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वर्ष २०१२ जिला झंझुनूं राजस्थान की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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सुबह का वक़्त था, कोई छह बजे के आसपास का, पौष का महीना था, 

और सर्दी हड्ड-जमा पड़ रही थी! क्या तकिया और क्या बिस्तर, ऐसे ठंडे थे कि जैसे, बर्फ की सिल्लियों पर रखे हो! हार्थों और पांवों की उँगलियों के पोर, ऐसे खुजली करते थे, कि जैसे रक्त-प्रवाह बंद हो गया है उनमे! शर्मा जी भी अपने बिस्तर में, कंबल लपेटे हुए, तीन का अंक बने हुए थे। मैंने बाहर झाँका, खिड़की से, 

औस जमी थीं! साफ़ की, तो बाहर देखा, पेड़ पौधे सब गीले पड़े थे, केली का पौधा तो, अपनी पत्तियों पर, ओस की बूंदें थाम, वार्तालाप कर रहा था उनसे! हाइ जमाने वाली सर्द हवा चलती, 

तो ये ओस की बूंदें, गेंद समान आगे पीछे हो जाती थीं! अभी कोई हलचल नहीं थी वहां, कोई नहीं जागा था, मैं बैठ गया, कंबल लपेट कर, मफलर सर पर बाँध ही रखा था, 

हार्थों को, 

एक दूसरे से रगड़ कर, गर्मी लेने की कोशिश कर रहा था, कोई बैठा रहा पंद्रह मिनट, फिर उठा, निवृत होने गया, पानी में हाथ डाला, 

तो पानी की ताकत पता चली! छुरी की तरह से पानी की धार थी! अंदर तक हिला के रख दिया! दांत किटकिटा गए। कंपकंपी छूट गयी! फुरफुरी चढ़ गयी! फौरन भागा अपने कंबल में! 

और घुस के अंदर, पनाह ली! फुरफुरी चढ़ी हुई थी। सिगरेट उठा ली, 

और कांपते हए हाथों से, माचिस जलायी, माचिस जलाने में भी, खूब मशक्कत करनी पड़ी। सील गयी थी माचिस भी! किसी तरह से, सिगरेट के मुंह में आग दी, 

और कश मारे ज़रा खींच खींच के! होठों पर, तपन सी आई अब धुंए की! बहत तो नहीं, लेकिन फिर भी, सिगरेट ने उस शीत को बूंद भर शांत किया! 

और तभी शर्मा जी ने कंबल हटाया सर से, मुझे देखा, 

फिर घड़ी देखी, 

लेटे लेटे, 

और बैठ गए, राम राम जी! वे बोले, मैंने भी राम राम जी कहा! उबासियां लीं उन्होंने, 

और सिगरेट मांग ली, मैंने दे दी, कश खींचे उन्होंने भी, फिर एक और सिगरेट जला ली, 

और चले गए निवृत होने! आये वापिस, हाथ हिलाते हुए, मुझे हंसी आ गयी! "पानी तो ऐसा हो रहा है कि खाल यहीं रख जा!" वे बोले, "हाँ, बहुत ठंडा है।" मैंने कहा, और फिर दरवाज़ा खड़का! सहायक आया था! शर्मा जी गए, 

दरवाज़ा खोला, 

और नमस्कार हुई उस से उनकी, चाय ले ली, साथ में, आलूओ के पकौड़े भी थे! वाह! गरम गरम कुछ तो गया हलक में! चाड़ गए हम जल्दी जल्दी! चाय के साथ मजा आ गया! चाय भी


   
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श्रीशः उपदंडक
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गिलास भर के दे गया था, जब ख़त्म की तो इकार आ गयी! हम आये हए थे, इलाहबाद के पास एक डेरे में, 

कुछ क्रियाएँ भी थीं, 

और कुछ सामान भी लेना था, दो दिन हुए थे हमे यहां आये, हम यहां अपने जानकार, भेउनाथ के पास आये थे, क्रिया अभी भी चल ही रही थी, 

हाँ, सामान ले लिया था, ये तांत्रिक-सामान, सारा असम से आता है, वही लिया था! अब स्नान करने जाना था, पानी आजकल गरम ही प्रयोग किया जा रहा था, सो वहीं गए, स्नान किया, 

और फिर वापिस आये, अब फिर से चाय मंगवा ली, 

और घुस गए कंबल में। धूप तो निकली ही न थी, शीत ने हाहाकार मचा रखा था! धुंध ने, सूर्य को तो आने ही नहीं दिया था, सूर्य की रश्मियों को! सांठ-गाँठ हो गयी थी रश्मियों से शीत की! मध्यान्ह पश्चात, सूर्य महाराज ने अपना चेहरा दिखाया, लेकिन उनकी रश्मियों का तो, यौवन लूट लिया था उस शीत के प्रकोप ने! उनका आना, न आना बराबर ही था! अब भोजन किया, तोरई की सब्जी , मूंग की दाल, अचार, 

आम का और नीम्बू का, और अनारदाने की चटनी! खूब खाया जी खाना हमने। पेट भर के! 

और फिर रात्रि समय, भोजन के साथ ही साथ, शीत-हरण जल ग्रहण किया! अर्थात मदिरा! अब कनपटी गरम सी हुईं। उसके बाद, कंबल में घुस गए, 

और सो गए! अगले दिन भी ऐसा ही हुआ था, आज तो ठंड थी ही, हवा भी चलने लगी थी! मेरी खिड़की के नीचे, जहां गैलरी थी, एक कुतिया ने बच्चे दे रखे थे, छह-सात बड़े ही प्यारे बच्चे थे! सारी . . करते थे, मैं उठ कर देखा लेता था की कहीं कोई बच्चा, अलग तो नहीं हो गया अपनी माँ से? सुबह हुई तो, सहायक जो चाय देने आया था, दूध मंगवा लिया उस से मैंने करीब एक लीटर, गुनगुना, औटा हुआ, 

और एक बर्तन में डाल कर, उस कुतिया और उसके बच्चों को पीने के लिए दे दिया, सीधी कुतिया थी वो, पूंछ हिला हिला कर, चपड़ चपड़ दूध पी जाती थी! उसके बच्चे, अपने छोटे छोटे पाँव ही रख देते थे उस बर्तन में, 

उन्हें साफ़ करता मैं! उनके लिए एक गरम सा गद्दा बिछवा दिया था मैंने, 

और रात में, हवा से बचने के लिए, कंबल उढ़ा देता था उनको, 

आराम से सो जाते थे बेचारे! दिन में तीन-चार बार उनको दूध पिलाना, 

मेरा ही काम था! इन बेजुबानों की सेवा करने से बड़ा कोई पुण्य नहीं! इंसान तो खाने के बाद भी उसमे कमी बता देता है, वस्त्रों में मीनमेख निकालता है, लेकिन ये नहीं! इनकी आवाज़ तो, वो ही सुनता है! सीधा वही! कोई और नहीं! उसी दोपहर की बात है, मैं दूध पिला रहा था उनको, तभी शर्मा जी का फ़ोन बजा, ये फ़ोन, राजस्थान के झुंझुनूं जिले से आया था, वे शर्मा जी के जानकार थे, हरीश नाम है उनका, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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अच्छे-खासे रसूख वाले व्यक्ति हैं, खेत हैं उनके पास, और अपना कुछ व्यवसाय भी है, उनके दोनों बेटे उसी में इनका हाथ बंटाते हैं! वे घबराये हुए थे, न जाने क्या बात थी, अब शर्मा जी ने बात सुनी, सारी बात, 

