"यही है जी वो रास्ता जहां से वो आती जाती है, रवि ने बताया,
रास्ता बेहद संकरा और झाड़ियों से भरा था, बिन नुचे-खुचे तो कोई भी न तो जा सकता था और न आ सकता था!
"कब से ऐसा हो रहा है?" मैंने पूछा,
"ख़राब महीना होने को आया" वो बोला,
मैंने आगे जाकर देखा, ये एक छोटी सी भूली-बिसरी पगडण्डी सी थी, बरसों से कोई नहीं आ जा रहा था उस पर!
"क्या पहना होता है उसने?" मैंने पूछा,
"जी काला कपडा होता है, लपेटा हुआ" उसने बताया,
"लहंगा या कोई धोती आदि?" मैंने पूछा,
"जी ये नहीं मालूम, वो आती काले लिबास में ही है" उसने बताया,
"कोई साथ होता है उसके?" मैंने पूछा,
"नहीं जी" वो बोला,
"सबसे पहले कब मिली?" मैंने पूछा,
"जी मैं यहाँ काम कर रहा था एक दिन तो अचानक से आ गयी, मैंने सोचा जंगल में से कोई औरत आयी है, उसने चेहरा भी ढका हुआ था" उसने बताया,
"तुमने कुछ पूछा नहीं?" मैंने पूछा,
"जी पूछा" उसने कहा,
"क्या पूछा?" मैंने पूछा,
"जी मैंने पूछा, कौन है तू? कहाँ से आयी है, क्या काम है?" उसने कहा,
"तो क्या बोली वो?" मैंने पूछा,
"बोली, नाम है कैला और वो अपनी दो बालकों और अपने आदमी को ढूंढ रही है, अभी तो यहीं थे, अब पता नहीं कहाँ हैं?" उसने कहा,
"अच्छा! फिर?" मैंने पूछा,
"अब मैंने वहाँ कोई बालक या आदमी नहीं देखा था तो मैंने उसको बताया कि यहाँ कोई नहीं आया, शायद जंगल में गए होंगे" वो बोला,
"अच्छा, फिर, क्या बोली वो?" मैंने पूछा,
"जंगल देख लिया, यहाँ एक कुआँ है बसौटी का कुआँ, वो कहाँ है?, उसने कहा" बोला वो,
"अब बसौटी का कुँए का तो नाम भी नहीं सुना था मैंने, तो मना कर दिया मैंने" बताया उसने,
"फिर?" मैंने पूछा,
"जी वो मायूस सी वापिस चली, और इसी रास्ते से वापिस चली गयी और मुझे बुखार सा चढ़ गया उसको जाते देख!" घबरा के बोला वो!
"कैसे?" मैंने पूछा,
"जब वो गयी इस पगडण्डी से तो कोई भी झाडी आदि उस से छुई ही नहीं, कोई पत्ता या डंडी नहीं हिली, वो हवा जैसी, परछाईं जैसे चलती चली गयी, और मैं भागा अब वहाँ से सारा काम छोड़ के बाबू जी के पास!" वो बोला,
बाबू जी, अर्थात राम सिंह जी, वो वहीँ खड़े थे!
"आपने देखा उसको?" मैंने सिंह साहब से पूछा अब!
