था! इसीलिए, कुछ नहीं दीख रहा था उनको! "क्या तू ही मंगल है?" पूछा बाबा ने! "हाँ बाबा' मंगल ने कहा,
अब बाबा ने उसको गौर से देखा! उसका रूप-रंग! देह, उसका स्थान! वो फूल! वो साफ़ सफाई! सब! "सुना है, तूने स दीवाली को कई लोगों को, बल्कि पूरे गाँव को मिठाई खिलाई थी?" पूछा बाबा ने "हाँ बाबा' वो बोला, आँखें फटी बाबा की! "कैसे?" उसने पूछा, "मुझे बुधवि देती गयी, मैं बांटता गया!" वो बोला, हंस के! बाबा सन्न! बुधवि! कौन है ये बुधवि? "ये बुधवि तेरी ब्याहता है?" पूछा बाबा ने! "हाँ बाबा" बोला वो,
आँखें कभी छोटी हों, कभी बड़ी! बाबा की! "ज़रा बुला बुधवि को?" बोला बाबा! "बुधवि? बुधवि?" आवाज़ दी मंगल ने!
और तभी, बुधवि, आई, चूंघट काढ़े! प्रणाम किया और खड़ी हो गयी वहाँ! "तू ही है बुधवि?" बाबा ने पूछा, बुधवि ने सर हिलाया! "तू मिठाई लाती गयी, और तेरा आदमी बांटता गया! वाह! ज़रा हमें भी खिलाओ मिठाई!" बोला बाबा! नहीं गयी बुधवि! वहीं खड़ी रही!
"मंगल? तू ही खिला दे? तेरी औरत ने तो सुना ही नहीं?" बोला बाबा! "बुधवि, खिला दे मिठाई!" बोला मंगल! अनजान! बेखबर! कोई भान नहीं उसे! बुधवि चली गयी, और जब आई, तो एक पात्र में मिठाई थी! दे डी मंगल को! "लो बाबा, मिठाई खाओ" बोला मंगल! बाबा के तो होश उड़े! कंदक नाथ को देखे! कंदक नाथ उल्टा उसी को देखे! "लो बाबा?" बोला मंगल! "हा....हाँ!" बोला बाबा, कपड़ा हटा दिया था मंगल ने! बाबा ने एक टुकड़ा उठाया, और खाया, फिर कंदक नाथ को भी दिया! ऐसी मिठाई तो कभी नहीं खायी थी दोनों ने ही! पलकें पीटें दोनों वो! "लो बाबा, सारी रख लो" बोला मंगल,
और बाबा के झोले में डाल दी सारी मिठाई! अब बाबा उठा! कभी मंगल को देखे, कभी बुधवि को! "अलख निरंजन! अब हम चलते हैं" बोला वो!
और लौट गए दोनों ही नीचे वापिस! "कुछ नहीं मिला" कंदक नाथ ने कहा, "नहीं मिला?" पूछा बाबा ने! "हाँ, कुछ नहीं है उसके पास" कंदक बोला, "बहुत कुछ है! बहुत कुछ!" बोला बाबा! "कैसे?" कंदक ने पूछा, "न हांडी, न चूल्हा! तो मिठाई कहाँ से आई?" पूछा बाबा ने! कंदक नाथ ने सर हिलाया!
आ गए नीचे, पलट के मंदिर को देखा! "चल कंदक! मैं पता करता हूँ" बोला बाबा! "चलो" बोला कंदक! अब दोनों बाबा, चल दिए वापिस, गाँव की ओर!! लेकिन गाँव में नहीं रुके। रुके तो एक सिवाने में!
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देख के लिए। देख! सामान था उनके पास पता करने के लिए! वो मिठाई! वही काम आती! और राज खुल जाता! सिवाने पहुंचे, झोला रखा, वहां की राख पर कदम रखा, कई चिताएं जली थीं वहाँ, एक गर्म मिली, बैठ गए वहीं दोनों, झोला खोला, मिठाई निकाली बाहर,
और... चिता कीराख इकट्ठा की उन्होंने! और फिर कुछ सामग्री मिलायी। और उठा दी एक अलख! फिर कुछ मंत्र पढ़े! और मदिरा के छींटे दिए बाबा अंबरनाथ ने बाबा कंदक नाथ, साथ साथ मंत्र पढ़ता रहा! जैसे उसको कहा गया था, वही करने लगा था वो! बाबा ने कोई पंद्रह मिनट तक, एक क्रिया की, और फिर एक मंत्र पढ़ा! फूंक मारी उस अलख में और दौड़ पड़ी देख वहां से! बाबा आँखें फाड़े देखता रहा! उसे दिखने लगा था कुछ! मुंह खुला रह गया था!
और तभी वो अलख, जैसे फट पड़ी! अंगार बिखर गए आसपास, कुछ उन पर भी गिरे! ये देख, बाबा का कलेजा मुंह को आया! और कंदक नाथ! मारे भय के भयभीत श्वान जैसा हो गया था। कंपकंपी छूटने की देर थी बस! आज से पहले कभी भी देख ऐसे नहीं लौटी थी! बाबा अंबरनाथ के होश उड़ गए थे। "कंदक?" बोला बाबा, "हाँ बाबा?" बोला वो, "मैं न कहता था? कि कुछ न कुछ तो है, देख, देख कैसे लौटी!" वो बोला, "हाँ बाबा, देखा मैंने!" बोला वो! "कुछ तो है कंदक!" बोला बाबा!
अब कंदक क्या बोले। देख आज तक नहीं लौटी थी। आज की तरह कभी नहीं हुआ था। "उठ कंदक,जा, झोला ले आ!" बोला बाबा, कंदक दौड़ के झोला ले आया! दे दिया झोला बाबा को और बैठ गया! बाबा ने झोला खोला, और एक डिबिया निकाली! डिबिया खोली, और उसमे काजल था! खुद
का बनाया हुआ काजल! ये अब काजल, देख बनता, एक ऐसी देख,जो पकड़ी नहीं जा सकती! असा उसको यकीन था! बाबा ने काजल लगाया, और एक मंत्र पढ़ा! और लड़ा दी देख! दो मिनट, चार मिनट, छह मिनट और उसके बाद! आँखों से खून छलछला गया! अब
आँखें भी न खुलें! बाबा उठा, भागे इधर-उधर! कंदक परेशान! क्या करे!! पानी का बर्तन निकाला, भागा सिवाने की तरफ!
