कपडे झाड़ते हुए!
"मार डालते" उसने धीरे से फुसफुसाया!
मार डालते?
कौन?
यहाँ तो कोई नहीं?
"कौन मार डालता?" मैंने कहा,
"फौजदार" उसने कहा,
अब! अब मैं समझा! इंसानी दिमाग ने ताना-बाना जोड़ना शुरू किया अब!
"कौन फौजदार?" मैंने पूछा,
"आसिफ" उसने कहा,
"कौन है ये?" मैंने पूछा,
"फौजदार" उसने कहा,
आसिफ!
फौजदार!
अब ये आसिफ कौन था?
जो फौजदार था कभी!
कहाँ?
झाँसी में?
पता करना होगा!
यही अटकी है ये कैला!
"कैला, तुम यहीं रहती हो?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"मैं कल आऊँ तो कहाँ मिलोगी?" मैंने पूछा,
उसने इशारा किया, चारों तरफ!
समझ गया!
वो भटक रही थी!
किसी की खोज में!
अनजान!
हकीकत से अनजान!
एक अनजान रूह!
मुझे जैसे मोह हो गया उस कैला से!
तरस आ गया, बेपनाह!
मेरी जान जो बचायी थी उसने!
फौजदार आसिफ से!
मैं ऋणी हो गया था मित्रगण!
मैंने नहीं देखा, लेकिन उस रूह ने अवश्य देखा, मुझे बचाया!
मैं कर्ज़दार हो गया!
और अब! फ़र्ज़ बनता था मेरा कैला को मुक्त कराने का! इस से पहले कि बात कहीं और पहुंचे और कोई सिरफिरा उसको तंग करके क़ैद करले!
हमेशा के लिए!
अपनी खोज अपने ज़हन में बसाये!
क़ैद, एक तड़प लिए!
फिर.....
कुछ पल ऐसे ही बीते!
मैं बंधा हुआ था उसके प्रेत-मोह में!
प्रेत-मंडल में ग्रस्त!
वो आगे चली, बिना मुझे देखे,
मैं वही एकटक उसको देखता रहा,
वो बार बार झुकती, कुछ उठाती!
हाँ! हंसा! यही उठाती जाती!
वो आगे चलती चली गयी, कार्ब पचास फीट से भी आगे, एक मिट्टी का टीला सा पड़ा. वो उस पर चढ़ी और चलती चली गयी, नीचे जाते हुए उसके शरीर का परिमाप कम होता चला गया, जब वो एकदम से नदारद हुई तो जैसे मैं तन्द्रा से जागा, भाग उस टीले की तरफ! चढ़ा और नीचे देखा, केवल जंगल के अलावा और कुछ नहीं! वो चली गयी थी!
मैं काफी देर तक वहीँ खड़ा रहा, उसको ढूँढता रहा, लेकिन फिर वो नहीं दिखी!
मैं अब लौटा!
वापिस!
उन्ही स्थानों के करीब से जहां जहां वो रुकी थी,
हंसा उठाने के लिए!
अब मैं वापिस चला,
एक बार फिर से पीछे देखा,
कोई नहीं था,
मैं अब चलता चला गया,
मन भरी था,
सच में!
उसके छूने के एहसास को मैं महसूस करता रहा, अपने कंधे पर, अपने माथे पर!
मैं वापिस आ गया!
वे दोनों और शर्मा जी बेसब्री से मेरा इंतज़ार कर रहे थे,
उन दोनों का मुंह खुला था, जैसे कि कोई हाथ लगा दे तो बिन मुड़े नीचे ही गिर जाएँ!
"आइये शर्मा जी" मैंने कहा,
वे मेरे साथ चल पड़े,
हम अपने कमरे में पहुंचे,
मैं अपनी पुश्त पर लेट गया, हाथ दोनों सर के नीचे लगाया!
"कुछ पता चला?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"क्या?" उन्होंने उत्सुकता से पूछा,
मैं चुप था, उसी के ख्यालों में खोया हुआ!
"गुरु जी? क्या?" उन्होंने पूछा, रहा न गया!
