धौलपुर। राजस्थान! इतिहास थामे आज भी खड़ा है ये एक सुंदर सा शहर! पग पग में इतिहास समेटे ये शहर, कई किस्से, कथाओं की जननी रहा है। कुछ ऐसी, जो इतिहास के
सफ़ों पर दर्ज हैं, और कुछ ऐसी, जो लोगों की जुबां पर दर्ज हैं! और कुछ ऐसी, जो अब भूली बिसरी हैं! जो, भुला दी गयी हैं, अब कोई जानता भी नहीं उनके बारे में जो कहानी मैं
आपको सुनाने जा रहा हूँ, वो भी एक ऐसी ही भूली बिसरी कहानी है, जिसका नाम इतिहास में कहीं नहीं! लोगों की ज़बाँ पर कहीं नहीं! जिसके बारे में आज चंद लोग ही जानते हैं। बस चंद लोग! उम्मीद है, इस कहानी को, अब कुछ और लोग भी जानेंगे! कहानी में कोई शक्ति नहीं, कोई चमत्कार नहीं। बस, एक कहानी, जो मुझे याद है आज भी! और उस कहानी के बस दो ही ततसमय-साक्षी शेष हैं, एक वो कुआँ, जिसे, अँधा हुआ कहा जाता है, और वो गाँव, जो अब आधुनिक हो चला है! पक्के मकान हैं अब वहां! बात शुरू होती है, एक आयोजन से! धौलपुर में एक आयोजन था, कुछ लोग आये हए थे,
और मेरा भी निमंत्रण था वहाँ! अतः मैं भी शर्म अजी के साथ उस स्थान के लिए रवाना हुआ था! शहर से बो स्थान काफी दूर था, हमें एक जीप लेनी पड़ी थी, जीप ली, और पहुँच गए थे उस स्थान पर! मुझे बाबा कुंदन ने बुलाया था, उन्हें कुछ प्राप्त हुआ था, एक पौत्र! बस, यही
आयोजन था! आयोजन बहुत बढ़िया रहा! वहां आये हुए कई लगों से मैं मिला, कई लोगों से, और उन्ही लोगों में, मुझे एक वृद्धास्त्री भी मिली! कि सत्तर-अस्सी साल की रही होंगी वो अम्मा जी! अम्मा जी, वहीं रहती हैं, बाबा कुंदन उनका ख़याल रखते हैं। अम्मा लगती नहीं हैं अस्सी बरस की! अभी भी दमखम है अम्मा में! सारा काम खुद ही कर लेती हैं! झाडू बुहारी, बर्तन चौका सब! अब बुजुर्गों से आशीर्वाद मिलने के लिए मैं सदैव अग्रणी रहता हूँ! अम्मा के चरण छुए, तो उनका आशीर्वाद मिला! खुश हुई अम्मा! खाने आदि के बारे में पूछी उन्होंने! खाना तो खा ही चुके थे हम! अम्मा से कह दिया कि खाना तो खा ही चुके हैं, वे
खा लें अब! तो बोली, बाद में खा लेंगी वो! उसी रात की बात होगी, हम खा-पी रहे थे, मेरी नज़र, खिड़की से बाहर गयी, बाहर, एक कक्ष में, शायद लालटेन जली थी, बत्ती नहीं थी उस समय, हमारे यहाँ भी हंडे ही जल रहे थे! तभी उस लालटेन वाले कक्ष से वो अम्मा बाहर आयीं, कुछ लेकर, फिर वो एक जगह रखा
और चली गयीं, इस उम में भी उनको अच्छा-खास दीख पड़ता था! मुझे बहुत अच्छा लगा!! जब हम फारिग हुए, तो न जाने मेरा मन उनसे मिलने को हुआ! मैं शर्मा जी को संग ले, उनके कक्ष के सामने पहुंचा, दरवाज़ा खुला था, अम्मा कुछ कपड़े, उलट पुलट रही थीं! मैंने
दरवाज़े को दस्तक दी! अम्मा ने देखा! खड़ी हुईं, आयीं बाहर! मुझे देखा! "आओ बेटा!" बोली अम्मा! "अभी तक सोयी नहीं अम्मा?" मैंने पूछा, "नहीं बेटा" बोली वो! "क्या बात है?" मैंने पूछा, "कुछ नहीं, कुछ कपड़े सुंधा लूँ, सोचा" वो बोली, हम चारपाई पर बैठ गए थे।
और अम्मा नीचे, अपने कपड़े सुंधा रही थीं! "कौन से गाँव की हो अम्मा?" मैंने पूछा, अम्मा ने गाँव का नाम बता दिया! मेरे लिए तो नया ही नाम था, सुना ही नहीं था मैंने! "घर में कौन कौन हैं?" मैंने पूछा, अम्मा चुप थी! चुप रहीं! मैंने फिर से पूछा!! "थे, सब थे, लेकिन अब कोई नहीं" बोली वो, दुःख झलका था उनकी आवाज़ में, मुझे मेरा प्रश्न, अटपटा सा लगा था तब! "ओह..." मैंने कहा, "एक पुत्री थी, ब्याह दी, एक पुत्र था, ब्याह दिया था, मेरे पति तो मेरे पुत्र के पैदा होते ही, चल बसे थे, बीमार रहते थे बहत" वो बोली,
ओह...संघर्षपूर्ण जीवन रहा अम्मा का, दुःख हुआ... "और आपका पुत्र?" मैंने पूछा, "नहीं रहा, कि संतान नहीं थी उसके, बीमार हुआ, और चल बसा" वो बोली, मुझे दुःख हुआ ये सुनकर, "पुत्री?" मैंने पूछा, "सुना था पागल हो गयी थी, कभी नहीं ठीक हुई, कोई औलाद नहीं थी, वो भी पूरी हो गयी"
वे बोली, अब रह गयी थीं अम्मा अकेली............ कैसा काटता है एक मनुष्य जीवन अपना, अकेला..... "कि भाई बहन?" मैंने पूछा,
अब कपड़े सुंधाना छोड़ दिया! हमें देखा!
"थी एक बहन मेरी" वो बोली! "अच्छा, कौन?" मैंने पूछा, सोचा थोड़ा दुःख हल्का हो जाए उनका! "गंगा" वो बोलीं! गंगा! कितना पावन नाम है! मैंने तो हाथ भी जोड़े नाम लेते हए! माँ हैं गंगा! गंगा माँ! "अच्छा अम्मा!" मैंने कहा, "कितना बजा?" पूछा उन्होंने, "बारह" मैंने कहा, "सो जाओ फिर बेटा' बोली वो! "नहीं अम्मा! तेरे पास जी लग रहा है, मन नहीं सोने का!" मैंने कहा! "अम्मा? गंगा कहाँ है?" मैंने पूछा, "वो भी चली गयी मुझे छोड़ कर" वो बोली! "ओह, छोटी थी या बड़ी?" मैंने पूछा, "बड़ी" वो बोली, "उनका कोई बाल-बच्चा?" मैंने पूछा, अब बाहर झाँका उन्होंने! खड़ी हुईं,
और बाहर चली गयीं, कुछ देर बाद आयीं, हाथ में कुछ लिए, एक झोला सा था, गुदड़ी सी लिए! "ये, ये देखो" वो बोली, ये एक तस्वीर थी! जिसमे दो लड़कियां थीं, नाव सहारे फोटो खींची गयी थी, श्याम-श्वेत तस्वीर थी! किसी मेले की सी लगती थी! "ये, गंगा" वो बोली, एक सुंदर सी अठारह उन्नीस बरस की लड़की! छरहरी सी! घाघरा पहने, श्रृंगार सा किये! अल्हड़सी! तीखे नैन-नक्श थे उसके! हाथ में, कोई लकड़ी सी थी उसके! "और ये?" मैंने पूछा, "ये मैं" वो बोली, पतली सी! सुंदर सी! तेज, नटखट सी एक लड़की!! नाक बहुत तीखी थी उसकी! नैन-नक्श भी तीखे ही थे उसके। "अम्मा! तुम तो बहुत सुंदर थीं!" मैंने कहा, मेरे शब्द, प्रभावित न कर सके उन्हें!
