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वर्ष २०१२ जिला इलाहबाद की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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लेकिन कोई होता तो दीखता! "सामने आओ" वो बोला, रात का कोई एक बजा होगा! और इतने बजे गाँव से तो कोई स्त्री आएगी नहीं! उसने ये नहीं सोचा, सोचा कोई स्त्री आ गयी यही गलती से यहां! "घर चली जाओ वापिस" वो बोला, फिर से हंसी आई! खनकती हुई हंसी। "जाओ, तंग न करो" वो बोला, 

आवाज़ बंद! अब बैठ गया नीचे! और तभी किसी ने फूल मारा उसको फेंक कर! उसने फूल उठाया, फूल बहुत ठंडा था, उठा नहीं उस से! "तू गयी नहीं?" वो बोला, "कैसे जाती? तुमने ही तो बुलाया?" कोई स्त्री बोली! "मैंने बुलाया? मैंने कब बुलाया? झूठी?" वो गुस्से से बोला! "कब से बुला रहे हो मुझे तुम!" बोली कोई स्त्री! "न, मैंने नहीं बुलाया" वो बोला, "मुझे बुलाया, कि हिम्मत है तो सामने आओ मेरे?" वो बोली, 

अब दिमाग खटका! हाँ, ये तो बोल रहा था, रोज बोलता था वो! अब समझ गया वो! सब समझ गया! अब खड़ा हुआ! त्रिशूल उठाया! "सामने आ मेरे?" वो चिल्लाया! हंसी आई!! 

"नहीं आएगी?" वो बोला, 

और तभी मित्रगण! सामने एक स्त्री प्रकट हई! एक अत्यंत रूपवान स्त्री! साक्षात देवी जैसी! इस लोक में उस जैसा कोई नहीं! उसका स्वरुप दिव्य था, देह अलंकृत थी, ऐसे आभूषणों से, जिसकी कल्पना भी कोई नहीं कर सकता! मंगल नहीं हुआ प्रभावित! उसने आव देखा न ताव, फेंक मारा अपना त्रिशूल उस स्त्री पर! त्रिशूल जैस एही उसके हाथ से गया, आग के शोलों में बदल गया! राख हो गया! अब आया गुस्सा मंगल को!! "हत्यारिन?" वो चिल्लाया, 

और भाग छूटा उस स्त्री को मारने के लिए हाथ आगे करते हए! "मेरे बाबा को मारा! बाबा को मारा तूने?" वो बोला, 

और तभी पछाड़ खाके गिरा नीचे! उस रात, और कुछ नहीं हुआ! वो स्त्री, लोप हो गयी थी!! सुबह हुई, और मंगल के होश वापिस हुए। खड़ा हुआ, और ढूंढ मारा उसने उस स्त्री को आसपास! जब नहीं मिली, तो नीचे गाँव में चला गया। पूछताछ करता और चला जाता आगे! आखिर हत्यारिन मिल गयी थी उसको बाबा की, कैसे छोड़ता उसे! 

शाम हो आई। तक गया था मंगल! 

आ बैठा वहीं मंदिर पर! वो स्त्री, भूले न भूल रही थी उसको! तभी उसकी नज़र पड़ी आसपास! मंदिर साफ़ था! कोई भी गंदगी नहीं थी वहां! और आज ही आज में, वहाँ फूल लहलहा उठे थे! रंग-बिरंगे फूल! उसे हैरत हुई! भाग कर देखा उसने, हर जगह साफ़ थी, दीवारें नयी हो गयी थीं, मंदिर, जो जीर्ण-शीर्ण था, अचानक से ही भव्य हो उठा था। उसे बहत आश्चर्य हआ। और खुशी भी कि मंदिर की रौनक वापिस आ गयी है, अब भले ही कैसे भी हो! और अधिक दिमाग नहीं दौड़ाया उसने! और तभी, तभी देखा उसने, एक स्त्री चली आ रही थी, हाथ में कुछ सामान लिए, वो खड़ा हो गया, आया नीचे की तरफ, उस स्त्री को देखा, उस स्त्री ने चेहरा ठका था अपना प्रणाम हुई! उस स्त्री ने एक इलिया कर दी आगे, अपने हाथों से, "इसमें क्या है?" पूछा मंगल ने, "भोजन" वो बोली, "किस गाँव से है तू?" पूछा उसने, बात टाल गयी, बोली, भोजन कराने आई थी, भोजन कर लो, उसको दूर जाना है। मंगल ने इलिया नीचे रखी, कपड़ा हटाया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और भोजन किया शुरू! कुछ याद आया! एक स्वाद, माँ के हाथों से बने भोजन का स्वाद! कभी उस खड़ी हुई औरत को देखे, और कभी भोजन को! पागल मंगल! भोला! बेचारा! मंगल खाना खा रहा था, कुछ याद आते ही, आँखों से आंसू निकल पड़े थे, आँखों से बहते वो आंस, नाक के साथ साथ जाते हए, होंठों पर आते और उनका स्वाद भी ले लेता था मंगल! आज माँ की बहुत याद आरही थी उसे, कैसे प्यार से खाना खिलाती थी माँ! उसके बाद ही खुद खाना खाती थी! रोटी के टूक खाता खाता अपनी आँखें भी पोंछ लेता था वो! और बर्तन, बर्तन में खाना खाए हए तो मद्दत हो चुकी थी अब तो लोग उसको रोटियां दे देते थे, ऊपर से सब्जी देकर, कभी बासी होती और कभी किरकिरी, लेकिन ये खाना तो बिलकुल माँ जैसा था! वो रुका, टूक रखा डलिया में, और नहीं रहा गया! माँ माँ! बोलता हआ, बक्का फाड़ रो पड़ा मंगल! आज पिता जी की भी बहुत याद आई उसे! उसने अपनी भौंह को छुआ, जहां पिता जी ने बर्तन फेंक के मारा था! कितना अच्छा हआ था उस दिन! पिता जी की बस यही निशानी रह गयी थी उसके पास! 

