं है गंगा!" बोला वो! गंगा! क्या बोले! "हूँ या नहीं?" पूछा उसने! "हाँ!" बोली गंगा! लरजती हुई आवाज़ में! "ले माला! बोल दिया इसने!" बोला वो! "गंगा, हाथ दे ज़रा आगे?" बोला वो! घबरा गयी!
"अरे दे न?" बोला वो! घबराये! पत्थर सी बन गयी थी!! "अरे दे न हाथ?" हंस के बोला वो! गंगा, अपना हाथ बचाये! कमर पर ले गयी थी! "हाथ कर गंगा?" बोला वो!
नहीं किया! "अरे गंगा! काहे इतनी शर्म!?" बोला वो! नहीं दिया! "ठीक है, मत दे, कोई बात नहीं, तेरी मर्जी!" बोला थक-हारकर! और जो वस्तु हाथ में थी उसके, वापिस जेब में डाल ली उसने! "माला?" बोला वो! "हाँ?" बोली माला! "इसकी शर्म कैसे हटाऊँ मैं?" पूछा उसने, हँसते हुए! "मैं बताऊँ?" बोली माला! छेड़ते हुए गंगा को! गंगा उसे देखे!! "हाँ! बता मुझे!" बोला वो! "आती हूँ" बोली माला!
आई,और हाथ पकड़ा उस भूदेव का उसने, और गंगा का भी हाथ पकड़ा, जैसे ही भूदेव के हाथ में देने को हई, वो गंगा का हाथ, गंगा ने छिटक लिया अपना हाथ! "रहने दे! करने दे इसको शर्म!" बोला वो! "गंगार हाथ देन?" बोली माला! कुछ न बोली! कुँए को देखती रही! बस! "वैसे, है क्या?" पूछा माला ने! "ये!" बोला वो, जेब से हाथ निकालकर, हाथ खोलता हुआ बोला! वो एक अंगूठी थी! सोने की! रत्न जड़ा था उसमे! चमक रहा था हीरे के तरह! शायद हीरा ही हो! "ये तो अंगूठी है!" बोली माला! "हाँ, इसके लिए बनवायी है!" वो बोला! "गंगा?" बोली माला!
आँखें तरेड़े! आँखें दिखाए उस माला को! "तेरे लिए बनी है तो लेती क्यों नहीं गंगा तू?" बोली माला!
"इसे पता नहीं क्या डर है!" बोला वो! "ले ले न?" बोली माला! नहीं! नहीं ली उसने! हीरे से ज़्यादा मोल हया का! "मैंने कोई जंतर नहीं चलाया है इस पर गंगा!" बोला वो! हंस पड़ी! लेकिन होंठ नहीं खुले। "ठीक है, तेरी मर्जी!" बोला वो!
और रख ली वो अंगूठी जेब में दुबारा! "गंगा! तो माह में ब्याह कर दूंगा बहन का अपनी! फिर तेरा हाथ मांगने आऊंगा घर! अपनी
माँ के संग!" बोला वो! "ये हुई न बात!" बोली माला! "हाँ माला, इस से दूर नहीं रहा जाता मुझे अब!" बोला वो! "रहा तो इस से भी नहीं जाता। दिन भर बिस्तर में लेट,एड़ियां रगड़ती है एक दूसरे से!!" बोल गयी माला! "सच में गंगा?" पूछा उसने! "बोल न?" बोली माला! "बोल न गंगा? सच में?" पूछा उसने! "अरे जो सच है बोल न?" बोली माला! लेकिन! गंगा तो खजूर की काठ थी! पानी को सोख तो लेगी, लेकिन टेगी नहीं! "चल! तुझे और तंग नहीं करता मैं। मैं जानता हूँ तेरे अंदर की बात!" बोला वो! गंगा चुप!! जानते हो तो पूछते क्यों हो!! "चल, अब चलूँगा, अवेर न हो जाए, मुझे जाना है कहीं!" बोला वो! पलटा! घोड़े तक गया! जीन ठीक की! अपनी जूतियां निकाल कर, धूल झाडी, और बैठ गया फिर! "अच्छा गंगा! चलता हूँ! कल फिर मिलूंगा!" बोला वो! घोड़ा हिनहिनाया! अगले दोनों पाँव उठाये! तैयार था घोड़ा! "अच्छा, चलता हूँ अब!" बोला वो! एड़ लगाई! और चल दिया! घोड़ा, करने लगा हवा से बात! वे दोनों, देखती रहीं उसको जाते देख! और चला गया वो। "तू नहीं मानीन?" बोली माला! "कैसे?" पूछा,
"नहीं की न बात?" बोली वो! "मैं क्या करूँ? मुंह नहीं खुलता" बोली वो! "उसको देख? कितना तरसता है वो!" बोली माला! "अब मैं क्या करूँर बता?" बोली गंगा! "कुछ मत कर तू!" बोली गुस्से से माला! "माला?" बोली गंगा! "बात मर कर मेरे से!" बोली माला, घड़ा उठाते हए! "सुन तो?" बोली वो! "मैं नहीं सुन रही!" बोली माला! "गुस्सा क्यों होती है?" पूछा गंगा ने! "मैं हूँ गुस्सा!" बोली माला! अब गंगा भी चुप! "गंगा?" बोली माला! "हाँ?" बोली गंगा! "सुन" बोली वौ! "हाँ?" गंगा बोली! "इतना प्रेम कोई मुझे करतान, तो मैं तो चली जाती उसी के साथ!"अपनी भौहें उचकाते हए बोली माला! "तो बता मैं क्या करूँ?" पूछा गंगा ने! "उसी बातों का जवाब नहीं दे सकती तू?" बोली माला! "कोशिश करती हूँ, लेकिन मुंह नहीं खुलता!" बोली गंगा! "अब तू ही आना उस से मिलने, मैं नहीं आउंगी तेरे संग!" बोली माला! "माला??" बोली गंगा! "और क्या, मुझे नहीं अच्छा लगता ऐसा!" बोली वो! "अच्छा ठीक है,दूँगी जवाब, आएगी न मेरे संग?" पूछा गंगा ने! मनाते हए उसे! "मेरो कसम?" पूछा माला ने! "हाँ, तेरी कसम!" बोली गंगा! "रख मेरे सर पर हाथ?" बोली माला! हाथ रख दिया गंगा ने!
