वैसा ही तापमान था! वैसी ही स्थूलता, और वैसा ही कामुक-भाव! "तवश्ला!" वो बोली, तवश्ला । इस नाम का अर्थ मैं आज तक नहीं जान पाया हूँ!
और ये नाम मैंने उस दिन से पहले कभी सुना भी नहीं था, और उसके बाद भी, आज तक नहीं सुना, न कहीं पढ़ा ही! हाँ, नागों से संबंधित एक मंत्र में रवश्ला नाम तो आता है,
उसका अर्थ होता है, दामिनी की अगन! नाम तो बहुत अच्छा था रवश्ला!
और अब ये तवश्ला ! इसका अर्थ क्या है, पता नहीं!
कभी पता ही नही चला! "वो, पराक्ष-कन्या कहाँ है, जिसके सम्मोहन में वो मानव उलझ गया है?" मैंने पूछा, उसने सुना तो सबकुछ, लेकिन कुछ बोली नहीं, बस अपना एक हाथ मेरे सर पर रखा,
और मेरी आँखें बंद हुई! लगा, न जाने कितना बोझ पड़ गया है मेरे ऊपर! मुझे संभाल लिया था उसने, इसीलिए नहीं गिरा था मैं! उसने फिर से हाथ लगाया मेरे चेहरे पर,
और सच कहता हूँ, मेरी सारी नीमबेहोशी, सारी थकान, सारा भय, सब समाप्त हो गया। मैं खड़ा हुआ अचानक ही! वो अभी भी खड़ी थी वहीं! मैं पीछे हटा! वो और करीब आई! "वो पराक्ष कन्या कहाँ है तवश्ला?" मैंने पूछा, "यहां नहीं है वो" वो बोली,
क्या ? यहां नहीं है? तो फिर कहाँ है? "कहाँ है फिर वो?" मैंने पूछा, "जानना चाहते हो?" उसने पूछा, "हाँ तवश्ला!" मैंने कहा,
अब उसने मुझे एक स्थान बताया, ये स्थान इस जंगल के इस तालाब से,
बहुत दूर था! कोई दस किलोमीटर दूर! ये भूप सिंह वहीं जाया करता था! अब आया समझ में! मैंने तवश्ला का धन्यवाद कहा, उसने मेरी मुसीबत हल कर दी थी, लेकिन एक बात और बतायी, वो सदैव वहाँ नहीं रहती, वो एक निश्चित तिथि पर ही वहाँ होती है! और वो तिथि आने में अभी चार दिन थे! रहस्य और उलझ गया था। जहां हम ढूंढ रहे थे उसको, वो वहाँ थी ही नहीं। तवश्ला ने मदद की थी मेरी! मैं प्रसन्न हो गया था उस से! तवश्ला से फिर एक बार और मिलने की इच्छा जाहिर की मैंने, मान गयी वो!
ये तो मेरा भाग्य प्रबल हो उठा था! दरअसल उसके रूप के आगे मैं, पानी पानी सा हो गया था!
क्या करता! नहीं रहा गया था। अब झूठ क्यों बोलूं मैं! सच ही लिख रहा हूँ! उसने जब हाँ कहा तो सच में,
अपने आपको वहाँ मौजूद सभी लोगों में, सबसे अधिक भाग्यशाली समझ रहा था!
खैर! तवरला चली गयी! मुस्कान बिखेरती हुई,
और मैं हिम जैसा पिघलता रहा! अब वहां शेष कुछ नहीं था हमारे लिए! तवरला तो वरदान सा बन कर आई थी!
लेकिन उसने मदद की, आखिर क्यों? ये भी तो कोई चाल हो सकती थी? लेकिन दिमाग ये सोच ही नहीं रहा था! बस, एक विश्वास था, कि तवश्ला ने कोई चाल नहीं खेली थी। मैं वापिस हुआ अब, आया उनके पास, बाबा नहुल नाथ उठ बैठे मुझे देख कर, अब कुछ ठीक से लग रहे थे वो, मैंने अब सबकुछ बता दिया उन्हें, अब, सभी समझ गए थे सारी कहानी! अब मैं गया भूप
सिंह के पास. वो बंधा हुआ था! मुझे देख, बालकों की तरह से बिलखने लगा! अब मैंने खुलवाया उसको! लेकिन भागने नहीं दिया, कह दिया उन लोगों से, कि यदि ये ज़्यादा ही तीन-पांच करे, तो इसको बाँध के लेते आना! कोई दया नहीं दिखानी है इस पर, नहीं तो मारना तो तय है ही इसका, आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों! समझ गए थे वे लोग भी!
और अब उसको हाथों से बांधकर, खींचते ले गए अपने संग! मैं बाबा भूषण और शर्मा जी के साथ वो पिंजरा उठाकर, चल दिया, वापिस, बाबा नहल नाथ के स्थान पर! हम वापिस आ गए थे बाबा नहल नाथ के स्थान पर,
भूप सिंह बहुत चिल्लाया था! अनाप-शनाप बाके जा रहा था, बीच बीच में लेट जाता था,
उठता नहीं था, तो उसको खींच कर हम आगे बढ़ाते थे, वो बैठ जाता था कहीं कहीं, पीछे मुड़ मुड़ के देखता था, बिफर पड़ता था, रोने लगता था, हाथ जोड़ता था, पाँव पड़ता था,
और जब बात नहीं बनती, तो गालियां भी दिया करता था! दो घंटे का रास्ता उसने पांच घंटे का कर दिया था, उसको स्थान पर लाते ही, बंद कर दिया एक कमरे में, मैंने एक दो तमाचे भी जड़ दिए थे उसको! लेकिन उसको असर ही नहीं पड़ता था! उसने ज़िद पकड़ी हुई थी! उसको जाना था, वो कुत्ते की तरह से गुर्राता था, थूकता था, दरवाज़े पर लातें मारता था! लेकिन किसी ने नहीं सुनी उसकी एक भी! हम सो गए थे पिंजरा मैंने वहीं अपने कमरे में रख दिया था,
अब कल से उस करैत सांप की दवा-दारु करनी थी!
और फिर उसको क्षमा मांग, छोड़ देना था! करैत जिस लिए लाया गया था, वो काम, सही से निबटा दिया था उसने! अब उसको कैद रखना, उचित नहीं था, ये पाप कमाना जैसा होता, रात बहुत हो गयी थी, अब सोने की तैयारी की, वो भूप सिंह जब चिल्लाता था तो कुत्ते भी भौंकने लगते थे! ऐसा शोर मचा हुआ था वहाँ, हर तरफ! मित्रगण! इन चार दिनों में, मैंने एक एक विद्या का संचरण किया, मंत्र जागृत किये,
और दो बलि-कर्म भी किये, इस से मैं सशक्त हो उठा था,
और उस पराक्ष कन्या अथवा अन्य किसी भी रक्षक से, बिना मुश्किल, निपट सकता था।
आया फिर पांचवां दिन, उस दिन बहुत तैयारियां की मैंने, श्री श्री श्री से भी वार्तालाप हुआ, उनसे भी मार्गदर्शन मिला मुझे,
और फिर आई वो रात, जब हमे वहाँ जाना था, उस भयानक गर्मी में दस किलोमीटर और ये चार किलोमीटर चलना, ऐसा था जैसे कच्छ का रेगिस्तान पार करना! हमने खा-पी लिया था, पानी भी भर लिया था,
और इस तरह हम कुल सोलह लोग, चल पड़े उस रात उस भूप सिंह को लेकर, आज भूप सिंह ने कोई विरोध नहीं किया था, उसको मालूम था कि उसको कहाँ ले जाया जा रहा है। उसके हाथ अभी भी बाँध रखे थे, मैं सबसे आगे चल रहा था, टोर्च लिए, शर्मा जी के संग, मेरे साथ बाबा भूषण और बाबा नहल नाथ चल रहे थे, बाबा नहल नाथ के साथियों में से ही एक ने, मेरा सारा सामान उठाया हुआ था! मज़बूत इंसान था वो!
