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वर्ष २०१२ जिला गोरखपुर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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और मैं खड़ा खड़ा हँसता जा रहा था! ये अजीब नज़ारा देखे जा रहा था! 

और फिर वे रक्षक उड़े! सारे के सारे! वे पराक्ष-कन्याएं उड़ीं! वे पराक्ष-पुरुष उड़े! जलजीव उड़ने लगे। जैसे आकाश लील रहा हो उन्हें! 

और फिर वो भूप सिंह उड़ा! लेकिन अचानक ही धम्म से नीचे पानी में गिरा! जगमगाती हुई कौशकि बाहर आई थी! मैंने अट्टहास किया उसको देख कर! "नहीं बचेगी! अब, नहीं बचेगी तू!" मैंने कहा, उसने मुझे देखा, और आने लगी निकट! उसने ऊपर देखा और वे सभी सांप, जलजीव, और वे रक्षक, पुरुष, कन्याएं, सभी नीचे गिरने लगे! नीचे गिरते और फिर ऊपर उड़ जाते! 

क्योंकि मेरे त्रिशूल का फाल अभी भी पानी में ही था! "कौशकि! नहीं बचेगी तू!" मैंने कहा, कौशकि ने पकड़ के रखा था उस भूप सिंह को! 

नहीं तो वो भी आकाश में उड़ जाता! दरअसल ये महा-घातिनि विद्या, एक चक्रवात सा बना देती है, इसमें जो फंसा, वो टुकड़े होने के बाद ही नीचे गिरेगा! लेकिन यहां तो, खेल हो रहा था! वे बार बार नीचे गिर रहे थे, 

और बार बार ऊपर उड़ रहे थे! सभी की हालत खराब थी! मुझे आनंद आ रहा था उनकी ये हालत देख कर! तभी कौशकि ने मेरी ओर अपन हाथ किया, मुझे धक्का लगा, पाँव उखड़ने लगे, 

और मैं नीचे पानी में गिर गया। डुबा तो नहीं, लेकिन पूरा नहा गया था! त्रिशूल नहीं छोड़ा था मैंने अपना, मैंने फिर से महा बाल विद्या का संधान किया, 

और थूक दिया जल में! कौशकि तो सलामत रही, लेकिन भूप सिंह जा पड़ा दूर किनारे पर! कौस्कि ने फिर से अपन कमाल दिखाया, 

और वे जो बार बार गिर रहे थे, अब पानी में उतर गए थे। मेरी महा-घातिनि शक्ति को ठेंगा दिखा दिया था कौशकि ने तो! विद्या कटी, 

और मैं सामान्य हुआ! आँखों में पीड़ा हुई बहुत, और वे सांप, मुझे घेरा हुआ था उन्होंने, चारों तरफ से, लेकिन आगे बढ़ने का साहस नहीं था उनमे! वहाँ भूप सिंह अचेत पड़ा था! उसको उठा लिया था उन आदमियों ने, 

उसको जगा रहे थे वो, लेकिन उसको चोट पहुंची थी, वो तीस फ़ीट ऊपर से गिरा था नीचे, कोई न कोई अस्थि तो अवश्य ही ट्टी होगी उसकी! मुझे बाद में पता चला था, उसकी पसलियां टूट गयी थीं, उसके दांत उसके होंठ फाड़ गए थे, अब मैं और कौशकि आपने सामने थे! कौशकि ने मुझ पर वार किया था, मैं झेल तो गया था, लेकिन उसकी उस शक्ति का मैं कायल भी हो गया था! मेरे तंत्राभूषण को भेद गयी थी उसकी शक्ति! "कौशकि! मान जाओ! नहीं तो नाश हो जाएगा सभी का! तुम सब का!" मैंने कहा, कौशकि हंसने लगी। मेरे करीब आई! मित्रगण! 

यदि वो प्रेम ही करती उस भूप सिंह से, तो उसको ठीक भी करती! लेकिन वो तो मुझसे भिड़ना चाह रही थी! अब भूप सिंह मरे या जिए, उसके लिए वो मात्र एक खिलौना था। खिलौना टूटे, 

या न टूटे, उस से खेल लिया, बस! अब चाहे कुछ भी हो! "सुन! अंतिम चेतावनी देती हूँ तुझे, नहीं तो यहन टुकड़े टुकड़े हो जाएगा तू!" वो गुस्से 

से बोली, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और ये सुन, मैं ज़ोर से हंसा! "तेरे पराक्ष लोक में एक भी ऐसा पराक्ष नहीं जो मेरे टुकड़े करे! मैं चाहँ तो तुझे अभी अपनी जटाओं से बाँध सकता हूँ कौशकि! पहचान मुझे! तेरा सर्वनाश कर दूंगा मैं!" मैंने ये उत्तर दिया! अब तो उबाल आया! 

और वो पानी में उतर गयी! पानी में हलचल मची! 

मैं बाहर आया तभी के तभी! 

और देखा सामने, पानी में चार भंवर बन रही थीं! चारों ही घूम रही थीं, देखते ही देखते वे चारों भंवर, एक हो गयीं! एक दूसरे से मिल गयीं! 

और तभी एक सांप निकला उस भंवर से! ये एक विशाल सर्प था! दो सर थे उसके, मेरे बराबर तो जिव्हा थी उसकी! तो अब ये आया था सूरमा! मैंने फ़ौरन ही यमत्रासिका विद्या का संधान किया, 

और त्रिशूल पर हाथ फेर दिया! त्रिशूल अभिमंत्रित हो गया था इस विदया से! 