और फिर मुझे बतायी, हरीश जी के मुताबिक, 

उनके छोटे बेटे ने, जिसका नाम सर्वेश है, 

अपने खेत में, रात के समय कुछ बालक खेलते देखे थे, शोर तो नहीं मचा रहा थे, लेकिन बीच बीच में, किसी को पुकारते थे वो, पहले सर्वेश ने सोचा कि, यही पास के गाँव के ही बालक होंगे, लेकिन जब रात हो गयी ज़्यादा, तब जब वो नहीं गए, तो सर्वेश ने उनसे जाकर पूछा, तो बालक कुछ नहीं बोले, 

और खेत से भाग गए! सर्वेश ने सोचा, चले गए हैं अब तो, 

और वापिस आ गया घर वो, दो दिन बाद, खेत में काम करने वाली एक महिला ने बताया, कि उसने भी वो बालक देखे थे, लेकिन वो दीवाली वाले दिन की बात है, उस बात को तो, कोई तीन-चार महीने होने को आये, 

और अब वे बालक, फिर से दिख रहे हैं, उनको कुछ बोलो, तो पत्थर उठा के मारते हैं! 

और भाग जाते हैं। शैतान बालक होंगे, यही सोचा हरीश जी ने, 

और जब उन्होंने देखा उनको, तो वे भी डांटने चले उनको! उनमे से, 

एक बालक ने, देहाती भाषा में कहा, कि वे बाट देख रहे हैं किसी की, जब पूछा कि किसकी? तो सभी भाग गए! वे बालक गाँव के तो हैं नहीं, लगता है कोई, भूत या प्रेत बाधा है, गाँव में इसकी बहुत चर्चा है आजकल! हैरान करने वाली बात थी। मैंने सोचा, विचारा, 

और, दिल्ली आ कर, 

उनसे बात करने को कहा! हम चार दिन और रहे वहाँ, उन बच्चों से लगाव सा हो गया था मुझे, उनकी कूँ कूँ, 

अब याद आने वाली थी! मैं वहाँ पर, बालचंद नाम के सहायक को, पैसे दे आया था कि इन बच्चों को, रोज ही दूध पिलाते रहना! पंद्रह दिन में तो उछलने-कूदने लगते वो! 

और इतने पैसों में बो दूध पी ही लेते, पंद्रह दिनों तक! पांचवें दिन, हम निकल आये वहाँ से, उन बच्चों को आखिरी बार दूध पिलाया था मैंने! अब चलने फिरने तो लगे थे, लेकिन गिर जाते थे चलते चलते चलो, कुदरत, सब सिखा देती है! हमने रात को गाड़ी पकड़ी, 

ठंड के मारे, कुल्फी जमी थी हमारी! ऊपर से वो चिलचिलाती हवा! सीधा हड्डियों में घुस जाती थी! हालांकि हमने काफी गर्म, ऊनी कपड़े पहने थे, लेकिन हवा नहीं रुक रही थी! गाड़ी में, खिड़की दरवाज़े सब बंद थे। मैं तो सीधे ही अपने बर्थ पर जा लेटा! एक गरम चादर बिछाई और, कंबल में घुस गया! नींद भी आ गयी! शर्मा जी भी आराम से ही सो गए थे, 

और जब सुबह हुई, तो गाडी अभी दिल्ली नहीं पहुंची थी, कोहरे के कारण, बैलगाड़ी हो चली थी वो! किसी तरह से पहुंचे हम! 

और फिर सीधा अपने अपने निवास स्थान पर! दिल्ली में भी सदीं गज़ब की पड़ रही थी! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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जान ले रखी थी ठंड ने तो! । अगले दिन हम अपने स्थान पर चले गए, 

और उसी दिन, हरीश जी से बात हुई, 

वे बालक अभी तो नहीं दिखे थे, अगर फिर से दिखे, तो अवश्य ही बताएँगे वो! यही बात हई उनसे! तो इस तरह पंद्रह दिन और बीत गए! 

और एक दिन, उनका फ़ोन आ गया! अब वो, 

बहुत घबराये हए थे! जिद पकड़े बैठे थे कि हम कैसे भी करके, कैसे न कैसे करके, उनके यहां चले आएं। उन बालों के साथ अब, एक औरत भी दीखने लगी थी! डर के मारे, अब खेतों में कोई नहीं जा रहा था! भय व्याप्त था अब! एक औरत! वो भी नज़र आने लगी थी! कमाल की बात थी! ये हैं कौन? अचानक से, कहाँ से आ गए? अब सवाल उठे मन में बहुत, उनके उत्तर, वहीं उनके ही गाँव में थे! अतः ये निर्णय हुआ कि, हम जाएंगे वहाँ अब, 

जाना ही होगा! देखते हैं कि, 

क्या रहस्य है वहां! हमने टिकट बुक करवाये, दो दिन बाद के मिल गए, दिल्ली से लोहारू गए पहले, 

और फिर लोहारू से झुंझुनूं! यहां हमे लेने आये थे हरीश साहब, उनका गाँव अभी काफी दूर था, गाड़ी लाये थे, नमस्कार आदिहुई, हालचाल पूछे गए, वहीं चाय आदि पी, 

थोड़ा नाश्ता भी कर लिया था, भूख लगने लगी थी! तो चल पड़े उनके साथ, डेढ़ पौंड दो घंटे लग गए हमे वहाँ तक पहुँचने में! लेकिन पहुँच आराम से गए, वहाँ पहुंचे, सामान आदि रख दिया, 

और पानी पिया, हाथ-मुंह धोये! ठंड अपने चरम पर थी उन दिनों! सूरज का तो पता ही नहीं था, कब निकले, कब चले गए। भोजन किया! हरीश साहब खाने-पीने वाले आदमी हैं! 

शौकीन हैं। खाना बहुत बढ़िया बना था। छक के खाया! 

और अब आराम किया! और फिर हुई शाम! किया उन्होंने इंतज़ाम! 