"जी" वे बोले,
"कब?' मैंने पूछा,
"उस दिन भी और परसों भी" वे बोले,
"उस दिन कैसे देखा?" मैंने पूछा,
"इसने आ कर बताया मुझे, मुझे विश्वास नहीं हु , ये मुझे वहाँ ले गया, और सच में वहाँ इसके अलावा एक औरत के पाँव के निशान थे, यानि ये सच कह रहा था, कोई न कोई तो था ही, मैंने जाकर झाड़ी देखी, नीचे झुक कर देखा तो सामने एक पेड़ के नीचे कोई लेटा हुआ था, गौर से देखा
तो वही औरत थी, मैंने तभी रवि को बुलाया और जब उस से पूछना चाहा तो वो वहाँ नहीं थी!" वे बोले,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"इस से पहले और किसी ने देखा था?" मैंने पोछा,
"नहीं जी, किसी ने भी नहीं, न ही मेरे परिवार के किसी सदस्य ने ही, लेकिन एक महीने में सभी ने देख लिया है उसको भटकते हुए" वे बोले,
"और किसी ने देखा?" मैंने कहा,
इस से पहले सिंह साहब कुछ कहते एक आदमी ने कहा, "जी मैंने भी देखा है, मेरी भी बात हुई थी उस से" वो बोला,
"ये मेरा नौकर है श्याम सिंह" सिंह साहब ने बताया,
"क्या बात हुई थी श्याम?" मैंने पूछा,
"उसने मुझसे पूछा कि बसौटी का कुआँ कहाँ है?" वो बोला,
"फिर?" मैंने पूछा,
"मैं समझ गया कि ये भूत है, रवि ने बताया था, मैं भाग छूटा वहाँ से, वो खड़ी खड़ी हंसती रही, फिर रोने लगी, मैंने पीछे नहीं देखा और सीधा यहाँ चला आया, और बाबू जी को सब बता दिया" वो बोला,
बड़ा ही रहस्य था वहाँ!
बड़ा रहस्य उस से भी वो बसौटी का कुआँ!
यहाँ से थी कहानी की शुरूआत!
मुझे इस बारे में सूचना दिल्ली में मिली थी, मेरे एक जानकार सुरेश ने बताया था और विनती की थी कि मैं एक बार आकर उनके साले राम सिंह की समस्या सुन लूँ और निदान करूँ, मेरी इस बाबत राम सिंह से बात हुई, जब उन्होंने बताया तो मुझे भी जिज्ञासा और हैरत हुई! मैंने उनको एक दिन बता दिया जिस दिन मैं झाँसी आने वाला था, शर्मा जी के साथ, राम सिंह का निवास स्थान जिला झाँसी में पड़ता था, स्टेशन से कोई पैंतीस किलोमीटर दूर, वो हमको लेने आने वाले थे स्टेशन पर!
और मित्रगण, उस नियत दिन पर हम पहुँच गए झाँसी, और राम सिंह स्व्यं आये हमको लेने, हम गाड़ी बैठे और बातें करते करते पहुँच गए उनके निवास-स्थान!
हम वहाँ कोई ग्यारह बजे पहुंचे थे, थोडा बहुत आराम किया, और जी! अब बात ऐसी हो तो आराम कहाँ! थोडा खाया-पिया और फिर बैठ गए, अब विस्तार से बताया मुझे राम सिंह ने! रवि और श्याम भी वहाँ थे! उन्होंने भी मुझे जो कुछ उन्होंने देखा था, सब बताया था!
अब तो जैसे शूल सा चुभने लगा जिज्ञासा का मेरे मन में!
कौन है ये औरत?
कहाँ से आयी है?
क्या चाहती है?
ऐसे ऐसे प्रश्न!
और फिर चार किरदार हैं, दो बालक और एक आदमी! वे कौन हैं और कहाँ है?
और हाँ!
वो कुआँ!
बसौटी कुआँ!
वो कहाँ है? क्या रहस्य है?
ओह!
इतना बोझ प्रश्नों का!
दम घुटने लगा है बोझ से!
"सिंह साहब मुझे जगह दिखाइये!" मैंने जल्दी से कहा,
"चलिए!" वे बोले,
वे चले, अपने नौकरों के साथ!
ये खाली सा मैदान था, कुछ खेत बना लिए गए थे, ये सारी ज़मीन सिंह साहब की थी, सिंह साहब ने कुछ ज़मीन पर सब्जी-बाड़ी लगा राखी थी, पीछे घना से और बड़ा सा जंगली क्षेत्र था, हाँ बाड़ तो थी, लेकिन कोई भी उस बाड़ में से अ जा सकता था! एक जगह से कुछ टूटी हुई थी बाड़, एक खम्बा टूट गया था, यही थी वो पगडण्डी!
इस से पहले का भाग आप पढ़ चुके हैं,
अब आगे--
क्या आपने सुना है बसौटी का कुंआ?" मैंने पूछा सिंह साहब से,
"जी मुझे यहाँ दस साल हुए आये हुए, मैंने न तो कभी सुना और न ही किसी और के मुंह से ये शब्द निकला" वे बोले,
गुत्थी उलझी हुई थी बहुत!
