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वर्ष २०१२ जिला झंझुनूं राजस्थान की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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न और था, 

और न ही छोर! अब मुझे ही कुछ न कुछ करना था, एक बात और, ये प्रेत, अपने आप ही प्रकट हो रहे थे, वे सभी भयभीत थे, लेकिन किस से? यही पता चल जाता, तो भी कुछ हाथ लगता, अपने आप में ही एक बड़ा रहस्य था, एक ऐसा रहस्य, जिसने झुंझला के रख दिया था! अब मुझे कहानी जाननी ही थी, एक कहानी, जो यहाँ से सम्बंधित थी! 

और इसके लिए, मुझे क्रिया में बैठना था, 

और इस पहाड़ी से बढ़िया जगह, और क्या होती! यहाँ किसी का आह्वान तो नहीं करना था, बस पकड़-धकड़ ही करनी थी, 

जो भी हाथ लगता, तो कम से कम कहानी के कुछ हिस्से हाथ आते, तभी ध्यान आया! वो खोपड़ी के हिस्से! 

ये काम आ सकते थे! कर्ण-पिशाचिनी मदद कर सकती थी। 

तो उसी दिन, मैंने निश्चय कर लिया, कि, आज रात यहीं, वो क्रिया करूँगा, कम से कम, कुछ तो पता चलेगा! और यदि पता चला, तो फिर ये पहेली भी सुलझ ही जायेगी! अब करना था भोग आदि का प्रबंध! अलख! 

और एक बढ़िया स्थान! इसके लिए मैंने कोई बढ़िया स्थान चुनना शुरू किया, 

और ढूंढते ढूंढते एक ऐसा स्थान मिल भी गया! मैंने निशान लगा दिया वहां, ये समतल स्थान था, पत्थर आदि हटा दिए थे वहाँ से, 

और एक जगह भूमि साफ़ कर दी थी! हम अब वापिस चले, और खेतों तक पहुंचे, और हरीश जी से सारी बात कही, और उसी समय हम लोग, चल पड़े शहर की ओर, वहां से सभी सामान खरीद लिया, कुछ सामान तो मेरे बैग में भी पड़ा था, वो भी काम आ ही जाता, उस शाम, हमने खाना-पीना आरम्भ किया, मदिरा का सेवन किया, और फिर हम चल पड़े, 

महेश जी और हरीश जी, ये लोग नीचे ही रहने थे, शर्मा जी, मुझसे कुछ दूरी बना के रहने वाले थे, में पहुंचा वहाँ, एक काम-चलाऊ अलख का निर्माण किया, सामान रखा वो हड्डी के टुकड़े रखे, 

और अब महानाद करते हुए, अलख उठा दी, वो स्थान, आग की लपटों में, चमक उठा! भुतहा हो गया! अब किया आह्वान! जब भी कभी कर्ण-पिशाचिनी का आह्वान किया जाता है, तो मसान भी नहीं ठहरता उसके सामने। वहाँ सन्नाटा पसरा हुआ था! मैंने मंत्रोच्चार किये! गहन मंत्रोच्चार! 

और कोई एक घंटे के बाद, अट्टहास करती हुई, वो महा-पिशाचिनी, कर्ण-पिशाचिनी, प्रकट हो गयी! वो प्रकट हुई, भोग अर्पित किया, वो लोप हुई फिर, मुझे मेरे कानों में, उसके स्वर की गूंज आने लगी थी, हल्के हल्के जैसे कोई सांस लेता हो! 

अब किया प्रश्न! उसने अट्टहास किया, 

 

और मेरे नेत्र बंद हो गए, मेरे प्रश्नों के उत्तर, मिलते चले गए। 


   
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श्रीशः उपदंडक
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यहां जो कुछ भी हुआ था, उसके बारे में, एक एक जानकारी, सामने आती चली गयी! मेरे प्रश्न पूर्ण हुए, 

और मैं, उसके लोप होते ही, पीछे गिर पड़ा! बदन भारी हो गया था, प्रत्येक जोड़ में, दर्द था, भयानक दर्द, हाथ पाँव, 

काँप रहे थे, सांस टूट रही थी! सामान्य होने में, अभी करीब आधा घंटा था! बदन को तोड़ कर रख दिया करती है ये! वजन बढ़ जाता है, कई बार तो, अचेतन अवस्था हो जाती है! मुझे सामान्य होने में कोई, पौना घंटा लगा! अलख शांत की अब, मंत्र पढ़ते हुए, 

और सारा सामान उठाया, और फिर से मदिरापान किया। और अब, सामान उठाया, 

और चल दिया नीचे, 

शर्मा जी मिले, उन्होंने सामान उठा लिया, 

और हम, चल दिए नीचे, खेतों की तरफ! कोठरे में पहुंचे, अब वहां आराम किया, मैं धुत्त था नशे में! 

अब तो कल ही बात हो सकती थी, ज़िद पकड़ ली मैंने कि मैं, आज रात यहीं सोऊंगा! मान ली गयी ज़िद। वे लोग भी वहीं सोये रात को, 

और शर्मा जी भी! सुबह हुई, मैं उठा, मुंह से मदिरा की गंध आ रही थी, लग रहा था कि, जैसे अभी उल्टी आएगी, मैं बाहर गया, 

और उल्टी कर दी, दिल घबरा रहा था, 

शर्मा जी पानी लाये, मैंने मुंह साफ़ किया, पानी पिया तब, 

और तब कुछ राहत हुई, मैं करीब दो बोतल पी चुका था! अभी तक नशा था! पाँव लड़खड़ा रहे थे, मैं फिर से जा लेटा! 

