"आइये" एक ने कहा,
मैंने उसको देखा!
वो मुस्कुरा रहा था!
लेकिन वहाँ हसन कहीं नहीं था!
"आ जाइये सामने, ठीक सामने!" मुझे एक आवाज़ आयी! ये हसन की आवाज थी! हम आगे बढ़े, शर्मा जी का मैंने हाथ थाम रखा था!
"हाँ आते रहिये!" वो आवाज़ आयी, ये आवाज़ आज वहाँ बने एक झोंपड़े में से आयी थी!
हम झोंपड़े के सामने आ गए!
'आ जाइये अंदर!" हसन ने कहा,
हम अंदर घुस गए!
सामने हसन बैठा था!
हम अंदर घुसे, सामने टाट और फूस पर हसन बैठा था! वो हमे देख मुस्कुराया!
"आइये बैठें आप दोनों" उसने कहा,
हम दोनों बैठ गए!
"ये मेरे साथी है हसन!" मैंने शर्मा जी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा,
"जानता हूँ" वो बोला,
"आज तो कई हैं यहाँ पर!" मैंने कहा,
"ये ख़ैरमक़दम है बाबा का!" वो बोला,
'अच्छा!" मैंने कहा,
"कल उनकी आमद होगी" वो बोला,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"वो सीधा यहीं आयेंगे!" वो बोला,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"हाँ, यहीं आयेंगे, बरसों गुजर गए" वो बोला,
"बरसों?" मैंने अचरज से पूछा,
"हाँ, बरसों!" वो बोला,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"हम सभी उनके इंतज़ार में हैं" वो बोला,
"अच्छा! हाँ हसन, आपने आज बुलाया था हमे" मैंने कहा,
"हाँ" उसने कहा,
और एक थैला खोलने लगा,
फिर थैले में से चांदी का एक ताबीज़ सा निकाला, और मेरे हाथ में दे दिया,
"ये लो! बाबा की मजार में गाड़ देना!" हसन ने कहा,
मैंने ताबीज़ देखा, छोटा सा गोल ताबीज़ था! लेकिन वजन में भारी था!
"इसे वहीँ रख देना" वो बोला,
"ज़रूर!" मैंने कहा,
"मैंने आपको बुलाया था, इसलिए कि कल बाबा यहाँ पहुँच जायेंगे, मैं आपको मिलवाऊंगा उनसे!" हसन ने कहा,
"ये मेरा असीम सौभाग्य होगा हसन!" मैंने कहा,
"और सुनिये, मैं हमेशा अपने बाबा की ख़िदमत करूँगा वहीँ, मैं वहीँ रहूँगा हमेशा के लिए, उस परिवार को बाबा का सबाब हमेशा मिलता रहेगा!" हसन ने कहा,
"इस से अधिक और कुछ नहीं मांग सकता मैं!" मैंने कहा,
फिर उसने झोला बाँध लिया और अपने घुटने के नीचे रख लिया!
"पानी पियेंगे आप?" उसने पूछा,
"हाँ, ज़रूर" मैंने कहा,
उसने तब एक को आवाज़ दी, क़ासिम नाम लेकर, क़ासिम आ गया, लड़का सा था वो, अधिक आयु नहीं थी उसकी! क़ासिम ने हमको छक कर पानी पिला दिया! जैसा मैंने पहले भी कहा था, वो पानी जादुई था, सारी थकावट और चिंताएं हरने वाला!
"ठीक है हसन, अब हम चलेंगे!" मैंने कहा,
"ठीक है" वो कहते हुए खड़ा हुआ!
अब हम बाहर निकले!
बाहर सभी मुस्तैद खड़े थे! सभी के सभी! सभी ख़िदमतगार!
हसन हमको आया छोड़ने एक जगह तक! फिर हम नीचे उतर गए!
नीचे उतरते ही शर्मा जी वहीं बैठ गए एक पत्थर पर!