ले ली कसम! उस माला की,
जो उसके लिए बहन से भी अधिक थी! "अब चल, घर चल!" बोली माला, घड़े उठाये, और चल दी घर! घर पहंची! और गंगा, फिर से भंवर की बीच गोते खाए! कैसे करेगी वो बात? कहाँ से लाएगी हिम्मत? कैसे हटाएगी चिलमन-ए-हया? कैसे होगा ये सब? खुद ही के सवाल!
और खुद ही के जवाब! इसे, प्रेम-भंवर में फंसना कहते हैं! फंस गयी थी वो! न निकले बने, न डूबे बने! रात हुई। और नींद नदारद! अक्स सामने! होंठों के पपोटों में, रक्त आ जमे! जीभ से साफ़ करे। तो जीभ सूखी! करवट बदले,तो बदन काटे! फिर बदले, तो फिर काटे! उठ जाए! कहीं और बैठे! खड़ी हो, तो खड़ा न हआ जाए! बैठे, तो बैठा न जाए! ये कैसी लगी, लगी दिल को!! रात गहराई! खिड़की से बाहर झाँका! अँधेरा पसरा था! जमना, चैन से सोयी थी! जमना के वस्त्र ठीक किये उसने। और फिर आ बैठी एक कुर्सी पर! बाहर झांके! भाटा! पसीने आएं। पसीने पोंछे
तो अपने बदन में ही स्पर्श महसूस हो किसी का! ये कैसी लगी! कैसे करके रात काटी! सुबह हुई! सुबह भी, बदन सुस्ताया जैसा! अलसाया जैसा! सुबह से ही, अक्स सामने आये! वो आवाज़! वो ताव! वो पानी माँगना! वो अपने मुंह से 'गंगा' नाम लेना!! कोई सुध-बुध नहीं! कोई होश नहीं। खुद, खुद ही नहीं! और फिर बीती दोपहर............
दोपहर बीती तो पाँव जैसे खुद-बा-खुद चलने को तैयार! दौड़ने को तैयार! उठाया घड़ा, बचा हुआ पानी वहीं दूसरे घड़े में गिरा और दी आवाज़ माला को! माला भी तैयार! अब दोनों ही
दौड़ पड़ी! क्या पता आ ही रहा हो, या पहँच ही गया हो! नज़रें सामने रास्ते पर ही थीं! पलकें भी नहीं मार रही थी गंगा! बस, क़दम बढ़े जा रहे थे आगे, अपने आप! जैसे पांवों में घिरनी लग गयी हो! पहुँच गयीं कए तक! आज दो महिलायें और थीं वहां! वे भी पानी भर रही थीं, माला की बातें हुईं उनसे! और फिर वे चली गयीं! उनका वहाँ रुकना ठीक नहीं था, गाँव भर में, गंगा के पहँचने से पहले ही ढिंढोरा पिट चुका होता! महिलायें उसके घर का रुख किये,
आ धमकती उसके घर में! कौन है? कहाँ से आया है? क्या नाम है? क्या पेशा है? कब मिला और कैसे मिला, आदि आदि सवाल! गाँव भर में खबर फैल जाती और जवाब देना भारी पड़ जाता! अच्छा था चली गयीं थीं वो! और एक तो थी भी ऐसी ही चुगलखोर! चलो चली गयीं, बात टली! माला ने पानी निकालना शुरू किया, और भरना शुरू की वो नांद! ताकि घोड़ा पानी पी सके! लेकिन, देर हुई काफी उस दिन! वो घुड़सवार आया नहीं! और धूप जान लिए जा रही थी! खाल उधेड़ने को तैयार। इंतज़ार! अब इंतज़ार करना था गंगा को! वो चली वहां से, और रास्ता पार कर, जा पहुंची उस बूढ़े अंधे कॅए के पास! जा बैठी वहीं! पीठ कैए की तरफ किया,
और आँखें, दूर रास्ते पर जमाये! कोई आधा घंटा बीत गया! और कोई नहीं आया! फिर पौना घंटा! और फिर कोई दिखाई पड़ा! कोई आ रहा था घोड़े पर! कोई घड़सवार! तेज तेज दौड़ते हुए! गंगा हुई चौकस! उठ गयी! और टिका दी आँखें! जब आया तो वो, वो नहीं था। वो भूदेव नहीं था। वो कोई और था! कद-काठी तो वैसी ही थी, लेकिन वो भूदेव नहीं था। वो घुड़सवार रुका कुँए पर, उतरा और चला कुँए की तरफ, उसका घोड़ा, चला नांद की तरफ! पानी भरा था, तो लगा पानी पीने! "पानी" बोला वो, तो माला नै घड़ा किया उसकी तरफ, उसने झुकते हुए पानी पिया! काफी पानी! "सेठ मंगू का घर कहाँ हैं?" पूछा उसने, "अंदर जाते ही, बाएं, बाएं में एक चौड़े फाटक वाला घर है, वही है सेठ मंगू का घर" बोली माला! "अच्छा! तू इसी गाँव की है?" पूछा उसने! "हाँ" बोली माला, "पहले भी खबर की थी इसको, आया नहीं ये सेठ मंगू" बोला वो, चाबुक लहराते हए! घोड़े पर, नज़र डालते हुए!
