वर्ष २०१२ जिला जयपु...
 
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वर्ष २०१२ जिला जयपुर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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गर्मियों की शुरुआत हो चुकी थी, सुबह शाम गर्मी की आहट आने लगी थी! उस शाम मैं और शर्मा जी और उनके एक जानकार मेरे स्थान पर बैठे थे, माहौल वही खाने पीने का था, ये जानकार महेंद्र साहब जिला जयपुर से आये थे, उनके साथ, उनके घर में कोई समस्या थी, जिसका हल नहीं मिल पा रहा था उनको, उन्होंने कई जगह इसको दिखवाया भी था, कोई दो लोग घर में आये भी थे लेकिन खाली हाथ ही गए थे! उनके घर में अजीब अजीब घटनाएं हो रही थीं, जैसे कि वे लोग कभी घर में फूल बिखरे देखते थे, कभी फटे हुए चीथड़े और कभी कभी लौंग बिखरी हुई फर्श और बिस्तर पर! हाँ, किसी को अभी तक चोट नहीं पहुंची थी, मेरे परिचय उनसे शर्मा जी ने करवा दिया था सो अब मैंने उनसे प्रश्न पूछने आरम्भ किये,

"ऐसा पहली बार कब हुआ था?" मैंने पूछा,

"जो कोई छह महीने बीत गए" वे बोले,

"अच्छा, घर आपका पुश्तैनी है?" मैंने पूछा,

"नहीं जी, पिछले साल पिताजी का देहांत हुआ था, हिस्सा-बाँट हुई तो जो मुझे पैसे मिले मैंने ये घर खरीदा था" वे बोले,

"तो मकान पिछले साल लिया था?" मैंने पूछा,

"हाँ जी" वे बोले,

"घर में और कौन कौन है आपके?" मैंने पूछा,

"जी एक बड़ी लड़की है सुमन, और उस से छोटा एक लड़का है अजय, और मेरी धर्मपत्नी मीना" वे बोले,

"बेटा-बेटी पढ़ रहे हैं अभी?" मैंने पूछा,

"हाँ जी, बेटी ने बी.एड. किया है, अब एम.एड. कर रही है और साथ ही साथ एक पब्लिक स्कूल में पढ़ा भी रही है, अपना खर्च निकाल लेती है" वे बोले,

"और बेटा?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जी वो अभी पढ़ रहा है, आखिरी वर्ष है उसका" वे बोले,

'अच्छा" मैंने कहा,

और फिर हमने एक एक पैग खींचा,

"सबसे पहली बार क्या हुआ था?" मैंने पूछा,

"जी सबसे पहली बार मेरी पत्नी ने रसोईघर के पास गुलाब के नौ फूल देखे थे, न तो कोई घर में फूल लाया था और न ही ऐसा कोई आयोजन अथवा पूजा ही थी घर में कि फूल लाये जाएँ, सभी से पूछा, लेकिन किसी ने भी ये नहीं बताया कि कोई फूल लाया था घर में" वे बोले,

"फूल कैसे थे?'' मैंने पूछा,

"जी गुलाब के" वे बोले,

"नहीं, वो तो आपने बताया, मैंने पूछा, सूखे हुए थे अथवा ताजा थे?" मैंने पूछा,

"ताजा थे" वे बोले,

"अच्छा, बिखरे पड़े थे या ऐसे रखे थे जैसे संजो के रखे हों?" मैंने पूछा,

"जी बिखरे पड़े थे, जैसे किसी ने फेंके हों" वे बोले,

"अच्छा!" मैंने कहा,

"और फिर दूसरी बार?" मैंने पूछा,

"जी दूसरी बार मेरी बेटी ने बताया था कि उसके बिस्तर पर लौंग बिखरी हुई थीं, मैंने भी देखा था, कुल लौंग इक्कीस थीं" वे बोले,

"अच्छा, कहीं ऐसा तो नहीं किसी की शरारत हो ये?" मैंने पूछा,

"जी नहीं, ऐसा नहीं लगता क्योंकि घर में किसी का आना-जाना है नहीं, हाँ बेटे के दोस्त आते हैं लेकिन वो ऐसा क्यों करेंगे और जबकि बेटी अपने कमरे में ताला लगा के जाती है" वे बोले,