"क्या हुआ शर्मा जी?" मैंने पूछा,
"इस संसार में ये कैसी माया है?" वे बोले,
मैं मुस्कुराया!
"कैसी माया?" मैंने पूछा,
"हम इंसानों ने कैसे अपने आप को बाँट लिया है, तबक़ों में, और यहाँ देखो, कोई तबक़ा नहीं, बस इंसानियत! रूहानियत!" वे बोले,
"उसने किसी को नहीं बांटा! हमने बांटा और इसका खामियाजा भी भुगता और आज तक भुगत रहे हैं!" मैंने कहा,
"सही कहा आपने!" वे बोले,
"अब उठिए, बहुत काम बाकी है!" मैंने कहा,
वो हौले से उठे!
"कोई यक़ीन नहीं करेगा, कोई भी नहीं!" वे बोले,
"किसी को बताने की आवश्यकता ही नहीं!" मैंने कहा, मुस्कुराते हुए!
"हाँ, क्यों बताया जाए! समझ गया!" वे बोले,
"शर्मा जी! ये दुनिया तमाशबीन है! यहाँ सब तमाशा देखते हैं, चाहे मेरे घर का हो या आपके घर का! इंसानियत का हाथ सिर्फ इंसान बढ़ाते हैं या फिर वो इंसान जो इस से रु-ब-रु हो चुके हों! और किसी में वो बूता नहीं!" मैंने कहा,
"एकदम सटीक कहा आपने! किसी में बूता नहीं!" वे बोले.
अब हम कार तक आये और बैठ गए!
थोड़ी देर अपने अपने में खोये रहे!
'अब चलें?" मैंने कहा,
"हाँ जी!" वे बोले,
और अब कार स्टार्ट हुई!
हम चल पड़े वापिस घर की और, मैं हाथ में रखे उस ताबीज़ पर नज़रें गढ़ाए रहा!
हम वापिस आ गए घर! शर्मा जी को जैसे हसन के संपर्क से कुछ अधिक ही लगाव हो गया, वे खो गए थे वहाँ, मंत्रमुग्ध से! यहाँ, घर आकर भी वहीँ खोये हुए थे!
"क्या बात है? विचलित हैं आप?" मैंने पूछा,
"हाँ, थोड़ा विचलित हूँ" वे बोले,
"क्यों?" मैंने पूछा,
"आप ही देखिये, न जाने कितने बरसों से हसन इंतज़ार कर रहा है बाबा का! निःस्वार्थ और कितना खुश भी है, ऐसी सेवकाई नहीं देखी मैंने कभी!" वे बोले,
"हाँ, ये तो है" मैंने कहा,
"कितना भोला और शांत है वो हसन" वे बोले,
"ये बाबा के सान्निध्य का प्रभाव है" मैंने कहा,
'और वे सभी मुरीद! आ गए यहाँ!" वे बोले,
"हाँ, अपने मुर्शिद के ख़ैरमक़दम के लिए!" मैंने कहा,
"कैसा प्रेम है ये!" वे बोले,
"निश्चल प्रेम!" मैंने कहा,
"सही में" वे बोले,
"कल मैं फिर चलूँगा!" वे बोले,
"ज़रूर!" मैंने कहा,
"ख़ैरमक़दम करने!" वे बोले,
"हाँ! ज़रूर!" मैंने कहा,
"वो ताबीज़ दिखाइये तो?" उन्होंने कहा,
मैंने जेब से निकालकर वो ताबीज़ उन्हें दे दिया,
उन्होंने ले लिया, उलट-पलट के देखा उन्होंने!
"ये बाबा ने दिया होगा हसन को!" वे बोले,
"सम्भव है" मैंने कहा,
"सैफ़ुद्दीन बाबा!" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा,
उन्होंने अब ताबीज़ मुझे दे दिया!
मैंने फिर उसे अपने बैग में सम्भाल कर रख दिया, उसको निर्माण के समय मजार में गाड़ना था!