मैं चुप!
"कौन है वो?" उन्होंने पूछा,
"एक अभागी" मैंने कहा,
"अभागी? कैसे?" उन्होंने पूछा,
उत्सुकता बस प्रथम पुरूस्कार जीतने ही वाली थी उनकी!
"वो अपने परिवार से बिछड़ गयी है, और उसके पति का नाम है बरहु, अपने दो बालकों के साथ, कहाँ है? कहाँ गया? क्या हुआ? कुछ पता नहीं, न मुझे और न उस कैला को" मैंने कहा,
"ओह! इस का मतलब भटक रही है" वे बोले,
"हाँ, कब से? ये भी नहीं पता" मैंने कहा,
"ओह! कोई पुराना मामला है" वे बोले,
"हाँ फ़ौज और एक फौजदार आसिफ का, अब ये आसिफ कौन है? ये भी पता नहीं, ये वाक़ई में कोई पुराना मामला है" मैंने कहा,
"आसिफ?" उन्होंने कहा,
"हाँ, यहाँ गुरु जी, दो रियासतें थीं, एक झाँसी और एक ओरछा, अब ये आसिफ कौन है और किस खेमे में है ये बताना बहुत मुश्किल है, डेढ़ सौ वर्षों का अंतर है" वे बोले,
"हाँ, या तो झाँसी या फिर ओरछा" मैंने कहा,
"अब?" वे बोले,
"अब पता करना होगा, कि आखिर बरहु के साथ क्या हुआ? उसके बालक कहाँ गए? और ये कैला? ये अलग कैसे हुई उन से?" मैंने पूछा,
"बहुत उलझा हुआ मामला है ये" वे बोले,
"हाँ बहुत पेंच हैं इसमें" मैंने कहा,
"गुरु जी, दो विकल्प हैं, या तो इस कैला को ऐसे ही भटकने दो, ये किसी को नुकसान नहीं पहुंचा रही है, या इस बारे में जुट जाओ, अब चाहे जो हो सो हो" वे बोले,
मैं भांप गया उनकी मंशा!
दूसरा विकल्प उन्होंने मेरे ऊपर छोड़ा था!
"दूसरा विकल्प ही शेष है" मैंने कहा,
"तो फिर देर कैसी?'' उन्होंने पूछा,
"ठीक है, इसके लिए हमको दतिया जाना होगा" मैंने कहा,
"दतिया, उस मलंग बाबा के पास?" वे ताड़ गए और बोले,
"हाँ, उसका स्थान है वहाँ, मैं मालूमात कर सकता हूँ वहाँ" मैंने कहा,
"ठीक है, सिंह साहब भी आने वाले होंगे, उनसे बात करते हैं और चलते हैं कल दतिया" वे बोले,
"ये उचित रहेगा" वे बोले,
और अब!
इंतज़ार!
सिंह साहब का इंतज़ार!
करीब शाम से पहले सिंह साहब आ गए! वे शहर गए हुए थे किसी काम से, और अब आकर सीधा हमारे पास ही आये, शर्मा जी ने सारी बात बता दी, अचंभित हो गए वे भी, अब काम की बात पर आ गए वो और उन्होंने कल का कार्यक्रम बता दिया दतिया जाने का, उन्होंने हामी भर ली,
और इस तरह हम अगले दिन सुबह ही सुबह रवाना हो गए दतिया से!
दतिया पहुंचे और मैंने अपने जानकार मलंग नाथ से बात की, मलंग नाथ खुश हो गया हमको देख कर, वो पीतांबरा के वास वाले ही मार्ग पर एक जगह स्थान बना के रहता था, उस से जब मैंने प्रबंध करने को पूछा तो उस ने सहर्ष स्वीकार कर लिया! अब मैंने सिंह साहब को वापिस जाने और कल सुबह आने के लिए कहा, वे कहने लगे कि वो भी ठहर जायेंगे, लेकिन कोई औचित्य न था उनका, अतः मैंने उनको भेज दिया, अब वो कल सुबह आने वाले थे यहाँ हमको लेने!