तभी और स्त्री ने अपने पल्लू से उसके आंसू पोंछे। चौंक पड़ा वौ! यादों से बाहर निकला! लेकिन सिसकियाँ! सिसकियाँ सब बयान कर गयीं! आज दुःख बाहर निकल रहा था उसका! उस स्त्री ने टूक बनाया, और उसको खिलाने के लिए उठाया, मंगल पहले सहमा, थोड़ा दूर हुआ वो, लेकिन वो भोजन, वो स्वाद! उसने मुंह खोल दिया अपना! उस स्त्री ने, एक एक टूक बना कर खिला दिया उसे! जब खा लिया, तो एक बर्तन से पानी निकाल कर, पिला भी दिया उसे! उसने पानी पिया। मुंह पोंछा और बर्तन में बचा हुआ खाना भी, ऊँगली से चाटने लगा! "बहुत भूख लगी थी न?" उस स्त्री ने पूछा, "हाँ, बहुत भूखा था मैं!" वो बोला, 

आज पहली बार उसको भूख लगी थी! इतने बरसों के बाद! संध्या हो रही थी, उस स्त्री ने बर्तन संभाले अब, और रख लिए इलिया में! "अब जा, साँझ ढल चुकी है" बोला मंगल! वो स्त्री उठी, इलिया उठायी, और चली गयी नीचे, मंगल ने उसको बस वहाँ से जाते हुए देखा, फिर नहीं! और भोजन करनेके पश्चात वो लेट गया। उसको पुराना समय याद आने लगा, माँ की आवाज़, चूल्हे के पास बैठ कर, उस फूंकनी में फूंक मारते हए, जो धुंआ उठता था, उसकी गंध! ताज़ा रोटी तोड़ते हुए, उसका हाथ जल जाना, और माँ का फिर उसको रोटी तोड़ कर देना! पिता जी की उस से अनबन! उनका भला-बुरा कहना! उसकी बहनें,सब याद आने लगे उसे! उसने आँखें बंद कर ली! और सो गया! उस रात कोई धमकी नहीं दी उसने किसी को भी! उस रात बेखटके सा सोया मंगल! 

सुबह हुई, देखा, साफ़-सफाई हो गयी थी! एक तरफ, एक घड़ा रखा था, बड़ा सा, उसके ऊपर एक सकोरा भी रखा था, पानी लेने के लिए! उठा मंगल, और निकाला पानी, हाथ-मुंह धोये उसने तब! सोचा, कोई रख गया होगा वो घड़ा सुबह सुबह! गाँव के लोग तो अच्छे थे ही, खाना भी खिलाते थे, और वस्त्र भी दिया करते थे! हाँ, वस्त्र पुराने हों तो भी क्या, तन तो ढांप ही दिया करते थे! उस दिन कोई दोपहर से पहले, वो वहीं बैठा रहा था, आज गाँव में नहीं गया था, आज मन नहीं था उसका वहाँ जाने का, वो एक पेड़ से टेक लगाए, बैठा हुआ था! किस उसको किसी की आने की आहट सुनाई दी, वो खड़ा हुआ, तो देखा, वही स्त्री आ रही थी, हाथ


   
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श्रीशः उपदंडक
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में सामान लिए। वो आ गयी, उसने प्रणाम किया उसको, मंगल ने भी किया, अब उस श्री ने एक कपड़ा बिछाया, और सारा सामान रख दिया वहीं! मंगल टकटकी लगाए, उसको ही देखता रहा! "तू फिर आ गयी?" वो बोला, "हाँ"वो धीरे से बोली, 

"गाँव कहाँ है तेरा तू यहां की तो नहीं लगती?" बोला मंगल! "हाँ, मेरा गाँव दूर है यहां से" वो बोली, सामान खोलते हुए! "किसलिए आती है?" पूछा मंगल ने! "भोजन कराने" वो बोली, "इतनी दूर से?" वो बोला, "हाँ! बहुत दूर से!" वो बोली, "तेरे माँ-बाप मना नहीं करते?" पूछा उसने, "नहीं" वो बोली, हैरान था वौ! इस मंदिर में तो लोगों को आये हुए भी मुद्दत हो गयी! और ये इतनी दूर से 