"गुरु जी?" उन्होंने कहा,
"बोलिये?" वे बोले,
"ये मेरा सैभाग्य है कि मैं आपके सान्निध्य में हूँ!" वे बोले,
"कैसी बात करते हैं आप, ये मैं था जिसने आपकसे पूछा था मेरे पास आने के लिए!" मैंने कहा,
"आप कुछ भी कहें!" वे बोले,
"चलो मानी!" मैंने बात ही ख़तम की!
तभी महेंद्र साहब आ गए! खाना लाये थे! हसन में तो हम ऐसे उलझे कि खाना भी खाना है ये भूल गए!
खैर, खाना खाया हमने!
और फिर हम सोने चले गए!
नींद नहीं आ सकी रात को! टुकड़ों में ही आयी! कभी इस करवट और कभी उस करवट! शर्मा जी का भी यही हाल था!
सुबह जल्दी ही उठ गए!
नित्य-कर्मों से फारिग हुए और सीधे मजार पर गए, वहाँ अचरज हुआ, महेंद्र साहब साफ़-सफाई कर रहे थे! पेड़ों की जो पत्तियाँ गिर गयीं थीं, उन्हें उठा रहे थे! मैंने और शर्मा जी ने भी उनकी मदद की!
"महेद्र साहब!" मैंने कहा,
"जी बोलिये?" वे बोले,
"आज का दिन ख़ास है, आज बाबा की आमद है!" मैंने कहा,
"ये आपके साथ मेरा भी सौभाग्य है गुरु जी, सब आपके कारण हुआ ऐसा, नहीं तो न जाने क्या क्या पाप कर बैठते हम अनजाने में!" वे बोले,
"आपने वक़्त पर बुला लिया हमे! अच्छा हुआ!" मैंने कहा,
"सब उसके हाथ में है!" उन्होंने ऊपर ऊँगली करते हुए कहा,
"अच्छा, एक काम और है" मैंने कहा,
"जी कहिये?" वे बोले,
"आज कुछ सामान लाना है बाज़ार से" मैंने कहा,
"साथ ही चलते हैं, खाना खा लीजिये फिर चलते हैं" वे बोले,
"ठीक है" मैंने कहा,
साफ़-सफाई हो गयी! हम हट गए वहाँ से!
चाय-नाश्ता लग चुका था सो चाय-नाश्ता किया!
उसके बाद, दोपहर हुई!
खाना खाया, और चले बाज़ार हम!
बाज़ार पहुंचे, वहाँ मैंने फूल, गुलाब की अगरबत्तियां आदि सामान ले लिया! कल इनका काम था!
वहाँ से वापिस आ गए फिर हम!
समय काटे नहीं कट रहा था! सच में, एक एक पल ऐसे गुजर रहा था जैसे साल पीछे जा रहे हों! बड़े बेसब्र थे हम!
मित्रगण!
बड़े बेसब्र और बेचैन होकर किसी तरह से शाम हाथ आयी! अब रात का इंतज़ार था! वो कहीं दूर थी अभी! नज़रें दूर क्षितिज पर टिकी हुईं थीं! कब सूरज महाराज नीचे जाएँ अस्तांचल में और कब रात क़ैद से छूटे! जबतक सूरज महाराज प्रहरी बनकर खगोल में मौजूद थे तब तक क़ैद से न छूट सकती थी रात!
खैर!
रात भी छूट गयी क़ैद से! टटाटेरी पक्षी विचरण करने लगे आकाश में! ये सूचक था कि रात घिर चुकी है! अब पहले मैंने और फिर शर्मा जी ने स्नान किया और वस्त्र पहने, इत्र लगाया और कुछ अमल पढ़े! फिर सामान उठाया और अब चल पड़े! गाड़ी अपनी ही ली थी, शर्मा जी ने स्टार्ट की और हम निकल पड़े वहाँ, टीले के लिए!