वो सांप आगे आया, कौशकी नहीं थी वहाँ! वो आगे आया, और मैं भी आगे बढ़ा! मैंने महानाद किया, 

और वो सांप सीधे मेरे सर के ऊपर आया! पानी टपका मेरे ऊपर, जैसे कई बाल्टियां एक साथ डाल दी गयी हों। वो आगे बढ़ा और मैं बही, जैसे ही मुझे कुंडली में लेना चाहा, मैं उछला और अपन त्रिशूल घोंप दिया उसके शरीर में, जैसे ही घोंपा! 

वैसे ही उसका शरीर छोटा होता चला गया! मैंने त्रिशूल खींच लिया था इस से पहले ही! त्रिशूल के फाल पर कोई रक्त नहीं था! वो सांप अब छोटा हो गया था! 

और भाग लिया था सीधा पानी में ही! अब तो मैंने गालियों के पहाड़ लगा दिए। चीख चीख कर कौशकी को लानत भेजता रहा! मैं वापिस हुआ अब अपनी अलख के लिए, लेकिन उस से पहले मैं भूप सिंह को देखने चला, 

शर्मा जी भी वहीं खड़े थे, भूप सिंह को होश तो आया था लेकिन, सुध-बुध खो बैठा था अपनी, वो घायल था बहत, उसके शरीर पर जगह जगह जलने के से निशान बन गए थे, ये विद्या का प्रभाव था, वो पराक्ष तो बच गए थे, लेकिन ये साधारण मानव चपेट में आ गया था, वो तो कौशकि ने बचा लिया था अपने संग रखकर उसे, नहीं तो जान पर बन जाती उसकी, बाबा नहल नाथ भी घायल थे और अब स्वयं कुछ नह कर सकते थे, वे तड़प रहे थे और लगता था कि उनके बस में नहीं है, अधिक देर तक वहाँ टिक पाना, अतः मैंने निर्णय लिया, मैं यहां, शर्मा जी और बाबा भूषण के साथ ही रहूँगा, शेष लोगों को, बाबा नहुल नाथ और उस भूप सिंह को ले जाना होगा, उन दोनों के शरीर पर सूजन आ चुकी थी. 

और ये किसी अनहोनी की सुचक थी, बाबा नहल नाथ नहीं मान रहे थे, लेकिन उनको बहुत समझाया, कि भूप सिंह की हालत बहुत खराब है, यदि चिकित्सा नहीं की गयी, तो सुबह भी नहीं देख पायेगा वो, तब जाकर वे माने, वे सभी साथी, तैयार थे उनको ले जाने के लिए, 

और इस तरह वे दोनों उठा लिए गए, और वे चल पड़े वापिस, बाबा नहल नाथ ने आंसुओं के संग मेरा धन्यवाद किया, अब हम वहाँ मात्र तीन ही थे, और यहाँ से सारी बागडोर अब मेरे


   
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श्रीशः उपदंडक
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हाथों में थी, कौशकि तो बाज नहीं आ रही थी, मैंने उन सो को बहत त्रास दिया था लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा था, अब कुछ ऐसा करना था कि कौशकि मज़बूर हो जाए। कुछ ऐसा जिसका अनुमान भी वो नहीं लगा सकती थी! और इसके लिए मुझे एक ऐसी क्रिया करनी थी जिस से, वे सर्प न केवल पीड़ित ही हों, अपितु क्रिया-शोधन के पश्चात ही ठीक हो सकें! 

और इसके लिए एक ही विद्या था, सर्प-खंडा क्रिया! मैंने अलख में ईंधन झोंका, और गहन मंत्रोच्चार में चला अब! इस क्रिया से, वे सर्प न केवल मृत्यु की कगार तक पहुँचते बल्कि घोर पीड़ा का भी स्वाद 

चखते! यही थी योजना मेरी! लेकिन एक आश्चर्य हआ मुझे! मुझसे मंत्र नहीं बोले जा रहे थे, मैं उपसर्ग आदि का मूल उच्चारण नहीं कर पा रहा था, इसका एक ही कारण था कि, कोई मुझे रोक रहा था! किसी को भान था कि कौन सी क्रिया की जायेगी अब! 

लेकिन इसकी भी काट थी मेरे पास! ब्रह्म-कीलन! इसकी काट वो पराक्ष तो क्या, स्वयं नाग भी नहीं कर सकते थे! मैंने वही किया, भूमि पर, आकृति बनायी, अपने चाकू से, बीच में वो तालाब वृत्त रूप में काढ़ा, 

और उसके चारों ओर मंत्र पढ़ते हुए मांस के नौ टुकड़े रखे दसवीं दिशा को खोल के रखा, ये मेरी दिशा थी! जहां से मैं ये सब क्रिया आकर रहा था, मुझे पौना घंटा लगा इसमें, और उस ब्रह्म-कीलन से वो स्थान, वो तालाब सब उस ब्रह्म-कीलन में स्थापित हो गए! अब मैंने पुनः क्रिया आरम्भ की, अब मेरे साथ बाबा भूषण भी बैठे थे, वे मदद कर रहे थे मेरी, अलख में ईंधन देते, मांस काट कर टुकड़े करते, दूसरी सामग्री आदि सुलभ करा देते थे, इस से समय की बचत हो रही थी, मैंने सर्प-खंडा विद्या के ईष्ट को नमन किया, और क्रिया आरम्भ की, आधे घंटे में ही विद्या जागृत हो गयी! और तब मैं उठा, तालाब तक गया, अभिमंत्रित भस्म लेकर, मैं आया था ही, इसीलिए मैं सीधा तालाब में उत्तर गया, अपनी ही दिशा में, 

और जब मेरे घुटने डूबने लगे उस पानी में तो, वो भस्म मैंने पानी में डाल दी, भस्म पानी में जैसे ही गिरी, पानी में बवाल सा मच गया! वे पराक्ष जीव सर्प पानी के ऊपर आते चले गए, और एक एक करके, एक एक झुण्ड का संहार सा आरम्भ होता चला गया! इस सर्प-खंडा क्रिया में, जंगली और पानी के सर्प आदि का संहार नहीं होना था, बस पराक्ष का ही होना था, वैसे ये पराक्ष-जीव-सर्प मृत्यु का ग्रास तो नहीं बनते, किन्तु इस क्रिया से, वे कीलित होकर पत्थर समान अवश्य ही हो जाया करते हैं! 