मैंने तस्वीर दे दी वापिस उनको! उन्होंने में रख ली, लेकिन रखने से पहले, उसको देखा! साफ़ किया, अपने हाथ से!
और बैठ गयीं! "आपके पिता जी?" मैंने पूछा, "व्यापारी थे" वो बोली! "अच्छा!" मैंने कहा, व्यापारी! उस ज़माने में! "और माता जी?" मैंने पूछा, "मेरी माँ बहुत अच्छी थी, बहुत अच्छी, सभी मान करते थे उसका, सभी!" वो बोली! "अच्छा अम्मा!" मैंने कहा, अम्मा लेट गयी थीं,
बुजुर्ग थीं, सोचा अब तंग न किया जाए उन्हें! मैं खड़ा हुआ, "कल आना बेटा, अगर वक़्त हो तो" बोली अम्मा! "हाँ अम्मा। हाँ!" बोला मैं!
और निकल आया बाहर! अम्मा से मिलकर, बहुत अच्छा लगा। बहुत अच्छा! हम आये वहाँ से, सीधा अपने कमरे में, आज सुबह की वापसी भी थी हमारी, लेकिन अम्मा से तो ऐसे मन मिल गया था जैसे, अम्मा कोई नहीं, मेरी जानकार हैं, मेरी माता जैसी, मेरी अपनी ही माँ! ऐसा लगाव हो चला था अम्मा से! बुजुर्ग लोग, जब अपनी बातें बताते हैं तो एक इतिहास सामने होता है! एक जीवंत इतिहास! एक जीता हुआ इतिहास! वो, उस समय में जी रहे होते हैं, जिसमे हम कभी थे ही नहीं, तो वो खजाना हए! खजाना सरल नहीं है प्राप्त करना! और इन बुजुर्गों के पास तो अनमोल खजाना है! कभी बैठिये इनके पास! इनका अनुभव, हमारे काम आता है। जीवन क्या है, कैसे आगे बढ़ता है, ये सब बता देते हैं। संघर्ष, क्या होता है, एक एक शब्द में झलक जाएगा! खैर, रात बहुत हो गयी थी, हम गए,
और सो गए! सोये भी ऐसा कि सुबह दस बजे ही आँख खुली! दिन चढ़ गया था! नहाये धोये, और फिर चाय नाश्ता मंगवा लिया, किया और उसके बाद मैं, संग शर्मा जी के, अम्मा को देखने चला! अम्मा के कमरे में गए, तो अम्मा नहीं थी वहाँ! आसपास देखा, तो भी नहीं थी! हम वहीं बैठ गए! और फॉर कोई दस मिनट के बाद अम्मा दिखाई दी, हाथों में गीले कपड़े
थे, उनको सुखाने के लिये, एक टूटी सी साइकिल पड़ी थी वहाँ, उसके हैंडल पर डाल रही थीं, जब डाल लिए, तो आयीं हाथ पोंछते हुए वापिस कमरे की ओर! जब आयीं तो नमस्कार हुई उनसे, पाँव पड़े हम उनके! अम्मा बहुत खुश हुईं! हमें बिठाया, और चाय की पूछी, एक
सहायक था वहाँ रामधनी, उसको बुलाया और चाय के लिए कह दिए! भोला सा रामधनी,
चला गया अम्मा का आदेश लेकर! और फिर अम्मा आ बैठीं वहीं! "कहाँ थीं अम्मा?" मैंने पूछा, "कपड़े थे कुछ, धो दिए" बोली अम्मा!
अपने झुरी पड़े हाथों को पोंछते हुए कहा अम्मा ने! "हाँ, मैंने देखा अम्मा" मैंने कहा, "हाँ बेटा" बोली अम्मा,
और बैठ गयीं, नीचे एक कट्टा बिछा था, उसी पर बैठ गयीं थीं, "और अम्मा कैसी हो?" मैंने पूछा, "बस बेटा" बोलीं वो! इतने में ही रामधनी आ गया, तीन कप और एक जग में चाय लिए! चाय डाली कपों में, और दे दी हमने! मैंने अपना कप, अम्मा को दे दिया था और फिर अपना कप लिया था! "और अम्मा, कल आप गंगा के बारे में कुछ बता रही थीं?" मैंने कहा, वो चाय पीते पीते रुकी! शून्य में ताका उन्होंने! "हाँ, लेकिन उसकी कहानी छोटी नहीं बेटा! वो बोली, और आज तो तुम जा ही रहे हो" बोली
अम्मा , "कोई बात नहीं अम्मा, कहने बड़ी यही तो कोई बात नहीं, हमारे जाने की कोई बात नहीं, हम तो कल भी चले जाएंगे!" बोला मैं! उसकी कहने छोटी नहीं! इस से तो मैं और जिज्ञासु हो चला था! न जाने कौन सी कहानी थी! उस गंगा की कहानी! जिसे न मैं जानता था,और न पहचानता था। लेकिन गंगा की बहन, हमारे सामने बैठी थीं! बस, लग गयी ललक! अब अम्मा ने कहानी सुनानी शुरू की! कहानी ऐसी थी, कि एक बार शुरू हुई तो हम डूबते चले गए उसमे!
एक कहानी, जो आज जीवंत हो उठी थी, उन अम्मा की जुबानी! अब मैं आपको वही कहानी सुनाता हूँ! अपने शब्दों में! इसमें कल्पना नाम की कोई चीज़ नहीं है! जैसा सुना, लिख रहा हूँ! राजस्थान! कई किस्से कहानियों का प्रदेश! वीर और वीरांगनाओं का प्रदेश! जौहर का प्रदेश! दुश्मनों के दांत खट्टे कर देने वाला प्रदेश! वचन के मान की आन रखने वाला प्रदेश! वचन! हाँ! सबसे हल्का शब्द लेकिन अर्थ में पर्वतों से भी भारी! ऐसा ही वचन किया था किसी ने!! और निभाया भी!! किसने, ये आपको बाद में पता चलेगा!!
धौलपुर! धौलपुर का एक छोटा सा गाँव! सूखा, बंजर नहीं था वो गाँव! हरा-भरा गाँव था वो!
आबादी अधिक नहीं थी, लेकिन लोग सुखी और सम्पन्न थे! इसी गाँव में एक व्यापारी हुआ करते थे, राम किशोर! राम किशोर के दो ही पुत्रियां थीं, पुत्र नहीं था, लेकिन इस से
कोई फर्क नहीं पड़ता था उन्हें! उनकी पुत्रियां ही उनके पुत्र थे! आँखों का तारा थीं वो पुत्रियां उनकी! दोनों ही रूपवान और सुंदर थीं! सौंदर्य, खूब नवाजा था देने वाले ने उनको! घर में एक नौकरानी भी थी माला, उन पुत्रियों की हमउम! खूब पटती थीं उन तीनों की! किशोर साहब, जब भी कुछ लाते, तो माला का हिस्सा भी होता था उसमे! नहीं तो गुस्सा हो जाती थी और घंटों किशोर साहब और उनकी पत्नी, मनाया करते थे उसे! हाँ, पानी गाँव के बाहर से लाया जाता था, गाँव के बाहर दो कुँए थे, एक नाल का कुआँ, जो अभी भी पानी देता था, और एक अँधा कुआँ, जो अब परित्यक्त था! बेटियों के जन्म से पहले ही उसमे पानी आना बंद हो गया था! पता नहीं कब से,अब तो बस, खाली ही पड़ा था, कभी राहगीर और मुसाफिर, पानी पिया करते हों तो हों, लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं था! उसी नाल के कुए से, पानी आया करता था गाँव का, वे दोनों कए आसपास तो नहीं थे, लेकिन दीखते थे आमने सामने! एक रोज,माला पानी लेने आई थी कँए से,संग उसके, वो गंगा भी थी। गंगा का रूप सच में सुहाना था, चटख गोरा रंग, इठालती सी काया, छरहरा बदन,और दमकता हुआ चेहरा, कोई देख लेता तो दुबारा ज़रूर देखता था उसे, पलट पलट कर! गंगा अक्सर, जब माला पानी भर रही होती, तो उस अंधे कुँए के पास जाकर बैठ जाया करती थी, वहां पेड़ लगे थे, बड़े बड़े पेड़! छाया होती थी तो अक्सर वहीं आ बैठती थी गंगा! एक बार जब, माला के संग घर लौट रही थी गंगा, तो दो घुड़सवार आये पीछे से, आवाज़ दी उन्हें, वे रुकी, एक घुड़सवार ने गंगा को देखा, तो लहरें उठ गयीं मन में! "सेठ मंगू का घर कहाँ हैं?" पूछा उसने,
अब माला ने बता दिया! वो माला को नहीं देख रहा था, बस एकटक, उस गंगा से नज़रें मिलाये हए था! "इसी गाँव की हो?" पूछा उसने, "हाँ" बोली माला, और चल दी आगे! "सुनो?" बोला वो ही! फिर रुकी! "क्या नाम है पिता जी का?" पूछा उसने। "राम किशोर" गंगा ने बताया!