एक हौज बनी थी! झट से पानी भरा उसने, और दे दिया बाबा को! बाबा ने पानी लिया, और जल्दी जल्दी काजल हटाया! जब तक काजल रहा, रक्त बहता ही रहा! और जब काजल,
खत्म हुआ, तब रक्त बहना बंद हुआ। बाबा हांफ रहा था। मौत के मुंह से बच कर आया था। "ठीक हो बाबा?" पूछा कंदक ने! बाबा को तो सांस चढ़ी थी! दम फूल गया था! लेट गया बाबा! और पानी माँगा, कंदक पानी लाया, और दे दिया बाबा को, बाबा ने पानी पिया, फिर बैठ गया! "क्या हुआ था बाबा?" पूछा उसने! । "कंदक! मैंने जो देखा, आज तक नहीं देखा!" बोला बाबा! "क्या देखा?" कंदक डर गया था, इरते डरते पूछा! "कंदक! मैंने देखा, मैं एक जंगल में हैं, वहाँ चारों तरफ आग जल रही है,आग में, बहत सारे
चेवाट( रक्षक, किसी महाशक्ति के रक्षक) खड़े हैं, बहुत सारे! मैंने, अग्नि को बुझाने एक मंत्र पढ़ा! मंत्र निष्फल हुआ! उसके बाद वै चेवाट मुझ पर वार करने के लिए दौड़ पड़े, मैं भागा पीछे, और जैसे ही भागा, गिर पड़ा, जहां गिरा, वहाँ सांप ही सांप थे, कई सारे साँपों ने, मुझे इस लिया, मेरी आँखों से खून बहने लगा!" बोले बाबा! अब ये सुन, कंदक में खंदक खुदी! सोचा, कहीं कोई खंदक मिल जाए तो जीवन-यापन उसी में कर ले वो! कौन हिअ सामने, पता नहीं, लेकिन दो दो बार देख का लौटना, अपशकुन था! कंदक ने थूक गटका! आगे आया, बाबा के पास, "बाबा, आओ लौट चलें" बोला वो! "नहीं कंदक नहीं!" वो बोला, "मान जाओ बाबा?" वो बोला, "नहीं! वो कुछ और है! वो बुधवि नहीं, कुछ और है!" बोला बाबा! "कोई भी हो, वापिस चले बाबा!" वो बोला, "नहीं कंदक! तुझे जाना है तो जा! मैं नहीं जाऊँगा!" बोला बाबा! अब कंदक के आगे कुआँ! और पीछे खायी! नीचे ज्वालामुखी, ऊपर लटकती तलवार! बाएं अग्नि, दायें जल! न निकले कोई हल! दिमाग छोड़ गयी अक्ल! "कंदक! जा! तुझे जाना है तो जा!" बोला वो!
"नहीं बाबा! मैं संग ही हैं आपके!" बोला कंदक! "कंदक! अलख उठा! अब मैं भौमर को भेजूंगा!" बोला बाबा! भौमर! एक महाप्रेत! वाचाल जैसा प्रबल महाप्रेत! खोज-खबर में माहिर! कैसी भी जगह हो, कैसा भी स्थान हो, पता काढ़ ही लाता है। शक्तिशाली महाप्रेत है। कंदक ने अलख उठा दी! अब बाबा हुआ तैयार! कंदक संग ही बिठा!
सामग्री लगा दी सामने। मदिरा सजा दी। और हो गयी क्रिया आरम्भ! क्रिया तीक्ष्ण थी!
और भौमर सिद्ध था बाबा से, इसलिए, कुछ ही मंत्रों द्वारा आह्वान किया गया! कुछ ही देर में, चिंघाड़ता, अट्टहास लगाता, वो भौमर, हाज़िर हो गया! बाबा खड़ा हुआ! "भौमर! जा! काढ़ा ला पता!" बोला बाबा! बाबा ने उद्देश्य बताते हुए कहा! भौमर चिंघाड़ा! और लोप हआ! पंद्रह मिनट बीते! फिर आधा घंटा! फिर एक घंटा! बाबा की साँसें फूली अब! कंदक इर के मारे दोहरा हो। बाबा फिर से क्रिया में बैठा, आह्वान किया उसका! लेकिन न उसने आना था, और न ही वो आया! बाँध डाला गया होगा कहीं अनंत काल तक! चढ़ गया सूली भीमर! अब बाबा को लगने लगे झटके!! पहले दो देख बंद हुई! अब भौमर भी निकल गया हाथ से! कंदक हाथ जोड़े! पाँव पड़े! लेकिन बाबा अडिग! बाबा नहीं मानने वाला था! "बाबा, चलो वापिस" बोला कंदक! "नहीं कंदक नहीं!" फिर से बोला बाबा! "भौमर भी नहीं आया!" बोला कंदक! "पकड़ लिया! पकड़ लिया उसे!" बोला बाबा! पकड़ लिया!! ये सुनकर तो कंदक अब पछाड़ खाते खाते बचा! "कंदक!" बोला बाबा! "अलख उठा!" बोला बाबा! कंदक ने, बेमन से अलख उठा दी! बाबा बैठा क्रिया में! और लग गया आहवान में! आह्वान किया इस बार पुरात्रि का! ये भी खोजी है! चुडैल है, डाकिनी जैसी ही है। वो प्रकट हुई। नृत्य करते करते! और बाबा ने भेज दिया उसे भी खोज में! वो दौड़ पड़ी! दौड़ते दौड़ते आकाश मार्ग में चढ़ चली! पांच मिनट! दस मिनट! फिर पंद्रह मिनट!
और फिर आधा घंटा! बाबा को चक्कर आने लगे! कंदक कांपने लगा अब! बाबा फिर से आह्वान में बैठा! और कोई नहीं आया! पुरात्रि, मुक्त हो गयी बाबा से! अब तो क्रोध के मारे बाबा ने पाँव पटक डाले!
गाली-गलौज पर उत्तर आया! अलख में लात मारे! सामान उठा उठा कर फेंके! "कौन है तू?" चिल्लाये! कंदक सहमे! "देख लूँगा! तुझे देख लूँगा!" वो बोलता रहा! कंदक, डर के मारे दोहरा हुआ जाए!
और बाबा! अनाप-शनाप बके जाए। अब तक तो, बाबा को समझ जाना चाहिए था! अफ़सोस! विनाश ऐसा नहीं होने देता! अब बाबा पतन की कगार पर खड़ा था! तीन चेतावनी मिल चुकी थीं!
अब..........
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बाबा कंदक तो समझ गया था कि सामने वाला ताक़तवर ही नहीं, अपार शक्तिशाली है! यदि बाबा अंबर नाथ जैसा औघड़, खून बहा सकता है, तो साधारण औघड़ तो ज़मीन में मिट्टी बन, मिल जाएगा! बाबा कंदक ने बहुत समझाया अपने गुरु बाबा अंबर को! लेकिन बाबा अंबर को तो सिद्धि हथियाने का तो जैसे जुनून चढ़ गया था। ये तो उसके अब मान सम्मान की बात थी! वो तो ऐसा कर रहा था जैसे ये सिद्धि हाथ नहीं आई तो प्राण दे देगा!
और सच में, प्राण ही दांव पर लगा दिए थे उसने! महायक्षिणी कपालशंडिका ने तीन । चेतावनियां दे दी थीं, लेकिन अब भी अगर बाबा नहीं माने, तो ये उसका दुर्भाग्य! और यही होना था, नहीं माना वो! हाँ, मन ही मन, बाबा कंदक ने, क्षमा मांग ली थी, वो तो बस अब,
गुरु-पथ पर ही चल रहा था! "कंदक!" बोला बाबा, "हाँ बाबा?" बोला कंदक, "ये ऐसे नहीं मानेगी! ये कोई, अलग ही महाशक्ति है, जिसको या तो सिद्ध किया है उस पागल ने, या फिर ये पागल उसके सरंक्षण में है, ऐसा ही लगता है!" बोला बाबा! "तो बाबा?" बोला कंदक! "तो हम वो सरंक्षण हटा देंगे! हम पागल को ही हटा देंगे रास्ते से! तब क्या होगा! तब, तब हम बाँध लेंगे उस शक्ति को! वो शक्ति हमारी दास हो जायेगी!" ठहा मारते हए बोला बाबा! हाथ पीटते हुए!