और इन जंगलों का आदी भी था! वो कई कई किलो लकड़ियाँ ले आया करता था जंगल से! मेरा सामान उनसे तो हल्का ही था! हम दो घंटे में, उस तालाब के पास से हो कर गुजर गए थे,
रास्ता यहीं से आता था वो वाला, नहीं तो खाइयां सी बनी थीं दूसरी तरफ तो, उस तालाब को देख कर,
भूप सिंह अपना आप खो बैठा! रोने लगा! चिलाने लगा, बैठ गया, गिड़गिड़ाने लगा!
खोल दो, खोल दो कहने लगा!
हाथ जोड़े, पाँव पड़े! तालाब की तरफ इशारा करे! मैंने एक न सुनी, चाहे उसको घसीटना ही होता तो भी, उसको घसीट के ले जाते हम! उसने न जाने क्या ठानी! लपक के मेरे पास आ गया,
और मेरे कंधे पर अपने दांत गड़ा दिए, मैंने एक मुक्का मारा उसके चेहरे पर, मुक्का नाक पर लगा, नक्सीर छूट गयी उसकी,
आँखों के सामने अँधेरा आ गया उसके। लहुलुहान हो गया वो! नीचे गिर पड़ा था! उसको शर्मा जी ने एक और लात दी खींच के, गाली-गलौज करते हए! मुझे तो छोड़ दिया था उसने,
और मुझे चोट भी नहीं आई थी, बच गया था मैं,
अब उसको घसीटा हमने, सर पर पानी डाला एक जगह रुक कर, तब जाकर उसका खून बहना बंद हुआ! अब फिर से उठाया उसको हमने और ले चले साथ अपने, खून उसके कपड़ों पर पड़ा था, सारे कपड़े लाल हो चुके थे, लेकिन उसकी अभी तक बोलती बंद नहीं हुई थी! अभी पांच किलोमीटर ही चले थे हम कि, हमारी तो जीभ बाहर आ गयी! ज़मीन तप रही थी! पसीनों के मारे ये हाल था कि, हमारे जांघिये भी पसीने से तर हो चुके थे।
अब तो जांघ बी लगने लगी थी, हम रुक गए,
एक जगह बैठे वहाँ, जंगल के कीट पतंगे भुनभुना रहे थे! अजीब अजीब सी आवाजें आ रही थीं! लगता था जैसे आसपास बहुत से रीछ हैं। जैसे भेड़िये हम पर नज़र रखे हुए हैं। वैसे तो हमारे पास चाकू, कुल्हाड़े और हंसुआ भी थे, कोई जानवर आता तो मुकाबला किया जा सकता था उसका! पानी पिया हमने,
और फिर कोई पंद्रह मिनट के बाद हम आगे बढ़ चले, रास्ते में भूप सिंह फिर से बिगड़ गया, जी में तो आया साले के हाथ पाँव ही तोड़ डालूं! लेकिन वो खुद मज़बूर था! वो तो हमसे भी भी अधिक भटका हुआ था। इसीलिए उसको एक दो चांटे लगा दिए बस,
और ले चले अपने साथ! तीन किलोमीटर और पार किये हमने, अब तक ग्यारह बज चुके थे रात के, चन्द्रमा सब देख रहे थे कि, ये सोलह लोग, कहाँ और किसलिए जा रहे हैं, अब तो तारागण भी झाँकने लगे थे नीचे! चांदनी खिली हुई थी! हम चलते रहे,
और आ गए उस स्थान पर जहाँ हमे आना था! ये एक अलग ही स्थान था! यहां भी एक तालाब था, लेकिन पहले वाले तालाब से चार गुना था ये तालाब, कुछ और भी छोटे छोटे तालाब थे वहां, कमल खिले हुए थे! पानी में कुमुदिनी भी लगी थी, अपने प्रेमी चन्द्र के संग संग अपना मुख करती है ये, प्रत्येक रात्रि! अमावस को नहीं खिलती!
और जब इसके फूल टूट के गिरते हैं,
तब वे डूब जाते हैं। कहते हैं, इतना रोटी है ये कुमुदनी कि, अपने आंसू का भार ही इसकोडुबो देता है! भरी गर्मी में भी, इसके फूलों पर ओंस रहती है। यही हैं इसके आंसू! चन्द्र से प्रेम करने के कारण, चंद्रदेव की पत्नी ने ही श्राप दिया था इसको तभी से, ये कुमुदनी, आज भी अपने प्रेमी, चन्द्र को निहारती रहती है! ऐसा कुमुद-प्रेम, मात्र ये कुमुदनी ही कर सकती है!
खैर, मैंने तालाब का अवलोकन किया, तालाब बहुत गहरा और बड़ा था। यही था उस पराक्ष-कन्या के आने का स्थान! भूप सिंह! भूप सिंह तो पागल हो गया था यहां आकर! उसको अब बाँध दिया गया था एक पेड़ से, अब चिल्लाये तो चिल्लाये! और वो चिल्लाता ही रहा! अब बाबा नहल नाथ ने अलख उठाने की तैयारी की! बाबा भूषण ने मदद की, आसन बिछा दिए गए, मेरा आसन भी लगा दिया गया! मैंने अब औघड़-श्रृंगार किया! अपने तंत्राभूषण धारण किये। और बैठ गया उस क्रिया में! बाबा नहल नाथ ने सारा सामान सजाया, भोग-थाल आदी लगाए, फिर भॉसजाया, कपाल निकाल लिए थे उन्होंने,
और ये कपाल वहीं रखे थे,
मैंने भी अपना सिद्ध कपाल निकला लिया था! उसके मुंड पर,
एक बड़ा सा दीया जल दिया गया था!
और इस तरह सभी कपालाओं पर, दीये लगा दिए गए। अँधेरे में वो दीये, टिमटिमा रहे थे!
अब क्रिया का आरम्भ हुआ, सभी ने अपने अपने ईष्ट से, सर्व-मंगलम की कामना की, अघोर-वंदना हुई, गुरु-नमन हुआ, और फिर स्थान नमन! फिर भस्म-लेपीकरण! इसीको भस्म-स्नान कहते हैं! इस से बड़ा कोई श्रृंगार नहीं! ये महाश्रृंगार है! अब क्रिया आगे बढ़ी! करीब एक घंटा लगा था उसमे! भस्म को अभिमंत्रित किया गया।
और फिर बाबा नहुल नाथ ने, उस तालाब के पास,
नौ जगह वो भस्म छिड़क दी! अब कोई प्राण-संकट नहीं हो सकता था, जब तक हम इस स्थान पर थे! बाबा नहुल नाथ ने, एक मुट्ठी भस्म उठायी,
और चले तालाब की तरफ, और जैसे ही तालाब में भस्म फेंकी, उन पर जैसे कोई आघात हुआ! वो पीछे जा गिरे। मैं भाग लिया उनकी तरफ, बाबा भूषण और शर्मा जी भी भागे,
बाबा को उठाया, उनका सर खुल गया था! खून बहे जा रहा था! जल्दी ही एक कपडा बाँध दिया गया उनके सर पर! अब वो क्रिया में नहीं बैठ सकते थे। ये वार. पराक्ष-रक्षक ने ही किया था! सूक्ष्म रूप में। अब तो सभी के प्राण संकट में थे! मैंने जल्दी ही सभी को अलख के पास बुला लिया!