और जब उठा, तो एक बजे का समय था! अब ठीक था मैं! 

अब नशा टूट चुका था! एक बार फिर से उल्टी हुई। 

और इस बार मैं ठीक हो गया। अब घर पहुंचे, स्नान किया, फिर चाय-नाश्ता! फिर थोड़ा सा आराम, 

और फिर भोजन! अब सभी, कहानी जानने को तैयार थे! लेकिन! अभी बहुत कुछ बाकी था! बहुत कुछ! 

और इसके लिए, मुझे सूरजगढ़ जाना था! उस समय इसका नाम अदीचा हआ करता था! ये कहानी ढाई सौ वर्ष के आसपास की थी। मुझे, एक स्थान पर जाना था, जो सूरजगढ़ के समीप ही था! इतिहास जानने! उस माधौ और उस जगन का! इसी सूरजगढ़ से ये कहानी आरम्भ हुई थी, 

और उसका अंत, वहाँ, उस पहाड़ी पर हुआ था! 

ये एक जंग की कहानी थी! एक ऐसी जंग, जिसमे एक बड़ी सेना, 

कुछ जांबांज राजपूतों की एक छोटी सेना से, हार गयी थी! ये जांबाज राजपूत लड़ाके, आपस में मिलके लड़े थे। 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और उस समय की एक मज़बूत और अभेद्य सेना को, लोहे के चने चबा कर हरा दिया था! ये हारने वाली सेना, मराठों की थी! जिसमे नायक महादजी सिंधिया थे! 

मराठों में, अन्य कई प्रांत, इस सेना के, योग्य सेनापति के संचालन में, जीत लिए थे, कई रियासतें, घुटने टेक चुकी थीं इनके सामने! लेकिन, इस तुंगा माधौगढ़ की निर्णायक लड़ाई में, यही ताक़तवर सेना, मुंह की खा चुकी थी! हार ही नहीं, महादजी सिंधिया को, समर्पण भी करना पड़ा था, जान बख्श दी गयी थी, 

और उसी रात उन्हें वहाँ से, वापिस जाना भी पड़ा था! 

सूरजगढ़ किले को, राजा ठाकर सूरज मल ने बनवाया था, ये साल सत्रह सौ अदुत्तर था, सूरज मल, बहत वीर, नेक, 

और विकट योद्धा थे! हालांकि, सत्रह सौ सत्तासी की उस लड़ाई में, वे वीरगति को प्राप्त हुए थे, दिन था अट्ठाइस जुलाई! लेकिन, 

ये लड़ाई सवाई प्रताप सिंह, जयपुर, के नेतृत्व में लड़ी गयी थी! राजपूतों की सेना, कसल पचास हज़ार के बराबर थी, 

और मराठों की, कुल पिचासी हज़ार, इसमें बहुत विकट योद्धा थे, लेकिन जोधपुर, जयपुर, 

और अन्य रियासतों की, सेना ने, तुंगा-मौधौगढ़ की उस जीत को, अंजाम दे दिया था। ये मराठों की, बढ़ती शक्ति को, रोकने में, मील का पत्थर साबित हुआ! राजपूतों ने, अपना वर्चस्व कायम रखा! मित्रगण! इन्ही राजा ठाकुर सूरज मल के, राज में ही, माधौ नाम का एक सूबेदार था! संग उसके, उसका भाई जगन भी था! जगन एक वीर राजपूत था, एक विकट योद्धा! इन सभी के परिवार, इसी सूरजगढ़ के पास ही रहते थे, जहां की सूबेदारी, इस माधौ के पास थी! 

ये दोनों ही, विवाहित थे, काफी बड़ा कुनबा था उनका, 

माता-पिता, चाचा आदि सब थे, 

और इसी लड़ाई के दौरान, उदयभान नाम का एक सरकारी कारिंदा, टूट गया था मराठों के सामने! टूटा, अर्थात, गद्दारी की थी उसने, भेदिया था वो! भेदिया, उदयभान! वो भेदिया उदयभान, कर-वसूली करता था! नायब हुआ करता था! लेकिन लालची था! मराठे जीत जाते तो, सूबेदार का ओहदा उसी का हो जाता! लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। सूबेदार माधौ भी, अपनी टुकड़ी के साथ बहादुरी से लड़ा, जगन फ़ौज में ही था, जगन ने भी अपनी तलवार का जौहर दिखाया, लेकिन उदयभान! जब आभास हुआ, कि जैसा वो चाहता है, वैसे सम्भव नहीं हो पायेगा, तो उसने कुछ निर्णय लिया! अपने विश्वस्त साथियों के साथ, उसने उसी रात को, धावा बोला, युद्ध का समय था वो! ये उदयभान, उस सूबेदार के प्रति, वफादार तो था नहीं, सूबेदार और जगन, 

Me 

तभी लौटे थे, उस समय ठाकुर सूरज मल, घायल थे, सवाई प्रताप सिंह ने घुटने तो टिकवा ही दिए थे, उन मराठों के, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और इसी माहौल में, उदयभान के आदमियों ने, धावा बोल दिया, इस से पहले कि वो कुछ समझते, 

और अपने हथियार उठाते, मामला भाप, कुनबे के सभी बालक-बालिकाओं और औरतों को, निकाल भेजा बाहर, उनको झुंझुनूं से आगे जाना था, जहां उस सूबेदार के अन्य रिश्तेदार रहा करते थे, वो सुरक्षित स्थान था, उस रात भयानक जंग हुई थी, इस जंग में दोनों टफ के कई योद्धा मृत्यु से, साक्षात्कार कर बैठे, उदयभान के पास, आदमी ज्यादा थे, लेकिन सूबेदार और जगन के आदमियों ने, छक्के छुड़ा दिए उदयभान के भाड़े के आदमियों के! 

