वर्ष २०१२ जिला इलाह...
 
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वर्ष २०१२ जिला इलाहबाद की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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तो वही लिखता! अफ़सोस! नहीं हैं। ये प्रेम भी कैसा? इसका अर्थ भी नहीं है मेरे पास,न ही वो सटीक शब्द! ये तो मैं आपके अन्तःमन से ही काउंगा कि प्रेम की सर्वोच्च-पराकष्ठा के शब्द से नवाजे वो इस प्रेम को! "बुधवि?" बोला हल्के से मंगल, "हाँ?" बोली वो, "एक बात कहूँ?" बोला वो, "कहो, बिलकल कहो" वो बोली, उसके माथे पर हाथ फेरते हुए, पसीना हटाया था उसने उसका! "मैं किसी के घर जाता था, तो मारते थे मुझे, धक्का देकर, बाहर निकाल देते थे, तुम्हारे घर............" वो बोला, रोक दिया उसको! 

उसके होंठों पर फिर से ऊँगली रख दी थी उसने! लेकिन उसके इन वाक्यों ने, चीर दिया था उसके अन्तःमन को! उसने फिर से भींच लिया था उसने अपने अंदर! "नहीं, ऐसा कुछ नहीं होगा!" वो बोली, "नहीं होगा न?" बोला वो, "नहीं होगा, मैं हूँ तुम्हारे साथ" वो बोली, अब होंठों पर हंसी आई मंगल के। कोई नहीं मारेगा उससे! कोई धक्के मार कर, नहीं निकालेगा। बुद्धवि है न!! हंस पड़ा था मंगल! "अब ठीक है, जब तू है तो कैसी चिंता!" बोला मंगल! मुस्कुरा पड़ी वो! "हाँ! जब तक मैं हूँ, कोई चिंता नहीं!" वो बोली, "कब चलेंगे?" उसने पूछा, 

वो मुस्कुराई। "कब चलना है?" उसने पूछा, "अभी चलते हैं, साँझ तलक आ जाएंगे वापिस" वो बोला, भोला मंगल! "चलो फिर" वो बोली, 

और खुद खड़ी हो, उसको हाथ देकर खड़ा किया! "मैं कपड़े बदल लूँ?" बोला मंगल! उसके भोले-भाले सवाल, उस यक्षिणी को दागे जा रहे थे! वो बार बार मुस्कुरा जाती थी! "नहीं, ऐसे ही ठीक हो वो बोली, "ठीक है, चलो फिर वो बोला, मित्रगण! बुधवि का हाथ थामे, वो नीचे उतरा! बहुत खुश था, आज कोई उसको सुसम्मान कोई घर ले 

जा रहा था! नहीं तो, कोई नहीं ले गया था उसको घर! खुद उसके सगे-संबंधी भी नहीं! इसीलिए बहुत खुश था! ज़मीन पर पाँव नहीं थे उसके! वो रास्ता आया, जहां से, वो मुड़ जाया करती थी, दायें! और वहाँ, जहाँ तक मंगल की निगाहें उसका पीछा करती थी, मंगल ने पीछे मुड़के देखा, अपना मंदिर! वो छोटासा मंदिर! मुस्कुराया और चल दिया उसके संग! मित्रगण! कहने को, बुधवि का हाथ थामे वो चल रहा था! चल तो रहा था भूमि पर, लेकिन वो भूमि से बहुत दूर थे! वो रास्ता तो असंख्य योजन दूर था! और तभी मंगल, को एक 

झटका सा लगा। और वो झुक गया, झुक गया उस बुधवि की बाहों में। और जब नेत्र खुले!!! चौंक के उठा मंगल! सामने बुधवि बैठी थी! सुसज्जित! आभूषणों से लदी हुई! वहाँ शीतल वायु बह रही थी! प्रत्येक वस्तु, इस धरा की वस्तु से पृथक थी! वहां पृथ्वी जैसे पेड़-पौधे नहीं थे! न वैसा आकाश, और न वैसी धरा! क्या 

ये यक्षलोक था?? कोई भी सोच सकता है। कि ये यक्षलोक ही था! लेकिन ये यक्षलोक नहीं, उस कपालशंडिका का वास-स्थल था! वास-स्थल, जो अभीक्षण भर में रच दिया था उसने! उस मंगल के लिए! पल भर में ही सबकुछ बदल गया था! मंगल हैरान था! बहुत हैरान! 

वो तो, उस बुधवि को भी नहीं पहचान पा रहा था! उसने हाथ लगा के देखा उसको! फिर आसपास देखा! "बुधवि?" वो बोला, "हाँ" वो बोली, "ये तुम्हारा गाँव है?" पूछा मंगल ने, आसपास देखते हुए! वो हंसी! और मंगल का हाथ थामा! "हाँ!" वो बोली, "और ये जेवर?" वो


   
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श्रीशः उपदंडक
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छूते हुए बोला उन्हें! "मेरे हैं" वो बोली, "लेकिन तुम्हारे घर वाले?" उसने पूछा, "यहीं हैं" वो बोली, "कहाँ?"वो बोला, "यहीं" वो बोली, हँसते हुए! 

वो यहीं का अर्थ नहीं समझ सका! बस आसपास देखता रहा! कोई नहीं था वहां! उसको डर लगा रहा था, उसने ऐसा कभी नहीं देखा था! कभी भी नहीं! उसे लगा, कि वो वहाँ, बस बधवि पर विश्वास कर सकता है। और उसका जी उचटा वहां से! घबरा गया था वो! "चलो, वापसी चलो" वो बोला, "ठीक है" वो बोली, और अगले ही पल, 

वे वहीं थे, मंदिर में! महायक्षिणी, अब फिर से बुधवि रूप में थी! नहीं समझ पाया कुछ भी मंगल! हाँ, चुप था अब वो!! मित्रगण! 

अब यही अवसर था! कि वो महायक्षिणी उसको अपना परिचय दे! और यही हआ। उस बुधवि ने, अब अपना सम्पूर्ण परिचय दे दिया! कि वो कौन है, कहाँ से आई है! क्या कारण था, किस कारण से वो आज तक उसके साथ है,और ये, कि वो उस से प्रेम करती है। अब मंगल कुछ समझा, और कुछ नहीं! बस इतना ही समझा कि, बस वो बुधवि है, और कुछ नहीं! जो समझा, सो ठीक, जो नहीं समझा, उसकी चिंता काहे की! बुधवि है न!! "आओ, बैठो वो बोला, 

और वे बैठ गए! साँझ अभी ढली नहीं थी! अभी समय था! "तुम अभी गाँव जाओगी वापिस?" उसने पूछा, "जाऊं?" उसने पूछा, "जाना है?" पूछा मंगल ने। "मत जाओ" धीरे से बोला मंगल! "नहीं जाउंगी" वो बोली! "बुधवि?" वो बोला, "हाँ" वो बोली, "तुम्हारा गाँव अजीब सा है, वहां कोई नहीं रहता!" वो बोला, अब हंस पड़ी वो! उसकी सरलता पर, हंस पड़ी वो! "हाँ, कोई नहीं था वहां, कोई घर नहीं, कुछ नहीं, पता नहीं कहाँ रहते हैं लोग!" हाथ चला के बोला वो! फिरसे हंस पड़ी वो! फिर एकदम से गंभीर सा हो गया वो! "क्या हुआ?" पूछा उसने, कुछ न बोले। "बताओ?" बोली वो! "बुधवि, प्रेम करती हो मुझे?" पूछा उसने, "हाँ, अथाह,अटूट!" वो बोली, 

............. 


