वर्ष २०१२ जिला इलाह...
 
Notifications
Clear all

वर्ष २०१२ जिला इलाहबाद की एक घटना

87 Posts
1 Users
2 Likes
997 Views
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

किसको दिखाए? 

कहाँ जाए? क्या करे??? "जा! और जल्दी आना। मैं नहीं रह सकता तेरे बिना, जानती है न?" बोला वो! हाँ! सब जानती है मंगल! वो सब जानती है! तू नहीं रह सकता उसके बिना! 

अरे मंगल! सच जान! जान सच! वो नहीं रह सकती तेरे बिना!! ये है सच! जान जा मंगल! जान जा!! "अब जा! जा, मिल आ!" वो बोला, "जाती हूँ" वो बोली, "मैं चलूँ, छोड़ने तुझे?" बोला वो! "चली जाउंगी मैं" वो बोली! "जल्दी आना" बोला वो! "हाँ, जल्दी आउंगी" वो बोली! "सुन, अगर रोकें तो..." बोलते बोलते रुका वो! "तो?" वो बोली, "तो..." फिर से रुका! "तो?" उसने अब उसका चेहरा उठा कर पूछा! "तो कहना उनसे कि..." वो फिर रुका! "क्या कहना?" उसने हल्की सी आवाज़ में कहा, "कि, मंगल भोजन नहीं करता तेरे बिना, मर जाएगा भूखा" बोल गया वो! बोल गया! 

ओह.... 

........ बुधवि! 

वो बुधवि! किरिच किरिच हो गयी अंदर से! किरिच किरिच! ज़र्रा ज़र्रा बिखर गयी! ऐसी सरलता? ऐसी सरलता? कि विरलता भी छोटी पड़ जाए? तू कैसा मानव था मंगल? कैसा? सच में..................कैसा??? 

ओह... 

मंगल भूखा मर जाएगा। भूखा, उस बुधवि के बिना, अन्न नहीं उतरेगा गले से नीचे अपनी बुधवि के बिना! आँखें, ढूंढती रहेंगी अपनी बुधवि को! साँसें, पल पल गर्म होती जाएंगी अपनी बुधवि के बिना, चेतना, शनैः शनैः मंद पड़ती जायेगी अपनी बुधवि के बिना! स्वर निकल ही नहीं पाएंगे अपनी बुधवि के बिना! बस आंसू! आंसू! आंसू ही निकलेंगे!! ये है प्रेम! इसे कहते हैं प्रेम! अब प्रेम का ऐसा रंग तो मैंने कभी देखा ही नहीं! ये कामरहित, विषयरहित और इच्छारहित प्रेम है! ऐसा विरल प्रेम! सच कहूँ? केवल मंगल ही कर सकता है। कम से कम, मैं तो नहीं! मेरे बस में नहीं! मेरी इन्द्रियाँ तो, मुझसे विद्रोह करती ही रहती हैं। मेरा मन, कभी यहां, तो कभी कहाँ! कभी कुछ और कभी कुछ। खैर, अधिक लिखंगा तो मैं खुद ही उलझ जाऊँगा! उलझ गया तो फिर उसके संग सुलझना थोड़ा मुश्किल है। "अब जा बुधवि' बोला मंगल! "जाती हैं" बोली वो! "जा, और जल्दी आना" हाथ छोड़ते हुए बोला वो, बुधवि का! "ध्यान रखना अपना' बोली बुधवि! "हाँ हाँ!" वो बोला, "जाऊं?" बोली वो! "हाँ जा, जल्दी जा!" वो बोला, "जल्दी क्यों?" पूछा उसने! "नहीं तो........जाने नहीं दूंगा!!" बोला शरमा के मंगल! आँखें नीचे किये! मुस्कुरा गयी बुधवि! मंद मंद मुस्कुरा गयी! "तो मत जाने दो न?" वो बोली, "नहीं बुधवि, जा, मिल आ!" बोला वो! "जाती हूँ" वो बोली, 

और पलटी! चली वहां से! और मंगल, खड़ा हो, गर्दन झुकाये हए, देखता रहा उसको जाते हए! देखता रहा, जब तक,की वो ओझल न हो गयी! अब अकेला था! हाँ, इस भौतिक संसार में वो


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

अकेला था, लेकिन वो अब कभी अकेला नहीं था। अकेला तो उसको छोड़ती ही नहीं थी वो बधवि! कैसे छोड़ती! प्रेम की मारी थी। जो हाल मंगल का था, उस से बुरा हाल बुधवि का था! 

वो रात, जागते जागते ही काटी उसने! कभी सोता! कभी जागता! कभी हँसता और कभी गंभीर हो जाता! कभी बैठ जाता, बैठता, तो उसको बुधवि के शब्द याद आते, वो उसे, 

आसपास ही दिखाई देती! उस पल, मुस्कुराने लगता वो! सारी रात ऐसा ही रहा, और फिर सुबह हुई, उनिंदा था, वो तो बुधवि के घुटने पर सर रख कर सोता था, आदत थी उसे, तभी नींद आया करती थी, पिछली रात, ऐसा नहीं था, इसीलिए, आँखों में नींद समायी थी! उस दिन दोपहर हई, और भोजन का समय हआ, लेकिन भूख दबा गया मंगल! मन नहीं लग रहा था! बेचैन था बहत! उसको, डर लगता था बुधवि के बिना! घबरा जाता था मंगल! आकाश में बादल बने हुए थे, कब बरस जाएँ, पता नहीं था, वो एकटक आकाश को देखता था! कि बारिश होगी! और कुछ देर बाद, बारिश हुई, वो अंदर कक्ष में भागा, बैठ गया वहीं! आज बारिश नहीं अच्छी लग रही थी उसे। उसको बुद्धवि के संग बारिश में नहाना, याद आ रहा था! बादल गरजते, तो सिहर जाता था! घुटनों में सर दबाये, न देखता बाहर! खूब मेह पड़ा! झड़ी लगी हुई थी! और फिर रात हुई! बारसिह अभी भी थी! बादल गरजते, तो बिजली कड़कती, बिजली कड़कती, तो प्रकाश होता, प्रकाश होता, तो अपनी परछाई से भी डर जाता मंगल! कोने में जा बैठता! वो रात भी, भूखे, प्यासे ही काट दी! आँखों ही आँखों में! सुबह हई। बारिश बंद थी उस सुबह! कक्ष में ही रहा वो उस दोपहर तक! बुधवि न लौटी! अब हुई चिंता उसे! बाहर आया, रास्ता देखा, पानी भरा था रास्ते पर, नीचे उतरा, और आया वहां तक, जहां से, बुधवि मुड़ी थी गाँव जाने के लिए! नज़र गड़ा दी सामने! बहुत देर तक, बहुत देर तक बैठा रहा वो वहां! जब नहीं आई,तो वापिस चला वो! टूटा सा, बिखरा सा! आ गया ऊपर! इस तरह दो दिन बीत गए! न खाना, न पीना, बस इंतज़ार! और कुछ नहीं बैठा रहता, ताकता रहता सामने! आँखें बंद कर लेता, और खो जाता यादों में बुधवि की! यादों में, हँसता, भागता! उस बुधवि को खींचता! उसको गिराता! फिर उठाता! और फिर मुस्कुरा 

जाता! "मैं आ गयी!" आवाज़ आई! 

आँखें खोली उसने! खड़ा हुआ! आगे पीछे देखा! दायें, बाएं! होशोहवास उड़ गए थे! 

आँखें फाड़े, मुंह खोले, ढूंढने लगा था उसको! "बुधवि?" वो चिल्लाया! "तू आ गयी?" चिलाया, और भागा कक्ष कि ओर! 