आती है भोजन कराने? "आओ, भोजन लगा दिया है, कर लो वो बोली, भोजन की संगंध आई तो बैठ गया मंगल! वो खड़ी रही! "बैठा जा, खाले तू भी, दूर से आती है इतनी टूक मुंह में रखते हुए बोला वो! "तुम कहो, तुम्हारे लिए है" वो बोली, "ब्याह हो लिया तेरा?" पूछा उसने, "नहीं" वो बोली, "अब ब्याह कर ले,उमर हो चली है" बोला मंगल! "तुमने किया ब्याह?" पूछा उस स्त्री ने, "नहीं" वो बोला, "क्यों?" उसने पूछा, "पागल हूँ मैं, दुनिया कहती है" वो बोला, अब बैठ गयी वो! "कौन कहता है तुम्हें पागल?" उसने पूछा, "वो, सारे गाँव वाले" वो बोला, गाँव की तरफ इशारा करके! "क्यों कहता है?" उसने पूछा, "पता नहीं, माँ होती तो कोई नहीं कहता" वो बोला, "माँ क्या करती?" पूछा उस स्त्री ने, "जवाब देती मुंह पर ही, फिर किसी की हिम्मत नहीं होती!" वो हँसते हुए बोला! कंधे से फटा कुरता, हव चलते ही ढुलक गया उसके कंधे से, इस से पहले वो ठीक करता, उस 

स्त्री ने ठीक कर दिया, मंगल खाना खाता रहा! "नाम क्या है तेरा?" पूछा मंगल ने, टूक निगलते हुए, "मेरा कोई नाम नहीं" वो बोली, "ऐसा कैसे हो सकता है, सभी का नाम होता है?" वो बोला, "मेरा नहीं" वो बोली, "नहीं? माँ-बाप ने नाम नहीं रखा तेरा?" उसने पूछा हैरानी से! "नहीं" वो बोली, सोच में पड़ गया मंगल! पहली बार सुना कि कई लोगों का नाम ही नहीं होता! "तुम्हारा नाम क्या है?" उस स्त्री ने पूछा, "मंगल! पिता जी ने रखा था, मैं मंगलवार को पैदा हुआ था!" वो बोला, ख़ुशी से! "मेरा नाम क्या रखोगे?" उसने पूछा, "मैं क्यों रखंगा? तेरे माँ-बाप हैं न, वो ही रखेंगे!" बोला मंगल! "तुम नाम सुझा दो, मैं कह दूंगी" वो बोली, "माँ-बाप से अपने?" वो बोला, "हाँ, वो मान जाएंगे" वो बोली, "एक पागल का कहना?" उसने पूछा! "तुम पागल नहीं हो" वो बोली, "ऐसा तू कहती है बस" वो बोला, तभी फंदा लगा गले में उसके, उस स्त्री ने फौरन ही एक मिट्टी के पात्र में पानी दिया उसको, ठीक हो गया मंगल! 

और फिर से खाने लगा खाना! "अब बताओ कोई नाम?" वो बोला, "ठीक है,सोचने दे"वो बोला, "ठीक है" वो बोली, "तू कल आई थी न यहां पहली बार?" बोला मंगल! "हाँ, कल आई थी" बोली वो, "कल था बुधवार" बोला वो! "हाँ" वो बोली, "तो बुधवि नाम कैसा है?" बोला वो! "बहुत अच्छा! तुम्हे पसंद है?" वो बोली, "हाँ, मैं मंगल, तू बुधवि!" बोला मंगल! 

"ठीक है" वो अब बर्तन संभालते हुए बोली, मंगल ने, बाकी बचा हुआ पानी पीते हुए, और कुल्ला करते हुए, वो सकोरा वहीं अपने पास रख लिया! डकार आई उसे! "बुधवि?" बोला