   
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श्रीशः उपदंडक
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जवाब सुन, फिर से चुप! कुछ न बोले! ऊपर देखा उसने, और आँखें जा टकराई उसकी, उस बुधवि से! 

और फिर. मित्रगण! आपको एक बात बताता है, एक विलक्षण भरी बात, बात नहीं, तथ्य कहँगा उसे! तहत्या ये, कि ये महायक्षिणी, कपालशुंडी, कपालशंडिका, कपाल-रोहिणिका, एक अपार शक्तिशाली यक्षिणी है। ये चौरासी लाख यक्षिणियों द्वारा सेवित है! इक्कीस सहस्त्र महाभट्ट, महालिक यक्षों दवारा पूजित है। और देखिये! कहाँ! कहाँ, एक निश्छल मनुष्य 

द्वारा, प्रेम-पाश में फंस गयी! सत्य है! प्रेम से अधिक शक्तिशाली अन्य कोई शक्ति नहीं! वो चाहे, तो क्या नहीं हो सकता! और क्या हो सकता है, यै कल्पनीय है! कल्पनीय! समझे आप मित्रगण! चूंकि, मैं भी मात्र कल्पना ही कर सकता हूँ! 

तो. 

TIF 

आँखों में झाँका मंगल ने, उस बुधवि की आँखों में! ऐसी आँखें, कि पूरी प्रकृति ही समा जाए उनमे! और वो मंगल! अनभिज्ञ बेचारा! नहीं जानता था कि कौन है उसकी ये प्रेमिका! और जानता भी तो, मुझसा हीन कार्य, वो सोचता भी नहीं! हाँ, हीन कार्य! कभी नहीं सोचता! मेरी मानसिकता, उस पागल मंगल के सामने, हीन है, सच कह रहा हूँ, हीन, तुच्छ! इसीलिए, मंगल का नाम, लेने से भी डरता हूँ मैं "बुधवि?" बोला मंगल! 

आँखों, अचानक, एक सैलाब लिए! "बोलो?" बोली वो, "मुझे प्रेम करती हो?" पूछा उसने, "हाँ, अनश्वर प्रेम!" वो बोली, "मैं..." बोलते बोलते रुका वो! "बोलो?" वो बोली, "मैं..मैं..." बोला वो, "बोलो, बोलो?" वो बोली, "मैं..मैं..प्रेम करता हूँ तुझे बुधवि" बोला गया! बोला गया वो पागल मंगल! 

और वो! वो! जैसे उन्मत्त हो गयी ये सुनकर! चाहती, तो प्रकृति को वहीं आती 

चाहती, तो सभी ऋतुएँ, वहीं बहार ले आती! चाहती, तो स्वर्ग उस मंदिर में आ, बसेरा कर लेता! लेकिन उसने! उसने तो मंगल को जकड़ लिया अपने बाहपाश में! और नहीं छोड़ा! नहीं छोड़ा! मानवीय प्रवृति में, उसको चूम डाला! कौन सा औघड़! कौन सा औघड़ नहीं चाहेगा ऐसा! एक एक! लेकिन मंगल! तू धन्य है। महा-धन्य! तुझ पर तो, साक्षात उस वृषवाहन की कृपा है! तुझे, कौन डिगाए! मंगल! तू तो देव हो गया! तुझे नमन! नमन मंगल नमन! मित्रगण! उसने उसको भुजाओं में भरा, और करा दिया ब्रह्माण्ड-भमण! लेकिन! वो मंगल तो, उसके वक्ष में, सर छिपाए, आँखें बंद किये, बस उस बुधवि के प्रेम में कैद था! कैद!! एक, प्रेम कैद! "मुझसे प्रेम करते हो मंगल?" फिर से पूछा उस महा-विकराला ने! "हाँ! हाँ बुधवि, प्रेम! प्रेम करता हूँ तुझसे!" वो बोला, मित्रगण! उस महायक्षिणी की, आँखें, अंतःउन्माद से बंद हो गयी होंगी। शीतल बयार, बह गयी होगी! वो, महा-तामसिक, महा-रौद्र, महा-कुपिता, आँखें बंद कर, मंगल के उस प्रेम-सागर में, आकंठ डूब गयी होगी! न रहा होगा बस में, अपने आप रहना! कोई धूल का कण! पर्वत से कह रहा हो, कि मैं तेरा ही अंश हूँ! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और वो पर्वत! खुद चल के आये और उस कण को, आत्मसार कर ले! वाह मंगल! कम से कम, मैं नहीं कर सकता ये! मैं, प्रपंची! सतत आगे बढ़ने को लालायित! तेरा मुकाबला? 

कैसे करूँगा मंगल? कैसे?? मंगल, उसके वक्ष में सर घुसाये बैठा था! हटा, "बुधवि?" बोला वो! "बोलो?" वो बोली, "कभी...मेरा साथ न छोड़ोगी न?" वो बोला, ये कैसा सवाल? जो युग बदल दे? कहाँ एक मानव, 

और कहाँ एक महा-यक्षिणी!! "नहीं! नहीं छोडूंगी तुम्हे!" बोली वो! मंगल! मंगल से रहा नहीं गया! वो अपनी पुरुष-प्राकृत के अधीन था। लेकिन, जा लिपटा उस से! "मैं मर जाऊँगा तेरे बिना बुधवि, मुझे मार डालेंगे ये लोग!" वो, रोते रोते बोला! "मंगल! मंगल!" वो बोली, मंगल ने सर उठाया! "मंगल, मैं तुम्हारे बिना कुछ नही!" बोली वो! अरे वाह! वाह मंगल! प्रेम हो, तो तेरे जैसा! "बुधवि?" वो बोला, "हाँ?" बोली वो! "भूख लगी वो बोला, वो मुस्कुराई! 

और अगले ही क्षण! अगले ही क्षण! जो चाहता था खाना, सब लग गया! भोला मंगल, नहीं समझ सका कुछ भी कैसे समझता! 

बस, मैं और आप समझ सकते हैं। खाना खा रहा था मंगल! "बुधवि?" बोला वो, "बोलो?" बोली वो, "मेरे संग खाना कभी न खाओगी?" बोला वो, "क्यों नहीं?" वो बोली, मित्रगण! एक, महा-यक्षिणी को, उस पागल मंगल ने, अपने हाथ से खाना खिलाया! कैसा? ऐसा वैसा नहीं? अपना झूठा! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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ओह! मैं उठा! नहीं हुआ बर्दाश्त! बाहर आया! 

आँखों से आंसू बह निकले! शर्मा जी, बाहर आये, अपनी आँखें पोंछते हए! मुझे देखा, और मेरे आंसू पोंछे! 

