आँखें, खोपड़ी के कोटरों से बाहर आने को थीं! जिव्हा, सांप की दुम की तरह से, संकरी हो चली थी! हलक़ में उतरने को सोचती, तो काक मना कर देता था मेरा!! "सच बोलो बाबा?" मैंने पूछा, "हाँ! हमें आवाज़ आयीं थी! हंसने की, मंगल की! बुधवि की!" वे बोले! अब, कलेजा कांपा मेरा! कहीं फ़ालिज ही न मार जाए, हाथ झिडके मैंने!!! क्या सुन रहा था मैं? मंगल की आवाज़??? उस बुधवि की आवाज़?? क्या? क्या ये सम्भव है???? कैसे??
क्या महाकराक्ष ने भेद दिया था सबकुछ? ले गयी थी, समय में पीछे? मेरा तो हाल ऐसा, जैसे पका फल डरे! डरे कि अभी भूमि पर गिरंगा और गूदा बाहर!!! बाबा फिर से बैठ गए थे पलंग पर! मैं और रजनी, बैठे अपनी अपनी कुर्सी पर! "फिर?" मैंने कहा, बाबा ने एक लम्बी सांस ली! और सर के पीछे दोनों हाथ करते हुए, लेट गए!! बाबा और अन्य लोगों को वहां पर आवाजें आई थीं! उस बुद्धवि और मंगल की! उनकी महाकराक्ष विद्या ने भेद डाला था लेपावरण वहाँ! और इतना कुछ जान लेना अपने आप में एक बहुत बड़ी बात थी! महाकराक्ष समर्थ है इस कार्य में! बाबा और अन्य लोग जांच में लगे थे, कि कुछ ऐसा मिले जिसके सहारे वो आगे बढ़ सकें! उन्होंने उस सारे स्थान को जांचा था! और अभी भी जांच आगे बढ़ाये जा रहे थे। बाबा जीवट वाले थे, सारी जानकारी लेकर आये थे। उनके संग जो थे, वे भी पारंगत थे यक्षिणी विद्याओं में! कोई और विद्या तो संभवतः कार्य ही नहीं करती वहाँ! क्योंकि देख तो वहाँ अब भी नहीं लगती। "फिर क्या हुआ बाबा?" मैंने पूछा,
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वे उसी समय में डूबे हुए थे। शायद उस समय हुई उस घटना का पुनःअवलोकन कर रहे थे। "वहाँ प्रकाश के कण फैले थे! वे कण, रंग बिरंगे थे! वे ऐसे हिलते थे, जैसे नत्य कर रहे हों! इसका अर्थ साफ़ था, कि वहाँ अभी भी उस महायक्षिणी की सत्ता काबिज़ है! हम हर कदम फूंक फूंक कर रख रहे थे!" वे बोले, इतना बोल, बैठ गए वो! "फिर?" अब रजनी ने पूछा, "उस समय रात के कोई ग्यारह बजे होंगे, कि सहसा हमें एक भयानक सी आवाज़ आई,
जैसे बाहर आकाश फटा हो, या कोई बादल! हम पीछे भागे। लेकिन वहाँ कुछ नहीं था। अब मैंने सुक्खा को जल्दी जल्दी काम करने को कहा! सुख ने जल्दी जल्दी काम करना शुरू किया! और महाकराक्ष की सहायता से भेदन जारी रखा! कोई बारह बजे करीब, वे दीवारें, और वो भूमि, चमकने लगी! जैसे उनमे नीचे लपटें जल रही हों! गहरे लाल रंग की हो गयी र्थी वो!" वे बोले, अभी भी उनकी आँखों में वो लपटें थीं शायद! आँखें ऐसे ही खुलीं थीं, जैसे अभी भी वो गहरा सुर्ख रंग देख रहे हों। "फिर?" रजनी ने तपाक से पूछा। "हम सब चकित थे और घबराये भी हए थे! पल पल हमारे मन में भय आ बैठता! जैसे अभी कुछ हो, और अभी कुछ हो! मेरे साथी सभी बड़ी ही सावधानी से सारा संचालन कर रहे थे! क्रिया आगे बढ़ रही थी, और लगभग कोई डेढ़ बजे का समय हआ होगा वहाँ, कि..." वे चुप हुए इतना बोलकर! "कि?" मैंने पूछा,
वे चुप थे! खोये हए, आँखें चौड़ी किये हए! "फिर बाबा?" अब रजनी ने पूछा! उन्होंने गला साफ़ किया अपना....और फिर बोले, "कोई डेढ़ बजे, आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी! लाल रंग के दिव्य से फूल , एक जगह गिरते
और टेरी बनती जाती! वे फूल, एक दीवार से हटकर, एक तरफ ही गिर रहे थे, गिरते, टेरी बनती जाती और सुगंध ही सुगंध, फ़ैल जाती!" वे बोले, "एक ख़ास जगह?" मैंने पूछा, "हाँ, एक खास जगह!" बोले वो! "वही जगह क्या? जहां मंगल लेटा करता था?" मैंने कहा, "हाँ, वही जगह!" वे बोले,
"इसका अर्थ, कपालशंडिका के सरंक्षण में है अभी भी वो स्थान!" मैंने कहा, "हाँ!" वे बोले, अब मारे भय के मैं सिकुड़ा! और ये मुझे क्रिया के लिए कह रहे हैं वहां! रजनी मुझे देखे और मैं रजनी को! मामला कितना गंभीर था, अब समझ आने लगा था! "फिर क्या हुआ?" पूछा रजनी ने! "भय तो हमें भी था। लेकिन कुछ हाथ लग जाए बस इसी की इच्छा थी!" वे बोले, "मौत से खेल रहे थे आप!" मैंने कहा, "हाँ, निश्चित ही, लेकिन जुनून ऐसा था, कि मौत का भय छोटा पड़ने लगा था उस से! हम
आगे बढ़ते गए क्रिया में! ख़राब दो बजे!!!" वे बोले, "दो बजे? क्या हुआ था?" रजनी से न रहा गया तब! पूछ लिया उसने! "दो बजे भूमि हिली! लगा, ये मंदिर, और उसके साथ हम, जैसे अब हवे में उड़ने वाले हैं! हम डर गए थे, और तभी सुक्खा ने मर्दिनि, यक्ष-मर्दिनि विद्या का संधान कर दिया! वो ज़मीन और ज़ोर से कॉपी! और जहां वो फूल थे, वे फूल अब हवा में उड़े! हमारी आँखें फटी पड़ी थीं! और देखते ही देखते!!!" वे बोले, और चुप हुए। चेहरे पर हाथ फेरा। फिर दाढ़ी पर! "क्या हुआ देखते ही देखते?" मैंने पूछा, "यक्ष-मर्दिनि ने अपन काम खूब किया! और वो भूमि, वो फूल वाली फट पड़ी! और उसमे से, प्रकाश की किरणें चम उठीं! नीली, पीली! नारंगी! और तभी कुछ ऐसा हुआ, कि हमारी बांछे खिल उठीं!!" वे बोले, "क्या हुआ था?" रजनी ने पूछा! बाबा खड़े हुए!