वे ऊपर आते, अकड़ जाते और डूबने लगते! सर्प-खंडा क्रिया के प्रभाव से, उनमे शिथिलता आती जा रही थी! 

और तभी ज़ोर से पानी उठा, पानी में झम्म झम्म की सी आवाजें आनी शुरू हुईं! लगा कोई आ रहा है, अब तो बड़े बड़े सर्प आने लगे थे ऊपर, वो ऊपर आते, और शिथिल हो, अकड़ कर नीचे डूबने लग जाते थे! 

ऐसा एक घंटे तक होता रहा, जब तक कि अंतिम पराक्ष-जीव-सर्प भी शिथिल न हो गया! अब पानी शांत था, कोई हलचल नहीं थी उसमें अब! अब बस इंतज़ार था तो उस कौशकि का! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर वही आई निकल कर, शरीर का वर्ण लाल हो गया था उस क्रिया के प्रभाव से, वो क्रोध में थी, उसके संग वो रंगवल्लिका और दूसरी सखी सिंहपर्णिका भी थीं, वे भी कुन्द पद गयी थीं, शरीर का रंग लाल हो गया था! ये देख कर मुझे हंसी आई! सर्प-खंडा के प्रभाव से, उन पर भी माकूल असर हो चला था! मैंने तो पहले ही समझाया था कि, सर्वनाश कर दूंगा उनका, ये मार्ग हमेशा के लिए बंद कर दूंगा, यहाँ से पराक्ष का मूल ही कट जाएगा सदैव के लिए! जब तक कोई उस ब्रह्म-कीलन को नहीं हटाएगा, कोई पराक्ष यहाँ शरण भी नहीं ले सकेगा! ये स्थान उन पराक्ष के लिए जैसे शापित हो जाएगा! मैं पानी में ही खड़ा था, और अब बाहर निकला, जैसे ही पीछे मुड़ा, कौशकि सामने ही थी, गुस्से में भरी हुई, आँखें पीली हो चली थीं उसकी! 

और वे दोनों जो वहाँ खड़ी थीं, दूर पानी में, अब लोप हो चुकी थीं! कौशकि ने मुझे गुस्से से घूरा और अपना हाथ आगे किया, हाथ से जल टपकने लगा, उसका वर्ण पहले जैसा ही होता चला गया, सामान्य ही! जैसा पहले था, लेकिन उसके वो जीव-सर्प, वे नहीं आये। इस सर्प-खंडा को मैं ही काट सकता था, उसने और भी कई जतन किये, लेकिन सब बेकार! वो गुस्से में झुंझलाई,रंग बदलता था उसका बार बार, कभी लाल, कभी पीला और कभी सफ़ेद, लेकिन वे जीव-सर्प, वे नहीं लौटे! अब तो पाषाण स्वरुप हो कर, नीचे तले में पड़े थे! पराक्ष जीव सर्प, एक निश्चित समय के उपरान्त ही रूप परिवर्तित किया करते हैं, इस कारण वे जीव-सर्प अभी तो अपनी मूलभूत शक्तियों से भी वंचित थे, बस ये कौशकि अपनी शक्ति के दम्भ में थी! सहसा ही उसने गोता लगाया पानी में, पानी में छोटे छोटे भंवर से बनने लगे थे। 

और इसके बाद जो हुआ, वो बहुत विचित्र था, पानी से एक नहीं, आठ कौशकियां बाहर आयीं! असल कौन सी है, पहचानना मुश्किल था! ये माया थी, निःसंदेह माया, मैंने मायानाशक डोमाक्षी-संत्रिका का संधान किया, और कुछ ही क्षणों में, विद्या संत्रिका आरूढ़ हो गयी, मैंने त्रिशूल को अभिमंत्रित किया, 

और छुआ दिया पानी से! एक ही पल में वे आठों ही लोप हो गयीं! 

वे आठों ही किसी माया से रचित र्थी, वे आठ कौशकियां अपने आप में ही सर्व-बलशाली थीं, अर्थात एक एक में वैसी ही शक्ति थी जैसी उस मूल कौशकि में थीं! बस समझने में गलती नहीं की मैंने और डोमाक्षी-संत्रिका के संधान के प्रयोग को सही 

और उचित समय पर विवेकपूर्ण ढंग से क्रियान्वित कर दिया था मैंने! अब देखना ये था कि वो कौशकि करती क्या है आगे! अचानक से वो तालाब के मध्य में प्रकट हुई, चमचमाती हुई, उव हवा में ही नीचे बैठी, पद्मासन में, यही और ऐसा ही दिखा था मुझे उस समय, 

और फिर जो कुछ हुआ, वो अत्यंत ही आश्चर्यजनक था! मेरी सर्प-खंडा क्रिया काट दी गयी थी! वो ब्रह्म-कीलन खंडित हो गया था! आज मुझे पहली बार ये पता चला कि पराक्ष अतुलित शक्तियों के स्वामी हैं! वे सभी जीव-सर्प, पानी पर नज़र आने लगे थे। सभी के सभी! ये मेरे लिया ऐसा ही था कि सामने दीखता पर्वत, एक ही क्षण में आँखों के सामने से लोप हो जाए! सर्प-खंडा की काट करना, अत्यंत ही दुष्कर कार्य है! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और कौशकि ने, ये असम्भव कार्य कर दिखाया था! मैं तो जैसे अब खाली हाथ ही था! मेरी हालत उस समय, एक मदारी के समान थी, जिसकी मदार- 

विद्या किसी और मदार-ज्ञाता ने काट दी हो, उसका कोई मदार-प्रयोग काम ही न कर रहा हो! मैं हैरान था! अचंभित था! 