कक्ष में नहीं थी वो। बाहर आया! आसपास ढूँढा! "बुधवि?" बोला वो! "सामने आ बुधवि?" चिल्लाया! पागलों की तरह! सामने देखा!! आ रही थी! आ रही थी वो बुद्धवि! हाथों में सामान लिए! सर पर सामान रखे! 

वो भाग लिया। सरपट भागा नीचे के लिए! और आया उसके पास! साँसें थामी! "ला, इधर ला!" सर से सामान ले लिया उसने! "चल अब चल!" बोला वो! 

और हाथ पकड़, खींचने लगा उसका! "चल,जल्दी चल!" बोला वो! 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

अकेला था, लेकिन वो अब कभी अकेला नहीं था। अकेला तो उसको छोड़ती ही नहीं थी वो बधवि! कैसे छोड़ती! प्रेम की मारी थी। जो हाल मंगल का था, उस से बुरा हाल बुधवि का था! 

वो रात, जागते जागते ही काटी उसने! कभी सोता! कभी जागता! कभी हँसता और कभी गंभीर हो जाता! कभी बैठ जाता, बैठता, तो उसको बुधवि के शब्द याद आते, वो उसे, 

आसपास ही दिखाई देती! उस पल, मुस्कुराने लगता वो! सारी रात ऐसा ही रहा, और फिर सुबह हुई, उनिंदा था, वो तो बुधवि के घुटने पर सर रख कर सोता था, आदत थी उसे, तभी नींद आया करती थी, पिछली रात, ऐसा नहीं था, इसीलिए, आँखों में नींद समायी थी! उस दिन दोपहर हई, और भोजन का समय हआ, लेकिन भूख दबा गया मंगल! मन नहीं लग रहा था! बेचैन था बहत! उसको, डर लगता था बुधवि के बिना! घबरा जाता था मंगल! आकाश में बादल बने हुए थे, कब बरस जाएँ, पता नहीं था, वो एकटक आकाश को देखता था! कि बारिश होगी! और कुछ देर बाद, बारिश हुई, वो अंदर कक्ष में भागा, बैठ गया वहीं! आज बारिश नहीं अच्छी लग रही थी उसे। उसको बुद्धवि के संग बारिश में नहाना, याद आ रहा था! बादल गरजते, तो सिहर जाता था! घुटनों में सर दबाये, न देखता बाहर! खूब मेह पड़ा! झड़ी लगी हुई थी! और फिर रात हुई! बारसिह अभी भी थी! बादल गरजते, तो बिजली कड़कती, बिजली कड़कती, तो प्रकाश होता, प्रकाश होता, तो अपनी परछाई से भी डर जाता मंगल! कोने में जा बैठता! वो रात भी, भूखे, प्यासे ही काट दी! आँखों ही आँखों में! सुबह हई। बारिश बंद थी उस सुबह! कक्ष में ही रहा वो उस दोपहर तक! बुधवि न लौटी! अब हुई चिंता उसे! बाहर आया, रास्ता देखा, पानी भरा था रास्ते पर, नीचे उतरा, और आया वहां तक, जहां से, बुधवि मुड़ी थी गाँव जाने के लिए! नज़र गड़ा दी सामने! बहुत देर तक, बहुत देर तक बैठा रहा वो वहां! जब नहीं आई,तो वापिस चला वो! टूटा सा, बिखरा सा! आ गया ऊपर! इस तरह दो दिन बीत गए! न खाना, न पीना, बस इंतज़ार! और कुछ नहीं बैठा रहता, ताकता रहता सामने! आँखें बंद कर लेता, और खो जाता यादों में बुधवि की! यादों में, हँसता, भागता! उस बुधवि को खींचता! उसको गिराता! फिर उठाता! और फिर मुस्कुरा 

जाता! "मैं आ गयी!" आवाज़ आई! 

आँखें खोली उसने! खड़ा हुआ! आगे पीछे देखा! दायें, बाएं! होशोहवास उड़ गए थे! 

आँखें फाड़े, मुंह खोले, ढूंढने लगा था उसको! "बुधवि?" वो चिल्लाया! "तू आ गयी?" चिलाया, और भागा कक्ष कि ओर! 

कक्ष में नहीं थी वो। बाहर आया! आसपास ढूँढा! "बुधवि?" बोला वो! "सामने आ बुधवि?" चिल्लाया! पागलों की तरह! सामने देखा!! आ रही थी! आ रही थी वो बुद्धवि! हाथों में सामान लिए! सर पर सामान रखे! 

वो भाग लिया। सरपट भागा नीचे के लिए! और आया उसके पास! साँसें थामी! "ला, इधर ला!" सर से सामान ले लिया उसने! "चल अब चल!" बोला वो! 

और हाथ पकड़, खींचने लगा उसका! "चल,जल्दी चल!" बोला वो! 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और ले आया उसको! सामान ले लिया था, कक्ष में रख दिया! भागा, पानी लाया सकोरे में घड़े से, दिया उसे! "ले,पी!" बोला वो! बुधवि ने पानी लिया और पिया। "दो दिन बाद आई है तू?" बोला, आँखों में दर्द लिए! 

चुप वो! 

"मेरी याद नहीं आई?" पूछा उसने! 

चुप वो! याद! याद! क्या पूछ रहा है मंगल! "बता?" बोला वो! "बहुत याद आई!" वो बोली, "तो दो दिन बाद क्यों आई, कल तेरी बाट जोहता रहा सारा दिन मैं!" बोला वो! "हाँ, कैसे हैं गाँव में सब तेरे?" पूछा उसने! "सब ठीक हैं!" वो बोली, 

"अच्छा!!" वो बोला, अब खुश था! चलो, गाँव भी हो आई बधवि! "बुधवि, मैंने भोजन नहीं किया, भोजन दे दे" वो बोला, "हाँ, बैठो” वो बोली, 

और तब, भोजन लगाया उसने! और एक एक कौर, प्रेम का खिलाती रही उसको! मंगल, मंगल भी खिलाता रहा उसको! कैसे प्रेमी थी वे दोनों! भोजन हो गया था! अब, लेट गया था मंगल! "बुधवि?" बोला वो, "हाँ?" वो बोली, "कंगन दिखाए?" वो बोला, "हाँ!" वो बोली. "कैसे लगे?" पूछा उसने, "बहुत सुंदर!" वो बोली! "अच्छा । मेरे हैं न!" वो बोला, "हाँ!" वो बोली, "कहा तूने?" पूछा उसने! "हाँ! कहाँ, की ये मंगल के हैं!" वो बोली, वो खड़ा हुआ, अचानक "बधवि?" बोला वो! "हाँ?" वो बोली, "मेरा नाम ले?" बोला वो! "नाम?" वो बोली, "हाँ, मेरा नाम, मंगल!" वो बोला, वो चुप रही! मुस्कुराते हए! "बोला न?" बोला वो! "क्यों?" पूछा उसने! "बोलान, तेरे मुंह से कितना अच्छा लगता है! बोल?" वो बोला! "मंगल!" वो बोली, "फिर बोल!" वो बोला! "मंगल!" वो फिर बोली! 

सुकून! सुकून! बेपनाह सुकून! सुकून मिला उसे! "मैं मंगल!" वो बोला, "हाँ!"वो बोली, "तू बुधवि!" वो बोला! "हाँ!" बोली वो! "मंगल की बुधवि!" वो बोला! 

चुप वो! 

"बुधवि का मंगल!" वो बोला और खिलखिला के हंसा! 