औरतें, बच्चे सब निकाल दिए गए थे, जो ले गया था उनके, वो रन्नू था, जगन का विश्वासपात्र, रन्नू के साथ कई अन्य आदमी भेजे थे जगन ने, 

रन्नू, जितनों को, 

ले जा सका, ले गया, जो पीछे छूट गया, वो छूट गया था, 

और अपने जीवन से भी छुट गया था! जगन, के और साथी भी आ गए थे, वे भी कूद पड़े, वो रात हाहाकार में बीती, तब तक रन्जू ले आया था उनको, इस पहाड़ी तक, यही रास्ता हुआ करता था, वे रुक गए, वहीं, इंतज़ार किया उन सब का, लेकिन, उदयभान के छोटे भाई, बिस्सा ने, पीछा किया! उन औरतों और, उन महिलाओं का! जगन ने अपने भाई से कहा, कि उनकी रक्षा के लिए, वो आगे बढ़ेगा, और यही हुआ, जगन के आदमी चल पड़े, 

और फिर इसी जगह भिड़ गए! जगन के आदमी इतने न थे, कि वे मुकाबला कर सकें। 

आंधी-रात्रि तक, वे लड़ते रहे, कुल दो सौ आदमी, जगन समेत, खेत रहे। बिस्सा के सर खून चढ़ा था, उसके बचे हुए आदमियों ने, 

अब ढूंढना शुरू किया, 

वे घोड़े लेकर, आगे बढ़े, रन्नू और उसके आदमियों ने, उन सभी बालकों और औरतों को, छिपा दिया था उस रात के अंधेरे में वहाँ, बिस्सा के आदमी पहुंचे, रन्न और उसके आदमियों ने, खूब लोहा लिया, खूब! 

लेकिन, 

टिक न सके, कहाँ चालीस और कहाँ ढाई सौं, हलाक़ कर दिए गए! 

और वहाँ, वहां वो सूबेदार, ज़ख्मी होते हए भी डटा रहा, अंततः वो भी वीरगति को प्राप्त हो गया। सूबेदार और जगन, कभी न पहुँच सके, 

और इधर, बिस्सा के आदमियों ने, एक एक को ढूंढ ढूंढ कर, काट डाला। क्या बालक, 

और क्या औरतें! तब तक ये गाँव भी न बसा था, ये बीहड़ था, रास्ता था यहां से, 

और हाँ, इन्दा ने बताया था कि माधौ अपनी माँ को लेने गया है। यही कहा था माधौ ने इन्दा से, कि वो आगे बढ़ें, 

जान बचाएं, वो माँ को लेकर आते हैं। लेकिन! न माँ, न पिता, न माधौ, कोई नहीं बच सका था! उन सभी का अंत, उसी रात हो चुका था। ये थी कहानी! एक खौफ़नाक कहानी! इतिहास में दर्ज़


   
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श्रीशः उपदंडक
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एक कहानी! लेकिन पढ़ने वाला कोई नहीं! कहने वाला कोई नहीं, सुनने वाला कोई नहीं! बस चंद ये लोग, 

जो प्रेत योनि भोग रहे हैं, एक आस लिए, कि वो माधौ, 

और वो जगन, आएंगे, और वे सब मिलकर, एक सुरक्षित स्थान पर, चले जाएंगे! बेचारे! उसी क्षण में अटके हैं! ढाई सौ सालों से अधिक! इंतजार! 

जो कभी खत्म नहीं होगा! जो कभी था ही नहीं! लेकिन ये, अभी भी, 

राह तक रहे हैं! उन बेचारे बालकों ने, पत्थर बरसा दिए थे। बालकपन में, 

और इसी से, उनके छिपने का पता जान गए थे वो! पहले, समूल ही नाश किया जाता था! ताकि कोई, नामलेवा ही न रहे! बदले जैसी, कोई भावना जन्म ही न ले! कुल-नाश! समूल नाश! उस उदयभान का क्या हुआ? पता नहीं! उस बिस्सा का? पता नहीं! वे वही रह गए होंगे! अपनी बची ज़िंदगी, जी ली होगी उन्होंने! वो सूबेदार बना, या नहीं बना, इसका कोई संज्ञान नहीं मुझे। 

अब तो बस, उस स्थान पर जाना था, जहां उस रात, इस कहानी की, शुरुआत हुई थी! सूरजगढ़ के समीप! समीप के एक गाँव में! वहीं एक टूटी हवेली है, सूबेदार की, 