और कंदक! कंदक कांपे! सहमे। भय खाए! जब भौमर नहीं लौटा। जब वो पात्रि नहीं लौटी, तो कैसी शक्ति है वो, बाबा को अंदाजा नहीं। अब तो कंदक का मन चाहे, कि भाग जाए वहाँ से! कहीं ऊक-चूक हो गयी, तो उसका भी नाश हो जाएगा! बाबा का तो सत्यानाश निश्चित है, लेकिन वो अपना अठ्यानाश होने से बचा ले! इसीलिए, मन ही मन वोक्षमा मांगता
रहा! "चल कंदक! चल! अब कल देखते हैं!" बोला बाबा! "चलो बाबा!" बोला कंदक!
और तब वे दोनों, अपना अपना सामान उठा कर, चल दिए सिवाने से बाहर, और चल दिए पैदल पैदल एक स्थान के लिए, जहाँ से वो एक अभेद्य क्रिया करते! जिसमे, शिकार बनाया जाता वो पागल मंगल! और कैद करना था उस शक्ति को! मंगल तड़पता, तो उसकी एवज में, उस शक्ति को झुकना पड़ता! और इस झुकने में, बाबा अपना स्वार्थ सिद्ध कर पाता! यही थी योजना उस बाबा की! साम, दाम, दण्ड, भेद! बस, कैसे भी वो सिद्धि हाथ
आये! वे चलते रहे, और एक जगह विश्राम किया, फिर चले वहाँ से, और कोई दोपहर में, एक स्थान पर पहुंचे,ये स्थान बाबा अंबरनाथ के ही एक जानकार का था! बाबा अंबरनाथ ने फौरन ही सारे इंतज़ाम करवा लिए! आज रात, उसने उस क्रिया को अंजाम देना ही था! बाबा को अब तक मुंह की खानी पड़ी थी! अब बाबा ने अपना बदला लेना था! अपने जीवन भर की संचित पूँजी, आज झोंक देनी थी अलख में। या तो आज बाबा अंबर नाथ नहीं, या फिर वो शक्ति नहीं!
रात हुई, तैयारियां आरम्भ हुईं, कुल नौ लोग बैठे थे उस भीषण क्रिया में, कंदक नाथ, सर झुकाये बैठा था, मन ही मन क्षमा मांगता! क्रिया कोई दो घंटे चली! और दो घंटे के बाद, अब बाबा ने बाण' चलाया! बाण, मंत्र-बाण, मारण-बाण! इस तरह, उसने कुल बहत्तर बाण चलाये! और सब के सब विफल! अब तो बाबा को समझ जाना चाहिए था। लेकिन न समझा! वो खड़ा हुआ, खड्ग उठाया, और अपने गले पर रखा, अपनी सर्वश्रेष्ठ महाशक्ति, काल-मस्ता का आह्वान किया। और जब काल-मस्ता जागृत हुई, बाबा की आँखें चमकी! काल-मस्ता से कह दिया उद्देश्य अपना! और काल-मस्ता!! काल-मस्ता! डिगी ही नहीं!! वो हिली ही नहीं। उसको पता था कि सम्मुख कौन है! काल-मस्ता जैसी करोड़ों, करोड़ों उसके ताप से ही पीड़ित हो जाएँ! बड़ी से बड़ी यक्षिणी, उसके सम्मुख न जाएँ! बाबा के होश उड़े!
और काल-मस्ता लोप हुई! और फिर जो हुआ! वो अकल्पनीय था! मित्रगण! वहां पर, वो अलख, भक्क करती हुई, शांत हो गयी थी! कंदक, खड़ा हो गया था! बाबा भय खा गया था! वो सात लोग, पीछे हटे, बैठे बैठे ही किसी आशंका से भयभीत थे वो! और अगले ही पल, बाबा की गर्दन, हवा में उड़ चली! रक्त का फव्वारा फूट पड़ा! और इस से पहले, उसका धड़ ज़मीन पर गिरता, वो दो फाड़ हो गया! भय-पुकार मच गयी, कंदक
को जैसे सांप सूंघ गया! वे सात लोग भाग छूटे! और कंदक, वहीं खड़ा खड़ा, अचेत हुआ! बाबा अंबर नाथ का अंत हो गया!
और अंत, अंत अब किसी भी ऐसी समस्या का, जो उस पागल मंगल तक पहुँचती। जब बाबा अंबर नाथ जैसे महाप्रबल औघड़,न प्राण बचा सका, तो औरों की तो बिसात किया!
और वहां! वहां, जिस पल, बाबा अंबर नाथ अपनी उस भीषण क्रिया में लगा हुआ था, वो मंगल, अपना सर, उस बुधवि के घुटने पर रख, सो रहा था! बुधवि, उसके माथे पर हाथ फेर रही थी! एक से एक महा-तांत्रिक बाण आघात करते थे, लेकिन वहां तक पहुँचते पहुँचते, नाश हो जाता था उनका! मंगल का एक केश भी न हिल सका! वो तो आराम से, अपने घुटने मोड़े, अपनी बुधवि के घुटने पर सर रखे, सो रहा था आराम से, आँखें ज्वाला जैसी थीं उस महायक्षिणी की! भस्म कर देती उसको वो आँखें यदि अंबर नाथ सामने होता तो! ये सब रात में हआ था,
और जब सुबह हुई, तो बुधवि अपने कार्यों पर लगी थी! कार्य, मंगल के लिए! मंगल के लिए, वो उसकी स्त्री बन, सब कुछ किया करती थी! सबकुछ, जो एक मानव स्त्री घर में किया करती है! वाह बुधवि! हे महायक्षिणी! वाह! मित्रगण! कई बरस गुजर गए! समय आगे बढ़ता रहा! मंगल और वो बुधवि, जैसे एक दूसरे के लिए बने हों, ऐसे रहते थे, मंगल का पूर्ण ध्यान रखती थी वो बुधवि! और मंगल,अपनी नज़रों में रखता था उसको, पल भर नज़र नहीं आती, तो बेचैन हो जाता था, यहां वहां, ढूँढा करता था उसको! और जब मिल जाती, तो चिपट जाता था उस से! ऐसे, निर्बाध उनका प्रेम, बढ़ता ही रहा! जब मंगल सो रहा होता, तो
एकटक वो महायक्षिणी उसको देखा करती! नज़रें गड़ाए! कैसे अपने प्रेम का पोषण कर रही थी वो! अद्भुत! इतना सुनाते सुनाते, बाबा रुक गए! मैंने भी पानी पिया तभी, मन में जैसे तूफान उठ रहा हो! और उस तूफान की चपेट में हम सभी आये हए हों! बाबा उठे, पानी लिया, और पिया! फिर विष्णु से चाय के लिए कहा, विष्णु उठा, और चल दिया चाय के लिए, और जब तक चाय न आ गयी, तब तक,मैं उस मंगल और उस बुधवि के बारे में ही सोचता रहा! गले तक डूब गया था मैं, अब सर ही बाकी था बस! और फिर चाय आ गयी! हम सभी ने चाय के कप लिए अपने, और चुस्कियां ले, चाय पीने लगे! अचानक मुझे ध्यान आया कुछ! "बाबा, वो कंगन?" मैंने पूछा, "हाँ, कंगन!" वे बोले, "उनका क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"अभी बताता हूँ" वे बोले, मुझे उन कंगनों की याद आ गयी थी अचानक से! तभी पूछा, कोई न कोई कहानी तो होगी ही इसके पीछे! और अभी तो, बाबा की भी कहानी सुननी बाकी थी! मुझे बाबा ने, अपना झोला खोल कर, वही फोटो दी!