वहाँ पहुंचे!
"मैंने सबकुछ एक बार सही से जांचा, सब ठीक था!
"तैयार हो?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वे बोले,
"ठीक है!" मैंने कहा,
और जैसे ही हम आगे बढ़े, वहाँ टीले से एक दूधिया सा प्रकाश फूटा! चकाचौंध कर देने वाला प्रकाश! आँखें अपनी रौशनी खो ही बैठतीं अगर अमल से जड़ी न गयी होती तो!
"लगता है आमद हो गयी!" मैंने कहा,
"लगता है" वे बोले,
और अब हम आगे बढ़े!
ऊपर अलाव जलते दिखायी दिए! आज एक नहीं काफी अलाव थे वहाँ!
हम चल पड़े ऊपर!
और ऊपर!
और ऊपर!
और मुहाने तक आ गए!
हमने मुहाना पार किया! और ऊपर आये! आज तो वहाँ और मुरीद भी थे! कम से कम चालीस तो रहे होंगे ही, जहां तक मुझे ज्ञात है! वो टीला जगमग था अलाव की रौशनी से! सफ़ेद दूधिया प्रकाश फैला हुआ था! पेड़ और झाड़ियाँ भी जगमग थीं! दुनिया के लिए वहाँ घोर अँधेरा था लेकिन हमारे लिए वहाँ एक नया सा संसार मौजूद था! एक अविश्वसनीय संसार! उन मुरीदों ने मुझे देखा! फिर शर्मा जी को!
"चले आइये!" आवाज़ आयी!
दूर से, शायद टीले के मध्य में से!
ये हसन की ही आवाज़ थी!
हम चल पड़े उसकी आवाज़ की तरफ!
मुरीद लोग खड़े थे वहाँ, वे हमे रास्ता देते गए! आज वहाँ खस और गुलाब की भीनी भीनी खुश्बू थी!
"आते जाइये!" फिर से आवाज़ आयी!
हम आगे बढ़ते गये!
आज वहाँ कालीन सा बिछा था! ये शायद जिन्नात ने डाला होगा, वे ही होते हैं कालीनों के शौक़ीन! पीर बाबाओं के ये जिन्नात मुरीद हो जाया करते हैं, उनकी नेकदिली से, हिंदुस्तान में ऐसी कई मजार मौजूद हैं जहां आज भी कई जिन्नात ख़िदमत कर रहे हैं! और कई ऐसी भी हैं जो दूर कहीं बेहद में हैं, जिनका कोई अता-पता नहीं, जंगलों में, सुनसान में, कई मजार ऐसी भी हैं जो नेस्तानबूद कर दी गयी हैं इस आधुनिकता द्वारा, जहां बाबा अभी तक लौटे नहीं हैं, लेकिन लौटेंगे ज़रूर! एक न एक दिन! जैसे कि यहाँ हुआ था!
हम आगे बढ़े!
सामने एक कालीन पर हसन बैठा था! साथ में कुछ सामान सा भी रखा था, एक थाल और उसमे रखा कुछ सामान! मैंने अपने साथ लाया सामान उसको दे दिया, उसने लिए और थाल में रख दिया!
"आइये, बैठिये!" वो बोला,
हम शुक्रिया कर बैठ गए वहाँ!
मैंने और शर्मा जी ने चारों ओर देखा, आज तो वहाँ जलसे का सा माहौल था!
"पानी पियेंगे आप?" हसन ने पूछा,
"जी..जी हाँ" शर्मा जी ने कहा,
"अभी लीजिये" हसन ने कहा,
उसने आवाज़ लगाईं, वही लड़का भागता हुआ आया, हसन ने उसको पानी लाने को कहा, वो दौड़ता हुआ गया और अगले ही पल हमारे सामने खड़ा था वो लड़का! पानी लिए!