हु 

इतिहास समेटे, उन दोनों भाइयों का! वो साक्षी है, उस रात की, उस कहानी की, जो शुरू तो वहाँ हुई थी, 

और ख़त्म यहां! और अब, कुछ दिनों के बाद, ये कहानी और इसके, बचे किरदार, हमेशा, हमेशा के लिए, 

दूर जाने वाले थे। कभी लौट के न आने के लिए! वे सब आगे बढ़ने वाले थे। ये सब छोड़ कर! अपना ये छिपाव छोड़ कर, अपने भय से दूर! सूरजगढ़! यही थी मेरी अब वो मंजिल! अगली सुबह, जाना था हमें सूरजगढ़, सूरजगढ़ यहां से, कोई पैंतालीस-पचास किलोमीटर दूर था, हम खाना खा कर, वहाँ के लिए निकल पड़े, उस दिन सर्दी पड़ रही थी बहत, धुंध भी थी, 

सूरज तो थे ही नहीं, इस बार तो सबसे अधिक अवकाश लिए थे उन्होंने, उनकी हालत बहुत नासाज थी उन दिनों, 

और अगर आते भी थे, 

तो जैसे बीमार होते थे, निस्तेज, 

और ढीले-ढाले। खैर, हमारी गाडी निकल पड़ी थी, इक्का-दुक्का लोग भी दिखाई दे जाते थे, सभी पर, सर्दी की मार पड़ रही थी, 

अपने आपको कैसे भी करके, ढके हुए रहते थे, मेरे जूतों का चमड़ा भी ऐसा ठंडा हो जाता था, की जैसे बर्फ से सिकाई कर दी हो उनकी! वो तो जुराब गर्म थे, नहीं तो नाक बहने लग जाती! हम, धीरे धीरे, आराम आराम से, आगे चल रहे थे, उस रात, रन्नू लाया होगा उन सबको बचा कर, इसी रास्ते से, जिंदगी की तलाश में वो निकले थे, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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लेकिन, मौत खड़ी मिली थी उन्हें, ढूंढ निकाला था मौत ने उन्हें, उस रात में, वो सभी हैवान, अपने हथियार लेकर, टूट पड़े थे उन मासूमों पर, इसके क्या कहूँ? वीरता कहूँ? सम्मान की घटना कहूँ? या फिर परम कायरता कहूँ? 

शब्द नहीं हैं मेरे पास, उस रात की सोचता हूँ, तो काँप सा जाता हूँ, कैसी हैवानियत थी वो! रास्ते में, कुछ लोग खड़े थे, कहीं आने जाने के लिए, इंतज़ार कर रहे थे, किसी सवारी का, 

भीड़ थी, कोई कस्बा था वो शायद, हमने पार किया वो, और फिर चल पड़े, कोई सवा घंटे बाद, हम आ गए वहाँ, 

यहां मेरी नज़रें दौड़ी, और कुछ ही दूर पर, एक हवेली खड़ी थी! वैसे ही, जैसी मैंने उस ध्यान में देखी थी! 

और तभी नज़र मेरी, उसके बुर्ज पर पड़ी, मैं चौंका! ये बुर्जी ठीक वैसी ही थी, जैसी मैंने उस पहाड़ी पर देखी थी! यही तो दिखाई दी थी मुझे, उस शर्मा जी को! मैंने शर्मा जी को साथ लिया, 

और चल पड़ा उधर, आजटूटी-फूटी हालत में थी वो, लेकिन एक समय, यहां चहल-पहल रहती होगी! वो गायन, वो गीत, 

वो सारंगी! सब होता होगा! वो फूलों से भरा आँगन! वो दो मंजिला बेहतरीन हवेली! वो पीले रंग की दीवारें! वो बड़ी सी, बांस की सी सांकल! सब! सब याद आ गया मुझे। हम आये उधर, 

अब न तो वहाँ को दरवाज़ा था, न कोई सांकल, न कोई फूल! सब उजाड़ था वहां! झाड़ियाँ थीं वहां, यही थी उस सूबेदार माधौ की हवेली! उसके आसपास भी, अन्य कई टूटे फूटे घर थे, अब तो बस, त्याज्य थे इस संसार से, मैंने वहाँ कलुष-मंत्र चलाया, ताकि कुछ दिखाई दे, लेकिन वहाँ उन पत्थरों के अलावा कुछ नहीं था! मैं यहां आया था, किसलिए? इसलिए कि, इस कहानी की शुरुआत, यहीं से तो हुई थी! मैं माधौ सूबेदार को देख नहीं पाया था, न जगन को ही, लेकिन इस हवेली के, पत्थर पत्थर ने, वो रात देखी थी! 

वो जघन्य हत्याकांड देखा था! एक एक पत्थर गवाह था उस रात का! मैं और शर्मा जी, एक घंटे रहे वहाँ, वो फिर चले वहाँ से, एक और हवेली देखने, उदयभान की हवेली! वो उदयभान! कर-वसूलने वाला, नायब! 