मैं ली,
ध्यान से देखा, क्या बेहतरीन कंगन था वो! पृथ्वी पर बना हो, नहीं लगता था!! सच में, वो दिव्य आभूषण था! चाय ख़त्म हुई हमारी, और कप वहीं रख दिए! "सबसे पहले बताता हूँ वो कंगन" वे बोले, "हाँ बाबा" मैंने कहा, "लेकिन पहले ये सुनो" वे बोले, "बताइये" मैंने कहा, "मैं कंदक बाबा का पुत्र हूँ! ये कहने मुझे मेरे पिता ने ही सुनाई थी" वे बोले, कंदक बाबा के पुत्र!
तभी। तभी एक एक घटना याद है उनको! "जब बाबा अंबर नाथ का अंत हो गया था, तो डोर अब बाबा कंदक के हाथों में थी, उनको बहुत सदमा पहुंचा था बाबा की मौत का, लेकिन उस महाशक्ति के लिए, उनके हृदय में बहुत पवित्र स्थान बन गया था!" वे बोले, "लाजमी है" मैंने कहा, "आकि वर्षों तक, कोई चार-पांच वर्षों तक, वो इस कहानी को, लोगों से खारिज करते रहे, ताकि कोई और अपने प्राण न गँवाए, और कोई उस प्रेमी जोड़े को क्षति न पहुंचाए" वे बोले, "वाह! बहुत बढ़िया!" मैंने कहा, "वे सबसे कह देते थे कि कोई मंगल नहीं, सब झूठ है" वे बोले, "सही किया उन्होंने" वे बोले, "लेकिन उनके हृदय में, एक संताप था, संताप, उस प्रायश्चित का" वे बोले, "कैसा प्रायश्चित?" मैंने पूछा, "बाबा अंबर नाथ द्वारा किया गया दुष्कृत्य" वे बोले, "अच्छा!" मैंने कहा, "बहुत वर्षों तक दिल पर बोझ धराथा, अब उतारना चाहते थे वो!" वे बोले, "तो वो वापिस गए?" बोला मैं! "हाँ!" वे बोले!
अब चुप हुए!
और मैं परेशान हुआ! कि तब क्या हुआ? अब रुक क्यों गए बाबा? मैं परेशान हआ था बहत! सच में मित्रगण! उस समय तो, जैसे अधर में लटका था मैं! "हाँ, गए थे वो!" बाबा बोले। "अकेले ही?" मैंने पूछा, "हाँ, अकेले ही वे बोले, "क्या हुआ था?" मैंने पूछा, मैं तो सुनने को लालायित था बहुत! "उन दिनों चौमासे थे, लेकिन उस से बड़ा चौमासा, उनके दिल में था, वे रोते भी थे, कि कितनी बड़ी भूल कर बैठे थे वो, जो बाबा के कहने में आ गए, बाबा कंदक, उन बाबा के साथ ही थे, दण्ड के भागी थी, लेकिन क्षमा मान ली थी उन्होंने, और इस प्रकार, उनको प्राण बख्श दिए गए थे, बस, इसी से ऋणी हो चले थे वो उसके, और इसी कारण से, एक बार प्रायश्चित करना चाहते थे वो, दिल कचोटता था उनको बार बार, और जब नहीं बन पड़ी, तो हो गए थे रवाना, अब अंजाम कुछ भी हो, चाहे प्राण रहें , न रहें, वे अब वहाँ जाने के लिए तैयार थे! और एक दिन, किसी को भी बिना बताये, चले गए थे वो, उन दोनों से एक बार मिलने, चाहे वे भगा दें उनको वहाँ से, लेकिन एक बार तो जाना ही चाहते थे वो!" वे बोले, "समझ गया बाबा! बाबा कंदक इसलिए गए कि कम से कम ये पता चले कि वो महाशक्ति है कौन। है न? न वो जान पाते, और न आप ही जान पाते, और न ही हम जान पाते, कि
आखिर वो महाशक्ति थी कौन? यही न?" मैंने कहा, बाबा सकपका गए! "हाँ, यही बात थी" वे बोले,
तो बाबा अवधू ने उन्हें ज़रा सरसरी निगाहों से देखा! अब मैंने तो सच ही कहा था, नहीं तो न बाबा योगनाथ ही जान पाते, और न ही मैं, और न ही आप मित्रगण! "फिर क्या हुआ?" मैंने पूछा, "वे चल पड़े थे, रास्तों में पानी भरा पड़ा था, कई कई जगह, रास्ते कट गए थे, लेकिन वे नहीं रुके, जाना था तो जाना था, और इस तरह, वे पहुंच गए उधर, उनको तीन दिन लगे, लेकिन, वो उस गाँव जा पहुंचे, गाँव में किसी से नहीं मिले, उस दिन बारिश थी बहुत, एक
विद्यालय की एक कोठरी में, उन्होंने शरण ली, गाँव वाले किसी भले आदमी ने उनको
भोजन करवाया था, सारी रात बरसात थी, अगले दिन दोपहर तक भी बरसात थी, और तब जब बरसात रुकी, वे फिर से चल पड़े, उस पहाड़ी की ओर, जहां उन्हें जाना था!" वे बोले, "वे
पहंचे?" मैंने पूछा, "हाँ, पहुंचे" वे बोले, "वे मिले?" मैंने पूछा, "हाँ, मिले" वो बोले, "फिर क्या हुआ?" मैंने पूछा, "जिस समय वे पहुंचे, मंगल वहाँ नहीं था, कहाँ था, पता नहीं, हाँ, वो बुधवि थी, और जब बाबा की नज़र उस से मिली, तो वो अपने विराट रूप में थी! बाबा काँप गए! लेकिन आँखों से बहते आंसू, और प्रायश्चित का भार, सच्चाई बयान कर रहे थे, बाबा वहीं लेट गए थे, क्षमा! क्षमा! यही बोले जा रहे थे! और फिर वो महायक्षिणी उस बुधवि रूप में प्रकट हो गयी थी! उनको क्षमा मिल गयी थी! अन्यथा, उस पल तक, उनका नामोनिशान इस संसार में कहीं नहीं होता! और तब, तब बाबा को पता चला कि वो है कौन! वो महायक्षिणी कपालशंडी थी! यक्षिणियों की महायक्षिणी! आदि-सिद्ध यक्षिणी!" वे बोले, "ये वे खुद जान गए थे या?" मैंने पूछा, "नहीं खुद नहीं, खुद तो कोई जान ही नहीं सकता था, खुद ही जान जाता, तो बाबा अंबर नाथ भी उस रोज बाबा कंदक नाथ के संग ही होते!" वे बोले, "तो क्या बुधवि ने बताया?" मैंने पूछा, "हाँ, वो भी, बाबा के पूछने पर!" वे बोले, "ओह.....बुधवि ने बता दिया! समझ गया, इसके पीछे भी प्रेम ही है, ताकि बाबा कंदक, किसी को ये कभी न बताएं। और जिस से मंगल पर, उसके जीते जी, कोई कष्ट न आये!" मैंने कहा! "हाँ! और बाबा ने वचन निभाया अपना! सन सत्तर तक मुंह नहीं खोला अपना, और सन सत्तर में, उन्होंने ये सारी कहानी मुझे सुनाई, अपनी मृत्यु से एक माह पहले! तब मेरी उम का आप अंदाजा लगा सकते हो! मैं जवान था, कुछ करने को हमेशा, तैयार!" वे बोले, "तब आप चौबीस या पच्चीस के रहे होंगे?" मैंने पूछा, "हाँ, लगभग इतना ही" वे बोले, "अच्छा! तो आप सन बहत्तर से इसी कार्य में लग गए थे!" मैंने कहा, "हाँ, बहत्तर से ही" वो बोले, मैं थोड़ा शांत हुआ अब!