आंसू बहाता रहा, मेरे दिल में, कहीं टीस थी, बहुत दर्द दिया उसने! मैं बाहर आ गया था, मुझे अपने आंसू न रुक सके थे, बहुत देर से मैं उस सैलाब को थामे जा रहा था, कंक्रीट भरे जा रहा था उस बाँध मैं, लेकिन बाँध थामे न थमा! तौड़ ही दिया उनके प्रेम भाव ने मेरा वो बाँध, उस मंगल की वो निश्छलता, और उस महायक्षिणी का अटूट प्रेम, भ ले गया था मेरा वो बाँध! शर्मा जी आये थे मेरे पास, उन्होंने अपना चश्मा उतारा था, रुमाल से पोंछा था, लेकिन, उस से पहले, उन्होंने अपने आंसू पोंछे थे,आंसू मैं ही नहीं, वहाँ बैठे, सभी बहा रहे थे, बाबा योगनाथ, बार बार भावुक हो जाते थे, बाबा अवधू, सर झुलाये, मेरी तरह बाँध में कंक्रीट भरे जा रहे थे। लेकिन, बाँध बंधे नहीं बंध रहा था! मैं जिसे एक मज़ाक समझ रहा था, अब तो मेरे ही गले की फांस बन गया था! न निगले ही बने और न बाहर निकाले ही! मैंने और शर्मा जी ने कोई बात नहीं की, शब्द ही नहीं थे, हम तो दोनों ही, 

उस मंदिर में बैठे थे, जहां वो फूल लगे थे, रंग-बिरंगे फूल। वो ज़मीन, जो अब सिंच रही थी उनके अथाह प्रेम से! और वो मंदिर, जो अब वास था उस अमर पेम का! हम वहीं बैठे थे, एक


   
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श्रीशः उपदंडक
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कोने में, और टुकुर टुकुर, जैसे उन्ही दो प्रेमियों को देखे जा रहे थे! उनमे से कोई कम नहीं था! एक तो वैसे ही पागल था, और उस पागल की वो प्रेमिका, वो तो अब्बल दर्जे के पागल थी! कैसे एक पागल पर रीझी थी! वो भी, बिन किसी मांग के! ऐसा प्रेम मैंने कभी नहीं सुना था! सुना तो छोड़िये, कल्पना भी नहीं की थी! बड़ी हिम्मत कर, मैं और शर्मा जी अंदर गए! बाबा योगनाथ जैसे हमारा ही इंतज़ार कर रहे थे। हमें देखा, तो अपने पाँव ऊपर किये, दीवार से लगे, और कमर के पीछे तकिया लगा लिया। हम भी आ बैठे थे, और फिर से कहानी सुनने के लिए, एक बार फिर से बाँध की मरम्मत कर दी थी! तो उस महायक्षिणी को, अपने हाथों से खाना खिलाया था उसने, वो भी अपनी जूठन! और देखिये, उस महायक्षिणी ने, वो भी खाया था! बड़े बड़े साधकों को छकाने वाली वो महायक्षिणी एक मानस के हाथों से खाना खा रही थी! कैसा विचित्र दृश्य रहा होगा वो! कल्पना करते ही, शरीर से फुरफुरी छूटने लगती है! मित्रगण! वे डूबे रहे आकंठ उस प्रेम में! वो दोपहर से पहले आती, भोजन कराती, वस्त्र देती, साफ़-सफाई करती,और चली जाती, औ फिर संध्या समय से पहले, फिर आती, और वो मंगल, उसका इंतज़ार करता! रास्ते को निहारता रहता! रास्ते तक जाता, लेकिन फिर कुछ समझ नहीं आता, तो वापिस आ जाता, सोता तो चेहरा वहीं रखता! कि आँख खुले तो रास्ता दिखे! इतना भोला, कि उस बुधवि के ये कहने पर भी कि जब स्मरण करोगे वो आ जायेगी, 

उसका इंतज़ार करता! उसको इस इंतज़ार से बल मिलता! प्रेम और गाढ़ा हो जाता! उस शाम, जब वो आई तो, आकाश में बादल छाये थे, भोजन कर लिया था उस मंगल ने, मंगल ने, कुछ टूक उसको भी खिला दिए थे। और बर्तन आदि समेटने के बाद, उसके घुटने पर सर रखे, लेटा हुआ था मंगल! अचानक ही बरसात हुई! लेकिन वे भीगे नहीं! मंगल ने हाथ बढ़ाया, तो कोई बूंद नहीं! वो चौंका, हतप्रभ था, कि बारिश क्यों नहीं गिर रही उस पर! 

और अगले ही पल, वो बारिश में नहा बैठा! बहुत हंसी! बहुत हंसी वो मंगल को ऐसा करते देख! मंगल ने भी, उसको खींचा, हाथ पकड़ कर, और बारिश में नहला डाला! वो बालकों की तरह से चिहकता! खुश होता! उसके केश हटाता उसके चेहरे से! और खेलता उसके संग! उसको खींचता, भिगोता, और खुद भीगता! मंगल को हँसते देख, खुश देख, वो बहुत खुश होती! छाती तो मेघों का सीना फाड़ देती! पल भर में, मेघ नदारद हो जाते। लेकिन नहीं, बारिश में उसको अच्छा लगा! मंगल का उसको छूना, खींचना, उसके केश उसके माथे से, चेहरे से हटाना, बहुत अच्छा लगा उसे! मंगल उसको बाहों में भरता, उसको उठाने का प्रयास करता, उसके बदन से चिपक जाता जब बरसात का ठंडा पानी उस पर गिरता! और 

वो! वो उसको जैसे अपने बदन में आश्रय देती! छिपा लेती थी उसको अपने अंदर ही! जब बिजली कड़कती, तो डर के मारे अपन सर छिपा लेता था उसके वक्ष में! और वो 

महायक्षिणी, एक मानस की इस सहजता से, विवश हो जाती! उसको चूमती! उसका माथा, उसका सर, उसके हाथ! और वो मंगल, ऐसा ही करता! महायक्षिणी इस मानस के प्रेम में, बह गयी थी, भूल जाती थी अपना अस्तित्व! यही तो प्रेम है! अपने आपको भूलना! भूल जाना, अपने आप से ही अनभिज्ञ हो जाना! वो प्रेम, प्रेम ही क्या जिसमे 'मैं' शेष रहे! नहीं! प्रेम में बस,


   
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श्रीशः उपदंडक
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'मैं नहीं हो, तो प्रेम, प्रेम होता है! यही है प्रेम, यदि मैं गलत है, तो गलत ही सही! उस बरसात में, ठंडक थी, और मंगल काँप जाता था कभी कभी! जब भी काँपता, तो अपने बदन से लगा तो उसको उष्णता प्रदान करती! वो चिपका रहता उस से! और यही चिपकन, उस महायक्षिणी को, इतना दूर ले आई थी! अंततः बारसिह कमज़ोर पड़ी, और मंगल भीग गया था बिलकुल! भीगी तो वो भी थी, लेकिन मंगल के लिए मात्र! मंगल उस से चिपका खड़ा था! काँप रहा था, कि प्रकाश कौंधा! और एक कक्ष बना! वे कक्ष में खड़े थे! अब कोई पानी नहीं था वहां, कोई बदन गीला न था, लेकिन मंगल, अभी तक काँप रहा था! मनोभाव! महायक्षिणी ने, नहीं किया उसको अलग। अपने से अलग नहीं किया। और मंगल का बदन, उसी उष्णता सोखता रहा! और जब आँख खुली, तो सर पर एक छत थी! एक कक्ष में था वो! वो बाहर भागा! कक्ष को देखा, और अंदर आया! बाहर खींचा उसने हाथ पकड़ कर उस बुधवि का! "बुधवि! बुधवि! देख! देख! कक्ष!" वो बोला, "हाँ, कक्ष है!" वो बोली, "ये, हमारे लिए है!" वो बोला, "हाँ! हमारे लिए!" वो बोली! मित्रगण! ये कक्ष आज भी है वहां, लेकिन दीखता नहीं है। देखने के लिए, नेत्र पोषित होने 

चाहिये! और आप देख भी लो, तो अंदर प्रवेश नहीं आकर सकते आप, क्यों? इसका कारण बाद में लिखूगा! मैं क्या, कोई भी, कोई भी नहीं घुस सकता इस कक्ष में ये मंगल का कक्ष है! उन दोनों का कक्ष! हाँ, सन बहत्तर से पहले, कुछ लोगों ने यहां एक कक्ष अवश्य देखा था! पत्थरों से बना एक कक्ष! बड़ा सा! 