गद्दार! उस हत्याकांड का सूत्रधार! घृणा वाला किरदार! घृणित मनुष्य! उसकी हवेली भी यहाँ से दूर नहीं थी, वो सूबा इतना बड़ा नहीं था उस समय, हम चल पड़े, 

और दूर के इलाके में आ गए, ये पूरे बारह किलोमीटर दूर था! दूर एक टीले पर, एक हवेली खड़ी थी, टूटी हुई! लाल रंग की, अब तो, झाइ-कबाड़ ने ढक लिया था उसको! कुछ शेष नहीं था वहां, 

आसपास बस, खंडहर ही थे! कुछ शेष नहीं था, हम चढ़ नहीं सकते थे उधर, ऊपर थी, रास्ता खराब था बहुत, पत्थर टूट कर, 

नीचे गिरे थे। हमने उस हवेली को, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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दूर से देखा। ये था उदयभान का बसेरा! उदयभान के वंशज आज भी होंगे! कोई कहाँ, कोई कहाँ! उसके इस दुष्कृत्य से अनभिज्ञ! ढाई सौ, पौने दो सौ वर्ष पहले, यहां जो घटना हुई थी, ये जगह साक्षी थी उसकी! राजे-महाराजे चले गए, राज-पाट उजड़ गए, युद्ध हुए, भूमि के लिए, सम्मान के लिए, हत्याएं हुई, 

षड़यंत्र रचे गए, योजनाएं बनीं! तख़्त उलटे! और आज! आज वही ज़मीन, वहीं की वहीं हैं। किसी की न रही! 

सब चले गए, काल के मेहमान बन गए! ज़मीन नहीं गयी! उनके रक्त से सनी ज़मीन, 

आज भी यहीं है! अब हम चले वापिस, वापिस हुए, उदयभान की हवेली पीछे छूटती चली गयी, 

मैं, खिड़की से बाहर देखता रहा उसको, जब तक कि, 

ओझल न हो गयी वो। 

और फिर हम वापिस हुए, घर चलने के लिए, 

और जैसे ही हम उस सूबेदार की हवेली के करीब पहुंचे। मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा! वही पहाड़ की हवेली, जैसे यहीं आ गयी थी! शानदार हवेली! मैंने गाड़ी रुकवाई। शर्मा जी को साथ लिया, कलुष-पढ़ा उनके लिए! उन्होंने जब नेत्र खोले, 

तो हैरत में पड़ गए। घंटे पहले, जो हवेली, खंडहर थी, अब जीवंत खड़ी थी! वही पीली दीवारें! वही स्थापत्य कला! वही बड़ा सा दरवाज़ा! वही बड़ी सी बांस की सी सांकल! दरवाज़ा खुला था! हम अंदर भाग चले! फूल खिले थे। लाल, पीले, हरे, नीले! तितलियाँ उड़ रही थीं। खुशगवार माहौल था! वहाँ पत्थरों के फर्श पर, पानी छिड़का हुआ था। साफ़ सफाई थी! 

बस, चहल-पहल नहीं थी! शान्ति पसरी थी। हम अंदर बढ़े! फूलों के पौधे, हिल रहे थे! 

एक दूसरे से, जैसे बातें कर रहे हों! ये वही हवेली थी! वही! जिसे हमने उस पहाड़ी पर देखा था! 

ये अजीब माया थी! कौन चाहता था कि, वे सब मुक्त हो जाएँ! कोई तो था! लेकिन कौन? हम अंदर ही थे। 

कुछ आवाजें आयीं, 

आवाजें, जैसे धक्का-मुक्की हो रही हो! जैसे हथियार उठाये जा रहे हैं, जैसे किसी को आदेश दिया जा रहा हो, घोड़ों की आवाजें! उनके खुरों की आवाजें! उनकी साँसों की आवाजें! 

और फिर, तलवारें टकराई। टंकार हुई, हाहाकार सा मच गया! 

औरतें, चिल्लाते हुए भागने लगीं! 

धम्म धम्म की आवाजें, सीढ़ियों से उतरते हुए लोग, 

ऐसी आवाजें! जैसे, कोहराम मचा हो वहाँ! हर तरफ से आवाजें! चीखें! पुकार! अफरा-तफरी! हर जगह! हम भी एक पल को, 

सहम गए थे। डर से गए थे। लगता था, उसी समय का हिस्सा हैं हम! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर, सब शांत! जैसे एक झोंका आया था, एक हवा का झोंका, जिसमे उस रात का कुछ हिस्सा, बहा चला आया था! 

और फिर से, कुछ आवाजें! दूर कहीं से, किसी भाग से, मंगल-गान हो रहा था, जैसे, जब कोई योद्धा, विजय प्राप्त करके आता है। 

ऐसा मंगल-गान! 

औरतें गा रही थीं वो गान! ये स्थान, अभी भी, वही पल समेटे बैठा हुआ था। अपने अंदर! 

इतिहास समेटे हुए! और हम दो लोग, वर्तमान से, चले आये थे उस इतिहास में! 

और अगले ही पल! सब समाप्त! हम मध्य में खड़े थे, उन खंडहरों के! वो हवेली, अब गायब थी! चली गयी थी वापिस अपने समय में! इतिहास समेटे! एक पल को, लगा कि, कुछ छूट गया है हमसे! कुछ भूल गए हैं हम! शायद, लालसा थी, कि कोई मिल जाए! कोई, वो माधौ, या फिर वो जगन! कोई भी! लेकिन, कोई नहीं था वहाँ! कोई नहीं! इतिहास में थे वे सभी! मायूस थे हम! बहुत मायूस! अब चले वहाँ से वापिस, चुपचाप! वो मंगल-गान! उसकी ध्वनि अभी तक, 

कानों में थी! हम लौट पड़े, वापिस, गाड़ी में बैठे, 

और चल पड़े आगे, गाड़ी आगे बढ़ी, 

और हम दोनों की, गर्दनें, पीछे मुड़ी, बहुत देर तक हम देखते रहे वो खंडहर, बहुत देर तक! 