"और सुनाओ मलंग नाथ" मैंने पूछा,
"बस ठीक ठीक" उसने कहा,
"कमल नाथ कहा हैं?" मैंने पूछा,
"वो इलाहबाद गया है, डेरे पर" उसने बताया,
मेरा जानकार था कमल नाथ,
"आज स्थान दिला दो तो मैं एक काम करूँ फिर" मैंने कहा,
"मैं ले जाऊँगा, चिंता न करो" उसने मुझे आश्वासन दिया,
कुछ चिंता सी मिटी!
अभी समय था, सोचा चलो कुछ घूमा ही जाये, बाज़ार चला जाए, पीतांबरा ही चलें!
हम निकल पड़े!
बाज़ार पहुंचे,
घूमते रहे, थोडा बहुत खाया-पिया वहाँ,
एक दुकान के पास से गुजर रहे थे तो मुझे कुछ उन्ही जैसे सफ़ेद छल्ले नज़र आये, मैं रुक गया, उस से पूछा, एक वृद्ध स्त्री बैठी थी वहाँ, मैंने पूछा तो उसने उसको हंसा कहा, मैंने चौंक पड़ा सुन कर!
हंसा!
मैंने हंसा उठवाया!
हाथ में लिया!
ये गले में पहने जाने वाला एक हंसली की तरह का माल था!
अब समझ गया!
अक्सर आदिवासी औरतें और पुराने समय की स्त्रियां पहना करती थीं ऐसा हंसा और हंसुली!
समझ गया मैं!
क्या है हंसा!
उस जले हुए हंसा का मतलब भी समझ गया!
हम वापिस हुए, मलंग नाथ के स्थान के लिए, अब थोड़ा आराम किया, नींद लग गयी हमारी, हम सो गए!
और जब आँख खुली तो छह बजे थे!
मलंग नाथ ने जगाया था हमको,
"चलो" वो बोला,
"चलिए" मैंने कहा,
अब हम उसके साथ चले, वो हमको पैदल पैदल लेता चला गया, रास्ते से सामग्री आदि खरीद ली,ये एक गाँव सा था, उसी की बाहर की सीमा थी, खुला स्थान था और यहीं श्मशान आदि का काम होता था!
न आदमी और न आदमी की जात ही वहाँ!
पथरीला इलाका!
"कोई रोक-टोक?" मैंने पूछा,
"नहीं, कोई नहीं" वो बोला,
"ठीक है" मैंने कहा,
हम वहीँ बैठ गए, बातें करते रहे,
किसी तरह से समय की लगाम खींची और बजे अब आठ!
मैं तैयार हुआ!
तंत्र-श्रृंगार कर मैं उस स्थान में दाखिल हुआ!
मलंग नाथ और शर्मा जी बाहर ही थे, करीब चार सौ फीट दूर!
मैं वहाँ बैठ गया,
ध्यान केंद्रित किया,
सामग्री आदि सजा दी!
और अब कारण-पिशाचिनी का आह्वान किया!
आधा-घंटा बीता और वो प्रकट हुई!
और अब हुए आरम्भ मेरे प्रश्न और मिलने शुरू हुए उनके जवाब!
एक एक प्रश्न और एक एक जवाब मिलते चले गए!
आसिफ फौजदार!
और बसौटी का कुआँ!
सब पता चल गया!
मैं सन्न रहा गया!
सन्न!
कि कैला, बेचारी, अभागन कितने बरसों से खाक़ छान रही है वहाँ की! अपने परिवार को ढूंढने के लिए!
मुझे मेरे प्रश्नों का उत्तर मिल गया था, जो जानना था जान गया था! सुकून मिला था, एक ठंडा सुकून!
अब मैं उठा वहाँ से,
पहुंचा उन दोनों के पास!
"फारिग?" मलंग नाथ ने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"चलें?" वो बोला,
"हाँ" मैंने कहा,
हम चल पड़े पैदल पैदल!
मेरे मन में अभी भी कैला ही छाये हुए थी,
एक अभागन!
ऐसा हाल मेरा कि बस रोते नहीं बन रहा था!
सोचो न?