"हाँ दोआयेथे उसको पूछने" बोली माया, "अच्छा, भूदेव आया होगा" बोला वो! "हाँ, भूदेव" बोली माला, "हाँ, ये क्षेत्र उसी का है वैसे, मुझे आना पड़ा आज" वो बोला, "अच्छा, और भूदेव कहाँ है?" पूछा माला ने! वो, थोड़ा सा सकपकाया! "वो तो परसों से शहर से दूर गया है" बोला वो! तब तक, घोड़े ने पानी पी लिया था, अब लगाम पकड़ी उसकी, माला को देखा, घोड़े पर चढ़ा,
और चल पड़ा गाँव की ओर! अब भागी माला अंधे कए पर बैठी गंगा के पास! "गंगा? औ गंगा?" बोली वो! "हाँ?" बोली गंगा! "वो नहीं आएगा आज" बोली माला! "तुझे कैसे पता?" पूछा गंगा ने, उठते हए! "वो आया था न अभी, उसने बताया!" बोली वो! "तूने उस से पूछ लिया?" पूछा गंगा ने! "तो तेरी मुश्किल हल नहीं कर दी?" बोला माला! तुनक कर! "कब आना है उन्हें फिर?" पूछा गंगा ने! मुस्कुरा पड़ी! माला तंज भरे लहजे में मुस्कुरा पड़ी! "उन्हें! गंगा!! उन्हें!!" बोली माला! "बता मुझे पहले?" पूछा गंगा ने! "वो बता रहा था की परसों से गया है शहर से दूर" बोली वो! "परसौं? लेकिन कल तो...??" बोली गंगा! "अरे हाँ! कल तो आया था वो! हो सकता है, यहीं आया हो सीधा! और यहीं से सीधा गया हो, कह तो रहा था, कि दूर जाना है उसे?"बोली माला! न समझ सकी गंगा ये गड्ड-मइड मामला! वो आज नहीं आएगा, बस, ये जान सकी, अब कब आएगा, पता नहीं! "चल, पानी भर और चल" बोली माला! गंगा चल पड़ी! पांवों में लगी घिरनी, टूट गयी थी अब!
पांवों जैसे बेड़ियां हौं, ऐसे चली! पानी भरा, उठाया और चली वापिस! पीछे मुड़के देखा, कोई नहीं था! हाँ, सामने से वही घुड़सवार आ रहा था! गजरा उनके पास से, और चला गया, उन्हें ही देखता हआ! "इसी से पूछा था मैंने" बोली माला! "अच्छा" गंगा बोली! "ये भी यहीं काम करता है, भूदेव के संग ही!" बोली माला! "अच्छा" गंगा बोली,
आ गयीं घर अपने! पानी रखा, बेमन से गंगा ने! और चली कमरे की तरफ! जा लेटी बिस्तर पर! "क्यों नहीं आये?" अपने आप से पूछा! उत्तर था नहीं! "बता जाते?" सोचा उनसे! हाँ, कम से कम बता तो सकता ही था वो। लेकिन कारिंदा है अमीन के दफ्तर में क्या करे, चला गया होगा कहीं! भेज दिया होगा उसे! वोरात! बड़ी ही नीरस सी कटी! मन दुविधा में था! कम से कम खबर होती तो दिल को ढांढस बंधवाया जा सकता था, अब तो कोई तकरीर सुन ही नहीं रहा! बेकाबू है! बार बार सवाल करता है! क्या समझाये गंगा उसे! क्या जवाब दे! रात भर, दिल उलझा रहा! उलझा इसी जाल में! बड़ी मुश्किल से सुबह हुई! सुबह हुई तो तो बदन कसमसाए! रात की थकावट! आँखें लाल और आँखों की पलकें जैसे सूज चली हौं! आंसुओं की तरावट मिल जाती तो....शायद ऐसा न होता! दोपहर से पहले, माला आई कमरे में! अपने केश संवार रही थी गंगा! केश, काफी सघन और लम्बे थे गंगा के! अब माला ने मदद की, उसके केश संवारने में! "लगता है सारी रात नींद नहीं आई गंगा!" बोली माला! कुछ न बोली! बोलती तो झूठ ही होता!