जब तक, ओझल नहीं हो गए वे, आँखों से! और इस तरह, कोई चार बजे तक, हम वापिस आ गए थे। वापिस उनके घर! 

वो हवेली, वो मंगल-गान, अभी भी, याद आ रहे थे! 

खैर, हमने थोड़ा-बहुत खाया, 

और फिर आराम किया, फिर शाम हुई, 

और शाम होते ही, अपना कार्यक्रम जोड़ लिया, सज गयी महफ़िल, लेकिन आज, मन में दुःख था, इतिहास को, बहुत करीब से देख आये थे हम, 

साल रहा था, किसी पुराने ज़ख्म की तरह। 

पौने दो सौ साल। एक ही लम्हे में अटके हए, बार बार, एक ही जगह, एक ही दुःख, एक ही इंतज़ार, एक ही ध्येय! वे बेचारे! अब मुक्त करना था उन्हें, किसी भी तरह! कैसे भी! बहुत दुःख काट लिया था उन्होंने! बहुत लम्बा इंतज़ार, कर लिया था उन्होंने! लेकिन एक प्रश्न! क्या वे मानेंगे? वे सभी? ये सबसे मुश्किल सवाल था! सबसे, बड़ा प्रश्न! कैसे समझाऊंगा? क्या करना होगा? मन बुझा बुझा सा था! अब मैंने तिथि का हिसाब लगाया, नौ दिन बाद थी वो तिथि, उस दिन, मुक्ति सम्भव थी! लेकिन आठ दिन बीच में थे। 

और ये आठ दिन, आठ साल जैसे थे। अपना काम निबटाया हमने, 

और उस रात, हम सो गए, मुझे रणनीति बनानी थी, क्या इबु से, पकड़वा लूँ? नहीं नहीं! घबरा जाएंगे वो! भय में तो, अभी भी जी रहे हैं वो! समझाना ही होगा! किसी भी तरह! 

कैसे भी! कुछ भी करना पड़े! कुछ भी! 


   
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यही ठीक है! यही सोचते सोचते, सो गया मैं, सुबह हुई, सारी बातें याद आ गयीं! वो हवेली! वो मंगल-गान! सब! उस दोपहर, मैंने कुछ परम-विद्याओं का संधान किया! मुझे कैद भी करना पड़ा, 

तो करूँगा उन्हें! चाहे कुछ भी हो! कुछ भी! इसीलिए, उन विद्याओं का संधान किया था। उस शाम, 

अँधेरा जल्दी ही हो गया था, 

मैं अपना कुछ सामान लेकर, पहले खेतों पर गया, कुछ ज़रूरी सामान उठाया, 

और, शर्मा जी को संग ले, चल पड़ा, उस पहाड़ी की ओर! टोर्च साथ में थी! 

और कुछ ईंधन भी! आज रात, उन सभी छिपे हुए प्रेतों को, हाज़िर करना था वहाँ! बालक तो वही करते, 

जो वो महिलायें कहती! बस उन महिलाओं को ही, समझाना था। अवगत करवाना था, उस सत्य से, जो उस रात सत्य हुआ था! अब हम ऊपर चढ़े, टोर्च की रौशनी में, वहां की झाड़ियाँ, लोगों के बैठे होने का आभास, दे रही थी, भयानक माहौल था, मैं उसी स्थान पर जाना चाहता था, जहां पहले आया था, अब शर्मा जी को मैंने बिठा दिया एक जगह, 

और खुद आगे बढ़ गया, वहां मैंने, फिर से एक अलख का निर्माण किया, 

एक कामचलाऊ अलख, अँधेरा था, 

लेकिन शर्मा जी ने टोर्च कर रखी थी उधर, ठंड ऐसी थी, कि जैसे बस अब बर्फ पड़ने की ही देरी हो! कपड़े भीगने लगे थे, फुरफुरी चढ़ी थी, मैंने अपने हाथ के दस्ताने उतारे, 

और बैग में रख दिए, और अब सामान निकाला, ईंधन जोड़ा, 

और उठा दी अलख! अलख उठी, तो उसके ताप से कुछ राहत मिली, अब मुझे, घेराबंदी करनी थी, वो इसलिए, कि जो यहां एक बार आये, वो दुबारा, मेरी मर्जी के बिना! ये एक विद्या हुआ करती है, 

और वैसे भी, प्रेतों का एक गुण हुआ करता है, लोप होने का, वे जब चाहें तब, लोप हो सकते हैं, लेकिन इस विद्या से वो लोप नहीं हो सकते, ये विद्या उनको बाँध देती है, लोप होने का गुण समाप्त हो जाता है, 

प्रेत, 

कलुष और दुहित्र मन्त्रों से देखे जा सकते हैं, परन्तु ये मन्त्र, उनको लोप होने से नहीं रोक सकते! अब मैंने उस विद्या का संधान किया, 

और साधने लगा उसको! आधा घंटा लगा, 

और विद्या जागृत हो गयी, अब मैंने भस्म निकाली, 

और चारों दिशाओं में छिड़क दी, विद्या का संचार हुआ! 