और बाबा को लिटा दिया वहीं, एक जगह, उनके साथ दो सहायक थे, उनकी मदद के लिए! सभी सुरक्षा घेरे में आ खड़े हुए, सभी हैरत में थे, भय में पड़े थे, न जाने कब क्या हो जाए, मेरी भी स्थिति कुछ ऐसी ही थी, भय तो नहीं था लेकिन आशंकाएं नाच रही थीं, मेरे मन में, अदृश्य होकर वार किया गया था बाबा नहुल नाथ पर,
और पराक्ष इसमें माहिर हुआ करते हैं, वो पराक्ष-कन्या कहाँ थी, ये भी नहीं मालूम था, अब एक कार्य करना था कि, भूप सिंह को छोड़ा जाए, वही निकाल सकता था सुराग! मैंने ये, अपनी मंशा बाबा भूषण और शर्मा जी से कही,
वे राजी थे मेरे प्रस्ताव से, आखिर में, यही निर्णय लिया गया कि, भूप सिंह को छोड़ दिया जाए, ताकि कुछ सुराग मिल सके, बाकी मुझे ही देखना था, बाबा नहुल नाथ तो, बुरी तरह से घायल हुए थे,
उनके बस में नहीं था कोई मदद करना, बस वो उस समय तक शांत रहें, जब तक ये भूप सिंह, ठीक नहीं हो जाता, मित्रगण, मैं खड़ा हुआ वहाँ से, तालाब तक आया,
और कृद्रुप मंत्र पढ़ा, यहां मात्र यही मंत्र मदद कर सकता था, यही चल सकता था, कलुष मंत्र अशरीरी को दिखाता है, इन पराक्ष के पास शरीर तो था ही, कलुष जैसा साधारण मंत्र आसानी से भेद दिया जा सकता था! लेकिन ये कृद्रुप नहीं! ये स्थिर मंत्र है, जो चलाता है, वही वापिस ले सकता है! ये मंत्र आठ कछुओं के मांस द्वारा पूजित है, चौंसठ दिन की साधना है, त्रिपुर-सुंदरी का अभी मंत्र है ये! इनकी एक प्रधान सहोदरी इसकी अधिष्ठात्री है! मैंने इसी का जाप किया था,
अपने नेत्र पोषित किया, और जैसे ही नेत्र खोले, तालाब का पानी पटा हुआ था इंसानी लाशों से! ये सभी भूप सिंह थे! सभी, जो इस पराक्ष-माया से पीड़ित हुए थे!
ये एक चेतावनी भी थी! मेरे लिए, ये मेरा हश्र दिखाया जा रहा था कि, क्या होगा यदि पराक्ष क्रोध में आ जाएँ तो! खैर, न मुझे डरना था और न मैं डरा ही! मैं जिस कार्य से आया था, वही पूर्ण करना था! अब चाहे कुछ भी हो! या तो मैं नहीं, या फिर ये पराक्ष नहीं!
मैं वहीं बैठ गे, तालाब के किनारे ही, त्रिशूल मेरे पास था ही, मैंने एक मंत्र पढ़ा, ये प्रत्यक्ष-मंत्र था, इसको हाज़िर-मंत्र भी कहा जाता है,
ये शाबर मंत्र है, शाबर मन्त्र के विषय में लोग बहुत कम ही जानते हैं, अक्सर पूछते हैं कि, इन मन्त्रों को सिद्ध करने में, कोई दिन, वार, मुहूर्त अथवा तिथि की आवश्यकता नहीं होती, न ही कोई दशांश हवन आदि की, ऐसा किताबों में भी लिखा जाता है, लेकिन हक़ीक़त इस से अलग है! शाबर मंत्र, ऋतुओं के अनुसार सिद्ध किया जाते हैं, हर मंत्र की एक खास ऋतु होती है, एक दिन में भी, छह ऋतुएँ अपना काल भोग करती हैं, ऐसी ही ऋतु-काल में ये सिद्ध किये जाते हैं, अब दूसरा प्रश्न ये कि, ये घर में भी सिद्ध होते हैं? उत्तर है नहीं! मंत्र कभी भी वहाँ सिद्ध नहीं हुआ करते जहां सर के ऊपर आकाश न हो! अर्थात, सर के ऊपर छत अथवा कोई कपडा आदि भी नहीं होना चाहिए! ये नग्न रूप में सिद्ध होते हैं, वस्त्र धारण करके नहीं! शाबर का रथ है, श्मशानी! अर्थात, ये मंत्र मात्र श्मशान में ही सिद्ध हो सकते हैं, अन्य कहीं और नहीं! जिस शिवालय का वर्णन आता है किताबों में, वो श्मशान में बना हुआ शिवालय ही हुआ करता है। अथवा, अपने हाथों से, पत्थर अथवा मिट्टी से लिंगम् बना लिया जाता है, मंत्र सिद्धि पश्चात वो लिंगम् नदी में प्रवाहित किया जाता है! मंत्र में, कई वीरों का ज़िक्र हुआ करता है, जैसे मसान वीर, कलुआ वीर, कमाल शाह वीर, मोहम्मदा वीर, नाहर वीर, सिंघिया वीर,
कोठे वाले वीर, शाह साहब वीर आदि आदि, इनका भी पूजन अति-आवश्यक है! लोग ये नहीं जानते, और शाबर मंत्र जपते चले जाते हैं!
और अनजाने में ही अपने ऊपर मुसीबत मोल लेने लगते हैं! शाबर मंत्र पढ़ने से पहले, इनके रचियता और ईष्ट का नमन होता है। रचियता हैं श्री गोरखनाथ जी,
और ईष्ट हैं श्री महाऔघड़! रचियता का नाम जब तक नहीं लिया जाएगा, ईष्ट का नाम जब तक नहीं लिया जाएगा, तब तक कोई भी मन्त्र प्रस्फुटित नहीं होगा! शाबर मंत्र कीलित हैं, इनका कीलन हटाया जाता है सबसे पहले, तब जाकर ये मंत्र काम करते हैं, कीलन हटाने की विधि अत्यंत क्लिष्ट और दुष्कर है। यहां नहीं लिखूगा मैं! गायत्री मंत्र भी कीलित है, इसको कितना ही जपो, कोई लाभ नहीं होगा! जब तक इसका कीलन नहीं हटाया जाएगा! इसका कीलन हटाने के लिए, ग्यारह हज़ार बिल्व-पत्रों पर, अनार के पेड़ की कलम से, सिन्दूर से बनी स्याही लेकर, शिव-पंचाक्षरी मंत्र लिखा जाता है, तब ये गायत्री मंत्र से कीलन हटाता है! उसके बाद ही ये मंत्र काम करता है! मंत्र सिद्ध होने के पश्चात, अपने आप काम करे, ऐसा भी नहीं हैं! एक निश्चित संख्या में इसको पढ़ना होता है, तब ये जागृत होता है! तो मैंने यहां, उस तालाब पर, शाबर मंत्र पढ़ा था,
त्रिशूल अभिमंत्रित किया था इसी से ही!