और मंगल! नहीं पता उसे! किस ये कक्ष कहाँ से आया! किसने बनाया! कुछ नहीं पता। देखा है ऐसा पागल कहीं? देखा है? मैंने तो कदापि नहीं! और शायद, इस जीवनकाल में, कभी देख भी न सकूँ! 

बाहर ले आया था उसे वो! कक्ष को निहार रहा था! एकटक! "बुधवि! चल, अंदर चल!" वो बोला, 

और ले गया खींच कर उसे अंदर! अंदर गया, तो कपड़ा बिछा लिया था उसे! "आ, बैठ जा!" बोला वो! वो बैठ गयी। "बुधवि, तुझे एक जगह ले जाऊँगा मैं!" वो बोला, "कहाँ?" उसने पूछा, "इस जंगल में, है एक जगह" वो बोला, "कैसी है?" बोली वो! "बहुत सुंदर, जब मैं घर से चला गया था तो गया था वहाँ!" वो बोला, वो मुस्कुराई! "तालाब?" बोली वो! वो चौंका! "तुझे कैसे पता?" पूछा उसने, वो फिर से मुस्कुराई! "पता है मुझे!" वो बोली, वो चुप! "हाँ वही, तूने देखा है वो?" फिर से पूछा, "नहीं, मुझे दिखाओगे?" बोली वो! "हाँ, कल, कल दिखाऊंगा!" वो बोला, "मैं चलूंगी" वो बोली, "हाँ, चलना" वो बोला, लेट गया था वो उसके बाद! बातें करते करते! लेटा, तो अपने आप, सर रख लिया बुधवि के घुटने पर! बुधवि, सर पर हाथ फिराती रही उसके, और वो पागल मंगल, सो गया! बहुत देर बीती! बहुत देर! 

और जब जागा, तो भोजन तैयार था उसका! 

"आओ, भोजन करो!" वो बोली, "हाँ, भूख लगी है" वो बोला, अपने हाथों से, उसको भोजन कराया उसने! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और मंगल, एक एक कौर खाता रहा!! उसकी आँखों में देखते हए! भोजन हो गया! फिर हुई रात्रि! 

और मंगल, उसके संग, चिपक कर, सो गया फिर! सारी रात मेघ गरजते रहे! लेकिन, वो मंगल, इस दीन-दुनिया से दूर, उस बुधवि के आलिंगन में कैद, बेखबर सोता रहा। 

सुबह हुई! वो जागा! बुधवि को जागते देखा! "तू फिर नहीं सोयी?" पूछा उसने, "अभी जागी" वो बोली, "अच्छा! मैंने सोचा कि नहीं सोयी!" वो बोला! बाहर गया, मौसम साफ़ था! और तभी, कुछ लोग आते दिखे उसे! अंदर आया। "तू अंदर रहना! कोई आया है" वो बोला, "ठीक है" वो बोली, 

और जा बैठ मंदिर के अहाते में वो! लोगों ने प्रणाम किया उसे! उसने भी किया! उसने पहचाना उन्हें! उसके गाँव के लोग! उसका बड़ा भाई! वही आया था, कुछ और लोगों के संग! लोग हैरान थे उस मंदिर को देख कर! मंगल बाहर आया तो उन चार लोगों को देखा! दो उसके बड़े भाई थे और दो अन्य रिश्तेदार! 

वे कुछ ज़मीन और खेतों के मामले पर बात करने आये थे,खेती उसको करनी नहीं थी, ज़मीन उसको चाहिए नहीं थी, इसीलिए उसने मना कर दिया, और लगा दिया अंगूठा उन्होंने जहां जहां कहा! आधी आधी ज़मीन बड़े भाइयों के नाम कर दी! अबरहा सहा रिश्ता भी समाप्त कर दिया था उन कागज़ों ने! भाई खुश हुए और मंगल भी खुश हुआ, अब वो नियावी तो रह नहीं गया था, दुनिया में मन नहीं लगता था उसका! भाइयों का काम हुआ तो वे चले वहां से, अन्य रिश्तेदार भी चले वापिस! लेकिन सब हैरान थे उस मंगल को देखकर, अकेले में भी रहते हए, किस तरह से रूप-रंग निखर आया था उसका, देह कैसी शिला समान जैसी हो गयी थी! कौन तो उसको खिलाता है और कौन उसे पिलाता है! खैर, 

काम तो हो ही गया था, अब मंगल जहां मर्जी रहे, कोई चिंता नहीं, एक दिन यहीं प्राण गंवा देगा, तब कि, तब देखी जायेगी! मंगल भी उठकर कक्ष में आ गया! कक्ष, जो मात्र मंगल 

और उस महायक्षिणी को ही दिखता था! बधवि बैठी थी वहीं, जैसा वो छोड़ के गया था उसको! "कौन थे?" पूछा उसने, "बड़े भाई" वो बोला, "किसलिए आये थे?" पूछा, "ज़मीन नाम करवाने अपने" वो बोला, "कर दी?" पूछा, "हाँ, मेरे किस काम की" वो बोला, मुस्कुरा गयी वो! "बुधवि?" बोला वो, "हाँ?" वो बोली, "चलो तुम्हें घुमा के लाऊँ!" वो बोला, "वहीं? तालाब पर?" पूछा उसने, "हाँ, तालाब पर, बहुत अच्छी जगह है" वो बोला, "चलो" बोली वो! "चल, खड़ी हो वो बोला, और अब दोनों खड़े हुए! महायक्षिणी! चाहती तो, क्षण भर में पहुँच जाती उस तालाब के पास, मंगल को लेकर! लेकिन मंगल के साथ पैदल चलना मुनासिब समझा उसे! वाह री बुधवि! कैसे कैसे मान रखे तूने उस पागल के! जंगल खूद कर, मंगल चलता रहा, पीछे पीछे वो बुधवि, बुधवि का हाथ पकड़, आगे ले जाता था उसे, रास्ते के गड्ढों से और काँटों से, बचा बचा के ले जाता रहता! "तू थकी तो नहीं?" पूछा उसने, "नहीं, तुम?" उसने पूछा, "नहीं, मैं भी नहीं" वो बोला, मंगल चलता रहा, चलता रहा, कई घंटे बीत गए! और फिर सामने


   
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श्रीशः उपदंडक
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दिखाई दिए वो तालाब! एक छोटा, और एक बड़ा! "वो देख बुधवि! वो देख!" खुश हो कर बोला वो! "हाँ! आ गए हम!" वो बोली, 

"आ, मैं दिखाता हूँ, मैं कहाँ सोता था!" बोला वो! 