और अपने कपड़े सही किये! मुझे देखा, और फिर रजनी को! फिर वापिस बैठे! "उस रौशनी में हमने कुछ बाहर आते देखा! वो..." वे बोले, "वो कंगन!" मैंने कहा, "हाँ, मंगल का कंगन!" वे बोले! "लेकिन वो दीवार में था?" मैंने कहा, "मर्दिनि ने खींच लिया था!" वे बोले, "और तस्वीर?" मैंने पूछा, "मेरे साथी ने ली!" वे बोले, "बस एक?" मैंने पूछा,
"हाँ एक ही" वे बोले, "क्यों?" मैंने पूछा, "न ले सके फिर!" वे बोले, "क्यों?" मैंने पूछा, "मैंने उस कंगन को पकड़ने का प्रयास किया! और जैसे ही किया! खून का फव्वारा फूट पड़ा वहाँ!" वे बोले, "उसी जगह से?" मैंने पूछा! "हाँ, उसी जगह से!" वे बोले, "फिर?" मैंने पूछा, "फिर!!! फिर सब खत्म!" वे बोले "खत्म?" मैंने पूछा! "हाँ, सब खत्म!" वे बोले, "कैसे?" मैंने पूछा, "वहां चेवाट आ गए थे!" वे बोले, "ओह!" मैंने कहा, "कितने होंगे?" मैंने पूछा, "असंख्य!" वे बोले, "फिर?" मैंने पूछा, "क्रिया समाप्त!" वे बोले, "और वो कंगन?" पूछा मैंने, "गायब!" वे बोले। "वो प्रकाश?" मैंने पूछा, "सब गायब!" वे बोले, "फिर?" मैंने पूछा! वे चुप हुए! हँसे! मुझे देखा! बैठे।
"रिक्त होने की देर थी बस!" वे बोले! "समझ गया!" मैंने कहा! "हम भाग लिए! इस से पहले कि वो चेवाट हमारे टुकड़े कर भक्षण कर जाएँ, हम भाग
लिए!" वे बोले। "समझ गया मैं!" मैंने कहा,
और अब कुछ देर शान्ति रही! फिर मैंने ही शान्ति भंग की! "अब ऐसा क्या हुआ कि आपको उस कंगन की याद आई?" मैंने पूछा, "पारंगत! अब पारंगत हूँ मैं!" वे बोले, "जीवन लगा दिया आपने!" मैंने कहा, "हाँ, पूरा जीवन!" वे बोले, "तो मेरी क्या आवश्यकता?" पूछा मैंने! "हलंदर!" वे बोले! मैं चौंक पड़ा! हलंदर! मतलब,रक्षक उनका! कुछ भी हो, तो मैं मरूं पहले! क्रिया में आरम्भ करूँ!
और बाबा उसमे जांच करें। जब कंगन निकले।
और हलंदर पकड़ ले उसे! दे दे सीधी सीधे बाबा को! "और अगर मैं न कहूँ तो?" मैंने कहा, "आपकी इच्छा!" वे बोले, लेकिन न तो मैं कर ही नहीं सकता था! मुझे तो ललक लगी थी! उस बुधवि की! मंगल की! कैसे मना करता! "मैं चलूँगा!" मैंने कहा, "मैं जानता हूँ!" वे बोले, "कब चलना है?" मैंने पूछा, "परसों, एक और आ रहे हैं कल!" वे बोले, "कौन?" मैंने पूछा, "बाबा सोम नाथ!" वे बोले! बाबा सोम नाथ!! महाप्रबल हैं। अक्खड़ औघड़ हैं। जो ठान लिया सो ठान लिया! जानता हूँ उन्हें!! अच्छी तरह से!
छीन-झपट में माहिर हैं वो!! "जानते हो उन्हें?" पूछा उन्होंने! "हाँ! अच्छी तरह से!" मैंने कहा, "हाँ, वही!" वे बोले, अब हो गयी बात! कल आ रहे थे वो! और परसों हमने निकलना था!
अब मैं और शर्मा जी उठ, और चले अपने कक्ष की ओर, पहुंचे, बैठे! "मामला बहत खोदम-खादी का लगता है!" वे बोले, "हाँ, बाबा सोम के आने से तो पक्का !" मैंने कहा, "हाँ, वहीं बाबा सोम? वो सियालदाह वाले?" बोले वौ! "हाँ वही!!" मैंने कहा, "अब मामला फंसा!" वे बोले, "कैसे?" मैंने पूछा, "बाबा सोम! क्या हैं ये ज्ञात नहीं शायद बाबा योगनाथ को!" वे बोले, मैं समझ गया था! एक एक अक्षर! मैं हंसा!! "हाँ! सही कहा आपने!!" मैंने हँसते हए कहा! उस रात मैं और शर्मा जी, अपनी मदिरा रानी का हस्न, तार तार कर रहे थे! इतने पर भी, वो बेहया, हमें और भड़का देती थी! जैसे कोई रक़्क़ाशा, किसी शराबी को अपने जिस्म के हिस्सों से नूर टपका टपका के दिखाती है! एक हिस्से का हस्न लुटता तो दूसरा आगे बढ़ा देती! इस हिसाब में, शराब और शबाब, आग लगा देते हैं बेहिसाब! बस, ये बेहिसाबी चल रही थी! हम होंठों से लगाते उसे! वो छलक छलक कर अपन हस्न बिखेरती! और हम हस्न के भूखे, चपड़ चपड़ चाट जाते उसका हस्न!! एक ज़र्रा भी बेमज़ा चला जाए तो फिर शराबी कैसे!! हम इसी हस्नफ़रोशी में लगे थे, कि दरवाजे पर दस्तक हई! अब इतने बजे कौन हो सकता है? मैंने और शर्मा जी ने चेहरा देखा एक दूसरे का! तब शर्मा जी ने अपना गिलास रखा नीचे, चप्पल पहनी और चले दरवाज़ा खोलने! दरवाज़ा खोला, तो सामने रजनी थी! थोड़े से सकपका गए थे हम उस वक़्त! वो समझ गयी थी, कि हम इस वक़्त मदिरा के कांधों पर सर रखे उसके दामन से लिपटे हुए हैं। लेकिन फिर भी, वो हटी नहीं! "मैं अंदर आ जाऊं?" पूछा उसने! "हाँ, आ जाऔ" मैंने कहा,
"आपको तंग करने के लिए माफ़ी चाहूंगी" बोली वो, "कोई बात नहीं" मैंने कहा,