"हाँ, ये भी बात है" मैंने कहा,

"जी" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर से बना हुआ पैग खींचा हमने,

"क्या घर में कोई डरा या चुंका हो, ऐसा कुछ हुआ?" मैंने पूछा,

"नहीं जी, ऐसा कभी नहीं हुआ" वे बोले,

"कभी किसी को कुछ दिखायी दिया हो?" मैंने पूछा,

"नहीं जी" वे बोले,

मैंने कुछ सोचा!

"आप क्या करते हैं?" मैंने पूछा,

"जी मैं सरकारी नौकरी पर हूँ" वे बोले,

'अच्छा" मैंने कहा,

मैंने पहले सोचा था कोई व्यवसाय में दुश्मनी निभा रहा हो, कुछ कर दिया हो, लेकिन उनके जवाब से ये शुबहा भी खारिज हो गया!

"किसी से कोई शत्रुता आदि तो नहीं, भूमि, धन आदि को लेकर?" मैंने पूछा,

"नहीं जी, हम सीधे सच्चे आदमी हैं, किसी से कोई लेना देना नहीं, दान-पुण्य करने वाले हैं जी हम, हमारी किसी से कोई समस्या नहीं" वे बोले,

समस्या वाक़ई अजीब ही थी!

"आपने बताया था कि आपने दो आदमी घर पर बुलाये थे इसी समस्या के लिए उन्होंने क्या बताया?" मैंने पूछा,

"जी एक बाबा जी है, नाम है बड़े बाबा, उनको मैं लाया था घर पर, उन्होंने वहाँ पूजा-हवं किया लेकिन फिर भी कुछ नहीं हुआ, उसी रात को फटे हुए चीथड़े पूरे घर में बिखरे हुए मिले" वे बोले,

"ते तो घबराने वाली बात है!" मैंने कहा,

"हाँ जी, इस से हम बहुत डर गए थे" वे बोले

"उन्होंने कुछ बताया?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"नहीं जी, बस इतना बोले कि पितृ-दोष है, हमने शांति भी करवा दी, लेकिन सिलसिला नहीं रुका" वे बोले,

"अच्छा, और दूसरा कौन आया था?" मैंने पूछा,

"जी वो अजमेर से आये थे, मेरे जानकार के जानकार हैं, उन्होंने वहाँ कुछ कीलें गाडीं, लेकिन उस से भी कुछ नहीं हुआ" वे बोले,

"कुछ बताया ऊन्होने?" मैंने पूछा,

"यही कि कोई काला-जादू कर रहा है घर पर, कौन कही वो, ये पता नहीं चल पा रहा" वे बोले,

"काला-जादू!" मैंने कहा,

"हाँ जी" वे बोले,

अब हमने एक और पैग लिया,

तभी मेरा फ़ोन बजा, ये मेरे एक जानकार का ही था, मैंने बातें कीं और फ़ोन काट दिया,

"अच्छा महेंद्र साहब, एक बात और बताइये, क्या बेटी या बेटा, इनके स्वभाव में कोई अंतर दिखा है आपको?" मैंने पूछा,

"नहीं जी" वे बोले,

एक और शक़ खारिज!

अगर कोई कर रहा होता तो उन दोनों को ये पता चल सकता था, लेकिन पता नहीं चल सका, इसका अर्थ हुआ कि कोई नहीं कर रहा, अवश्य ही उस घर में ऐसी कोई बात है, कोई राज है ऐसा जो छिपा हुआ है, लेकिन क्या राज?

और ये राज बिन वहाँ जाए खुल नहीं सकता था!

और तभी महेंद्र साहब का फ़ोन बजा, उन्होंने फ़ोन उठाया और बात की, वे चौंक पड़े, लगता था कोई घटना घट गयी है वहाँ, जब उन्होंने बात ख़तम की तो मैंने पूछा, "क्या हुआ घर में? सब कुशल-मंगल?"