अब नाम दोहराया उसने, दो बार!
और नज़रें मिलाये हए, दोनों आगे बढ़ लिए! पीछे पलट पलट के देखता रहा वो, बार बार! "अब नहीं आउंगी तेरे साथ" बोली गंगा! माला हंस पड़ी! "क्यों?" पूछा माला ने, "कैसे देख रहा था!" वो बोली, "तो?" पूछा माला ने। हँसते हुए। "तो??" बोली गंगा! "अब इसमें तेरी क्या गलती?" बोलीमाला, "तो किसकी गलती?" पूछा गंगा ने! "तेरे रूप की गलती!" बोली मां! लरज गयी
गंगा!! बातें करते करते, पहुँच गयी घर! उस दिन, माला छेड़ती रही सारा दिन गंगा को! और गंगा, दो-मन की हुए बैठी रही! बोली कुछ नहीं!
अगले दिन. फिर से पानी भरने गयी माला, गंगा के संग! और उसी समय वे दोनों घड़सवार वापिस आ रहे थे गाँव से! माला ने देखा, तो कोहनी मारी गंगा को! गंगा ने देखा, तो सर फेर लिया, पीठ कर ली उनकी तरफ! और वे घुड़सवार, वहीं रुके! वही उतरा! आया उनके पास! "पानी पीना है" बोला वो। "पियो" बोली माला! पानी पिया उसने! हाथ पोंछे! "क्या नाम है इसका?" पूछा माला से उसने! "उस से ही पुछ लो?" बोली माला! अब तो सहमी गंगा!!! कभी ऐसे बात नहीं की थी उसने किसी से! "क्या नाम है तुम्हारा?" पूछा उसने! न बोली कुछ! डरे। सहमे! घबराये! "नाम ही तो पूछा है!" बोला वो! "गंगा!" बोली वो! पीछा छुटे उस से!
"गंगा!! अच्छा!" बोला वो! "मेरा नाम भूदेव है, मुलाज़िम हूँ सरकारी" बोला वो, गंगा चुप! कैसे पीछे पड़ गया! होगा मुलाज़िम! उसे क्या! "चल माला?" बोली गंगा!
और चली वहाँ से वे दोनों गंगा आगे आगे, और माला पीछे पीछे!! माला ने पीछे देखा! वहीं खड़ा था वो भूदेव! उन्ही को देखता हुआ! अब गंगा ऐसी चली कि घर जाकर ही रुकी! आ गयी पीछे पीछे माला भी! वे घर चली आयीं थीं! गंगा तो बहुत डर गयी थी। और माला, माला उसे सारा दिन ऐसे ही चिढ़ाती रही थी। और जब बंगा की छोटी बहन जमना ने पूछा, तो माला ने उसे भी सब बता दिया! अब जमना भी पीछे पड़ गयी थी उसके! गंगा बेचारी क्या करती! झेंपही जाती, बस! उधर, गंगा के माँ बाप, उस गंगा के विषय में चिंतित थे! गंगा तो अब रूप निकाले जा रही थी अपना! पिता जी, अपने जानकारों में कह ही चुके थे उसके रिश्ते के लिए, रिश्तेदारों में भी! कोई अच्छा सा लड़का मिलता तो हाथ पीले हो जाते गंगा के! लेकिन अभी तक कोई रिश्ता मिला नहीं था उन्हें मिला भी था तो पसंद नहीं आया था! करीब तीन दिन और बीते! फिर से कोई दोपहर बाद, माला पानी लेने गयी कुँए पर, संग गंगा भी चली! अब वो सरकारी मुलाज़िम तो जा ही चुके थे, इसीलिए, इत्मीनान से चली जाती थी! उस रोज भी, वो उसी अंधे कुँए के पास ही बैठी थी! कि कुँए पर कोई घुड़सवार रुका, उसने माला से बात की, माला से बात होती देख, गंगा घबराई, उस घुड़सवार ने उसको देखा, और मोड़ दिया अपना घोड़ा उसकी तरफ! गंगा के तो प्राण सूखें अब! खड़ी हो गयी वो! पीछे मुंह फेर कर! घुड़सवार उतरा घोड़े से, और आया गंगा के पास! गंगा के पास एक घड़ा था, पानी से भरा! नीचे, घटने पर बैठा वो, "पानी बोला वो। क्या करती गंगा! पिला दिया पानी! पानी पीते पीते, उस घुड़सवार की नज़रें, उस गंगा को ही घूरती रहीं! जब
पानी पिया, तो अपने हाथ पोंछे उसने "कितना अच्छा हुआ जो तू मिल गयी! गंगा!" बोला वो!
अब गंगा सूखे खड़ी खड़ी!! "उस से पानी नहीं पिया, तुझसे माँगा, यही न?" बोला वो! गंगा चुप!! पानी पी लिया तो जाता क्यों नहीं! "तुझ से ही पानी पीना था गंगा!" बोला वो! अब गंगा क्या कहे!! "तू बहुत अच्छी लगी मुझे, पहली नज़र से ही!" बोला वो! गंगा को झुरझुरी चढ़े! ऐसे शब्द कभी न सुने थे उसने तो! "तेरा कहीं ब्याह तय हुआ गंगा?" पूछा उसने! गंगा चुप!! "इतनी सुंदर है तू! आवाज़ कितनी सुंदर होगी! सुना दे आवाज़? वही आवाज़!" बोला वो! ऐसी बातें
क्या जाने गंगा!! गंगा चलने लगी वहां से, घड़ा उठाये! "सून तो सही?" बोला वो! सामने आ खड़ा हुआ था उसके! दिल की धड़कन सभी सुन सकते
थे उसकी, बस उस भूदेव के सिवा!! "गंगा! तेरे से मन लग गया है मेरा तो, मैं इसीलिए आया गाँव आज, सच्ची!" बोला वो! गंगा पीछे हटी!
और फिर आगे बढ़ी। इस बार, रास्ता छोड़ दिया उसने! और गंगा, दौड़ पड़ी! वो घुड़सवार, देखता रहा उसको! उसने तो कर दिया था इज़हार-ए-मुहब्बत! बस, गंगा का इंतज़ार था!! सरपट भागी गंगा तो! माला से भी कुछ न कहा! माला पीछे पीछे उसको आवाज़ दे, और वो भागती जाए! पानी, बिखरे जाए, और बिखरते हए, उसके तन से जा चिपके! यौवन, झाँकने लगे बाहर! और वो घुड़सवार, पीछे पीछे आता जाये! उस गंगा को देखे जाए! घोड़े को कभी एड़ लगाये, कभी लगाम कसे! नहीं रुकी गंगा! जा पहंची घर! और सीधे अपने कमरे में!
