मैंने चारो ओर देखा, वहाँ न तो कोई आ रहा था और न कोई जा रहा था! फिर कहाँ से आ रहे हैं!
मैंने अपने मन में ही प्रश्न किया!
"खिदमत कर के" उसने कहा, जैसे उसने मेरा सवाल जान लिया हो!
खिदमत करके! ओह अब मैं समझ गया! वो मालिक है, अर्थात् बाबा सैफुद्दीन आ रहे हैं खिदमत करके यहाँ और ये सेवक है उनका, जो उनके स्वागत के लिए आया है! अब समझ गया मैं!
सांस टूटी, देख टूटी! फिर न लगी! समय पूरा हो गया उसका!
अब मैं समझ गया, यहाँ एक सेवक है, जिसके सरपरस्त हैं बाबा सैफ़ुद्दीन जो आ रहे हैं खिदमत करके! इस स्थान पर आ रहे हैं, जहां महेंद्र का घर है! गुलाब रखे जा रहे हैं रास्ते पर! चीथड़े उठा के फेंके जा रहे हैं! सफाई हो रही है!सब समझ गया मैं अब!
मैंने देख बंद की अब! और अब सारी बात बता दी शर्मा जी को, स्थिति बड़ी गंभीर थी, बाबा सैफ़ुद्दीन आने वाले थे, लेकिन कब ये था असल में सवाल! हसन ने भी नहीं बताया था, और हाँ, हसन उनका सेवक था, बाबा के बारे में सब जानता था, मुझे इस बात का तो संतोष था कि वो गुस्से में नहीं था, क्रोधित नहीं था, नहीं तो बाबा न जाने क्या कहर बरपाते वहाँ! बस, इसी कहर के बारे में मैं सोच कर घबराया हुआ था, पीर, सैय्यद और नौ-गजा, इनके मामले में ऐसा ही होता है, रजु हुए तो वारे-न्यारे, खफा हुए तो समझो पूरी वंश-बेल पर श्राप सा लग गया, कभी नहीं उभर सकते! तंत्र-जगत इनका मान-सम्मान करता है और कभी आड़े नहीं आता उनके, वे सदैव सम्मान के पात्र हैं, और रहेंगे! कोई भी तांत्रिक, अघोरी इनका अपमान नहीं करता, बस यही भय था मेरे मन में कहीं छिपा हुआ! और इसी का निदान करना था!
मैंने उस रात एक क्रिया करने की सोची, मैंने नौ दिए मंगवाए थे, मैंने नौ दिए जलाये, और एक एक दिए के पास एक एक फूल रख दिया और फिर लोहबान सुलगा दिया, अब उसके बाद मैंने गैन-इल्म पढ़ा, इस इल्म से उनका सम्मान बढ़ाया जाता है, और यही मैंने किया था, उसके बाद मैंने क़ाफ़-इल्म पढ़ा और उस से सभी फूलों को दम कर दिया और अब क्रिया आरम्भ हुई, ये क्रिया दूसरी अन्य क्रियायों से हटकर होती है, इसकी विधि भी अलग है और क्रिया-शैली भी अलग! पीर बाबाओं के लिए यही किया जाता है! कोई भी
कभी भी रहमानी या सुलेमानी इल्म का इस्तेमाल नहीं करे, नहीं तो जीवन में कभी ख़ुशी का मुंह नहीं देख सकेगा वो! बस एक छड़ी! हाँ, एक छड़ी पड़ी और खुशियों की थैली फट जायेगी! और जैसे बूरा बोरे में से रिस जाता है ऐसे एक एक ख़ुशी रिस जायेगी! ख़ुशी ढूंढें नहीं मिलेगी, कभी जीवन में कोई कारण ही नहीं बनेगा ख़ुशी का! काम-धंधा, व्यापार, दुकान, मकान, मैदान सब बेजान हो जायेंगे! और 'कोई' कुछ नहीं कर सकेगा, कभी भी! जब ते ये खुद माफ़ न कर दें! यही डर था मुझे बस!