और मैंने अपने पाँव ऊपर कर लिए तब,आराम से बैठने के लिए! बोतल से झांकती मदिर, उस रजनी को सौतिया डाह से ज़रूर देख रही होगी! "कहिए?" मैंने कहा, "आप चल रहे हैं न?" वो बोली, "हाँ, क्यों पूछा?" मैंने पूछा, "वो आप कह रहे थे न कि अगर मैं मना कर दूँ तो वो बोली, "हाँ, कहा तो था, लेकिन मन में कुछ और ही है, जाना पड़ेगा" मैंने कहा, "आप दिल्ली से हैं न?" उसने पूछा, "हाँ, दिल्ली से" मैंने जवाब दिया, "हाँ, मुझे यही बताया था बाबा ने" वो बोली, "आप भी चल रही हैं?" मैंने पूछा, जानता था कि जायेगी तोज़रूर, लेकिन पूछ ही लिया। "हाँ, जाना तो है" वो बोली, "हाँ, चलिए" मैंने कहा, वो खड़ी हुई तब, "अब मैं चलती हैं, एक बार फिर से माफ़ी" वो बोली, "कोई बात नहीं रजनी" मैंने कहा,
और वो, एक हल्की सी मुस्कुराहट बिखेर, चली गयी, शर्मा जी फिर आ बैठे मेरे पास! "ये क्या इन्क्वारी करने आई थी?" पूछा उन्होंने! "पता नहीं!" मैंने कहा,
और फिर हमारे गिलास, जो बचे हुए थे, खाली किये हमने! हस्नखोरी का ये दौर, एक घंटा और चला! और उसके बाद, हम अपने पाँव पसार! खर्राटे मार, सो गए!! अगली दोपहर, खबर मिली कि बाबा सोम भी आ गए हैं! अपनी ही गाड़ी लेकर आये थे, बड़ी वाली! ये बढ़िया हुआ था, अब सभी जा सकते थे उनके साथ! बाबा सोम, पैंसठ वर्ष के हैं, लेकिन हैं बहत दमदार इंसान! सिद्धियां झपटने में, कोई सानी नहीं उनका!! झपटने में मतलब,उनको लेने में किसी से! "आ गए हैं वो!" शर्मा जी बोले। "हाँ! अब बुलाएंगे!" मैंने कहा,
और कुछ ही देर में, रिच्छा आया मेरे पास! "बाबा सोम बुला रहे हैं" वो बोला, "हाँ, चलो" मैंने कहा,
और अब हम दोनों चल पड़े मिलने उनसे! एक कक्ष में ठहरे थे! कक्ष में घुसे तो वहां बाबा सोम, उनकी एक चिलम और दो और लड़कियां थी, बाबा उठे, इस से पहले हम पाँव छूते उनके, पकड़ लिया मुझे! गले से लगा लिया! "अरे कैसा है आदिश्वर?" बोला बाबा! मुझे आदिश्वर कह कर ही बुलाते हैं। उनको अच्छा लगता है मुझे ऐसा बुला कर, उनके एक सबसे छोटे पुत्र का नाम था
आदिश्वर, अफ़सोस अब इस संसार में नहीं है वो, एक दुर्घटना में, हलाक हो गया था वो, तभी से मुझे इसी नाम से बुलाते हैं! "अच्छा है बाबा!!" मैंने कहा, "इसे तो जानता है?" चिलम की ओर इशारा करके बोले! "हाँ, रेखा!" मैंने कहा। अब नमस्ते की रेखा ने मुझसे! "और ये, ये मृदुला है और ये आकांक्षा! वे बोले, उन्होंने भी नमस्ते की मुझसे! लेकिन बताया नहीं मुझे कि वो दोनों खूबसूरत सी लड़कियां हैं कौन!! "और शोभना कैसी है?" पूछा उन्होंने, "अच्छी है" मैंने कहा, "अच्छा !" वे बोले, "कब आया था?" पूछा उन्होंने, "कई दिन हो गए" मैंने कहा, "खाना-पीना सही है?" पूछा उन्होंने, "हाँ, एकदम सही" मैंने कहा, "क्या बताया योगनाथ ने?" पूछा उन्होंने, "हलंदर!" मैंने कहा और हंसा! वे भी हँसे। "कहा नहीं? कभी बाबा धन्ना के बारे में नहीं सुना? सुना होता तो अभी तक ट** ज़मीन पर लटक गए होते!!" वे बोले और ठहाका मार के हँसे! वो चिलम भी!
और वो लड़कियां भी! बाबा सोम, अपने आप में ही मलंग हैं!! "चल, शाम को मिलते हैं, मैं तब तक इस जोगराज से बात कर लूँ,मरा जा रहा है!" बोले वो! "ठीक है!" मैंने कहा,
और आ गए वहाँ से वापिस हम! "खतरनाक आदमी हैं बाबा सोम!" बोले शर्मा जी! "हाँ, बहुत खतरनाक!" मैंने कहा, "योगनाथ के तो लटका दिए इन्होने ज़मीन पर!! ओले-गोले!" वो बोले। अब मैं हंसा! हंस हंस के पेट पकड़ लिया!! "सच में!!" वे बोले!! हँसते हुए!!
अब शाम हुई, और बाबा सोम का संदेशा आया, बुलाया था! हम जा पहुंचे! "आ यार आदिश्वर!!" बोले बाबा! नमस्कार हुई, और हम बैठ गए! "अरी, ओ, रेखा, जा सामान लिया" बोले बाबा! वो चिलम, दौड़ पड़ी वहां से!! "और सुनाओ" बोले बाबा! "बस बढ़िया!" मैंने कहा, अब उन्होंने बोतल निकाल ली थी! शानदार शराब थी!! "बाबा?" मैंने पूछा, "हाँ, बोल?" बोले वो! "वो लड़कियां कौन हैं?" मैंने पूछा, "एक तो इस चिलम की है, और आकांक्षा और दूसरी मृदुल, वो नयी आई है" बोले वो! "अच्छा! आपकी तो कोई बिटिया नहीं हैं न?" पूछा मैंने, "बस! यहीं तो मार खा गए! एक बिटिया होती,तो ये बाबा, धन्य हो जाता! पता नहीं, क्या कमी रह गयी!" वे बोले, "कोई बात नहीं बाबा!" मैंने कहा, "हाँ, सब उसकी मर्जी वे बोले, "हाँ बाबा' मैंने कहा, वो चिलम आई!