   
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श्रीशः उपदंडक
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मंगल, "हाँ?" बोली वो, "तेरा ब्याह हो जाएगा, फिर मुझे कौन खाना खिलायेगा?" पूछा मंगल ने। एक पल के लिए, वो स्त्री, चौंक सी पड़ी! "मैं, मैं खिलाऊँगी" वो बोली, "कैसे? तू तो बहत दूर चली जायेगी?" बोला मंगल! "नहीं जाउंगी" वो बोली, "चल, खुश रहना तू, मुझे तो कोई न कोई खिला ही देगा!" बोला मंगल! फिर से चौंक पड़ी वो! मंगल हंस रहा था! "मुझे बुलाएगी ब्याह में?" बोला मंगल! अब जवाब नहीं दिया उसने! बर्तन संभाल लिए थे! वो उठी, और चली गयी, रास्ता उतरी, और ओझल हुई! अब आराम से लेटा मंगल! पेट में भरपूर भोजन था उसके! लेटा, तो आँख लगी, और आँख लगी तो नींद आई उसको! उस दिन भी मंगल कहीं नहीं गया! वो वहीं उसी मंदिर के अहाते में ही बैठा रहा, कभी नींद आती तो सो जाता, कभी उठ जाता, कभी यादों में डूब जाता, कभी बाबा पंचम नाथ के बारे में सोच, फफक उठता, अपनी यादों का वो पिटारा, उसके मन में लगातार घूमता ही रहता! कभी माँ की आवाज़ आती उसे, कभी पिता जी की डाँट, कभी वो तालाब नज़र आते उसको, कभी कुछ और कभी कुछ! कभी आंसू निकलते उसके, कभी हंस पड़ता ठड्डा मार कर! साँझ होने को थी, वो वहां बैठा था, उसको प्यास लगी थी, पानी पीने के लिए घड़े तक गया, घड़े में वो सकोरा इबोया और पानी पिया उसने, छक कर! जब ओख से पानी पी रहा था, तो उसको कोई आता दिखाई दिया, नीचे से ऊपर, वो रुक गया, ध्यान से देखा, ये तो बुधवि थी! वही आ रही थी, हाथ में सामान लिए, और सर पर भी कुछ सामान उठाये! वो नीचे दौड़ पड़ा! 

और जा मिला उस से! उस स्त्री ने प्रणाम किया उसको! "ला, इधर ला!" वो बोला, सर का सामान उठा लिया उसने! "ये क्या ले आई तू बुधवि?" बोला वो, "खुद ही देख लेना!" वो बोली, 

वे आ गए ऊपर! उस स्त्री ने एक कपड़ा बिछाया, वहां और सामान वहीं रख दिया! और खुद भी बैठ गयी वहीं! "इसमें क्या ले आई तू?" पूछा उसने, "खोल के देखो?" वो बोली, मंगल ने खोल कर देखा! ये तो कपडे थे। नए कपड़े, महंगे कपड़े! "ये कहाँ से लायी तू?" पूछामंगल ने, "घर में थे, ले आई पिता जी ने भिजवाये" वो बोली, "इतना एहसान मत चढ़ा बुधवि, मैं चुका नहीं सकता" बोला मंगल! सरल हृदय! स्पष्ट वक्ता! निष्पाप! "कैसा एहसान? अब बदल लो कपड़े तुम" वो बोली, "चल, अभी नहीं" वो बोला, "फिर?" उसने पूछा, "जब तू चली जायेगी तब" बोला मंगल! "मुझे नहीं दिखाओगे पहने हए नए कपड़े?" पूछा उसने! "अच्छा! ठीक है, रुक जा!" वो बोला, और ले गया एक जोड़ी कपड़े उस मंदिर में, दीवार के पीछे। बदल लिए, ऐसे कपड़े उसने कभी नहीं पहने थे। और नाप ऐसा कि जैसे उसके लिए ही बने हों! और अब बहुत खुश था वो! आया कपड़े पहन कर वहाँ! "ले देख!" वो बोला, वो स्त्री खड़ी हई, आई उसके सामने, और छाती पर बंधी एक डोरी, और कस के बाँध दी! "देख लिया?" पूछा उसने, "हाँ" वो बोली, "कपड़े अच्छे हैं, कह देना पिता जी को कि आ गए हैं वो कपड़े,और नए देने की आवश्यकता नहीं थी" वो बोला, अपने कपड़े देखते हए! "ठीक है,कह देंगी' वो बोली, 

और फिर वो डलिया खोल ली उसने, लगा दिया भोजन! "लो, भोजन करो वो बोली, "हाँ, अभी करता हूँ"वो बोला, और बैठ गया! करने लगा भोजन! कर लिया भोजन उसने! बर्तन समेट लिए


   
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श्रीशः उपदंडक
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उस स्त्री ने! कपड़े उस स्त्री ने, वहीं एक जगह संभाल के रख दिए थे! मंगल, उसे ही देखे जा रहा था। "बुधवि?" बोला मंगल! 

"हाँ" वो बोली, "तू बहुत अच्छी है" बोला मंगल! "सच में?" उसने पूछा, "हाँ, मेरी सेवा कर रही है तू" बोला मंगल, "कोई सेवा नहीं है ये" वो बोली, "तो फिर क्या है?" पूछा उसने, "पता चल जाएगा" वो बोली, नहीं समझ पाया मंगल! "चाह,जा साँझ हो जायेगीअब, अब जा" बोला वो, "जाती हूँ अभी" वो बोली, 