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ जी, वैसे तो ठीक है, लेकिन पत्नी ने बताया कि जब वो अभी बाथरूम में गयीं तो वहाँ एक सांप बैठा हुआ था, कुंडली मारे, काला नाग, कुछ लोग बुलाये हैं उन्होंने अब, सांप पकड़ने के लिए" वे बोले,

"सांप घुस आया?" मैंने हैरत से पूछा,

"हांजी, सांप घुस आया" वे बोले,

"आसपास जंगली क्षेत्र है क्या?" मैंने पूछा,

हाँ जी, पहाड़ियां हैं" वे बोले,

"हो सकता है आ गया हो कहीं से" मैंने कहा,

"हाँ जी" वे बोले,

फिर हम बतियाते रहे, आराम से अपने अपने पैग खींचते रहे और फिर मैंने उनको कह दिया कि हम वहाँ स्वयं आएंगे देखने के लिए, शनिवार को, और उस दिन बुधवार था, उन्होंने मेरा धन्यवाद किया! और फिर वे शर्मा जी के साथ रात को वापिस चले गए, और मैं सोच में डूब गया!

 

महेंद्र साहब अगले दिन अपने शहर के लिए कूच कर गए, जाने से पहले उन्होंने मुझसे फ़ोन पर बात की थी, मैंने उन्हें शनिवार को यहाँ से हम चलेंगे, ये बता दिया था, उन्होंने आभार व्यक्त किया और फिर वे अपने घर के लिए चले गए, शर्मा जी उनको छोड़ते हुए मेरे पास आ गए, मैं उस समय भोजन करके फारिग हुआ ही था, वे आये, बैठे, मैंने सहायक से दो कुर्सियां बाहर अहाते में रखवा ली थीं, सो हम बैठ गए!

"छोड़ आये उन्हें?" मैंने पूछा,

"हाँ जी" वे बोले,

"अच्छा किया" मैंने कहा,

फिर चाय आ गयी, हमने चाय के कप उठाये अपने अपने,

"वैसे गुरु जी? वहाँ क्या लगता है आपको?" उन्होंने पूछा,

"मामला बहुत अजीब सा है, मैंने ऐसा नहीं देखा कहीं भी" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कोई क्रिया तो नहीं करवा रहा?" उन्होंने संशय जताया,

"ऐसा भी नहीं लगता" मैंने कहा,

"वो कैसे?" उन्होंने पूछा,

"किसी का कोई अहित नहीं हुआ अभी तक, इसलिए" मैंने कहा,

"हाँ, अहित तो नहीं हुआ" वे बोले,

"कोई न कोई कहानी तो ज़रूर है, लेकिन इसका पता वहीँ जाकर पता चलेगा" मैंने कहा,

"फूल, फूल तो शुभ हैं?" उन्होंने पूछा,

"हाँ हैं तो शुभ, लेकिन किसलिए?" मैंने कहा,

"मैं समझा नहीं" वे बोले,

"मेरा मतलब वहाँ फूल किसलिए?" मैंने कहा,

'अच्छा, हाँ!" वे बोले,

तभी सहायक आया, कोई आया था मिलने के लिए, मैंने बुलवा लिया, कोई बाहर से आया था, मैं उस से मिला और उसकी बातें सुनीं, फिर मैंने उसको कभी बाद में आने को कहा दिया,

"वहाँ चीथड़े भी मिले? ऐसा क्यों?" उन्होंने पूछा,

"यही समझ नहीं आया!" मैंने कहा,

"बड़ा ही पेचीदा सा मामला है" वे बोले,

"हाँ, यही तो" मैंने कहा,

"ठीक है, परसों तो चल ही रहे हैं वहाँ, देखते हैं क्या मिलता है?'' वे बोले,

"हाँ, तभी पता चलेगा" मैंने कहा,

और फिर कुछ देर और बातें हुईं यहाँ वहाँ की, उसके बाद शर्मा जी के साथ मैं भी चल पड़ा, मुझे अपने निवास-स्थान जाना था, सो हम निकल गए वहाँ से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अगले दिन मैं शर्मा जी के साथ अपने स्थान पर पहुंचा, वहाँ पर अपना साजो-सामान एकत्रित किया और एक बैग में डाल लिया, उस रात हम वहीँ ठहरे, कल सुबह तड़के ही हमको निकलना था वहाँ से जयपुर के लिए!