मैंने क़ाफ़-इल्म पढ़ा था सो मैंने वहाँ उनके स्थान को सम्मान दिया और मन ही मन बाबा सैफ़ुद्दीन को सजदा किया! फिर खड़ा हो सजदा किया! और फिर वहाँ से बाहर आ गया! अब मुझे वो दिए नौ जगह घर में रखने थे, सो मैंने शर्मा जी और महेंद्र साहब को बुलवा कर वो दिए वहाँ रखवा दिए! और अब मैं फिर से कमरे में आ गया! वहाँ एक जगह फूल इकट्ठे किये और नीचे घर में आया, उनको हाथ में रखा एक ख़ास मंत्र पढ़ा और अब घर में चक्कर लगाया, पूरा घर छाना और घे के एक पश्चिमी हिस्से की दीवार के पास, पीछे, जाकर वो फूल गिर गए अपने आप मेरे हाथ से! मैंने सजदा किया वहाँ, यही वो स्थान था जहां बाबा सैफ़ुद्दीन की मजार थी!
अब मैंने शर्मा जी को बुलाया, महेंद्र साहब को बताया, वे भी हैरान रह गए! अब मैंने उस स्थान को निशान लगा दिया काजल से, सुबह इस स्थान की साफ़-सफाई करनी थी!
हम वापिस कमरे में आ गए!
अब शर्मा जी ने पूछा, "वही स्थान है न बाबा का?"
"हाँ शर्मा जी, वही स्थान है!" मैंने कहा,
"बहुत बढ़िया हुआ ये तो!" वे बोले,
"हाँ शर्मा जी" मैंने कहा,
अब महेंद्र जी भी संयत हो चुके थे, उनका डर निकल गया था!
"अब कोई समस्या तो नहीं गुरु जी?" उन्होंने पूछा,
"नहीं अब कोई समस्या नहीं होनी चाहिए" मैंने कहा,
"आपका बहुत बहुत धन्यवाद गुरु जी, आपने बचा लिया!" वे बोले,
'ऐसी कोई बात नहीं है, बाबा जागृत हैं, आने वाले हैं, उनकी कृपा मिल जाए तो बस धन्य हुए सब!" मैंने कहा,
"हाँ जी, ये सही कहा आपने" शर्मा जी ने कहा,
"अब मैं कल देखूंगा, देख लड़ाउंगा" मैंने कहा,
"जी गुरु जी" महेंद्र जी बोले,
अब समय काफी हो चुका था, सो अब सोने का समय था! और करीब बारह बजे के आसपास हम सो गए!
सुबह उठे, नित्य-कर्मों से फारिग हुए, और फिर चाय नाश्ता हुआ, किया और फिर बाहर निकले, मैं उसी स्थान पर गया, वहाँ फूल अभी भी पड़े थे, एकदम ताजा! ये सही चिन्ह था! कम से कम अब तक तो!
उसके बाद हम लोग घूमने चले गए, बाहर, मेरा मक़सद वो जगह देखना था, और जब हम बाहर गए तब पता चला कि ये कभी कोई उजड़ा हुआ सा गाँव रहा होगा किसी ज़माने में, वहाँ अब निर्माण-कार्य चल रहा था, मकान बन रहे थे, निर्माण का सामान वहाँ बिखरा पढ़ा था सड़क पर!
"शर्मा जी, किसी समय ये गाँव आबाद रहा होगा" मैंने कहा,
"हाँ जी" वे बोले,
"और ये बाबा यही होंगे उस समय" मैंने कहा,
यक़ीनन" वे बोले,
"ऐसी बहुत सी मजार हैं जो आज भी दबी हुई हैं, कुछ तोड़-फोड़ दी गयीं, ये है आधुनिकता का प्रमाण! ये अपमान है इनका! इसीलिए लोगों को नफा नहीं होता, नुक्सान होता है और दोष जगह को देते हैं, मकान को देते हैं!" मैंने कहा,
"हाँ जी, ये सच है" वे बोले,
हम काफी आगे निकल गए और सहसा मेरे सामने एक टीला सा आ गया! वही टीला! वही जो मुझे हसन ने दिखाया था! वहाँ एक झोंपड़ा था, हाँ, यही देखा था मैंने, मैं अब आगे बढ़ा!
'शर्मा जी मेरे साथ आइये!" मैंने कहा,
"चलिए"
और हम चल पड़े उस टीले की ओर!
ये वही टीला था, वही, मुझे यक़ीन था!