ये बाबा कंदक ही थे, कि ये सारी कहानी मुझे मालूम पड़ी थी! चालीस-बयालीस बरस बाद। बाबा ने तो अपनी जवानी से शुरुआत की थी, और अब वृद्धावस्था तक उसी में लगे थे! लेकिन वो चाहते क्या थे? ये नहीं खुला था अभी तक! तभी फिर से मुझे उस कंगन का ध्यान आया! वो तो मैं भूल ही गया था! "अच्छा बाबा, वो कंगन?" मैंने पूछा! "हाँ! वो कंगन!" वे बोले, वे थोड़ा सोच में डूबे तब! फिर कुछ न बोले! "बताइये?" मैंने पूछा, "बताता हूँ अभी" वे बोले, शायद, वक्त की किताब के पीछे के पृष्ठ पलट रहे थे! थोड़ी देर बाद, मुझे देखा, "मैं शाम को बताता हूँ" वे बोले, शाम को? "अभी नहीं बाबा?" मैंने पूछा, "अभी नहीं" वो बोले, अब, मज़बूरी थी! शाम तक इंतज़ार करना ही था! हम उठ गए फिर वहाँ से!
और चल दिए अपने कमरे की तरफ वापिस! वहाँ पहंचे, मैं कमरे में जा, जूते खोल, बैठा कुर्सी पर! शर्मा जी भी बैठे! "एक बात कहूँ?" बोले शर्मा जी, "क्या?" मैंने पूछा, "बाबा बहत खिलाड़ी बाबा हैं!" वे बोले, "कैसे?" मैंने पूछा, "अब जो वो अपनी कहानी सुनाएंगे, यक़ीन नहीं करना आप!" वे बोले, "क्यों?" मैंने हैरत से पूछा, "अब मसाला लगा कर, या तोड़-मोड़ के बताएँगे!" वो बोले,
अब कीड़ा छोड़ दिया था दिमाग में मेरे उन्होंने तो! "आपको क्यों लगा ऐसा?" मैंने पूछा, "नहीं तो अभी बताते" वे बोले, "हो सकता है, कुछ याद करें?" मैंने पूछा, "नहीं, कंदक नाथ तक की सही ही, लेकिन अब नहीं" वे बोले,
"आपका मतलब, अब कहानी उनकी अपनी होगी?" मैंने पूछा, "नहीं, उनकी कहानी अब उनकी होगी!" वो बोले, बहुत गहरी बात कही थी उन्होंने! सम्भव था! ऐसा सम्भव था! अब वो कीड़ा, कुलबुलाने लगा था दिमाग में! "उन्होंने फोटो ली कंगन की, कैसे?" वे बोले, हाँ! कैसे? "हाँ, सही बात है!" मैंने कहा, "यही मैं सोच रहा था!" बोले वे! "हो भी सकता है कि ले भी ली हो?" मैंने कहा, "कमाल है, कंगन क्या वहीं लटका होगा?" वे बोले, मेरी हंसी छूटी तब!
वे भी हँसे! इनसे, उद्देश्य पूछ लो आप पहले।" वे बोले, बात तो सही थी। सौ फीसदी सही! तभी मेरी नज़र बाहर पड़ी, एक गाड़ी आकर रुकी, एक सफेद एम्बेसडर कार, उसने से, एक पुरुष निकला और दो महिलायें, और सीधे बाबा योगनाथ के कमरे के लिए चल पड़े थे वो, अपना अपना सामान लेकर! "कोई मेहमान आ गया!" मैंने कहा, "आया होगा कोई!" वे बोले, दस्तक हुई दरवाज़े पर, शर्मा जी ने दरवाज़ा खोला, ये बाबा अवधू थे! अंदर आये और बैठे! "कौन आया है?" मैंने पूछा, "कौन?" वे बोले, "उस गाड़ी से उतरा है कोई?" मैंने कहा, उन्होंने खिड़की से बाहर झाँका, और गाड़ी को देखा.. "मैं देख कर आता हूँ अभी" वे बोले, और चले गए! "अरे आया होगा कोई मिलने।" शर्मा जी बोले, "हाँ, ऐसा ही होगा!" मैंने कहा,
लेकिन शर्मा जी का छोड़ा हुआ कीड़ा अब बहुत तेजी से कुलबुलाने लगा था। यदि शर्मा जी का संदेह सही है, तो इसका मतलब बाबा योगनाथ हमें झोंकना चाहते हैं किसी अग्नि-कण्ड में! ताकि उनका स्वार्थ सिद्ध हो! लेकिन फिर मैं सोचता था, कि यदि ऐसा ही होता, तो पूरी कहानी क्यों सुनाते हमें? अब तक तो कहानी ठीक थी, तन्मयता से सुनाई थी, यदि मान भी लिया जाए कि बाबा अब अपनी कहानी, लाग-लपेट के सुनाएंगे, तो भी आभास हो ही जाना
था। इसीलिए मैं थोड़ा निश्चिन्त था! तभी बाबा अवधु आ गए अंदर! बैठे। हमने उन्ही को देखा! "वो रजनी आई है" वे बोले, "कौन रजनी?" मैंने पूछा, "बाबा अमरेश की पुत्री' वे बोले, "अच्छा! बाबा योगनाथ से मिलने" मैंने कहा, "हाँ, ये भी चलेगी साथ हमारे" वो बोले, मैं चौंका! "ये क्यों चलेगी?" मैंने पूछा, "आवश्यकता पड़ी तो?" वे बोले, "कैसी आवश्यकता?" मैंने संशय से पूछा, "वहाँ कुछ क्रिया करनी पड़ी तो?" वे बोले, "वहाँ कहाँ? मंदिर में?" मैंने पूछा, "हाँ?" वे बोले, "और क्रिया करेगा कौन?" मैंने पूछा! "आप?" वे बोले, अब तो कीड़ा न केवल कुलबुलाया, बल्कि उछलने भी लगा! मैंने शर्मा जी को, शर्मा जी ने मुझे देखा! नज़रें तक गयीं! कीड़े का नाच दिखाई दे गया! "वहाँ क्रिया की क्या आवश्यकता?" मैंने पूछा, "पड़ जाए तो, मैंने बोला" वे बोले, "कोई आवश्यकता नहीं पड़नी" मैंने कहा, "पड़ सकती है वे बोले, "लेकिन, किसलिए?" मैंने पूछा, "वहाँ देख काम नहीं करती इसलिए" वे बोले,