और फिर मैंने त्रिशूल का फाल, पानी में डुबो दिया! पानी में लहर सी उठ गयी! तरंगें सी चल पड़ीं! मेरा हाथ भी झनझना गया था! लगा कि, त्रिशूल छूट जाएगा हाथ से मेरे! पानी में हलचल सी हुई!
आणि में फव्वारे से छूट पड़े, छोटे छोटे!
और उन फवारों में से, सफ़ेद सफ़ेद सांप, जो कि हज़ारों थे, ऊपर उछलने लगे! सांप पानी में तैर रहे थे, चमक रहे थे, उनका जैसे जाल सा बिछा था तालाब में! पारे जैसी चमक थी उनमे! मैं खड़ा हुआ! एक और मंत्र पढ़ा,
और मिट्टी ली एक चुटकी, फेंक दी तालाब में,
पानी में विस्फोट से हए! कई सांप ऊपर उछलने लगे!
और फिर सब शांत हो गया! जितनी जल्दी ये उफान हुआ था आरम्भ, उतनी जल्दी ही समाप्त भी हो गया! कुछ हाथ नहीं लगा! अब मैं उठा, गया भूप सिंह के पास! मुझे देख हंसने लगा था वो! हाथ जोड़ कर, हँसे जा रहा था!
मैंने उसके हाथ खुलवा दिए, वो तीर की तरह से भागा और, जा कूदा तालाब में! पानी में गोता लगाया,
और एक ही चुबक में, पूरा शरीर पानी में समा गया उसका! मैं दौड़ा किनारे की ओर, जहां वो कूदा था वहीं देखा मैंने, पानी सफ़ेद सा हो गया था वहाँ!
और अचानक ही, वो पानी से बाहर निकल, दर्जनों सांप उसके शरीर पर लिपटे थे! सफ़ेद रंग के सांप! धारीदार! वो हंस रहा था और, न जाने कौन सी भाषा में बोले जा रहा था! अब मेरे पास यही एक अंतिम विकल्प था! कि, कैसे भी वो पराक्ष कन्या आ जाए, कुछ बात हो,
और कोई रास्ता निकले. मैं इन सर्पो को पीड़ित नहीं करना चाहता था, अन्यथा सारे के सारे सर्प फूंक दिए जाते! मैं खड़ा रहा वहीं, भूप सिंह, पानी में अलग अलग जगह बार बार सर निकालता,
और चुबक मार लेता! हँसता!
खुश होता! और मुझे देखता रहता! ये खेल कोई आधा घंटा चला! उसके बाद भूप सिंह मेरे एकदम पास में ही निकला पानी से, शरीर पर, अजीब से कीड़े रेंग रहे थे, काले रंग के, जैसे कानखजूरे हों,
लम्बे लम्बे, बड़े बड़े, उनके पाँव चमक रहे थे!
और वो भूप सिंह, बहुत प्रसन्न प्रतीत हो रहा था! वो पानी में खिलखिला कर हँसे जा रहा था। कभी गोता लगाता और कभी, ऊपर आ जाता, यही खेल, खेलता जा रहा था वो! तभी वो बाहर निकला, अपने वस्त्र फाड़ डाले थे उसने,
और अब नग्न हो गया था! फिर से कूद गया पानी में!
अब तो जल-प्राणी सा लगा रहा था वो! जैसे कोई बड़ी सी मछली! वो तालाब के मध्य में गया, एक बार मुझे देखा, हंसा और पानी में गोता लगा गया!
अब गोता लगाया तो बाहर ही नहीं आया, मैं करीब दस मिनट तक उसका इंतज़ार करता रहा, कोई भी इंसान इतनी देर जल में नहीं रह सकता डूबा हुआ! उसने तो हद ही कर दी थी, पूरे बीस मिनट हो चुके थे, लगता था जैसे जल लील गया है उसको!
और कोई आधे घंटे के बाद, वो ऊपर आया, सजा-धजा! आभूषण धारण किये हुए थे उसने! शरीर पर वस्त्र थे गहले लाल रंग के चमकीले से! मैं हतप्रभ था उसको देखकर! ये पराक्ष कैसे इस इंसान की सेवादारी कर रहे थे! मैं चकित था! एक मानव का क्या मोल इन पराक्ष के सामने? पराक्ष पर न आयुही प्रभाव छोड़ा करती है,
और न ही भौतिकता की कोई भी वस्तु!
ये अलौकिक हैं।
और इस मानव से इतना प्रेम! हैरत की बात थी मेरे लिए तो कम से कम!
और उसके संग ही जल से तो सुन्दरियां भी निकलीं! ये वस्त्रों में थीं, काले चमकीले वस्त्रों में! उनकी चोली ऐसे चमक रही थी जैसे कि, चद्रमा की चांदनी को कैद कर दिया गया हो उस स्थान पर! आभूषण लश्कारे मार रहे थे! वे दोनों सुंदरियाँ गज़ब की सुंदर थीं! ये पराक्ष सुंदरता में यक्ष और गान्धर्वो के समान हुआ करते हैं! कद-काठी अत्यंत बलिष्ठ,ठाड़ी, मांसल हुआ करती है! अंग-प्रत्यंग सुडौल और सुगठित हुआ करते हैं। आभूषण सच में, ऐसी ही अलौकिक सुंदरियों पर जंचा करते हैं! मानव स्त्रियां तो उनके बोझ के कारण एक पग भी नहीं चल सकती! इनके
कमर में पड़ी वो तगड़ी तो कमर को ही झुका देगी उनकी! कम से कम बीस किलो स्वर्ण तो रहा ही होगा! उनके चेहरे ऐसे सुंदर थे कि कल्पना से भी परे!
आँखें, नाक, होंठ, चिबुक, ग्रीवा सब जैसे किसी अत्यंत ही कुशल कारीगर ने गढ़ी हों! उनका एक एक अंग, बरबस निगाहें खींच लेता था अपनी तरफ! भूप सिंह वहीं ठहर गया था,
और वे दोनों, अब आगे बढ़ रही थीं मेरी तरफ! मैं तैयार खड़ा था, महा-बाल मंत्र पढ़ कर, यदि मुझे छुआ तो झटका खा कर अचेत हो जाती ये पराक्ष-कन्याएं! वे आयीं चलते हुए, घुटने पानी में ही डूबे थे उनके, एक बात और, वे गीली नहीं थीं, सूखी थीं और ये बात बहुत अजीब थी! वे आ गयी थीं मेरे पास,
और कुछ दूरी बनाये हुए ही खड़ी थीं, उनको भान था कि मैं महा-बाल मन्त्र से सुरक्षित हूँ! वे मुस्कुराई!