रात हुई, खा-पी कर हम सो गए!

और फिर अगली सुबह स्नानादि से निवृत होकर हम सुबह सुबह निकल पड़े जयपुर के लिए! रास्ता खुला था, सुबह सुबह भीड़-भाड़ नहीं थी, सो गाड़ी भी सही गति से दौड़ा दी उन्होंने!

रास्ते में दो जगह रुके, एक जगह नाश्ता किया और दूसरी जगह कुछ भोजन किया, फिर अपने रास्ते हो लिए!

करीब बारह बजे हम वहाँ पहुँच गए, हमको जयपुर से करीब बीस किलोमीटर आगे जाना था, महेंद्र साहब को फ़ोन कर ही दिया था, वे हमको वहीँ मिलने वाले थे, और फिर कोई चालीस मिनट के बाद हम महेंद्र साहब के साथ खड़े थे!

नमस्कार आदि हुई! वे हमे तभी एक ढाबे में ले गए, कुछ खाने-पीने के लिए, हमने वहाँ चाय ही पी, खाना खा ही लिया था, अब वहाँ से हम चल पड़े उनके घर के लिए, घर अभी भी वहाँ से कोई दो किलोमीटर दूर था!

और फिर हम उनके घर पहुँच गए, उन्होंने गाड़ी लगवायी हमारी वहाँ और मैंने उनके घर को देखा, घर बढ़िया था, छोटा सा और शानदार! आसपास भी मकान बने थे, नयी नयी बसावट थी यहाँ सो इक्का दुक्का मकान अभी भी बन रहे थे, खुला सा स्थान था, कुल मिलकर शांत था वहाँ का माहौल और भूगोल!

और अब हम घर में घुसे! जैसे ही घर में घुसे मेरे नथुनों में एकदम से मजमुआ इत्र की गंध आ बसी! तेज गंध! बहुत तेज गंध! ऐसी जैसे इत्र का पीपा फट गया हो वहाँ! गंध हर तरफ से आ रही थी! खैर, हम घर में आये और बैठ गए उनके ड्राइंग-रूम में, सभी मिले हमसे, नमस्कार हुई, और फिर पानी आदि लाया गया! हमने पानी पिया और कुछ मीठा खाया! गंध अभी भी आ रही थी, कुछ बातें पूछीं मैंने उनसे तो उनकी धर्मपत्नी ने सारी बातें कह सुनायीं! कोई काम की बात नहीं थी, वही सब जो महेंद्र साहब ने बतायी थीं! उनके बेटे और बेटी ने भी वही सब दोहरा दिया, कोई नयी बात नहीं, कोई सूत्र नहीं, मेरा मतलब!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब हमे महेंद्र साहब ऊपर की मंजिल पर ले गए, वहीँ था हमारे ठहरने का इंतज़ाम, कमरा, वहीँ बैठ गये हम, थकान मिटाने के लिए, अपने अपने जूते खोल लेट गए बिस्तर पर!

कमर सीधी हुई तो अब दिमाग चला!

"कुछ पता चला गुरु जी?" शर्म जी ने पूछा,

"नहीं, लेकिन यहाँ मजमुआ इत्र की गंध फैली हुई है हर तरफ! बहुत तेज गंध! मेरी जुबां पर उसका स्वाद भी आने लगा है, खट्टा-मीठा सा!" मैंने कहा,

"अच्छा! इसका क्या अर्थ हुआ?" उन्होंने पूछा,

"यही कि कोई यहाँ अवश्य ही मौजूद है और उसने अपनी उपस्थिति मुझे दर्ज करा दी है!" मैंने कहा,