"यहाँ जो पुराने रह रहे हों, उनमे से कोई बता सकता है?" मैंने पूछा,
"जी ये जगह ही करीब बारह साले पहले ही बसी है" वे बोले,
मेरी आशा का गला काट दिया सिंह साहब ने ऐसा कह के!
"ओह" मेरे मुंह से निकला,
कोई अन्य तरीका? हो सकता है कोई गाँव हो इस नाम का?
"कोई गांव सुना है इस नाम का?" मैंने सुना!
"नहीं जी" वे बोले,
मेरी दूसरी आशा भी धराशायी हुई!
"आपका पटवारघर कहाँ है यहाँ?" मैंने पूछा,
"शहर में है जी" वे बोले,
"वहाँ चलते हैं, हो सकता है कोई सुराग मिल जाये?" मैंने कहा,
"जी, कब चलें?"' उन्होंने पूछा,
"कल चलते हैं" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
चलो! पहला कदम तो बढ़ा आगे!
हम वापिस आये और तब तक खाना बन चुका था, हम भोजन करने बैठ गए!
हुई रात अब! मेरी नज़र खिड़की से बाहर!
उसी तरफ!
वहीँ उसी पगडण्डी पर!
मैं रात एक बजे तक वहाँ देखता रहा, लेकिन कोई नहीं दिखायी दिया, घुप्प अँधेरा और बस सियारों की दौड़-भाग और उनका रोना, बस! और कुछ नहीं, हार कर मैंने खिड़की बंद की और सो गया!
सुबह उठा तो वही औरत दिमाग में आयी, मैंने शर्मा जी से कहा, "क्यों न एक बार चल कर वहाँ देख लिए जाए?"
"ये सही रहेगा" वे बोले
अब शर्मा जी ने सिंह साहब को ऐसा कहा,
उन्होंने अपने दोनों नौकरों को ऐसा कहा,
सुन कर वे दोनों घबरा गए!
नाड़े ढीले हुए उनके!
शर्मा जी ने समझा-बुझा कर उनका डर निकाला और तब वे तैयार हुए जंगल में जाने को!
"दो फाल ले लेना, झाड़ी काटने को" मैंने कहा,
उनके पास वैसे ही थे फाल, सो दो फाल लिए गए और हम अब चले उन झाड़ियों या जंगल की तरफ, उस पगडण्डी के लिए!
वहाँ तक आये! रवि और श्याम घबराये!
मैंने फाल ली, और झाड़ी काटते हुए हम आगे बढ़ चले!
बहुत मेहनत लग रही थी, हम बारी बारी से झाड़ियाँ काटते और आगे बढ़ते जाते!
जंगल घना था, लेकिन हम एक ऐसी जगह पर आये जहां पेड़ तो थे एक दूसरे से खुसे हुए, लेकिन जगह साफ़ थी वहाँ!
"ये जगह ठीक है, थोडा आराम करते हैं" मैंने कहा और मैं एक पत्थर पर बैठ गया!
वे भी बैठ गए!
मैंने आसपास देखा, निर्जन स्थान था वो, तो वो कहाँ से आती थी? यहीं से या और कहीं से?
"चलिए, आगे चलते हैं" मैंने कहा,
थके हारे सभी आगे चल पड़े, अब फाल की ज़रुरत नहीं पड़ रही थी, हम सीधे सीधे ही चल रहे थे, एक जगह झड़बेरी की झाड़ियाँ थीं, लाल मोटे बेरों को देख कर पानी छलक गया मुंह में, मैंने बहुत सारे तोड़े और रुमाल में बाँध लिए, क्या स्वाद उनका! मीठे ऐसे कि जैसे गुड़!
उन्होंने भी तोड़े और चबाते चबाते आगे चल पड़े!
और तभी!
तभी मुझे कुछ दिखायी दिया!
मानव-निर्मित एक शिलाखंड! उस पर कुछ अंकीर्ण था, क्या था ये बताना मुश्किल था! गुजरते वक़्त ने खूब टिकट चिपका दिए थे उस पर महीनों के और सालों के!
"ये क्या है?" मैंने शर्मा जी से पूछा,
"कोई प्राचीर खंड सा लगता है" वे बोले,
सच में!