औंधे मुंह, धम्म से गिरी अपने बिस्तर पर! माला भी आ पहंची! उसने उठाया उसे तो झिड़क दिया उसे! अब माला और छेड़े उसे! "क्या हुआ गंगा?" पूछा माला ने! गंगा चुप! मुंह छिपाए अपना! "वैसे है तो अच्छा वो!" बोली माला! अब फिर से झिड़का उसे गंगा ने! जमना भी आ गयी थी! वो भी, उसको छेड़े! जो माला कहे,
वही दोहरा दे जमना!! "सरकारी मुलाज़िम भी है, और क्या चाहिए!" बोली माला! गंगा चुप रहे। कुछ बोले न बन पड़े! "अगली बार घर का पता दे देना, बात चल जायेगी!" बोली माला! उसको छूते हए!! तो उस सारा दिन यही चलता रहा। गंगा के कोरे मन पर, किसी ने कलम चलाने की कोशिश की थी। लेकिन गंगा, दविधा में भी नहीं थी। बस, उसको अजीब सा ही लग रहा था। संदर होने का, यही तो दुर्गुण हैं! इसके बाद, हफ्ता गुजर गया! नहीं आया वो घुड़सवार! चलो, पीछा छूटा! अच्छा हुआ! यही सोचा उस गंगा ने! लेकिन माला, उस भूदेव की माला फेरती रहे! बार बार उसको झूठे से कहे, कि वो देख! वो आ रहा! तो बार बार चौंक जाए वो! कनखियों से देखे! और माला, उसका मज़ाक बनाये! कोई होता नहीं था वहाँ!! कोई चार दिन बाद, वो कुँए पर ही थीं, दोनों! दूसरी औरतें चली गयीं थीं पानी लेकर, अब वे भर रही थीं! "अरे गंगा? वो देख!" बोली माला ज़ोर से! कोई होता तो था नहीं! तो, सर उठाकर देख लिया गंगा ने!
और सामने से! सामने से वही घुड़सवार आ रहा था! अब तो सीने में कैद दिल, जगह छोड़े अपनी! साँसें, हो गयीं तेज! चेहरा लाल, शर्म से! और इतने में ही, वी घुड़सवार आ गया वहीं! गंगा के पास आया! "पानी" बोला वो! अब गंगा ने पानी पिलाया उसको! उस घुड़सवार का चाबुक, नीचे गिर पड़ा था उस समय! पानी पिया, और चाबुक उठाया अपना! गंगा को देखा, मुस्कुराया! "मैं इतने दिन नहीं आया, तेरी बहत याद आई गंगा!" बोला वो!
अब गंगा क्या करे! आये याद तो आये! वो क्या करे! "कैसी है तू?" पूछा उसने! कुछ न बोले! नज़रें नीचे ही रखे! "बता गंगा?" बोला वो!
क्या बताये!!
"तू बात नहीं करती मुझे!" बोला वो! फिर भी न बोली कुछ! "कुछ तो बोल गंगा?" बोला वो! "सुबह, दोपहर, शाम रात, तेरी याद आती है गंगा!" बोला वो!
अब उसका एक एक शब्द, चाबुक बन, उसको उधेड़े! "मैं दूर से आता हूँ गंगा! सिर्फ तेरे लिए, सिर्फ तेरे लिए!" बोला वो! गंगा चुप रहे!! "अब तुझे देख लिया, चैन पड़ा!! सच्ची!" बोला वो!
और तभी गंगा के कंधे पर, एक ततैय्या आ बैठा! गंगा ने तो देखा नहीं, उसकी तो गर्दन नीचे ही थी! और अगर न हटाये वो उसे, तो काट ले! सूजा दे फौरन! हाथ भी न उठे! तो उस भूदेव ने अपना हाथ जैसे ही उस ततैय्ये को हटाने के लिए आगे बढ़ाया, गंगा ने फौरन झिड़का! ततैय्या तो उड़ा, लेकिन काट गया उस भूदेव के हाथ की एक ऊँगली को! ये गंगा ने भी देखा! गंगा उसकी ऊँगली देखे! और देखते ही देखते, वो ऊँगली सूजने से लगी! भूदेव ने, ऊँगली रगड़ी चाबुक से, लोहे वाले सिरे से, और पानी से हाथ धो लिया!! "गलत नहीं समझना गंगा, वो ततैय्या तेरे कंधे पर बैठा था, न उड़ाता तो तुझे काट लेता, काट लेता तो हाथ सूज जाता, हाथ सूजता तो घड़ा कैसे उठाती, घड़ा नहीं उठता तो तू यहां तक कैसे आती, यहां तक नहीं आती, तो..मैं कैसे देखता तुझे!!" बोल गया वो भूदेव! गंगा को हंसी आई! लेकिन हंसी, होंठों से बाहर नहीं आने दी उसने! हाँ, आवाज़ से भांप गया था भूदेव! मुस्कुरा गया था उसको देखकर! और इसके बाद, गंगा और माला, चल पड़ीं घर की तरफ!! आज नहीं भाग रही थी गंगा उस माला से आगे आगे! आक संग चल रही थी! और वो घुड़सवार, वहीं खड़ा खड़ा, उसको ही देख रहा था! अब गंगा ने पीछे मुड़कर देखा! वो हड़सवार, आ रहा था, धीरे धीरे! उनके पीछे! "हाथ काट लिया बेचारे का" बोली माला, "तो क्या हुआ?" बोली गंगा! "तुझे बचाया उसने, नहीं तो चिल्ला रही होती अभी तक!" बोली माला! "धत्त!" बोली गंगा! "सच में, प्रेम करता है तुझे वो!" बोली माला! प्रेम!! गंगा के निर्मल जल में, लहर उठी थीं इस बार!! "कल फिर आएगी न गंगा?" बौला वो घुड़सवार! संग आ मिला था अब वौ! गंगा चुप!! कुछ न बोले!
"कल आना गंगा! मैं सिर्फ तुझे देखने आऊंगा" वो बोला, रुका और गंगा को देखता रहा!
और जब गंगा और माला, चली आयीं गाँव के अंदर, तो वो पीछे मुड़ा और दौड़ा दिया अपना घोड़ा!
आ गयीं घर अपने दोनों! माला मुस्कुराये जाए! जमना को भी बताये! अब जमना भी छेड़े उसे! लेकिन आज, ये छेड़, वो टीस नहीं दे रही थी। बल्कि, इसमें एक अलग सा ही आनंद था! एक अलग सा ही! आज से पहले, कभी महसूस नहीं किया था गंगा ने। उस दिन, गंगा के जल में, हिलोर उठती रहीं। रात में भी, जब भी नींद खुलती, तो यही हिलोरें, आ घेरती!! उस रात, गंगा के जल में, खूब हिलोरें उठी! किनारे तक नहीं बच पाये! मन में, एक अजीब सा अहसास था, एक अहसास! जो इतने बरसों तक तो कहीं नहीं था, कभी नहीं हुआ था! देह भी वही थी! लेकिन अब कुछ अलग सा ही लगता था! माला सुबह से ही कई बार उस भूदेव से मिलना है, मिलना है, यही चिल्ला रही थी! जब भी उसके करीब से गुजरती तो यही कहती!
और फिर दोपहर बाद, वे चली कुँए की तरफ! आज सामने ही नज़र थी उसकी! सामने, जहां से वो घुड़सवार आया करता था! घड़े में पानी भर, और फिर गिरा दिया कँए में! कारण! । अभी
तक नहीं आया था वो घुड़सवार! माला सब देख रही थी, लेकिन बोली कुछ न, ये मात्र उस गंगा का अंतर्दवंद था, इसीलिए नहीं उलझी उस गंगा से! कई बार पानी भरा, और कई बार गिरा दिया! पूरा घंटा बीत गया! लेकिन वो नहीं आया उस दिन! न जाने क्या बात हुई! "अब चल, साँझ तक इंतज़ार करेगी क्या?" बोली माला!
सर उठाके देखा उसने, उसी रास्ते को! सुनसान पड़ा था! कोई नहीं आ रहा था। सुनसान! ज़मीन तप रही थी धूप से, और मरीचिका का नृत्य हो रहा था उस रास्ते पर! और कुछ नहीं "चल! अब चल, कोई काम पड़ गया होगा उसे!" बोली माला! पानी भरा, अनमने मन से उसने! उठाया, और बिन कुछ कहे, चल पड़ी घर के लिए! रास्ते में, कई बार पीछे देखा! कोई नहीं था! बस सुनसान! पहँच गयीं घर! पानी रखा उसने! दीवार में बने आले में! और सीधा अपने कमरे में चली गयी! गुमसुम सी! जा लेटी बिस्तर पर! माला आई वहाँ! "गंगा?" बोली वो! बैठ गयी उधर ही! "हूँ?" बोली गंगा! "याद आ रही है उसकी?" पूछा उसने!