मैं नहीं मुस्कुराया, "कहाँ है वो पराक्ष कन्या? जिसने इसे सम्मोहन में डाल रखा है?" मैंने पूछा, वो खिलखिला के हंसने लगी! "सम्मोहन?" एक बोली, "हाँ" मैंने कहा, "कैसा सम्मोहन?" उसने पूछा, "ये मानव उसके सम्मोहन में है, और अब प्राण संकट में हैं इसके " मैंने कहा, वो फिर से खिलखिलाकर हंसी! लेकिन बोली कुछ नहीं! सुगंध फैली थी वहाँ, ताज़ा केवड़े की, सुगंध के मारे नथुने भी फड़कने लगे थे! एक पीछे हई, हाथ ऊपर किया,
और एक घड़ा सा उसके हाथ में आया, घड़ा भी स्वर्ण का ही था! कोई पांच लीटर पानी तो उठा ही सकता था वो,
और उसने उसके अपने एक हाथ से थाम रखा था, "लो" वो आगे आकर बोली, मैं थोड़ा सा सकपकाया!
आगे नहीं बढ़ा, वो और आगे आई, घड़ा मेरी तरफ किया, मैंने झाँका उसके अंदर,
ये तो लाल रंग का पानी था! "ये क्या है?" मैंने प्रश्न किया, "यसव!" वो बोली, यसव! नाम ही सुना था मैंने तो आज तक! देखा नहीं था कभी भी! यसव एक प्रकार का पेय है, ये ऊर्जा का भण्डार है, इस से शरीर में कभी भी थकावट नहीं रहती!
और ये पराक्ष, इसी का सेवन करते हैं,
नागों में दसव हुआ करता है,
द्ध जैसा पेय! मैंने फिर भी नहीं पिया, न जाने क्या माया हो उस पेय में! कहीं मैं भी भूप सिंह न बन जाऊं,
और गोता लगा, पानी में! खड़ा हो जाऊं पानी के बीच! मैंने मना कर दिया, उसने मुस्कुराते हुए हाथ ऊपर किया,
और वो घड़ा अदृश्य हो गया! फिर से हाथ आगे किया,
और इस बार उसके हाथ में कुछ गिरा, गिरते ही उसने अपना हाथ बंद कर लिया, मैं ठीक से देख नहीं सका था, एक तो उसके आभूषण ऐसे थे कि पूरा हाथ ही, उन आभूषणों से ढका हुआ था, वो आगे आई,
और मेरे सामने हाथ किया, हाथ खोला,
ये तो कुछ कुछ नागदौत सा था! लेकिन नागदौत सफ़ेद होता है, ये लाल था, कुछ कुछ पीले रंग में, बसंती सा रंग था इस नागदौत का! "लो" वो बोली, मैंने हाथ में लिया वो, बहुत भारी था वो, मुझे दोनों हाथ लगाने पड़े, उसको उठाने के लिए! ठंडा था बहुत, लग रहा था जैसे बर्फ का टुकड़ा रख लिया है मैंने हाथ में! नागदौत धारण करने से, कैसा भी विष हो, निष्प्रभाव हो जाता है, हाथ में कोई बर्तन, जिसमे विष हो,
झाग में बदल जाता है, यदि घिस के चाटा जाए,
तो मर्जी, पक्षाघात, अधरंग, कोढ़, कैंसर, कैसा भी अर्बुद हो, पार्किनसन डिज़ीज़, दमा जैसे दुःसाध्य रोगों का नाश कर देता है! आजकल ये शुद्ध नहीं मिल पाता! नकल ही मिलती है, बहुत से लोग छले जाते हैं इसको खरीदने में। ये असम, मेघालय, उड़ीसा, तमिलनाडु, केरल आदि में शुद्ध मिलता है, कई लोग इसको सांप का दांत, कुछ लोग अशुद्ध मणि, कुछ लोग सांप की अस्थि, आदि बताते हैं, दरअसल ये एक प्रकार के अस्थि ही है, ये सर्प के सर में उगती है, ऐसा सर्प दुर्लभ होता है, मैंने सुना है कि वो बात भी कर सकता है,
आँखों में आँखें डाल कर! अब चाहे ये किवदंती ही हो, लेकिन नागदौत देखा है मैंने, बहुत बार! तो मेरे हाथ में एक अद्वितीय नागदौत था! मैंने उल्ट-पलट के देखा था उसको,
और फिर वापिस कर दिया था, ऐसी वस्तुएँ कभी नहीं रखनी चाहियें, समस्याएं होती हैं काफी! उनकी देख-रेख बहुत मुश्किल हुआ करती है! मैंने इसीलिए नहीं लिया था उसको! उसने हाथ में लिया,
और वो गायब हो गया था! "कहाँ है तुम्हारी वो पराक्ष-कन्या?" मैंने पूछा, अब जो उसने बताया, उसके अनुसार अभी कोई घंटा शेष था! इंतज़ार ही करना था मुझे! उनसे मेरी और भी बातें हईं, लेकिन काम की एक बात भी हाथ न लगी! "इस भूप सिंह को क्या हुआ है?" मैंने पूछा,
"प्रेम!" वो बोली, प्रेम! एक पराक्ष-कन्या से प्रेम! कैसा अजीब प्रेम! ये तो जान से जाएगा ही,
और उसको कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा, बहुत से भूप सिंह घूम रहे हैं इस संसार में! ये नहीं तो कोई और सही! इन्हे कोई फर्क नहीं पड़ता, ये काल से परे हैं! काल तो बस, हम स्थूल-तत्व धारियों को ही ग्रास बनाता है!
एक चली गयी वापिस, भूप सिंह के पास, भूप सिंह एकटक, मुझे ही घूरे जा रहा था! दूसरे वाली अभी भी, मेरे पास ही खड़ी थी! वो कभी मुझे देखती, कभी भूप सिंह को।
और धीरे धीरे, मेरे समीप होती जाती, मैं हट जाता था थोड़ा थोड़ा, महा त्राल से टकरा जाती, तो फेंक दी जाती!
और आ जाती अपने असल रूप में! इसी कारण से मैं दूर हट जाता था! वो पलटी मेरी तरफ, मुस्कुराई,
और समीप आई! "क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने पूछा, "रंगवल्लिका!" वो बोली, ये नाम समझ गया मैं!