और अब मुझे ये देखना था कि, कौशकि का अगला कदम अब होता क्या है? तभी मेरे पास अाहट हुई, मैंने देखा उधर, 

ये बाबा भूषण थे, हाथ में कपाल और हस्त-अस्थि लेकर आये थे, उन्होंने शीघ्र ही कद्रुप मंत्र का जाप किया, 

और नेत्र पोषित कर लिए, उनको सामने बैठी कौशकि दिखाई दे गयी! वे आगे बढ़े, कपाल हाथ में ही था, 

उन्होंने अपने दोनों हाथों से अपने सर पर रखा, 

और एक महा मंत्र पढ़ा! ये महा-मंत्र सर्व-नाशक था, उस तालाब के सभी जलजीवों का नाश कर देता! लेकिन मैंने रोका नहीं उन्हें, मैं भी तो सर मार रहा था इतनी देर से, अब वो कुछ कर रहे हैं तो मैं नहीं रोकना चाहता था उनको इसलिए, मैं हट लिया वहां से, मित्रगण! मेरे हटते ही, बाबा भूषण नीचे भूमि पर बैठ गए, 

और की एक क्रिया आरम्भ, ये क्रिया ठीक वैसी ही थी, जैसी मैंने की थी, अभी कुछ ही पल बीते थे, कि उनके सर पर रखा क टुकड़े हो गए उसके! ये देख जहाँ मेरे होश उड़े, वहीं बाबा भूषण के पांवों तले ज़मीन खिसकी! इसके बाद तो आफत टूट पड़ी! बाबा भूषण के पास कुछ धुआं सा इकट्ठा हुआ, उनको घेरा उस धुंए ने, और बाबा उठे हवा में, जब तक कि मैं वहां जाता, बाबा को पटक के मारा नीचे, शुक्र था कि वो पानी में गिरे, सो बच गए, अब मैं भागा वहां, महा-बाल विद्या का संधान किया, 

और पानी में गिरे बाबा को पकड़ने चला, बाबा को पकड़ा मैंने और उठाया, उनकी साँसें टूट रही थीं, अभी तक प्रहार झेल रहे थे वो, स्थिति अत्यंत ही भयावह थी, मैं खींच के लाया उनको बाहर, उनका बदन दहक रहा था बुरी तरह! मैंने तभी कंटिका का संधान किया, 

और फूंक से उनके शरीर को दाग दिया! प्रदाह खत्म हुआ, 

। 

और बाबा ठीक! अब हम दोनों ही भागे पीछे की तरफ, एक पल में क्या हो जाए, कुछ पता नहीं था! हम दौड़ कर अलख पर आ गए, 

अलख में ईंधन झोंका, 

और फिर से एक महा-क्रिया आरम्भ की, कौशकि अब लोप हो चुकी थी, अब तक हमारे सारे प्रहार, काट दिए गए थे उसके द्वारा! अब बड़ी ही अजीब मुसीबत आ खड़ी हुई थी, सवाल ये था कि अब किया क्या जाए? वो पराक्ष-कन्या हमारे हर वार का उचित जवाब दे रही थी, ऐसी कोई क्रिया नहीं थी, सौ से सम्बंधित, जिस से वो परिचित न हो, मुझे तो अब 'पढ़ी-लिखी सी लगने लगी थी! पढ़ी-लिखी से अर्थ हआ कि, जैसे हम सिद्धियां प्राप्त किया करते हैं, वैसे ही


   
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श्रीशः उपदंडक
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कौशिकि लगने लगी थी! अभी हम सोच ही रहे थे, अलख में ईंधन झोंक रहे थे कि, मुझे अपने आसपास किसी की मौजूदगी का एहसास हुआ, लगा, कि कोई तो है जो हमारे ऊपर, नज़र रखे हुए है! बाबा भूषण भी भांप गए थे ये मौजूदगी, उन्होंने अपना त्रिशूल उठा लिया था, मैंने अपना गड़ा हआ त्रिशूल उठाया और खड़ा हो गया, बाबा भूषण भी खड़े हो गए थे! मैं दक्षिण में देखता, तो वो उत्तर में, दो औघड़, ऐसे ही देखा करते हैं! ऐसे ही नज़र बाँध कर देखी जाती है। मैं पूर्व तो वो पश्चिम! बाबा भूषण रुके, उन्हें कुछ दिखाई दिया था! मैं भी वहीं घूम गया था, लेकिन सामने कोई नहीं था! 

मैंने बाबा भूषण से पूछा, दरअसल फुसफुसाया मैं, 

और उन्होंने त्रिशूल से इशारा किया, दूर अँधेरे में दो स्त्रियां खड़ी थीं, काले रंग के वस्त्र पहने, बस उनकी आँखें ही दीख रही थी, विडाल जैसी थी आँखें, उनके वस्त्र हवा में उड़ रहे थे, जबकि वहाँ हवा का नामोनिशान नहीं था! "पराक्ष-दामुक्ष!" बोले बाबा भूषण! 