सच में वो प्राचीर खंड ही था!
"हाँ वही है" मैंने देखा,
नौकर देख रहे थे कि इस पत्थर में क्या धरा है!
मैंने और मुआयना किया!
उस रात मैं और शर्मा जी उस खिड़की के पास ऐसे बैठे जैसे कोई शिकारी अपनी मचान पर बैठता है बन्दूक ताने! हम दोनों आँखें फाड़ते हुए वहीँ उसी पगडण्डी की तरफ देखते रहे! रात का एक बजा, फिर दो और फिर इसी तरह से पांच बज गए, कोई नहीं आया, लगता था हम से ही कोई दुश्मनी थी उसको, हमे ही नहीं दिखायी दे रही थी! नसीब फूटा था जी हमारा ऐसा लग रहा था!
पांच बजे तो मैंने घुटने टेक दिए, और हम दोनों सो आगये, जब नींद खुली तो सूर्यदेव बीच आकाश में भ्रमण कर रहे थे, लगा जैसे डांट रहे हैं! ऐसा ताप उनका! हम नहाये धोये और फिर खाना खा लिया, आज राम सिंह शहर गए थे किसी काम से, दोनों नौकर वहाँ खेत में काम कर रहे थे, हम भी
वहाँ जा बैठे, एक चादर बिछा दी श्याम सिंह ने और हम वहीँ बैठ गए! मेरी नज़र फिर से उसी पगडण्डी पर पड़ गयी और जैसे मैं फिर से चिपक गया उसी रास्ते पर!
"शर्मा जी, हमे क्यों नहीं दिखायी दी वो औरत?" मैंने पूछा,
"हम परदेसी हैं न इसलिए" वे बोले,
बात थी तो सही!
"कोई न कोई कारण अवश्य है" मैंने कहा,
"हो सकता है दिखायी दे जाए?" वे बोले,
और तभी जैसे हमारी बात 'मात्र एक' ने सुन ली!
श्याम सिंह आया भागा-भागा और हाँफते हुए बोला, "आइये मेरे साथ"
हम कुत्ते की तरह से खड़े हो गए!
मुस्तैद!
"क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"वही भूत" उसने कहा,
"कहाँ?" मैंने चारों ओर देखा,
वहाँ कोई नहीं था!
वो एक ओर भागा और हम उसके पीछे भाग लिए, कुछ फर्लांग दूर वो रुक गया, ज़मीन पर बैठा और नीचे गर्दन करते हुए उसने हमे नीचे झुकने को कहा, हम झुके!
उसने एक तरफ इशारा किया,
हमने देखा!
और जब देखा तो सन्न रहा गया! फुरफुरी के कांटे उभर आये बदन पर! जैसे हवा ने दो चार लातें मार दी हों होश में लाने के लिए!
वहाँ एक औरत खड़ी थी, काले लिबास में, धोती भी नहीं थी, न ही कोई साड़ी और न ही कोई लहंगा! उसने जैसे कोई बड़ा सा वस्त्र बीच में से फाड़कर गर्दन में डालकर तन ढका हो, ऐसा लिबास, पाँव में हाथीदांत से बने आभूषण थे, मेरी दो पिंडलियाँ और उसकी एक पिंडली! उसका
कमर से नीचे का ही भाग दिखायी दे रहा था, मैं आगे बढ़ा, और आगे और दृश्य स्पष्ट हुआ! वो झुक कर खड़ी थी, जैसे ज़मीन में से कुछ निकाल रही हो, कुछ बीन रही हो!
मैंने फ़ौरन ही मैंने प्राण-रक्षा मंत्र पढ़ा और स्व्यं को पोषित कर लिया! शर्मा जी को पीछे रहने दिया और मैं आगे बढ़ चला, झुक झुक कर! ज़मीन पर पड़े पत्ते मेरे जूते के नीचे आते तो मेरी पोल खोल देते, मैं सध-सध के आगे बढ़ा! अब वो मुझसे करीब बीस-पच्चीस फीट दूर थी!