इसका अर्थ भी जान गया था! रंगवल्लिका अर्थात पराक्ष में से नृत्य कन्या! "और उसका?" मैंने दूसरी की तरफ इशारा करते हुए पूछा, "सिंहपर्णिका" वो बोली, ये भी समझ गया मैं! अयाल! सिंह की अयाल! "तुम नृत्य-कन्या हो?" मैंने पूछा, उसने हंस कर हाँ कहा,
तो ये पराक्ष आमोद-प्रमोद का भी ध्यान रखते हैं! अलग ही संसार है इनका! हम मानव कैसे एक दूसरे से अलग रहते हैं! बस, एक सिमटा हुआ सा संसार है हमारा,
जान-पहचान के लोगों से ही मिलते हैं, अपने रिश्तेदारों के संग, परिवारजनों के संग, जो जीवन जीते हैं, उसे ही पूर्ण समझते हैं! और एक ये, सब जानते हैं एक दूसरे को! अब चाहे वो लाख हों, या करोड़! सब जानते हैं एक दूसरे को उसके नाम से! "नाम क्या है उस पराक्ष-कन्या का?" मैंने पूछा, "कौशकि!" वो बोली, कौशकि! बड़ा ही अच्छा नाम था उस कन्या का! पुराणों में लिखा है कि, कौशकि पहली मानव स्त्री थी, जो सदेह स्वर्ग गयी थी! राजा कुशिक की पोती और ऋचीक ऋषि की भार्या! बहुत बढ़िया नाम था उस पराक्ष-कन्या का! "कौशकि ने क्यों किया है इस बेचारे के साथ ऐसा?" मैंने पूछा, "उन्होंने नहीं किया, ये स्वयं ही वरण करने वाले हैं उनका!" वो बोली, अब आई बात समझ में! मना किया होगा उस कौशकि ने, समझाया भी होगा,
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लेकिन ये लम्पट नहीं माना होगा! काम-पिपासा ने कहाँ से से कहाँ ला पटका था उसको! या यूँ कहो कि, खुद ही कुँए में कूद गया था! अब वो रंगवल्लिका जा रही थी वापिस, मुझे देखते हुए, चली गयी थी अपनी उस दूसरी सखी के पास,
और फिर वे तीनों ही, जल में समा गए थे! मैं खाली हाथ ऐसे ही खड़ा रह गया था! समय अभी बाकी था, करीब कोई पौन घंटा! मैं वहीं बैठ गया, समय को जैसे लगाम लग गयी थी,
आगे ही नहीं बढ़ रहा था, मैं पानी में चन्द्र की झिलमिलाती हुई परछाईं देख रहा था, लहरों में वो परछाईं, नृत्य कर रही थी! किसी कुशल नृत्यांगना के समान!
मैं कभी परछाई को देखता,
और कभी चन्द्र को! वो तो एकटक हमे ही देखे जा रहे थे! हम कुछ लोग, इस तालाब के पास,
एक उद्देश्य से आये थे, वो उद्देश्य शीघ्र ही पूर्ण हो, यही कामना थी सभी के मन में! किसी तरह से आधा घंटा भी बीत गया। मैं अब खड़ा हो गया था! कुछ होने वाला था, यही लग रहा था! धड़कनें बढ़ रही थीं! हाथों में से पसीना छूटने लगा था!
घबराहट अपने शीर्ष पर थी! सहसा ही!
पानी का रंग बदलने लगा! वो दूधिया सा होने लगा, लगा जैसे कि, पानी में नीछे आकाश की तरफ मुंह करती हुई, हैलोजन जला दी गयी हों, सफेद चांदी के रंग की सी! प्रकाश ऐसा था कि पूरा तालाब चमक उठा था! तालाब में रहने वाले जलचर, सब नज़र आ गए थे। बड़ी बड़ी मछलियाँ, भिन्न भिन्न प्रकार की,
अन्य जीव भी थे,
और सफ़ेद चमकीले सांप! पीले रंग की आँखों वाले! सभी उस प्रकाश को देखकर, चकित थे।
और तभी पानी उठा ऊपर! जैसे आकाश ने खींचा हो उसे, जैसे, ज्वार-भाटा सा आया हो उधर! पानी की बूंदें बिखरने लगी थीं! मेरे चेहरे और शरीर पर बूंदें पड़ रही थीं। बारिश हो रही हो, ऐसा प्रतीत होता था! पानी एक सीमा तक उठ गया था,
और रुक गया था, जल-जीव नीचे गिर रहे थे उसमे से! छपाक छपाक की आवाजें आ रही थीं!
और तब पानी नीचे बैठा, कुआं सा बन गया था उस तालाब में! पानी घूमने लगा था! पानी में हलचल मची थी! उसके बाद,
आठ पराक्ष-पुरुष निकले उसमे से! सभी विशाल देहधारी थे!
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आभूषणों ये युक थे सभी के सभी! देखने में तो देव जैसे ही लगते थे!
जैसे देव-पुरुष हुआ करते हैं! देह कम से कम नौ फ़ीट की तो होगी ही उनकी! मेरे देखते है देखते, आठ ही पराक्ष-सुन्दरियां भी निकल आयीं! सफ़ेद वस्त्रों में! आभूषणी से सुसज्जित! ये दृश्य कुछ ऐसा था जैसे कि मैं किसी यक्षलोक में आ गया होऊ ऐसा दृश्य तो मैंने कभी नहीं देखा था! वे आठ पुरुष, मध्य में आये, जहां वो पानी भंवर के रूप में घूम रहा था, कोई भी गीला नहीं था! ये ही तो पराक्ष-माया है! सहसा ही जैसे पानी में फूल गिरने लगे! फूल अजीब से थे, करीब एक एक फुट के तो रहे होंगे! लाल रंग के फूल! वो भी पानी में लगातार घूम रहे थे!
और एक प्रकाश कौंधा वहां! इतना तेज था कि आँखें ही चंधिया जाएँ।
और फिर कुछ नज़र ही न आये! मैंने आँखें फेर ले थीं उस प्रकाश से, आसपास की सारी भूमि उस प्रकाश से चमक उठी थी! जब प्रकाश थोड़ा कम हुआ, तो मैंने देखा उधर! एक अद्वित्य सुंदरी वहाँ खड़ी थी, उन सभी के मध्य! वे सभी हटे उसके आसपास से,
और अब मैंने देखा उसको स्पष्ट रूप से, ये तो रति समान थी! उसकी सुंदरता शब्दों में लिखू तो अपमान हो जाएगा उसकी सुंदरता था!
यूँ मानिए कि, काले गुलाब की तरह उसके केश थे, देह उसकी किसी भी यक्षिणी को मात दे देती! अंग-प्रत्यंग ऐसे थे कि एक बार जो देखे, अपने आप को ही भूल जाए! खो बैठे सुध-बुध, जैसे वो भूप सिंह! वे पुरुष अब हटे वहाँ से,
और वे आठ सुन्दरियां भी! और फिर निकला वो भूप सिंह! बहुत प्रसन्न था वो! बहुत प्रसन्न!
चेहरे पर खुशी देखते ही बनती थी! और जब वो खड़ा था उस कौशकि के साथ, तो मेरी तरफ इशारा किया उसने कौशकि ने मुझे देखा, आँखें चमकी उसकी! और जैसे जल अपनी जगह से हटा, बिना पग आगे बढाए, कौशकि पानी पर आगे बढ़ती गयी!
और आ गयी मेरे सामने! क्रोधित थी वो! स्पष्ट था! मैं भांप गया था उसका क्रोध!
और तो और! वो भूप सिंह रोने लगा था! अब तो और क्रोध भड़क गया था उसका! भूप सिंह! उसके वक्ष तक ही आ पा रहा था! जबकि भूप सिंह भी मज़बूत देह वाला था! मेरे जितना तो नहीं, हाँ कुछ इंच कम ही होगा, वो भी किसी किशोर जैसा लग रहा था!
"चला जा यहां से!" एक आवाज़ आई! ये कौशिकी ने तो बोला ही नहीं था? फिर आवाज़?
लेकिन उस समय मुझे उत्तर देना था, इसीलिए, आवाज़ कहाँ से आई, ध्यान नहीं देना था। मैं वहीं खड़ा रहा,
हाँ,
अपना त्रिशूल उठा लिया था मैंने अपने दोनों हाथों में! मैं तैयार था! अब चाहे कुछ भी हो! "सुना नहीं?" फिर से आवाज़ आई, मैंने त्रिशूल को थाप दी! "चला जा यदि प्राणों का मोह है तो!" फिर से आवाज़ आई। कौशकि के तो हाँठ भी नहीं हिल रहे थे! लेकिन आवाज़ स्पष्ट थी! मुझे चेतावनी दी जा रही थी! लेकिन मैं हटने वाला नहीं था! मैं न घबराया ही, न ही इरा! बल्कि त्रिशूल को कंधे पर रख कर, मुस्कुराता रहा।
और फिर अगले ही पल, वहां पर रक्षक आ गए! पूरे तालाब में बस वे ही वे दिखाई दे रहे थे!