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और संग अपने, बहुत सारा सामान लायी! मसालेदार! "यहां रख दे, और सुन, गाड़ी में है तेरा जुगाड़, जा, ले ले" बोले वो, चिलम गयी वहाँ से फौरन ही!! "अच्छा, एक बात बता बेटे?" बोले वो! "हाँ?" मैंने कहा, "इस जोगनाथ ने क्या कह बुलाया तुझे?" पूछा उन्होंने! "हलंदर!" मैंने कहा,
और हंसने लगा। "अजी मेरा लो हलंदर!!" बोले बाबा! मैं और शर्मा जी हंस हंस के बेहाल हए!! वो भी हँसे! "सुन, ये है पागल! पागल हो गया है!!" वे बोले, "लगता तो मुझे भी यही है!" मैंने कहा, "एक बात बता?" बोले वो, "क्या?" पूछा उन्होंने, "किसी का ऐसे प्रेम का, उपहास उड़ाया जाता है क्या?" वे बोले, "मैं समझा नहीं?" मैंने कहा, "उस बुधवि और मंगल के पावन प्रेम का, मज़ाक उड़ाया जाता है क्या?" बोले वो! वाह! वाह! बाबा ने तो मेरे मुंह की बात छीन ली थी!! "नहीं, हरगिज़ नहीं!" बोला मैं! "अब इसे चाहिए कंगन!!" बोले वो! "हाँ, कंगन!" मैंने कहा, "फोटू दिखाई होगी इसने?" बोले वो! "हाँ!" मैंने कहा, "मुझे तो दो साल से दिखा रहा है!!" बोले वो!!
और ठहाका लगाया! मैं भी हंसा!! "अच्छा, एक बात बताओ" मैंने कहा, "हाँ, पूछ!" बोले वो! "क्या मिलेगा इनको वहाँ जाकर?" मैंने पूछा!
"इसे!! इसे मिलेगा कंगन!!" बोले वो! "फिर?" मैंने पूछा, "फिर, ये साधना करेगा!" बोले वौ! "फिर?" मैंने पूछा, "यदि धा ली, तो जवानी मांगेगा, पक्का!" बोले वो! मुझे हंसी का फंदा लगा तभी! "जवानी तो बहा दी इसने, फोटुओं में!!" बोले वो! अब शर्मा जी और मैं, बहुत हँसे!! "और क्या?" वे बोले! अब कुल मिलाकर, ये बात समझ में आ गयी थी कि, बाबा सोम, हमारी तरफ ही थे!!!
और ये, बहुत अच्छा था!! हम दारु पिए जा रहे थे!
और संग संग, बाबा के चुटकुले सुने जा रहे थे!! हंस हंस के नाभि बाहर आ चली थी हमारी तो!! "और सुनो!!" बोले वो! "क्या?" मैंने पूछा, "कहता है, मेरे बाद तुम्हारी!!" बोले,
और ज़बरदस्त हंसी हँसे वो!! मैं समझ गया था! यही सब तो!! मुझसे भी कहा था!! यही सब!! अब समझ आया था, बाबा योगनाथ को जूनून चढ़ा था! एक खतरनाक जूनून!! उस रात हम बाबा सोम के साथ मदिरा का आनंद लेते रहे! मैंने उन्हें बता दिया था कि मेरा मन नहीं हैं वहाँ कोई क्रिया करने का, और न ही कोई हलंदर बनने का! हाँ, मन में एक ललक है कि उस स्थली को देखा जाए, बस यही कारण हैं, और कुछ नहीं! बाबा सोम मेरा आशय समझ गए थे! और अब हमारे साथ ही थे! वे नहीं चाहते थे कि कोई उस स्थली का अपमान करे, उन प्रेमियों के मान का हनन करे। और यही मैं भी चाहता था! तो हम में ये निर्धारण हुआ, कि हम ऐसा कोई काम वहाँ नहीं करेंगे जिस से उन प्रेमियों के मान का हनन हो, अपमान हो! जब मदिरा का दौर समाप्त हो गया तो हम अब वापिस अपने कक्ष में चले गए! कुछ बातें की, और फिर आराम से सो गए!
मित्रगण! और फिर वो दिन आ गया। जिस दिन हमें उस जगह के लिए निकलना था। गाड़ी में सारा आवश्यक सामान रखा गया, और मैं, शर्मा जी, बाबा अवधू, बाबा योगनाथ, बाबा सोम और रजनी, अब सब तैयार थे! वो चिलम, वो लड़कियां और सहायक सभी यहीं ठहरने वाले थे! उस दिन भोजन जल्दी ही किया था, और कोई साढ़े दस बजे, हम निकल लिए थे वहाँ के लिए, बाबा सोम का ड्राइवर, कुशल था, सही ड्राइविंग करता था वो! हम चलते रहे, कभी सोते, कभी बीच में रुकते, और कभी टांगें सीधी करने के लिए बाहर खड़े हो जाते थे! मौसम साफ़ था, न गर्मी थी और न ही सर्दी, बारिश के भी कोई आसार नहीं थे। हालांकि, दो दिन पहले, थोड़ी बूंदाबांदी अवश्य ही हुई थी, लेकिन उसके बाद कोई बारिश नहीं थी! और इस तरह हम कोई आठ घंटे चलने के बाद, वहाँ जा पहंचे, वो स्थान तो अभी थोड़ा दूर ही था, लेकिन धड़कन बढ़ गयी थी! उस स्थली की कहानी तो सुनी थी, अब उसको अपनी आँखों से देखना था! मैं लालायित तो था, लेकिन मन में भय भी था, कर तो हम खैर गलत ही थे! बाबा योगनाथ की योजना कुटिल थी, और कुटिल ही सोच! और उस कुटिलता में हम भी फंसे थे! खैर, कोशिश यही थी कि किसी भी प्रकार से ऐसा कोई काम नहीं किया जाए, जिस से कोई बाधा उत्पन्न हो जाए। यहां रास्ता पक्का था, ये वही सड़क थी, जिसका ज़िक्र उस कहानी में हुआ था, जो अब घूम कर गयी थी, मैं उस सड़क को भी देख रहा था, इस सड़क की भी एक कहानी थी! और फिर आया वो नहर का पुल! वही पुल, जो बना दिया गया था उस महायक्षिणी द्वारा! उस मंगल के मंदिर को यथावत रखने के लिए! मैंने पुल भी देखा!! अच्छा-खासा चौड़ा पुल था! और फिर आया वो गाँव! वही गाँव! मंगल का गाँव! अब तो पक्के मकान बने थे वहाँ! एक बड़ा सा मंदिर भी था वहां! वही नया मंदिर! जिसका ज़िक्र कहानी में आया था! दिल धड़कने लगा! तेज तेज! कभी इन्ही रास्तों पर वो मंगल घूमता होगा! अलमस्त सा! अल्हड़ सा! उसका घर का पता नहीं था, और घर देखने से लाभ भी नहीं था! "वो, वहाँ देखो" वो बोले, मैंने नज़र उठा के, वहीं देखा, एक पहाड़ी सी थी, निर्जन सा स्थान था वहां! कुछ छितरे हए से वृक्ष लगे थे वहां! और वहाँ एक