आँखें तो सब बता रही थीं! कैसे बोले झूठ!
"आज कह देना उस से!" बोली माला! "क्या?" पूछा उसने! "कि बता के तो जाते?" बोली माला! कुछ न बोली गंगा!! "कैसे तड़प रही है तू गंगा!!" बोली माला! कुछ न बोली!
आँखें, नीचे कर ली कहीं दर्पण ही कुछ न कह दे!! केश संवर गए! "चल अब!" बोली माला! "चल" बोली गंगा! घड़े उठाये, और चल दीं बाहर! आयीं रास्ते पर! "आज कह देना साफ़ साफ़!" बोली माला! "अगर न आये तो?" बोली गंगा। "तब तो तू मर ही जायेगी!" हंस के बोली माला! "चुप!" बोली गंगा! हंस भी पड़ी!
अपनी मनोदशा से कौन अनजान रहता है भला! जा पहुंची कुँए! गंगा ने घड़ा रखा वहीं और चल पड़ी उस अंधे कुँए के पास! "कहाँ चली?" बोली माला! "आ जाउंगी' बोली गंगा! "यही रहन?"माला चिल्ला के बोली! "आ जाउंगी' बोली गंगा!
और जा बैठी उस कुँए के पास! बिछा दीं आँखें! फूल सजा दिए उमंगों के रास्ते में! प्रेम की शीतलता से उस भाटे से भी निजात मिलने लगी!
और तभी! तभी कुछ दिखा! आ रहा था कोई! तेज! घोड़ा दौड़ाते हुए! उसी तरफ! भागता हुआ! मिट्टी उड़ाता हुआ!
खड़ी हुई गंगा! दिल धड़का! आँखें हुईं चौड़ी! आ रहा था वो! वही था! वही, भूदेव! आया तो घोड़े की लगाम कसी! अब गंगा चली कुँए के पास! आ गया वो वहां! गंगा, उसको देखे! कनखियों से! वो उतर रहा था घोड़े से! उतरा और घोड़े की लगाम पकड़, ले आया घोड़े को वहाँ! उसका मुंह खोला और नांद की तरफ छोड़ दिया! पूंछ घुमाते हुए, घोड़ा पानी पीने लगा! "पानी!" बोला वो! गंगा ने, घड़ा आगे किया, और उस भूदेव के हाथ में पानी डालने लगी! पानी पिया उसने, और फिर चेहरा धोया! फिर कपड़े से हाथ पोंछा अपना! "कैसी है गंगा तू?" पूछा उसने! "ठीक" बोली वो! "शुक्र है! कम से कम आज बोली तो सही तू!" बोला भूदेव! गर्मी थी वहाँ! वो जो पानी था पहले से ठहरा हुआ, गरम हो चुका था! बस भाप होने की देर
थी।
"गंगा?" बोला वो! "हाँ?" बोली वो! "उधर आजा!" उसने इशारा किया, उस अंधे कुँए की तरफ! नहीं चली! अकेले में नहीं जाना चाहती थी! "डर नहीं गंगा! हाथ नहीं लगाउँगा तुझे, कभी भी, तेरी इजाज़त बगैर!" बोला वो! अब कुछ हिम्मत बंधी गंगा की! "नहीं लगाउँगा हाथ गंगा!" बोला वो! अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर! हल्की सी हंस पड़ी गंगा! विश्वास हो चला था उसे, भले ही कुछ अंश! लेकिन ये अंश भी, बहुत था उस भूदेव के लिए! "चल आ!" बोला वो!
और फिर भूदेव चला! और चली गंगा भी! और, वो माला! मंद मंद मुस्काये! बैठ गया उस मुंडेर पर वो, उस पुराने कुँए की, अंधे कुँए की! "आ, आजा, बैठ!" खिसकते हुए बोला वो! नहीं बैठी! नहीं बैठी!! खड़ी रही! "अच्छा, एक काम कर, तू बैठ जा, मैं खड़ा हो जाता हूँ, ले!" खड़ा होते हुए बोला वो! नहीं बैठी! "अब तो बैठ जा गंगा!" बोला भूदेव!
