बढ़ा उसकी तरफ! वो पीछे हटा! अब हंसी बंद थी उसकी! शांत हो गया था बिलकुल! मैं भागा उसके पीछे,
और वो भागा तालाब की तरफ। मैं पीछे पीछे और वो, आगे आगे! भागते भागते तालाब में छलांग लगा दी उसने! पानी की लहरें उठी, बुलबुले से उठे,
और मैंने वहीं टोर्च मारी, मेरी टोर्च की रौशनी उन लहरों पर नाचने लगी! उसने गोता लगा दिया था पानी में, एक मिनट बीता, फिर दो, फिर तीन,
कोई साधारण मनुष्य इतनी देर तक सांस नहीं रोक सकता पानी में, मेरी धड़कन बढ़ती जा रही थी, मैं वहीं पानी में, टोर्च लिए, कनारे पर खड़ा था जहां उसने गोता लगाया था, टोर्च की रौशनी वहीं डालते हुए, पांच मिनट बीत गए, अब तक शर्मा जी और बाबा भूषण भी आ गए थे मेरे पास, वे दोनों भी वहीं देख रहे थे, जहां मैं टोर्च की रौशनी मार रहा था! अचानक हलचल सी हुई पानी में,
और तभी बाहर निकला, कमर तक भूप सिंह! सांप ही सांप लिपटे थे उस से! बाजुओं में, गले में, कमर में, हर जगह,
चेहरे पर भी, सांप चांदी के रंग के थे! एकदम सफ़ेद!
आँखें पीली थीं उनकी, चमक रही थीं। वो पानी में खड़ा था, कमर से नीचे का भाग पानी में था,
और ऊपर का भाग बाहर, पानी में भी हमारे आसपास, सफ़ेद सांप तैर रहे थे! छोटे बड़े, सब! कई साँपों पर, मुंह से लेकर पूंछ तक, पीली धारियां बनी थीं! कुछ में वाले से पड़े थे, पीले रंग के, छल्ले से! अजीब से सांप थे वो! भूप सिंह की एक आँख दीख रही थी, वो उसी से हमे देख रहा था! डोरी कोई अधिक नहीं थी, बस यही कोई दस फ़ीट,
अब मैंने कृद्रुप-मंत्र पढ़ा, मंत्र जागृत हुआ,
और मैंने नेत्र खोले! मेरे सामने भूप सिंह खड़ा था! चमकता दमकता!
मुस्कुराता हुआ! आसपास सांप ही सांप थे! पानी जैसे पटा हुआ था उन साँपों से! गुच्छे ही गुच्छे थे साँपों के! सारे सफ़ेद! एकदम सफ़ेद! लेकिन जिसको मैं ढूंढ रहा था, वो पराक्ष कन्या, वो कहीं नहीं थी! उसी की तो तलाश थी मुझे!
और वो कहीं नहीं थी! भूप सिंह ने फिर से गोता लगाया,
और पानी में चला गया! हम सभी सन्न रह गए थे। वे सांप सभी, उसके साथ ही, गोता लगा गए थे, सभी के सभी! अब पानी शांत था! एकदम शांत! जैसे कुछ हुआ ही न हो! बाबा भूषण और शर्मा जी, सभी एकटक वहीं देखे जा रहे थे। सुबह होने में अभी समय था! सहसा फिर से पानी में हलचल हुई! और फिर से बाहर आया भूप सिंह! अब कोई सांप नहीं था! वही केवल बाहर आया था, कमर तक! हमें ही देख रहा था! मैंने मंत्र वापिस किया, सब सामान्य ही था अब! मैंने आवाज़ दी उसे, कई बार! लेकिन उसने सुना ही नहीं! बस देखता ही रहा हमें!
मैंने फिर से आवाज़ दी उसको फिर से अनसुना किया उसने!
और
अगले ही पल! पानी में हलचल हुई। बड़े बड़े साँपों ने अपनी गर्दन उठायी ऊपर! कम से काम सौ होंगे वो! बड़ा ही खौफनाक नजारा था वो! मैंने शर्मा जी को पीछे जाने को कह दिया,
और शीघ्र ही सर्प मोचिनी विद्या का संधान कर लिया! हाथ पर थूका,
और माथे से रगड़ लिया, अब कोई भी सांप अहित नहीं कर सकता था मेरा! वे सांप आगे बढे, बाबा भूषण पीछे हुए, मैं वहीं खड़ा रहा, सांप जैसे क्रोध में थे, भूप सिंह को घेर के खड़े हो गए सभी के सभी! उसकी रक्षा करने के लिए! मैंने तभी एक और विद्या का संधान किया, सर्प-नाशिनी विद्या का! मिट्टी की एक चुटकी उठायी, उसमे थूका,
और फैंक दी पानी में, साँपों ने गोता लगा दिया! सभी के सभी गोता लगा गए!
और भूप सिंह! भूप सिंह ने भी गोता लगाया। अब वो, कभी मेरे सामने नज़र आता, कभी दूर, कभी किनारे पर, कभी बीच में,
और कभी दूर, परली पार!
वो कभी इधर होता और कभी उधर, कभी बीच में निकलता, कभी मेरे पास, भावशून्य था उसका चेहरा, जैसे किसी मृत शरीर का होता है, ऐसा भाव था, स्पष्ट था, कोई खेल रहा था उस से, लेकिन खेलने वाला था कहाँ? अब तक सामने क्यों नहीं आया था? अब मुझे ही कुछ करना था, मेरे पास ऐसी कुछ विद्याएँ थीं जिनसे ये काम किया जा सकता था, मैं पीछे लौटा, अपना बैग पकड़ा, किनारे तक लाया और फिर कुछ निकाला उसमे से,
ये एक अस्थि थी, एक अभिमंत्रित अस्थि, ये महाश्मशान में अभिमंत्रित की जाती है, इस से विद्या को संधानिकृत किया जाता है, मैंने अस्थि ली, विद्या का जाप किया, तालाब के पास गया,
और उस भूप सिंह का नाम लेकर मैंने वो अस्थि जल से छुआ दी! फव्वारा सा फूट पड़ा जल का बीच में उस तालाब के,
और वो भूप सिंह, पानी से बाहर उड़ता हुआ आ गिरा किनारे की ज़मीन पर! अब तक सुबह का आगाज़ हो चुका था, पूर्वी क्षितिज पर लालिमा छाने लगी थी! अँधेरा छंटने लगा था, मैं तभी भाग पड़ा उस भूप सिंह की तरफ! वो गिरा हुआ था औंधे मुंह, शरीर पर जगह जगह से रक्त रिस रहा था, नाक से भी और मुंह से भी, मैं वहाँ आया तो शर्मा जी और बाबा भूषण भी चले आये, उसको सीधा किया, उसके बदन पर छोटी छोटी सिप्पियां चिपकी थीं, बदन पर जहां से रक्त रिस रहा था, वहां जोंक चिपकी थीं,
छोटे छोटे सुंडी किस्म के कीड़े रेंग रहे थे उसके बदन पर, मैंने एक कपड़े से वो जोंक हटानी शुरू की, बाबा भूषण ने भी कपड़े की मदद से वो जोंक हटानी शुरू की, अब तक उजाला हो चुका था, साँसें चल रही थीं उसकी, लेकिन बेसुध था, अचानक से आँखें खोली उसने,और मेरा गला पकड़ लिया! मेरी मालाएं उसके हाथ में आ गयीं, बाबा भूषण और शर्मा जी ने उसका हाथ छुड़ाने की कोशश की, मैंने भी कोशिश की, लेकिन पकड़ बहुत मज़बूत थी उसकी, उसके नाखून मेरी खाल में गड़ गए थे, शर्मा जी भागे भागे गए,
और मेरे बैग में से मेरा त्रिशूल ही ले आये, और दिया खींच के उसके हाथ पर! हाथ छूट गया और मैं पीछे जा गिरा!