और इस बार, न रोक सकी अपने आपको! न रोक सकी! हंस ही पड़ी! खिलखिलाकर! बुधवि का मंगल!!! मित्रगण! ऐसे ही हँसते-खेलते, इन दो प्रेमियों में से, एक प्रेमी का एक एक दिन, एक एक रात, एक एक क्षण, पूर्ण हए जा रहा था! वो बढ़ रहा था आगे! उस बिंदु की तरफ जहां उसके देह की माला पूर्ण हो जाती है! उसको न पता था, वो तो बस, अपनी बुधवि के संग, उसी क्षण को जिए जा रहा था, जिसको वर्तमान कहा करते हैं हम 'ज्ञानी' जन!! लेकिन, वो जानती थी! उस से कुछ नहीं छिपा था! समय बीता! समय निर्बाध चलता है! और चल रहा था! समय के एक कोने में, ये प्रेम-गाथा अपना स्थान ले रही थी, ले नहीं रही थी, ले चुकी थी! अब तो बस अमिटता की छाप लगनी बाकी थी! और वो कब लगती, लगती! अवश्य ही लगती! कौन लगाती? लगाती अवश्य ही लगाती! वही तो पूर्ण करती है जीवन! इस जीव-चक्र को वही पूर्ण


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और ले आया उसको! सामान ले लिया था, कक्ष में रख दिया! भागा, पानी लाया सकोरे में घड़े से, दिया उसे! "ले,पी!" बोला वो! बुधवि ने पानी लिया और पिया। "दो दिन बाद आई है तू?" बोला, आँखों में दर्द लिए! 

चुप वो! 

"मेरी याद नहीं आई?" पूछा उसने! 

चुप वो! याद! याद! क्या पूछ रहा है मंगल! "बता?" बोला वो! "बहुत याद आई!" वो बोली, "तो दो दिन बाद क्यों आई, कल तेरी बाट जोहता रहा सारा दिन मैं!" बोला वो! "हाँ, कैसे हैं गाँव में सब तेरे?" पूछा उसने! "सब ठीक हैं!" वो बोली, 

"अच्छा!!" वो बोला, अब खुश था! चलो, गाँव भी हो आई बधवि! "बुधवि, मैंने भोजन नहीं किया, भोजन दे दे" वो बोला, "हाँ, बैठो” वो बोली, 

और तब, भोजन लगाया उसने! और एक एक कौर, प्रेम का खिलाती रही उसको! मंगल, मंगल भी खिलाता रहा उसको! कैसे प्रेमी थी वे दोनों! भोजन हो गया था! अब, लेट गया था मंगल! "बुधवि?" बोला वो, "हाँ?" वो बोली, "कंगन दिखाए?" वो बोला, "हाँ!" वो बोली. "कैसे लगे?" पूछा उसने, "बहुत सुंदर!" वो बोली! "अच्छा । मेरे हैं न!" वो बोला, "हाँ!" वो बोली, "कहा तूने?" पूछा उसने! "हाँ! कहाँ, की ये मंगल के हैं!" वो बोली, वो खड़ा हुआ, अचानक "बधवि?" बोला वो! "हाँ?" वो बोली, "मेरा नाम ले?" बोला वो! "नाम?" वो बोली, "हाँ, मेरा नाम, मंगल!" वो बोला, वो चुप रही! मुस्कुराते हए! "बोला न?" बोला वो! "क्यों?" पूछा उसने! "बोलान, तेरे मुंह से कितना अच्छा लगता है! बोल?" वो बोला! "मंगल!" वो बोली, "फिर बोल!" वो बोला! "मंगल!" वो फिर बोली! 

सुकून! सुकून! बेपनाह सुकून! सुकून मिला उसे! "मैं मंगल!" वो बोला, "हाँ!"वो बोली, "तू बुधवि!" वो बोला! "हाँ!" बोली वो! "मंगल की बुधवि!" वो बोला! 

चुप वो! 

"बुधवि का मंगल!" वो बोला और खिलखिला के हंसा! 

और इस बार, न रोक सकी अपने आपको! न रोक सकी! हंस ही पड़ी! खिलखिलाकर! बुधवि का मंगल!!! मित्रगण! ऐसे ही हँसते-खेलते, इन दो प्रेमियों में से, एक प्रेमी का एक एक दिन, एक एक रात, एक एक क्षण, पूर्ण हए जा रहा था! वो बढ़ रहा था आगे! उस बिंदु की तरफ जहां उसके देह की माला पूर्ण हो जाती है! उसको न पता था, वो तो बस, अपनी बुधवि के संग, उसी क्षण को जिए जा रहा था, जिसको वर्तमान कहा करते हैं हम 'ज्ञानी' जन!! लेकिन, वो जानती थी! उस से कुछ नहीं छिपा था! समय बीता! समय निर्बाध चलता है! और चल रहा था! समय के एक कोने में, ये प्रेम-गाथा अपना स्थान ले रही थी, ले नहीं रही थी, ले चुकी थी! अब तो बस अमिटता की छाप लगनी बाकी थी! और वो कब लगती, लगती! अवश्य ही लगती! कौन लगाती? लगाती अवश्य ही लगाती! वही तो पूर्ण करती है जीवन! इस जीव-चक्र को वही पूर्ण


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

किया करती है! वही तो है नश्वरता की सबसे बड़ी शत्रु और सूचक! वही लगाएगी ये छाप! मैं तो सिहर जाता हूँ कल्पना करते है! मानव मन है,न जाने कहाँ कहाँ छलांग लगाने लगता है! एक रोज की बात है! मंगल और बुधवि, भोजन कर रहे थे! कि कुछ लोग, कुल छह लोग थे वो, आ रहे थे ऊपर की तरफ, उनमे से दो के पास अजीब से संयंत्र से थे, मंगल ने कभी नहीं देखा था ऐसा कुछ भी, मंगल ने भोजन छोड़ा और चल दिया बाहर की तरफ. बाहर गया, तो गाँव का प्रधान भी आया था, वो मिला मंगल से, और मंगल को बताया, कि गाँव को जोड़ने के लिए, यहां एक सड़क बनायी जायेगी, उसी के परिमापन के लिए, ये यहां आये हैं, ये सरकारी लोग हैं, और ये मंदिर, अब टूटेगा, क्योंकि मंदिर बेच एम है, कोई आता तो है नहीं यहां, और फिर, मंदिर रहने भी दिया जाए तो सड़क, फिर घूम के जाती है, घूम के गयी, तो 

 

नहर को पार करना होगा, उस से एक तो देर लगेगी निर्माण कार्य में,और दूसरा, नहर पर पल भी बनाना होगा! इसीलिए बेहतर है कि महीने भर में ही ये मंदिर खाली कर दे वो, और अपनी औरत को ले जाए कहीं और यहां से! मंदिर टूटेगा? ये सुनकर तो मंगल के होश उड़ चले! बदन काँप गया! टाँगें कांपने लगी! घबरा गया वो! बुरी तरह से, और भाग चला अपनी बुधवि के पास! घबराया हुआ था बहत! उसको घबराये देख, बुधवि का हाल खराब होता था, जान सूख जाती थी बुधवि की! मंगल ने बाहर झाँका, वे सरकारी लोग और प्रधान, जा चुके थे वहाँ से, वे अब नीचे उतर चुके थे और अब नहीं थे वहाँ! "क्या हुआ?"बुधवि ने उसके चेहरे को हाथों में लेकर पूछा! साँसें थोड़ी नियंत्रित की उसने! "बताओ? क्या हुआ?" पूछा उसने! रो पड़ा! उसके गले लग, रो पड़ा! शब्द न निकलें मुंह से! एक शब्द भी नहीं! कुछ बोले, तो वायु बाहर न निकले, और जो निकले वो सिसकियाँ! जब मंगल ऐसा करता था तो सूखने लगती थी बुधवि! आग लगा दे संसार में वो उसके लिए! लील जाए सारे शत्रुओं को एक ही बार में! वो महायक्षिणी ऐसे सूख जाया करती थी उसके आंसू देख!! "मुझे बताओ? क्या हुआ?" पूछा बुधवि ने! खूब समझाया! ढांढस बंधवाया! सर पर हाथ फेरे! कमर पर हाथ फेरे! "बताओ? मुझे बताओ?" वो बोली, अब थोड़ा शांत हुआ, गले से हटा! "क्या हुआ?" फिर से पूछा! "अब हम कहाँ जाएंगे बुधवि? मेरा तो घर भी नहीं?" बोला मंगल! "जाएंगे? क्यों?" पूछा उसने! 