अब बैठ गयी! शर्माते हुए! अपने आप में ही सिकुड़ते हुए! नाक पर पसीना है, ये भी पता नहीं चला!! "कल नहीं आ सका मैं! जाना पड़ा मुझे एक ज़रूरी काम से" बोला, गर्दन के पसीने पोंछते हए वो! गंगा चुप ही रही। "तू आई होगी?" पूछा उसने! सर हिलाकर, हाँ कही! "मैं जानता हूँ! तू आई होगी! माफ़ कर दे! अब ऐसा नहीं होगा!" बोला वो! माफ़ी मांग रहा था गंगा से! माफ़ी शब्द सुन कर तो, और खिसक आई थी वो उसकी तरफ!! "गंगा! तेरे बिना मन नहीं लगता! बस बहन के फेरे हो जाएं, तो तेरे घर आऊँ मैं, ले जाऊं डोली तेरी!" बोला वो! सिहर पड़ी! डोली सुन, सिहर पड़ी। "सुन गंगा! मैं नहीं आ पाउँगा करीब महीना। मुझे दूर जाना है, किसी के संग, काम बहुत
ज़रूरी है। इसीलिए, तुझसे मिलने आया मैं, कि तुझे बता दूँ!" बोला वो! उसके सर पर लटकती पेड़ की एक शाख को पकड़ कर! एक महीना? गंगा ने ऊपर देखा! आँखें उठायीं! और कह दिया अपना सारा हाल उन आँखों से! "क्या करूँ गंगा! जाना पड़ेगा!" बोला वो! अब गंगा की नज़रें फंस चुकी थीं उस से! उलझ गयी थीं। "तेरी बहुत याद आएगी गंगा!" बोला वो!
आँखें नीची की उसने! गंगाने! "सुन गंगा?" बोला वो! गंगा ने ऊपर देखा! "ले!" बोलावो! वही अंगूठी! "रख ले मेरा मान गंगा! रख ले!" बोला वो! हाथ आगे बढ़ाया गंगा ने। हाथ में रखी थी अंगूठी उस भूदेव के जैसे ही उठाने के लिए उंगलियां लाई नीचे, भूदेव ने मट्ठी बंद कर ली! हाथ पीछे खींच लिया गंगा ने! "बदल में क्या देगी गंगा?" बोला वो! हँसते हए!
गंगा घबराई! दिल धड़का! क्या मांगेंगे बदल में? "घबरा मत! मत घबरा गंगा!" बोला भूदेव! गंगा बेचैन! क्या करे! पसीने छलके! पेड़ में सी छनती धूप उसकी गर्दन पर पड़े! और पसीने, मोती सरीखे चमक पड़ें! "अपना हाथ, मेरे हाथ पर रख देना गंगा! बस, काट लूँगा ये महीना इसी सहारे! तेरे बिना कहीं मर ही न जाऊं। कहीं लत के ही ना आऊँ!" बोला वो! भूदेव! भोली गंगा को न उलझा संजीदा अल्फाज़ों में। मत छल उसे इतना! नहीं जानती ये इसका मतलब! कहाँ देखी है इसने दुनिया? क्या जाने दुनियादारी? मत छल! ये तो बस, घर से कुआं और कुँए से घर! "रखेगी न हाथ?" बोला वो!
और कर दिया हाथ आगे अपना! अंगूठी के साथ! "ले गंगा!" बोला वो। गंगा ने हाथ आगे नहीं बढ़ाया! "ले गंगा?" बोला वो! नहीं बढ़ाया! नीचे बैठा अब वो! "गंगा? ले!" बोला वो! गंगा पीछे सरकी! "ले ले गंगा? इतना मत तड़पाया कर!" बोला वो!
अब हाथ बढ़ाया आगे अपना उसने, और उठा ली अंगूठी! नहीं बंद किया हाथ इस बार भूदेव ने! लेकिन! अपना हाथ, वहीं रखा! किसी उम्मीद में। गंगा ने अंगूठी ले ली थी! हाथ में थी उसके! उलटे हाथ में! गंगा ने हाथ देखा भूदेव का! हाथ अभी भी खुला था! हाथ पर, लगाम के निशान भी छप गए थे! ऐसा काम था उस भूदेव का! "गंगा?" बोला वो! गंगा जमे! अंदर ही अंदर! "गंगा?" बोला वो दुबारा! नहीं रखा हाथ गंगा ने! उम्मीद, नाउम्मीद में बदली!
और जैसे ही, उस भूदेव ने, हाथ खींचना चाहा अपना, गंगा ने अपना हाथ रख दिया उसके हाथ पर! आँखें बंद हो गयीं दोनों की! स्पर्श से, भूदेव, बह चला उस प्रेम प्रवाह में! और गंगा! गंगा अपनी ही भंवर में तड़प उठी!! और तब, हाथ हटा लिया गंगा ने! नहीं तो, न जाने क्या
हो जाता! "बस गंगा! अब रह लूँगा मैं! गंगा! मेरी गंगा!" बोला धीरे से भूदेव!