ओह! अब मैं समझा! पराक्ष शक्ति प्रकट हुई थी! हमारा मुकाबला करने को! "खरहोम! खरहोम!" बोले बाबा भूषण! मैं समझ गया! झट से बैठ गया अलख पर, और एक क्रिया आरम्भ की! ये खरहोम का अर्थ होता है, रक्षण! ये डामरी रक्षण है! इसे महा-रक्षण कहते हैं। मैंने मांस के टुकड़े, रक्त, और अन्य सामग्री अलख में झोंके, चर्बी जली और चट चट की आवाज़ हुई! मैंने और बाबा भूषण ने अलख के इक्कीस चक्कर काटे, 

और उस रक्त के प्याले में से, दो दो घूट रक्तपान किया! अब हम सशक्त थे! आ जाए कौन आता है! फिर से कोई हमारे पास से गुजरा, हऊम की मंद सी आवाज़ करते हए। लेकिन आवाज़ स्पष्ट थी, साफ़ सुनी थी मैंने और बाबा भूषण ने 

और अगले ही पल, मेरी गरदन पकड़ी किसी ने! जैसे ही पकड़ी, कोई दूर जा गिरा! बाबा भूषण उठ कर वहीं भागे! 

और वो जो गिरा था, लोप हो गया! मेरी गरदन में भयानक पीड़ा होने लगी थी, मेरी गरदन छिल गयी थी, जैसे किसी लोहे के ब्रश से खरोंच दी गयी हो। 

खून छलछला गया था गरदन से! और फिर से कोई आया सामने! काले स्याह वस्त्रों में, लेकिन बाबा भूषण ने कमाल दिखाया, वे चीते की तरह से लपके उस साये पर, और त्रिशूल की फाल से जैसे शिकार कर दिया हो उन्होंने वो साया चमका, और लोप हुआ! उस प्रकाश में देखा मैंने कि तालाब के पास खड़ी वो, दोनों स्त्रियां, अब नहीं थीं वहां! हम फिर से, पहले वाली मुद्रा में आ गए, हम अलख के चारों ओर घूम रहे थे! नज़रें गड़ाए हुए! शर्मा जी दूर खड़े थे, उन तक कोई नहीं पहुंचा था, वो निहत्थे थे, कुछ देख भी नहीं रहे थे, वो शिकार नहीं थे इन पराक्ष के, शिकार बस हम दो औघड़ ही थे! "बाबा?" मैंने कहा, "हूँ?" वे बोले, "बहुत हुआ बाबा!" मैंने कहा, "तो?" वो बोले, "अहिराक्ष का आहवान किया जाए?" मैंने पूछा, "हाँ! हाँ!" वे बोले, "आप करोगे?" मैंने पूछा, "तुम करो, मैं मुस्तैद हूँ!" वे बोले, अब मैं अलख पर बैठ गया! बाबा अलख की सुरक्ष में डटे थे, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और अब मैंने अहिराक्ष का आह्वान करना आरम्भ किया! ये अहिराक्ष एक आसुरिक वीर है! सो का कट्टर और प्रबल शत्रु है! इसका भोग भी सर्प-मांस ही होता है! ये भक्षण कर जाता है सो का, टिहरी में इस अहिराख को किसी अन्य नाम से पूजा जाता है, 

ये सर्पो से रक्षा करने वाला वीर है! इसी का आह्वान किया था हमने! मैंने अहिराक्ष के आसुरिक मंत्र पढ़े, ये आसुरिक मंत्र, ऐसे होते हैं कि इनका अर्थ समझ में ही नहीं आता! आपको दो शब्द बताता हूँ, करभज और कुरंडम! अब इनका अर्थ कहीं भी नहीं मिलेगा आपको! ये मंत्र सुरक्षित मंत्र हैं, इनको सिद्ध करना भी अत्यंत सरल है, मात्र तीन दिनों में, नौ सौ इक्यासी बार जपने से ही, एक मंत्र सिद्ध हो जाता है, उसके बाद, एक वर्ष तक ग्यारह बार, इनको जागृत करना होता है! मंत्र के जागृत होते ही, साधक का शरीर पुष्ट होने लगता है, रात्रि से प्रेम हो जाता है! मांस और मदिरा से लगाव हो जाता है! तीक्ष्ण गन्धों के प्रति प्रेम होने लगता है! हाँ, काम-भाव नहीं बढ़ता बल्कि, कुंद पड़ने लगता है! लेकिन इन मन्त्रों से, भूत, वर्तमान और भविष्य की जानकारी, स्वप्न में मिलने लगती है! ऐसे ही आसुरिक वीर है ये अहिराक्ष! इसको गोरख मन्त्रों द्वारा मन्त्रों में बाधा गया है, 

और उसी आन के लिए ये कार्य किया करता है। ये दृष्टि से नहीं दिखाई देगा आपको, बस आपको उपस्थिति का भान होगा इसका, तीक्ष्ण गंध आने लगेगी मांस की, हाँ, पानी में देखेंगे तो आपको हल्की सी एक छाया सी दिखाई देगी, आपके शरीर से आठ गुना ऊंची! कमर और बाजुओं में, 

अस्थियां धारण किये हुए, किसी महा भीषण असुर की! 

वो सदैव आपके पीछे ही होगा! ये रखवाला भी है, और शत्रु को समाप्त करने वाला भी! तो हमने इसी अहिराक्ष का आह्वान किया था, अहिराक्षसों का प्रबल शत्रु है! नेवले का एक पर्यायवाची, अहिराक्ष भी है। भारत के कई राज्यों में, अहिराक्ष के प्रति सम्मान दिखाने हेतु, नेवलों को मांस का भोजन खिलाया जाता है, वो इसलिए, कि कोई सर्प कहीं भी उनका अहित न कर पाये। 

और यहाँ तो सर्प ही सर्प थे! अब बहुत हो चुका था, बस! अब तो आर या पार, अब जो होगा, देखा जाएगा! अब या तो ये कौशिकि नहीं, या फिर हम नहीं! मेरे मंत्र अब सघन हुए, अलख में मांस के टुकड़े झोंके जा रहा था मैं, उसके भोग के लिए, पूरा तालाब था! 