उनके एक मित्र भी आये थे, उनके खेत भी साथ साथ थे उनके, तो जितनी समस्या हरीश साहब को थी, उतनी है समस्या इन महेश साहब को थी, महेश साहब ने भी, एक बार उन बालकों को देखा था, तब ध्यान नहीं दिया था, लेकिन अब तो, भय चढ़ा हुआ था उन्हें! अब मैंने सवाल पूछने आरम्भ किये उनसे, उनका बेटा, तभी सलाद आदि ले आया, 

पानी भी और गिलास भी, हमारा कार्यक्रम आरम्भ होने को था! "हरीश साहब?" मैंने कहा, "जी?" वे बोले, "वो बालक कुल कितने हैं?" मैंने पूछा, "करीब आठ तो होंगे ही" वे बोले, "क्या कपड़े पहनते हैं?" मैंने पूछा, "कई तो जी कमीज़ सी पहनते हैं और कि कुछ नहीं पहनते, नीचे धोती सी पहनते हैं" वे बोले, "सर पर?" मैंने पूछा, "कुछ नहीं जी" वे बोले, "उम्र क्या होगी?" पूछा मैंने, "आठ-दस बरस" वे बोले, "और वो औरत?" मैंने पूछा, "दूर से देखा है जी, उम नहीं पता" वो बोले, "और कपड़े कैसे हैं उसके?" मैंने पूछा, "काले हैं जी, घाघरा सा पहनती है" वे बोले, "देहाती है" मैंने कहा, "हाँ जी" वे बोले, काले! 

घाघरा! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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आठ-दस बालक! सब बड़ा ही विचित्र था! अचानक कैसे, 

और कहाँ से आ गए वो? अब तक कहाँ थे? अब इसका उत्तर तो, वही दे सकते थे! 

और इसके लिए, हमे वहीं जाना था! हमने अपना काम निबटाया 

और फिर चल पड़े खेतों की तरफ! खेत दूर तो नहीं थे, 

लेकिन सर्दी ने बहुत दूर कर दिए थे! पहुँच गए हम वहां, कोहरा पड़ने लगा था। हम चले खेत में, 

और उन्होंने वो जगह दिखाई, ये जगह, खुली थी, एकदम समतल, कोई खंडहर आदि भी नहीं था, कोई अन्य इमारत भी नहीं, कोई चबूतरा, 

पिंडी, 

आदि कुछ भी नहीं! ऐसा तो कुछ भी नहीं था! फिर कहाँ से आये थे वो? 

ये एक पहेली थी! मैंने मुआयना भी किया वहाँ, लेकिन कुछ नहीं था वहां! आधा घंटा ठहरे हम वहाँ, सबकुछ सामान्य ही था! कुछ विशेष नहीं! फिर हम वापिस हो लिए! 

वापिस आये, 

और अब भोजन किया, फिर आराम से, रजाई में घुस कर, 

सो गए। ठंड ने कहर मचाया हुआ था! 

रात भर, ठंड ने, सोने नहीं दिया। सबकुछ ठंडा ही था! बिस्तर भी ठंडा! 

तकिया तो ऐसा ठंडा, कि जैसे बर्फ किसी तरह से, तुइ-मुइ कर, रात काटी! यहां तो दिल्ली से भी ज्यादा ठंड थी! रात में पता चल गया था! शीत-हरण बूटीन ली होती तो, सूखे पत्ते की तरह से काँप रहे होते हम! सुबह हुई, उठे अलसाये हए से सर्दी बेहतरीन थी! शर्मा जी जाग गए थे, बैठे हुए थे, मैं भी उठा, रजाई छोड़ने को मन न करे। हाथ-मुंह धो कर आया, पानी से फटकार लगी फिर, सुननी पड़ी! अब तो उसी की सत्ता थी! वापिस रजाई में घुस गया! खिड़की खोली, बाहर देखा, तो लगा, बादल आज ज़मीन पर ही सोये हैं! ऐसी धुंध थी! "सर्दी बहुत है बाहर" मैंने कहा, "हाँ, मैं गया था अभी बाहर, सुई सी चुभ रही हैं" वे बोले, सच कहा था उन्होंने, वाक़ई में सुईं सी चुभ रही थीं! हवा में ऐसी ठंडक थी, 

कि सीधा हड्डियों से ही बातें करती थी! मैंने गरम टोपी पहनी थी, 

उसको खींच कर, कान तक ले आया था। कान और नाक, इनकी तो दुश्मन बनी हुई थी ये सर्दी! तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई, शर्मा जी उठे, दरवाज़ा खोला, ये हरीश जी थे, साथ में उनका बेटा भी था, चाय-नाश्ता लाये थे, 

आ गए अंदर, कचौड़ियां लाये थे गरम गरम! आलू की बनी हुई! साथ में चाय! मजा तो आना ही था! पांच मैंने खायीं, 

और पांच ही शर्मा जी ने, मिर्च दबा के डाली थीं, मसाला बहुत तेज़ था! फिर भी, उस भयानक सर्दी में, वो चाय और कचौड़ियां, इनका कोई मुकाबला ही नहीं था! चाय पी ली, 

और फिर बर्तन ले गया उनका बेटा, हरीश जी बैठे रहे, 

खेस लपेटकर बैठे थे, इस सर्दी ने, सभी की जान सुखा रखी थी! किसी तरह से समय काटा, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो दोपहर पकड़ी, अभ भोजन किया, दाल थी उरद की, 

साथ में भिन्डी की मसालेदार सब्जी! सिरके वाले प्याज और बड़ी बड़ी मिर्चे। चटनी लाल मिर्चों की, लहसुन वाली, 

और मोटी मोटी रोटियां! ऐसा स्वाद गाँव का, ऐसा स्वाद गाँव का कि, इन्द्र की थाली भी फीकी लगे, छप्पन भोग वाली! जम कर खाया जी हमने! चाट चाट कर, दो दो बार दाल ली, सब्जी ली, 

और रोटियां भी ली! अब गाँव जैसा खाना कहाँ मिलता है हम, शहरियों को! भूखे श्वान की तरह से टूट कर पड़े थे हम। 

और फिर बाद में गुड! इसे कहते हैं, शुद्ध भारतीय खाना! इसका क्या मुकाबला! सिल पर पिसा मसाला, 

ओखली में कुटा मसाला, और इमामदस्ते में पिसा मसाला, कभी पेट नहीं खराब करेगा, भले ही कितना भी खालो! 

और स्वाद, अब स्वाद के बारे में क्या कहूँ! लिखा ही नहीं जाएगा! ऐसा था वो भोजन! देसी घी से, हाथ सने थे! 

वो भी सर से पोछ लिए थे! 