हम टीले की तरफ बढे, टीला अच्छा खासा ऊंचा था, चढ़ने की कोई जगह नहीं थी, बस पेड़ों को पकड़ कर ही चढ़ा जा सकता था, सो वही किया, बड़ी मुश्किल से हम ऊपर चढ़े! वहाँ अब झोंपड़े का नामोनिशान भी बाकी न था, लेकिन उस पर बने कुछ निशान ऐसे थे कि पता चलता था कि वहाँ कोई न कोई अवश्य ही रहता होगा! ये हसन का झोंपड़ा था और इस झोंपड़े से, महेंद्र साहब का घर कोई एक चौथाई किलोमीटर हो होगा, देखा तो पता लगा, ये सीधा सा रास्ता था, हसन उनका सेवक था, रहता यहाँ था! सूत्र मिल गया था और अब केवल इंतज़ार था बाबा के वापिस आने का! हम फिर वहाँ से नीचे सम्भल कर उतर गए और अब सीधे घर की राह पकड़ी!
घर पहुंचे, और मैं सीधा पहुंचा उस स्थान पर जहां मैंने फूल रखे थे, फूल जस के तस थे, अभी भी ताजा! खुश्बू बरक़रार थी अभी तक! मैं फिर शर्मा जी के साथ ऊपर के कक्ष में आ गया, शर्मा जी को बाहर भेज दिया, महेंद्र साहब भी बाहर चले गए! अब वहाँ आ कर मैंने अपना छोटा बैग उठाया, उसमे से काजल निकाला, और फिर ज़मीन साफ़ करके वहाँ नौ बिंदियाँ लगा दीं, मैंने देख लड़ानी थी, इसीलिए!
अब मैंने वो डंडी, बबूल की और वो केंचुली उन बिंदियों पर रखी और फिर एक मंत्र पढ़ा! सांस थामी, नेत्र बंद किये, फिर से मस्तिष्क के रास्ते तस्वीरें उछलती हुई मेरी पलकों पर आ गयीं! मैं उसी झोंपड़े के पास खड़ा था और हसन भी वहीँ था, मुस्कुराता हुआ!
"आ गए?'' उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"आ जाओ" उसने कहा,
अब मैं चल पड़ा उसके साथ!
टीला वही था!
बस फ़र्क़ इतना कि अब वहाँ एक पगडण्डी थी ऊपर चढ़ने के लिए! हसन ऊपर चढ़ा और मैं उसके पीछे हुआ, तभी सांस टूटी, देख बंद हुई, मैंने फिर से मंत्र पढ़ा और सांस थामी, देख लड़ी, मैं उसके पीछे चलता चला गया, ऊपर आया, वही झोंपड़ा था वहाँ, दो घड़े रखे थे वहाँ, साथ में एक लोटा, एक घड़े के ऊपर!
"पानी पियोगे?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
ऊपर चढ़ने में सांस फूल गयी थी मेरी! हसन को तो रोज की आदत थी! उसका दम नहीं फूला था क़तई भी!
उसने घड़े में से लोटे में पानी डाला, और ओख से मुझे पीने को कहा, मैंने ओख से पानी पिया, पानी जैसे जादुई था, सारी थकावट हर ली उसने! मैंने पानी पी लिया तो हसन को शक्रिया कहा! वो मुस्कुराया!
तभी सांस टूटी, देख हटी, मैंने फिर से मंत्र पढ़ा और देख लड़ी!
"आओ, अंदर बैठते हैं" हसन ने कहा,
हसन अंदर गया झोंपड़े में, मैं उसके पीछे गया, अंदर एक टाट बिछा था, वो उस पर बैठा और मैं भी बैठ गया!
"आप को आना था, मैं जानता था" हसन ने कहा,
ये सुन हैरत हुई मुझे!
"आपने बाबा के मजार पर फूल चढ़ा दिए, बाबा बेहद प्रसन्न होंगे और मैं तो हूँ ही!" वो बोला,
"ये मेरा सौभाग्य है हसन!" मैंने कहा,
वो मुस्कुराया!
बेहद शांत और शालीन था हसन! सीधा-साधा!
"एक बात कहूंगा मैं" हसन ने कहा,
तभी मेरी सांस टूट गयी, देख हट गयी!
मैंने फिर से मंत्र पढ़ा और देख लड़ाई,
"हाँ हसन, कहिये?" मैंने कहा,
"वहाँ हवा नहीं है" वो बोला,
"मैं समझ गया!" मैंने कहा,
"बेहतर रहेगा!" उसने मुस्कुराते हुए कहा!