"लीजिये!" हसन ने कहा,
अब उस लड़के ने हम दोनों को ओख से पानी पिलाया, सारी थकावट हर ली उस पानी ने! ये सच में ही जादुई था! एक करिश्मा! जो हमने स्वयं अपनी आँखों से देखा था और जिसको हमने अपने गले के नीचे उतारा भी था!
"हसन?" मैंने कहा,
"जी, कहिये?" उसने कहा,
"बाबा आ गए?" मैंने पूछा,
"चंद लम्हों में मेरे मालिक यहाँ पहुँचने वाले हैं!" हसन ने कहा,
"अच्छा!" मैंने उत्सुकता से कहा!
उसने एक छोटा सा झोला निकाला, उसमे से मीठी खील और बताशे निकाले, और मुझे और शर्मा जी को दिए, हमने हाथ बढ़ा कर ले लिए, सच कहता हूँ, वो स्वाद हमे आज भी याद है! क्या कहूं उस स्वाद को, कोई नाम नहीं है उसका!!
और तभी वहाँ आसमान से जैसे चार फ़रिश्ते से उतरे! फ़रिश्ते! हाँ, फ़रिश्ते से ही थे वे, वे भी जिन्नात थे, चमकीले कपड़े पहने और सर पर साफ़ा पहने, हरे रंग का! उनको देख हसन खड़ा हुआ, हसन खड़ा हुआ तो हम भी हो गए! माहौल संजीदा हो गया वहाँ अब!
हसन ने मेरे कंधे पर थाप सी दी, कहा कुछ नहीं, उसका इशारा मैं समझ गया था! बाबा की आमद बस होने ही वाली थी!
और दो चार लम्हों के बाद वहाँ एक बुज़ुर्ग प्रकट हुए! उनका क़द कोई साढ़े पांच फीट ही होगा, छोटे छोटे बाल, सफ़ेद रंग के, एकदम सफ़ेद, एक लम्बा सा कुरता पहने और नीचे तहमद था, हाँ तहमद ही था, हाथ में एक लोटा भी था, सुराहीदार सा लोटा! गोरा चेहरा था उनका! चेहरे पर दिव्यता झलक रही थी! एक दम शांत! मुस्कुराता हुआ चेहरा! मैं कभी नहीं भूल सकता उनका चेहरा! बाबा सैफ़ुद्दीन का वो चेहरा! उनको वहाँ प्रकट देख सभी ने अपने सर झुका लिए, हमने भी सर झुकाये, हाँ, हम दोनों ने हाथ भी जोड़े थे उनके!
हसन दौड़ता हुआ उनके पास गया! बाबा ने उसके माथे को छुआ और फिर गले से लगा लिया! हसन जैसे समां सा गया बाबा में, फिर कुट लम्हों के बाद हटा वो और हमे देखा! हमको बुलाया!
हम तो जैसे ज़मीन में धंस गए थे! पाँव पकड़ लिए थे ज़मीन ने हमारे! फिर भी किसी तरह हम पहॅंचे वहाँ, हाथ जोड़े, आंसूं न जाने कहाँ से आकर आँखों में मेहमान बन गए हमारे! बिन बुलाये मेहमान!
अब हसन ने हमारे बारे में बताया उनको, शुरू से लेकर आखिर तक! आज तक कि कैसे हम लालायित थे उनका दीदार करने को! और हमारा लाया हुआ सामान भी दिखाया उनको! अब बाबा मुस्कुराये! उनके मुस्कुराते ही जैसे हम सबाब में नहाये! लेकिन शब्द मुंह में अटक गए! बाहर ही न निकले! बहुत कोशिश की लेकिन ज़ुबान ने जैसे ज़िद पकड़ ली!
"बाबा, आपकी जगह साफ़ है अब बिलकुल!" हसन ने कहा,
उन्होंने हसन को देखा,
गौर से,
फिर मुस्कुराये!