फिर कुछ देर आराम किया, पेट के संयंत्र सक्रिय हो उठे थे, उन्हें समय चाहिए थे। वही समय दिया गया था उन्हें! जब आराम हो गया तो खेतों पर चले हम, धूप ऐसी निकली थी, कि जैसे सूरज महाराज की अगन, छीन ली होराहू महाराज ने! धूप निकलना और न निकलना, सब बराबर था! हम वहीं पहुंचे, 

उनके खेतों में बने, कोठरे में पहुंचे, वहाँ जा बैठे, हरीश जी ने, एक तसला निकाला, चारपाई के नीचे से, उसमे अधजली लकड़ियाँ थीं, 

और फिर उन्होंने जैसे तैसे, अलाव जला लिया! अलाव जला, तो गर्मी मिली, राहत हुई। हम कोई एक घंटा ठहरे वहाँ, मैंने कुछ जांच भी की, लेकिन कोई नज़र नहीं आया, कोई भी! मैंने कलुष-मंत्र भी चलाया, फिर भी कुछ नहीं देखा, हम वापिस हुए फिर, हमें चार दिन हो चुके थे, लेकिन कोई नज़र नहीं आया था, 

न जाने कहाँ चले गए थे वो, कोई भी नहीं आया था! चौथी रात की बात है, कोई साढ़े आठ बजे की बात होगी, हम शीत-हरण बूटी का प्रयोग कर रहे थे, 

अभी दो-चार ही गिलास हुए थे, कि महेश जी आये, हाँफते हुए, उन्होंने बताया कि, वो औरत वहीं है, रो रही है, उन्होंने खुद सुना! फिर क्या था! हम तैयार हए! मैंने कुछ तंत्राभूषण निकाले, 

और धारण किये, और चल पड़े लम्बे लम्बे डिग भरते हुए! जब हम वहां पहुंचे, तो अँधेरा था बहुत, रक टोर्च लेते आये थे महेश जी, मैंने टोर्च ली, 

और शर्मा जी के साथ अंदर चला खेत के, आवाज़ वाकई आ रही थी, किसी औरत के रोने की, 


   
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वो जैसे, शोक मना रही थी! लेकिन दिखाई नहीं दे रही थी! महेश जी और हरीश जी, खेतों के बाहर ही खड़े थे! वे डरे हुए थे, मैं समझ सकता था। अब हम आगे चले, आवाज़ और साफ़ होती गयी! 

और तेज भी, जब हम आगे चल रहे थे, अचानक से, पत्थर आ कर गिरे हमारे सामने, 

पत्थर बड़े तो नहीं थे, लेकिन सर सजाने के लिए बहुत थे! हम रुक गए, 

और फिर से रुदन शुरू हो गया! हम आगे बढ़े, धीरे धीरे, फिर से रूदन बंद! 

और हंसी शुरू वहाँ बालकों के हंसी-ठहे की आवाजें भी आयीं! यहां बालक भी थे! ये बढ़िया हुआ! लेकिन दिखाई नहीं दे रहे थे! आखिर में, मैंने कलुष-मंत्र ही लड़ाया, नेत्र पोषित किये, 

और शर्मा जी के भी नेत्र पोषित किये! और नेत्र खोले अब! उस चांदनी रात में, दूर, एक जगह, कुछ साये से दिखाई दिए, हम आगे बढ़े, उन्ही की ओर, 

और तभी एक पत्थर उड़ता हुआ आया, सीधा मेरे कंधे में लगा, वो तो जैकेट थी, बच गया था मैं, नहीं तो चोट ज़रूर ही लगती, मुट्ठी बराबर का पत्थर था वो! "ए बालको? रुको, पत्थर नहीं फेंको!" मैंने कहा, वे सभी, 

एक साथ हँसे! 

जैसे मजा आया हो उनको! कि मैंने कहा है कि पत्थर नहीं फेंको। हंसी-ठट्ठा हुआ! हम फिर से आगे बढ़े, 

और फिर से पत्थर फेंके उन्होंने! सामने ही गिरे! "अरे रुको! मत फेंको!" मैंने कहा, अब वे फिर से हँसे! एक साथ! उन्हें जैसे, मजा आ रहा था! हम फिर से आगे बढ़े, 

और अब पत्थर नहीं फेंके उन्होंने! मैं खेत में, एक छोटे से गड्ढे में, पाँव आ जाने से, लड़खड़ा गया था! वे इस पर भी हंसने लगे! एक साथ हँसते थे! मैं समझ गया था, ये बालक-बुद्धि ही हैं! इसीलिए, इन्हे मजा आ रहा है। 

आखिर हम उनके करीब, पहुँच ही गए, वो औरत, दूर खड़ी थी, दूर एक मेंड़ पर, खेत के किनारे, उसका साया ही दीख रहा था, वो पूरी नहीं! अब मैंने वो बालक देखे, 

हाथों में पत्थर थे उनके, कुल दस थे बो, पतले पतले बालक, लेकिन बहुत चपल! शैतान और शरारती! देखने से, देहाती ही लगते थे! एक लड़का था उनमे, गले में, एक गंडा सा डाला था उसने, ये शायद सबसे बड़ा रहा होगा इनमें, "कहाँ से आये हो?" मैंने पूछा, उसने सुना, मेरे पास आया, वो पत्थर थमे हाथ से, दूर इशारा किया, यहाँ एक पहाड़ी सी थी, मैंने दिन में देखा था! "यहां क्या कर रहे हो?" मैंने पूछा, उसने बताया कि, इंतज़ार, इंतज़ार कर रहे हैं वो, "किसका इंतज़ार?" मैंने पूछा, 

अब उसने बताया, माधौ और जगन का, मैंने और मालूम किया, 

माधौ और जगन, ये सगे भाई हैं, और इनमे से, चार उन्ही के बालक हैं, तभी वो औरत अाने लगी वहां, धीरे धीरे, मैंने उस लड़के से, 

उस औरत के बारे में पूछा, तो उसका नाम मुझे, इन्दा बताया, इन्दा नाते में कुछ लगती थी उस लड़के की, वो औरत आ गयी, अपना चेहरा ढके, मेरे बराबर ही थी वो! उसका कद, और काठी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मज़बूत थी, जेवर धारण किये हुए थे, पांवों में, ठेठ देहाती किस्म के, ज़ेवर पहने हुए थे, भारी भारी पायजेब, हंसलियाँ, 

और कुछ और आभूषण, हाथों में भी, 

ऐसे ही भारी भरी कडे, वो हमे ही देख रही थी, उन बालकों को, कुछ इशारा किया उसने, अभी बालकों ने, हाथों से पत्थर नीचे गिरा दिए, एक छोटा सा बालक था उसमे, 

और पीछे जाकर खड़ा हो गया, उस औरत के...... 

और फिर पत्थर फिकने बंद हुए, हम खड़े हुए, हाथ नीचे किये, 

और पीछे मुड़े, पीछे देखा, कोई भी नहीं था, 

झाड़-झंखाड़ ही थीं वहां, और कुछ जंगली रमास के पेड़, टूटे-फूटे पत्थर, 

और वो खंडहर से, और कुछ नहीं, जो कुछ भी था, कलुष-मंत्र की जद से बाहर था, मैंने शर्मा जी को वहीं खड़ा किया, 

और खुद आगे गया, अब दुहित्र-मंत्र पढ़ा, नेत्र पोषित किये, और नेत्र खोले! और जो देखा, वो हैरतअंगेज था! वहाँ कोई चार औरतें थीं, 

और कोई बीस-बाइस बालक! कुछ बालिकाएं। लगता था जैसे कोई, विद्यालय हो वो! 