अब मैं उठा वहाँ से, हसन भी उठा,
जाने से पहले मैंने पानी पिलाने की गुजारिश की, हसन ने फ़ौरन ही घड़े में से पानी लोटे में डालकर मुझे दे दिया, मैं ओख से सारा पानी पी गया!
और तभी मेरी सांस टूटी, देख बंद हुई! मैंने फिर से प्रयास किया लेकिन वक़्त पूरा हो गया था देख का!
मेरी आँखें खुलीं, मैंने अपना हाथ देखा, मेरे हाथ के रोओं पर अभी भी पानी लगा था, वो मैंने अपने माथे से लगा लिया!
उठा और बाहर आ गया,
मुझे बाहर आते देख शर्मा जी आ गए वहाँ!
"कुछ पता चला?" उन्होंने पूछा,
अब मैंने उनको सारी बात बता दी,
वह हवा नहीं है, इसका मतलब मजार दफ़न है वहाँ, वो निकालनी है! ये बात मैंने महेंद्र साहब को भी बता दी, वो वहाँ मजार निकलवाने के लिए सहर्ष तैयार हो गए! और वे तभी के तभी मजदूर लेने चले गए!
करीब एक घंटे के बाद वे मजदूर लेकर आ गए, मैंने निशानदेही की वहाँ और खुदाई आरम्भ करवाई, कोई डेढ़ घंटे के बाद वहाँ एक पत्थर का सा चबूतरा निकल आया, ये देख मजदूर डरे तो, लेकिन मैंने समझा बुझा दिया उनको, वे फिर से लग गए, और करीब दो घंटे के बाद ज़मीन में तीन फीट नीचे एक साढ़े पांच फीट की मजार निकल आयी! बाबा सैफ़ुद्दीन की मजार! वो न जाने कब से दबी पड़ी थी यहाँ और जिसकी देख रेख यहाँ वो उनका सेवक हसन कर रहा था! मजार बेहद मजबूत पत्थर की थी, उसमे उर्दू और अरबी
में कुछ लिखा हुआ था, पत्थर में खुदा हुआ, अभी पढ़ा नहीं जा सकता था उसको, वहाँ मिट्टी घुसी हुई थी! अब मैंने काम रुकवा दिया, और मजदूरों का हिसाब-किताब करवाकर उनको भेज दिया! और अब इस मजार की साफ़-सफाई करनी थी! हम तीनों को मिलकर!
अब हमने वहाँ की साफ़-सफाई करनी शुरू की, तसले भर भर के मिट्टी उठायी वहाँ से! किसी बुज़ुर्ग की सेवा निःस्वार्थ की जाती है, और यही हमने किया! करीब दो घंटे में पानी से धो धो कर हमने मजार साफ़ कर दी! बाबा का नाम लिखा दिखायी दिया वहाँ, ये पत्थर यहाँ किसी ने लगवाया होगा यहाँ और कुछ अनमोल आयतें उस पर खुदी थीं! ऐसा करने से जैसे हमको पुण्य का संचरण होने का सा आभास हुआ! ताजा लाये गुलाब वहाँ रख दिए गए और बड़ा सा दिया वहाँ प्रज्ज्वलित कर दिया! उस समय बहुत मेहनत कर ली थी, अब थकावट ने आ घेरा!
मैं अपने कमरे में जा बैठा शर्मा जी के साथ, वहाँ हाथ-मुंह धोये और फिर खाना आ गया, हमने भोजन किया फिर! और उसके बाद आराम करने के लिए सो गए हम!
बहुत बढ़िया और लम्बी नींद आयी उस दिन हमे! हम करीब पांच घंटे सोये, खुलके!
नींद खुली तो उठ बैठे!
"सब कुछ सही निबट गया गुरु जी" शर्मा जी बोले,
"हाँ, निबट गया!" मैंने कहा,
"अब क्या काम शेष है?" उन्होंने पूछा,
"इंतज़ार! बाबा का इंतज़ार!" मैंने कहा,
"ओह! और उनका पता आप हसन से पूछोगे?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, अब सबसे पहले यही पूछूंगा" मैंने कहा,
"कब लगाएंगे आप देख?" उन्होंने पूछा,
"आज रात या फिर कल सुबह" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
उसके बाद हम उठे और नीचे आये, नीचे हमको महेंद्र साहब मिल गए, उनके साथ अब हम शहर की ओर चले! वहाँ तो ऐसा कोई स्थान था नहीं जहां घूमा-फिरा जा सके, और घर में समय काटे नहीं कट रहा था!