"अच्छा?" उन्होंने अचरज से पूछा,

"हाँ, कोई न कोई तो है" मैंने कहा,

"कोई भूत-प्रेत?" उन्होंने पूछा,

"नहीं, वे होते तो भाग गए होते यहाँ से!" मैंने कहा,

"तो फिर?" उन्होंने पूछा,

"है कोई, जिसे मैं अब तक नहीं जानता" मैंने कहा,

"तो आप रात को जांच करेंगे!" वे बोले,

"हाँ, वही समय उचित है" मैंने कहा,

"ठीक है" वे बोले,

तभी महेंद्र साहब आ गए, गरम चादर ले आये थे ओढ़ने के लिए, एक मेरे पैंताए और एक शर्मा जी के पैंताए रख दी, और फिर खाने के बारे में पूछा, हमने मना कर दिया, भूख थी नहीं!

अब जो करना था वो रात को करना था, सो अब रात होने का इंतज़ार था! तभी राज खुलता!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर रात हुई, खाना आदि खा लिया, सभी को ऊपर आने से मना कर दिया मैंने, शर्मा जी को भी बाहर भेज दिया, मैं अब अपने कारिंदे को हाज़िर करना चाहता था, मैंने दरवाज़ा बंद किया और अपने कारिंदे का रुक्का पढ़ा, और हैरत! हैरत ये कि कारिंदा हाज़िर नहीं हुआ! मैं समझ गया कि यहाँ कोई अत्यंत ही शक्तिशाली शक्ति का वास है! एक बार को तो सिहरन हो ही गयी थी, मैंने ऐसा अंदाजा नहीं लगाया था! सुजान नहीं आया था, इसका मतलब सुजान ने ज़ाहिर किया था कि ये उसकी बसकी बात नहीं है! अब खबीस को उतारना भी बेमायनी था! जहां अक्सर कारिंदा असफल हो जाता है वहीँ खबीस भी नहीं उतरता! लेकिन अब प्रश्न ये कि यहाँ है कौन? कौन है वो शक्ति जो यहाँ मौजूद है? किसने रोका सुजान को?

मैंने दरवाज़ा खोल दिया, दरवाज़ा खुलते ही शर्मा जी आ गए वहाँ,

"कुछ पता चला?" उन्होंने पूछा,

"नहीं" मैंने कहा,

"नहीं??" उन्होंने अजीब से भाव के साथ ये पूछा!

"हाँ, कारिंदा नहीं उतरा" मैंने कहा,

अब वो समझ गए कि मामला संजीदा है बहुत! कोई बड़ी शक्ति है यहाँ!

"इसका अर्थ ये हुआ कि यहाँ कि ताक़त है ज़बरदस्त?" वे बोले,

"हाँ" मैंने कहा,

"अब, पता कैसे चले?" उन्होंने कहा,

"पता तो करना ही पड़ेगा" मैंने कहा,

इतना कहा ही था कि महेंद्र साहब आये वहाँ दौड़े दौड़े!

अंदर आ गए!

बदहवास से थे!

"क्या हुआ?" मैंने पूछा,

"नीचे देखिये गुरु जी, मेरे बेटे के बिस्तर पर क्या है?" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्या है?" मैंने पूछा,

"आप स्वयं देख लीजिये" वे बोले,

अब हम भी नीचे भागे!

कमरे में घुसे उनके बेटे के,

सामने ही बिस्तर था, वहाँ सिरहाने पर बबूल की एक सूखी डंडी पड़ी थी, कांटेदार और उसमे किसी सांप की केंचुली लिपटी हुई थी! मैंने ध्यान से देखा, फिर उसको उठाया, केंचुली को छुआ, तो पता चला कि केंचुली कम से कम छह महीने पुरानी तो होगी ही, लकड़ी के कांटे भी सूखे हुए थे, लगता था किसी ने जानबूझकर वहाँ इनको रखा था! मैंने वो डंडी और केंचुली उठा ली,

"शर्मा जी, ऊपर चलो" मैंने कहा,

"चलिए" वे बोले,

हम ऊपर चले, कमरे में आ गए!