वो उठा और सीधा पानी में घुस गया! गोता लगाया और सीधा पानी एक अंदर जा घुसा! हम खड़े हुए,
और भागे उस तरफ! और तभी पानी में सफ़ेद सांप नज़र आये! बड़े बड़े सांप! अज़गर जैसे! एक बार कुंडली मार लें तो हड्डियों का चूर्ण बना दें! मैंने शर्मा जी को भगाया वहाँ से, वे हट गए, अब सांप पानी से निकल कर बाहर आ गये! कोई दस तो रहे होंगे, सफ़ेद, मोटे और पीली धारीदार सांप थे वे सब!
और उनके पीछे, साँपों में लिपटा, कमर तक पानी में खड़ा, भूप सिंह नज़र आया! वो सांप आगे बढ़े! मैंने अपने त्रिशूल से एक रेखा काढ़ दी, जैसे ही वहां तक आये, उनको झटका लगा और वे धक्का खाकर,
पीछे पानी में सरक गए। लेकिन वो भूप सिंह, वो पानी में गोता लगा चुका था! हम वहीं खड़े रहे, इंतज़ार करते रहे,
और कोई बीस मिनट के बाद, वो दूर के किनारे पर दिखाई दिया, पानी से निकलते ही भाग रहा था, हम तीनों भी भाग लिए उसके पीछे, हम भागे तो पीछे से फुफकार आई! सैंकड़ों सांप हमारे पीछे भाग रहे थे! मैं रुका, बाबा भूषण और शर्मा जी को वहीं रोका,
और आगे आया, सर्प-विनाशिनी विद्या का संधान किया और छुआ दिया त्रिशूल भूमि से, फट फट की आवाज़ हुई और वे सांप हवा में उड़ते हए, तालाब के मध्य जा गिरे! लेकिन, इतने समय में ही वो भूप सिंह, जंगल में खो गया,
अब पीछा करना बेकार था, वो डेरे ही गया होगा, ये तो निश्चित ही था! अब हम वापिस हए तालाब के पास जाने के लिए, वहां बैग था मेरा, वही उठाना था, हम गए वहां,
और कुछ देर बैठे हम सभी! आपस में बातें हुई, कुछ दलीलें पेश हुईं, कुछ आशंकाएं भी प्रकट हुई, कुछ सवाल भी,
और उनके जवाब भी, ये सांप उसकी रक्षा कर रहे हैं, लेकिन किसलिए? ये अजीब सी बात थी,
क्या उस पराक्ष-कन्या के कहने पर, या उसकी इच्छा पर? इसका जवाब नहीं था हमारे पास,
और फिर, वो पराक्ष-कन्या क्यों नहीं आई थी अभी तक? वो कहाँ है? ये भूप सिंह, क्या रोज ही आता है ऐसे ही करने? यदि नहीं तो, वो कन्या क्यों नहीं आई? अब यही निर्णय हुआ कि, यहाँ पर एक सर्प-छिद्गण-क्रिया की जाए, क्रिया बाबा भूषण करेंगे,
और मैं नज़र रखूगा, लेकिन उसके लिए हमे एक सर्प की आवश्यकता थी, इस सर्प-छिद्रण-क्रिया में, एक सर्प की आवश्यकता होती है! ये आवश्यक है बहुत! सुबह हो चुकी थी,
और अब एक सांप पकड़ना था, चाहे कैसा भी मिले, बस जोड़े का न हो कोई सांप, जोड़े वाला सांप नहीं प्रयोग किया जा सकता, ये त्याज्य है तंत्र में! अब हुई जी खोज किसी सांप की, अब जंगल छानने चले हम, एक एक पत्थर उठाकर देखा, पेड़ों के जो शहतीर टूटे पड़े थे, उनको टटोला, घास-फूस उठाये, कोई दो घंटे बीत गए,
और कोई भी सांप नहीं मिला, अभी वापिस आ ही रहे थे कि मेरी नज़र,
एक पेड़ के पास पड़ी, उस पेड़ के नीचे एक सांप बैठा था, कुंडली मारे, शायद धूप सेंकने आया था, हम पास गए उसके,
ये एक करैत सांप था, अत्यंत ज़हरीला! इसको बहुत सावधानी से पकड़ना था, ताकि उसको कहीं कोई क्षति न पहुंचे, नहीं तो क्रिया में नहीं प्रयोग होता ये!
और फिर उसको कष्ट पहुंचे तो कोई लाभ भी नहीं, मैंने एक लकड़ी ढूंढी, मिल गयी, उसके नीचे की तरफ गुलेल जैसी आकृति बनी हुई थी, उसको और छोटा किया मैंने, चाकू से काट कर, अपने बैग में से एक झोला निकाल लिया था, इसीमे डालना था इसको, करैत मुस्तैद हो गया था! भागना चाहता था, इसीलिए गुस्सा हो चला था, हमने घेर रखा था उसको, उसको बस एक ही क्षण लगता हमे इसने में,
और हम तीनों में से ही किसी एक के जान के लाले पड़ जाते! अचानक ही वो पीछे की तरफ मुड़ गया, मैं भागा उसके पीछे,
और उसके बीच में ही वो लकड़ी रख दी, उसने बहुत संघर्ष किया, लेकिन मैं सावधानी से वो लकड़ी ज़रा ज़रा सी आगे बढ़ाता रहा, उसने मुंह खोला, दांत दिखाए अपने, लकड़ी को इसने को चला वो! मैंने लकड़ी हटा दी, वो फिर से भागा, मैंने फिर से लकड़ी रख दी,
और इस बार इसकी गरदन पर लकड़ी रखी थी,
वो लिपट गया लकड़ी से, अब मैं नीचे बैठा, और झोले को उल्टा कर के, अपने हाथ में ले लिया, उसको पकड़ा सर से, और ले लिया झोले में! हो गया कैद झोले में! झोला उठा लिया, काफी भारी सांप था, अभी भी संघर्ष कर रहा था। अब अपना सामान उठाया मैंने, वो झोला बाबा भूषण को दे दिया, बाबा भूषण ने झोला पकड़ लिया, अब नहीं आ सकता था बाहर, अब डेरे जाकर उसको किसी पिटारी में ही रखना था, अब हम चले वापिस, डेरे पहुंचे हम सभी! सांप को एक जगह लटका दिया, वो कमरा खाली ही था, कोई आता जाता नहीं था,
और झोला वो काट नहीं सकता था! अब स्नान किया, चाय-नाश्ता किया,
और फिर कुछ देर आराम, लेकिन ये आराम ज़्यादा ही लम्बा हो गया था, हम कोई चार घंटे सौ लिए थे! सांप का ध्यान आया मुझे, मैंने एक सहायक को कोई पिंजरे आदि लाने को कहा,
तो एक बढ़िया सा पिंजरे भी मिल गया, ये मुर्गी के चूजों के लिए था! महीन था और मज़बूत भी था, अब मैं उस कमरे से वो झोला ले आया, झोला उठाया तो सांप ने हरकत शुरू की! मैंने उस पिंजरे में वो झोला सावधानी से खोल दिया! सांप सरक गया आराम से पिंजरे में! लेकिन गुस्से में था बहुत!