एक बात तो तय थी, उसका शरीर करीब साथ फीट रहा होगा, भारी-भरकम, उसके बाल खुले हुए नीचे लटक रहे थे, करीब पांच फीट, हवा चल रही थी, लेकिन उसके बाल यथावत ऐसे ही झूल रहे थे, निःसंदेह वो एक प्रेत थी!
मैं आगे बढ़ा!
आवाज़ हुई,
और वो उठ खड़ी हुई,
मैं वहीँ रुक गया,
वो पीछे मुड़ी,
मैं ठिठका,
उसने अपना चेहरा किसी कपडे से बाँधा था,
उसने मुझे देखा,
मैंने उसे देखा,
दोनों वही थम गए!
जैसे दो शत्रु एक दूसरे का जायज़ा लेते हैं!
मैं अब आगे बढ़ा,
वो नहीं डिगी!
मैं और आगे आया,
करीब दस फीट,
उसका कद और काया स्पष्ट होने लगी,
पसीना मेरे माथे से होता हुआ चिल्लाता हुआ मेरी नाक के सहारे से होता हुआ ठुड्डी तक आया और कोई पनाह न मिलने के कारण ज़मीन में गिर ज़मींदोज़ हो गया!
मैं आगे बढ़ा!
अब मैं उसके इतना करीब था कि मैं उसे हाथ लगा सकता था!
वो अपलक मुझे देखे जा रही थी!
और मैं उसे,
मैं उस से पूरे एक फीट नीचे था!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"कैला" उसने कहा,
मधुर सी आवाज़ उसकी!
"यहाँ क्या कर रही हो?" मैंने पूछा,
इस से पहले वो जवाब देती मुझे अपने पीछे कोई आते सुनायी दिया,
और......................
मैंने पीछे मुड़कर देखा, वहाँ कोई नहीं था, लेकिन कैला वहीँ देखे जा रही थी, उसकी दृष्टि मेरी सर के ऊपर से जा रही थी! मेरे बालों से छनती हुई!
"कहाँ से आयी हो?" मैंने पूछा,
मेरी आवाज़ से जैसे उसकी तन्द्रा भंग हुई!
वो चुप!
"बताओ कैला?" मैंने पूछा,
"तुमने बरहु को देखा है?" उसने पूछा,
"कौन बरहु?" मैंने पूछा,
वो शान्त!
नीचे नज़र किये हुए!
"औरत है या आदमी?" मैंने पूछा,
"आदमी" उसने कहा, सर झुका के ही,
"कौन है वो तुम्हारा कैला?" मैंने पूछा,
"आदमी मेरा" वो बोली,
अच्छा! उसका पति!
"नहीं मैंने यहाँ किसी को भी नहीं देखा" मैंने कहा,
"दो बालकों को देखा?" उसने हाथ के इशारे से बालकों का कद बताया, करीब तीन फीट होगी ऊंचाई,
"नहीं कैला, मैंने नहीं देखा" मैंने कहा,
मायूस हो गयी,
बेचारी!
अब शांत वो!
जैसे मैं अब बेकार था उसके लिए!
किसी काम का नहीं!
"कहाँ से आयी हो?" मैंने पूछा,
चुप!
'बताओ कैला?" मैंने कहा,
चुप"
"मैं तुमको छोड़ आउंगा कैला वहाँ" मैंने कहा,
जानते हुए भी कि वो एक प्रेत है!
"वहाँ कोई नहीं है, मैं देख आयी" उसने बताया,
"कहाँ?" मैंने पूछा,
"वहाँ" उसने एक ओर इशारा किया,
वहाँ कुछ नहीं था, बस जंगल ही जंगल!
"कोई गाँव है वहाँ?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोली,
"क्या नाम है गाँव का?" मैंने पूछा,
चुप!
नहीं बताया उसने!
"वहाँ" उसने फिर से इशारा किया!
मैंने फिर से देखा,
"वहाँ कोई नहीं है" मैंने बताया,
"तुमने बसौटी वाला कुआँ देखा?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
अब फिर से मायूस!
मुझे सच में बहुत तरस आया, वो खतरनाक प्रेत क़तई नहीं थी, अभागी थी, जो बिछड़ गयी थी अपने परिवार से!
"मेरे साथ चलोगी कैला?" मैंने पूछा,
चुप!