अब सारी बात बतायी मंगल ने उसको! बुधवि, मुस्कुरा पड़ी! सर पर हाथ रखा! "बस? हम यहीं रहेंगे!" वो बोली, "लेकिन वो?" बोला मंगल! "अब कोई नहीं आएगा!" वो बोली! मंगल खुश सा हुआ! बाहर गया भागा भागा! रास्ते को देखा! 

"सुना! अब कोई नहीं आएगा! हम यहीं रहेंगे! कोई नहीं आएगा! बुधवि ने कहा है। कोई नहीं आएगा अब!" वो बोला! फिर दौड़ के अंदर आया! "कोई नहीं आएगा अब!" खुश हो कर बोला मंगल! "हाँ! कोई नहीं आएगा! नहीं टूटेगा मंदिर!" वो बोली! नहीं टूटेगा मंदिर! मित्रगण! महायक्षिणी की बात सत्य हुई। वो मंदिर, आज भी नहीं टूटा! आज भी वहीं खड़ा है। सड़क, घूम के ही गयी है वहाँ से, यहाँ से सड़क कोई ढाई सौ मीटर अधिक बनानी पड़ी है, लेकिन, वो


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

मंदिर, कभी नहीं हट सका! कभी भी नहीं! आज तक नहीं! सड़क, नहर के पुल से होकर जाती हैं अब! मैंने देखा है ये सब! कोई चार दिन बाद, सड़क निर्माण कार्य आरम्भ हुआ था, लेकिन कभी मशीन खराब, तो कभी सड़क में गड्ढे! जितना काम करते आज, कल फिर से ध्वस्त! कभी कोई भागे, कभी कोई! कभी इंजीनियर भाग जाएं, कभी कुछ ऐसा हो, कि दुबारा कभी न आएं। साल भर तक, काम वहीं का वहीं रहा। बड़े से बड़ा इंजीनियर वहाँ असफल हो जाता था। काम नहीं बढ़ पाता था आगे! आखिर में हिम्मत टूटी! पैसा बर्बाद हो गया सरकारी! और बाद में, जब घुमाकर सड़क बनाने लगे, तो सारे काम एक से एक, अपने आप होने लगे जैसे! 

और मंगल! मंगल तो बहुत खुश था! बहुत खुश! उसका मंदिर बच गया था! उसका घर! उसकी बुधवि का घर! "नहीं टूटा मंदिर!" बोला मंगल! "मैंने कहा था न?" बोली वो! "हाँ बुद्धवि! हाँ!" बोला वो! गले से लगे! उठाये उसको! बहुत खुश! समय आगे बढ़ा! पंख लगते देर नहीं लगती समय को! इसी प्रकार बरस गुजरते चले गए! बरस के बाद बरस! मंगल और बुधवि, उस मंदिर में ही रहते! कभी मंगल, तालाब ले जाता उसको, और कभी कहीं दूर जंगल में! बुधवि, संग रहती उसके! हमेशा! हमेशा आँखों में बना रहता मंगल उसके, सोते, जागते, बैठे, लेटे हर समय! एक बरस, 

एक बरस क्या हुआ कि, मंगल गांव गया हुआ था, ऐसे ही, अलमस्त था, जब चाहता, चला जाता! उस रोज, एक व्रत था, करवा-चौथ का व्रत! मंगल जिस स्त्री को देखता, वो सजी धजी होती! मांग भरे! गाँव के नए मंदिर के पास से गुजरा, तो भी यही देखा! मंगल को कुछ समझ नहीं आया! ये कौन सा त्यौहार है? कोई बात भी न करता था उस से! बस, उस बुधवि के अलावा! मंगल भाग लिया वहाँ से! भागा भागा आया मंदिर अपने! बुशवी को देखा, बुधवि वहीं थी, साधारण से कपड़ों में, रोज रोज वही देखता था न! इसीलिए! मंगल गया बधवि के पास! बैठ गया! कनखियों से देखा मंगल को बुधवि ने! "क्या बात है?" पूछा बुधवि ने! "आज क्या है?" उसने पूछा, "क्या?" बोली वो! "वो गाँव में, हर औरत सजी-धजी है, मेरी बुधवि क्यों नहीं?" बोला वो! 

ओह! मंगल! ये कैसे प्रश्न करता है तू? अब भला कौन बुधवि जैसा संवर, सज-धज सकता है? है कोई ऐसा? इस धरा पर? "क्या है आज?"बोला वो! वो मुस्कुराई! "आज, करवा चौथ है!" वो बोली! नहीं समझा! कुछ नहीं समझा! "तू क्यों नहीं सजी?" बोला वो! अब समझी वो! सजाना चाहता था बुधवि को वो! नहीं बोली कछ! क्या बोलती!! उसने समझना तो था नहीं! इसीलिए समझाया भी नहीं!! "चल खड़ी हो!" बोला वो! "किसलिए?" पूछा उसने! "चल, सजाऊंगा तुझे अपने हाथों से!" बोला मंगल! सागर ने शोर किया उस महायक्षिणी की भीतर! किनारे तोड़ डालने की ही कसर थी बस! "मुझे सजाओगे?" बोली वौ! 

"हाँ, चल मेरे साथ" बोला वो, "कहाँ" पूछा उसने! "मंदिर, वो, वहाँ!" उसने उस गाँव के नए मंदिर की तरफ इशारा किया! उसने देखा! एक नज़र भर! मंगल, वहीं देख रहा था! "वहाँ नहीं!" वो बोली, "फिर?" वो बोला, "कहीं और" वो बोली, "कहीं और? मुझे नहीं मालूम" वो बोला, अनभिज्ञ था! कैसे जानता! "आँखें बंद करो" वो बोली, मंगल ने आँखें बंद की! 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और अगले ही पल! अगले ही पल जब आँखें खोली मंगल ने, तो हैरत में पड़ गया! वहां, पर्वत ही पर्वत थे! हिमाच्छादित पर्वत! सौंदर्य था वहां! अलौकिक सौंदर्य! "ये हम कहाँ?" पूछा उसने! "मंदिर!" वो बोली, मंगल ने, सामने देखा, सच में, एक मंदिर था! एक मंदिर! सफेद रंग का! वहां, फूल खिले 

थे, ब्रहम-पुष्प! बड़े बड़े! मित्रगण! यहां इस मंदिर में, मंगल ने, उस बधवि को, अपने हाथों से सजाया था। अपने हाथों से! पहली बार! पहली बार उसकी मांग में सिन्दूर सजाया था। और अब मंगल के सिन्दूर के बोझ तले, आँखें भी नहीं मिलाती मंगल से वो। मित्रगण! उस मंदिर में, जहां वे रहते थे, आज भी दीवारों से, सिन्दूर झड़ता है, अपने आप, गाँव की 

औरतें, आज भी वही सिन्दूर सजाती हैं अपनी मांग में! करवा-चौथ के दिन, इस मंदिर में विशेष भीड़ हुआ करती है, लोग दूर दूर से आते हैं! अफ़सोस, नाम भी याद नहीं उन दोनों का जिनका प्रेम यहां फला-फूला था! इतिहास में सब दफन है! सब! आज मंगल नाम का कोई नामलेवा नहीं वहाँ! बुधवि की तो बात ही छोड़ो! मंगल के कुनबे वाले, सब भूल चुके हैं, ने पीढ़ी नहीं मानती ऐसा कुछ भी! जब मैं उस मंदिर में गया था, पहली बार, तो मेरे पाँव काँप गए थे! ऐसी पावन-स्थली पर, मेरे जैसे पापी का क्या काम? कैसे आ गया मैं इधर? 