वो सब हमे ही घरे जा रहे थे, मैं आगे बढ़ा, तो एक औरत आगे आ गयी उन बालकों के, उनको आड़ में लिए लिया, 

और अपनी कमर के पास से, एक बड़ा सा चाकू निकाल लिया! ये छोटी सी तलवार ही थी! पीतल का मूठ था उसका, 

और चांदी सी चमक रही थी! तलवार के बीच में, एक फलक पड़ी थी! स्थिति गंभीर थी, 

वो मुझपर, कभी भी वार आकर सकती थी, 

मझे इसी बात का डर था बस! मुझे उनको समझाना था, 

की मैं उनका कोई अहित नहीं करूँगा, इसलिए में आगे बढ़ा, उस औरत ने, वो तलवार आगे की, उठायी, मैं रुक गया, अब मैंने हाथ आगे कर दिए अपने, जोड़ते हुए, ये समर्पण मुद्रा थी, उस ज़माने की, वो जान गयी या नहीं, ये नहीं पता लग रहा था, मैं आगे बढ़ा, थोड़ा सा, वो नहीं हिली, मैं बैठ गया, घुटनों पर, अब वो समझी, तलवार नीचे कर ली, मैं खड़ा हो गया, जो बताना था, वो बता दिया था, इसीलिए मैं आगे बढ़ा, वो भी आगे आई, वे तीन औरतें, अब उन बालों को घेर कर, खड़ी हो गयीं, बालकों के हाथों में पत्थर थे, उस औरत के कहने पर पत्थर गिरा दिए उन बालकों ने अब उन्हें मुझ पर विश्वास हो चला था! 

ये अच्छी बात थी! "कौन हो तुम?" मैंने पूछा, वो नहीं बोली कुछ, बस, अपना पूंघट थामे, मुझे ही देखती रही, "इरो नहीं, मुझे बताओ" मैंने कहा, "तुलसी" वो बोली, तुलसी! बड़ी ही प्यारी और मीठी आवाज़ थी, लगता था, अठारह या उन्नीस की ही रही होगी तुलसी, लेकिन जीवट वाली थी बहत! बालकों के रक्षा करने के लिए, मुस्तैद थी! "ये बालक कौन हैं?" मैंने पूछा, "नेतू के कुनबे के हैं" वो बोली, 

नेतू! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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एक नया किरदार! "तो यहां क्यों छिपे हो तुम सब?" मैंने पूछा, "बाट देख रहे हैं" वो बोली, 

"किसकी बाट?" मैंने पूछा, "माधौ और जगन की" वो बोली, 

ओह! वही माधौ और जगन! कौन हैं ये माधौ और जगन? क्या पेशा है इनका? "क्या करते हैं ये दोनों?" मैंने पूछा, "माधौ सूबेदार है, जगन भैया" वो बोली, 

सूबेदार! अच्छा ! तब तो काफी रसूख रहा होगा उसका! अब और सवाल! ये सूबेदार, क्यों नहीं आया? 

क्या हुआ था उसके साथ? और ये माधौ का कुनबा, यहां क्यों छिपा है? "तुम लोग छिपे हए हो?" मैंने पूछा, "हाँ" वो बोली, "किस से?" मैंने पूछा, "उदयभान से" वो बोली, उदयभान! एक और नया किरदार! "क्या करता है ये उदयभान?" मैंने पूछा, "नायब है" वो बोली, नायब! किसका नायब? "नायब, किसका?" मैंने पूछा, "वसूली का" वो बोला, अच्छा ! कर-वसूल करता। उसका नायब! "तो उसकी दुश्मनी है सूबेदार से?" मैंने पूछा, "हाँ" वो बोली, "किसलिए?" मैंने पूछा, अभी पूछा ही था, की वे औरतें, 

और वे बालक, और वो तुलसी, भाग खड़े हुए। फिर से आवाजें आयीं थीं! इस बार दौड़ते हए घोड़ों की! वे कहाँ गए, पता नहीं! जैसे किसी खोल में छिप गए थे। सर्दी के उस दिन में, गर्मी लगने लगी थी इस तुलसी से बात करके, 

मैं शर्मा जी के पास गया, अब सारी बात बतायी उन्हें, उन्हें भी अचरज हुआ। हो न हो, ये उदयभान, यही है असली दुश्मन! ये रंज रखता होगा उस सूबेदार से, 

और इसी उदयभान ने, जंग छेड़ी होगी सूबेदार से, अब एक मुश्किल और थी, ये किस वक़्त में थे, ये भी पता नहीं था, कहाँ का सूबेदार था, ये भी पता नहीं, वो नायब, कहाँ का कर-वसूलकर्ता था, ये भी ज्ञात नहीं। पहेली, अभी भी घुमावदार थी! अब हम वही रहे, कोई एक घंटा, कोई नहीं आया, 

दो चार बार, घोड़ों की आवाजें सुनी! जैसी अक्सर, भानगढ़ के किले में आती हैं! नारे लगते हैं! सिंघिया की आवाज़ आती है, हंसने की, चलहकदमी करने की! रोने की आवाजें, हंसने की, 

मरने-मारने की! नाच, गायन की, पायल की, 

और चीख-पुकार! चौबीसों घंटे! ऐसा होता है वहां! ऐसी ही आवाज़, घोड़ों की, यहां आई थीं! लगता था जैसे कोई युद्ध हो रहा हो, सेनाएं भाग रही हों, एक दूसरे से लोहा लेने, काटने, मारने! कुछ देर पश्चात, हम नीचे उतरे, 

और सहसा ही, मेरी नज़र एक तरफ पड़ी, बायीं तरफ, वहाँ एक स्त्री थी, वृद्ध सी, रोये जा रही थी, गर्दन हिलाये जा रही थी, छाती पीटे जा रही थी, 

और नीचे बैठ कर, कभी घुटनों पर खड़े होकर, कुछ ढूंढ रही थी! लेकिन क्या? मैंने शर्मा जी को रोका, वे समझ गए, की मैंने कुछ देखा है, मैं आगे चला, बढ़ा उस औरत की तरफ, 

उस औरत ने मुझे देखा, 

और वो जला हुआ उपला, मुझ पर, फेंक मारा! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो हवा में ही, राख बन उड़ गया! वो खड़ी हो गयी! एक डंडी थी उसके पास, मुझे दिखाने लगी। मना करने लगी, की मैं वहाँ न आऊँ, मैं रुका नहीं, 

आगे बढ़ता रहा! "डट जा!" वो चिल्लाई! मैं रुक गया! "अम्मा!" मैंने कहा, 

और चौंकी, कि एक दुश्मन अम्मा कैसे कह रहा है! उसने मुझे, पूरा देखा! पूरे का पूरा! मैं आगे बढ़ चला... "अम्मा?" मैंने पुकारा, वो शांत सी खड़ी रही, काले रंग का घाघरा सा था, जो पहना हुआ था उसने, 

और काले रंग की ही कमीज़ थी, चांदी के भारी भारी ज़ेवर पहने हए थी, चिबुक पर, गोदना था, उम्र कोई पैंसठ के आसपास होगी, उसने अपनी डंडीनीचे कर ली तब, 

और फिर बैठ गयी, 

और मिटटी में कुछ ढूंढने लगी, "क्या ढूंढ रही है अम्मा?" मैंने पूछा, "लोथ, लोथ, लोथ, लोथ" वो कई बार बोली, लोथ? अजीब बात थी! मैं भी साथ जा बैठा! "किसकी लोथ अम्मा?" मैंने पूछा, वो रुकी, अपने पीछे देखा, फिर मुझे देखा, "कानू की" वो बोली, 

और टटोलने लगी मिट्टी फिर से! "कौन कानू अम्मा?" मैंने पूछा, अब देखा उसने मुझे, उसकी आँखें डबडबायीं, 

और रोने लगी! कानू। 

कानू! 