हम शहर आ पहुंचे, मैं अब कुछ खरीदारी की वहाँ से, वे कुछ खाया-पिया वहाँ और फिर हम वहाँ से वापिस हुए, अँधेरा हो चुका था, सो आराम आराम से हम घर की ओर चल पड़े!
घर पर आये तो एक खबर मिली हमको! मजार के पास दो सांप देखे गए थे, पीले रंग के, वे वहीँ बैठे हुए थे! मैं और शर्मा जी फ़ौरन ही वहाँ दौड़े, और उस ओर आये, वहाँ सच में ही दो बड़े बड़े पीले-मटमैले से सांप बैठे थे! मैंने उनके पास तक गया, वे शांत बैठे थे, एकदम शांत! जैसे पत्थर के बने हों! मैंने देखा वे पैंताने की तरफ बैठे थे, सांप पहले भी आया था घर में और अब ये दो और आ गए थे! इन साँपों का इस मजार के साथ कोई लेना-देना अवश्य ही था! खैर, मैंने किसी तरह उनको कपडे और एक लाठी की सहायता से एक बोरे में भर लिया और फिर उनको छोड़ने चल दिए, दूर खाली स्थान में! घर में सांप का आना घर के सदस्यों के लिए खतरनाक था! एक खाली स्थान मिला, जंगल सा, मैंने वहीँ बोरा खोल दिया और सांप छोड़ दिए, वे सांप वहाँ बोरे में से निकल गए, लेकिन भागे नहीं, वे शांत ही बैठे रहे!
"ये सांप कहाँ से आ गए?" महेंद्र साहब ने पूछा,
"पहले जो आया था, मैंने सोचा कि शायद आसपास जंगली क्षेत्र से आ गया होगा, लेकिन अब उनका मजार पर आना ये सिद्ध करता है कि इन साँपों का इस मजार से कोई लेना देना अवश्य ही है!" मैंने कहा,
लेकिन मेरा उत्तर सुनकर घबरा गए महेंद्र साहब! लाजमी भी था!
"आप घबराएं नहीं, इसका भी समाधान अवश्य ही हो जाएगा" मैंने कहा,
मैंने अपने चारों ओर नज़र दौड़ायी, खाली निर्जन स्थान, दूर दूर तक कोई आबादी नहीं! बस इक्का-दुक्का वाहनों का प्रकाश कभी कभार दिखायी दे जाता वहाँ!
"अब चलिए" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
और हम निकल पड़े वहाँ से!
जब हम रास्ते में आ रहे थे, तो मुझे उसी टीले पर कोई अलाव सा जलता दिखायी दिया, मैंने शर्मा जी और महेंद्र साहब को दिखायी दिया तो उन्हें कुछ नहीं दिखा! मैं समझ गया, कि इसका क्या अर्थ है!
"एक काम कीजिये महेंद्र साहब!" मैंने कहा,
"जी, कहिये?" उन्होंने पूछा, गाड़ी रोकते हुए,
"उस टीले के पास चलिए" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
और ज़मीन को नापती वाहन की रौशनी में हम वहाँ की ओर चल पड़े!
वहाँ पहुंचे!
"आप लोग यहीं ठहरिये, मैं आता हूँ अभी" मैंने कहा,
और मैं अब ऊपर के लिए चल पड़ा, चांदनी रात खिली हुई थी, प्रकाश इतना तो था ही कि रास्ता दिख जाए, मैं एक एक कदम बढ़ाता हुए ऊपर चढ़ने लगा!
पहुँच गया ऊपर!
वहाँ जो मैंने देखा वो हैरत में डालने वाला था! एक अलाव जल रहा था, ज़मीन से ठीक कोई आधा फीट ऊपर! पीला रंग! चटख पीला!
"आइये" मुझे किसी की आवाज़ आयी,
मैंने अपने दायें-बाएं देखा, आवाज़ जानी-पहचानी सी थी, तभी दिमाग ने बताया कि ये हसन की आवाज़ है!
"कहाँ हो हसन?" मैंने पूछा,
"बढ़ते आइये आगे" आवाज़ आयी उसकी!
मैं आगे बढ़ता गया!
