मनों बोझ जो मेरे ऊपर रखा था इतने दिनों से!
अब मैंने अपनी ज़ेब से कुछ सामान निकाला! उसको सजाया और फिर मुक्ति-मंत्र से अभिमंत्रित कर दिया!
एक रेखा अभिमंत्रित करके खींच दी, कुछ ऐसे जिसे वो लांघ सके!
वो मुझे एकटक देखते रही!
बेचारी!
कुछ समझ ना सकी!
समझे कैसे?
साबका नहीं पड़ा, नैसर्गिक गंध की आदी नहीं थी!
और फिर मुझसे पहले कोई मिला भी नहीं था उसको!
कोई क़ैद करना चाहता तो बड़ी सरलता से क़ैद कर सकता था!
"कैला?" मैंने पूछा,
"तैयार हो उनसे मिलने को?" मैंने कहा,
"हाँ, हाँ!" वो बोली,
"वो वहाँ देखो, वहाँ मैंने ढूंढ लिया है बसौटी का कुआँ? वहाँ बहुत लोग हैं! उन्ही में से तुम ढूंढ लेना बरहु और अपने बालकों को!" मैंने कहा,
उसने उचक कर देखा!
और आव-देखा ना ताव!
दौड़ पड़ी!
अभिमंत्रित रेखा की जद में आयी और झम्म लोप हुई!
मुक्त को गयी कैला!
मैंने झूठ नहीं बोला था!
उसकी आखिरी इच्छा पूर्ण की थी!
वो मिलना चाहती थी बरहु और अपने बालकों से! जिन्हे बिछड़े हुए भी डेढ़ सौ वर्ष हो चले थे!
वो उनसे मिली या नहीं?
पता नहीं!
क्या बरहु और उसके बालक भी उसकी प्रतीक्षा में थे?
पता नहीं!
पर दिल कहता है, होंगे!
जब वो अकेली उस निर्जन स्थान में भटक सकती है तो वे भी प्रतीक्षारत होंगे!
हे अपरमपार!
सुन लेना!
कम से कम ये तो सुन ही लेना!
मैं बैठ गया नीचे!
रहा गए वहाँ वो हंसा! हंसा के टुकड़े! निर्जन स्थान और बियाबान आज सचमुच में निर्जन और बियाबान हो गया!
कैला मुक्त हो गयी!
कितना असीम सुख!
कितना बड़ा सागर मैंने पार कर लिया था!
करुणा की नैय्या और उसके विश्वास के चप्पुओं से!
मैं बहुत देर वहाँ बैठा रहा!
सांझ ढले सूर्य महाराज ने बताया कि उनका दैनिक कर्त्तव्य अब पूर्ण हुआ, जैसे मुझे भी जतलाया!
मेरा भी पूर्ण हुआ!
मैं उठा, पीछे देखा!
टीला देखा,
और फिर रेखा देखी!
अपने दोनों हाथों से वो रेखा मैंने मिटा दी!
और चल पड़ा वापिस!
मन भारी नहीं था!
बहुत भारी था!
कर्तव्यपरायणता से!
मैं आ गया वापिस!
सभी को बता दिया!
सभी खुश!
पर मुझसे अधिक कौन भला!
दो रोज के बाद हम वापिस दिल्ली आ आगये, कैला की याद लिए! कैला हमेशा के लिए मेरे दिल में जगह बना गयी!
एक मासूम, अभागन, भटकती हुई आत्मा! जिसका मुक्ति-कर्म मेरे हाथों हुआ! एक प्रेतात्मा!
कैला!
मुझे आज भी याद है!
हमेशा रहेगी
----------------------------------साधुवाद---------------------------------