उसने मुझे तब मेरे हाथ में कुछ दिया,
ये देखने में कोई धातु थी, कोई चाक़ू सा, लेकिन अब जंग ने उसको ख़तम सा कर दिया था!
"ये क्या है?" मैंने पूछा,
"खून" उसने कहा,
मैं सन्न!
"खून? किसका?" मैंने पूछा,
अब वो रो पड़ी!
बुरी तरह!
फि चुप हुई!
एक तरफ चल पड़ी, मैं भी चला साथ ही साथ!
एक जगह उक गयी, ज़मीन पर झुक कर कुछ ढूंढने लगी,
मैंने भी देखने लगा,
"कुछ खो गया है कैला?" मैंने पूछा,
कोई उत्तर नहीं, बस अपने में खोये हुई,
"कैला?" मैंने कहा,
चुप!
फिर एक टुकड़ा सा उठाया सफ़ेद रंग का,
मुझे दिया,
देखने में पत्थर सा था,
"ये क्या है?" मैंने पूछा,
"हंसा" उसने कहा,
हंसा? या क्या है? कोई वस्तु? मुझे समझ नहीं आया,
"ये हंसा क्या है?" मैंने पूछा,
वो अब हंसी!
सच कहता हूँ, कितने प्यारे अंदाज़ में वो हंसी थी! पल भर को लगा कि वो प्रेत नहीं साक्षात् अोि दैविक गणिका है!
"बताओ कैला, ये हंसा क्या?" मैंने भी हंस के पूछा,
उसने अब वो टुकड़ा मेरे कंधे पर रख दिया, और हंसने लगी!
मैं बिना समझे हंसा उसके साथ!
फिर उसने मेरे माथे पर लगाया, अब मेरी नज़र उसके हाथ पर पड़ी! उन पर निशान थे, खून के निशान! या फिर माहवर के निशान, मेहँदी-महावर के निशान!
उसने उस 'हंसा' को वहीँ रख दिया फिर से और आगे चल पड़ी!
मैं वहीँ रुक गया!
उसने मुझे देखा,
फिर पीछे आयी,
और फिर चली,
मैं समझ गया वो मुझे साथ चलने को कह रही थी!
मैं चल पड़ा उसे साथ,
वो फिर से एक जगह रुकी, यहाँ काले से पत्थर पड़े थे!
फिर...........
वो, उधर उन काले पत्थरों के पास रुक गयी, झुक कर फिर से कुछ उठाया, और मुझे दे दिया, मेरे हाथ पर, ये एक अजीब काला सा पत्थर था, हां, परन्तु कोयला नहीं था,
"ये क्या है?" मैंने पूछा,
कुछ न बोली वो!
बस देखती रही उस पत्थर को,
एकटक!
"क्या है ये कैला?" मैंने पूछा,
"हंसा" उसने कहा,
फिर से हंसा!
कैसा कैसा हंसा!
एक सफ़ेद हंसा और एक,
काला हंसा!
और अभी तक मुझे ये नहीं पता था कि ये हंसा है क्या!
"काला हंसा?" मैंने पूछा,
"जला हुआ" उसने कहा,
दिमाग सुन्न! उन्न-झुन्न के उलटे सीधे सवालों की बारिश हो गयी दिमाग में!
जला हुआ हंसा?
कैसे जला?
जलाया गया?
कैसे कैसे अजीब-अजीब सवाल!
उसने फिर से मुझसे वो हंसा लिया और वहीँ गिरा दिया!
"बरहु कहाँ होगा?" मैंने पूछा,
"पता नहीं" उसने मुझे चीरने वाली नज़र से देखा!
अंदर तक झाँक लिया!
"तुम यहाँ आयी थीं बरहु के साथ?" मैंने पूछा,
तभी उसने मेरा हाथ पकड़ा, खींचा, और नीचे गिरा दिया!
अप्रत्याशित!
ये क्या हुआ?
"श्श्श्श्श" उसने अपने मुंह पर ऊँगली रखते हुए कहा,
मैं चुप!
लेकिन कोई था नहीं वहाँ!
कुछ पल बीते, मैं धूल में सन गया!
अब उसने हाथ दिया मुझे, और खड़ा कर दिया!
"क्यों गिराया?" मैंने पूछा,