सामने एक पेड़ था, कीकर का! मुझे कोई बैठा हुआ दिखायी दिया वहाँ, अलाव की रौशनी पड़ रही थी उस पर! मैं आगे बढ़ा और देखा वहाँ हसन था! और हसन के साथ वहाँ पीले रंग के असंख्य सांप थे, ज़मीन पर बैठे हुए!
मैं थम गया!
"आ जाइये" उनसे बुलाया,
मैं साँपों को टापता आगे बढ़ चला!
और हसन के पास आ गया!
वहाँ एक थाली रखी थी, कुछ फूल थे उसमे और शायद बताशे भी!
"बैठिये" हसन ने कहा!
मैं बैठ गया!
टाट बिछा था, मैं भी बैठ गया! जैसे मैंने बताया था कि हसन बेहद शालीन व्यक्तित्व वाला व्यक्ति था, उसकी बातों से ही संभ्यता और शालीनता अपने आप झलकती थी!
"और सुनाएँ!" उसने कहा,
"बस ठीक हसन!" मैंने कहा,
"वो सांप! है न?" उसने कहा,
"हाँ, उन्हें ही छोड़ने गया था" मैंने कहा,
"हाँ, जानता हूँ" वो बोला,
"वो मजार पर आये थे" मैंने कहा,
"जानता हूँ, बाबा सैफ़ुद्दीन की मजार पर सांप अक्सर आया करते थे पनाह लेने" हसन ने बताया,
"पनाह लेने?" मैंने पूछा,
"हाँ, जब भी इनकी जान का जोखिम होता था तो वे आ जाया करते थे" उसने कहा,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"हाँ" वो बोला,
तभी उसने थाली में हाथ मारा, उसमे मीठी खील और बताशे थे, उसने एक मुट्ठी मुझे दिया,
"लीजिये, खाइये" उसने कहा,
मैंने खाना शुरू किया! मोटी मोटी खील और ताजा बने बताशे! ऐसा ही लगा! ताजा खांड का सा स्वाद और खुश्बू!
"हसन?" मैंने कहा,
"कुछ पूछना चाहते हैं?" उसने पूछा,
"हाँ हसन" मैंने कहा,
"यही न कि बाबा कब आयेंगे यहाँ?" उसने मुस्कुराते हुए कहा,
"हाँ हसन" मैंने भी मुस्कुराते हुए कहा,
"मेरे पास खबर है, बाबा तीन रोज बाद यहाँ आ जायेंगे" हसन ने कहा,
"तीन रोज बाद?" मैंने पूछा,
"हाँ, तीन रोज बाद!" वो बोला,
और हसन आपके पास खबर है, वो कैसे?" मैंने पूछा,
हालांकि मुझे पूछना नहीं चाहिए था!
"एक हसन नहीं है बाबा के पास!" उसने कहा,
अब मैं खटाक से समझ गया! क्या लहजा था हसन के कहने का! मैं तो उसकी मीठी ज़ुबान, और अल्फ़ाज़ों का जैसे क़ायल हो गया!
"हसन मुझे पता है, बहुत वक़्त गुजर गया होगा यहाँ, तुम एक बार मजार आ कर देख लो" मैंने कहा,
"मैं हमेशा वहीँ था, हमेशा! जब आपने मजार साफ की तब भी, और जब निकाली तब भी! और हमेशा ही रहूँगा!" हसन ने कहा,
"जानता हूँ हसन मैं!" मैंने कहा,
उसने मुझे देखा और मुस्कुराया!
"दो रोज बाद यहाँ आना आप" उसने कहा,
"ज़रूर! ज़रूर आउंगा मैं!" मैंने कहा,
अब मैं उठा,
वो भी उठा!
"अब मैं चलूँगा!" मैंने कहा
अनुभव क्र. ६७ भाग २
By Suhas Matondkar on Saturday, September 20, 2014 at 9:05pm
"हाँ, ठीक है" उसने कहा,
"लेकिन हसन एक बात कहना चाहता हूँ" मैंने कहा,
"सांप नहीं आयें वहाँ यही न!" वो फिर से मुस्कुरा के बोला,
"हाँ हसन!" मैंने कहा,
"नहीं आयेंगे" उसने कहा,
"ठीक है हसन!" मैंने कहा,
और मैं अब चला वापिस, और देखिये, साँपों ने जगह बना दी अपने आप! मैं चल पड़ा वापिस, मैंने पीछे देखा, हसन वहीँ बैठा था, मुझे हो देख रहा था मुस्कुराते हुए, मैंने अपना एक हाथ उठाया तो उसने भी एक हाथ उठाया, और इसके बाद मैं नीचे उतर आया सावधानी से!