खड़ा हुआ तब वो! "तू परेशान नहीं होना! मैं आऊंगा! कोशिश करूँगा जल्दी आऊँ"बोला वो! गंगा, अभी तक अपना हाथ, अपने पीछे लिए खड़ी थी! कैसे रख दिया उसने हाथ? कैसे? इसी उलझन में पड़ी थी। "आ, आ गंगा! अब मैं जाऊँगा!" बोला वो! गंगा बैठी रही! "उठ गंगा?" बोला वो!
तो उठी वो! "मुझे देख?" बोला वो! देखा उसको! "बहुत सुंदर है तू। बहुत सुंदर! मेरा प्रेम है तू गंगा! मेरा प्रेम!" बोला वो! गंगा चुप!! अजीब से शब्द। "मेरा प्रेम है न? बस मेरा?" बोला वो!
सर हिला दिया बस! हाँ में! "मुंह से बोल न?" बोला वो! "हाँ" बोली गंगा! "नहीं सुन पाया!" बोला, अपना कान पास लाकर उसके! "हाँ!" बोली वो "क्या?" पूछा उसने! जानबूझकर! हंस पड़ी! इस बार होंठ खुले! "हाँ!" अबकी तेज बोली! "हाँ! हाँ! गंगा!! मेरी गंगा!" बोला वो! गंगा मन ही मन मुस्काये! "चल, अब चल उधर!" बोला वो!
और गंगा, चल पड़ी, उसके पीछे, वो भूदेव चल पड़ा! आये कुँए तक! "जा, पानी भर ले, मैं भी चलूँगा अब!" बोला वो और घोड़े की लगाम आदि कस लिए, जोड़ लिया घोड़ा अपना!
गंगा, उसी को देखे जा रही थी! "माला?" बोला वो! "महीने भर नहीं आ पाउँगा मैं" बोला वो! "इतना लम्बा काम?" बोली माला! "हाँ, दूर तलक जाना है इस बार" बोला वो! "कितनी दूर?" पूछा माला ने! "बहुत कान काटती है तू माला!" बोला वो! "ये तो मर जायेगी एक महीने में!" हंसके के बोली माला! "तू है न संग इसके!" बोला वो! "हाँ, मैं तो हूँ!" बोली वौ! "तो फिर कैसी चिंता?" बोला वो! "कोशिश करना, जल्दी आना! गंगा प्यासी रह जायेगी!" बोली वो! छेड़ते हए उस गंगा को! "गंगा कभी प्यासी नहीं रहेगी! ये मेरी गंगा है। प्यासा तो मैं रहता है, इसके बिना!" बोला वो। "अब एक महीने में तो सूखा मार जाएगा इसको!" बोली माला! "नहीं, कुछ नहीं होगा! कोशिश करूँगा कि जल्दी आऊँ!" बोला वो! बैठ गया था घोड़े पर! घुमा लिया था घोड़ा! "अच्छा गंगा! अब चलूँगा मैं, तू आराम से जाना, आऊंगा मैं जल्दी ही!" बोला वो!
और चल पड़ा! पीछे देखते हए! और गंगा, भी देखती रही उसको। जाते हए! चला गया वो। फिर घोड़े ने गति पकड़ी, और कुछ ही पलों में ओझल हुआ नज़रों से! "चल गंगा! अब तो महीने में ही आएगा वो!" बोली माला! गंगा शांत खड़ी थी! अपने में ही खोयी हुई! "गंगा?" बोली माला! न सुना गंगाने! तब माला आई पास में! छुआ उसे! तो जैसे होश आया उसे! "चला गया वो! कहाँ खोयी हुई है?" पूछा माला ने! गंगा ने फिर से रास्ते को देखा! "गया वो! अब चल, देर हो रही है।" बोली माला, पानी भरा, और चल दीं वापिस घर की ओर! घर पहुंची! तो सीधा अपने कमरे में! बैठ गयी! हाथ खोला, तो वही अंगूठी थी! अपनी
अनामिका ऊँगली में पहनी, तो बड़ी थी, मध्यमा में आ गयी पूरी! पहन कर, हाथ आगे कर, निहारती रही उस अंगठी को! तभी आहट हई किसी के कदमों की, तो झट से निकाल ली,