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"तो देख लगानी ही क्यों है?" मैंने पूछा, "ये आपको शाम को पता चलेगा" वे बोले,
और मुस्कुरा गए! मेरे अंदर कहीं, बकरा सहमा! डर गया बकरा! कहीं. अब तक तो वो कीड़ा भी नाच नाच कर, बेहोश हो चुका था!! फिर चले गए बाबा अवधू! "ये कर क्या रहे हैं?" मैंने पूछा, "मैं समझा!" वे बोले, "क्या?" मैंने पूछा, "वहाँ देख काम तो करती नहीं, और वो कंगन, वहीं कहीं है, इसका पता लगाना है, अब महाशक्ति उस महिला को संभवतः कुछ न कहे, वो पता लगा ले क्रिया में, और बता दे आपको, आप वो कंगन ले लें, और वो कंगन, किसी नौकर की तरह, बाबा योगनाथ को दे दें, वे उस कंगन की सहायता से, वर्ष भर साधना करें,आप बजाओ ढपली तब तक!" वे हंस के बोले। "सोच तो मैं भी यही रहा था!" मैंने कहा, "अब यही होना है!" वो बोले, "लेकिन एक बात!" मैंने कहा, "क्या?" वे बोले, 'वो क्रिया, वो क्यों नहीं कर लेते?" मैंने पूछा, "होगी कोई पाबंदी!" वे बोले, "नहीं शर्मा जी नहीं। बात कहीं इस से भी आगे है। पहले ज़रा पूरी कहानी सुन लें, फिर मैं बताता हूँ बाबा को कि कितने तिया पांच!" मैंने कहा, वे हंस पड़े!!! समझ गए थे मेरा अर्थ! मित्रगण! फिर शाम हई,और हम वहाँ चले! वहाँ एक स्त्री बैठी थी, आयु में कोई पच्चीस बरस की रही होगी, मेरा परिचय करवाया गया उस से, उसका नाम रजनी था, तीखे नैन-नक्श वाली स्त्री थी वो, बात बात में मुस्कुराना शायद पसंद था उसको, तो ये थी हमारी 'पकड़' जो हमारी मदद करती! बस, उसका उतना ही काम था, और कुछ नहीं! शायद ये रजनी भी, मेरी तरह ही प्रयोग की जा रही थी! या तो उसको पता था, या फिर अनभिज्ञ थी वो! "हाँ बाबा, तो आगे?" मैंने पूछा,
अब बाबा ने कहने सुनाई आगे, जो सुनाई, मैं आपको सुनाता हूँ अपने शब्दों में! एक रोज की बात है, मंगल बैठा हुआ था, संग बुधवि के, आकाश से रिमझिम होने में, बस कुछ ही क्षण शेष थे, मंगल को बरसात बहुत पसंद थी, आकाश को देखता था बार बार! और फिर बारिश पड़ी! बहुत खुश हुआ, उस बुधवि के संग, बरसात में नहाने लगा! उसके अस्त व्यस्त वस्त्र ठीक करता था बार बार, उसके केश संभालता, और तभी उसकी नज़र, उसकी कलाइयों पर गयी! वो जैसे उनको देख, जड़ हो गया! शांत, खड़ा ही रहा उन्हें, अपने हाथों में पकड़ कर! कलाइयों को, बार बार छूता! "क्या हुआ?" पूछा बुधवि ने! नहीं बोला कुछ! कैसे बोलता! 'हद' से बाहर की बात थी!
"क्या हुआ?" पूछा बुधवि ने! उसकी चिंतित होते देख, उस यक्षिणी के प्राण जाते थे जैसे! पल भर में ही, सिहर सी उठती थी वो!! मंगल से हाथ छुड़ाए! और उसका चेहरा हाथों में लिया उसने! आँखों में देखा, बर्षात का पानी छलछला रहा था आँखों से, आंसू भी बह रहे हों, तो पता नहीं। "क्या हुआ? मुझे बताओ?" बोली वो! "वो, खाली हाथ" वो बोला, उसके हाथों को देखते हए! "खाली?" वो बोली, "हाँ! खाली" वो बोला! "कैसे खाली?" वो बोली, "कंगन, मेरे कंगन, नहीं हैं हाथों में तुम्हारे!" वो बोला, इतना सुनना था कि, अपने अंक में भींच लिया उस मंगल को उसने! और अगले ही पल, बरसात बंद! और! बुधवि आभूषणों से लद गयी! पूरी भुजा! पूरा शरीर! ऐसा कोई अंग नहीं, जहां आभूषण न हों! मंगल ने देखा! चुप ही रहा! "ये! ये सब तुम्हारे ही तो हैं?" वो बोली, "नहीं, मेरे! मेरे नहीं हैं वो बोला!
अब कौन कहे उसको पागल! अब नहीं लिखूगा उसको पागल! "नहीं। ये सब तुम्हारे हैं!" वो बोली, "नहीं बुधवि, मेरे नहीं हैं, मैं दूंगा तुम्हे!" वो बोला,
"क्यों?" वो बोली, जानती सब थी, बस प्रेम की कलम से अपने हृदय को खुरचवा चाहती थी!! बस!! "मेरी बुधवि हो न?" बोला वो! "हाँ! केवल तुम्हारी!" वो बोली, "तो मैं दूंगा न?" वो बोला, बुधवि चुप! क्या बोले! ये तो ज़िद थी, प्रेम की ज़िद! बड़े बड़े हार गए! और प्रेम भी ऐसा! ऐसा जैसे किसी बाल* को सोने की गेंद दो, तो उसको रबर की गेंद की तरह ही खेलेगा! वैसा ही!! ठीक वैसा ही! "ठीक है!!" बोली वो!