और फिर कुछ देर बाद, चली गयी वो, रोज की तरह! और मंगल, फिर से डूब गया अपनी ही यादों में! उस रात उसकी नींद खुली! उसे अचानक से बाबा पंचम की याद आई,चेहरा तमतमा गया उसका! उसने बकनी शुरू कर दी गालियां! अनाप-शनाप बकने लगा वो! जो मुंह में आता, बक देता! आकाश को देखा, गालियां देने लगा! ऐसा उसने सुबह तक किया। लेकिन उस रात कोई नहीं आया! और इस तरह सो गया था वो! थोड़ी देर ही सोया वो! उस सुबह, उसका मन हुआ कि गाँव जाया जाए! वो गाँव जाने के लिए चल पड़ा! गाँव के रास्ते से जब चला, तो जो उसको देखता, हैरत से रुक जाता उसको देखकर! और वो मंगल, सभी को प्रणाम करते करते आ गया गाँव में! अब उसको जो भी देखता, वो हैरानी में पड़ रहा था! ये क्या हआ? कैसे काया-कल्प हो गया इस पागल का? इसका रूप तो देखो? रंगत तो देखो? इसका जिस्म देखो!! ऐसा कैसे हुआ? और ये वस्त्र? जैसे किसी राजा के हों! ऐसा कैसे हो गया! जो देखे, हैरत में पड़े! वो गया सीधे अपने घर! घर में गया तो सभी हैरान! ये क्या हुआ? ये चमत्कार कैसे हुआ? अब तो लोगबाग भी आएं उसको देखने! भाई, वे सब परेशान! घर गया तो भाईओं ने बिठाया उसे! उस से पूछा, कि कपड़े कौन दे गया? तो बोला, बुद्धवि दे गयी थी! किसी गाँव में रहती है, वही खाना भी खिलाती है उसको! गाँव का नाम जानता नहीं था, तो बता नहीं सका! भाइयों ने बड़ी पूछताछ की, लेकिन वो जितना जानता था, बता दिया उसने! गाँव का एक एक इंसान परेशान! हैरान! ऐसा आखिर हो कैसे गया? कौन सी सिद्धि ले ली है इसने? सभी जीभ काटें अपनी अपनी! अधिक देर नहीं ठहरा, खाना भी नहीं खाया, खाना तो बुधवि लाएगी, यही बोला उसने, और बस, उसके बाद बाहर निकला, और चल पड़ा मंदिर की ओर! वहां पहुंचा, और जा बैठा! 

अब इंतज़ार किया उसने बुधवि का! 

और ठीक दोपहर से पहले, उसको आती दिखी वो बुधवि! खुश हो गया! भागता हुआ नीचे गया, और वहीं मिला उस से, उसके संग ही ऊपर आया वो! भोजन परोस दिया गया, और मंगल खाने लगा भोजन! "आज गाँव गए थे?" उसने पूछा, "हाँ, तुम्हे कैसे पता?" उसने पूछा! "सभी को पता है" वो बोली, "अच्छा" वो बोला, और भोजन का स्वाद लेने लगा! सभी को कैसे पता है, पता नहीं! "किसी ने पागल कहा आज?" उसने पूछा, "नहीं! किसी ने भी नहीं वो बोला! "अब कोई नहीं कहेगा" वो बोली, और उसको खाना खिलाती रही! हो गया भोजन। और तब बर्तन समेटे उसने,उठाये,और पीछे हटी! "मैं कल नहीं आउंगी" वो बोली, "क्यों?" पूछा उसने, "काम है कुछ" वो बोली, "कैसा काम?" पूछा उसने, "है, जाना है कहीं" वो बोली, वो चुप हुआ. "अच्छा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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ठीक है" बोला मंगल! "एक बात कहूँ?" बोली वो, "हाँ" वो बोला, "गाँव नहीं जाना कल" वो बोली, "नहीं जाऊँगा" बोला वो. 

और फिर, चली गयी वो वापिस! उसको जाते देख, तकता रहा! वो गयी, और कुछ लोग आये उसके पास! मंदिर की साफ-सफाई देख, वे सभी हैरान! मंदिर तो नया हो गया था! क्या फूल लगे थे वहाँ! वे मंगल के गाँव के ही लोग थे, और उनमे से था एक भानु प्रसाद, गाँव में रसूख था उसका। उन्होंने प्रणाम किया उस मंगल को! "कैसे हो मंगल?" पूछा उसने, 

"बढ़िया हूँ" बोला वो, "ये साफ़-सफाई किसने की?" पूछा, "पता नहीं" वो बोला, झेंप गया वो! वो भान प्रसाद! "और ये फूल?" पूछा, "पता नहीं, रात में ही उग आये अपने आप" वो बोला, "अपने आप?" उसने पूछा, "हाँ, अपने आप" वो बोला, भोला बेचारा! अब सभी एक दूसरे को देखें! ऐसा कैसे सम्भव? रात रात में कैसे सम्भव??? 