कैसे? मैं अपनी निर्लज्जता पर हंसा भी नहीं, अफ़सोस भी नहीं किया! खैर, सजी-ढही, बुधवि ने, उस दिन, उसको बहुत स्थान दिखाए! बहुत स्थान! मंगल, उसका हाथ थामे, जगह जगह गया! बहुत खुश होता वो, वो सब देख कर! उसको खुश देख, वो बुधवि, प्रसन्नता के मारे, झूम उठती थी! 

और फिर.. .............. एक रात की बात होगी। उस रात, कुछ जुगनू चमक रहे थे। मंगल उनको ही देख रहा था। अचरज से! और मुस्कुराते हुए, वो बुधवि मंगल को देख रही थी! तो टिमटिमाते तो मंगल मुस्कुरा जाता! और खुश हो जाता था! अपलक निहारता जाता उन्हें! कोई कोई जुगनू जब पास तक आ जाता कक्ष के, तो मंगल घुटनों पर बैठ, उनको देखने लग जाता था! कोई गिर जाता, तो उसको हाथ से पकड़ कर, छोड़ देता था! बुधवि, ये सब देख रही थी! मंगल उसको टिमटिमाते देख, ऐसा खुश होता था कि जैसे अभी तालियां पीट देगा! "क्या हुआ?" पूछा बुधवि ने! "ये!" बोला वो! "जुगनू?" बोली वो! "हाँ!" बोला वो! "हाँ, पर इसमें ऐसा क्या?" वो बोली, "वो चमकता है, बंद हो जाता है" वो बोला, "हाँ, तो?" वो बोली, "मैं, चमकता हूँ, बंद हो जाता हूँ!" बोला वो, कुछ. चमकता हूँ? बंद हो जाता हूँ?????????????? इसका क्या अर्थ हुआ? मैं तो नहीं समझा? 

और बुधवि? क्या समझी वो? वो उठी! वो उसके पास आई! उसका चेहरा थामा अपने हाथों में! उसको देखा, उसकी पुतलियाँ, अभी भी, उन चमकते और बंद होते जगनओं को देख रही थीं। आँखों में, जैसे बत्तियां जल-बुझ रही थीं! "मुझे देखो!" बोली वो. नहीं देखा! 

"देखो मुझे?" बोली वो। तब देखा! आँखें मिली एक पल! और इस से पहले कि मंगल की पुतलियाँ फिर से घूमती उन जुगनुओं को देखने के लिए, बुधवि ने उसका चेहरा अपने वक्ष से लगा लिया! सर पर हाथ रखा! "तुम, कभी बंद नहीं होओगे! नहीं मंगल! कभी नहीं! तुम, चमकते रहोगे! दमकते रहोगे! कभी बंद नहीं होओगे!!!" वो बोलती गयी, एक बार! दो बार! बार बार! मंगल! नहीं समझा कुछ! कैसे समझता! जो कहता था, वही ही नहीं समझ पाता था!! उसने चेहरा हटाया अपना! 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और फिर से जुगनुओं को देखने लगा! खुश होकर! कक्ष से बाहर निकला, और बैठ गया, फिर देखता रहा! और बुधवि, अपलक उसको ही देखती रही!! वो आगे आई! मंगल को उठाया! और देखा उसको! मंगल ने, उसकी आँखों में झाँका! मुस्कुराया! और अगले ही 

पल! 

दृश्य बदल गया! सैंकड़ों! सहस्त्रों दीप जले थे! कुछ भूमि पर, कुछ आकाश में, कुछ अधर में! और मंगल! किसी यक्ष की भांति, दैदीप्यमान था! धवल! उज्जवल! असंख्य आभूषणों से युक्त! दिव्य वस्त्र पहने! और वो बुधवि! अपने रूप के चरम पर थी! ऐसा रूप जो हम और आप देख लें, तो उसके बाद, हमारी इन्द्रियाँ ही शिथिल हो जाएँ! न पुतलियाँ हिलें,न श्वास आये! न गंध, न स्वर, न कुछ सुनाई दे! ऐसा रूप! मंगल! उन दीपों को देखता था! एकटक! बार बार! उसके नीचे खड़ा होता! तो देखता! बैठता तो देखता! और बार बार, अपनी बुधवि को देखता! मुस्कुरा जाता! अगले ही पल, फिर दृश्य बदला! ये उपवन था! सब श्वेत था वहाँ! श्वेत ही वनस्पतियाँ! श्वेत आकाश! श्वेत ही प्रकाश! बुधवि भी श्वेत! और मंगल भी श्वेत! मंगल ये सब देख, खुश होता! तालियां पीट लेता! 

और जा लिपटता अपनी बुद्धवि से! उसको खींचता! गिराता उसको नीचे! उसको उठाता! फिर गिराता! और खुश होता!! फिर से दृश्य बदला! ये पृथ्वी थी! अनुपम सौंदर्य से युक्त! सब ऐसा, जैसा कुछ पल के लिए, इस धरा ने स्वर्ग से उधार लिया हो वो सौंदर्य! सुंदर झरने। तालाब! वनस्पतियाँ! फलदार वृक्ष! लताएँ। जैसे कोई यक्षलोक! दृश्य बदलता! कभी हिमाच्छादित पर्वत! 

कभी श्वेत झीलें। कभी श्वेत मिट्टी! न जाने क्या क्या!! मंगल प्रसन्न होता! झूम उठता! भागता इधर उधर! और फिर बुधवि से लिपट जाता! वो बुधवि, वही था संसार उसका! और वो बुधवि, थामे हए थी उस मंगल का संसार! 

और फिर वापिस, उस मंदिर में! घर! मंगल के घर! इतना कह बाबा चुप हो गए। रजनी भी उठी और पानी का गिलास भरा उसने, मुझसे पूछा, तो मैंने ले लिया पानी! बाबा ने अंगड़ाई ली, और अब लेट गए! मैंने भी थोड़ी चुप्पी साधी अब! 

और कुछ देर बाद ही, मैंने फिर से टॉक दिया! "बाबा?" मैंने कहा, "हाँ?" वे बोले, "वो कंगन?" मैंने पूछा, "हाँ, वही बताऊंगा अब" वे बोले, "ठीक है" मैंने कहा, कुछ देर बाद, बाबा फिर बैठे, और फिर से कहानी आगे बढ़ायी! एक दिन की बात है, तब तक बरसों गुजर चुके थे! मंगल की निगाह, उस बुधवि के एक कंगन पर पड़ी। कंगन, खुल गया था, टूट गया था! "इधर आ बुधवि?" बोला मंगल, बुधवि चौंकी! "इधर तो आ?" बोला वो! बुधवि सरकी उस तरफ! "हाथ दिखा?" बोला वो, बुधवि ने दोनों हाथ आगे किये! उसने उलटे हाथ का कंगन, निकाल लिया!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"ये टूट गया है" वो बोला, "कोई बात नहीं" वो बोली, "नहीं, नया लाऊंगा अब" वो बोला, "नहीं, कोई आवश्यकता नहीं" वो बोली, 

"तू चुप रह!" वो बोला, 

खड़ा हुआ, वो, और उस मंदिर की ही दीवार में, एक झिरी में, वो कंगन डाल दिया! खोंस दिया उसने! और आ गया वापिस! बैठा! "टूट जाने दे, नया ले आऊंगा" बोला वो! मुस्कुरा गयी वो! 