और रख दी चादर के नीचे! माँ थी! माँ आई, तो लेट गयी! माँ ने कुछ कपड़े उठाये और चली गयी बाहर! लेटी ही रही गंगा! अब जान न थी बदन में! एक महीना कैसे कटेगा? कैसे? कब होगी मुलाक़ात? एक महीना तो बहुत बड़ा है। कुछ बीत चले, कोई चार या पांच दिन! पानी लेने जाती थीं वो! और गंगा, उस अंधे कँए के पास, बैठ जाया करती थी, देखा करती थी, कि कहीं आ ही न जाएँ वो! जो दिल पर गुजर रही थी, वो कोई कैसे जाने! ये तो वही जानता है जिस पर बीतती है! गंगा पर क्या बीत रही थी, ये माला भी न जानती थी! माला तो बस छेड़ा करती थी उसे! गंगा, बैठी हुई थी वहीं सोच में डूबी! खाली आँखों से, खालीपन को झांकते हुए! खान, खाली ही तो थी वो! जान बची नहीं थी! इंतज़ार ने निचोड़ ही डाला था! न खाने में मन, न किसी से बात करने में! न सोना ही अच्छा लगे, न ही जागना! सब, बस खालीपन! किस बिरहा के रेगिस्तान में छोड़ा गया था वो उसे! अपनी परछाईं भी अपनी न लगे! न आगे कुछ, न
पीछे कुछ! न दायें, न बाएं! बस खालीपन का रेगिस्तान और उसकी तपती रेत! कुछ दिन और बीते! कोई दस दिन! पिता जी भी घर आ चुके थे! वो उदयचंद भी! पिताजी
खूब सामान लाये थे बाहर से! सभी के लिए! लेकिन गंगा, गंगा के लिए सब फीका! मज़बूरी ये, कि अब दोहरी शख़्सियत जीनी पड़े! एक अंदर वाली और एक बाहर वाली! गंगा, हंसती तो फीका! बात करती, तो फीकी! बस, जी ही रही थी दोनों ही शसियत! एक दिन, उसी अंधे कुँए पर बैठी थी वो! घुटनों पर सर रखे! नज़र कभी उठाती, तो सामने देखती! उस सुनसान रास्ते को! वहाँ कोई न होता! बस आदत न छूटती वहाँ देखने की! "गंगा!" आवाज़ आई उसे!
वो चौंकी! आसपास देखा! कोई नहीं था! आवाज़, थी भी वैसी ही! उस भूदेव जैसी! लेकिन था कोई नहीं वहां! "गंगा!" फिर से आवाज़ आई! उठ खड़ी हुई। आसपास फिर से देखा! कोई नहीं था! बस कुछ पत्र, वो कुआँ और चंद पैड़! हाँ, दूर एक टूटी सी दीवार ज़रूर थी! लेकिन वो तो बहुत दूर थी!
बेचैन! क्या धोखा हुआ उसे? कहीं उसी का दिमाग तो नहीं खेल रहा उस से? ऐसा खेल?? ये
क्या हो रहा है उसे! "गंगा!" फिर से आवाज़ आई! इस बार आवाज़ भूदेव की ही थी! पक्का! उसी की ही आवाज़! वही लहज़ा! और वही ठहराव! भूदेव? और यहां? यहां तो कहाँ? दिमाग उलझा! साँसें हुई तेज। धड़कन सीने से भी बाहर सुनाई दे जाएँ! "गंगा!" फिर से आवाज़ आई! "कौन है?" बोली वो!
कोई नहीं था! "कोई है?" बोली वो! "मेरी गंगा!" आवाज़ आई! अब घबराई वो! सामने माला को देखा! "माला?" वो चिल्लाई! माला ने देखा, और हाथ के इशारे से पूछा कि क्या? "इधर आ, माला!" चिल्ला के बोली वो!
आ गयी माला! हाथ पोंछते हए! "क्या हुआ?" पूछा उसने! "यहाँ, यहां नाम लिया किसी ने मेरा।" बोली गंगा! माला हंस पड़ी! "तेरा दिमाग चल गया है गंगा!" बोली वो! "सच में! उसने बोला, मेरी गंगा!" बोली गंगा! "अच्छा!! किसी ने नाम लिया तेरा! और बोला मेरी गंगा!" बोली वो! "हाँ माला!" बोली गंगा! "तो फिर आवाज़ भी उसी भूदेव की ही होगी!" बोली माला! "हाँ! वही आवाज़!" बोली गंगा! फिर से हंसी मालाहाथ पर हाथ मारते हए! "पागल! तो पागल हो गयी है उसके प्यार में!" बोली माला! "यकीन कर मेरा!" बोली वो!
"कैसे यक़ीन करूँ?" बोली माला! "यक़ीन कर माला?" बोली वो! "तो आवाज़ इस पत्थर ने दी? या पेड़ ने, या उस कुँए के अंदर से कोई बोला?" बोली माला! गंगा आसपास देखे! "अब क्यों नहीं आ रही आवाज़?" पूछा माला ने! "मुझे क्या पता?" बोली गंगा! "अब चल यहां से, चल!" बोली माला! गंगा, घबराई सी, चल दी साथ उसके! "अरे कुछ नहीं है! तेरा वहम है!" बोली माला! इतना सटीक वहम? इतना पूर्ण वहम? कैसे सम्भव!! "चल उठा पानी" बोली माला! पानी उठाया गंगा ने! "चल अब!" बोली माला!