करैत सांप की एक बूंद एक बार में, दस लोगों को, मौत की नींद सुला सकती है! इसीलिए सावधानी अत्यंत आवश्यक थी! मैंने सावधानी से वो करैत सांप उस पिंजरे में डाल दिया था, सांप बहुत गुस्से में था! फुफकारता था बहुत तेज! उसका बस चलता तो सबसे पहले मुझे ही इसता! लेकिन क्रिया के लिए इसकी आवश्यकता थी, अतः, इसको सुरक्षित रखना अत्यंत आवश्यक भी था! मैंने पिंजरे उठा आकर वहीं कमरे में रख दिया था और, कमरे का बाहर से
ताला भी लगा दिया था, ताकि कोई बालक-बालिका या अन्य इसको तंग न करे और कोई मुसीबत न आये, फिर वापिस हुआ और अपने कमरे में आ गया, भूप सिंह अभी तक नहीं आया था। वो न जाने कहाँ भटक रहा था। मैंने अब तक की सारी कहानी बाबा नहुल नाथ को बता दी थी, वे बहुत खुश थे,
और बार बार मुझे आशीर्वाद दे रहे थे कि चलो अब कुछ उम्मीद बंधी है! सर्पकुंद-क्रिया उन्होंने सुझाई थी, मैंने सर्प-छिद्रण कहा था लेकिन वे सर्पकुण्ड क्रिया के लिए ही कह रहे थे, सर्प-छिद्रण में सो को कष्ट होता, और सर्पकुंद-क्रिया में वे अपनी समस्त शक्तियां और सर्प-गुण सबसे कुछ समय के लिए वंचित हो जाते! सर्पकुंद-क्रिया भी उचित थी, इस से उन्हें कष्ट नहीं होता, और किसी के प्राण संकट में
भी नहीं आते, उन सो में से, बाबा नहल नाथ क्रिया करने के लिए राजी हो गए थे, बाबा भूषण उनके साथ इसी क्रिया में बैठने वाले थे, तो वो दिन हमने तैयारी की, सामान जुटाया और क्रिया के लिए जो भी आवश्यक था, सभी का प्रबंध कर लिया था! दोपहर बीती, शाम आई,
और फिर रात घिरी, हम तैयार हुए,
और बाबा नहुल नाथ आ गए अपने कुछ साथियों के साथ, तैयारी सारी कर ही ली थी, बाबा भूषण ने भी कुछ विद्याएँ जागृत कर ली थीं! अब हम चले, भूप सिंह अभी तक नहीं पहुंचा था यहां! वो कहाँ था, कहाँ भटक रहा था, कुछ पता नहीं था,
उम्मीद थी कि हमे वो उसी तालाब पर ही मिलेगा! हम चल दिए, मैंने वो पिंजरे उठा लिया था अपने साथ, सांप अभी भी गुस्से में था, इतने लोगों को साथ देख, बहुत घबराया हुआ था, गुस्सा आना तो स्वाभाविक ही था! वो कोशिश कर रहा था उसमे से निकलने की, लेकिन जाली लगी थी उस पिंजरे में, उसको काटना उसके बस में नहीं था! हम टोर्च की सहायता से आगे बढ़ते रहे, शर्मा जी और मैं आगे आगे चल रहे थे, टोर्च तो ली ही थी हमने, दो और साथियों ने हंडे भी ले लिए थे,
तो प्रकाश की कोई समस्या अब नहीं थी, आज मौसम भी साफ़ था, चांदनी खिली हुई थी, चाँद भी यौवन पर थे, प्रकाश फैला रहे थे हर तरफ! हम लोग कोई दस बजे उस तालाब पर आ गए, बाबा नल नाथ ने एक उपयुक्त स्थान देखा,
और वहीं क्रिया करने के लिए स्थान चुन लिया, अब क्रिया की तैयारी आरम्भ हुई, एक मिट्टी का छोटा सा टीला बनाया गया, उस पर उस पिंजरे को रखा गया, अब ये सांप उस तालाब के साँपों का मूल बीज था! सबसे पहले इसीको ही कुंद करना था और इस तरह, वे सभी सांप कुंद हो जाते। अब क्रिया के लिए अलख बनायी गयी, ईधन झोंका गया और फिर ईष्ट-स्मरण के पश्चात, अलख उठा दी गयी, सभी ने प्रणाम किया उसको! झक कर, माथे को ज़मीन से लगा कर! बब नहल नाथ ने पहले अघोर-पुरुष का वंदन किया, स्थान कीलित किया,
और फिर खुद उठ कर, उस तालाब का पानी एक लोटे में लिया, लोटा अलख के समीप रखा, और फिर क्रिया आरम्भ हई! मैं और शर्मा जी पीछे जा बैठे थे, बाबा नहल नाथ और बाबा भूषण, पीली सरसों के दाने उस करैत सांप पर, मंत्र पढ़ते हए मारे जा रहे थे!
सांप बहुत विचलित हो गया था!
और कोई आधे घंटे में उस करैत सांप के मुंह से झाग टपकने लगा! अब बाबा नहल नाथ उठे,और उस लोटे को उस पिंजरे से छुआ दिया, सांप अब मूर्छित अवस्था तक पहुँच चुका था! बाबा नल नाथ और बाबा भूषण, अब पहुंचे तालाब पर, मंत्र पढ़े और उस लोटे का पानी, उस तालाब में डाल दिया! पानी डालते ही पानी में हलचल मच गयी! सारे के सारे सांप किनारों पर आ लगे, मुंह से झाग निकालते हुए! काम से काम दो तीन हज़ार तो रहे ही होंगे! क्या पराक्ष और क्या जंगली, और क्या जल वाले! सभी के सभी! सर्पकुंद-क्रिया सफल हो गयी थी। सारे सांप आपस में गुथे हुए थे, जैसे तड़प उठे हों, हलक़ रुंध गया हो!
उनका सभी का विष झाग बनकर बह निकला था रेत पर! उनकी माया आदि सबका नाश कर दिया था इस सर्पकुंद-क्रिया ने! मोटे मोटे, बड़े बड़े, लम्बे लम्बे सफ़ेद सांप सब आ लेटे थे उस तालाब के आसपास! बस, अब देर थी तो उस पराक्ष-कन्या के आने की, वो आये और उनकी रक्षा करे! यही तो औचित्य था इस क्रिया का! बाबा नहल नाथ ने और मंत्र पढ़े!
और फिर से पीली सरसों के दाने उस पानी में मारे! सभी सांप तड़प उठे! एक दूसरे के ऊपर आ चढ़े! लिपट गए एक दूसरे से! उन्हें कष्ट हो रहा था बहुत! बाबा नहुल नाथ पीछे मुड़े, पिंजरे खोला,
और चाकू उठाया, फिर उस करैत को बाहर निकाला, उठाया, वो तो अब कूद पड़ा था! जैसे नशे में हो बहुत! एकदम शांत, ढीला-ढाला! बाबा ने उसको ऊपर उठाया,
एक मंत्र पढ़ा, और चाकू उस सांप के सर पर रख दिया! फिर से मंत्र पढ़े!
वो किनारों पर लगे सांप अब चले आगे,
और बाबा को, हमको घेर के कुंडली मार, बैठ गए! और तभी पानी में बवंडर सा उठा! हवा चली बहुत तेज! अलख भी झुक गयी, भूमि चाटने लगी! पानी का तूफ़ान सा उठा, लहरें सी उठीं!