मंदिर बना था! एक छोटा सा मंदिर! आँखों के सामने था वो मंदिर! वही मंदिर! उस मंगल का मंदिर! उस महायक्षिणी का मंदिर! उनकी प्रेम-गाथा का साक्षी! आज भी खड़ा था वहीं। "वहीं! वहीं जाना है हमें!" वे बोले, लेकिन उस से पहले, हमने उस गाँव के बाहर बनी हुई दुकानों में से एक से चाय पी! मैं, शर्मा जी और वोरजनी! उसी मंदिर को निहारे जा रहे थे। मन में डर भी था! डर, एक अंजाना सा
डर! वो डर, हवा के मानिंद हमे कभी-कभार छू के चला जाता था!! हमने चाय समाप्त की अपनी अपनी, और फिर से गाड़ी में जा बैठे, अब मंजिल वहीं मंदिर थी! गाड़ी चल पड़ी उसी तरफ, रास्ता कच्चा था, रस्ते में पत्थर, लकड़ियाँ आदि पड़े थे, अब तो ये स्थान निर्जन ही था, कोई आता जाता हो, पता नहीं लगता तो नहीं था! शायद, मात्र, करवा चौथ पर ही कोई जाता हो तो जाता हो! गाड़ी हिचकोले कखाते हुए आगे बढ़ रही थी, ऊपर की तरफ चढ़ने लगी थी, और वो मंदिर, हमारे करीब हुए चला जा रहा था! बाबा योगनाथ आँखें फाड़े वहीं देख रहे थे। यही तो थी उनकी मंजिल! और यही थी हमारी भी मंजिल! उनकी प्रेम-स्थली! गाड़ी जहाँ तक जा सकती थी, चली गयी थी! आगे रास्ता संकरा था, और झाड़-झंखाड़ बहुत था वहां! अब केवल पैदल ही चला जा सकता था! गाड़ी रुकी, एक जगह, और हम सभी उतरे! मैं और शर्मा जी, गाड़ी से उतरते ही, ऊपर की तरफ दौड़ चले! एक चुंबक सी थी, लगता था उस मंदिर में, हमें खींचे चले जा रही थी! हमारे पीछे आहट हुई, मैंने पीछे देखा, वो रजनी थी, हमारे पीछे पीछे ही चली आई थी! एक जगह रुक गयी थी, मैंने आगे हाथ बढ़ाकर उसको ऊपर खींचा था। तब हम तीनों आगे बढ़े! तो एक अहाता सा आया! दिल में झटका सा लगा! यही है वो जगह! मंगल की जगह! आसपास नज़र दौड़ाई, तो फूल लगे थे, रंग-बिरंगे! दीवारों में से भी झाँक रहे थे। दीवारें सुर्ख लाल रंग की थीं! मैंने एक दीवार को हाथ लगाया, और देखा, वो सिन्दूर की तरह से झड़ने लगी थी! ये तो करिश्मा ही था! संघ कर देखा, तो सिन्दूर जैसी ही महक थी उसमे! फिर मेरी नज़र, उस रास्ते पर पड़ी, जिस रास्ते से पहली बार, वो बुधवि आई होगी! जहाँ से मंगल, उसको देखा करता था! वो रास्ता अभी भी है वहाँ! मेरे मन में सभी यादें ताज़ा हो आयीं! एक एक पल ताज़ा हो आया! मुझे लगा, मंगल और बुधवि, अभी भी वहीं हैं! बस, हम इस लायक नहीं कि हम उन्हें देख सकें!! बस यही कारण था एक! "यही है वो मंदिर!" मैंने कहा, "हाँ, यही है!" वे बोले, "हम बहुत, भाग्यशाली हैं!" बोली रजनी! "हाँ रजनी!!" मैंने कहा,
और तभी हमारे पीछे वो तीनों भी आ गए! बाबा अवधू के पास सामान था, उन्होंने सामान खोला, पहले उन्होंने पानी से भरी बोतलें दी, पानी की तो बहुत आवश्यकता थी! हम सभी ने पानी पिया। और फिर बाबा अवधू ने एक दरी बिछा दी वहाँ, हम बैठ गए उस पर! बाबा योगनाथ ने भी अपना सामान रख दिया था नीचे, और बैठ गए थे! आसपास का मुआयना कर रहे थे बैठे बैठे। "यही आयेथे आप?" मैंने पूछा,
"हाँ! यहीं आया था!" वे बोले, "बाबा अंबर नाथ और बाबा कंदक नाथ भी!" मैंने कहा, "हाँ, वे भी!" इतना जवाब दे सकपका से गए थे वो! "कहाँ की थी क्रिया?" मैंने पूछा, "वो, वहाँ" वे
बोले, एक खाली सी जगह थी वहाँ! अब वहां पर कुछ फूलों के पौधे थे! "वो ज़मीन, वहीं खुली थी?" मैंने पूछा, "हाँ!" वे बोले,
और खड़े हुए, मुझे साथ लिया! हम वहीं पहुंचे! "यहां" वे बैठते हुए बोले, मैंने हाथ रखा वहां! ज़मीन ठंडी यी बहुत! बहुत ठंडी!! जैसे मैंने बर्फ पर हाथ रखा हो! ऐसी ठंडी!! "आज, यहीं करनी है क्रिया!!" वे बोले, जब भी वो क्रिया बोलते थे, मेरे अंदर एक रासायनिक क्रिया आरम्भ हो जाती थी!! एक भय सा जकड़ लेता था मुझे! अंदर ही अंदर मेरा मन कचोटने लगता था मुझे! "ठीक है" मैंने कहा,
और खड़ा हुआ अब मैं! शर्मा जी को बुलाया, वे आये, "आओ, ज़रा" मैंने कहा! हम उस मंदिर को देखने के लिए निकले, आसपास देखा, हर तरफ फूल लगे थे! कुछ जंगली
थे, और कुछ गेंदे के, पीले और मरून से! बहुत सुंदर फूल थे वो! "यही है वो प्रेम-स्थली!" मैंने कहा, "हाँ, पावन प्रेम-स्थली!" वे बोले, "हाँ, पावन!" मैंने कहा, तभी बाबा अवधू ने आवाज़ दी हमें, मैंने कह दिया कि अभी आ जाएंगे! "वो, रास्ता देखो! वही है!" मैंने कहा, "हाँ, वो बुधवि का रास्ता!" वे बोले, "हाँ, उसी बुधवि का रास्ता!" मैंने कहा, तभी कुछ पक्षी आ बैठे वहां वक्ष पर। लाल रंग के पक्षी थे। जैसे हमें ही देखने आये हों। अपने मधुर स्वरों में, चहचहाने लगे! प्रसन्न से लगते थे वौ!