अब आकाश को देखा मंगल ने, और देखते ही, बरसात पड़ने लगी!! झूमने लगा मंगल!!! बरसात में, दीवानों जैसा!! झूम तो वो भी रही थी! मन ही मन! प्रेम के झूले पर!! ऐसा झूला, जो, जितना झूला जाता, उतना प्रेम उत्पन्न किया करता!!! अगली सुबह हई! जाग गया था मंगल तब तक! सूर्य चढ़ चुके थे आकाश में अपने रथ में सवार होकर! उसने तब बुधवि को बुलाया, बुधवि, किसी स्त्री की तरह ही, साफ़-सफाई में लगी थी! साफ़-सफाई तो वैसे ही हो जाती थी, लेकिन मंगल के लिए, वो सब कुछ किया करती थी! सामान्य रूप से! हाँ, तो बुधवि आई उसके पास! "आ, यहां बैठ ज़रा" बोला वो, वो बैठ गयी, "ला, अपने हाथ दिखा' बोला वो, हाथ आगे किये बुद्धविने! अब नाप लिया उसने, अपने दोनों हाथों से, "ठीक है, जा" वो बोला,
और उठ खड़ा हुआ, "क्या हुआ?" पूछा बुधवि ने! "तू यहीं बैठ,मैं आता हूँ अभी" बोला मंगल! "कहाँ जा रहे हो?" पूछा बुधवि ने!
"गाँव में" वो बोला, "किसलिए?" पूछा, "कंगन लेने, तेरे लिए!" बोला वो! "कौन देगा?" उसने पूछा, "हैं न, चाचा हरि, कुनबे के हैं, मनिहार हैं, मिल जाएंगे वहाँ से!" वो बोला, "और पैसे?" पूछा उसने, "नहीं लेंगे, मांगेंगे तो दे दूंगा बाद में" बोला मंगल! बाद में! वाह रे मंगल! रुला देता है तू...........बार बार........ इस से पहले वो कुछ कहती, देती, टपाटप नीचे उत्तर गया मंगल! और बुधवि, उसको देखते रही जाते जाते! अल्हड़ सा, खुश होकर, जा रहा था मंगल! और चला गया, पीछे मुड़के भी नहीं देखा! धुन का पक्का था मंगल! गाँव पहंचा! तो बहुत लोग मिले! कोई कुछ के और कोई कुछ! किसी को जवाब न दे, बस सीधा गया गाँव के एक छोटे से बाज़ार, अधिक दुकानें नहीं थी वहाँ, और तो और, देखो, मनिहार की दुकान से, कंगन लेने गया था!
कांच की दुकान से हीरा खरीदने पहुँच गया दुकान! मिल गए हरि चाचा! "आ मंगल आ! बहुत दिन बाद आया! कैसा है?" बोले चाचा, "ठीक हूँ" बोला मंगल! चाचा ने सोचा, पागल है,दो चार बात बनाएगा, और चला जाएगा वापिस, फिर किसी और दुकान जा बैठेगा! मंगल की रौनक देख, सभी हैरत में पड़ जाते थे। रंग-रूप, खिल उठा था, जिस्म, मज़बूत हो चला था, अब कोई उस से भिड़ने की तो सोच भी नहीं सकता था! "तेरी औरत बहुत ख्याल रखती है तेरा!" बोले चाचा! "हाँ, बहत" वो बोला, "अच्छा, कैसे आया ये बता?" बोले चाचा, "कंगन चाहिये, दो, इस नाप के" बोला मंगल, हाथों से नाप दिखाता हुआ! चाचा, मन ही
मन हँसे! कि लो, पागल कंगन मांग रहा है अपनी औरत के लिए! "कैसे दें, सोने के, चांदी के, या लाख के?" पुछा चाचाने! सोना देखा नहीं था! देखा था तो जाना नहीं था! पहचाना नहीं था! चांदी का पता नहीं था। हाँ सुना था, कंगन सोने के होते है बढ़िया। माँ से सुना था, बहनों के लिए, जब पिता जी से बात हआ करती थी, ब्याह की!
"सोने के दे दो!" बोला मंगल। "अच्छा! सोने के!" बोले चाचा!
और दो चार बार, डिब्बे खोलने के बाद,आखिर में, सही नाप के दो कंगन दे दिए! चमकते हए, ये पीतल के थे! साधारण से! "ये ठीक हैं?" पूछा चाचा ने! "हाँ, ठीक हैं!" बोला मंगल! "ला, बाँध दूँ, और रास्ते में सही से ले जाना, ज़माना खराब है, अब तुझे तो पता ही है,तू तो
वैसे ही बहुत समझदार है!" बोले चाचा! कंगन कागज़ में, सफ़ेद ढींगे से बांधते हए! "ले, रख ले" बोले चाचा, अपनी जेब में रख लिए उसने कंगन वो! "चाचा? पैसे?" पछा मंगल ने, "अरे कैसे पैसे? तेरी ज़मीन हमारे पास है, वही रोटी दे रही है, दुकान तो बस, ऐसे ही है, तुझसे पैसे नहीं लूँगा" बोले चाचा! कौन से नए दिए थे चाचा ने! बचखुचा माल था, पकड़ा दिया था। कम से कम पागल खुश तो हुआ, उनकी नज़रों में! न ज़मीन सुनी! न रोटी! बस इतना, कि कोई पैसे नहीं!
और चल पड़ा वापिस! बहुत खुश था! बहुत खुश! कंगन लाया था अपनी बुधवि के लिए!
उसके कंगन सोने के कंगन! पहुंचा वहां! साँसें थामी! "बुधवि?" बोला वो,
और बुधवि आई वहां! "इधर बैठ!! बैठ!" बोला मंगल! बैठ गयी वो! मंगल की खुशी देखते ही बनती थी! "ला! हाथ आकर अपने इधर!" बोला वो! हाथ आगे किये बुधवि ने!
और तब जेब से वो कागज़ निकाला! उसको खोला, कंगन निकाले, उसको दिखाए! और
हाथ में पहनाने लगा! एक एक करके, पहना दिए उसने! "देख! सुंदर हैं, हैं न?" बोला वो! बुधवि ने देखा! हृदय में सागर डोला!!! सागर में लहरें! लहरों में शोर!
और उस शोर में, प्रेम की हिलोर!!! "बहुत सुंदर हैं! बोली बुधवि!! "सोने के हैं!!" वो बोला, "हाँ, सोने के हैं!" बोली वो! "ये मेरे हैं, मेरे!" वो बोला! वाह मंगल! संसार को सोने से लादने वाली वो महायक्षिणी!! आज पीतल के कंगन पहन रही थी। पीतल के!! नहीं। मैं गलत हूँ!!! गलत! पीतल के नहीं! प्रेम के!
और प्रेम के आगे सोना क्या, चांदी क्या और रत्न क्या!! "देख बुधवि! कितने सुंदर लगते हैं तेरे हाथ!" वो बोला! "हाँ, बहुत सुंदर!" वो बोली! "और सुन, संभाल के रखना, ज़माना खराब है!
तुझे तो सब पता है!" आहिस्ता से बोला मंगल!! सब! हाँ! सब पता है बुधवि को! अपने हाथ देखे बुधवि ने! मंगल बहुत खुश था! उसको खुश देख, बुधवि बहुत खुश! "बुधवि, भोजन?" बोला वो! "हाँ, अभी लायी" बोली, और चली गयी! थोड़ी देर में, भोजन भी लग गया!
खा भी लिया! और उसके बाद, मंगल आँखें बंद कर, सो गया!! आज खुश था! बहुत खुश! और बुधवि! उस से अधिक खुश!!!
......
और मित्रगण मैं! आँखों में नमी लिए! आंसुओं को बाँध से रोके हुए! उस दृश्य में बंधा था जब, मंगल ने,कंगन पहनाये थे!