एक औघड़ का क्या काम रोना?
अरे!
वो तो एक प्रेत है!
पकड़ो उसे और काम लो, गुलाम बनाओ!
एक गिनती और बढ़ाओ झोले में!
क्या आसिफ और क्या बसौटी वाला कुआँ!
पकड़ो और ले चलो!
रोये तो रोने दो!
न बरहु रहा न उसकी औलादें!
मुझे क्या?
जितना चाहो इस्तेमाल करो!
क्यों?
लेकिन...............
नहीं, क्या पता मैं भी प्रेत योनि में धकेला जाऊं?
फिर?
फिर क्या होगा?
बस...
बस!
इसीलिए रोते नहीं बन रहा था!
नहीं!
कैला को मुक्त करना होगा!
हर हाल में!
इन्ही ख्यालों में हम राते बेटे पहुँच गए मलंग नाथ के अड्डे पर!
अब वहाँ मदिरा और भोजन तैयार था!
सो शुरू हो गए!
फारिग हुए!
अब नशा किसे?
नशा तो कैला का छाया था!
शर्मा जी ने पूछा,"पता चल गया?"
"हाँ शर्मा जी" मैंने कहा,
"मुझे भी बताइये?" उत्कंठा!
प्रबल उत्कंठा!
बताता हूँ!
"शर्मा जी, यहाँ हमने दो रियासत की बात कही थी, लेकिन यहाँ तीन रियासत थीं, झाँसी, ओरछा और दतिया! सन अठारह सौ सत्तावन, एक सुबह, बसंत लगा ही था, ओरछा और दतिया की रियासतों की मिली जुली फ़ौज ने झाँसी पर हमला किया, ये कोई सीमा-विवाद था! उस समय ओरछा में राजा हमीर सिंह राज कर रहे थे!" मैंने कहा,
रुक गया, खांसी का झटका सा लगा था मुझे कहते कहते!
"फिर?" शर्मा जी ने पूछा,
"आसिफ फौजदार! आसिफ था ओरछा सेना की इस टुकड़ी का फौजदार! जहाँ सिंह साहब रहते हैं और जो प्राचीर हमने देखा था, वहीँ तैनात थी एक पहरेदार टुकड़ी झाँसी की, वो इलाका झाँसी
रियासत का था और इसी इलाके को लेकर सीमा विवाद था! इस टुकड़ी को जब खबर मिली तब कुछ सिपाही दौड़े झाँसी को खबर करने के लिए, और जो शेष रह गए वो लगे अब छिपने-छिपाने! उस स्थान पर जहाँ वो प्राचीर थी, वहाँ कुछ सौ मीटर की दूरी पर था एक बसौट कुआँ, जिसे बसौटी वाला कुआँ कहा जाता था, अफ़सोस! उस रोज बरहु से मिलने आयी थी कैला अपने बालकों के साथ बरहु से मिलने! जब अफरा-तफरी मची तब बरहु एक घोड़े पर ले भागा अपने बालकों को साथ ले वहाँ से, पीछे रह गयी कैला और कुछ और औरतें जो मिलने आयी थीं अपने अपने आदमियों से, जो तैनात थे वहाँ उस समय, सभी भाग छूटे! कोई कहाँ और कोई कहाँ! लेकिन! कोई नहीं बच सका, सैनकों ने बरहु को और दूसरे साथियों को घेर कर हलाक़ कर डाला, कुँए में दाल दिया गया मार कर, बालकों समेत! कैला पकड़ी गयी और उन औरतों को भी हलाक़ कर दिया गया, कुछ खुद कूद-काद गयीं, ऐसी ही थी कैला, अभागी कैला, सभी छूट गए, लेकिन अटकी रह गयी कैला! और आज तक अटकी है, कुआँ कहाँ है, मुझे नहीं पता, हाँ, इतना ज़रूर है वो बसौट का कुआँ आज भी वहीँ है कहीं, गहन जंगल में, ढका हुआ, कालकवलित हुआ हुआ! कहाँ है, नहीं पता!" मैंने कहा,
"ओह! बहुत दुःख भरी कहानी है, तो वो आज भी ढूंढ रही है बरहु और अपने बालकों को, बसत वाला कुआँ बाहर रहा होगा, इसीलिए वहाँ से आने जाने का रास्ता होगा, कुआ उसे मिलता तो पता चलता उसे" वे बोले,
"हाँ, इसीलिए वो बसौटी कुआँ पूछती है उस से जो उसको मिलता है" मैंने बताया,
"गुरु जी, इसे मुक्त कराइये, मिलवा दीजिये इसको इसके परिवार से, या कम से कम ये यहाँ से मुक्त हो, नहीं तो न जाने कब तक ये ऐसे ही इस कुँए के बारे में जानने के लिए भटकती रहेगी" वे बोले,
"अवश्य शर्मा जी, अब यही ध्येय है मेरा, ये मुक्त हो यहाँ से!" मैंने कहा,
रात गहरा चुकी थी, जो बची-खुची थी, नींद में काटनी थी, कल मिलना भी था उस अभागन से!