और उस समय तो, यही हम चाहते थे! मित्रगण! 

अहिराक्ष-आह्वान के समय कई बाधाएं आयीं! तेज हवा चलने लगी। अलख को बुझाने वाली, लेकिन बाबा भूषण, ढाल की तरह से खड़े थे! पानी की बौछारें हुईं, पानी की काई की चादरें गिरीं! लेकिन बाबा भूषण ने, न तो मुझे, और नहीं ही अलख को, 

कुछ नुकसान होने दिया, वो चक्कर सा काटते थे मेरा, 

और मैं एक एक मंत्र पढ़ते हुए, रक्त के छींटे और मांस के टुकड़े, अलख में झोंके जा रहा था! मुझे कोई चालीस मिनट हो चुके थे! 

और अब आह्वान के समय में, कुछ पल ही शेष थे! तेज चलती हवा, धूल-धक्क्ड़, कूड़ा, हमारे शरीरों पर पटकती थी, लेकिन हम अडिग थे! अलख हमारे प्राण स्वरुप है। 


   
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और अचानक ही! वो तेज वायु, शांत हो गयी! वो काई, वो बौछारें, सब शांत हो चली! हमे अपने चारों ओर, गर्जना सी सुनाई देने लगी! अहिराक्ष आ चुका था वहाँ! हमारे प्राणों का रक्षक अहिराक्ष! हमने फ़ौरन ही, भोग थाल समर्पित किये उसे, 

वो नज़र तो नहीं आ रहा था लेकिन, उसका ताप वहां कोई भी महसूस कर सकता था! उसके कमर में बंधे मृग-सींग की आवाजें आने लगी थीं! 

अस्थियों के चटक-चटक बजने लगी थी! हम दोनों लेट गए, और दोनों हाथ आगे कर दिए। ताप कुछ ऐसा था उसका, कि आसपास लगी घास, गरम हो, जलने लगी थी! सूखे पत्ते, जो गिरे थे वहां, अब दहक रहे थे। "कौशकि है उद्देश्य आपका!" मैंने कहा, एक हंकार उठी! 

और एक पल के सौवें भाग में ही, वो ताप हट गया वहाँ से! हम खड़े हुए, 

और जो दृश्य देखा, 

वो कल्पना ही लगती थी! तालाब के सभी सर्प, पानी से कोई बीस फ़ीट ऊपर, एक चक्र, घुमते हुए चक्र में घूम रहे थे! पानी में उनके घूमने से, वलय पड़ गया था! एक आग का गोल चमका और और वे सभी सर्प, लोप हो गए! न जाने कहाँ! शायद भक्षण हो चुका था उनका! अहिराक्ष के समक्ष, चाहे नाग हों, या फिर पराक्ष, मात्र सर्प ही हैं। और कुछ नहीं! अहिराक्ष महा-प्रबल और महा-भीषण आसुरिक वीर है! सपों का जैसे नाश हो गया था! अहिराक्ष ने हुंकार भरी, हमे सिर्फ हुंकार ही सुनाई दी, 

और इसके बाद जो हुआ, वो भी कल्पना से परे था। एक एक रक्षक, हवा में उड़ रहा था! जैसे पानी में से उसे किसी चुम्बक ने खींचा हो, वो घूम रहा था और आग के शोलों में तब्दील हुए जा रहा था! उसके बाद वो पराक्ष कन्यायें! वे सर्प रूप में, घूम रही थीं, हाँ, कोई चीख पुकार नहीं थी! सिंहपर्णिका,रंगवल्लिका आदि आदि सबका भक्षण हए जा रहा था! 

ये हम नहीं जानते थे कि, उनका भक्षण हुए जा रहा था या फिर वे कहीं और भेजे जा रहे थे। या कैद हो रहे थे। हम तो यही देख रहे थे, कि आग उठती, 

और वे लोप हो जाते थे। कुछ पल शान्ति हुई! 

और फिर से हंकार गूंजी! भूमि पर, लौह-दण्ड पटकने की आवाजें आयीं! जैसे मुग्दर टकरा रहे हों आपस में! तांडव मचा दिया था वहाँ, उस तालाब में अहिराक्ष ने! अब निर्णय की घड़ी थी! अब शेष बची थी तो वो कौशकि! पानी में आग के शोले भड़के! 

ये हवा में से ही प्रकट हुए थे। तालाब पर मानो, दीपावली के दीये से सजा दिए गए थे! आग प्रकट होती, 

और फट कर असंख्य शोलों में तब्दील हो जाती थी। वहाँ, अजीब खेल चल रहा था। फिर से हंकार उठी! 

और पानी में जगह जगह भंवरेंसी बनने लगी! पानी का रंग एकदम काला, भक्क काला हो गया था! पानी में झाग बन रहे थे! झाग ऐसे थे, जैसे किसी रक्त-कुंड में हुआ करते हैं! पानी और अन्य गव में, ये झाग अधिक देर तक नहीं ठहरते, न ही बुलबुले अधिक समय तक रहते हैं, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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लेकिन रक्त कुंड में ये झाग, गाढ़े,अधिक देर तक ठहरने वाले, और स्थायी से लगते हैं! तालाब में, जगह जगह आग भड़क जाती थी! 