अब मैंने शर्मा जी और महेंद्र साहब को बाहर रुकने को कहा, वे बाहर चले गए, अब मैंने ज़मीन पर काजल की डिब्बी में से काजल निकल कर नौ जगह बिंदियाँ लगायीं, फिर इस डंडी को और केंचुली को उन बिंदियों के बीच रख दिया! और एक मंत्र पढ़ा, मेरे नेत्र बंद हुए, मैंने एक और मंत्र पढ़ा और दम साधा, एक सांस रोक कर जो मुझे दिखना था वो याद रखना था, जैसे ही मंत्र समाप्त हुआ मैंने नेत्र बंद किये और फिर कुछ तस्वीरें दिखाई दीं मुझे मस्तिष्क से होती हुई मेरी पलकों तक! मैंने देखा, कि एक निर्जन स्थान है! वहाँ हरे रंग के झंडे लगे हैं पेड़ पर, पेड़ भी देखा तो पेड़ कीकर का ही था, मेरी सांस टूटी, तस्वीर गायब हुई, मैंने फिर से मंत्र पढ़ा और फिर से सांस थामी, फिर से तस्वीर दिखायी दी, मैंने पेड़ को देखा, पेड़ के नीचे कुछ बिल दिखायी दिए, जैसे चूहे के बिल अथवा सांप के बिल! पेड़ से बंधे कुछ हरे कपडे, कुछ.....और फिर से सांस टूट गयी, फिर से मंत्र पढ़ा, और सांस थामी, फिर कुछ फूल दिखायी दिए, गुलाब के फूल! चीथड़े! मैं चौंक पड़ा! शायद उसी काल में आ गया मैं! सबकुछ दिखायी दिया और तभी मुझे वहाँ आगे कुछ दिखायी दिया, जैसे कोई तेजी से भाग के आ रहा हो मेरी ही तरफ! मैंने भी उसकी तरफ बढ़ चला! फिर से सांस टूटी! मैंने फिर से मंत्र पढ़ा और सांस थामी, मैं भी बढ़ चला और जैसे ही पेड़ के पीछे तक आया वहाँ मुझे एक पत्थर से बनी मजार दिखायी दी! मैं उसको देखता, कि वो लम्बा-चौड़ा आदमी मेरे पास आ गया! सर पर कपडा बांधे और हाथ में एक झोला लिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर से सांस टूट गयी! मैंने फिर से मंत्र पढ़ा और सांस थामी! वो आद्मी आया मेरे पास, और बोला 'आ गए?'

"हाँ" मैंने कहा,

"बढ़िया किया" वो बोला,

मैं समझ नहीं पाया!

उसने तभी अपने झोले में से मुझे कुछ दिया, मैंने देखा नहीं कि क्या, मैंने उसको अपनी मुट्ठी में ही रख लिया, और सांस टूट गयी! मैंने फिर से मंत्र पढ़ा! लेकिन अब कोई तस्वीर नहीं दिखायी दी! देख ख़तम हो गयी थी! तभी मैंने अपनी मुट्ठी खोली, देखा, वो एक गुलाब का ताजा फूल था! वही फूल जो मुझे उस आदमी ने दिया था! मैंने वो फूल गौर से देखा, ओंस अभी तक जमी थी! एकदम ताजा फूल था! लेकिन वो आदमी कौन था?

सोच में पड़ गया मैं!

मैंने वो फूल अपनी जेब में रख लिए और वो डंडी और केंचुली भी वहाँ से हटा के रख दीं, वो बिंदियाँ भी कपड़े से मिटा दीं!

अब दरवाज़ा खोला!

शर्मा जी को बुलाया, महेंद्र जी वहीँ खड़े रह गए!

वे आ गए,

मैंने बिठाया, और वो फूल उनको दिया!

और अब उन्हें सारी बात बता दी! सुनते ही वो अवाक! ऐसा कभी पहले नहीं हुआ था आज तक! ये मेरा और उनका पहला साबका था!