अब क्या बोले वो!! कैसे बताये कि याद तो छोटी सी वस्तु है!! छोटा सा शब्द! "आज काम पड़ा होगा कोई उसे!" बोली माला, कुछ न बोली! आँख बंद किये, लेटी रही! "कल आ जाएगा! पूछ लेना, कल क्यों नहीं आये थे!" हंस के बोली गंगा! तभी आहट हुई, कोई आ रहा था, माला उठ खड़ी हुई और चली बाहर, गंगा भी उठ गयी, कपड़े ठीक किये उसने! माँ आई थी, माँ ने कुछ बातें कीं उस से! घर के विषय में ही और ये भी बताया कि उसकी बुआ का बेटा आ रहा है, घर घूमने! उस बुआ के बेटे से बहुत प्रेम करती थी ये गंगा, किसी सगे भाई से भी ज़्यादा! गंगा खुश हो गयी! एक पल के लिए, वो घुड़सवार छिप गया था कहीं! उस रात भी, सो न सकी वो गंगा! सारीरात, वही ख़याल! वही यादें! वही बातें! घर कर गया था वो सरकारी मुलाज़िम उसके दिल में कहीं! अगले दिन, गयीं वे दोनों पानी लेने! सामने देखा, कोई नहीं था! कोई नहीं आ रहा था! बुझ सा गया चेहरा! पसीने की बूंदें, भवों से होते हुए, उसकी खूबसूरत पलकों पर आ पड़ती! गरम थी, लेकिन उसके बाद भी, आँखें इंतज़ार में थी! उस घुड़सवार के पानी भरती, और गिरा देती! कुछ समय ऐसे ही बीता! पानी भरती और अपने पांवों में गिरा देती! "अरे? देख?" बोली माला! झट से! झट से चेहरा उठा कर देखा! चला आ रहा था वो भूदेव! उसका घोड़ा, सर हिलाये चला आ रहा था। तूफ़ान सा उठने लगा बदन में! दिल धड़कने लगा! जिसका इंतज़ार था, वो आ रहा था। लेकिन डर! डर था मन में! बहुत बड़ा डर! डर और स्थिरता के बीच में झूल रही थी गंगा! और फिर घोड़े के खुरों की आवाज़ करीब आती गयी! और रुक गया घोड़ा! रुका, तो पानी पीने के लिए वो घोड़ा आगे आया! एक नांद बनी थी, मवेशियों को पानी पिलाने की! माला भरने लगी वो नांद! और घोड़ा, पीने लगा पानी! "पानी" बोला वो भूदेव!
आँखें नहीं मिलायीं! मिला ही न सकी!
और वो भूदेव, पानी पीने के साथ ही साथ, वो प्रेमरस भी पीता चला गया!! उसकी नज़रें, न हटी उस गंगा से! पानी पी लिया, तो हाथ पौंछे उसने पूछ गंगा!
पूछ! कल क्यों नहीं आये थे?
क्यों? पूछ न गंगा!! कैसे पूछे! शब्द ही नहीं निकल रहे थे मुंह से! होंठ, खुल ही नहीं रहे थे! "कल नहीं आ पाया था मैं गंगा!" बोला वो! कुछ न बोले! देखे भी नहीं! "मुझे तेरी बहुत याद आई कल!" बोला वो! याद तो गंगा को भी आई थी!! "कल आई थी तू?" पूछा उसने! कुछ न बोली वो! "मेरा इंतज़ार किया था या नहीं?" पूछा उसने!
क्या बोले!! कैसे बताये! "तेरी तू जाने गंगा। मैं प्रेम करने लगा हूँ तुझसे! सच्ची!" बोला वो!
जैसे ही प्रेम बोला, आँखें मिंच गयी गंगा की। "तेरे लिए आया हूँ गंगा, सुबह से निकला हूँ! बिन खाए पिए! तुझे देख लिया, अब भूख प्यास नहीं!" बोला वो!
और गंगा!! गंगा शांत!! शांत! पत्थर सी! "तू कुछ बोलती क्यों नहीं गंगा?" पूछा उसने! नहीं बोली कुछ! "बोल न?" बोला वो!
नहीं बोली!! होंठ नहीं खुले! "देख, तू बोलेगी नहीं तो मैं कैसे जानूंगा, कि मैं तुझे तंग कर रहा हूँ या नहीं?" बोला वो! कैसे बोले गंगा!! और तंग!!! "देख, नहीं बोलेगी तो नहीं आऊंगा मैं!" बोलावो!
न बोली! कुछ न बोली! हाँ, आँखें ज़रूर मिंच गयीं इस बार! "बोल न गंगा?" बोला वो! नहीं बोल सकी! चाहते हुए भी, नहीं बोल सकी! "मैं बहुत दूर से आता हूँ गंगा! सिर्फ तुझसे मिलने! और तू, तू बोलती नहीं कुछ भी?" बोला
वो।
कुछ पल ऐसे ही बीते! न बोली वो! वो हया क़ज़ा सी बन गयी! "ठीक है, मत बोला! आऊंगा तोज़रूर मैं तुझे देखे बिना, चैन तो है नहीं! तुझे, चुपके चुपके देख लिया करूँगा! ठीक है गंगा! तेरी मर्जी!" बोला वो! घोड़े ने पानी पी लिया था! "चल, पानी पिला, रात तक पहुंचूंगा अब वापिस" बोला वो! गंगा ने, घड़ा आगे कर दिया! भर दी ओख उसकी! वो पानी पीता रहा, बिन उसे देखे! तब, पहली बार गंगा ने देखा उसको बांका था! जवान! चौड़ा चेहरा! रौबदार मूंछे! चौड़ा सीना! और मज़बूत भुजाएं! पाँव में, जूतियां पहने था! तावदार जूतियां!
और उसी पल। उसी पल!
आँखें उठायीं उस भूदेव ने! आँखें मिली उसकी गंगा से! पहली बार!!! पहली बार नज़र दो से चार हुई!
और जैसे ही हुईं! घड़ा गिरते गिरते बचा उस गंगा का!! पकड़ी गयी थी! उसकी चोर-नज़र, पकड़ी गयी थी! "ठीक है गंगा! चलता हूँ मैं अब!" बोला वो! कसक सी पड़ी गंगा!! हाथ पोंछे उसने! "अब चलता हूँ, आ नहीं पाउँगा एक पखवाड़ा! मुझे दूर जाना है किसी काम से! तुझे देख लिया, तो चैन पड़ा! आऊंगा मैं, एक पखवाड़े के बाद!" कह कर, घोड़े पर चढ़ गया वो! लगाई एड़ घोड़े को! "अच्छा गंगा! चलता हूँ!" बोला वो!
और चल दिया! गंगा देखती रही! देखती रही उस घोड़े के खुरों से उठती उस मिट्टी को! और वो!! भूदेव! नहीं देखा उसने पीछे मुड़के! एक बार भी नहीं!! चुप! गुमसुम!
माला ने झिंझोड़ा उसको!
आँखों में झाँका!! आँखों में, हया की छाँव थी! गहरी छाँव! "पंद्रह दिन!!" बोली माला! उसको चिढ़ाते हुए!!!! "एक पखवाड़ा!" सुना तूने? बोली माला! सुन्न पड़ गयी थी बेचारी गंगा तो! पास होता है, तो होंठ नहीं खुलते, दूर होता है तो दिल नहीं खुलता! वो तो बोलता रहा है कि कुछ बोल गंगा, कुछ बोल! नहीं बोल पाती! ये कैसी अजीब सा अहसास है! खुद अपनी होकर भी खुद अपनी नहीं! परायी सी! बेगानी सौ! ये
क्या है?? "अब क्या करेगी गंगा?? कम से कम बात तो कर लेती!" कटाक्ष सा मारा माला ने! गंगा चुप! उसके कानों में तो एक पखवाड़ा शब्द ही गूंज रहा था उस भूदेव का! क्या बोले। "कुछ बोल तो सही?" बोली माला! चुप! नहीं बोली कुछ! "लगता है वो सरकारी मुलाज़िम आवाज़ भी ले गया साथ अपने तेरी!" ताली पीटते हए बोली माला! मज़ाक उड़ाते हए! और तब अपने होश में आई गंगा! "चल, घर चल अब" बोली वो! "हाँ, अब घर ही जाना है, तू तो आएगी नहीं अब पंद्रह दिनों तक पानी भरने!" फिर से कटाक्ष!! घूर के देखा गंगा ने उसको! "उसे घूर लिया होता तो ये हाल न होते!" बोली माला! गंगा भी हंस पड़ी!! "चल अब!!" बोली वो! "चल" बोली माला,
और चल पड़े वापिस दोनों! पीछे मुड़के देखा दोनों ने! कोई आ रहा था, दो घुड़सवार! वे रुक गयीं! जब पास से गुजरे तो, हलकारे थे वो! "काश कि वो होता!" बोली माला! "धत्त! अब चुप हो जा! बस!" बोली गंगा! अब चुपचाप चलते चलते, आ पहुंची घर अपने! घर आते ही, पानी रखा आले में, और फिर अपने कमरे में चली गयी सीधी! जा लेटी! माला भी आ गयी वहां!