और तब, जहाँ अहिराक्ष खड़ा था, जहाँ उसकी उपस्थिति थी, 

आग भड़क गयी! लगा कि, साक्षात अगिया वेताल प्रकट हो गया है। वो आग कम से कम, बीस फीट ऊंची थी! ये क्रोध था उस अहिराक्ष का! मित्रगण! 

आग का वो पिंड, तालाब का चक्कर सा काटने लगा हुंकार पर हुंकार हुई 

और तभी भीषण गर्जना हुई! पानी जैसे दो भाग हो गया! वहां कई पराक्ष प्रकट हुए! सभी राजसिक वेशभूषा में! 

वोअग्नि-पिंड, ठहर गया और शांत हुआ! हंकार हुई, और वे पराक्ष, जैसे घबराये! 

और देखते ही देखते, वे पराक्ष, एक एक करते हुए, लोप होते गए। अहिराक्ष का कहर टूटा था! तालाब आज या तो रहने नहीं वाला था, 

या फिर, ये कौशकि, आज अपने जीवन का सबसे कड़वा सच जानने वाली थी! अहिराक्ष की फिर से इंकार गूंजी! और इस बार, इस बार तालाब के ऊपर, कौशकि प्रकट हुई। अपने कुछ रक्षकों के साथ! ये रक्षक सभी, राजसिक वेशभूषा में थे! उन रक्षकों को, तभी आग ने लील लिया! 

और कौशकि, लोप हो गयी। मित्रगण! 

अगले बीस मिनट तक, हम टकटकी लगाये, नज़रें गड़ाए, साँसें साधे, वही देखते रहे। कुछ न हुआ, न तो वहाँ कौशकि ही थी, और न ही वो अहिराक्ष! न जाने क्या हुआ था! हम दोनों ही अचंभित थे! 

क्या हुआ? कहाँ गए? 

अहिराक्ष कहाँ है? और वो कौशकि? कहाँ गयी! पानी शांत था, लेकिन हमारे हृदय, आज तो अश्वों को भी पछाड़ देते! वो दोनों ही लोप थे, मरघट सा सन्नाटा पसरा था वहां! वायु प्रवाह था नहीं, इसी कारण से, तालाब भी शांत था! चन्द्र, अपने सिंहासन पर विराजित थे, और खगोल में, परिभमण करते हुए, अपने संगी मित्रों के संग, वो तारागण, सभी हमे टकटकी लगाए देख रहे थे। चन्द्र का प्रकाश आज बहुत खिला हुआ था, संभवतः वो हमारे ही पक्ष में थे! यही लगता था! मैं और भूषण बाबा, दौड़ कर तालाब के किनारे, 

आ गए थे, और नज़रें गड़ाए वहीं देख रहे थे, तालाब के मध्य! मैं और बाबा भूषण, एक दूसरे को, कभी कभार, देख लिया करते थे! 

और तभी वायु में अग्नि प्रकट हुई! कुछ अत्यंत ही विशाल सर्प, प्रकट हए, जो कि, कटे-फटे से प्रतीत होते थे! किसी का सर नहीं था, और किसी की, 

पूँछ नहीं थी, कुछ दो टुकड़ों में थे, ये सब उस महाप्रबल अहिराक्ष का तांडव था! वो उस पराक्ष-गुहा में प्रवेश कर गया था शायद, 

और खींच खींच कर, इन पराक्ष वीरों का, मान-मर्दन करता जा रहा था! 

अहिराक्ष अपने लौह-दण्ड से वार किया करता है! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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भूमि में मारे तो कुँए बना दे! ऐसा प्रबल है ये अहिराक्ष, असुर बीर! अहिराक्ष ने, समूचा पराक्ष-कुनबा जैसे, शक्तिहीन कर दिया था! एक एक पराक्ष को, दण्ड दिए जा रहा था! उसकी हुंकार गूंजी! लेकिन वो कौशकि, अभी भी लोप थी! कुछ और पराक्ष हवा में उड़ते हुए आये, इनका वर्ण लाल था, वे भी कटे-फटे से थे, अहिराक्ष किसी को भी नहीं बख्श रहा था, जो उसके समक्ष आता था, उसी की शामत आ जाती थी! और फिर कुछ काले सर्प भी अग्नि में, धधकते हुए प्रकट हुए, 

और जल में समाते चले गए! अहिराक्ष खेले जा रहा था उनके साथ! वे प्रकट होते, और तालाब में समाते जाते! एक घंटा बीत चुका था, रात के तीन बज चुके थे, 

और इधर पराक्ष-संहार ज़ारी था! अभी तक वो कौशकि और कुछ शक्तिशाली पराक्ष, नहीं रोक पा रहे थे इस अहिराक्ष की ये महा-लीला! आज तो जैसे, अहिराक्ष ने शपथ ली थी, इस स्थान को पराक्ष-विहीन करने की! हमे आनंद का आभास हो रहा था! सामर्थ्य को चुनौती दी थी उस कौशकि ने हमें, हमने दिखा दिया था अपना सामर्थ्य! 

अब कौशकि कहाँ छिपी बैठी थी, इसका भान नहीं था हमे! 

सहसा, कौशकि दिखी, वो जल से प्रकट हुई थी, उस तालाब के मध्य! 

अकेली ही थी, 

संग कोई नहीं था! मित्रगण! 

अग्नि के बड़े बड़े पिंड उसकी ओर लपके, लेकिन उसकी परिक्रमा करने लगे। कौशकि, कभी कहीं प्रकट होती, 

और कभी कहीं! गजराज जैसी चिंघाड़ हुई अचानक! 