"आओ" मैंने कहा,
और हम चले वापिस बाबा अवधू के पास! भोजन लगाया हुआ था उन्होंने, बंधवा के ले आये थे शायद! भोजन! तभी याद आया मुझे! वो बुधवि का उस मंगल को भोजन खिलाना! इसी स्थान पर! ठीक, इसी स्थान पर! सब याद आ गया!! कैसे खिलाती थी वो मंगल को भोजन!! खैर, हमने भोजन किया, पूरियां थीं, आचार और आलू की सूखी सब्जी के साथ! हमने खा ली! पेट भर कर! उसके बाद, बाबा सोम ने मुझे बुलाया, ले गए नीचे, मुझे और शर्मा जी को, गाड़ी में!
और अपने ड्राइवर से कह कर, खुलवा दिया सामान! इस क्रिया में ये तो आवश्यक ही थी! और हमने पी मदिरा तब!
और तभी, रजनी भी आ पहुंची। मन नही लग रहा था उसका शायद हमारे बिना!! "आओ रजनी!" मैंने कहा,
और सबसे पीछे वाला दरवाज़ा खोल दिया, वो चढ़ गयी, और बैठ गयी! "क्या हुआ?" मैंने पूछा, "कुछ नहीं, ऐसे ही बस!" "कोई बात नहीं" मैंने कहा,
और हम फिर लगे रहे अपने अपने गिलास खींचने में! "ये रात को करेगा शुरू" बोले बाबा सोम! "हाँ, रात को ही" वे बोले, "तब तक करो आराम!" वे बोले, वे अपने हाथ पाँव खोल कर, पसर गए सीट पर! अब मैं भी पसरा! शर्म अजी बाहर चले गए थे! सुट्टा मारने! मित्रगण! फिर हुई रात! और रात हुई गाढ़ी!
आकाश में चन्द्र और तारागण आ बैठे। अपने अपने स्थान पर! अब रात हुई, तो बाबा योगनाथ के जोग जागे! रात के करीब नौ बज चुके थे, बाबा योगनाथ ने सारी तैयारियां कर ली थीं! मैं, बाबा अवधू सभी तैयार हो गए थे। बाबा सोम अभी तक गाड़ी में ही थे, और वे, तभी प्रवेश
करते जब क्रिया आरम्भ होती! हाँ, रजनी हमारे संग ही आ बैठी थी! उसने भी तैयारी करनी शुरू कर
दी थी! सबसे पहले, महाकराक्ष को ही जागृत करना था, और उसके बाद भेदन क्रिया आरम्भ होती! ठीक साढ़े दस बजे, महाकराक्ष विद्या का संधान हुआ, बाबा सोम, आ बैठे थे हमारे पास अब! अब मैं, बाबा सोम, बाबा अवधू, रजनी और बाबा योगसब उस संधान में शामिल हो चुके थे, लेकिन शर्मा जी और वो ड्राइवर नीचे गाड़ी में ही थे! वे क्रिया में नहीं बैठ सकते थे, कहीं कुछ अहित न हो जाए इसलिए! बाबा योगनाथ ने क्रिया आरम्भ की, और जल के छींटे उस स्थान पर छिड़क दिए! मंत्र पढ़ते जाते वो और क्रिया को संभालते जाते! उनको देख, कोई नहीं कह सकता था कि वे अस्सी बरस के होंगे, वे तो किसी जवान की तरह से मंत्रोच्चार किया जा रहे थे। बाबा अवधू, उस छोटी सी अलख में, ईंधन झोंक देते थे। और महाकराक्ष विद्या का संधान किये जाते! करीब एक घंटे के बाद, महाकराक्ष विद्या जागृत हुई और अब लगा कि, वहाँ के प्रत्येक पेड़-पौधे में प्राण उत्सर्जित गए हों! जैसे एक एक फूल हमें ही देखने लगा हो! वे पत्थर और वे दीवारें जैसे प्राण ग्रहण कर गयी हों! माहौल भयानक हो चला था उस समय! मेरी नज़रें उन्ही दीवारों और पत्थरों पर टिकी थीं! न जाने कब क्या हो जाए। पल पल अब खटका लग रहा था! करीब ग्यारह बजे, भेदनी क्रिया ने ज़ोर पकड़ा! और उसके बाद उस मर्दिनि क्रिया ने! तभी,
अचानक ही, वहां प्रकाश के कण नाच उठे! स्पष्ट था कि, मर्दिनि महाविद्या ने वहां पर यक्ष-अस्तित्व को छान मारा है! वो प्रकाश के कण, जगमग जगमग दमक रहे थे! अब बाबा ने उस रजनी को, एक जगह बिठाया, और बना दिया चातकि! भेदिया! आँखें चढ़ गयीं उसकी! और सर झुका लिया उसने अपना! अब वो रजनी नहीं थी, मर्दिनि विद्या संग बाँध दी गयी थी, अब वो उन प्रश्नों का उत्तर देने में सक्षम थी, जिनका उत्तर बाबा योगनाथ चाहते थे! मुझे हैरत थी बाबा यगनाथ की इस क्रिया पर! उन्होंने बारीकी से अध्ययन किया था एक एक तथ्य का! और कदम फूंक फूंक कर आगे बढ़ते जा रहे थे! अब बाबा योगनाथ ने मुझे बुलाया, और बिठा दिया मुझे बनाकर वो हलंदर, जिसे अब सामना करना था उन
चेवाटों का! सबसे क्लिष्ट कार्य मुझे ही सौंपा गया था! मई न चाहते हुए भी, उसमे बैठ गया था!
और अचानक ही, मुझे कुछ स्वर सुनाई दिए! लेकिन ये स्वर किसी पुरुष के नहीं थे, ये तो रोती होइँ स्त्रियों के थे। जैसे आलाप कर रही हो! भय की एक शीतल लहर, मेरे माथे और
गर्दन से छू कर निकल गयी। अब बाबा सोम ने भी मोर्चा संभाल लिया था। लेकिन उस स्थान को हाथ जोड़कर! उनको आइए करते देख, मुझे अपनी भूल का अहसास हो आया था! वे आलाप के स्वर कभी गूंजते और कभी मंद पड़ जाते! और फिर सुनहरा प्रकाश फूट पड़ा! तेज सुनहरा प्रकाश! आँखें तो फट ही पड़ी मेरी जैसे! और फिर, सुगंध फैली! भीनी भीनी सुगंध! अचानक ही, एक स्थान पर, फूल टपकने लगे! मेरी तो नज़रें वहीं टिक गयीं! वो गिरते और ढेरी बनती जाती! ये दृश्य ऐसा था, जैसे अभी वो महायक्षिणी कपालशंडिका प्रकट होगी, और हमारे सर धड़ से
अलग हो जाएंगे! शरीर दोफाइ हो जाएंगे। अब शरीर में कंपकंपी छूटने में देर नहीं थी! मैंने चेवाट-नाशिनी विद्या का आह्वान किया। और कुछ ही
देर में, चेवाट-नाशिनी जागृत हो गयी! लेकिन मेरे मन में अभी भी भय हिलोरें मार रहा था!! जो मैं कर रहा था, वो गलत था! सच में गलत! और बाबा योगनाथ, मेरी कमर पर थाप दिए जा रहे थे! मेरा हौसला बढ़ाये जा रहे थे, लेकिन मेरी हिम्मत कब जवाब दे जाए, मुझे खुद पर भी यकीन नहीं था!! कोई पल दो पल बीते होंगे! कि रजनी ने दांत भींचे हुए, आँखें खोली! और ऐसे चिल्लाई, जैसे अंदर ही अंदर जल रही हो! बाबा योगनाथ, चौकस हुए! बैठ गए उसके सामने! "कौन है?" बोले वो, वो फिर से चिल्लाई! मेरी तो हिम्मत अब टूटी और अब टूटी! "कौन है?" पूछा बाबा ने! "जस्त्रा!!" वो मुंह फाड़ के बोली! वो बोली!