"उफ़! एक पखवाड़ा!" बोली माला! चिढ़ाते हुए उसको! हिलाये गंगा को! खींचे उसके हाथ-पाँव! और गंगा! छिटके उसके हाथ! "मत कर माला!" बोली वो! "ठीक है! तेरी मर्जी!" बोली माला और चली गयी बाहर! अपना काम देखने! चार दिन बीते। और चार दिन! इन आठ दिनों में, पानी लाना नहीं छोड़ा उसने! आस थी उसको! कि कही आ ही जाए, वो भूदेव! वो आठ दिन तो, आठ बरस बन गुजरे थे। बार बार रात ताकना, आँखों पर, धूप से बचने के लिए, हाथ रख कर, रास्ते को खंगालना! दिन में, अपने से जुदा! रात में अपने में कैद! तड़प! बिरहा सुना ही था, भोगा नहीं था,अब समझ आने लगा था उसको! और उधर माला, माला न छोड़े उसे! चिंगारी भड़काए! वो जमना! जमना भी चिढ़ाये! उनसे तो बच जाती वो! लेकिन अपने से? अपने से झूठ कैसे बोले? कैसे बोले कि प्रेम नहीं हुआ है उसे। क्यों दिन और रात बिस्तर पर लेटे, सलवटें सुलझाती है वो, चादर की! क्यों!!!
क्यों अपने आपको, दर्पण में देखा, आँखें झुक जाती हैं। खुद से कैसे झूठ बोले! कैसे! मित्रगण!
शेष बचे दिन भी करवट लग गए! लेकिन करवटें बहुत बदलीं उसने! ये प्रेम अगन है, एक बार सिगर जाए तो बुझने का नाम नहीं लेती! एक ही तरह से बुझ सकती है ये! कि खुद जल जाओ इसमें! बस, और किसी भी तरह, नहीं बुझ सकती वो! तो गंगा, जल रही थी! उसी प्रेम
अगन में!
और फिर सोलहवां दिन आया! आज मन में फूल खिले थे। उस प्रेम की हवा ने, शीतल हवा दी थी फूलों को! आज का दिन, और दिनों से कहीं अलग था! कहीं अलग! आज तो सुबह से ही,
इंतज़ार था किसी का! आज का स्नान भी ख़ास था! वस्त्र भी खास और चाल-ढाल भी खास! फिर हुई दोपहर!!
अब अब लगी, लगी!! प्रेम की लगी! इस लगी का कोई नाम नहीं! ये इंतज़ार से अलग है, चाह से अलग है. इच्छा से अलग है! जिसको ये लगी लग जाए, तो फिर कहीं और नहीं लग सकता! यही है वो लगी! अब गंगा को लगी थी ये लगी!! पहुँच गयीं कुंए पर!! और गंगा ने रास्ता तकना शुरू किया फिर! आज तो नज़र हटाई ही नहीं उसने! उस तेज धूप में, चलती गरम लू, उसकी साँसों से गरम न थीं आज! नज़रें बिछा दी! वहीं देखती रही! आँखों पर हाथ धरे!!
और फिर सामने कोई नज़र आया! एक छोटा सा काला बिंद! कीकर के पेड़ों के बीच आते
उस रास्ते के बीच, कोई चला आ रहा था! ये मरीचिका नहीं थी! कोई आ रहा था! करीब, और करीब! गंगा कुँए के पास आ खड़ी हुई, पीठ पीछे किये! साँसें आज धौंकनी से तेज थीं!
धड़कन, आज बहुत तेज, बहुत तेज थीं! कान, आवाज़ पर लगे थे! आँखें, देख तो नीचे रही थीं, लेकिन ध्वनि के साथ बंध गयी थीं वो! खुरों की आवाज़ आई! धीरे हुई, और धीरे! और फिर रुक गयीं! घोड़े से उतरा कोई! और घोड़ा, पानी पीने आगे आया! घोड़े के लिए, पानी निकालना शुरू किया अब माला ने! "पानी!" बोला वो! गंगा के बदन में चिंगारी सी दौड़ गयी! कितनी मधुर आवाज़ थी! लेकिन रौबदार! गंगा ने घड़ा उठाया, और बढ़ा दिया उसकी तरफ! उसने हाथों से ओख बनाई, और पानी पीने लगा, लगातार देखता हए उसे! लेकिन गंगा के नेत्र! नेत्र नहीं उठे। कहीं पकड़े न जाएँ इसका डर
था!! पानी पी लिया उसने! हाथ पोंछे। "गंगा!" बोला वो। कुछ न बोली! सिहर के रह गयी! ये है क्या? सामने हो, तो होंठ सिल जाएँ, न हो तो अपने से जदा? ये है क्या?? "गंगा?" बोला वो! वो कुछ न बोली! "तुझे बहुत याद किया मैंने!" बोला वो! गंगा! अंदर ही अंदर, अपना नाम सुन, कांपे! प्रेम की कंपकंपी!! "तुझे याद आई मेरी?" पूछा उसने! याद? कब नहीं आई!!! लेकिन बताये कैसे??? कैसे बताये? "माला?" बोला वो! "हाँ?" बोली माला! "इसे, मेरी याद आई?" पूछा उसने "हाँ, बहत याद आई!" बोल दिया माला ने!
और गंगा! पानी पानी!!
"गंगा! अपने मुंह से कह दे, प्राण तेरे नाम कर दूंगा मैं गंगा!" बोला वो! अपने मुंह से!! कैसे? कैसे भूदेव कैसे!! "गंगा! मुझसे बात कर?" बोला वो। गंगा चुप! हाथ लगाओ, तो ढह जाए रेत की तरह! "गंगा? मुझसे बात कर, देख, मैं सुबह से चला हूँ तेरे लिए!" बोला वो! गंगा चुप! कुछ न बोले!! शब्द ही न मिलें! होंठ ही न खुलें! "गंगा! मैं तुझे प्रेम करता हूँ, ये मेरी गलती है? नहीं न? अगर तू कह दे, कि नहीं आओ यहां, तो नहीं आऊंगा, ये मेरा भाग्य ही सही!" बोला वो! ये क्या कह दिया भूदेव? क्या कह दिया? "गंगा?" बोला वो!
आगे बढ़ा थोड़ा सा! गंगा जस की तस! आगे आये और, और!! हाथ पकड़ लिया गंगा का! घड़ा गिरता, तो अपने एक हाथ से घड़ा पकड़ लिया था उसने! हाथ से पकड़ा, तो गंगा, जैसे बहने लगी! किनारों को तोड़! उस पकड़ ने, देह में ऐसी अगन लगाई कि खुद झुलस उठी! बदन की जैसे सारी जान, उस पकड़ में आ गयी थी! क्या पकड़
थी! उसकी पूरी कलाई, उसकी मुट्ठी में थी!! गंगा हाथ छुड़ाए! कोशिश करे! लेकिन वो! न छोड़े! न छोड़े! "गंगा! माफ़ करना, लेकिन मैं रोक नहीं सका अपने आप को!" कहते हुए, हाथ छोड़ दिया उसका! कलाई पर, नील पड़ गए। उंगलियां छप गयीं थी उसकी! "गंगा?" बोला वो! अपन हाथ पीछे कर, चुप खड़ी रही!