और कौशकि लोप हुई! अग्नि पिंड भी जल में समा गए! वे बुझे नहीं थे। कमाल की बात थी! जल जैसे अपना गुणधर्म भूल गया था। स्पष्ट था, अहिराख के सामने अब कौशकि मात्र शेष बची थी! लेकिन वो, अपनी सुरक्षा हेतु, इधर उधर भाग रही थी! हमारी साँसें थमी थीं! दिल धड़कना बंद सा हो गया था! धड़कनें इतनी तीव्र थीं! 

और तभी मित्रगण! वो कौशकि, जल से ऊपर आई, अपने गले को पकड़ते हुए, अग्नि से घिरी हई, हवा में उड़ती हुई, तालाब की परिक्रमा सी करती हुई, ये खेल कोई दस मिनट चला, 

और धम्म! धम्म से चारों खाने चिट हो कर, हमारे सामने आ गिरी! वो अग्निपिंड, 

अभी भी चक्कर लगा रहे थे उसका! कौशकि की, सारी हेकड़ी और बल, सब चकनाचूर हो चुके थे। अहिराक्ष के तांडव ने, उसको शक्तिहीन कर दिया था! कौशकि खड़ी हुई, दोनों हाथ जोड़े, भावशून्य सी, हम जान गए थे कि, 

उसने अब हार मान ली है! लेकिन इस कौशकि ने हमे, बहुत सताया था! बहुत छकाया था! इसको दण्ड मिलना अत्यंत आवश्यक था! ताकि, भविष्य में, कोई भी भूप सिंह, इसके सम्मोहन में ग्रसित न हो सके! "कौशकि!" मैंने कहा, वो खड़ी रही, हाथ जोड़े, "मैंने कहा था न! सर्वनाश हो जाएगा तेरा! तू नहीं मानी!" मैंने कहा, मैंने ये कहा, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और उसके पीछे, सैंकड़ों पराक्ष प्रकट हुए! वो अग्निपिंड आकाश में ज्यों का त्यों खड़ा था! नाश करने के लिए, इन पराक्षों का अब हम हँसे! अट्टहास किया! वो पराक्ष, अपने अस्तित्व के लिए भीख मांग रहे थे! कौशकि के परा-विद्या, सब, धरी की धरी रह गयी थी! 

वो मानव नहीं, जो हठ करे, जो अपने प्राण दांव पर लगा दे! ये तो मानव ही है, जो ठान लिया, वो करके छोड़ा। "कौशकि? अब भूप सिंह मुक्त हुआ?" मैंने पूछा, 

और उत्तर! उत्तर नहीं मिला मुझे उसकी वाणी में! बस, एक मूक सा भाव! 

और उस मूक भाव में, हाँ ही छिपा था! "ये स्थान अब, पराक्ष का नही रहेगा! कभी भी नहीं!" मैंने कहा, 

और फिर से उत्तर हाँ! मैं वापिस हुआ अब, अपनी अलख के लिए! वचन मिल गए थे। 

और अब कोई आवश्यकता नहीं थी! अब मैं अलख पर बैठा! धुमा-बंडिका का जाप किया, 

और उस महावीर अहिराक्ष को वापिस जाने हेतु, जाप किया! कुछ ही पलों में, वो अग्निपिंड लोप हो गया! 

अहिराक्ष, जहां से आया था, अब वापिस हुआ था! अब बहुत प्रसन्न थे हम कौशकि ने घुटने टेक दिए थे। हार स्वीकार कर ली थी! अब कुछ एवज चाहिए थी हमें! एवज। 

और वो एवज थी तवश्ला! वो अभी तक याद थी मुझे! परम काम-सुंदरी! मैंने स्मरण ही किया था कि, 

वो प्रकट हई! मुस्कुराते हुए! 

तवश्ला, इसी ने तो मार्ग प्रशस्त किया था हमारा! मित्रगण! तवश्ला से कभी नहीं मिला उसके बाद, सुना है वो तालाब भी अब सूख चुके हैं, कोई दैविक कारण से ही, मैं इसी वर्ष गया था वहाँ, अब तो सूखे गड्ढे हैं वहां! 

और कुछ नही, बस झाड़ियां ही हैं वहां! 

खैर, हम जीत गए थे! अब बाबा भूषण को तय करना था, कि आगे क्या किया जाए, बाबा नहल नाथ होते, तो अलग ही बात होती, लेकिन वो थे नहीं, इसीलिए, बुजुर्ग होने के नाते, अब बाबा भूषण ही निर्णय करते! 

और निर्णय होने ही वाला था! भूप सिंह अब मुक्त था! प्राण बच गए थे उसके। 

और यही तो उद्देश्य था हमारा! मित्रगण! बाबा भूषण ने कोई मांग नहीं की, उनके अपने ऊपर ही विश्वास था! कौशकि को छोड़ दिया उन्होंने, कौशकि, लोप हो गयी उन सभी परक्षों के संग! रह गयी तो बस, तवश्ला! उस से भी विदाई ली! सब समाप्त हो गया था! अब शेष कुछ नहीं था.... मित्रगण! दो माह बीते, भूप सिंह पहले जैसा ही हो गया था, लेकिन आज भी लम्पट ही है! 

काम-पिपासु व्यक्ति है! बाबा नहल नाथ, इसी वर्ष बैसाख में स्वर्ग सिधार गए हैं, बाबा भूषण, आजकल गोरखपुर में हैं, एक बात जो मैंने जानी, 

और कामना की, कि कभी भविष्य में, इन पराक्षों से, कभी सामना न हो! 

वो कौशकि, वो तवश्ला अच्छी तरह से याद हैं मुझे! वो ज़िद्दी कौशकि, और वो काम-विल्लारी तवश्ला!

------------------- साधुवाद--------------------- 


   
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