सो, सो गए, कुछ घंटे ही सही!
सुबह हुई, मैं नहा धोकर तैयार हुआ एक नए जोश के साथ, शर्मा जी भी, मलंग नाथ के पास बैठा और उस से भी विदा ली अब! उसको धन्यवाद कहा, दस बजे सिंह साहब आने वाले थे, इसीलिए हम चल पड़े पीतांबरा पीठ के पास! वहाँ पहुंचे तो सिंह साहब वहीँ मिले,
नमस्कार हुई, हम गाड़ी में बैठे! और चल पड़े वापिस वहीँ, उसी ज़मीन के लिए जहाँ कैला भटक रही है!
हम घर पहुंचे,
बैठे!
मैं खोया हुआ था,
नहीं खोया हुआ नहीं कहूंगा,
बल्कि,
लालायित था कैला से मिलने के लिए!
हाँ, ये शब्द ठीक हैं!
खाना खा लिया,
चाय भी पी ली,
लेकिन ठौर कहाँ!
मेरे कदम बार बार भागें बाहर के लिए!
अब मैंने सारी बात बता दी सिंह साहब को, उनको विस्मय हुआ! और उन्होंने मेरे धन्यवाद भी किया कि अब चलो उस भटकती कैला को मुक्ति मिलेगी, और इसमें सिंह साहब का बहुत बड़ा किरदार था!
दिन करीब ३ बजे मैं चला अब बाहर की तरफ, शर्मा जी को वहीँ छोड़ा!
और खेतों से होता हुआ उस पगडण्डी पर बढ़ता चला गया!
ढूंढने!
कैला को!
पगडण्डी पर चलता जा रहा था मैं! उस प्राचीरखण्ड के पास, स्फूर्ति और जोश भरा था मुझमे! पर अफ़सोस भी था, उसके परिवार के बारे में जानकर, लेकिन ये तो नियति थी और नियति के अनुसार ही हुआ, यदि मैं मुक्त करा सकता तो अवश्य ही मानसिक शान्ति प्राप्त कर सकूंगा! यही था ध्येय! मैं तेज तेज चल रहा था, पत्थर मेरे आने की गवाही दे रहे थे, मैं आकाश को और क्षितिज को देखते हुए आगे बढ़ता जा रहा था! और उस प्राचीरखण्ड तक पहुंचा! आसपास देखा, कोई नहीं था! मैं आगे बढ़ा, जहां सफ़ेद हंसा मिला था, वहाँ भी कोई नहीं, फिर और आगे चला, जहां कला जला हुआ हंसा मिलता, सम्भवतः यहाँ उन सबकी अंत्येष्टि हुई होगी, सभी की, मरने के बाद कोई किसी का शत्रु नहीं होता! यही हुआ होगा!
मैं और आगे चल, यहाँ भी कोई नहीं!
फिर टीले तक!
वहाँ भी कोई नहीं!
अब कुछ करना था!
मैंने अब कलुष-मंत्र पढ़ा!