आवाज़ हुई सांय सांय की! पानी बहुत दूर तक उठा गया ऊपर! उसके छींटे हमारे ऊपर गिरने लगे, बारिश की तरह! सीपियाँ बिखरने लगी, जोंक और दूसरे जल-जीव नीचे गिरने लगे, पानी में तूफान मचा था! हम सब साँसें थामे ये नज़ारा देख रहे थे! और तभी वो पानी, जो ऊपर उठा था, भम्म से नीचे गिरा, कुआं सा बन गया उस जगह ! भंवर सी बन गयी! पानी में झाग बन गए।
और फिर सब शांत होने लगा धीरे धीरे! नहीं आई थी अभी तक वो पराक्ष-कन्या! अभी कसर बाकी थी, अब किसी सांप को कष्ट देना ही था! बाबा ने करैत को अपने गले में लपेटा,
और उन किनारों पर लगे साँपों की बीच चले गए, एक एक को उठा के देखते,
और तब उन्हें एक सुनहरा सांप दिखा, कोई एक फ़ीट का रहा होगा, ये मादा थी, वही उठायी उन्होंने,
और आ आगये अलख के पास,
हम भी जा बैठे उनके समीप! बाबा ने मंत्र पढ़ा, चाकू अपना अलख में गर्म किया,
और वो चाकू, छुआ दिया उस छोटे से सांप के गुप्तांग पर! सांप तड़प उठा। आठ का अंक जैसा होता है, ऐसे मुड़ गया! उसको कष्ट पहुंचा था बहुत! बाबा ने फिर से चाकू गरम किया,
और फिर से उसके गुप्तांग पर छुआ दिया, फिर से सांप तड़पा!
आठ के अंक में अपने शरीर को कड़ा कर लिया उसने! अबकी बार तो उसके गुप्तांग से रक्त भी बहा, धुंआ भी उठा, मांस जलने की गंध भी आई! लेकिन पानी में कोई हलचल नहीं हई! बाबा ने वो सांप फेंक मारा पानी में!
और फिर से उठे, साँपों के बीच में गए,
और एक और सांप पकड़ लाये, उस सांप के मुंह पर एक लाल दाग था! कोई विशिष्ट सांप लगता था! निढाल पड़ा था क्रिया के कारण!
अब बाबा ने उसको नीचे लिटा दिया, कोई दो फ़ीट का रहा होगा ये सफ़ेद सांप!
और अब फिर से मंत्र पढ़ते हुए, अपना चाकू गरम किया, और उस सांप के पेट के मध्य में चाकू घुसेड़ दिया! सांप तड़प उठा, मुंह खोला उसने, दांत दिखाई दिए, बाबा ने कटोरी की सहायता से उसके दोनों ही दांत,
तोड़ डाले, चाकू निकाला बाहर, रक्त, गाढ़ा रक्त बहने लगा था! अब बाबा ने फिर से चाकू गरम किया,
और फिर से उसी जगह ज़ोर से घुसेड़ दिया! सांप तड़पा! पूंछ कांपने लगी उसकी! छूटने की कोशिश की उसने, लेकिन चाकू उसको भेदता हुआ ज़मीन में गड़ा था! बाबा ने फिर से चाकू निकला, अभी बार उसके ज़स्म से, पीला मेद बाहर आया। उसका जिगर फट गया था शायद! बाबा ने चाकू फिर से गरम किया,
और इस बार........ और इस बार! इस बार वो चाकू उसके सर में घुसेड़ दिया! ऊपर से हथेली से दबा दिया! उस सांप की जीभ और एक आँख बाहर निकल आई! सांप तड़प उठा था! बाबा के हाथों में लिपट गया था! बाबा ने उसको खोला, चाकू गरम किया और फिर से, उसके सर में घुसेड़ दिया,
अब तो मरणासन्न हो गया था वो! कांपने लगा था, आखिरी कोशिश कर रहा था जीवित रहने के लिए,
और फिर बाबा ने इसका भी मौका नहीं दिया! उस सांप का सर काट दिया चाकू से, और उसके शरीर के टुकड़े कर दिए। ये सारे टुकड़े उठाये उन्होंने और फेंक मारे तालाब में! जैसे ही टुकड़े तालाब में गिरे,
फिर से तूफान सा उठा! पानी चला घूमता हुआ ऊपर! फिर से बरसात सी हो गयी! उस गरम रात में वो पानी की बूंदें, ठंडी ठंडी हमारे शरीर से आ टकराईं। पानी में कहर मच गया! सभी सांप जो अचेत पड़े थे, पानी में खींचे चले गए! जैसे निर्वात में खींचे चले गए हों! सभी के सभी! बड़ा ही अजीब नज़ारा था वो सब! धम्म से पानी नीचे बैठा!
और फिर पानी में एक कुआं सा बन गया! धुंआ सा उठा! सफ़ेद धुंआ! एक अजीब सी आवाज़ आ रही थी, एक ऐसी आवाज़, जैसे कि मानो दूर कहीं सारस बोल रहे हों, जैसे सड़क पे भागते किसी ट्रक के पहियों से जो आवाज़ आती है, ऐसी अजीब सी आवाज़! बाबा नहल नाथ अपनी घोर प्रबलता पर डटे थे! अपना त्रिशूल थामे वो सब नज़ारा देख रहे थे। गले में वो करैत सांप पड़ा था! मूर्छित! पानी में आवाजें आ रही थी, अगले पल क्या हो, कुछ पता नहीं था! पानी और ज़ोर से घूमा और उसमे से एक श्वेत सा प्रकाश निकला। सीधा ऊपर गया, पानी उसके जाते ही, भचाक की सी आवाज़ करते हुए, नीचे गिरा और शांत हुआ! वो प्रकाश स्थिर हो गया पानी एक मध्य,
और अब धुंए का रूप लेते हुए, वहीं घूमने लगा! कुछ न कुछ तो हो रहा था! कुछ न कुछ तो अवश्य ही!
कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, अनुमान लगाना तो मुमकिन ही नहीं था! हम तो सब हाथ बांधे, अपलक, ये अजीब नज़ारा देखे जा रहे थे!
अगले पल क्या हो, क्या पता! सहसा ही! पानी में से कोई प्रकट हुआ,
वो सभी को दिखा, जिसने भी देखा वो सिहर गया! कुछ दूर हट गए, कुछ बाबा के पास आ खड़े हुए, मैं चुपचाप सब देखे जा रहा था, शर्मा जी को कंधे से पकडे हए, ये कोई पुरुष था, घुटने तक पानी के ऊपर था, पिंडलियाँ नीचे ही थी,
आँखें उसकी विडाल जैसी थीं, शरीर पर शल्क जैसा कुछ मुलम्मा सा चढ़ा था! सहसा बाबा नहुल नाथ पानी में उतरने लगे। मैं घबरा गया! बाबा को आवाजें दी, लेकिन उन्होंने अनसुनी कर दी, अब मुझे सिहरन चढ़ने लगी! बाबा कंधे तक पानी में थे,
और त्रिशूल अपना हाथ में ऊपर उठाया हुआ था, अब तो उनकी ठुड्डी भी पानी में डूबने लगी थी! वो जो प्रकट हुआ था, उनकी तरफ घूमा, बाबा ने त्रिशूल लहराया, वो पुरुष, पानी में गोता लगा गया! बाबा ने भी पानी में गोता लगा दिया! डूब गए वो पानी में पूरे, अपने त्रिशूल सहित! अब दिल धड़का! सभी की आँखें फट गयीं! न जाने अब क्या हो!