और मेरे समीप वे दोनों! मैंने फिर से महा-बाल का संधान किया, त्रिशूल पर हाथ फेरा और भूमि को थाप दी!
अब औघड़ रण में आन खड़ा था! अब जो होना है वो हो! मैं नहीं पीछे हटने वाला! या तो मेरी बात मानी जाए, नहीं तो मेरा अस्तित्व ही समाप्त कर दिया जाए! मैं नहीं हटने वाला!
"तुझे प्राण मोह नहीं है?" फिर से आवाज़ आई! "नहीं!" मैंने कहा, "जा! भाग जा! जानता नहीं हम कौन हैं?" आवाज़ आई! "जानता हूँ, इसीलिए तो खड़ा हूँ!" मैंने कहा, मेरी ये बात चुभ गयी उसे!
आग में घी झोंक दिया था मेरी बात ने! दो रक्षक आगे बढ़े!
और मैंने त्रिशूल आगे किया अपना! त्रिशूल से बंधा हुआ डमरू बज उठा!
और मुझ में नयी शक्ति का जैसे संचार हो गया! वे आगे आये और खड़े हो गए! फिर रूप बदला और सफ़ेद सांप बन गए!
बड़े बड़े सांप! अभी भी उनमे सामर्थ्य नहीं था कि मुझे हाथ लगाते! महा-बाल से छूते ही उनको काल दिखाई दे जाता!
और यही हुआ! वे दोनों आगे बढ़े और मुझको धकलने के लिए अपना सर नीचे किया। जैसे ही आगे बढ़े, मैंने त्रिशूल घुमाया और जैसे ही त्रिशूल घूमा, वो उस तालाब को हवा में पार करते हुए दूर अँधेरे में जा पड़े। ये देख सांप सूंघ गया उन रक्षकों को! कौशकि तो हतप्रभ ही रह गयी!
और वो भूप सिंह, पीछे जा छिपा कौशकि के!
अब औघड़ रंग में था! कौशकि आगे आई! मुझे ऊपर से नीचे तक देखा! "कौन हो तुम?" उसने पूछा, अब मैंने बता दिया उसको! कुछ नहीं छिपाया! "क्या चाहते हो?" उसने पूछा, "उस...उस भूप सिंह को सम्मोहन से आज़ाद कर दो!" मैंने कहा, वो बहुत ही कुटिल मुस्कान हंसी!
इसका अर्थ ये था कि मेरी बार नकार दी गयी थी! वो आज़ाद नहीं करना चाहती थी उसको! "कौशकि! तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा, और इसका कुछ बचेगा नहीं, तुम यहीं रहोगी
और ये अपनी आयु पूर्ण कर, पूर्ण हो जाएगा, ये मानव है और तुम अलौकिक पराक्ष! इस मानव का क्या मोल तुम्हारे लिए?" मैंने पूछा, वो फिर से मुस्कुराई! बहुत ही ज़हरीली मुस्कान थी
उसकी! इसी मुस्कान पर फ़िदा हो गया था वो भूप सिंह! अंजाम नहीं जानता था इस मुस्कान का! बहुत कंटीला प्रेम था! प्रेम न ही कहूँ तो उत्तम है, ये आकर्षण ही था, वो भूप सिंह इस कौशकि के रूप पर मर मिटा था!
और ये कौशकि अब अंदर से खोखला कर रही थी उसको! इसका भान नहीं था उसको!
वो अब बाहर नहीं निकल पा रहा था! चाह कर भी नहीं निकल सकता था! ये ऐसा प्रघाढ़ सम्मोहन था, जो मात्र मृत्यु से ही खत्म होता! "कुछ सोचा कौशकि?" मैंने पूछा, वो शांत खड़ी थी, अवश्य ही कुछ न कुछ चल रहा था उसके मस्तिष्क में! अब क्या चल रहा था, ये तो वो ही जाने! वो पीछे हुई. भूप सिंह के पास गयी, और वे रक्षक आगे बढ़े! मैंने त्रिशूल फिर से आगे किया! शायद भिड़ने की मंशा थी उन सभी की! वे सारे भी भिड़ते, तब भी महा-त्राल के सरंक्षण में होने से, मेरा बाल भी बीका नहीं कर सकते थे वो! "जा यहाँ से, हो गया निर्णय, ये यहीं रहेगा!" आवाज़ आई! तो मेरी तजवीज़ लौटा दी थी,
मेरे ही मुंह पर फेंक के मार दी गयी थी! निर्णय हो गया था! लेकिन मुझसे बिना पूछे? नहीं! मैं ऐसे निर्णय को नहीं मानता। वे जाने लगे थे अब! कमर तक डूबने लगे थे! "ठहरो!" मैंने कहा, कौशकि बाहर आने लगी! "मैं ऐसे निर्णय को नहीं मानता!" मैंने कहा, वो हंसने लगी! "एक बात सुन लो कौशकि! यदि मेरी बात नहीं मानी गयी, तो इस स्थान को सुखा दूंगा मैं! उबाल कर रख दूंगा इन सभी को। ये द्वार हमेशा के लिए बंद हो जाएगा!" मैंने कहा, धमकी का असर हुआ!
और वे रक्षक फिर से लौट आये! "जाओ! सामर्थ्य दिखाओ!" वो हंस के बोली!
ये तो खुली चुनौती थी!
और चुनौती स्वीकार करनी ही थी! सामर्थ्य दिखाना था! ठीक है! कौशकि! सामर्थ्य ही दिखाऊंगा मैं! मैं लौटा वहाँ से! वे पानी में चले गए ये वापिस! अब पानी शांत था! जैसे कुछ हुआ ही न हो! मैं गुस्से में था, अपने आसन पर बैठ गया,
और अलख उठा दी, महानाद किया, गुरु नमन किया, स्थान नमन किया, श्री महाऔघड़ का स्मरण किया।
और अलख में झोंक दिया ईंधन! और रक्त के छींटे छिड़क दिए! अब सर्प-संहारक विद्या का संधान किया! आड़े घंटे में विद्या जागृत हो गयी! मैंने अलख से एक जलती हुई लकड़ी उठायी,
और चल पड़ा तालाब की तरफ! लकड़ी को पकड़ कर, मंत्र पढ़ा और लकड़ी फेंक मारी तालाब में! भक्क से लकड़ी नीचे चली गयी! अब खेल शुरू होना था! कुछ ही क्षणों में, उबाल सा आ गया तालाब में! एक एक सांप भागने लगा बाहर! पानी सामान्य ही था, कोई स्नान करता तो सामान्य जल ही लगता उसको, बस सो के लिए ये पानी दमघोंटू और साँसें खींचने वाला हो गया था!