"सुन गंगा?" बोला वो! न सुना! "ये ले!" बोला वो! अपनी जेब से कुछ निकाल कर! कुछ! एक मोतियों की माला थी उसके हाथ में! "ले गंगा?" बोला वो!
और गंगा!! और गंगा! गंगा पाषाणवत खड़ी रही! भाव थे, लेकिन बदन में! दिल में क्या करे! कैसे ले ले!! जड़! जड़ थी गंगा! गंगा में जैसे ठहराव आ गया था! शून्यवत हो चली थी गंगा! "ले? ले न गंगा?" बोला वो! गंगा के न हाथ हिले न पाँव! न आँखें ही हिली! पतलियाँ जैसे स्थिर थीं। जैसे पाषाण की प्रतिमा की आँखें! "गंगा! मैं जहाँ गया था, वहाँ हाट थी, न अपने लिए खरीदा कुछ न किसी और के लिए! बस तेरे लिए,मेरी गंगा के गले में सजेगी, तो चार चाँद लगेगी! बस खरीद लिया। ले! ले गंगा!!" बोला वो! "गंगा! ले ले!" बोला वो! कैसे ले ले गंगा! शब्द तो फूट नहीं रहे थे! "गंगा! देख, मैं प्रेम करता हूँ तुझसे, बहुत प्रेम! रह नहीं सकता तेरे बिना! ले ले गंगा! ले ले!" फिर से बोला वो!
और सच में! वो मोतियों की माला, गले में सजती गंगा के, तो चार चाँद लगाती! गोरे रंग पर, वो माला, मोतियों की! "गंगा! ले ले!" बोला वो! न ली गंगा ने!
और उस, भूदेव केलरजते हाथों से, माला गिर गयी! नीचे पानी में! पानी में गिरी, तो मोती गंदे हए, समाने लगे कीचड़ में! न जाने क्या हुआ! जैसे,अपने दिल के टुकड़े को उठाया उस गंगा ने! उठाया, और भीच लिया अपने हाथ में! "गंगा!! मेरी गंगा!" कह दिया उसने
और गंगा! अब किनारे कब तोड़ बैठे पता नहीं!! "गंगा, सरकारी मुलाज़िम हूँ कभी आना हुआ, कभी नहीं, लेकिन, तुझे दिल में बसाया है, मेरी ही रहना! हमेशा!" वो बोला!
पता नहीं! पता नहीं क्या क्या अनाप-शनाप बके जा रहा था वो! गंगा नहीं समझ पा रही
थी।
"आऊंगा! गंगा! आऊंगा मैं दुबारा! अब चलता हूँ! ये माला, पहन लेना! मेरी गंगा के लिए है!" बोला वो! घोडा पकड़ा! जीन जमाई!
और बैठ गया! "गंगा! फिर आऊंगा मैं!" बोला वो! लगाई एड़! और ये जा और वो जा! गंगा देख भी न सकी!
और जब देखा, सर उठाकर, तो वो, भूदेव नहीं था वहाँ!! हवा से बातें कर, जा चुका था! कुछ पल ऐसे ही बीते।
खामोशी के! मदहोशी के! "सच में, बहुत प्रेम करता है तुझसे!" बोली माला! गंगा की तन्द्रा टी!! "सैंकड़ों की माला दे गया तुझे! दिखा?" बोली माला! न दिखाई! कैसे दिखाती कैसे।। उसकी थी वो! कोई, लाया था उसके लिए हाट से! कैसे दिखाती!! हाथों में, भींच ली उसने वो माला! "चल! घर चल!" बोली माला! कठपुतली सी, वो गंगा! उस माला को लिए चल पड़ी घर! घर पहंची! कमरा किया बंद!
और हाथ खोला! वो माला!! उस भूदेव की माला!!
सफ़ेद, मोतियों की माला! लगा ली गले से! क्या सुंदर दिखे!! पहन ली! पहन ली उसने!! सच में, चार चाँद नहीं, आठ चाँद निखर उठे!! जैसे वो माला उसके लिए ही बनी हो! क्या खूब सजी!! तभी दस्तक हुई दरवाज़े पर!!! खोला दरवाज़ा! माला थी सामने! नज़र पड़ी माला पर "उफ़! जैसे तेरे लिए ही बनी हो गंगा!" बोली माला! गंगा! शर्मा गयी!! माला को हाथ लागए! छिपाए! लेकिन, न बन पड़े!!! माला, अपना नूर, उँगलियों के बीच से झलका दे! "तू कह क्यों नहीं देती?" बोली माला! "क्या?" बोली गंगा! "कि तू भी प्रेम करती है उस से?" माला बोली! "मैं कैसे कहूँ, होंठ सिल जाते हैं" बोली गंगा! "बोलना तो पड़ेगा" बोली माला! "कैसे कहूँ माला?" बोली गंगा! "मुंह से!" बोली माला! "मुझसे नहीं बनता!" बोली वो! "कहना तो पड़ेगा!" बोली माला! "कैसे कह दूँ?" बोली गंगा! "जैसे ये माला पहनी!" बोली वो! "मेरे बस में नहीं!" बोली वो। "तो तड़पती रह!" माला बोली! तड़पन! आह! तड़पन!! कैसे अजीब है ये तड़पन!!
न कहे कुछ बने! न सहे कुछ बने! "कल कह देना उस से!" बोली माला!
कल!
आएगा वो? कल आएगा?
कोशिश करूंगी! पक्का करूंगी। कह दिया गंगा ने!
और सारी रात, उस माला की अगन में, दहन होती रही वो गंगा!! अगला दिन! वो कुआं! वो नाल का कुआँ! वो रास्ता ! वो निगाहें! सब वही था!!
और फिर एक बिंदु! काला बिंदु!
आ रहा था कोई!! वही! वही भूदेव! खुरों की आवाज़ आई।
और आवाज़ बंद! कोई उतरा! "पानी, गंगा!" बोला वो! गंगा के हाथ, अपने आप उठ गए! ताज़ा, ठंडा पानी! पिया उसने! "गंगा! तूने माला पहनी, मैं तेरा ऋणी हुआ! मेरी गंगा!" बोला वो! मेरी गंगा। लहर उठ गयी! तेज लहर!!! "गंगा! आज मुझसे बात कर! पता नही, फिर कभी आऊं या नहीं!" बोला वो!
आऊं या नहीं? मतलब? "हाँ गंगा! कल, जाना है बाहर, मैं सेना का कारिंदा हूँ, नहीं पता, कब लौट्! आऊं या नहीं!" बोला वो! गंगा, काँप उठी! नहीं! ऐसा नहीं हो सकता!! कभी नहीं! "गंगा! कल जाना है, बहुत दूर, वापिस आया तो दो महीने लग जाएंगे! जिंदा लौटूं या मुर्दा, पता नहीं!" बोला वो! गंगा क्या कहे? जान पांवों में आ गयी उसके! "गंगा?" बोला वो! "हाँ?" बोली गंगा! शब्द कैसे निकले! पता नहीं! जुबां कैसे खुली! पता नहीं! "गंगा!! मेरी गंगा!!" बोला वो।
और पकड़ लिया उसका हाथ!! "गंगा! मुझे प्रेम करती है न तू?" पूछा उसने! "हाँ!" बोल गयी गंगा! न जाने, कहाँ से साहस आया! गंगा, बहने लगी थी अब! ठहराव, समाप्त हो चुका था! "मेरी गंगा!" बोला वो!
और भर लिया गंगा को अपने सीने में!! भरभरा गयी गंगा!!! शायद, अचेत हो जाती! लेकिन उस मज़बूत कद-काठी वाले ने, संभाल ली थी, वो, गंगा! आज भूदेव बहुत प्रसन्न था! उसकी गंगा ने स्वीकार लिया था उसका प्रेम! इसी खुशी में, अपने अंक में भींच लिया था गंगा को
उसने! गंगा, लरज गयी थी! शायद अचेत ही हो जाती, अगर संभालता नहीं वो भूदेव तो! उसने तब संभाल कर खड़ा किया गंगा को! माला सब देखती रही। आखिर में, गंगा ने स्वीकार लिया था उसका प्रेम! "आज मैं बहुत खुश हूँ गंगा!!" बोला वो! अभी भी न बोली कुछ!