नीचे आकर मुझे वक़्त का एहसास हुआ! पूरे तीन घंटे बीत चुके थे! और जब मैं हसन के साथ था तब मुझे लगा कि महज बीस-पच्चीस मिनट की ही बात होगी ये! महेंद्र साहब तो गाड़ी में ऊंघ रहे थे, शर्मा जी जागे हुए थे, मुझे देख संयत से हुए! और मैं तब गाड़ी में आ बैठा, उनके साथ पीछे, तब महेंद्र साहब भी जाग गए! उन्होंने घड़ी देखी तो हैरान रह गए!
"बाबा से मुलाक़ात हुई गुरु जी?" शर्मा जी ने पूछा,
"नहीं शर्मा जी, बाबा तीन रोज बाद वहाँ आयेंगे" मैंने कहा,
"अच्छा! हसन ने बताया?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, हसन ने कहा तीन रोज के बाद बाबा आयेंगे यहाँ" मैंने कहा,
"ये तो सौभाग्य की बात है!" वे हाथ जोड़ते हुए बोले,
"हाँ, निःसंदेह ये सौभाग्य की बात है!" मैंने कहा,
"महेंद्र साहब! आप क़िस्मत के धनी हो, जो बाबा का स्थान आपके घर में है! बाबा की चिरागी करना, कभी टूटने न देना, कोशिश करना कभी न टूटे, आपके घर में कभी कोई दुःख प्रवेश नहीं करेगा! बाबा कुछ नहीं मांगते! बस आप निःस्वार्थ उनकी सेवा करते जाना, आप की पूरी की पूरी वंश-लता फलती-फूलती चली जायेगी बाबा के आशीर्वाद से!" शर्मा जी ने महेंद्र साहब को कहा!
महेंद्र साहब ने भी हाथ जोड़ कर बाबा का नमन किया!
और फिर गाड़ी स्टार्ट कर हम चल पड़े वापिस, घर की ओर!
घर पहुंचे, अब बस सोने की ही क़सर थी, अपने अपने बिस्तर पर गिर गए हम और लम्बी तान ले, सो गए! सुबह उठे, अलसाये हुए से, नित्य-कर्मों से फारिग हुए और फिर मैं और शर्मा जी चले नीचे मजार की तरफ, वहाँ पहुंचे, पेड़ों की पत्तियां गिर चुकी थीं वहाँ सो झाड़ू लाकर वहाँ साफ़-सफाई कर दी, दिया अभी भी टिमटिमा रहा था, सो और तेल डाला हमने! लगता था बाबा यहीं आराम कर रहे हैं जैसे कोई बुज़ुर्ग सोये हुए हों! दिल को एक अलग सा सुकून मिलता है सेवकाई करने में भी, करने वाला ही जाने! हसन को ही लो, न जाने कब से निःस्वार्थ सेवकाई किये जा रहा है! उसने तो अपना नाम पंजीकृत करवा ही लिया है बाबा के सरंक्षण में! साफ़-सफाई पूरी हुई तो वहाँ से चले, अंदर आये, चाय-नाश्ता लग चुका था, सो चाय-नाश्ता किया! और फिर मैं और शर्मा जी वहाँ से उठे और अपने कमरे में चले गए!
"गुरु जी, परसों से मेरे दिमाग में एक बात है" वे बोले,
"पूछिए?" मैंने कहा,
"क्या वही है ये ख़िदमत जैसा मैं समझ रहा हूँ?" उन्होंने पूछा,
मैंने गौर से सुना!
"हाँ, वही है ये!" मैंने कहा,
"ओह! अच्छा!" वे बोले,
"कल बुलाया है मुझे हसन ने!" मैंने कहा,
"हाँ, आपने बताया था" वे बोले,
"हसन कुछ बतायेगा, मुझे लगता है" मैंने कहा,
"अच्छा" वे बोले,
"मैं बाबा को साक्षात देखना चाहता हूँ शर्मा जी!" मैंने कहा,
"क्या मैं देख सकता हूँ?" उन्होंने पूछा,
"ज़रूर! क्यों नहीं!" मैंने कहा,
"मैं भी सबाब से नहा जाऊँगा गुरु जी आपके कारण!" वे बोले, याचना के से स्वर में!