ज़ोर ज़ोर से! छाती पीटने लगी! "अम्मा! अम्मा! ओ अम्मा!" मैंने कहा, "ढूंढ तू भी, लोथ, लोथ!" वो बोली, अपनी बाजू से, अपनी आँखें पोंछते हुए। मैंने वो मिट्टी टटोलने लगा, जानता था, यहां कुछ नहीं है, लेकिन अम्मा की संजीदगी देखते हुए, मैं भी टटोलने लगा, "अम्मा? कौन है ये कानू?" मैंने पूछा, वो फिर से रो पड़ी। मैंने चुप करवाया, सांत्वना सी दी उसे, 

"था! था! मेरा पोता, नौ लड़कों में एक का ही पुत्र था मेरा कानू! मेरा कानू! लोथ! लोथ! काट दिया! काट दिया मेरा कान।" वो बोली, अब दिल दरका मेरा! एक दादी, अपने पोते की लोथ ढूंढ रही थी! राख में से! 

ओह! दिल पसीज उठा मेरा! 

क्या गुजरी होगी अम्मा पर, उस समय! सोच कर ही, पाँव तले ज़मीन धसक गयी, पाताल में जाने वाला था मैं कि, "ढूंढ! ढूंढ बेटे ढूंढ!" वो बोली, मैं भी हाथ चलाने लगा, बरसों पहले, यहीं चिता को अग्नि दी गयी होगी उसकी, तभी से, ये अम्मा लोथ ढूंढ रही है उसकी! अम्मा तो, विक्षिप्त सी लगती थी मुझे, तभी अम्मा की ऊपरी जेब से, एक फली सी गिरी, मैं पहचान गया, ये एक जंगली पेड़ की फली थी, इसको चीरो तो, इसके बीजों के साथ, हरे रंग का गूदा होता है, उसको खाओ, तो मीठा लगता था! मैंने बचपन में बहुत खायी हैं ये फलियां, 

आज भी खा लेता हूँ! इसको जंगल-जलेबी कहा जाता है! 

मैंने वो फली उठायी, तो अम्मा ने छीन ली, "कानू के लिए है ये!" वो बोली, मैं हंस पड़ा! अम्मा जंगल से लायी थी, वो फलियां, अपने कानू के लिए! मेरी आँखों से, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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आंसू बस टपकने ही वाले थी कि, अम्मा ने, अपनी जेब में हाथ डाला, और एक छोटी सी फली निकाली, बड़ी फलियों में से, 

और दे दी मुझे, मैं मुस्कुरा गया मैंने फली छीली, तीन ही बीज थे उसमे, गूदा निकाला, 

और खाने लगा! मीठी थी वो फली! वो दादी, अपने पोते कान के लिए, फलियां लायी थी! फिर अचानक, 

वो उठी, आँखों पर हाथ रख, सामने देखा, जैसे किसी को देख रही हो, 

और चल दी आगे, चलते ही लोप हो गयी! बेचारी! लोथ ढूंढ रही है! रोज आती होगी! न जाने कब से! सोच कर ही, 

दिल में उबाल आने लगे। मैं हट गया उस मिट्टी से, कभी यहां, कानू की चिता जली होगी, आदर आ गया, सम्मान से मैं हट गया वहां से, 

और चल दिया वापिस, अब मैंने, शर्मा जी को सारी बात बतायी, बड़ी हैरत हुई उन्हें! क्या क्या हो रहा था यहां! कोई बड़ी ही घटना हुई होगी, साफ़ लगता था! दिन के दो बज चले थे, हम नीचे की तरफ उतरे, एक झाडी के पास मुझे कुछ दिखा, मैं वहीं गया, उसको उठाया, ये खोपड़ी की हड्डी थी, अब लाल और भूरी हो चुकी थी, शलक अभी भी मौजूद थे, किसी जानवर के, तेज और तीखे, दांतों के निशान, अभी तक बने थे उस पर, उस हड्डी को देखकर, लगता था कि, ये किसी बालक की ही रही होगी, हड्डी में, मोटाई नहीं थी, वो भइ-रेखा नहीं बनी थी, जो सोलह वर्ष से बंनना, 

आरम्भ हो जाती है! ये कोई आठ या दस बरस का ही रहा होगा, मैंने वो हड्डी, 

अपने पास ही रख ली, काम आ सकती थी, कुछ जाना जा सकता था! हम अब नीचे उतरने लगे! 

और फिर से, तलवारें टकराने की आवाजें गूंजी! बिलकुल पास में से ही! 

जैसे कोई लड़ रहा हो वहाँ! वहाँ के पत्थर, लुढ़कने लगे थे, धूल उड़ने लगी थी! मैंने फिर से दुहित्र-मंत्र पढ़ा! नेत्र पोषित किये, 

और नेत्र खोले, कोई नहीं था! अब सब शांत था! कोई नहीं लड़ रहा था! 

यहाँ, 

कोई साधारण व्यक्ति आ जाए, तो निश्चित रूप से, मानसिक रोगी हो जाता! पल पल में, यहां आवाजें आती थीं! जब मैं वहाँ देख रहा था, ऊपर मुझे कुछ दिखाई दिया, एक बुर्जी सी! लेकिन ये पहले तो नहीं थी? अब कहाँ से आई? दिमाग में अलबेटे पड़ने लगे! 

शर्मा जी के नेत्र, 

कलुष से, पोषित करने पड़े, 

वो बुर्जी, अब वो भी देख रहे थे! हम चल पड़े ऊपर, जब ऊपर आये, तो माहौल ही बदला था! एकाएक जैसे जमीन में से, कोई हवेली बाहर आ गयी थी! बहुत शानदार हवेली थी वो! लाल पत्थर से बनी! फूल कढ़े थे दीवारों पर उसकी, दो मंजिला रही होगी! कोई चाहता था कि, हम देखें उसको! दरवाज़ा दिखाई दिया, काफी बड़ा दरवाज़ा, लकड़ी का, रिपिट सी लगी थीं उसमे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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सांकल किसी मोटे बांस सामान थी! दरवाज़े पर, कोई पहरेदार नहीं था! हम अंदर घुसे, फूलों के पुढे थे वहां! लाल-पीले, हरे, सफ़ेद! झूम रहे थे! तितलियाँ दौड़ रही थीं उन पर, 

बड़ी बड़ी तितलियाँ! घास वाली ज़मीन पर, पानी छिड़का गया था। गुग्गल की महक आ रही थी! 