"पीर बाबा!" वे बोले,

"हाँ! पीर बाबा!" मैंने कहा,

"अब समझ आ गया!" वे बोले,

"हाँ, अब स्पष्ट हुआ!" मैंने कहा,

"तो ये स्थान उनका है!" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"निःसंदेह!" मैंने कहा,

"ओह! ऐसा ही होता है, आज के तेजी के युग में ये बिल्डर्स कहीं भी बुलडोज़र चला दिया करते हैं!" वे बोले,

"हाँ! यही हुआ होगा!" मैंने कहा,

"तो गुरु जी? उन्होंने रोकने की कोशिश नहीं की?" वे बोले,

"पीर सदैव एक स्थान पर नहीं ठहरते! वे घुमक्क्ड़ होते हैं, सिद्ध आत्माएं जो हैं!" मैंने कहा,

"ओह! तो उस समय वो नहीं होंगे वहाँ!" वे बोले,

"हो सकता है!" मैंने कहा,

"अब हमको महेंद्र जी से बात करनी पड़ेगी!" व बोले,

"हाँ!" मैंने कहा,

और अब शर्मा जी बाहर चले गए, बुलाने महेंद्र साहब को!

 

अब महेंद्र जी को अंदर ले आये शर्मा जी और फिर क्रम से सारी बात बता दी, वे बेचारे घबरा गए पीर बाबा का नाम सुनकर ही! भय सा बैठ गया उनके मन में, मैंने बड़ी मुश्किल से समझाया उनको! तब जाकर वे सम्भले और संयत हुए!

"अब एक बात बताइये?" मैंने पूछा,

"जी पूछिए" वे बोले,

"आपने ये मकान बना बनाया लिया था या फिर प्लाट खरीदा था?" मैंने पूछा,

"जी बना बनाया लिया था" वे बोले,

"किस से लिया था?" मैंने पूछा,

"एक बिल्डर हैं, उन्ही से" वे बोले,

"कहाँ रहते हैं वो बिल्डर?" मैंने पूछा,

"उनका दफ्तर जयपुर में है" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ठीक है, कल चलते हैं जयपुर, कुछ पूछना है मुझे उनसे" वे बोले,

"जी, कल ले चलता हूँ" वे बोले,

उसके बाद हम सो गए! मामला पकड़ में तो आ गया था लेकिन अभी पेंच फसे हुए थे, वहीँ निकालने थे, वो आदमी कौन था? वो पीर बाबा तो हो नहीं सकता, तो फिर कौन था?

ये था सबसे बड़ा रहस्य!

और यही सुलझाना था!

सुबह हुई!

हम नित्य-कर्मों से फारिग हुए! और फिर चाय नाश्ते से भी!

"आपकी बात हो गयी उस बिल्डर से?" मैंने पूछा,

"हाँ जी" वे बोले,

"कब निकलना है?" मैंने पूछा,

"अभी निकलते हैं बस, वो दस बजे तक आता है दफ्तर" वे बोले,

"ठीक है" मैंने कहा,

और फिर हम तीनों वहाँ से निकल पड़े बिल्डर के दफ्तर के लिए!

वहाँ करीब चालीस-पैंतालीस मिनट में पहुंचे, दफतर खुल गया था, हम अंदर चले गए, बिल्डर अपने केबिन में ही था, महेंद्र साहब ने पूछा और हमको अंदर बुला लिया, नमस्कार हुई और हम अंदर बैठ गए!

महेंद्र ने हमारा परिचय करवा दिया!

अब बातचीत शुरू हुई!

बिल्डर का नाम भूषण था!

"भूषण साहब, जहां ये महेंद्र साहब रहते हैं, वो कॉलोनी आपने ही काटी थी?" मैंने पूछा,

"हाँ जी" वे बोले,

"अच्छा, जहां इनका घर है वहाँ कोई मजार आदि थी?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जी वहाँ तो ऐसी कई मजार थीं, कुछ पिंडियां भी थीं, दोनों रीतियों से पूजन करवाया था वहाँ, आज तक वैसा कोई काम नहीं हुआ जैसा आपने संदेह व्यक्त किया है" वो बोला,

"बस मुझे यही जानना था" मैंने कहा,

और अब उठे वहाँ से हम, लेकिन भूषण ने चाय मंगवा ली थी, सो पीनी पड़ी, और उसके बाद हम चल पड़े वापिस वहाँ से!