"ज़रूर! मैं ले चलूँगा आपको" मैंने कहा,
अब मुझे शर्मा जी को भी ले जाना था वहाँ! इसके लिए उनको सशक्त करना आवश्यक था! इसके लिए अब मैंने कुछ रुक्के बनाये और कुछ इल्मों का इस्तेमाल किया, इस से उनकी देह और नेत्र इस क़ाबिल हो जाते कि वो उनके तेज और ऊर्जा से अपनी रक्षा कर सकें! ये सब आतशी हुआ करते हैं, आतिश हमेशा इनके आसपास मौजूद रहती है! यही वजह है कि ऐसा करना आवश्यक था! और मैंने ऐसा ही किया, कुछ ताबीज़ बनाये, दो गले में और दो उनकी बाजुओं में बाँध दिए और कुछ अमल फूंक दिया, फिर उनको एक रुक्का दे दिया पढ़ने को, उसको उन्होंने एक सीमा तक पढ़ते रहना था! इस से वे इस क़ाबिल हो जाने वाले थे!
उन्होंने ऐसा ही किया!
वो दिन किसी तरह बेचैनी से काट दिया!
अगले दिन...
सुबह नित्य-कर्मों से फारिग हुए, फिर मजार की साफ़-सफाई की हम तीनों ने! पानी से साफ़ किया, महेंद्र साहब ने खुद कहा कि वो इसका जीर्णोद्धार करवाएंगे, नए सिरे से! मुझे बहुत ख़ुशी हुई! बहुत ख़ुशी!
उस दिन हमने मजार के जीर्णोद्धार के लिए सामान की फेहरिस्त बनाई, और फिर सामान लेने भी चल पड़े, वहाँ बहुत सामान था, उस क्षेत्र का विकास हो रहा था तो बिल्डिंग-मटेरियल की कोई कमी नहीं थी, सारा सामान लिखवा दिया हमने एक जानकार को,
उसने कह दिया कि जब चाहो तब वो मजदूर और राज-मिस्त्री और दूसरा सामान भेज देगा! ये भी ठीक हुआ! अब तक सब सही निबटा रहा था!
और मित्रगण, वो दिन भी हमने बेसब्री और बेचैनी से काट दिया! शर्मा जी ने वो रुक्का पढ़ लिया था अपनी सीमा तक और फिर उसको कंटस्थ भी कर लिया था!
और फिर आया अगला दिन!
हम सभी उत्सुक थे! आज दो दिन बीत गये थे और आज मुझे हसन के कहे अनुसार उसके टीले पर जाना था, साथ में मेरे आज शर्मा जी भी जाने वाले थे!
बेसब्री बाँध तोड़ने वाली थी! बड़ी मुश्किल से दोपहर बीती और फिर संध्या ने चेहरा दिखाया! सब्र हुआ कि रात्रि भी आने ही वाली है, और फिर एक एक पल गिनते गिनते काटते काटते आखिर रात्रि आ गयी!
हम अब गाड़ी ले भागे उस टीले की तरफ! गहन अन्धकार था! हम पहुंचे वहाँ, मुझे टीले पर फिर से अलाव पजरता हुआ दिखायी दिया! हसन वहीँ था!
"अलाव दिखा आपको?" मैंने पूछा शर्मा जी से!
"हाँ! वहाँ है, वो!" उन्होंने इशारा करके कहा,
"यही मुझे उस दिन दिखा था!" मैंने कहा,
''अच्छा!" वे बोले,
हम आगे बढ़े!
झाड़-झंखाड़ और पेड़ों के बीच से रास्ता बनाते हुए हम ऊपर पहुँचने ही वाले थे! रास्ते में पड़े कंकड़ों और पत्थरों से कभी कभी टकरा जाते थे हम दोनों ही!
"बस, थोडा सा आगे ही है" मैंने कहा,
''चलिए" हाँफते हुए शर्मा जी बोले,
और हम ऊपर आ गए!
ऊपर आये तो वहाँ का तो मंजर ही बदल चुका था! वहाँ आज कम से कम बीस और कद्दावर लोग खड़े थे! मुझे पता चल गया कि वे सभी जिन्न हैं! जिनात की एक ख़ास जमात!