अब बाबा ने फिर हमारे माथे पर हाथ रखा! सच कहता हूँ मित्रगण! मैं एबहुत साधना की है, साधना समय एक सुकून आ कर घेर लेता है साधक को, लेकिन ये सब लगातार और निरंतर साधना करने से होता है, ऐसा सुकून मिलता है, और यहाँ! यहाँ तो उनके हाथ रखने से ही सारा और कई साधनाओं का सुकून मेरे और शर्मा जी के शरीर में भर गया!
"आइये इधर!" हसन ने बाबा से कहा,
बाबा ने देखा, वो हसन का झोंपड़ा था!
बाबा चल पड़े उधर के लिए!
साथ में हसन भी!
हम जैसे स्तब्ध हो खड़े से रह गए वहाँ!
बाबा अंदर घुसे,
"आप भी आइये!" हसन ने कहा,
सांस जैसे लौट आयी दुबारा हमारे सीने में!
हम भी अंदर चल पड़े!
बाबा वहीँ बैठ गए और हम खड़े रहे!
जस के तस!
इस दुनिया से बेखबर! दुनिया तो छोड़िये मित्रगण, अपने आप से बेखबर!
हम झोंपड़े में खड़े थे, बाबा बैठ चुके थे, उनकी दिव्यता फूट फूट कर हमारे शरीर से टकरा रही थी! जलाल क्या होता है इसका पता चलता था! उस समय, जैसे समय रुक गया था! वक़्त को जीतने वाले बाबा हमारे सामने प्रत्यक्ष थे, यक़ीन करना जैसे नामुमक़िन था लकिन हो सब रहा था! और इस समय के खंड में हम दो, दो इंसान वहाँ मौजूद थे! जहां
किसी की नहीं चलती, उनके सामने हम खड़े थे! नसों में बहता खून बस कब जम जाए इसका कोई पता नहीं! दिल की धड़कन कब साथ छोड़ दे, कुछ पता नहीं! अपने आपे से बाहर थे हम!
"बैठ जाइये आप!" हसन ने कहा,
हम गुलामों की तरह से बैठ गये वहाँ!
बाबा आँखें बंद किये बैठे थे, कुछ नहीं बोल रहे थे, बस हसन की ही आवाज़ गूंजती थी वहाँ! दिव्यता का ऐसा आलम था कि वहाँ जैसे हमको किसी ने उठकर ज़मीन से अलग कहीं और अलहैदा बिठा दिया गया हो!
"आप, सुनिये" हसन ने कहा,
मैंने गर्दन घुमाई हसन की तरफ!
"आप कल से काम कीजिये शुरू!" हसन ने कहा,
मैं समझ गया!
"ज़रूर हसन!" मैंने कहा,
"अब हम चलेंगे!"
हसन ने कहा,
और अगले ही पल मैं और शर्मा जी उस टीले पर अकेले ही रह गए! बियाबान और सुनसान! रात को गीत गाते झींगुर और मंझीरे! बस उन्ही की आवाज़ें! ऊपर से ताकता चाँद और उसके संग तारे! हम हतप्रभ रह गए, हम घास-फूस पर बैठे थे! न कोई झींपड़ा था, न कि कालीन और न ही कोई अन्य मुरीद! वे कहाँ चले गए, कुछ पता नहीं! हाँ, वो घड़ा भी नहीं! कुछ नहीं, घुप्प अँधेरा! अलाव भी गायब और वो दूधिया रौशनी भी गायब!
हम दोनों जैसे अवाक थे!
उठे, खड़े हुए!
जो हुआ था उस पर यक़ीन नहीं हुआ! लेकिन बाबा का दीदार हो गया था यही क्या कम था!
"ये क्या हुआ?" शर्मा जी ने हैरत से पूछा!