और बाबा योगनाथ की आँखें चमकीं! "खड़ी हो जा?" बोले बाबा, रजनी अपनी दोनों मुडियाँ बंद किये हुए, उठ खड़ी हुईमुझसे निगाह मिली, तो मेरे अंदर तीर से उतरे! मन किया, भाग जाऊं वहाँ से! उठ जाऊं! हाथ जोड़ दूँ! क्षमा मांग लूँ! बाबा ने जखा को बाँध लिया था! जस्खा, आरम्भिक यक्ष-खेत्री!!! वो उठी, और एक जगह जाकर, धम्म से गिर पड़ी! बाबा ने, उसको खींच के अलग करा दिया उसे! और बैठ गए वहीं! तभी, आवाजें आयीं। कुछ भीषण सी आवाजें!! जैसे कोई तैयार हुआ हो!! जैसे, कोई हम पर निगाह रखते हुए, तैयार हो रहा हो हमारे संहार के लिए!
बाबा योगनाथ ने अब मर्दिनि से अभिमंत्री जल से छींटे दिए वहाँ! ज़मीन से प्रकाश फूट पड़ा! लाल, नीला, पीला, एक अलग सा प्रकाश! बाबा सोम उठे, मेरे कंधे पर हाथ रखा, और खड़े हो गए! हमे खड़े होते देख, बाबा अवधू का खोपड़ा घूमा! बाबा सोम ने और मैंने,अब ठान लिया था कि अब हमें कुछ नहीं करना वहां! कुछ हआ, तो क्षमा ही उचित है। बब अवधू बड़बड़ करने लगे! खुल के नहीं बोले, बोलते कैसे, बाबा सोम जो थे!! उठा कर, फेंक ही देते नीचे! हम खड़े थे। और एकटक देखे जा रहे थे! तभी भूमि फटी!
और श्वेत सा प्रकाश फूट पड़ा! हमारी तो आँखें ही चुंधिया गयीं!
और उस प्रकाश में, कुछ प्रकट हुआ!!! एक कंगन! हाँ! वहीं कंगन! बाबा योगनाथ हंस पड़े!! हमें आवाज़ दी, हम गए वहां, बाबा अवधू भी। और जैसे ही उस घूमते हुए कंगन को, बाबा ने छुआ! अँधेरा हो गया! मैं और बाबा सोम, पीछे लौटे! अलख के पास तक! और पाया हमने। पाया हम सभी को उन महाभट्ट चेवाटों के बीच! बब सोम और मैं, हाथ जोड़, पीछे लौटे!! रजनी बेहोश पड़ी थी! बस इतना देखा कि, बाबा ने कंगन पकड़ लिया था! और उसके बाद!! उसने बाद वे कंगन को ले, लौट रहे थे, अलख की ओर!! लेकिन लौट न सके! वे, सीने पर हाथ रखे, नीचे बैठते चले गए! ढूंढ छाने लगी थी! सर्द सी धुब्ध! बस इतना ही देख सका मैं! उसके बाद, मेरी आँखें बंद होने लगी! शायद, यह मृत्यु का समय है, मैं शांत सा हो, धम्म से नीचे गिर गया!! मैं कहाँ था? पता नहीं!! एक पल को, पता नहीं!!!
और अगले ही पल! मंदिर था मेरे सामने!! वहीं मंदिर!
और उस मंदिर में, उस अहाते में, कोई खेल रहा था!! कौन?
मंगल!! मेरे मुंह से निकला मंगल!!! मंगल, हाथ पकड़े उस बुधवि का खेल रहा था!! ये क्या था? सपना? या कोई कल्पना? नहीं समझ आया! मैं तो उस बरसात में बस भीग रहा था! और देख रहा था उस प्रेमी युगल को! और महायक्षिणी बुधवि को! और उस, उस कपालशंडिका के उस अल्हड़ प्रेमी को!! बहुत प्रसन्न था मंगल!!! नाच रहा था, और वो कपालशुंडिका, हंस रही थी! उसके हंसने की खनक, हर तरफ छायो हुई थी! हर तरफ!! और मैं, भी प्रसन्न था! बहुत प्रसन्न!!
वो बारिश! बहुत तेज थी। बहुत तेज! रह रह कर बादल गरज रहे थे! बिजली कड़क रही थी। बिजली का सफ़ेद चमकता प्रकाश, उन दोनों के ऊपर पड़ता था। दोनों ही दमक जाते थे। फ़र्क इतना कि मंगल का बदन उस प्रकाश को परावर्तित कर देता था, और उस बुधवि का
बदन, सोख लेता था! अद्भुत नज़ारा था वो! लगता था कि जैसे कोई पारलौकिक प्राणी उस स्थान पर उतर आये हों! कोई विशेष ही प्राणी! वो महायक्षिणी पानी में तरबतर हो जाती थी! आँखों से पानी बहता था, तो अपने हाथों से वो मंगल साफ़ करता था उसे! उसके केश, जो मुख पर आते थे, हटा देता था मंगल! उसको उठाता, कमर से पकड़ कर, और घुमा देता था! वो महायक्षिणी, किसी आम स्त्री की तरह ही, उसका साथ देती थी! पानी झर झर बह रहा था! पानी भी जैसे बहुत प्रसन्न था! वो जैसे उनको छूना चाहता था! जैसे उस छुअन से उसका जीवन ही साकार हो जाएगा!! ऐसा अद्भुत नज़ारा था वो! वो फूल, बूंदों के गिरने से झूमने लग जाते थे! पेड़, जैसे झूम झूम कर संगीत पैदा कर रहे होते थे! मैं जैसे वहां खड़ा था, उसी अहाते में! जैसे मुझे आज्ञा मिल गयी हो उस बुधवि की! उनके अंतरंग जीवन के कुछ अनमोल पलों को निहारने की! ये अंतरंगता कामहीन थी! किस अनमोल प्रेम था वो! बस, इतना ही देखा मैंने! बस इतना ही! और तब मेरे कानों में आवाज़ पड़ी किसी की मुझे जगा रहा था कोई। कौन? मैंने आँखें खोली। ये बाबा सोम थे। उन्होंने जगाया था मझे! मैं झट से जागा! खड़ा हुआ, उनका हाथ पकड़ कर! दौड़ा बाबा योगनाथ के पास! बाबा योगनाथ धराशायी थे! रजनी वहाँ नहीं थी, न बाबा अवधू ही। मुझे कुछ समझ नहीं आया! कुछ भी नहीं!