और उस मरे से प्रकाश में मरा हुआ प्रकाश, उस अलख का प्रकाश, 

जो वहां की धुंध को चीर नहीं पा रहा था! लेकिन उस प्रकाश में, मुझे कुछ साये दिखाई देने लगे, अपने चारों तरफ! छोटे से लेकर बड़े, कुछ साये हिल रहे थे। कुछ शांत खड़े थे, विद्या में


   
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श्रीशः उपदंडक
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बंध गए थे सभी! अब नहीं जा सकते थे कहीं! अब मैंने आवाज़ दी! "रन्नू?" एक बार, दो बार, तीन बार! कोई आगे नहीं आया, "कानू?" एक बार, दो बार, तीन बार! कोई नहीं आया! कोई भी नहीं! अब मैं खड़ा हुआ, जानते हो मित्रगण! अब मैं शत्रु था उनका, शत्रु! जो पकड़ रहा था उनको! बाँध रहा था! 

और कोई भी प्रेत, इसका विरोध किया ही करता है। मैंने तब, खिन्गाल-मंत्र पढ़ा, ये मसानी मंत्र है! ये आत्म-रक्षा भी करता है, वार से भी बचाता है! और तभी शोर मचा! जैसे वहाँ फिर से तलवारें बजीं! टकराईं एक दूसरे से, 

शोर, भाग रहे हों लोग कैसे, खचाक खचाल की आवाजें! अफरा-तफरी मच गयी वहां! लेकिन वो प्रेत, भाग नहीं सके! 

और मुझे घेर, खड़े हो गए! "बचाओ! बचाओ!" वो औरतें चिलायीं, खौफ़ज़दा थीं सभी! रो रही थीं, अपनी छाती से, छोटे छोटे बालक चिपकाए हए थीं! ये वही दृश्य था, जो उस रात घटा होगा! वो मेरे बिलकुल पास में थीं! बालक भाग रहे थे, लेकिन वो घेराबंदी नहीं पार कर पा रहे थे! भय! भय था उनमे! "बचाओ! बचाओ।" वे औरतें फिर चिल्लाईं। 

और फिर अगले ही पल, सब शांत! 

ये उनका भय था, उनकी सोच थी, उनके वो पल थे, जिन्हे वो, 

मूर्त रूप दे रहे थे! 

और वो पल, जीवित हए जा रहे थे! अब मैंने एक औरत को बुलाया! वो दौड़ी दौड़ी आई, फिर दूसरी औरतें भी भागी भागी आयीं, बालकों ने, पकड़ लिया उन्हें! "क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने पूछा, "बाणी" वो घबराकर बोली, "माधौ की क्या लगती हो?" मैंने पूछा, "मैं जगन की पत्नी हूँ" वो बोली, 

ओह! जगन की पत्नी! वहाँ से निकल तो आई थी, लेकिन यहां हलाक़ हो गयी थी! दुःख हुआ उसे देख कर, "और तुम्हारा?" मैंने पूछा, एक औरत आई सामने, वही, जिस से पूछा था मैंने सवाल, "क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने पूछा, "महनि" वो बोली, "क्या लगती हो माधौ की?" मैंने पूछा, "बांदी" वो बोली, अच्छा ! तोये बांदी थी। 

ये भी निकल आई थी! 

और फिर इन्दा! 

इन्दा ही आई सामने! "इन्दा!" मैंने बुलाया उसे, वो सामने खड़ी थी, 

और चूंघट उठाया उसने, चमकता हुआ चेरा था उसका, खूबसूरत काजल लगी आँखें, मांग में आभूषण सजा था! नाक में एक बड़ा सा छल्ला! बहुत खूबसूरत थी वो! "उदयभान, कुछ याद आया?" मैंने कहा, जैसे ही मैंने कहा, वे सभी, चिपक गए एक दूसरे से! डर के मारे! सर हावी हो गया था उन पर! उदयभान! इसी के कारण तो आज ये सब यहां थे! भटक रहे थे! अटके हुए थे! "इन्दा! अब कोई नहीं आएगा! न माधौ, न जगन, और न उदयभान!" मैंने कहा, उन्हें यकीन ही नहीं हुआ! उनके, मन के कोरे कागज़ पर, एक छुअन का भी, निशान नहीं पड़ा! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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हाँ, एकदूसरे को देखा उन्होंने ज़रूर! "पौने तीन सौ बरस गुजर गए इन्दा!" मैंने कहा, वे सभी, चुपचाप सुनते रहे! उन्हें यकीन नहीं हो पा रहा था! "माधौ भी नहीं रहा। और जगन भी नहीं!" मैंने कहा, तभी, कोई फफक के रोया! 

ये एक लड़का था। समझदार! वो लड़का, रोते रोते, आया मेरे पास, और खूब गला फाड़कर रोया! जब मालूम किया, तो ये जगन का लड़का था! 