और चल पड़ा आगे आगे! जाकर, एक पत्थर के पास रुका, पत्थर पर हाथ मारा और कोहनी टिकाते हए खड़ा हो गया! "ये देख, यहां सो जाता था मैं!" वो बोला, मंद मंद मुस्कुराती रही वो बुधवि! उस पत्थर पर, वैसे ही जा लेटा, आँखें बंद कर, जैसे वो उस समय लेटा करता था! घर की याद आ गयी उसे, माँ, बाप, बहनें। सब याद आ गए! कैसे पिता जी ने गुस्से में उसको बर्तन फेंक के मारा था, और कैसे माँ ने पूरा घर आसमान पर उठा लिया था! बहनें कैसे व्याकुल 

थीं! सब याद आ गया उसको! आँखें खोली उसने, सामने बुधवि नहीं थी! चौंक के खड़ा हुआ! "बुधवि?" वो चिल्ला के बोला, 

और खड़ा हो गया! सामने देखा, बुधवि कमर तक,जल में खड़ी थी, पूरा जल दूध जैसा निर्मल हो चुका था, बड़े बड़े कमल खिल चुके थे उसमे, हंस, अपने अपने जोड़ों में जल-क्रीड़ा करने लगे थे! जल उस महायक्षिणी के ताप से वाष्पीकृत होने लगा था, और ठंडी धुंध के रूप में,जल पर मंडरा रहा 

था!! मंगल कुछ न समझ सका! "बुधवि?" बोला वो, बुधवि पलटी! उसको देखा! और हाथों से इशारा किया जल में आने का! मंत्रमुग्ध सा मंगल, जल में उत्तरता चला गया! पहुंच गया अपनी बुधवि तक! जिस स्नान-संग के लिए महायक्ष भी तरसा करते हैं, वो एक मानव को मिला था। वो भी एक सरल मानव को! सरल शब्द, बहुत सरल है, अर्थ बहुत ही विरल! जो इस विरलता को समझ लेता है, वही सरल होता है। मंगल ने वो विरलता प्राप्त कर ली थी! उसको एक महायक्षिणी का सरंक्षण ही नहीं, उसका अथाह प्रेम भी मिला था! जो, एक असम्भव सी बात है! मुझे तो असम्भव ही लगती है। जहां तक, मैं जानता हूँ! हाँ, तो मंगल जल में उतर गया था! जा पहुंचा था बुधवि के पास! बुधवि ने उसका हाथ पकड़ा, और खींच लिया अपने अंदर! और उतर गयी गहराई में! पल भर में, लोप हो गए थे वे दोनों! अब वहाँ जल था मात्र, वो बड़े बड़े सफ़ेद और प्याजी रंग के से कमल के फूल,जो अभी तक हिल रहे थे जल में, जहां से वे पानी में उतर गए थे दोनों! हंसों 

के जोड़े, जैसे वही देख रहे थे! अगले ही पल, वे दोनों जल से निकले, मंगल का वर्ण सुनहरी सा हो गया था! आलिंगनबद्ध बुधवि, उसको जकड़े हुए बाहर निकली थी, और धीरे धीरे वलय जैसे घूमते हए, जल से बाहर आ गए थे। वे ऊपर की तरफ उठे! अचानक से महायक्षिणी का रूप बदला, वो अपने सर्वश्रेष्ठ यक्षिणी रूप में परिवर्तित हुई! सूर्य सा प्रकाश फूटा उसकी देह से, मुख-मंडल ऐसा, कि सूर्य भी भरमा जाएँ! प्रेम तरंगें जंगल में फैल गयीं! मोर चहचहा उठे! पक्षी जैसे नींद से जाग गए थे! जल में मछलियाँ सनहरी हो, उछलकूद करने लगी थीं। जल से धुंध उठी और घेर लिया उन्हें! वे फिर से नीचे आये! और जब धुंध छटी तो फिर से कमर तक वे दोनों जल में ही खड़े थे! मंगल अभी तक, उस से गले लगा खड़ा था! जल, उसको छींटे दे रहा था! जैसे बरसों तरसा हो इसके लिए वो! और फिर मंगल अलग हुआ! "आओ, बाहर चलें!" वो बोला,


   
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श्रीशः उपदंडक
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बुधवि मुस्कुराई, और जल से बाहर चले दोनों! जब बाहर आये, तो वस्त्र भी गीले नही थे उनके! जल प्रकृति भूल जाता है किसी यक्ष के समक्ष! वही हुआ था। वे आ गए थे बाहर! मंगल अपने वस्त्र व्यवस्थित कर रहा था, कि उसकी नज़र बुधवि पर पड़ी! एक अलग सी नज़र! एक अलग सा भाव! एक ऐसा भाव, जिस से अनभिज्ञ था वो मंगल! आज तक! ऐसा भाव! लेकिन पढ़ नहीं सका!! बांचने की कोशिश तो की, लेकिन नहीं बांच सका! "बुधवि?" वो बोला, बुधवि तो पाषाण सी बनी, उसको ही देखे जा रही थी! एकटक! आँखों से आँखें मिलाते हुए! मंद मंद मुस्कुराते हुए! "बुधवि?" वो फिर से बोला, कुछ न बोली बुधवि! अब, गंभीर हो गया मंगल! घबरा गया! सामने गया उसके, आँखों को देखा, फिर उसकी भुजा पकड़ी! हिलाया, एक बार......दो 

बार..... 

"बुधवि?" वो फिर से बोला, बुधवि तोडूबी थी! सच में डूबी थी! 

लेकिन मंगल। मंगल अभी किनारे पर ही था। एक छींटा भी नहीं पड़ा था उसे! "बुधवि?" वो फिर से बोला, 

और...... 

"बुधवि?" अबकी बार गले में सांस अटकी उसकी, ये कहते कहते! उसको हिलाये, आँखों के सामने, हाथ लहराए, उसे माथे को छुए, और वो बुधवि, एकटक उसी को देखे। वो उसको देख रही थी। उसका देखना ऐसा था कि स्वयं काम-पर्वत का पौरुष भी चटक जाए! और फिर, ये तो मात्र एक तिनका था, मंगल, हाँ, एक तिनके समान ही तो था! फुक जाता एक ही आह में। राख हो जाता! ऐसी नज़रें। मंगल, बेचैन हो उठा था! वो मुस्कुरा तो रही थी, लेकिन कुछ बोल न रही थी! "बुधवि? कुछ बोलो न?" बोला मंगल, डरता हुआ! 

और तभी, जैसे तन्द्रा टूटी उस बुधवि की! भाव खत्म हो गया, धुंध छट गयी थी, आँखें अब उस से हट गयी थी, और अब बंद थीं, लेकिन मुस्कराहट, अभी भी थी होंठों पर! "बुधवि?" बोला मंगल! "हाँ?" वो बोली, 

आँखें बंद किये हुए ही! "आँखें खोलो?" वो बोला, "क्यों?" उसने पूछा, "खोलो?" वो बोला, 

और तभी आँखें खोल दी उसने! मुस्कुराहट अब हंसी में बदली! उसको हँसता देख, मंगल भी हंस पड़ा, भले ही एक फीकी सी मुस्कान के साथ! "क्या हुआ था तुझे?" पूछा अब मंगल ने! "कुछ नहीं!" वो बोली, "बताओ तो?" वो बोला, "कुछ नहीं!" वो बोली, "मैं डर गया था............." वो बोला, नज़रें नीचे किये! "क्यों डर गए थे?" पूछा उसने, "मेरी बुधवि मेरे से बात नहीं कर रही थी" वो बोला, सर नीचे किये हुए ही! मेरी! मेरी बधवि! आकाश गरज जाता। भूमि फट जाती! यदि वो अपना भाव जाहिर कर देती तो ये शब्द सुनकर! लेकिन उसने झट से उसको खींचा अपनी तरफ! उसका चेहरा हार्थों में लिया, और चिपका लिया अपने चेहरे से। फिर, उस से आलिंगनबद्ध हो गयी वो! 