और अचानक ही बाबा बाहर आ गए! हवा में उछलते हुए, त्रिशूल हाथ में ही था उनके,
वो उछले और फिर से पानी में गिरे! फिर से उछले और फिर से गिरे! ऐसा कम से कम पांच-छह बार हुआ! बाबा भूषण ने पता नहीं क्या सोची, वे कूद पड़े पानी में,
और तैरते हुए चल पड़े बाबा नहुल नाथ की तरफ! अब तो और हालत पस्त होने लगी मेरी! आशंकाओं से मन भर उठा! बाबा भूषण ने बाबा नहल नाथ को उनके गले से पकड़ लिया, फिर बाजू से पकड़ते हुए, बाहर लाने लगे, वो जो लोग आये थे साथ में, वे भी कूद पड़े,
और बाबा नहल नाथ को खींच लाये ऊपर! फिर वो पुरुष नहीं प्रकट हआ! बाबा ने बाहर आते ही उल्टियाँ शुरू कर दीं, शायद पानी पी गए थे, बाबा भूषण और सभी साथियों ने मदद की बाबा नहल नाथ की, अब तक कर बैठ गए थे वो! मैं भागा आया उनके पास! नीचे बैठा! वे साँसें ले रहे थे तेज तेज, उनकी छाती और कमर पर, ज़ख्म बन गए थे, जैसे किसी ने पंजों से उधेड़
डाला हो उन्हें। "क्या हुआ था बाबा?" मैंने पूछा, उन्होंने साँसें नियंत्रित की, मुझे देखा, "नगरी, मुख, बहुत सारे" वो बोले, नगरी! इसका अर्थ था कि यहां नगरी है उनकी!
और मुख, ये तालाब मुख है उस द्वार का! बहुत सारे! अर्थात वो बहुत सारे हैं! असंख्य! करैत सांप अभी भी लिपटा था उनके गले से, उसको भी ज़ख्म लग गए थे,
ये बेचारा व्यर्थ में ही कोपभाजन बन गया था, अब इसकी चिकित्सा करनी आवश्यक थी, जब ठीक हो जाएगा, तो क्षमा मांग कर, मुक्त कर दिया जाता वो! मैंने वो सांप उतार लिया उनके गले से, बाबा भूषण को दे दिया, बाबा भूषण ने उसको आराम से पकड़ा और, पिंजरे में डाल दिया!
वो बेचारा गंदे हुए आटे सा सरक गया पिंजरे में, अब नहल नाथ बाबा की हालत खराब होने लगी थी, मैंने उनके साथियों को वहाँ से उन्हें,
ले जाने को कह दिया, अब बेहोशी की कगार तक पहुँच चुके थे बाबा,
और अब कमान मेरे हाथ में थी! अब मुझे भिड़ना था इन पराक्ष से! सबसे पहले तो ये सर्पकुंद-क्रिया का प्रभाव नष्ट करना था, मैं नहीं चाहता था कि किसी और सर्प की हत्या हो,
और पाप मेरे सर लगे, मैं अब औघड़ श्रृंगार किया, तंत्राभूषण धारण किये, अपना आसन बिछाया, और उस क्रिया के प्रभाव को नष्ट करने के लिए, क्रिया भेदन आरम्भ किया मैंने!
मैं बार बार मंत्र पढ़ते हए, उस करैत पर दाने फेंकता जाता था, आधे घंटे में ही चेतना जागृत हो गयी उसकी, वो पहले जैसा ही हो गया! गुस्से से भरा हुआ! गुस्से में लाल आँखें उसकी!
वो ठीक हो गया था, तो अब वहां के सभी सर्प ठीक हो गए थे! प्रभाव से मुक्त! अब सबसे पहले जो काम करना था वो ये, कि किसी तरह से, उस पराक्ष-कन्या को प्रकट किया जाए, लेकिन वो तो आ ही नहीं रही थी! वो आ जाती, तो कुछ प्रश्न-उत्तर होते उस से,
और नहीं तो बीच का ही रास्ता निकल जाता! और जैसे मेरी बात उस भस्मलेपी ने सुन ली! मुझे सामने से ही भूप सिंह आता दिखाई दिया! एकदम नग्न! अब वो शांत था, बिलकुल शांत!
वो आया,
और सीधा बाबा नहुल नाथ के पास जा पहुंचा, उनको एक नज़र देखा,
और फिर मेरे पास आया, मुझे देखा,
और सीधा भागा तालाब की ओर! पीछे देखा उसने एक बार,
और सीधा तालाब में जा कूदा! मैं भागा उस तरफ! वो पानी में समा गया था पूरी तरह! वहाँ बस अब, कुछ बुलबुले ही थे! पानी के बुलबुले बनते और फूट जाते, पहले बड़े बने थे,
और फिर छोटे छोटे, अब वो पानी के अंदर ही अंदर कहाँ गया था, ये नहीं पता था! अब शीघ्र ही कुछ करना था!
मैं भागा वापिस, अपना त्रिशूल लाया,
और वहीं खड़ा हो गया, मेरे कुछ ही दूर, वो भूप सिंह पानी से निकला, साँपों में लिपटा हुआ! साँपों में उसको जकड़ रखा था। मैंने उसका नाम पुकारा, कई बार! वो बार बार गोता लगा जाता,
और फिर पानी से बाहर आता, फिर गोता लगाता और बाहर आता, ऐसा ही खेल चलता रहा! मैं बेबस था कि क्या करूँ अब. तभी दिमाग में कुछ कौंधा! बाबा ऋद्धा की बतायी हुई एक विद्या का ध्यान आया, मैंने उस वर्ष चन्द्र-ग्रहण पर, एक महाश्मशान में, उसको जागृत भी किया था! त्रिक्षा-वाहिनी थी वो! इस विद्या के संचार से तो स्वयं नागराज भी प्रत्यक्ष हो जाया करते हैं! इस विद्या की अधिष्ठात्री श्री छिन्नमस्ता हैं। मैं पीछे लौटा, अलख में ईंधन झोंका, अपने त्रिशूल को माथे से लगाया,
और फिर उसको अपने सम्मुख गाड़ दिया! मैंने अब उसी विद्या का संधान करना आरम्भ किया, मुझे कोई बीस मिनट लग गए! लेकिन विद्या जागृत होते ही, मेरे शरीर में ऊर्जा समाहित होने लगी! सब स्पष्ट दिखने लगा! सब स्पष्ट सुनाई देने लगा, मैं खड़ा हुआ, अपना त्रिशूल उखाड़ा और उस विदया से अभिमंत्रित किया! त्रिशूल भभक उठा! अब मैं आगे गया!
और किनारे पर ठहर गया!