मंत्र जागृत हुआ और मैंने नेत्र पोषित किये अपने! नेत्र खोले, दृश्य स्पष्ट हुआ! वहाँ कोई नहीं था! बस भूमि में गड़े पत्थर और शिलाएं दिखायी दे रही थीं, ध्वस्त प्राचीर! और कुछ नहीं, कुछ पुराने-धुराने से शहतीर आदि!
अन्य कुछ भी नहीं!
अब मैंने वहाँ आवाज़ दी, "कैला?"
कोई नहीं बस हवा की आवाज़!
"कैला?" मैंने फिर से आवाज़ दी!
कोई नहीं!
कई बार आवाज़ दी, लेकिन कोई नहीं आया वहाँ, कैला की तो छोड़िये कोई भी नहीं!
अब मैं वहाँ बैठ गया एक जगह, एक पत्थर के पास!
परेशान तो नहीं कहा जा सकता लेकिन चिंतित था, समय गुजरे जा रहा था, अब तक साढ़े पांच हो चुके थे,
प्रत्यक्ष-मंत्र मैं लड़ा नहीं सकता था, न जाने कौन कौन बला वहाँ आ धमके! या कोई अन्य कैला?
लेकिन जिस कैला को मैं मिलना चाहता था वो नहीं आयी थी! न जाने कहाँ भटक रही थी, मैं ज़मीन पर नज़रें टिकाये बैठा रहा बहुत देर तक!
अब मैं उठ खड़ा हुआ, जैसे ही उठा सामने टीले के पास मुझे वो खड़े मिली! मुझे देखते हुए! मैं खुश हो गया! मैं भागा उसकी तरफ!
"बसौटी का कुआँ मिला?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
वो पीछे पलट गयी!
"कैला?" मैंने पुकारा,
वो रुक गयी!
"मुझे पता है बरहु कहाँ है!" मैंने कहा,
जैसे उसको विश्वास नहीं हुआ!
"कहाँ हैं वो, मुझे बताओ, मेरे बालक!" वो बेचारी बेचैन हो गयी! एक प्रेत जो एक झटके में मेरी सारी हड्डियां तोड़ कर पुलिंदा बना देता, गिड़गिड़ा रहा था!
कैसी तृष्णा!
कैसी आकांक्षा!
कैसा प्रेम!
कैसी प्रतीक्षा!
कैसा लम्बा इंतज़ार!
यहीं हैं वो कैला!" मैंने कहा,
उसने चारों और उचक उचक के देखा!
बेचारी!
"कहाँ है बरहु?" उसने मेरा हाथ पकड़ के पूछा!
"यहीं है" मैंने कहा,
"मुझे बताओ, ले जाओ वहाँ" उसने कहा,
उफ़! उसके वे शब्द कलेजा चीर गए!
क्या बताऊँ?
क्या छिपाऊँ?
क्या खोल दूँ?
और
क्या बाँध दूँ!
बरहु कहीं नहीं है, न ही उसके बालक!
कैसे समझाऊं?
परन्तु,
समझाना तो है ही!
बताना भी है!
तो मैंने अपने आपको संयत किया!
शब्द टटोले और बोलने के लिए ग्रीवा तक लाया,
और.........
होंठ सूख चुके थे! जिव्हा भी गीली नहीं थी! शब्द जो मिले थे उनमे करुणा-रस डालना था, अतः थोडा सा समय लिया मैंने!
"कैला? तुमको बरहु से मिलना है ना?" मैंने पूछा,
अब तो रो सी पड़ी कैला!
"हाँ! हाँ!" वो बोली,
"कैला वो बहुत दूर हैं यहाँ से" मैंने कहा,
"कहाँ? मैं चली जाउंगी उनसे मिलने" उसने कहा,
"वहाँ जाना चाहती हो?" मैंने पूछा,
"हाँ! हाँ!" अब खुश हुई वो, जैसे मैंने छिपा के रखा हो बरहु को!
"लेकिन जैसा मैं कहूंगा करना होगा तुमको?" मैंने अड़ंगा लगाया,
वो विवश बेचारी!
हाँ कह बैठी!
बोझ उतर गया मेरे कंधे से!