सागर बह चला था बुधवि में! प्रेम की लहरें, किनारे लांघने लगी थीं! उस शौर में, फिर भी, 

.. 


   
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श्रीशः उपदंडक
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.. 

वो धड़कनें सुन सकती थी, उस मंगल की! काफी देर बीती उन्हें ऐसे ही! और फिर मंगल हटा! "अब चलें बुधवि?" बोला वो! "जाना चाहते हो?" पूछा उसने, "हाँ" वो बोला, "चलो फिर वो बोली, 

और फिर मंगल, उसका हाथ पकड़, चलता रहा, चलता रहा, जंगल से बाहर की तरफ! पहुँच गए वो उस मंदिर में और फिर उस कक्ष में। साँझ हो ही चली थी, मंगल बाहर बैठा था, निहार रहा था प्रकृति को! बुधवि आई वहाँ, बैठ गयी संग! "क्या सोच रहे हो?" पूछा उसने! "कुछ नहीं" वो बोला, "कुछ तो?" पूछा उसने, "कुछ नहीं बुधवि" बोला वो, उसका हाथ पकड़ते हुए! "बताओ मुझे?" वो बोली, 

चेहरा गंभीर था मंगल का! 

और ये देख, बुधवि और अधिक परेशान हो उठी थी! "बताओ मुझे? क्या बात है?" बोली वो, बेसब्र सी! "बुधवि?" वो बोला, रुआंसा सा! "हाँ? बोलो?" वो बोली, "सदा संग रहोगी मेरे?" बोला वो, ये कैसा सवाल?? उस महायक्षिणी को भी अंदर तक चीर गया था ये सवाल! "हाँ, हमेशा!" वो बोली, "जब मैं मर जाऊँगा तब भी?" बोला गया वो! बिना रुके! महायक्षिणी! क्या करती! कैसे सुना होगा ये सवाल मंगल का! पागलों वाला सवाल तो नहीं था ये! वहीं सोचता हूँ मैं! वही कि क्या सोचा होगा उस बुधवि ने, ये सवाल सुनकर। बस, यही तो उसके बस में नहीं! ये देह तो नश्वर है, भंगुर है, माटी से उत्पन्न हुई,माटी में ही रह जायेगी! 

.. 

पृथ्वी कभी अपना मूल नहीं छोड़ती, हाँ उधार अवश्य ह दिया करती है कुछ समय के लिए, लेकिन वो लौ, वो ज्योत, उसकी भी नहीं! लौ के बंद होते ही, ये पृथ्वी, अपने तत्व वापिस ग्रहण कर लिया करती है, किसी और को उधार देने के लिए! ये कैसा सवाल था! कैसा बेबाक सवाल! कुछ नहीं कर कि वो! यहां बेबसी साफ़ झलकी! और वो चिपक गयी उस मंगल से! जैसे कोई मानव-स्त्री समर्पित भाव से अपने पुरुष से चिपका करती है! उस समय, वो एक 

महायक्षिणी नहीं, एक क्षणभंगुर मानव-स्त्री ही थी! अश्रु होते, तो सागर बन जाता, क्रोध आता, तो धरा भी जल जाती! नहीं दे सकी थी उत्तर उसे! कोई उत्तर था ही नहीं उसके पास! "बताओ बुधवि?" एक और भाला मारा पूछा कर ये सवाल फिर से! भाला अंदर तक बींध गया उसे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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जकड़न और गठित हो गयी उसकी भुजाओं की! लेकिन अब आँखें न मिला सकी उस से! एक महायक्षिणी अब पस्त थी उस तिनके स्वरुप मानव से! और उसके उस वॉल प्रेम के कारण! "बुधवि?" बोला मंगल, और हटाया उसको! 

आँखें देखीं, तो आँखों में बेबसी बसी थी उसके! मंगल मुस्कुराया! और उसका चेहरा हाथों में लिया! "मैं तो, मर के भी साथ रहँगा तुम्हारे!" वो बोला, एक और भाला! इस बार तो सीना फाड़, आरपार ही हो गया। सांस लेने को हृदय तड़प उठा! एक मानव! और ऐसा वचन! न रोक सकी खुद को! फिर से चिपट गयी उस मंगल से! मंगल उसके केशों में हाथ फिराता रहा! "लेकिन तुमने जवाब नहीं दिया बुधवि?" बोला मंगल! कोई उत्तर नहीं! मंगल को आशा भी नहीं थी उत्तर की! उत्तर आता भी तो, उसे समझ नहीं आता! "बुधवि?" बोला वो! 

और अब उठी वो उसके सीने से! नियंत्रित किया अपने आपको! 

आँखों में देखा! और दिया एक वचन! वचन! जिसे सुनकर मैं तो जैसे पाताल का कैदी हो गया! ऐसा वचन! जिसके लिए अनेकों 

जन्म लेने पड़ते हैं। पूर्णता का वचन। इस पूर्णता के बाद, वो जो चाहेगी, वही होगा! वही होगा! कोई टाल नहीं सकता! पूर्णता! ब्रह्म-मोक्ष! आदि-मोक्ष! कौतुवर्य-मोक्ष! पर्ण-मोक्ष! ये क्या दे दिया तूने ओ महायक्षिणी? 

और हम? 

हम जोधा रहे हैं, इस संसार में , वो? उसका क्या होगा? 

क्या मोल? 

जानता हूँ, सत्य जानता हूँ! अनभिज्ञ तो नहीं था, पर, अब जान गया हूँ! कोई विरलता को प्राप्त नहीं करता! हम भी नहीं! कोई नहीं! मानता हूँ! हाँ! है मंगल इस योग्य! प्रणाम है तुझे हे महायक्षिणी! प्रणाम! मित्रगण, इतना सुन, मैं फिर से उठ गया था वहाँ से! मंगल तो, बहत आगे, बहुत आगे पहुँच चुका था! मेरी कल्पना से भी, कहीं, कहीं आगे! मैं उठकर चला आया था वहाँ से! सीधा अपने कक्ष में, पीछे मुड़के भी नहीं देखा था, शायद 