"पानी पिला गंगा?" बोला वो! गंगा ने घड़ा उठाया और डाल उसके हाथों की ओख में! आठ-दस बड़े बड़े चूंट पानी के लिए उसने! फिर खड़ा हो गया, हाथ साफ़ किये, और पौछ भी लिए! "तूने माला नहीं पहनी?" पूछा उसने! गंगा का हाथ, अपने गले पर रेंगा! और एक ऊँगली फंसा निकाल ली माला बाहर, उस कपड़े से, जिस से कंधे ढके थे उसने अपने! "कितनी सुंदर लग रही है तू गंगा! सच्ची!" बोला वो! गंगा चुप! लेकिन सुने सबकुछ! "तेरे गले में कैसी खूबसूरत लग रही है! मुझे पता था, पता था कि ये माला तेरे लिए ही बनी है!" बोला भूदेव! गंगा, अपने कांपते हाथ से, उस माला को ही पकड़े रही! ऊँगली से उठाकर! "अब चलूँगा गंगा! दो दिन तक नहीं आऊंगा, तेरी याद आएगी बहुत" बोला भूदेव!
और गंगा, शांत सब सुने! "मेरा इंतज़ार करना गंगा! अब चलता हूँ" बोला वो! भूदेव ने, घोड़ा पकड़ा, उसकी लगाम और बैठ गया फिर उस पर, घोड़ा घुमाया और जाने से पहले, फिर रुका! "मेरी याद आएगीन गंगा?" पूछा उसने! गंगा कुछ न बोले! शांत खड़ी रहे! ज़मीन को ताकती! "बोल न गंगा! याद आएगी न?" बोला वो! "हाँ.." हल्की सी आवाज़ में बोली गंगा!
और भूदेव! जैसे झूम उठा!! खुश हुआ बहुत! जिसे जिसका प्रेम मिल जाए, उस से बड़ा खजाना और क्या! भूदेव ने अपने प्रेम का इज़हार तो कर ही दिया था! इंतज़ार था बस गंगा का! वो भी आज बह निकली थी!! । "आऊंगा मैं! दो दिन बाद! अब चलता हूँ गंगा!" बोला वो!
और एड़ लगा, दौड़ा दिया घोड़ा! और गंगा! उस भूदेव को देखे जाए! हाथ में माला पकड़े अपनी! अब माला आई उसके पास! "ये तूने अच्छा किया गंगा! अब कम से कम तड़पेगी तो नहीं!" बोली माला! न बोली कुछ। बस, उसी रास्ते को देखती रही!! "चल, घर चल अब" बोली माला! पानी भरा उन्होंने, और चल दीं घर की तरफ! घर पहुंची! तो सीधा अपने कमरे में! आज तो
देह से आग फूट रही थी! ठीक वहीं से, जहां पकड़ा था उस भूदेव ने उसे! भर लिया था सीने में अपने! चौड़े सीने में! गंगा के हाथ, वहीं, थिरक उठे! स्पर्श! ये स्पर्श था! उस भूदेव का स्पर्श! दो दिन बीत गए कैसे न कैसे करके! बिताने ही पड़े! और कोई चारा था नहीं। उसकी बुआ का लड़का उदयचंद आया ही हुआ था, लेकिन उसने बदला बदला सा पाया अपनी बहन को! कई बार पूछा, तो नहीं बताया गंगा ने! टाल जाती हर बार झूठी मुस्कान के साथ और हंसी के साथ उत्तर दिया करती उसको! तीसरे दिन! तीसरे दिन दोपहर बाद चलीं वे पानी लेने! गंगा के कदम तेज थे! प्रेम-अगन में ऐसा ही होता है! हर चीज़ में तेजी आ जाती है! चाहे याद हो, या फिर साँसें, हमेशा ही तेज रहती हैं! छोटा रास्ता भी लम्बा हो जाता है, लम्बे लम्बे पग धर, छोटा बनाया जाता है उसे! और यही तो गंगा कर रही थी! गंगा ने रास्ता देखा, आ रहा था कोई! वो झट से कँए पर चली गयी!
और कुछ ही देर बाद, वो घुड़सवार वहीं रुक गया! घोड़े से उतरा, अपने घोड़े को लाया, नांद तक, माला ने पानी भरना शुरू किया नांद में! और वो भूदेव, चला उस गंगा के पास! "पानी!" बोला भूदेव। गंगा ने पानी पिलाया उसको! उसने पानी पिया! और हाथ पोंछे! "कैसी है गंगा तू?" पूछा उसने! कुछ न बोली! "भली तो है न?" पूछा भूदेव ने! सर हिलाया उसने बस! और उस भूदेव के लिए, ये ही बहुत था! "तेरी याद आई बहुत, इन दो दिन गंगा! रहा ही नहीं गया! जी तो किया, भाग आऊं तेरे पास, एक बार निहार लूँ तुझे!" बोला वो! प्रेम में डूबा था आकंठ वो, भूदेव! फिर अपने बड़ी सी जेब से कुछ निकाला उसने! कपड़े में लिपटा था कुछ! "ले गंगा! तेरे लिए लाया शहर से!" बोला वो!
अब गंगा हाथ न लगाये! "ले न?" बोला वो! हिले भी नहीं! "गंगा?" बोला भूदेव!
नहीं हिली! "माला?" बोला वो!
.
"जी?" बोली वो! "ये ले, इसके लिए है, तेरे लिए भी लाऊंगा!" बोला भूदेव! माला ने लिया वो कपड़ा! कोई बड़ी सी डिबिया थी वो! "इसमें क्या है?" पूछा माला ने! "गंगा को देना, वो बता देगी!" वो बोला! "आप ही बता दो?" माला ने पूछा। "अच्छा! श्रृंगारदानी है! गंगा के लिए!" बोला वो! "अरे वाह!" बोली माला! "हाट गया था, शहर की, तो ले ली इसके लिए!" बोला वो! "अच्छा किया!" बोली माला! "हाँ, खूब सजेगी गंगा इसमें!" बोला वो! "हाँ, खूब सजेगी ये!" बोली माला! "आप रहते कहाँ हो?" पूछा माला ने! "मैं क्या करेगी जानकर?" पूछा हँसते हए उसने! "कहाँ से, बताओ तो?" बोली वो! "क्या करेगी तू?" बोला वो! हंसकर!
और गंगा! उन्हें सुने! चुपचाप! "अरे? बताओ तो?" बोली वो! "कितना बोलती है तू माला! इसे भी सीखा दे!" बोला वो! "सिखा दूंगी! पहले बताओ!" बोली माला! "मैं रहने वाला हिंडौन का हूँ, हिंडौन से करौली, धौलपुर, बयाना तक का सफर हो जाता है कई कई बार एक दिन में! काम ही ऐसा है! धौलपुर आता हूँ, तो इसके लिए! और ये है, मुझ से बात ही नहीं करती!" बोला भूदेव! "इतना सफर?" बोली माला! "हाँ, मज़बूरी है!" बोला वो! "यहां से घर कब पहंचोगे?" पूछा माला ने! "रात तक!" बोला वो! "और सुबह?" पूछा उसने "अलस्सुबह ही निकलना होता है!" बोला वो! "इतना काम?" पूछा माला ने!
"हाँ, माला!" बोला वो! "गंगा?" बोली माला!
जब नहीं दिया जवाब, तो गयी उसके पास! "तु बात क्यों नहीं करती?" पूछा माला ने! नहीं की! कोई उत्तर नहीं! "पता नहीं, क्या बात है!!" बोला वो! "शर्म आती है इसे!" बोली माला! "मुझसे कैसे शर्म?" पूछा भूदेव ने! "अब मैं क्या जानूँ?" बोली माला! "इसको बता न माला, कि बात करे मुझसे!" बोला वो! "अब आप ही मनाओ इसको!" बोली माला, "मान जाओ गंगा!!" बोला भूदेव! "ऐसे नहीं!" बोली माला! "फिर?" पूछा उसने! "हाथ जोड़कर!" बोला वो! "अच्छा! अच्छा!" बोला वो!
आगे आया, थोड़ा सामने! हाथ जोड़े! "मान जाओ गंगा!" बोला वो!