और मंगल, फिर भोजन करने बैठा, भोजन किया और सो गया! संग, बुधवि को लिए! उसका हाथ पकड़ कर सोता था वो, हमेशा! और बुधवि, उसको रोज सुबह, दिखती, उसका सर, उस बुधवि के घुटने पर रखे हुए। अब मेरे मन में सवाल आया! "बाबा? क्या वो, वही कंगन था?" मैंने पूछा, 

अब बाबा चुप! "वो जो तस्वीर में है, वो वही कंगन है क्या?" मैंने पूछा, "नहीं" वे बोले, "तो ये तस्वीर में कौन सा कंगन है?" मैंने पूछा, "ये..........दूसरा है" वे बोले, "दूसरा?" मैंने पूछा! "मतलब ये उस बुधवि का नहीं?" मैंने पूछा, "उसका ही है!" वे बोले! अब तो दिमाग झुंझला गया मेरा!!! "आपको ये कंगन कहाँ से मिला ये बताइये?" मैंने पूछा, वे शांत हुए, रजनी मुझे ताड़े। जैसे मैं ज़ोर-ज़बरदस्ती कर रहा होऊं बाबा से! "बताइये?" मैंने पूछा, "कहाँ से मिला!!" वे बोले! "हाँ?" मैंने कहा, "कोई कंगन नहीं मिला!" बोले वो! नहीं मिला???? "तो ये?" मैंने तस्वीर को देखते हुए पूछा! "इसके लिए पूरी कहानी सुननी होगी" वे बोले, पूरी कहानी! क्या पेंच हैं कहानी में! 

दो दो कहानी एक साथ चल रही हैं!! "मैं सिर्फ ये जानना चाहता हूँ कि?" मैंने कहा, "हाँ, बोलो, बोलो वे बोले, "क्या ये कंगन उसी बुधवि का है?" मैंने पूछा, "हाँ" वे बोले, "क्या ये वही पीतल वाला है, टूटा हुआ?" मैंने पूछा, "नहीं" वे बोले, "तो ये तस्वीर किसने खींची?" मैंने पूछा, "मैंने" वे बोले, "कहाँ?" मैंने पूछा, "मंदिर में!" वे बोले, "उसी मंदिर में?" मैंने पूछा, "हाँ" वे बोले, "तो ये वहीं पड़ा था क्या?" मैंने पूछा, "नहीं" वे बोले, "तो कैसे?" मैंने पूछा, "बता दूंगा" वे बोले, "कब?" मैंने पूछा, "आज ही" वे बोले, मैं पीछे हुआ फिर! कुर्सी पर कमर लगा ली, और तस्वीर को फिर से देखने लगा! बाबा ने विष्णु से बोलकर, चाय मंगवा ली थी, जब तक चाय आती, तब तक तो मैं इसी ख्याल में डूबा रहता कि बाबा को कंगन कैसे मिला। और यदि वो कंगन मिल गया था, तो क्या हुआ? और अब क्या ज़रूरत पड़ी उन्हें अब उम के अंतिम पड़ाव में हैं वो, अब अचानक से ऐसा क्या हो गया कि उन्हें उस कंगन की याद आ गयी एकाएक! आखिर में चाय आई, हमने अपने अपने कप ले लिए! और चाय पीने लगे, मीठा ऐसा डाला था कि चाय कम, गन्ने का रस ज़्यादा लग रहा था! खैर, पीनी तो थी ही, पीनी पड़ी! और फिर चाय पी ली हमने, रख दिए कप! अब बाबा ने मुझे देखा! "पहले कंगन कैसे मिला, ये बताऊँ या फिर कहानी आगे बढ़ाऊं?" वे बोले, 

अब तक तो सब क्रम से ही चला था, सोचा क्रम से ही चलने , कंगन कैसे मिला, ये भी पता चल ही जाएगा! 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"आप कहानी बढाइये आगे" मैंने कहा, अब उन्होंने कहानी आगे बढ़ायी, और मैंने सुनी, अब वही लिख रहा हूँ अपने शब्दों में! अब बहुत बरस बीत चुके थे! वृद्ध हो चला था मंगल अब! वे दोनों, आपस में बातें करते, प्रेमरस बिखेरते, एक दूसरे का ख़याल रखते! लेकिन उम! उम और समय! रोके नहीं रुकते! 

और फिर वक़्त आया, जब मंगल भी प्रौढ़ हुआ, और प्रौढ़ के बाद वृद्धावस्था ने जकड़ा! वृद्ध हआ, तो शरीर ने साथ छोड़ा! अब पहले जैसी बात न थी! अब तो, उतरा भी नहीं जाता था उस से नीचे उतर भी जाता तो बिना सहारे के, चढ़ा भी नहीं जाता था। आँखों से कम दीखता! सनाई भी कम देता! भोजन कभी किया तो किया, नहीं तो वो भी नहीं! बस उस बुधवि का हाथ थामे पड़ा रहता! बुधवि उसको खुश रखती! उसका ख़याल रखती! उसके शरीर का ख्याल रखती! कमज़ोरी ने, शब्दों को भी चबा लिया था अब तो! कहता कुछ और समझ में आता कुछ! यही तो है वृद्धावस्था! एक एक करके दाम वसूलती है! अपना शरीर भी अपना न रहे, तो इस से बड़ी विवशता क्या! वो सोता, तो बुद्धवि उसको ही देखती रहती! उसका 'छूट' का समय अब निकट था! ये जानती थी वो! चाहती, तो क्या नहीं कर सकती थी, लेकिन, इस धरा पर, धरा का होकर रहना है, तो इसके नियम मानने ही पड़ेंगे! नहीं तो निकाल फेंकेगी आपको ये। उखाड़ फेंकेगी आपको एक ही पल में! छाती चौड़ाता लौह, मृदु जल की बूंदों से छिल छिल कर प्राण त्याग देता है। और फिर तो ये देह है! सभी आयाम । देखती यही, पहले बचपन, जवानी, प्रौढ़ावस्था और फिर वृद्धावस्था! अब चौथे आयाम में था मंगल! कभी हँसता! कभी प्रयास करता! कभी चुप पड़ा रहता! कभी माँ की याद आती, कभी पिता की, कभी घर की, कभी जवानी की, कभी बहनों की, वो सब बातें करता बुधवि से! सब बातें! "बुधवि?" बोला मंगल! "हाँ?" बोली वो, "कितने बरसों से संग है तू मेरे?" पूछा उसने, "पता नहीं" वो बोली, 

वो हंसा! देखा अपनी बूढी आँखों से उस बुधवि को! 

आँखों के कनारो से, कुछ बूंदें ढुलकी! बुधवि ने झट से उंगलियां लगा दीं! पोंछ डाले आंसू! "तेरा क़र्ज़ कैसे चुकाऊंगा मैं?" बोला अपने आप से मंगल! "कैसा कर्ज?" वो बोली, "मेरे संग रहने का" वो बोली, 

"मैं ब्याहता नहीं तुम्हारी?" बोली वो! "हाँ, है!" बोला वो! "तो?" पूछा उसने! "तू न होती न, तो मैं आज जिंदा नहीं होता बुधवि" बोला वो! "मैं क्यों न होती?" उसने पूछा! "हाँ, अगर न होती तो" वो बोला, अनसुनी कर गया बात उसकी! "मुझे बाहर ले चल बुधवि" बोला मंगल! 