लेकिन कोई था नहीं वहाँ! हम न जाने, कौन से ज़माने में आ चुके थे। स्थापत्य कला, देखकर, लगता था कि जैसे, मालवा और मुग़ल कला का मिश्रण हो! बूटे, पत्ते, बेल, मालवा के ही थे, 

और दीवारों की बनावट, मुग़ल काल की, मिश्रण था उसमे! बुर्जी, मुग़ल कालीन थी, गुंबद भी, 

और जो खम्बे थे, वे मालवा कालीन थे। अजीब सी हवेली थी! एक ऐसी ही गायब होने वाली हवेली, उत्तर प्रदेश में भी है, उसके एक कक्ष में, 

आज भी रक्त भरा रहता है! ये हवेली, कभी कभार ही प्रकट हुआ करती है, एक सड़क से काफी नीचे, उसमे आठ कमरे हैं, 

और इन आठ कमरों में, प्रेतों का ही राज है! यहाँ एक रानी है प्रेतों की, ये सब, भले प्रेत हैं, लोगों की अक्सर, मदद भी करते हैं! 

लेकिन शाप भोग रहे हैं, किसी सिद्ध का! अनंतकाल तक, यहीं रहेंगे ये सब! खैर. हम इस जादुई हवेली में थे, हम अंदर गए, पीले रंग से पुती थीं दीवारें! बेल-बूटे बने थे। बहत शानदार! पच्चीकारी बेहद नायाब थी! नक्काशी का तो कोई जवाब ही नहीं! एक कमरे से, कुछ गाने-बजाने की सी आवाज़ आई, कोई सारंगी सी बज रही थी! इकतारा भी बज रहा था, ध्यान से सुना, 

और बढ़ चले उधर ही! ज्यों ज्यों आगे गए, त्यों त्यों आवाज़ तेज हुई। हम आ गए दरवाज़े के सामने, दरवाज़ा खुला था, कालीन और मसनद तो थे, लेकिन कोई नहीं था वहां! अब गायन भी बंद था! सब शांत था! मायावी था सबकुछ! हम वहीं ठहरे रहे! फिर ऊपर की मंजिल में, तालियों की गड़गड़ाहट हुई! हमने सीढ़ियां ढूंढीं, 

और मिल गयीं, सीढ़ियां चढ़े, 

और उस कक्ष के लिए चले, और जब पहुंचे, तो कुछ नहीं था वहाँ! लगता था, कि, कोई छका रहा था हमे! और तभी चीखें गूंजी! जैसे कत्ल-ओ-गारत मची हो नीचे, 

औरतों की, बालकों की, मर्दो की, चीखें ही चीखें! हम भाग लिए नीचे! 

और जब नीचे आये, तो कुछ नहीं था! हवेली सुनसान थी! 

और तभी उस गलियारे में, कुछ हंसी-ठट्ठा सा हुआ, पायजेब की आवाजें हईं, लेकिन कोई नज़र नहीं आया! दुहित्र से भी छिपा हुआ था! कमाल की बात थी! 

और वे आवाजें, हमारे साथ से, होती हुई गुजर गयीं! कितनी स्त्रियां थीं, 

अंदाजा नहीं लगाया जा सकता था! शायद दो, 

चार, 

या छह? पता नहीं! हमने एक एक कोना ढूंढ मारा, कोई नहीं था वहाँ, 

और तभी वो बुर्जी नीचे गिरी, फिर एक छत, 

और अब भागे हम वहां से, एक एक करके, वो कमरे ढहते चले गए, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और बन गया खंडहर! वर्तमान में आ गयी वो हवेली! ये सब, देखते ही देखते हए था! हमारी आँखों के सामने! अब कोई पढ़ा नहीं फूल वाला, कोई पेड़ नहीं, कोई घास नहीं, बस जंगली झाड़ियाँ, सुखी, कांटेदार! बस! यही रह गया था। भूतकाल की सुंदरता अब, वर्तमान में, कुरूप हो चली थी! लेकिन यही भूतकाल, अपने अंदर बहुत कुछ छिपाए हुए था, वही तो ढूंढना था! 

और वही, हाथ नहीं आ रहा था! 

बहुत मेहनत करनी थी! बहुत कुछ शेष था जानना, भूतकाल के गर्भ में, जो भी छिपा था, बाहर निकालना ही था! अब हम वापिस चले, 

और उतरने लगे। अब कोई नहीं दिखा, 

और नीचे आ गए, 

वे दोनों, 

हमारा ही इंतज़ार कर रहे थे, 

बैठे थे एक जगह, धूप का आनंद ले रहे थे, उन्होंने पोछा, 

तो अब बताया उन्हें, वे तो घबरा गए! बात इतनी बड़ी है, ये नहीं जानते थे वो! पांच बज चुके थे, 

अब थकावट भी हो चली थी, हम चलते चलते, खेतों पर पहुंचे, 

और कोठरे में आ गए, अब मैं तो लेट गया। शर्मा जी भी लेट गए, महेश जी, पानी ले आये, पानी पिया, 

आधा घंटा आराम किया हमने! 

और फिर हम घर के लिए चले, तभी मेरी नज़र, उस पहाड़ी पर पड़ी, वहाँ काला धुंआ निकल रहा था! 

ये सब मात्र, मैं ही देख पा रहा था! मैं देखता रहा! धुंआ और गाढ़ा, 

और गाढ़ा होता गया। अब मैंने शर्मा जी को लिया अपने साथ, उन दोनों को वहीं रोका, 

और चल पड़े वहां की तरफ! 

वहां पहुंचे, शर्मा जी के नेत्र पोषित किये, उन्होंने भी धुंआ देखा, हम बढ़ चले, 

अब धुंधलका हो गया था, लेकिन दिख रहा था अभी सबकुछ! और जब हम पहुंचे! तो सामने क्या देखा! वहाँ चिताएं जल रही थीं। मैंने गिनी, 

ये बारह थीं, हम भागे एक एक चिता के पास, 

ये तो नौजवान थे! सारे कोई बेस-बाइस बरस के जवान! सभी घायल! लेकिन और कोई नहीं था वहां! कोई भी नहीं। ये क्या रहस्य था? क्यों दिखाया गया था हमे? कोई न कोई राज तो था ही! लेकिन क्या राज? रहस्य पर, एक और पर्दा पड़ा। चिताएं जल रही थीं! चटक चटक की आवाजें करती हुईं! हम लौट चले, 

और फिर से आवाजें आयीं! मारकाट की, पीछे देखा, अब कोई चिता नहीं था! बस, निर्जन स्थान था! और कुछ भी नहीं! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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न चिता! नधुआं! कुछ नहीं! बस सन्नाटा! हम चल दिए फिर वापिस, और धीरे धीरे उतरते हए, आ गए नीचे, मित्रगण! यदि आप, कभी भी कोई भी, एक सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, तो ये अशरीरी, आपसे सम्पर्क साधते रहते हैं। आपको प्रलोभन देते हैं, आपके समस्त कार्य पूर्ण करने का दम्भ भरते हैं! शत्रु-निवारण करने के लिए, सदैव तत्पर रहे हैं। चूंकि, आप अब इनसे, संवाद कर सकते हैं इसलिए, उसके बाद, ये आपसे अपने सभी कार्य पूर्ण करने के लिए कहते हैं! ये इस हाथ ले, उस हाथ दे, ऐसा सौदा होता है। ये आपका अहित नहीं करते फिर! मित्र हो जाया करते हैं! 