श्री महाऔघड़ का नाम लिया और चिल्लाते हुए अपना त्रिशूल उस तालाब के पानी से छुआ दिया! पूरा फाल अंदर डुबो दिया! पानी में लहर सी बन गयीं! भम्म-भम्म सी आवाजें आने लगीं।
और जो भी सर्प उस विद्या से टकराया वो बाहर फेंक दिया गया! यहां तक की वो भूप सिंह भी, पानी से निकल बाहर किनारे पर आ गिरा! उस से लिपटे सारे सांप भाग निकले! भूप सिंह ऐसा गिरा कि अचेत ही हो गया! मानव यदि टकरा जाए इस विद्या से तो अचेत हो जाता है! हाँ, किसी रजस्वला स्त्री, शिशु को स्तनपान कराने वाली स्त्री, इनको कुछ नहीं होता! मैं भाग पड़ा भूप सिंह के पास आवाज़ दी मैंने शर्मा जी को, बाबा भूषण को! वे दौड़े चले आये! मैंने फ़ौरन ही उस भूप सिंह को उठवाया,
और एक पेड़ के तने से बंधवा दिया! अब नहीं भाग सकता था वो! अब उस पराक्ष-कन्या को आना था! यही सोचा था मैंने, मैंने भंजन-मंत्र पढ़ा, मुंह में थूक इकट्ठा किया और फेंक मारा उस भूप सिंह पर, थूक दिया, थूक उसके पेट पर पड़ा! चीख निकल गयी उस भूप सिंह की! होश में आ गया तभी की तभी! उसकी आंतें सूज गयीं, पेट बड़ा हो गया,
आँखें बाहर आ गयीं, रक्त के कुल्ले करने लगा वो! ये आवश्यक था! उस समय तो बहुत आवश्यक! मैं उसको त्रास देता तो वो पराक्ष-कन्न्या अवश्य ही आती!
इस से पहले कि मैं मंत्र वापिस लेता, वो ठीक हो गया! मैं चौंक पड़ा! वो हंसा!
और फिर रोने लगा। किसी बालक की तरह से अपने पाँव पटकने लगा, उस तालाब को देखते हुए! मैंने पीछे देखा, एक बहुत विशाल सफ़ेद सर्प कुंडली मारे बैठा था किनारे पर! कम से काम पंद्रह फ़ीट उंच तो रहा होगा वो! इसी पराक्ष-सर्प ने भंजन-मंत्र को काट दिया था! मैंने त्रिशूल उठाया अपना,
और चला उस सांप की तरफ! उसने मारी फुकार! किसी सांड के सांस छोड़ने जैसी आवाज़! मैं नहीं इरा और आगे बढ़ता चला गया! बाबा ऋद्धा का एक एक शब्द मेरे दिमाग में गूंज रहा था!
इसीलिए डर नहीं था! मैं आगे बढ़ता रहा और वो, वो आगे बढ़ा अब! हम दोनों रुक गए एक दूसरे के सामने!
कोई पांच फ़ीट पर! उसकी आँखें मेरे सर के बराबर थीं! वो मुझे और, मैं उसे तोल रहा था! हम दोनों टकराने वाले थे एक दूसरे से, मैंने तभी श्री भुवनेश्वरी की भुवन-मण्डिका विद्या का संधान किया! तेज तेज! मेरे शब्द गूंज रहे थे उस तालाब के किनारे पर! मैंने त्रिशूल पर अपने, उस विद्या के मंत्र के अंतिम शब्द को,
आरूढ़ किया,
और आया क्रोध में वो मुझ पर झपट्टा मारने ही वाला था कि, मैंने त्रिशूल आगे किया!
त्रिशूल से टकराते ही वो दो भागों में चिर गया! गर्जनासी हुई! दोनों ही भाग, पानी में जा गिरे हवा में उड़ते हुए!
और भम्म से पानी में समा गए। ये मेरी विजय थी!
और अच्छा भी था! इन पराक्ष को मालूम तो होना ही चाहिए कि, अभी इस संसार में ऐसे मनुष्य शेष हैं जो, इन प्राचीन और अनमोल विद्याओं के ज्ञाता है! मैं वही खड़ा रहा!
और तभी पानी में हलचल हुई! बड़ी छोटी सब मछलियाँ उछलने कुदने लगी! किसी कटोरे में रखे पानी को जैसे कोई कंपन्न हिला देती है,
वैसे ही ये तालाब रुपी कटोरा हिल रहा था! जगह जगह भाप उड़ने लगी थी, कोहरा सा छाने लगा था पानी पर!
और उस कोहरे में फिर से वो प्रकाश कौंधा! ये वही पराक्ष-पुरुष था जो कुछ समय पहले, बाबा नहुल नाथ से भिड़ा था! वो रक्षक था संभवतः इनका! कोहरा हटा,
और वो बिलकुल मेरे समीप ही था, कोई चार फीट दूर! विडाल जैसे नेत्र थे उसके, न मनुष्य था, न कोई राक्षस, न कोई देव, न कोई यक्ष, मुझे तो कोई पर-ग्रही सा प्रतीत होता था वो! शल्क से थे उसके शरीर पर, अब पता नहीं शल्क थे या कोई कवच था, लगते थे मछली जैसे, सांप जैसे शल्क ही!
वो साँसें ले रहा था, उसकी साँसों से, पानी में भी तरंगें उठने लगती थी! उसके हाथ कहाँ थे, नहीं दीख रहे थे, कोई बड़ा सा उल्लू बैठा हो, ऐसा लगता था! मैंने त्रिशूल आगे किया, यमरूढ़ा-विद्या का संधान किया, वो पीछे हटा!
और एक झटके से आगे आया, उसने न जाने अपना फन फैलाया या कोई चादर सी फेंकी, मेरे ऊपर! अँधेरा छ गया था मेरी आँखों के सामने! मैंने महानाद किया!
और त्रिशूल हर जगह भांजना शुरू किया! एक जगह त्रिशूल ऐसा लगा कि मेरे ऊपर स्राव सा होने लगा! से सफ़ेद रंग का सा द्रव्य था, दूध मिले पानी जैसा! अँधेरा हटा,
और वो अजीब सा पुरुष, एक ही पल में दूर जा गिरा! मैं नहा गया था बुरी तरह से! उस द्रव्य में! मैं तालाब में उतर गया, दो तीन डुबकियां मार लीं, हटा लिया वो द्रव्य, सफ़ेद सफ़ेद खड़िया जैसे निशान जो अभी बाकी थे, वो खुरच खुरच के साफ़ कर लिए! मैं आ गया बाहर! लेकिन
अभी तक भी वो पराक्ष कन्या नहीं आई थी! उसके रक्षक ही आ रहे थे! मैंने फिर से एक विद्या का संधान किया,
ये विद्या भी बाबा ऋद्धा से ही सीखी थी! ये मातंगी-विदया है! श्री महा-मातंगी इसकी अधिष्ठात्री हैं। मैंने पानी लिया अंजुल में,
और विद्या का संधान किया। पानी गरम हुआ,
और मैंने फेंक दिया तालाब में! तालाब में जैसे सैलाब आ गया! खौल सा गया वो! जगह जगह बुलबुले निकलने लगे! सांप यहां से वहाँ भागने लगे! हड़कम्प मच गया था! हाथी के चिंघाड़ने की दबी दबी सी आवाजें आने लगी थीं। पानी में भंवर बनी! पानी घूमने लगा! किनारों पर पानी ही पानी चढ़ बैठा!
वो तालाब अब, किसी खौलते हए तेल सा, जो कड़ाही में हो, ऐसा लगने लगा था! आसपास की भूमि में कम्पन होने लगी थी! पाँव भी उखड़ने लगे थे मेरे।
आंधी चल पड़ी थी वहां! मेरे गीले बाल मेरे मुंह में घुस रहे थे, थप्पड़ सा मार रहे थे मेरे चेहरे पर! हवा भी ऐसी थी कि धूल-धक्कड़ सब उठकर नाक में, मुंह में घुसने लगी थी! गर्दन पर, छाती पर, वो फूस के टुकड़े ऐसे चुभते थे कि, जैसे कीड़े काट रहे हों! पानी में हलचल मची थी बहुत अधिक! पानी उठ उठ कर बाहर तालाब से आ जाता था! मेरी अलख बुझने के समीप ही थी, बाबा भूषण उसके आगे बैठ गए थे, इस कारण से अलख अभी तक डटी हुई थी!