अब सहारा दे, उठाया उसको! ले गयी बाहर! "हाँ, यही बैलूंगा" बोला वो! सामने देखते हए! उस रास्ते को देखते हए! "वो" बोला मंगल! "क्या?" बोली वो! "यहीं से आई थी न पहली बार, भोजन लेकर तू?" बोला वो! "हाँ" वो बोली! वो हंसा! "और फिर मेरी होकर रह गयी तू!" बोला वो, देखते हुए उसको! "मैं तुम्हारी ही हूँ, रहूंगी!" बोली वो! और बैठ गयी, उसके बूढ़े कंधों पर सर रखते हुए! "हाँ, मेरी ही रहना!" बोला वो, 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

खांसा थोड़ा, "नहीं तो, मैं कहाँ ढूंढूंगा तुझे? भटकंगा तेरे लिए बुधवि" बोला वो! "नहीं, नहीं भटकोगे! मेरे संग ही रहोगे!" वो बोली, "सच?" पूछा उसने! "हाँ, सच!" बोली वो! फिर लेट गया वो! वहीं, उसके घुटने पर सर रखे! आकाश को निहारते हुए! कुछ देर आँखें 

खोली और फिर सो गया। नींद लग गयी उसको! कुछ बरस और बीते! और वे बरस भी, वृद्धावस्था से पीड़ित होकर ही निकले। हाँ, वो बुधवि, उसको ले जाती थी अपने संग! जगह जगह। उसी आयु के मंगल को, जो जवान था! जी किलकारियाँ मारता था! जो तालियां पीटता था! मंगल बहुत खुश होता! बार बार उसको 

HI 

.............. 

। . 

.. 

.. 

कहता, चलो, वहाँ चलो, वहां चलो! और वो बुधवि, पलक झपकते ही, ले जाती उसे! अब मंगल, बस अपनी देह का कैदी बन के रह गया था! आश्रित! उस बुधवि पर आश्रित! 

और एक रात........ उस रात मंगल की तबियत खराब थी! सांस लेने में तकलीफ थी! और लगता था कि अब माला पूर्ण होने को है! वो बुधवि का हाथ पकड़े, बुधवि को ही देखे जा रहा था! साँसें कांटे बन चुकी थीं उसकी! सांस लेता, तो चुभन के मारे आह भरता था! क्या करती वो बुधवि! बस यही तो आभास नहीं था उसे! कि मनुष्य, आता भी दुःख में है और जाता भी दुःख में है! क्षणभंगुर जीवन है उसका! पल पल दुःख, कष्ट! यही तो जीवन है इस मनुष्य का! तो बुधवि! अब प्रेम किया, तो सह! झेल उसकी पीड़ा! "बुधवि?" बोला मंगल! "हाँ?" बोली वो! 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

आज हाँ में वो रस नहीं था, आज संशय था! कुछ लरज थी! कुछ भय सा था! ऐसा हाँ का उत्तर था वो!! "बुधवि?" बोला वो! "हाँ" वो बोली! "मुझे डर लगा रहा है बुधवि!" वो बोला, "कैसा डर?" वो बोली, "मुझे हर चीज़ पल पल धुंधली दिखती जा रही है!" बोला वो! सीने से लगा लिया उसको! भींच लिया अपने अंदर! समझ गयी थी! धरा का उधार चुकाने का समय आ चुका है!!! "बुधवि?" फिर से बोला। "हाँ, हाँ मंगल?" वो बोली! मंगल! अब बोली मंगल!! "मुझे डर लगा रहा है बुद्धवि" वो बोला! "मत डरो!" वो बोली, "आज लग रहा है" वो बोला, "क्यों? क्यों मंगल? मेरे होते?" बोली वो "हाँ, डर" वो बोला, "कैसा डर?" बोली वो! "मैं चला जाऊँगा, तो तू कैसे रहेगी?" बोला वो! 

भोला मंगल! अब उसको पागल कहूँगा मैं सच में मंगल! "कहीं नहीं जाओगे मंगल तुम" वो बोली, लिपटाये हुए उसको अपने वक्ष से! "बुधवि?" बोला मंगल! "बोलो?" बोली वो! सांस अटक गयी मंगल की! होंठ हिले, 

लेकिन आवाज़ नहीं! सांस अटक गयी! आँखें, खुली रहीं! अपनी बुधवि को देखते हुए ही! न बंद की आँखें उसने! 

और................ पूर्ण हो गयी माला. टूट गयी डोर.......... चला गया मंगल! चला गया! इस संसार से! एक पागल, चला गया!!! 

और बुधवि??? एकटक, अपलक, देखते रही उसे! शांत, भावहीन, हाथों में, मंगल को लिए। निष्प्राण मंगल को लिए! और तब! तब उठी महायक्षिणी। अपने कपालशंडी रूप में प्रकट हई। जवाला लपेटे हए! उठाया उस मंगल को! और लोप हुई। इस धरा को, पंचतत्व मिले? पता नहीं? संग ले गयी? 

शायद! 

मित्रगण! वो मंदिर, उस दिन काला पड़ गया, कहते हैं, जैसे आग लगी हो उसमे! लोग आये थे उधर, कोई नहीं मिला था! आग में सब खाक हो चला था। लेकिन, वो फुल, वो बगिया! वो नहीं जली! वो तो आज भी है! 

आज भी मंगल! चला गया! हमेशा के लिए! इस से आगे क्या हुआ, नहीं पता! नहीं पता! काश जान पाता! नहीं जान पाउँगा, शायद कभी नहीं! कभी नहीं! जान पाता, तो.. मंगल चला गया! और खत्म हई ये प्रेम-गाथा! मैं उठ गया था फिर! बाहर आ गया था। संग मेरे, शर्मा जी भी आ गए थे! दिल बहुत भारी था! दिल में दरक पड़ने लगी थीं! दिल दिल न होकर, कांच बन चुका था! ज़रा सी खरोंच और, और दिल चकनाचूर! लग रहा था कि जिस्म से जान ले गया मंगल अपने साथ, लगा, जिस्म के अहम हिस्से कट कर गिर गए हैं कहीं! मानता हूँ कि ये तो होना ही था, जिसने जन्म लिया है, वो मृत्यु पर ही पूर्ण होगा! मानता हूँ, लेकिन ये तो हम साधारण मनुष्यों पर लागू होता है। उस महामानव मंगल पर नहीं! वो मानव था? पता नहीं! क्या कोई श्रापग्रस्त यक्ष था? सम्भव है! और सम्भव नहीं भी! अब कैसे जानूँ? काश कि जान सकता! तो छाती चौड़ा कर, जगह जगह जाता! बताता उनका क्या हुआ! लेकिन मुझे मालूम नहीं! नहीं मालूम कि क्या हुआ! क्या यक्ष बना वो? पता नहीं! कहाँ गया होगा? कपालशंडिका के वास-


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

स्थल में? सम्भव है! ऐसे न जाने कैसे कैसे सवाल सर में उठापटक कर रहे थे! खैर, वो मंगल, चला गया था! वो महायक्षिणी कपालशंडिका, चली गयी थी! जो बड़े से बड़े साधकों को छका दे! वो ब्याहता बन के रही, उस साधारण से मानव की, जो तंत्र का क-ख भी नहीं जानता था! वाह मंगल वाह! यहां मैं हारा तुझसे! मान ली मैंने हार! और इस हार से, मुझे कैसा आनंद मिला, कोई नहीं जान सकता। तूने वो कर दिखाया, जो न किसी ने किया और संभवतः न कोई कर सकेगा!! हम तो तेरे सानी क्या, धोवन भी नहीं! हाँ, अब इच्छा बलवती हो गयी है! इच्छा, तेरी वो पावन स्थली देखने की! कम से कम, वो तो देखना चाहूंगा मैं! यही कर सकता हूँ बस!! और कुछ नहीं करूँगा! सच में, और कुछ नहीं करूंगा! मैं फिर से अंदर आया! शर्मा जी भी आ गए थे! हम दोनों बैठे! "बाबा कब देहावसान हुआ था उस मंगल का?" पूछा मैंने, "सन इकहत्तर में" वे बोले, "इकहत्तर! और आप कब पहुंचे वहाँ?" मैंने पूछा, "बहत्तर में" वे बोले, "बहत्तर के बाद कभी नहीं?" मैंने पूछा, 