और अब जो व्यक्ति, इनसे सम्पर्क साध लेता है, उस फिर इस संसार में, कुछ शेष नहीं रहता। ये संसार उसे, मिट्टी समान लगने लगता है! 

उसको विरक्ति हो जाती है। ये भूत-प्रेत आदि सभी आपके साथ, सदैव विचरण किया करते हैं। ये ऐसे ऐसे दृश्य आपको दिखाएँगे, कि आपने वैसे दृश्य, कभी नहीं देखे होंगे! ये, आपको, सभी देवी देवताओं का रूप दिखा देंगे, दानवों का, असुरों का,दैत्यों का, सभी का रूप! 

आपको लगेगा कि वो सामने ही खड़े हैं आपके! ऐसा ही किसा एक चालीस साल के व्यक्ति के साथ हुआ, अभी कोई पंद्रह दिन पहले, ये साहब, सरकारी नौकरी में हैं, लेकिन बहुत परेशान, पत्नी बीमार, लम्बे अर्से से, नौकरी पर आंच आई हुई थी, धन की समस्या, क़र्ज़ चढ़ा हुआ था सर पर, मिले मुझ से, मैंने एक प्रयोग बताया, उन्होंने किया, पांचवें दिन, एक व्यक्ति आया, अपना नाम हरी सिंह बताया, उसने सारी बात पूछी, इन्होंने सारी बात बतायी, उस आदमी ने कहा कि पंद्रह दिन बाद आना, 

और इन पंद्रह दिनों में, पत्नी ठीक! नौकरी बच गयी! क़र्ज़ के लिए पैतृक धन मिल गया, 

कर्ज़ चुका दिया, तरक्क़ी हो गयी, मात्र पंद्रह दिनों में, 

और जब मिलने गए उस व्यक्ति से, तो वो बोला मैं प्रेत हूँ, इस कीकर का, अब वे घबराये, मेरे पास आये, उस प्रेत को अब बावन दिन दावत देनी है, अब दे रहे हैं भाई साहब! उसके बाद वो हरी सिंह, चले जाएंगे, कभी नहीं आएंगे! तो यहां भी वे सब, मुझे ऐसा ही दृश्य दिखा रहे थे! कुछ न कुछ तो था! 

और ये ही पता करना था। खैर, उस शाम आराम किया, 

आज महेश जी के यहां दावत का, इंतज़ाम था! सामिष भोजन बनाया गया था! उसकी तो तरी देखते ही, पेट की चक्की शुरू हो गयी थी चलनी! लाल तरी थी एकदम! मोली, प्याज, टमाटर, खीरे और चुकंदर, इनका सलाद था साथ में! 

और पत्ता गोभी के बारीक लच्छे! काले नमक, मसाला और दही में डूबे हए! मजा बाँध दिया था उन्होंने तो! 

और साथ में, फ़ौज की शराब थी! हरक्यूलिस रम! 

दो बोतल! बस फिर क्या था! हो गए हम तो शुरू! शोरबा लाजवाब था! गाढ़ेपन के लिए, कच्चा पपीता डाला गया था! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और बनाने वाले ने ऐसा बनाया था, कि कटोरा भी चबा लिया जाए। हमने मोटे मोटे गिलास बनाये, 

और पीते चले गए। रम ने काम किया! गर्मी लगी! अब उसका मतलब ही यही है! आर यू एम! अर्थात, रेगुलर यूज़ मी! 

और यही तो कर रहे थे हम। आनंद आ गया! असीम आनंद! हम खाते गए, 

और पीते गए! मजा लेते गए! मदिरा के यौवन का, रसपान करते चले गए। 

और मदिरा के यौवन ने, अपना प्रभाव दिखाया! एक के दो दिखने लगे! 

अब घर चलने का वक़्त था! खाना जम कर खाया था! अब तो, दांत कुरेद रहे थे हम! हम आये घर, 

और ऊपर चले, 

सीधे ही बिस्तर में, छलांग लगा दी, रजाई तानी। और सो गए! सुबह हुई! उस सुबह तो सर्दी ने, युद्ध छेड़ दिया था! कि या तो आज वो नहीं, ये फिर हम इंसान नहीं! भयानक सर्दी थी! किसी तरह से रोज के काम निबटाए, 

और फिर चाय आ गयी! साथ में कचौड़ियां आई थीं, वही खेंच मारी! फिर आराम किया, 

आज तो सूरज निकले ही नहीं थे! दोपहर का समय हुआ, भोजन किया, 

और फिर खेत के लिए निकले, वहाँ पहुंचे, कोठरे में गए, अलाव जलाया उन्होंने, 

और हाथ पाँव तापे हमने! खाल-छीला ठंड थी उस रोज! उस दिन कुछ नहीं हुआ, ठंड बहुत थी, 

तो हम पहाड़ी पर भी नहीं गए, वो दिन ऐसे ही काटा हमने, रात को, भोजन किया, मदिरा से दो दो हाथ किये, 

और सो गए! अगला दिन आया, 

आज मौसम साफ़ था! सूरज भी निकले थे। भोजन करने के पश्चात, हम खेतों के लिए निकले, 

और फिर वहां से, उस पहाड़ी के लिए, वहाँ पहुंचे, आज कोई बुर्जी नहीं थी वहां! फिर एक जगह बैठे, 

ये पत्थर ही थे, वहीं बैठ गए थे, जंगली छिपकलियां, धूप ले रही थीं, पत्थरों से उठता ताप, अपने पेट से ले रही थीं! तभी मेरी नज़र सामने पड़ी, ये एक हड्डी सी थी, मैं उठा, सामने गया, 

और उठायी, ये भी किसी के, सर की हड्डी ही थी, मैंने उलट-पुलट के देखा! एक बात तो तय थी, यहां अवश्य ही कुछ हआ था, कोई भयानक रक्तपात, अभी तक तो यही पता चल रहा था, लेकिन सूत्र कोई नहीं मिला था, यहाँ प्रेत तो बस रहे थे, लेकिन उनसे भी कोई मदद नहीं मिली थी, वे इंतज़ार कर रहे थे, किसी का, 

उन दोनों का, 

माधौ और जगन का, जो बेचारे कभी आये ही नहीं थे वापिस! उनके साथ क्या हुआ था? ये भी तो नहीं पता चलता था? 

और जो पता चला था, वो शायद, किसी कड़ी के बीच का हिस्सा था, 


   
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