जो लोग आये थे साथ, उनके तो कान लाल हो गए! मंगल पागल था, ये सभी को पता था, लेकिन जो वो देख रहे थे, वो एक पागल तो क्या, समर्थ व्यक्ति भी नहीं कर सकता था! मंगल का ये कहना कि सबकुछ एक ही रात में बदल गया, उनको पचा नहीं! अब, मंगल को भी उनकी उपस्थिति सही नहीं लग रही थी, भानु प्रसाद को कोई बात हज़म नहीं हुई थी! उस पागल मंगल ने जो वस्त्र पहने थे, वैसे वस्त्र तो उस भानु प्रसाद ने देखे भी नहीं थे! अब भानु प्रसाद को लगा खटका! वो खड़ा हो गया, मंगल के विषय में दो चार शब्द कहे! वे लोग भी खड़े हो गए और चल पड़े वापिस! जो सोचकर आये थे वो तो मिल ही गया था उन्हें! सच में ही कोई सिद्धि प्राप्त कर ली थी उसने! और इसका पता कोई समर्थ व्यक्ति ही कर सकता था! भानु प्रसाद के पास एक व्यक्ति था, जो ये पता कर सकता था, गाँव का ही एक ओझा था, उसको भगत कहा जाता था, भानु प्रसाद ने उस भगत को इस बारे में बताया, भगत की आँखों में चमक आ गयी! यदि वो उस सिद्धि के बारे में बता दे, तो ये जीवन धन्य हुआ समझो। अब भगत ने कहा कि उसको वो जगह दिखाई जाए एक बार, फिर वो जाने! भानु प्रसाद को भी लालच था, यदि उसकी सिद्धि के बारे में, पता चल जाए तो उसको भी कुछ न कुछ प्राप्त तो हो ही जाएगा, धन तो मिलेगा ही! धन तो इतना होगा कि पुश्तें आराम से बैठ कर खायेंगी! आँखों में धन के अम्बार नजर आने लगे! उसी दिन ओझा तैयार हो गया, जो देख उसने लगानी थी, उसकी तैयारी कर ली थी, और भानु प्रसाद के साथ, चल पड़ा उस मंदिर को देखने, जहां एक पागल ने एक चमत्कारी सिद्धि प्राप्त कर ली थी। भान प्रसाद ने लिए अपने साथ दो और आदमी, और निकल पड़े, उस समय कोई दोपहर बाद का समय रहा होगा, वे लोग पहुंचे, तो दूर से ही खड़े हो, उस भगत ने देख चलानी आरम्भ की! और जैसे ही देख लगाते हुए उसने नेता खोले, उसकी हुई हालत खराब! वो जैसे जम गया था, चाह कर भी आँखें न बंद कर सका, और जब देख बंद हुई,ओझ 

पछाड़ खा गया! भान प्रसाद और उसके आदमी, ये सब देख, पड़े हैरानी में उन्होंने ओझा को उठाया, और डाला तांगे में,और ले गए वापिस उसे! अब आया ओझा को होश! और जब ओझा को होश आया, तो काँप रहा था वो! जब भानु प्रसाद ने पूछा उस से कि क्या हुआ था, तो उसने


   
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बताया, कि उसने वहां लाशें देखी थीं, लाशें ओझा के परिवार की, भानु प्रसाद के परिवार की, साथ जो गए थे उनकी भी, लाशें हवा में तैर रही थीं, ऐसा तो उसने कभी नहीं देखा था! भान प्रसाद ने जब ये सुना, तो हाथ पांवों ने हाथ छोड़ा! छूटी कंपकपी! अब क्या किया जाए? ओझा ने हिम्मत न हारी, सोचा, कोई बड़ी शक्ति हो सकती है वहाँ, बस! ओझा ने लिया भानु प्रसाद को संग, और चल पड़ा ओझा अपने गुरु के पास! गुरु को सब बताया, गुरु के मुंह में भी पानी आ गया! यदि ऐसा है, तो फिर तो क्या कहने! अब गुरु ने कहा कि उसको दिखाई जाए वो जगह! वे लोग, उसी दिन निकल लिए वहाँ से, और देखिये, वो गुरु, 

ओझा और भानु प्रसाद, कब पहुंचे वहाँ! जब बुधवि वहाँ स्वयं मौजूद थी! गुरु को दूर से दिखाई गयी वो जगह! गुरु ने देख लगाई, और हो गया यक़ीन कि वहाँ सच में ही कोई बड़ी शक्ति है वहां! अब लिया संग ओझा को उसने, ओझा की हुई हवा खुश्क! लेकिन गुरु का आदेश था, क्या करता! चलना पड़ा, हाँ, भानु प्रसाद रुक गया था। अब गुरु चले ओझा के संग! और जैसे ही उस रास्ते पर कदम रखा, दोनों हवा में उछले और जा गिरे पीछे। जैसे किसी ने उस रास्ते को बाँध दिया हो, गुरु के तो घुटने टूटे, और ओझा का सर फूटा! और 

आँखों से जो देखा, उसने तो उनकी रही सही हिम्मत भी निचोड़ दी। दोनों ने अपनी अपनी लाशों को देखा! टुकड़ों में, और उन टुकड़ों में आग लगी थी! दोनों को ऐसा हौल बैठा कि 

आँखें बंद हो गयीं! उन दोनों को उठा, ले भागे वे लोग! भानु प्रसाद ने तो मारे काना में अंटे, और ओझा हआ गायब! गुरु का कोई पता नहीं कि कहाँ गया! सच में, पागल ने किसी को सिद्ध कर ही लिया था, और उस से लड़ना, सम्भव नहीं था किसी के लिए भी! हुआ किस्सा 

खत्म! एक रात की बात है, मंगल, अपने गुरु पंचम नाथ का नाम लेते हए, धमकियां दे रहा था फिर से,आकाश को देखते हए, मिट्टी फेंक रहा था, रात का समय होगा, कोई दो बजे का! 