अपने आपे में नहीं था मैं उस समय! मेरा दिमाग कुन्द पड़ चुका था! कमरे में आते ही, धम्म से कुर्सी पर बैठ गया, दिमाग में न जाने क्या फितुत्र आये जा रहे थे। कभी वो मंदिर, कभी वो मंगल, कभी वो महायक्षिणी, कभी वो तालाब, कभी वो बरसात और भी न जाने क्या क्या! तभी शर्मा जी ने प्रवेश किया, वे भी चुप थे, चुपचाप से पानी पिया उन्होंने, और बैठ गए, मेरा दिमाग खराब सा हो चला था, शब्द निकल नहीं रहे थे, ये दुनिया बेमायनी सी लग रही थी, सबकुछ बेमायनी! और सच कहूँ तो मुझे उस मंगल से, उस मंगल के मुस्तक़बिल से रश्क़ होने लगा था! न जाने कैसा अजीब सा ही मुस्तकबिल लिखा लाया था ऊपरवाले से! कभी लगता वो इंसान नहीं था, फिर लगता इंसान ही था, फिर लगता, कोई श्रापित यक्ष होगा, फिर लगता नहीं, वो साधारण सा ही मनुष्य था हमारी तरह! इसीलिए रश्क ने मार रखा था मुझे! तभी विष्णु आया अंदर, "सामान ले आऊँ?" बोला वो, "हाँ, ले आओ" मैंने कहा, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मन सही नहीं था, न चाहकर भी वो मंदिर मेरे सर में घंटे बजा रहा था। थोड़ी देर में सामान आ गया, और रख दिया उसने वहीं, पानी ठंडा था, काम बढ़िया हो जाना 

था तब। "लो, बनाओ शर्मा जी" मैंने कहा, वे उठे,और बनाने लगे, दो गिलास भरे, एक मुझे दिया और एक खुद ने लिया! "क्या कहते हो मंगल के बारे में?" मैंने पूछा, "कुछ नहीं कह सकता मैं, शब्द नहीं हैं। वे बोले, "हाँ, शब्द नहीं हैं, सच में ही मैंने कहा, "वो मंगल, बस मंगल ही था, एकमात्र बस एकमात्र" वे बोले, "सटीक कहा आपने" मैंने कहा, इस तरह से हमने चार चार गिलास खींच लिए, आज तो मदिरा भी फीकी ही लगी, कोई ज़ोर नहीं था उसमे, और न ही कोई टक्कर! उस महायखिनी का ताप था कि मदिरा भी पानी ही बन गयी थी! "उसको महा-मोक्ष मिल गया!!" मैंने कहा, "हाँ, निःसंदेह!" वे बोले, "बिन कुछ किये, मेरा मतलब,आयाम चढ़े" मैंने कहा, "हाँ, उसकी विरलता ही आयाम चढ़ गयी सारे!" वो बोले, "यही कारण है" मैंने कहा, हमने दो दो गिलास और खींचे, लेकिन अभी भी कुछ नहीं हआ था! वो घंटे अभी भी बज रहे थे! बार बार मेरे कल्पना द्वारा रचित वे दोनों मेरे सामने आ खड़े होते थे! और मैं विचलित हो जाता था! मन तो कर रहा था कि अभी भाग जाऊं उस मंदिर में, और खंगाल डालूं सारा मंदिर! मदिरा खत्म हो गयी, लेकिन वो घंटे बजने बंद नहीं हुए। मेरा सर फटने लगा था! मैं लेट गया! आँखें बंद की, लेकिन मेरा मन उड़े बार बार! मैं बार बार पकडूं, बार बार उड़े! न माने, भागे उस मंदिर तक! क्या करूँ? बड़ा बुरा हाल! शर्मा जी आँखें बंद किये, चुपचाप लेटे थे। 

आखिर में बैठना पड़ा मुझे! मैं बैठ गया! नींद बहुत दूर थी अभी! "क्या बात है?" शर्मा जी ने पूछा, "बेचैनी है बहत" मैंने कहा, "जानता हूँ" वे बोले, "नींद नहीं आ रही!" मैंने कहा, मैं उठ गया फिर वहां से, बाहर चला गया, रात हो रही थी, लेकिन ख्याल मेरे वहीं के थे। कल और सुनना था उस विषय में, न जाने क्या क्या और बचा था अभी, नींद उड़ाने को! मुझे बार 

बार वही महायक्षिणी याद आये! ऐसे वो एक साधरण सी स्त्री बन गयी थी अपने प्रेम के लिए! बस, इसी में मेरा दिमाग उलझ गया! कभी गुस्सा आता और कभी खुद पर ही हंसी 

आती! क्या हाल कर लिया था मैंने अपना!! आखिर में, कोई एक घंटे मग़ज़मारी करने के बाद, मैं आया वापिस कमरे में, शर्मा जी सो चुके थे, अब मुझे भी सोना था, लेट गया फिर, आँखें बंद की, और अपने खयालों से दो-चार हाथ करता रहा, बहुत देर तक उठा-पटक हुई, और आखिर में नींद ने दया दिखाई, और मैं 

सो गया! सुबह हुई, हम निवृत हुए, चाय-नाश्ता भी कर लिया! 

और जा पहुंचे फिर से बाबा योगनाथ के पास! उसन प्रणमा हुई, वे अभी स्नान करके आ रहे थे, हमें बिठाया, चाय आदि की पूछी तो बता दिया कि हमने चाय-नाश्ता कर लिया है, अब वे करें। उन्होंने चाय-नाश्ता किया, और फिर हाथ-मुंह धोये! फिर हमारा हाल-चाल पूछा, वैसे भी हमारी अब चाल ही ठीक थी, हाल तो बेहाल थे! बढ़िया हैं, खैर, कहना ही पड़ा। अब बाबा ने आगे कहानी बढ़ाई। और हमने अपने कान खोले,और लगा दिए बाबा के मुंह पर ही! अब मैं सुनाता हूँ आपको, मेरे अपने शब्दों में! उस रोज, दीवाली का दिन था, मंगल को तो दीवाली, होली मनाये बरसों गुजर गए थे! जो करते थे, तो बस उसकी माँ और पिता जी, वो बस, मिठाई


   
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श्रीशः उपदंडक
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खाया करता था, जो उसे दीवाली को मिला करती थी! बस, यही थी उसकी दीवाली! और कुछ नही और गाँव के कुछ लोग, उस पुराने मंदिर में भी आ जाया करते थे, पूजा-पाठ करने! अब वहां मंगल रहा करता था! तो उस दिन भी लोग आये, मंदिर की साफ़-सफाई देख, सभी भौंचक्के! एक पागल ऐसा भी कर सकता है। यही सोचते थे वो! उस दिन मंगल वहीं बैठा मिला उनको, मंगल को देखते, तो दांतों तले ऊँगली दबाते सभी! बातें भी करते! ये वही लोग थे, जो उसको भगाते थे, आने नहीं देते थे गाँव में! आज जो आये थे, उनमे से एक था मनसुख राम! वही बढ़ा मंगल की तरफ! "दीवाली नहीं मना रहा मंगल?" बोला वो, "मना रहा हूँ" बोला वो! "तो फिर मिठाई खिला?" बोला वो! अब बेचारा कहाँ से खिलाये मिठाई अभी सोच में ही पड़ा था मंगल कि, बुधवि आई,दोनों हाथों में, कपड़े से ढके दो थाल लेकर! 