और चल दीं घर की तरफ! लेकिन गंगा परेशान थी! वो आवाज़? मेरी गंगा? वही लहज़ा? साफ़ साफ़ सुना था उसने! कौन था? वहां तो कोई नहीं था! तो फिर? यही सब सोचते सोचते, आ
गयी घर गंगा! रात को सोते समय उसकी आँख खुल गयी! एक तो नींद आती नहीं थी, आती थी, तो हर करवट में आँख खुल जाती थी! अब ये परेशानी तो खुद ही गले में डाली थी उसने! किसी से दिल लगाकर, लेकिन आज रात जो नींद खुली थी, उसका कारण कुछ और था। उसको
अपने चेहरे पर कुछ रेंगता हुआ सा लगा था, जैसे कुछ रेंगा हो, कि कीड़ा या मकड़ी वगैरह! उसने हाथ से हटाया था उसे! लेकिन कुछ नहीं था! उसने उठकर, वो तकिया भी झाड़ लिया
था, हाथ से अपना बिस्तर भी झाड़ लिया था! कुछ नहीं था! अब आँख खुल गयी थी उसकी लेटी तो नींद नहीं आई! कभी इधर करवट बदले, कभी उधर! कभी पीठ के बल और कभी पेट के बल! पूरा बिस्तर ही नाप लिया था उसने! लेकिन नींद नहीं आई। आखिर में, उठी, बैठी, और पलंग से उतरने के लिए टांगें नीचे की, जैसे ही पाँव ज़मीन पर रखे, तो उसका पाँव किसी चीज़ से छुआ, वो नीचे झुकी! पाँव हटा के देखा, तो कुछ पड़ा था, उसने उठाया उसको! ये एक फूल था, गुड़हल का अधखिला फूल! गुड़हल का कि पौधा नहीं था घर में, बस गाँव के बाहर की तरफ जो मंदिर था, उसके अहाते में लगे थे गुड़हल के फूल! ये कहाँ से आया? उसने सोचा, फिर अटकलें लगानी बंद की उसने! जमना ले आई होगी! जाती रहती है मंदिर वो तो! या माँ गयी होगी, ले आई होंगी! और ये गिर गया होगा यहां! उसने वो फूल सिरहाने रख दिया अपने! उठी, और खिड़की के पास जा बैठी! बाहर घुप्प अँधेरा था! हाथ को हाथ नहीं दिखे, ऐसा अँधेरा! दूर कहीं एक डिबिया जल रही थी, दूर, बस वही एकमात्र प्रकाश था! अभी तो बीस दिन बाकी थे। ऐसे ही काटने थे! बैठे बैठे नींद की झपकी लगी, तो खड़ी हई,और जा लेटी! रात के तीसरे प्रहर का चौथा चरण था! आखिर आ ही गयी नींद उसे! सुबह हुई! उठी गंगा! अंगड़ाई ली, तो हाथ पीछे टकराया किसी ठंडी सी चीज़ से! पलट के देखा! वहां फूल थे! ताज़ा गुड़हल के करीब दस फूल! अब झटके से खड़ी हुई वो! तकिया हटाया, तो और भी फूल निकले, कुल हए अब पंद्रह! ये फूल कौन लाया? रात तो एक ही था! "माला?" आवाज़ दी उसने! माला आई आँखें रगड़ते हए। "ये फूल कौन लाया?" पूछा गंगा ने। "मुझे क्या पता?" बोली वो! "तू तो नहीं लायी?" पूछा गंगा ने! "नहीं, मैं नहीं लायी" बोली वो, उबासी लेते हुए! "जमना को भेज ज़रा" बोली गंगा! "भेजती हूँ" बोली वो, और चली गयी! जमना आ गयी अंदर कमरे में, स्नान करके आई थी, बाल संवार रही थी! "जमना?"बोली गंगा, "हाँ?" बोली जमना! "तु ये फूल तो नहीं लायी?" पूछा जमना से! "नहीं तो?" बोली वो!
"कौन लाया?" पूछा उसने, "मुझे नहीं पता, मैं जा रही हूँ, मंदिर जाना है" बोली वो! गंगा हैरान! जमना तो मंदिर भी नहीं गयी अभी! तो ये फूल? तभी जमना लौटी वापिस! "मैं ले जाती हैं ये फूल!" बोली जमना और इकट्ठे कर लिए फूल उसने! और ले गयी। जमना गयी, तो बैठी गंगा! फिर से ध्यान उन्ही फूलों पर! कहीं माँ तो नहीं लायी? उठी, माँ के पास चली, वहाँ पहुंची, माँ भी बैठी हुई थी! "माँ?" बोली गंगा! "हाँ?" बोली माँ! "मेरे सिरहाने फूल रखे थे आज, कौन लाया?" पूछा, "कैसे फूल?" माँ ने पूछा, "वो जो मंदिर में हैं, वहीं फूल' बोली गंगा! "नहीं मैं तो नहीं लायी, कहीं जमना तो नहीं ले आई?" माँ ने पूछा, "नहीं, मना कर रही है वो" बोली गंगा! "माला से पूछा?" माँ ने कहा, "हाँ, वो भी मना कर रही है" बोली गंगा! "कहाँ हैं