अचानक से प्रकाश कौंधा और वो खड़ा हुआ, आज तो कुछ करने की फिराक में था वो! "तू, तू ही है न वो?" बोला मंगल! उत्तर नहीं आया! "जवाब दे?" बोला वो! 

और मित्रगण! पहली बार, पहली बार वो प्रकाश किसी स्त्री का रूप ले, प्रकट हुआ! मंगल ने गौर से देखा, उस स्त्री में से, प्रकाश फूट रहा था, अद्वितिय सौंदर्य धारण किये, वो परम-सुंदरी, दिव्य 

आभूषण धारण किये, प्रत्यक्ष थी! "कौन है तू?" पूछा मंगल ने! "तुमने बुलाया मुझे!" वो बोली! "मैंने? नहीं बुलाया, कौन है तू?" पूछा उसने, "तुमने कहा न, कि बाबा पंचम नाथ को मारने वाला प्रत्यक्ष हो!" बोली वो स्त्री! "तो तूने मारा उन्हें?" बोला मंगल! "नहीं!" वो बोली, वो उसको पहचान नहीं पाया, कैसे पहचानता, बुधवि तो, चूंघट निकाले आया करती थी उसके पास! इसीलिए, वो उस से ऐसे प्रश्न कर रहा था! "तो किसने मारा उन्हें?" पूछा मंगल ने, "उनके लालच ने!" वो बोली, नहीं समझ आया कुछ मंगल को! "कैसा लालच?" बोला मंगल! 

अब हंसी वो स्त्री! 

और आई उसके पास! "मैंने नहीं मारा उन्हें" वो बोली, मंगल, ठगा सा रह गया! "तुमने नहीं मारा, अच्छा, लालच ने मारा, अच्छा" वो बोला, "हाँ, नहीं मारा" वो बोली, "अच्छा, ठीक है,


   
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अब जाओ तुम" बोला मंगल, गया पीछे और बैठ गया, आज बोझ उतर गया था सर से उसके! बहुत चैन पड़ा उसे! 

और वो,स्त्री। पल भर में लोप हो गयी। हो गया अन्धकार! लेकिन मंगल के हृदय में प्रकाश था अब! शेष रात्रि सो कर गुजारी उसने! भोर हुई! मंगल जागा! और आज, साफ़-सफाई की उसने मंदिर की! पौधे देखे, मंदिर की मूर्ति भी साफ़ की उसने, और फिर आराम किया! कोई दोपहर से पहले, बुधवि आई उसके पास, भोजन लायी थी, भोजन लगाया और अब खिलाया उसको, मंगल आराम से बैठा खाता रहा। खाता, आराम करता और फिर संध्या को बुधवि आती, और यही चलता रहा, अनेक दिन बीत गए, गाँव जाने का मन नह करता था, उसको अब मंदिर में रहना ही अच्छा लगता 

था! वो वहीं रहता था! कोई उसके पास आता, तो बस वो बुधवि, और कोई नहीं! एक शाम की बात है, बुधवि उसके संग ही बैठी थी, भोजन करा ही दिया था! बधवि बर्तन समेट रही थी, और मंगल, उसको ध्यान से देख रहा था, इतना समय बीत गया था और उसने कभी चेहरा नहीं देखा था उस बुधवि का, आज मन में न जाने कैसे इच्छा बलवती हो गयी थी उसके! उसने हाथ आगे आगे बढ़ाया, और पकड़ लिया धूंघट! बुधवि चौंकी, लेकिन उसने चूंघट नहीं पकड़ा, मंगल ने, आहिस्ता से चूंघट उतार दिया उसका! और जिसे सामने देखा, वो चौंक पड़ा! कहीं देखा है इसको। लेकिन कौन? कौन है ये? सोच में पड़ा! मित्रगण! 