"चले गये वे सब!" मैंने कहा,
"कहाँ?" उन्होंने पूछा,
"आरामगाह!" मैंने कहा,
"वो कहाँ?" उन्होंने फिर पूछा,
"होगी कहीं, जिन्नाती!" मैंने कहा,
"ओह!" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा,
"अब कब?" उन्होंने पूछा,
"जब वो बुलाएंगे, जब उनका आदेश होगा!" मैंने कहा,
'अच्छा!" वे बोले,
"शर्मा जी, हसन ने कुछ कहा है, कहा है न?" मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
"क्या?' मैंने पूछा,
"काम शुरू करना है" वे बोले,
"कौन सा काम?" मैंने पूछा,
"मजार का काम" वे बोले,
उन पर अमल का असर साफ़ दीख रहा था, वो केवल नाम के ही शर्मा जी थे, वैसे नहीं!
"तो फिर चलिए" मैंने कहा,
उन्होंने फिर से आसपास देखा! कोई था ही नहीं!
"चलिए" मैंने फिर से कहा,
"मेरा मन नहीं कर रहा जाने का" वे बोले,
"जाना तो पड़ेगा ही!" मैंने कहा,
चुप हो गए वो!
"चलो अब" मैंने कहा,
वे तैयार हुए अब, बुझे हुए मन से!
हम नीचे चलने के लिए जैसे ही उतरे, तभी हसन की आवाज़ आयी, "ठहरिये!"
हम एकदम से ठिठक गए!
रुक गये!
वैसे के वैसे ही!
"आइये वापिस" हसन ने कहा,
हम वापिस हुए!
आमने सामने आये!
"आप काम शुरू करवाइये, मैं आपको इत्तला कर दूंगा बाबा के आने की" हसन ने कहा,
हमने शुक्रिया कहा!
"आप नेक इंसान हैं!" हसन ने कहा,
हम तो जैसे धन्य हो गए!
"वो ताबीज़ उसमे गाड़ देना, जो मैंने दिया था आपको" वो बोला,
''ज़रूर!" मैंने कहा,
"अब मैं चलूँगा, आपके लिए ही आया था, ख़िदमत का वक़्त है!" उसने कहा,
"हाँ, ज़रूर!" मैंने कहा,
और वो पल में ही लोप हुआ!
"चलिए शर्मा जी अब!" मैंने कहा,
"हाँ! चलिए!" वे बोले,
और हम चले अब नीचे के रास्ते पर!
"काम बहुत है" शर्मा जी बोले,
"हाँ, काम बहुत है!" मैंने कहा,
फिर हम नीचे उतर गए!
गाड़ी तक आये और गाड़ी में बैठ गए, घड़ी में समय देखा, रात के दो बज चुके थे!
हैरत हुई!
बहुत हैरत!
"अब चलिए!" मैंने कहा,
गाड़ी स्टार्ट हुई और हम धीरे धीरे आगे चल पड़े!
लेकिन नज़रें वहीँ थीं हमारी, उसी टीले पर!
मन! वहीं था बाबा के पास!
उनके आसपास ही!
हम घर पहुंचे! बेसुध से, घर में बाहर की लाइट जल रही थी, वजह थी कि हम बाहर थे अभी, हमने गाड़ी लगायी वहाँ घर के सामने ही और दरवाज़ा खोल लिया, फिर अंदर से बंद कर दिया, तब मुख्य दरवाज़े की घंटी बजायी, महेंद्र साहब आ गए, वे जागे हुए थे, बहुत उत्सुक! लगता था उन्हें भी नींद नहीं आयी थी सारी बीती रात! हम अंदर आ गए, सीधा अपने कमरे में गए! हमारे साथ महेंद्र साहब भी आ गए, अब शर्मा जी ने सारी बात उन्हें बता दी, उनका सर बाबा के सम्मान में झुक गया और उन्होंने आँखें बंद कर हाथ जोड़े!
"ठीक है गुरु जी, आप सोइए अब!" वे बोले, खड़े होते हुए,
"ठीक है महेंद्र साहब!" मैंने कहा,
और वे चले गये!
अब रह गए मैं और शर्मा जी!
आँखों में नींद कहाँ!