"जा नहीं पाया" वे बोले, "आप कंगन प्राप्त करना चाहते हैं, हैं न?" मैंने कहा, "हाँ" वे बोले, "ताकि आप, कपालशंडिका-साधना कर सकें" मैंने कहा, "हाँ" वे बोले, "अब मुझे ये बताइये, कि आपको वो कंगन कैसे मिला?" मैंने पूछा, "बताता हूँ"वे बोले, आलती-पालती मारी, तकिया लिया और गोद में रख लिया! "मैं सन बहत्तर में वहाँ गया था, होली के कोई हफ्ते पश्चात, साथ मेरे, मेरे एक साथी सोमदत्त और एक और साथी, सुक्खा बाबा थे! मुझे जब, मेरे पिता ने कथा सुनाई थी, तो तभी से मेरा ये उद्देश्य बन चुका था! इस कथा ने, मेरा रोम रोम जैसे जाग चुका था! मन में बस, एक यही धुन लगी थी कि किसी प्रकार से वो महायक्षिणी को सिद्ध कर लूँ!तो महामोक्ष प्राप्त करना दुष्कर नहीं!" वे बोले! "समझ गया मैं" मैंने कहा, "हम जब वहाँ पहुंचे, तो मंदिर जस का तस खड़ा था, आँखों में चमक सी आ गयी हमारे! ये ही है वो स्थली, जहां वो कपालशंडिका, इस मंदिर में रही थी, उस पागल मंगल की ब्याहता बन कर,आजीवन! यक़ीन तो नहीं होता, लेकिन पिता जी ने असत्य भी नहीं कहा था!" वे बोले, "बाबा कंदक नाथ" मैंने कहा, "हाँ, बाबा कंदक नाथ" वे बोले, "तो क्या बाबा कंदक नाथ ने मना नहीं किया था आपको?" मैंने पूछा, 

अब बगलें झाँकने लगे बाबा! यक़ीन से कह सकता हूँ मना किया होगा बाबा कंदक नाथ ने! "हाँ, किया था मना, लेकिन मैं सिद्धि-संवरण नहीं रोक सका" वे बोले, "और इस कारण से आप वहाँ गए" मैंने कहा, "हाँ" वे बोले, "देख लगाई?" मैंने तपाक से पूछा, 

वे हसे! "देख तो वहां आज तक भी नहीं लगती!" वे बोले! "फिर?" मैंने पूछा, "ये तो हम जानते ही थे, कि देख नहीं लगती!" वे बोले, 

"तो क्या किया आपने?" मैंने पूछा, "बता रहा हूँ" वे बोले, "बताइये" मैंने कहा, "महाकराक्ष!" वे बोले, "क्या?" मैंने चौंक कर कहा! "हाँ, महाकराक्ष!" वे बोले, हँसे, कुटिल सी मुस्कान! महाकराक्ष! यक्षिणी-भेदन क्रिया। इस से कोई भी यक्षिणी, अपना रूप दिखा देती है। उसी रूप में, जो उसका मूलरूप है! बाबा योगनाथ ने महाकराक्ष विद्या का सहारा लिया था!! "एक प्रश्न?" मैंने पूछा, "क्या बाबा अंबर नाथ, ये महाकराक्ष नहीं लगा सकते थे?" मैंने पूछा, वे हँसे!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"उनको अवसर नहीं मिला!" वे बोले, "कैसे?" मैंने पूछा! "सिर्फ इतना जान लो कि यक्षिणी सम्मुख हो तो महाकराक्ष विद्या नहीं चलने वाली!" वे बोले! "जानता हूँ" मैंने कहा, "बाबा अंबर नाथ के समय, वो प्रत्यक्ष थी, अब समझे आप?" बोले वो! "समझ गया!" कहा मैंने! "तो हमने वहाँ रात बिताने का फैसला किया! और उस रात, हमने महाकराक्ष विद्या का संधान किया। हमें करीब दो घंटे लग गए! और अचानक ही, वहाँ आग लग गयी। आग, ऐसी 

आग कि हम भाग भी न पाते! लेकिन बाबा सुक्खा ने, शंगश्युक्त-विद्या से शमन किया उसका!" वे बोले, "आप पूरी तरह तैयार हो कर गए थे! शंगश्यक्त भी यक्षिणी विद्या हैं!" मैंने कहा, "हाँ, सुलोचना यक्षिणी की!" वे बोले, "आग बुझ गयी! और उसके बाद, हवा में कण फूटने लगे! प्रकाश के कण! रंग-बिरंगे! मुझे आज भी याद हैं!" वे बोले, मुझे तभी उन जुगनुओं की याद आ गयी! वो जुगनू! जलते, बुझते! पुनः याद आ गया मंगल! वो दीप! वो आकाश में लटके दीप! "फिर?" मैंने पूछा, "हमने क्रिया आगे बढ़ायी! और फिर!!" वे बोले, 

"फिर?" मैंने पूछा 

वे चुप! 

चुप! 

और मेरे दिल में कुल्हाड़ियाँ चलें! "फिर?" मैंने पूछा, "फिर सबकुछ उस आलेपण से जैसे बाहर आने लगा! जैसे, समय रुक गया! प्रकाश फूट चला वहाँ! तेज, सुनहरी प्रकाश! हम सब, जड़ हो कर, ये देखते रहे!!" वे बोले, 

और फिर से चुप हो गए!! "फिर?"अब रजनी ने पूछा! रजनी भी जैसे अब परेशान थी!! अपने बाल बाँध लिए थे उसने, अपने होंठों में एक रबर का छल्ला दबाये, बाल संभाल रही थी, और अपने उस छल्ले को, बालों में डाल कर, बालों को सही तरह से, संवार रही थी! "प्रकाश बहुत तेज था! बहुत तेज! और तभी वो प्रकाश मंद पड़ा! और खत्म हुआ!" वे बोले, "फिर?" मैंने कहा, "फिर!! फिर वो हुआ, जो हमने कभी सोचा नहीं था!!" वे बोले, "क्या हुआ था?" रजनी बोल पड़ी! "हमें वहां, आवाजें आयौं! आवाजें! किसी के हंसने की!!" वे बोले, "किसकी?" मैंने पूछा, "आयीं थीं! तेज!! बहुत तेज!" वे बोले! "किसकी? औरत की या मर्द की?" मैंने पूछा, बाबा खड़े हो गए! मेरे पास आये! हाथ पीछे किये! "मंगल की!" वे बोले! "क्या???" ये कहते हुए, मैं भी खड़ा हो गया था!! बाबा के गंजे सर पर, कुछ बचे हुए बाल नज़र आ रहे थे! कुछ काले, और कुछ सफेद! ये 

वक्त के चिन्ह थे! गुजरे वक़्त के चिन्ह!! "हाँ! मंगल की!" वे बोले, "मंगल के हंसने की आवाज़?" मैंने पूछा, "हाँ!" वे बोले, अब रजनी खड़ी हुई!! 

"सच में?" बोली वो! "हाँ, सच में!" वो बोले! मेरा तो माथा फटने को था!! 


   
ReplyQuote
Page 5 / 6
Share:
error: Content is protected !!
Scroll to Top