पानी में जहां-तहां सांप ही सांप बह रहे थे! कुछ छोटे छोटे सांप तो किनारे से बाहर भी आ गिरे थे!
आंधी बहुत तेज थी, कूड़ा-करकट बार बार शरीर से टकराता था, पीड़ा होती थी उस से बहुत ही, कुछ कूड़ा तो चिपक ही जाता था शरीर से,
और फिर कुछ देर बाद, हवा थमी, लेकिन पानी में जोरदार लहरें थीं,
और अब बीच में कुआं बन गया था एक बड़ा सा! उसको देख कर पता चलता था कि, तालाब सच में ही पाताल को छूता है!
और तभी एक धमाका सा हआ! पानी के बीच में, एक फव्वारा सो फूट पड़ा था। ये फव्वारा बहुत ऊंचाई तक गया था! मछलियाँ नीचे गिर रही थीं ऊपर से! ऐसा नज़ारा मैंने कभी नहीं देखा था! मछलियाँ भी बहुत बड़ी बड़ी थी! कम से काम पच्चीस-तीस किलो की तो रही होंगी! उस फव्वारे ने तालाब के तल को जैसे पलट के रख दिया था! मथ दिया था तालाब को पूरा का पूरा!
और उसी समय, वो फव्वारा शांत हुआ, पानी की एक बड़ी सी लहर उठी, भंवर खत्म हुई, पानी बीच में से ऊपर उठने लगा, पानी बहुत ऊपर तक उठ था! ऐसा दृश्य तो मैंने कभी देखा ही नहीं था! तालाब, तालाब न होकर अब तो समुद्र सा बन गया था!
और तभी भचाक सी आवाज़ हुई। पानी नीचे बैठा,
और पानी शांत हुआ, तालाब में चार सर दिखाई देने लगे, वेसर बाहर निकले, ये चारों ही पराक्ष-कन्याएं थीं! वे ऊपर आती चली गयीं ऊपर!
उनका रूप! रूप का बखान नहीं कर सकता मैं! किसी यक्षिणी के सौंदर्य के समान ही थीं! लगता था कि जैसे सूर्य-मंदिर कोणार्क में, खुदी हुई मूर्तियां साकार हो उठी हों। ऐसी पतली कमर थी उनकी कि, जैसे अप्सराओं की होती है! गठीला शरीर था, केश नीचे पांवों तक थे, पूर्णतया नग्न थीं वो, वक्ष अत्यंत सुडौल और समाकार के थे! मैं उनका ये रूप देखकर पल भर को तो विचलित सा हो बैठा था! अब समझ सकता था कि भूप सिंह, किस कारण से सम्मोहित है उस पराक्ष-कन्या पर!
वे चारों अलग अलग जगह खड़ी थीं, मैं तो उनकी देह को देख रहा था! कोई आभूषण नहीं था, बस भीगा हुआ बदन था उनका,
और वही पानी, मोती के समान चमक रहा था उनकी पुष्ट देह पर! जगह जगह जैसे मोती जड़ दिए गए थे! वे चारों एक दूसरे के पास आयीं,
और फिर मुझे देखा, मैं त्रिशूल थाम यूँही को देख रहा था, वे आयीं सामने, मैं तैयार था, मझे विश्वास नहीं था उन पर! कुछ भी सम्भव था!
और पराक्ष-माया तो परम-माया है! इस माया में जो एक बार फंसा, वो कभी लौट नहीं सकता! जब तक कोई सिद्धहस्त व्यक्ति उसको माया को नहीं काट दे! भूप सिंह! भूप सिंह पेड़ से बंधा चिल्ला रहा था!
बार बार अजीब सी भाषा बोलता था! अपनी समझ से बाहर थी ये भाषा! खुद भूप सिंह भी नहीं समझ सकता था वो भाषा! लेकिन एक अजीब बात थी, ये भूप सिंह कैसे फंस गया था इस चक्कर में! ये तो भूप सिंह ही बता सकता था!
और वो ठीक हो जाए, इसीलिए ये सारे जतन हम कर रहे थे! बाबा नहुल नाथ तो मरते मरते बचे थे! लेकिन मैं भी डटा हुआ था! जितना कर सकता था कर ही रहा था! हाँ, तो वो चारों आयीं मेरे सम्मुख! मुस्कान बिखेरी, एक ज़हरीली लेकिन कामुक मुस्कान यही अस्त्र है इन कन्यायों का! मानव तो उलझ जाता है, और फिर कभी बाहर नहीं आता!
और जब आता है तो कुछ शेष नहीं रहता उसमे! उसका पौरुष समाप्त हो जाता है, वीर्य उत्पादन नहीं होता शरीर में, कांतिहीन हो जाता है मानव, और उस विष के कारण फिर, धीरे धीरे गलने लगता है। फफोले पड़ने लगते हैं! हड्डियां सूखने लगती हैं, इन्द्रियाँ अपने कार्य भूल जाती है,
और मृत्यु ही उसे अंतिम सुख प्रदान किया करती है। इस से छुटकारा दिल देती है। ऐसे व्यक्ति का तो मांस भी कोई जानवर, कोई कीड़ा, कोई मांसाहारी पक्षी भी नहीं खाता! भूप सिंह अभी बीच में थे, उसका यही हश्र होना था, एक वर्ष और, और वो जिंदा लाश बनके रह जाता! अभी तो हम शत्रु थे उसके,
और वो पराक्ष उसके मित्र! और वो पराक्ष-कन्या उसकी प्रेमिका! भारत के कई ऐसे तालाब और झीलें हैं, जहां ये पराक्ष आज भी विचरण करते हैं! उत्तर प्रदेश में भी हैं, राजस्थान में भी, उत्तराखंड में भी और उड़ीसा में भी! असम में नाग हैं, और जहाँ नाग हैं, वहाँ पराक्ष नहीं वास करते! विंध्याचल क्षेत्र में पराक्ष की एक विभिन्न प्रजाति का वास है, इनका वर्ण लाल है, ताम्बे
जैसा लाल, किन्तु से मानव से सदा दूरी बना के रखते हैं। अभी भी कई ऐसी गुफाएं हैं वहाँ, जो आज तक खोजी नहीं जा सकी हैं, जंगल सघन है,
पहुँचने का रास्ता नहीं है, भटक गए तो मृत्यु निश्चित है। खैर, वे पराक्ष-कन्याएं, मेरे सामने खड़ी थीं, वे मुझे,अप्सराएं सी लग रही थीं। बरबस ही नज़र उनकी देह का अवलोकन करने लगती थी,, न चाहते हए भी! सत्य को झुठलाना आसान होता है,
और असत्य पर विश्वास करना और भी आसान! लेकिन मेरे सामने पराक्ष कन्याएं थीं, ये सत्य था, पर उनका वो रूप, जो मैं देख रहा था, वो असत्य था!
और मैं ये असत्य पहचान गया था, जो भूप सिंह नहीं पहचान पाया था!