"ये, बाबा?" मैंने पूछा, मैंने बाबा योगनाथ की ओर इशारा करके पूछा था! बाबा सोम चुप थे! "क्या हुआ?" मैंने पूछा, तभी बाबा अवधू, और वो ड्राइवर आया वहाँ! उठाया बाबा योगनाथ को उन्होंने, और तब बाबा सोम ने मुझे नीचे चलने को कहा। हम नीचे चले, लेकिन मैं अभी भी कुछ नहीं समझ पा रहा था, अब कोई चेवाट भी नहीं था वहां, न कोई पुष्प, जो गिरे थे, और न ही वो ढेरी! सब गायब थे। हम गाड़ी में बैठे, गाड़ी की बत्तियां जली थीं अंदर, बाहर अँधेरा था, शर्मा जी ने मुझे देखा,
और मुझे बिठा लिया, मेरे शरीर में जाना नहीं थी बिलकुल भी, हाँ, गाड़ी के शीशे में मैंने पीछे रजनी को देखा, वो लेटी हुई थी, पिछली सीट पर! और उनके साथ ही, बाबा योगनाथ, गाड़ी आगे बढ़ी, उसकी बत्तियां जलीं, तो मैंने हल्की सी बूंदाबांदी देखि, तेज तो नहीं थी, लेकिन हल्की हल्की! मैंने गर्दन घुमायी अपनी, और गाड़ी के बाएं से देखा, वो मंदिर, अब नहीं दीख रहा था, बस, कुछ हिसा ही, अँधेरा था घुप्प वहाँ! बहत घुप्प अँधेरा! मेरे बदन में जैसे नशा
भरा था, मेरा बदन बहत भारी हो चला था, मेरी आँखें बंद हुए जा रही थीं, बार बार! वहां क्या हुआ था, कुछ पता ही नहीं था, और फिर मुझे वही याद आया! वो बारिश!
और तभी बिजली कड़की! उसके प्रकाश में, मेरी नज़र उस मंदिर पर पड़ी! वो चमक रहा था! चमक रहा था सफेद रंग का!! मेरी आँखें फ़टी की फ़टी रह गयीं!! उसके बाद, मैं सो गया, मुझे कुछ याद नहीं फिर, ऐसा सोया कि सुबह ही नींद खुली, गर्दन अकड़ गयी थी, दर्द हो रहा था, सामने ही बाबा योगनाथ का स्थान था, बाबा योगनाथ को अब होश था, वे उठे, और चल दिए थे बाबा अवधू के साथ, रजनी को उस ड्राइवर ने जगाया था, वो भी जाने लगी थी अंदर, मझे शर्मा जी अंदर ले गए थे, मैं कक्ष में पहंचा, और धड़ाम से बिस्तर पर गिर पड़ा, मेरी नींद कोई दो बजे खुली, शर्मा जी बैठे थे वहीं, "कैसे हो?" पूछा उन्होंने, "ठीक" मैंने कहा, "क्या हुआ था रात को?" उन्होंने पूछा, "मुझे याद नहीं" मैंने कहा, "बस एक चीख गूंजी थी, बाबा योगनाथ की, और उसके बाद अफरातफरी सी मच गयी थी, बाबा सोम ने हमें आवाज़ दी थी, हम भाग चले थे ऊपर, ऊपर कोई क्षति नहीं थी, लेकिन सभी अचेत से पड़े थे, मैंने आपको देखा तो बाबा सोम ने कहा कि वो आपको लेके आ
जाएंगे, तो हम रजनी को और बाबा अवधू को सहारा देकर नीचे आ गए थे" वे बोले, "मुझे याद नहीं" मैंने कहा, तभी बाबा सोम आ गए वहाँ! बैठे! "बाबा योगनाथ?" मैंने पूछा, "ठीक हैं" बोले वो, "क्या हुआ था?" मैंने पूछा, "कंगन जैसे ही पकड़ा उन्होंने, उनका शरीर फूल गया था, जैसे अभी फट पड़ेगा, उनकी सभी विद्याओं का नाश हो गया था, रिक्त हो गए थे वो! मई क्षमा मांगी, तब बाबा को नीछे फेंका उन चेवाटों ने, बस, अब सब खत्म" वे बोले,
खत्म! सब खत्म हो गया था! बाबा योगनाथ की साठ साल की मेहनत, सब चू गयी थी उनके हाथ से! जान बच गयी थी, यही कम नहीं था! जान बचने के पीछे भी एक उद्देश्य था, कि अब जीवन भर, अपने जीते जी, कभी किसी को नहीं भेजना उधर!! बस, इसी कारण से प्राण बच गए थे। हम दो दिन और रहे वहां, बाबा योगनाथ ने जैसे मौनव्रत धारण कर लिया था, आँखें मिलाते ही नहीं थे, बाबा अवधू भी शांत थे! तीसरे दिन, बाबा सोम ने हमें गोरखपुर छोड़ा,
और हम वहाँ से वापिस हए, एक कहानी लेकर, कहानी एक गाथा! उस कपालशंडिका और उस मंगल की! मैं कभी नहीं गया फिर उधर! जा भी नहीं सकता, पाँव ही नहीं उठते! हिम्मत ही नहीं होती! वो मंदिर, वो बुधवि और वो मंगल! जीवित हैं आज भी! मेरे मन में! और मैं मन ही मन प्रणाम किया करता हूँ उन्हें! उनके प्रेम को! और विशेषकर, उस महायक्षिणी को, जिसने ये बताया कि मनुष्य किसी से कम नहीं! असम्भव कुछ नहीं संसार में! बस, प्रेम की भाषा सीखनी होगी! उस से बड़ा तंत्र, मंत्र, यंत्र, विद्या, कुछ नहीं! प्रेम में ही सब निहित है! प्रेम ही वो महाशक्ति है, जिसके आगे आगे बड़ी से बड़ी महाशक्ति भी, अपना मूल छोड़, समरूप होने लगती है, उस भाषा के जानकार के! साधुवाद!