और दुःख की बात ये, की माधौ के तीनों पुत्र, हलाक़ कर दिए गए थे, 

वो भी नहीं थे यहां, 

शायद, 

मुक्ति -मार्ग पर, आगे बढ़ गए हों! "सच में इन्दा! अब कोई नहीं है जीवित! तुम भी नहीं!" मैंने कहा, अब जैसे, घड़ों पानी फिर गया! चीत्कार मच गयी! रोना धोना शुरू हो गया! कोई माधौ को रोये, कोई जगन को, कोई अपने नातेदारों को, 

और बालक, बेचारे बालक, उन औरतों को देखकर रोएँ, उन्हें चुप कराते हुए रोएँ, अपने नन्हे नन्हे हाथों से, 

आंसपोछे उनके! हृदय-विदारक दृश्य था वो! हर कोई, 

रो रहा था! क्या बालक, 

और क्या वो बांदी! सब के सब! मैंने उन्हें और भी सबकुछ बताया, वे सुनते रहे, बालक तो, बस उन औरतों को पकड़े रहे, वे औरतै ही, मुझे सुनती रहीं! मैं सुनाता रहा उन्हें, उस रात का सत्य, एक भयानक सत्य! जो सत्य हुआ था! उसी से, अवगत करा रहा था इन सभी को! मित्रगण! 

उन्होंने बहुत से प्रश्न किये, कइयों के उत्तर मेरे पास थे, 

और कइयों के नहीं! मेरा उद्देश्य मात्र उन्हें समझाना था, कि इस तरह, भटकने का कोई लाभ नहीं, पल पल, भय से ग्रसित रहना, छिपना, 

रोज रोज मरना, रोज रोज इंतज़ार करना, कोई लाभ नहीं इसका! अब यही बेहतर है, कि वे मुक्त हो जाएँ, हामी भरें, 

और बढ़ जाएँ आगे, लेकिन एक भी, एक भी नहीं मान रहा था! 

मेरी बातें झूठ लग रही थीं उन्हें! 

और सही भी था, उन्हें यकीन नहीं आना था। चाहे मैं कितनी ही कोशिश करता! चार घंटे बीत गए, उस कड़कड़ाती ठंड में, 

और वे, टस से मस न हुए। 

आखिर में, मुझे युक्ति से ही काम लेना पड़ा! मैंने कहा कि, मैं उनको मिलवा दूंगा, माधौ और जगन से, अब हुए वे प्रसन्न! कुछ भी करने को तैयार! और यही मैं चाहता था! अब मैंने उनको बाँध लिया। एक आवरण में, और वो आवरण, उसी विद्या का था! उसके बाद, उनको डाल लिया, मांदलिया में! काम, आधा हो चुका था! अब देर थी तो बस, इनको उस तिथि पर, मुक्त करने की! मैं चल पड़ा वापिस! अपना सारा सामान उठा कर, अब वो पहाड़ी, रिक्त थी! 

उसका बोझ उत्तर गया था अब! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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न जाने कब से, आसरा दिए बैठी थी उन्हें! शर्मा जी के पास पहुंचा, वे भी उठे, उन्हें बताया मैंने सबकुछ, 

और चल दिए वापिस, रात के तीन बज चुके थे। अब हम चले खेतों की तरफ, वहां पहुंचे, आज यहीं सोना था, बिस्तर लगा हुआ था, हम सोये, 

और फिर हुई सुबह! सारी कहानी बतायी मैंने अब, हरीश जी और महेश जी को, अब उन्होंने राहत की सांस ली! अब उनके खेत में, कोई नहीं आता! मित्रगण! उसी शाम, कोई चार बजे के बाद, हम लौट पड़े दिल्ली के लिए, उन्होंने रोका तो बहुत, लेकिन अब औचित्य शेष नहीं था। अतः निकल गए। हमने बस ही ली, 

गाड़ी का समय नहीं था, 

और इस तरह रात को हम पहँच गए दिल्ली, यहां से अपने निवास स्थान, और सुबह फिर अपने डेरे पर! और फिर वो तिथि आ गयी! उस रात हम निकल पड़े, जमुना जी के किनारे की ओर, 

जहां मैं अक्सर जाता हूँ,, ऐसी मुक्ति-क्रिया करने अब मैंने पूजन किया, कोई दो घंटे! 

और उनको प्रकट किया, वे सभी चकित थे! की नयी जगह कैसे आ गए! अब मैंने उन्हें समझाया कि, उस रेखा के पार, माधौ और जगन मिलेंगे उनको उनका इंतज़ार करते हुए! बस, 

यही तो फांसला है। कई बालक तो, भाग खड़े हुए, 

और लोप हुए! पुकारने पर भी, नहीं आये! 

और फिर उनको ढूंढने के लिए, उन दोनों से मिलने के लिए, सभी, वो रेखा पार आकर गए! वे अब सभी मुक्त थे। अपने आगे के पथ पर चले गए थे! भटकाव, समाप्त हो चुका था! मुझे बहुत शान्ति हुई। बहुत! राजस्थान! इसी मिट्टी के कण कण में, एक गाथा छिपी है। उस गाथा में, रहस्य में लिपटे, कई किरदार पड़े हैं! 

आ जाते हैं वे, कभी कभार इस संसार में! खुल जाते हैं कुछ दरवाज़े, भूतकाल से, इस वर्तमान में! ऐसा होता आया है, 

और होता रहेगा! मुझे जब भी कोई, ऐसा भटकता मिलेगा, मैं मुक्त करूँगा उसे! हमेशा! हमेशा!

----------------------------------साधुवाद------------------------------- 

 

 


   
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