भूप सिंह तो निरंतर ही, गर्त में जाए जा रहा था! तभी एक कन्न्या सम्मुख आई! मेरे एकदम करीब, उसने हाथ बढ़ाया अपना आगे, मैंने नहीं बढ़ाया,
वो और समीप आ गयी मेरे, मेरे कंधे पर हाथ रखा, हाथ में कोई स्थूलता नहीं थी,
जैसे किसी परछाईं ने मुझे छुआ हो! उसने मेरा एक चक्कर काटा, और फिर सम्मुख हो गयी! मुस्कुराई, इतने में वे तीनों भी वहीं आ गयीं! सुगंध फैली थी, केवड़े की सी सुगंध! लग रहा था जैसे कि, केवड़े के सत में स्नान करके आई हों वे चारों! बदन अब तक गीला था उनका, पानी टपक रहा था उनसे, बाल भीगे हुए थे, उनकी नाभि एक बिंदु समान ही थी,
इस से अधिक कुछ नहीं! शेष उनका बदन मानव स्त्री समान ही था! वे चारों मुझे घेर के खड़ी हो गयीं! एक ने मेरा हाथ थामा, मेरी उँगलियों में अपनी उंगलियां फंसाई,
और नीचे तालाब के लिए खींचने लगी, मैं रुक गया, उन्होंने पलट के देखा, मैंने अपना हाथ छुड़ाया,
और खड़ा हो गया! वे फिर से मेरे समीप आयीं!
एक ने अपने केश से, मेरे सर पर सहलाया, पानी बह निकला, मेरे चेहरे से होता हुआ, मेरे होंठों तक आ गया। पानी मीठा जा जान पड़ा! शहद का सा स्वाद था उसमे! एक ने फिर से मेरी बाजू पकड़ी, मैंने हटा दी उसकी बाजू, उसके नेत्रों का रंग बदला, पीला हो गया! शायद क्रोधित हो गयी थी! मैं उसी पीली आँखों वाली पराक्ष-कन्या को देख रहा था, उसकी आँखों में रंग आये-जाए जा रहे थे, कभी पीली, कभी गुलाबी और कभी नीली सी आभा, अब एक दूसरी ने मेरा हाथ थामा, उसका हाथ बर्फ की तरह से ठंडा था, उसने अपनी उंगलियां मेरे हाथ की उँगलियों में फंसा ली, मैंने छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन पकड़ ऐसी थी कि जैसे चिपक गया हो मेरा हाथ, मेरे से तो हिल भी नहीं रहा था उसका हाथ! मैंने और ज़ोर लगाया, नहीं हटा सका मैं, उसने मुझे देखा, ऐसे काम भाव से कि, सम्भलना मुश्किल हो जाए! मेरे हाथ छुड़ाने की कोशिश में उसके बदन से भी मेरा हाथ, छू जाता था, कहीं देह गरम थी, और कहीं बर्फ जैसी ठंडी! मैंने अब दूसरा हाथ लगाया उसको, ताकि छुड़ा सकूँ अपना हाथ, लेकिन बात नहीं बनी, उसने दूसरे हाथ से मेरा दूसरा हाथ भी पकड़ लिया था, ये हाथ गरम था उसका! अजीब माया थी!
अब वो लेके चलने वाली थी मुझे तालाब में, मैं रुक गया, नहीं गया आगे, वे तीनों भी आ गयीं,
और एक ने मेरी गरदन पर, पीछे की तरफ, हल्का सा काट लिया, लेकिन जो काटा था, वो बहुत तेज काटा था, जैसे कोई सुआं घुसेड़ दिया हो! वो नहीं बाज आ रही थी, मैंने तभी कारुक-मंत्र पढ़ डाला!
झट से हाथ छुड़ाया उसने और सामने आ खड़ी हईं मेरे, कोई दो फ़ीट आगे, अब मैंने अपनी गरदन पर हाथ रखा, एक छोटा सा ज़ख्म था वहाँ, हाथ हटाया तो रक्त के निशान लगे हुए थे,
खून निकल रहा था गर्दन में वहाँ से! ये देख वो चारों ही खिलखिलाकर हंस पड़ी! गुस्सा तो आया मुझे, लेकिन बात बिगड़ जाती इस से! मैं आगे बढ़ा, मेरे पांवों में तालाब का पानी छू रहा था, मैं आगे आया था और वो पीछे चली गयी थीं! अब उनके घुटने पानी में थे,
और बाकी शरीर बाहर, "जाओ! और उस पराक्ष-कन्या को भेजो!" मैंने कहा,
अब जैसे वो सहम गयीं! मुझे उनसे कोई लेना देना नहीं था, न उनके रूप से, न उनके बदन से, "जाओ!" मैंने त्रिशूल आगे करते हुए कहा, वो पीछे मुड़ीं, एक बार मुझे देखा,
और छपाक से पानी में गोता लगा गयीं, किसी तैराक की तरह!
मैं वहीं खड़ा रहा!
देखता रहा! चाँद सर के ऊपर थे, उनका निर्मल स्वरुप और सजीली चांदनी, पानी में झिलमिला रही थे! पानी एकदम शांत था! जैसे जम गया हो!
और पानी के अंदर प्रकाश फूटा! मुझे यकीन ही नहीं आया! पानी का रंग बदलने लगा था! सफेद दूधिया सा हो गया था पानी! जैसे यक्षों के आने से होता है!
और तभी एक और पराक्ष-कन्या बाहर आई! उसका रूप तो ऐसा था कि वे चारों तो इसकी सेविकाएं लगें! पूर्ण नग्न थी ये भी, सफ़ेद रंग था, हल्का सा नीली सी आभा लिए हए,
चांदी जैसा, जब चांदी भट्टी से उबल कर आती है, ऐसा! आभूषण धारण किये हुए थे उसने! गले में, कानों में, माथे पर, हाथों में, कन्धों पर, भुजाओं पर, कमर में, जाँघों पर, पिंडलियों में, पांवों में।
और रूप ऐसा कि स्वयं कामदेव भी न रोक पाएं अपने आपको! वो पानी में चलते हुए आगे आई! एकदम मेरे समीप! सुगंध के मारे आँखें बंद सी होने लगी! नीमबेहोशी सी छाने लगी! उसका एक एक अंग ऐसा था कि आप एक जीवन तक अवलोकन करो,
तो भी कम है! उसकी आँखें, किसी मिस्री देवी से कम नहीं थीं! उसके वक्ष ऐसे थे कि कल्पना भी नहीं की जा सकती। मैंने तो ऐसे वक्ष कभी नहीं देखे थे! सुडौल और उभरे हुए, उसका पूर्ण बदन ही ऐसा था कि जैसे, बनाने वाले ने, कार्य से अवकाश लेकर उसको गढ़ा हो! एक एक अंग ऐसे बनाया था कि उसका कोई विकल्प ही न हो! सुंदरता की पराकाष्ठा कहूँगा मैं उसे! हाँ, एक बात और, उसका बदन गीला नहीं था! स्निग्ध था।
वो मेरे समीप खड़ी थी, और मैं नीमबेहोश था! वो मुस्कुरा रही थी!
और मेरा खड़ा होना मुश्किल हो रहा था! "कौन हो तुम? वही, उस भूप सिंह की प्रेमिका?" मैंने पूछा, वो मुस्कुरा गयी! मेरे और समीप आई, मेरे कंधे से उसके वक्ष टकराये, किसी मानव स्त्री की तरह से स्पर्श था उसका!