घर आ गए वापिस!

जाते ही मैं अपने कमरे में चला गया, सोच विचार किया, फिर भोजन आ गया, सो भोजन किया और महेंद्र साहब से कह दिया कि वो कुछ सामान ले आयें, सामान शर्मा जी ने लिख दिया था, वो परचा उनको दे दिया गया था, वे चले गए परचा लेकर!

और हम वहाँ फिर आराम से लेट गए! मैं सोच-विचार में डूब गया! पीर बाबा को प्रत्यक्ष मैं कर नहीं सकता था, कहीं क्रोधित हो गए तो लेने के देने पड़ जायेंगे! उनसे साक्षात्कार तभी हो सकता था जब वो खुद आयें सामने! उनसे बैर नहीं लिया जा सकता था, अभी तक हालांकि किसी का अहित नहीं हुआ था, न ही कोई भय वाली बात थी! लेकिन फिर भी सभी कदम भली भांति सध के रखे जाने थे! किसी भी चूक की गुंजाइश नहीं थी! एक गलती और समझो कि सत्यानाश!

यही सोचते सोचते आँख लग गयी मेरी, मैं सो गया! और आँख मेरी तब खुली जब महेंद्र साहब सामान लेकर आये, सामान में कुछ गुलाब के फूल और इत्र आदि थे, कुछ लोहबान आदि! मैंने सामान जांचा और रख दिया सम्भाल कर! आज रात मैं कोशिश करने वाला था, कुछ हल निकल ही जाए!

उसके बाद महेंद्र जी आये वहाँ, और फिर हमने बाहर घूमने का कार्यक्रम बनाया, थोडा घूम आते तो सही रहता, हम निकल पड़े वहाँ से, और फिर शहर आ गए, थोडा अपना ज़रूरी सामान खरीदा, थोडा मीठा-नमकीन खाया वहाँ और टहले इधर-उधर और उसके बाद फिर से वापिस हुए!

घर पहुंचे, थोड़ा आराम किया! और किया रात का इंतज़ार!

खाना आदि कह लिया गया, और फिर बजे रात के दस! अब मुझे पुनः प्रयास करना था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं अब कमरे में अकेला था, मैंने वहीँ डंडी और केंचुली रखी वहाँ, और फर्श पर काजल से नौ बिंदियाँ लगायीं! और उनके बीच डंडी और केंचुली रखी! और अब देख लड़ाई! मंत्र पढ़ा! सांस थामी और फिर से मेरे मस्तिष्क के रास्ते से होती हुईं कुछ तस्वीरें!

वो आदमी वहीँ खड़ा था, सर पर कपडा बांधे और हलकी हलकी दाढ़ी मूंछें थीं उसकी, उम्र कोई पैंतीस बरस होगी, कुरता और पयजामा पहना था उनके, ढीला ढाला, बदन से दरम्याना और रंगत से सांवला था, मुझे देखा उसने और बोला, "आओ"

मैं चला उसके पीछे!

सांस टूटी! मैंने फिर से मंत्र पढ़ा और आगे चला सांस थाम कर!

वो आगे चल रहा था, मैं पीछे, वो रुक गया, मैं उस तक पहुँच गया, "मैं हसन हूँ" उसने कहा,

मैंने सुना और मुस्कुराया!

"वो, वहाँ रहता हूँ" उसने कहा,

सामने एक झोंपड़ा सा बना था, एक टीले के ऊपर, और वहाँ अन्य कोई झोंपड़ा नहीं था!

"आओ" उसने कहा,

मैं फिर चला उसके पीछे!

"ये जगह!", वो बोला और उसने चारों ओर ऊँगली घुमाई,

"बाबा सैफ़ुद्दीन की है" वो बोला,

बाबा सैफ़ुद्दीन!

तभी सांस टूट गयी!

मैंने फिर से मंत्र पढ़ा, और दम साधा!

देख चालू हुई!

"बाबा, मेरे मालिक, आ रहे हैं" वो बोला,

आ रहे हैं?


   
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