ये बाबा ऋद्धा से सीखी हुई विद्या थी! आज काम आ गयी थी! यही है सर्प-संहारक विद्या! साँपों में भगदड़ मच गयी थी! सभी एक दूसरे के ऊपर चढ़ बैठे थे,
और बाहर भागना चाहते थे। किनारों पर, हर तरफ, हज़ारों सफ़ेद सांप आ गए थे!
ढेर बन गया था साँपों का! लेकिन किनारे आकर भी, उनको चैन नहीं था! अभी तो शरीर फूलना था उनका!
और फिर फट जाना था! और यही हुआ! साँपों के शरीर अब फूलने लगे थे!
और फट फट की आवाजें भी आने लगी थीं! अगर वो बोल सकते, तो चीख-पुकार मची होती!
और तभी पानी उठा ऊपर!
ये कौशकिथी! उसने चारों ओर नज़र घुमायी और जहां जहां नज़र घुमायी, सांप ठीक होते चले गए! वे पानी में घुसते चले जा रहे थे। वे फ़टे हए सांप भी अब ठीक होने लगे थे। वे भी घुस रहे थे पानी में संहार नहीं हुआ था! एक तरह से ये मैं जानता ही था! बस, सामर्थ्य दिखाना था कौशकि को! कौशकि फिर से पानी में घुस गयी! मैं फिर से भागा अपनी अलख के पास, सर्प-शूल विद्या का संधान किया, अलख में मांस झोंका, रक्त झोंका,
और अपने माथे पर रक्त से त्रिपुण्ड बना लिया! मुझे बीस मिनट लगे, मैंने एक मांस का टुकड़ा उठाया, चबाया, और अभिमंत्रित किया,
और चला तालाब की तरफ! और एक मंत्र पढ़ते हए, फेंक दिया टुकड़ा वो चबा हुआ उस तालाब में!
टुकड़ा तालाब में गिरा,
और सारे सांप पानी में उछलने लगे! वो ऊपर जाते,
और नीचे गिरते! उनके हृदय में शूल उठा था! उन सबकी आकृति अंग्रेजी के एस आकार की हो गयी थी! यही शूल यदि मनुष्य को उठे, तो कुछ ही क्षणों में वो प्राण त्याग देगा! साँपों का हृदय का स्पंदन, बहुत धीमा होता है,
यूँ कहो कि, तीन मिनट में एक धड़कन!
इसी कारण से ये इतना लम्बा जीवन व्यतीत कर लेते हैं! कोई कोई सांप तो, छह छह घंटे में एक ही धड़कन में जीवित रहता है! ये अनोखा कार्य कोई कोई कछुआ भी करता है! कछुए का दिल बाहर निकालने पर भी, कई घंटे तक धड़कता रहता है।
ये सब इनकी खासियत हैं! इनकी जीवन-प्रणाली है। हां, तो वे सांप पानी में उछल रहे थे! उनको पीड़ा थी, ये पता चलता था, उनका शरीर अकड़ जाता था पानी से बाहर आते ही,
और फिर सांप उछलना बंद हुए। पानी पर सांप ही सांप नज़र आ रहे थे! चादर सी बिछ गयी थी पानी पर, उन साँपों की! अब सभी के शरीर शांत पड़े थे! शूल से उनका हृदय विदीर्ण हए जा रहा था!
और फिर से पानी उठा! फिर से कौशकि आई!
उसने एक सांप को उठाया,
और छोड़ दिया पानी में, सभी सांप ठीक हो गए! शूल समाप्त हो गया उनका!
और अब सब पानी में चले गए थे! कौशकि ने मुझे देखा, जैसे मैं उपहास की वस्तु होऊं। मेरा वार खाली चला गया था! कौशकि नीचे गोता लगा गयी! और मैं गुस्से में पाँव पटकता, अपनी अलख पर आ बैठा! बाबा भूषण ने अलख में ईंधन झोंक दिया था!
अब अलख पर बैठा मैं, सघन मंत्रोच्चार किया आरम्भ, बाबा नहुल नाथ भी, हाथ जोड़कर बैठ गए थे, और बाबा भूषण अलख में ईंधन झोंक रहे थे। मैंने अब एक महा-घातिनि विद्या का संधान किया, इसमें मुझे मेरे शरीर के तीन हिस्सों का रक्त चाहिए थे, एक एक बूंद, एक जिव्हा का, एक छाती का,
और एक पिंडली का! तभी इस महा-घातिनि विद्या का संधान किया जा सकता है, अन्यथा जागृत होते ही, छाती फट जायेगी, पण्डलियाँ उखड़ जाएंगी,
और जिव्हा, हमेशा के लिए सुन्न पड़ जायेगी! ये महा-घातिनि विद्या, मैंने मयूरभंज, उड़ीसा में अपने एक गुरु रहे, श्री जल्लण बाबा से सीखी थी! मैं इक्कीस दिन में इस विद्या को साधने लगा था! भंजन-मंत्र इसी का उप-रूप है! दोनों के ही ईष्ट एक ही हैं, एक महाप्रबल महाशक्ति! मैंने चाकू लिया, पहले जिव्हा को भेदा उस से, फिर छाती पर चीरा लगाया,
और फिर पिंडली को भेदा, रक्त की बूंदें ली, एक दीये में रख ली,
और अलख के समीप रख दिया उसे, अब मेढ़े की चर्बी ली, चाकू में फंसाई,
और अलख पर भून दिया उसको, फिर दीये में रख दिया, मेढ़े की कलेजी को लिया, उससे एक टुकड़ा काटा, और चाकू में फंसाया,
मंत्र पढ़ा,
और अलख की आग में भून लिया! जब भाप उड़ने लगी तो निकाल कर दीये में रख लिया, अब मंत्र पढ़े, विद्या संधान किया! कोई आधे घंटे में ही, विद्या जागृत हो गयी! मेरे हाथ कांपने लगे थे, मेरे पाँव कॉप रहे थे। मैंने किसी तरह से वो दीया लिया,
और सीधा मुंह में ले जाकर खाली कर दिया, मांस चबाया मैंने और इस तरह से, मेरे हाथ और पाँव कांपने बंद हो गए। लेकिन हाथों में खुजली होने लगी थी। जी करता था कि चाकू से छील दूँ! मेरी आँखें लाल हो गयीं!
भट्टा जैसी फ़ैल गयीं! और अब लगी भूख! यही है इस विद्या के जागृत होने के बाद का फल! मैंने मांस लिया,
और अलख पर भूनता रहा उसको! और खाता रहा, करीब एक किलो मांस खा गया था मैं! अब उठा!
और अट्टहास किया! बाबा नहल नाथ और बाबा भूषण जान गए थे कि, अब मैं, मैं नहीं, कोई और हूँ! मैं उठा, त्रिशूल उठाया, मंत्र पढ़े,
और चल दिया तालाब की तरफ! वहाँ खड़ा हुआ, तालाब को देखा, "कौशकि" मेरे मुंह से निकला,
और मैं पानी में उतरने लगा, जब घुटने डूब गए तो, अपन त्रिशूल उठा लिया था ऊपर, सांप मेरी ओर बढ़े। क्रोध में। मैं हंस पड़ा! अट्टहास किया!
और श्री महाऔघड़ का नाम लेकर, त्रिशूल छुआ दिया पानी से!
वे सांप हवा में उठे। कहाँ गये, पता नही! तालाब से सांप हवा में उड़ते चले जा रहे थे! झुण्ड के झुण्ड!