दे दिए दोनों थाल मंगल को! मंगल ने थाल पकड़े, कपड़ा हटाया, तो ऐसी मिठाई थी, कि जिसे मंगल तो मंगल, उन गांववालों ने भी कभी देखा नहीं था, खाने की तो बात ही छोडो! "लो, लो मिठाई" वो बोला, 

और अब सभी गांववाले, जो आये थे, बढ़ा दिए हाथ! मंगल ने भर भर के मिठाई दे दी उन्हें! और जब मिठाई खायी, तो सबकी बोलती बंद! क्या बेहतरीन मिठाई थी वो! आज तलक सुंघी भी नहीं थी उन्होंने! खायी तो खायी, ले भी ली! गांववाले हैरान! "अरे मंगल?" बोला वो, "हाँ?" पूछा मंगल ने, "वो, तेरी औरत है?" पूछा उस से उसने, "हाँ, मेरी है" बोला वो, "क्या नाम है?" पूछा, "बुधवि" बोला गया मंगल! "कब किया ब्याह?" बोला वो, "पिछले बरस" बोला मंगल! "तूने ब्याह किया और बताया ही नहीं?" हंस के बोला वो मनसुख! अब आ गयी बुधवि वहां! वे पीछे हटे। "अब जाइए आप" वो बोली, उन्होंने अपने अपने गमछे संभाले,और चल दिए वापिस! और पीट दिया गाँव में ढिंढोरा! कि मंगल की औरत कमाल की है! क्या मिठाई बनायी है! आज दीवाली है, सबको खिलायेगा! और उसने ब्याह कर लिया है। मंगल की औरत, बहुत सुंदर है। न जाने कहाँ से उड़ा लाया है, आदि आदि। मध्यान्ह से पूर्व तक तो, भीड़ इकट्ठा हो गयी उस मंदिर में। लोग ही लोग, कुछ मिठाई खाने 

और कुछ उस औरत को देखने, जिसका नाम है बुद्धवि! और उस मध्यान्ह................ लोग इकट्ठे हो गए थे! कोई मंगल से बतियाता और कोई उस बुधवि को देखता, बुधविधूंघट काढ़े, मंगल के साथ ही थी! लोगों को उस दिन, मंगल ने तरह तरह की मिठाईयां खिलाई! लोग हैरान थे, चकित थे। लेकिन उनको पता था कि मंगल के पास कोई सिद्धि तो है, पक्का कोई सिद्धि! तभी तो इतनी सारी मिठाइयां खिलाईं थीं! कई लोग मंगल के हाथ जोड़ते, अपना दुखड़ा सुनाते और कई लोग उसको संदेह की नज़र से भी देखते! उस दिन, दीवाली मन गयी थी उन लोगों की तौ! जिसको भी खबर लगती, वो दौड़ा दौड़ा आता और मिठाई 

लेता! कोई बधवि को भी देखता! करीब से। बुधवि तो सब जानती थी। इसीलिए, मंगल के साथ ही रही वो! लोग चले गए फिर! साँझ ढल चुकी थी, और उस रात गाँव वालों ने, दूर से एक नज़ारा देखा! जीएस उन्होंने कभी नहीं देखा था! वो मंदिर, दूर, आज चमक रहा था! उस पर, असंख्य दीये जल रहे थे! एक अलौकिक प्रकाश फैला हुआ था उस मंदिर में! वो प्रकाश सारी


   
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श्रीशः उपदंडक
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रात बना रहा!और सुबह पाव फटते ही, बंद हो गया था! मित्रगण! चमत्कार छिपते नहीं। और खबर फैलते देर नहीं लगती! बाढ़ तो फिर भी देर में आएं, खबर, जंगल में आग की तरह से फैल जाती है। मंगल के चमत्कार की खबर, ऐसे ही दूर तक फ़ैल गयी थी। और जा पहुंची थी एक औघड़ के पास, सत्तर साल का वो औघड़, महाप्रबल था! रहने वाला नेपाल का था, एक से एक विलक्षण सिद्धियों को प्राप्त किया था उसने! और उसका नाम था, अंबर नाथ! अंबर नाथ न केवल प्रबल था, वो बहुत सी गूढ़ विद्याओं का महाजाता भी था! यक्षिणियां सिद्ध थीं उसको! गान्धर्वियां सिद्ध थीं उसको! जब ये खबर उस तक पहुंची, तो छाती पर सांप लोटने लगा उसके! ऐसा कौन आ गया? कौन है वो? कोई औघड़ है? अंबर नाथ ने बड़े बड़े औघड़ों को पानी पिलाया था! उनकी इहलीला ही समाप्त कर दी थी। उसने अपने एक साथी कंदक नाथ से सलाह-मशविरा किया! और ठान लिया कि वो वहाँ स्वयं जाएंगे! देखेंगे उस औघड़ को, जो ऐसा चमत्कार कर रहा है! वो उन दिनों गोरखपुर के पास ही था, वहीं ठहरा हुआ था, सभी औघड़ों में ख़बर फैल चुकी थी, कि बाबा अंबरनाथ, अब इस मामले में आगे आ गए हैं। अतः और किसी की हिम्मत नहीं हई! सभी रास्ते से हट गए! एक रोज, बाबा अंबर नाथ, अपने साथी बाबा कंदक नाथ के संग, चल पड़ा उस औघड़ को ढूंढने, मिलने उस से, देखें तो सही, कौन है ऐसा? कहाँ से पायी वो महा-सिद्धि? कौन है उसका गुरु? वो तो अब तक का सबसे बड़ा औघड़ है, अब दूसरा कौन आ गया? ऐसे ही कुछ उहापोह में और ऐसे ही कुछ सवालों के जाल में कैद! वो एक दिन चले, रात कहीं और ठहरे, और फिर चल दिए, उसी दिन दोपहर तक वे आ गए उस मंगल के गाँव! रात को मंगल के गाँव में ठहरे, यहां से उन्हें और जानकारियां मिलीं, कि वो औघड़ नहीं, एक पागल है! और इसी गाँव का है! ये बहुत सटीक खबर थी, बाबा अंबर नाथ, मंगल के घर गया, और सारी पूछताछ कर डाली! यही पता चला कि मंगल पागल है, लेकिन उसने जिस से ब्याह किया है, वो नहीं, वो ही देखभाल करती है उसकी! बाबा को खटका हुआ! एक पागल से भला कोई 

स्त्री क्यों ब्याह करेगी? न घर, न बार और न ही कोई कारोबार? ऐसा कैसे? क्या है ये मामला? अब पूछ लिया मंदिर का पता, और चल दिया वो औघड़ बाबा कंदक नाथ को साथ ले, उस मंदिर की तरफ। मंदिर दिखा उन्हें! ऊपर बना था, एक छोटा सा मंदिर! बाबा ने देख लड़ाई! और कुछ न 

निकला! कोई शक्ति न निकली वहाँ! न कोई इद्धि-सिद्धि! कोई चिन्ह नहीं! लेकिन बाबा ज़िद्दी था, ऐसे खेलों से भी परिचित था! चढ़ पड़ा ऊपर के लिए! 

जब बाबा ऊपर चढ़ा, तब मंगल अकेला ही बैठा था, भोजन कर लिया था उसने,और अब पानी पी रहा था। उसने बाबा को देखा और बाबा ने उसे! "अलख निरंजन!" बोला बाबा! मंगल ने प्रणाम किया उसको! बाबा ने प्रणाम स्वीकार किया! और तब मंगल ने बिठा लिया उनको वहीं! वे बैठ गए, बाबा कंदक नाथ, योजना के अनुसार, सारी देख क्रिया करता रहा! लेकिन कुछ न मिला था उसे! अजीब सी बात थी! लेकि बुधवि! वो अपना खेल, खेल रही थी! उसको सब पता


   
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