अपनी बुधवि को!! ओह... ...............दिल कहीं फट ही न पड़े.. सच में, दिल फटने की ही नौबत थी तब तो। दिल फटने को तैयार था उस समय! एक बात जो दिल में छेद कर रही थी वो ये, कि एक महायक्षिणी, जिसकी एक इच्छा सा से ही, अकूत धन-दौलत पृथ्वी पर बिछ जाए, स्वर्ण भी अपनी आभा छोड़ दे, वो! वो पीतल के कंगन धारण कर रही थी! ये कैसा प्रेम एक महायक्षिणी के लिए! इस प्रेम को, कौन सा मुक़ाम , मैं क्या नाम दं? किस संज्ञा से नवाजूं? ऐसे शब्द, कहाँ से लाऊँ? ऐसी व्याकरण कहाँ से लाऊँ? स्वयं पाणिनि भी रिक्त हो जाएंगे ऐसी व्याकरण के लिए! इस मूर्त श्र में, ऐसा अमूर्त प्रेम? एक मूर्त तत्व से एक अमूर्त तत्व का ऐसा प्रघाढ़ प्रेम? ऐसा विलय? क्या ये गाथा, यक्षलोक में भी सुनाई जाती है? क्या मंगल, आज यक्ष है? क्या आज भी वो महायक्षिणी कपालशंडिका, उसकी ब्याहता है? क्या, क्या और क्या क्या! पता नहीं! दिमाग गोल है और दिल फटने को तैयार! सच में, कहीं दिल फट ही न पड़े! डर है इसका, पक्का नहीं कह सकता मैं! मेरे भाव, आते हैं,जाते हैं, जो रुक जाते हैं, वो बहत तड़पाते हैं! जब तड़पाते हैं, तो फिर रुलाते हैं! और जब रुलाते हैं, तो मैं, अपने आप में, नहीं रह सकता!! कुछ शब्द सुने थे मैंने, शुद्धता के, शुद्ध, विशुद्ध, परि-शुद्ध! लेकिन ऐसा एक शब्द और था, जिसका उदाहरण, मुझे कदापि नहीं मिला था, वरि-शुद्ध! हाँ, ये वही प्रेम है! वरि-शुद्ध! ऐसा ऐसा प्रेम, जो चौरासी हज़ार लोकों में भी एक ही है। कोई विसंगति नहीं उसमे। जिसका मानक, सभी लोकों में एक ही होगा! ये वरि-शुद्ध प्रेम ही है। और कोई शब्द नहीं है मेरे पास! अब तो मुझे पीतल भी स्वर्ण से ऊंचा लगता है! जैसे मुंह चिढ़ाता हो उसे! जैसे, बात बात पर, नोंच लेता हो उसको! अपने परम भाग्य पर इतराता सा लगता है! सच में, मुझे यही लगता है, पीतल के कंगन को देख कर! वो बुधवि!! बहुत प्रसन्न थी उस समय। मुस्कुरा रही थी। उस मंगल के प्रेम की निश्छलता पर! मंगल आँखें बंद किये लेटा हुआ था, इस दीन-दुनिया से बेखबर। इसकी उंच-नीच से बेखबर, गरीब-अमीर, छोटा-बड़ा, सबसे बेखबर! उसे बस, बुधवि चाहिए थे! जो उसका ध्यान रखती थी, भोजन खिलाती थी! वस्त्र
दिया करती थी। और कुछ माँगना आता नहीं था उसे। कुछ चाहिए भी नहीं था। बस, यहीं रश्क होता है उस से मुझे! ऐसा क्यों? मैं ऐसा क्यों नहीं? आप सभी, ऐसे क्यों नहीं? क्या भरा है मस्तिष्क में हमारे? हम, भरे हुए मस्तिष्क वाले,सभी रिक्त हैं! सभी रिक्त! यही है असली सच! और ये कड़वा है! मुझे तो बहुत कड़वा लगता है ये सच! निगले नहीं बनता! मंगल पागल था,
नहीं कह सकता! यदि था, वो मेरे ईश! मुझे हर जन्म में पागल ही बनाना! नहीं देना ज्ञान! कुछ नहीं देना! बस, पागल बनाना! मंगल जैसा पागल! सभी को! सभी को! लेकिन...........ऐसा सम्भव नहीं प्रतीत होता! मेरी आँखें मुझे धोखा करती हैं! मेरा हृदय, धोखा करता है, मेरी जिव्हा, धोखा करती है, मेरा मन, सबसे बड़ा धोखेबाज! काश.............अब काश को नहीं खोल सकता मैं! विवश हूँ! और देखिये! यहां भी आपसे धोखा ही कर बैठा! नहीं बता सका!! वो दिन बीता!
और रात्रि होने को थी! मंगल बैठा था, भोजन नहीं किया था उसने अभी! अचानक से,मंगल ने ठड्डी पर ऊँगली रखी बुधवि के! बुधवि ने, देखा उसे! "बुधवि!" वो बोला, "हाँ" वो बोली, "तुझे तेरे गाँव की याद नहीं आती?" पूछा मंगल ने!
ओह! क्या क्या पूछता है रे तू मंगल!!! कहाँ से लाता है ऐसे प्रश्न! जो सीना बींध दें! इतने सरल प्रश्न!
और इतने क्लिष्ट उत्तर! कौन दे उत्तर??? भांप गयी सबकुछ! "नहीं" बोली वो! "झूठ!" बोला मंगल "कैसे?" उसने पूछा, "बधवि, ये देख" उनसे हाथ उठाया बधवि का, और उस चोट पर लगाया, जो बर्तन से लगी थी, जब पिता जी ने बर्तन फेंक के मारा था! "देखा?" पूछा उसने, "हाँ" वो बोली,
"क्या है?" पूछा उसने "चोट का निशान" वो बोली, "हाँ! मेरे पिता जी ने मारा था यहां! बर्तन! फेंक कर, यहीं लगा था! मुझे उनकी.......बहुत याद आती है, मेरी माँ! मेरिमा! बुधवि, मुझे मेरी माँ बहुत याद आती यही, आज भी!" कहते कहते रो पड़ा! रो पड़ा बालकों की तरह!! गले से! गले से चिपका लिया मंगल को! उस बुधवि ने!!! जकड़ लिया! आंसू पोंछे उसके! वो सिसकियाँ भरता रहा! माँ और पिता जी की याद आती रही! बहुत समझाया बुधवि ने!! आंसू पोंछ लिए! "तू, तुझे नहीं आती याद?" पूछा उसने!
अब क्या बोले!!! क्या समझाये! मंगल को तो समझा दिया! अब, वो क्या बोले!! "चल! चल! गाँव चलते हैं तेरे!" बोला वो! "नहीं!" वो बोली, "नहीं, मान जा!" वो बोला, "नहीं" वो बोली, "अच्छा, तू चली जा फिर" बोला वो, "जाऊं?" पूछा उसने "हाँ जा" वो बोला, "जाऊं?" फिर से पूछा, "हाँ! मिल आ! उन्हें ये कंगन दिखाना! कहना, मंगल के हैं! मंगल नै दिए हैं" बोला वौ!
ओह......
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