अब कहाँ वो मंगल, बचता उसके प्रभाव से! अब वही होना था, तो वो बुधवि चाहती! और यही हुआ, मंगल अब बुधवि के प्रभाव में था, पूर्ण रूप से! लेकिन बौद्धिक रूप से मंगल स्वतंत्र था! उसकी सोच, उसकी अपनी ही थी! उस पर कोई प्रभाव नहीं था! हाँ, बुधवि ने ये नहीं बताया कि वो है कौन? न मंगल समझता, और न ही कोई समझा सकता था! मंगल की वो सेवा करती थी, टूट कर!! इतनी कहानी सुनने के बाद, मेरे होश उड़ गए थे! शर्मा जी भी अपने से ही जुदा हो चले थे! बाबा योगनाथ, बड़ी तल्लीनता से वो कहानी सुना रहे थे! बाबा योगनाथ, खोये हुए थे उस समय में! मैंने फिर से वही फोटो लिया उनसे, और उस मंदिर को देखा! छोटा सा मंदिर था वो, आसपास पत्थर थे, हरियाली भी थी, लेकिन ये फोटो बहुत पुराना था, अब मेरे मन में इच्छा जगी कि कैसे भी करके मै ये मंदिर देखू! मैंने फोटो दे दिया वापिस, अब बाबा योगनाथ आराम करने वाले थे, बाद की कहानी, वे अब बाद में सुनाते! अब हम उठ गए वहां से, और चले अपने कक्ष की ओर, और आ बैठे वहां! मई तो उस बुधवि में खो गया था! कहना वो महा-विकराल यक्षिणी कपालशुंडी! और कहाँ वो साधरण सा पागल इंसान! जो अपने आप में भी नहीं था। बस दिल, दिल बहत पवित्र था उसका, कोरा कागज़! शायद, इसी पर रीझ गयी थी वो यक्षिणी! मेरे लिए ये तो एक चमत्कार सा ही था! जो महायक्षिणी, अच्छे से अच्छे साधकों को छका दिया करती है, उनके प्राण हर लिया। करती है, जिस बड़े से बड़ा साधक साध नहीं सकता, उसको वो मंगल साध बैठा? कैसे? ऐसा कैसे हुआ? कैसे रीझ गयी उस पर? क्या पाया उसने? वो तो गालियां देता था उसे! धमकियां देता था उसे! चमत्कार! बस चमत्कार! "शर्मा जी?" मैंने कहा, "जी?" वे बोले, "मेरा मन बहुत भारी है" मैंने कहा, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मेरा भी, मन नहीं लग रहा" वे बोले, "अब मन करता है की अभी जाऊं और वो मंदिर देखू!" मैंने कहा, "हाँ, सच कह रहे हो आप" वे बोले, "मंगल!" मेरे मुंह से निकला! "मंगल ने असम्भव को सम्भव कर दिखाया!" वे बोले, "हाँ, असम्भव को सम्भव!" मैंने कहा, "वैसे, एक बात तो है"वे बोले, "क्या?" मैंने पूछा, "कपालशुंडी सच में ही रीझी उस पर, उसके निर्मल मन पर!" वे बोले, "हाँ, इसमें कोई संदेह नहीं" वे बोले, "कैसा मानव रहा होगा!!" वे बोले! "हाँ, महामानव!" मैंने कहा, तभी चाय ले आया विष्ण! अब चाय पी हमने! लेकिन अभी भी दिलोदिमाग में वही सब चल रहा था! चाय पी, कप रखे! और मैं लेट गया फिर! शर्मा जी भी लेट गए! 

और मैं, जा पहुंचा अपने विचारों में, उस मंदिर में! जहाँ, वो बुधवि और मंगल थे, कभी, किसी समय में! मन में न जाने कैसा तूफान सा मचा था, हाव भी न चले, लेकिन सोचा का सारा सामान उड़ा उड़ा जाए। करवटें बदलते बदलते बदन भी दर्द करने लगा था। आखिर में, मैं उठ ही गया। शर्मा जी आँखें बंद किये लेटे हए थे, मैं उठा और कुर्सी पर जा बैठा, मैं बैठा तो कुर्सी की आवाज़ निकली, शर्मा जी की आँख खुली, मुझे देखा, और बैठ गए, "क्या हुआ?" वे बोले, "कुछ नहीं" मैंने कहा, "वहीं, सोच में?" वे बोले, "हाँ'मैंने कहा, उन्होंने बीड़ी सुलगा ली अपनी, मुझ से पूछा, तो मैंने मना कर दिया, न तो मेरा मन ही था, 

और सच में, मेरा मन ही नहीं लग रहा था किसी भी काम में, यहां तक कि मैं अपने बजते हए फ़ोन को भी नहीं देख रहा था! वो बजता, तो बड़ा ही अजीब सा लगता था, आखिर में, मैंने बंद ही कर दिया वो! 

"वो फोटो देखी आपने?" मैंने पूछा, "मंदिर वाली?" वे बोले, "हाँ" वे बोले, "देखो, वहीं थी ये यक्षिणी! और वो, एक पागल इंसान, मंगल!" मैंने कहा, "हाँ" वे बोले, "अभी तक, मुझे विश्वास क्यों नहीं हो पा रहा?" मैंने पूछा, "विश्वास तो है, लेकिन उलझन है आपको वे बोले, सही पकड़ा था उन्होंने मुझे विश्वास तो था, लेकिन मैं उलझा हुआ था! "सच बोले आप" मैंने कहा, मैं शांत हो गया था तब! बाहर देख रहा था, बादल उमड़-घुमड़ रहे थे, आकाश, साक्षी था उस मंदिर में होने वाली प्रत्येक घटना का! मैं इसीलिए उसको देख रहा था! "बाबा के पास कब जाना है?" वे बोले, "मुझे भी इंतज़ार है" मैंने कहा, "हाँ, मुझे भी वे बोले, 

और फिर, उसी शाम, फिर से बुलावा आ गया! बाबा ने आराम कर लिया था, शाम तो थी, लेकिन आज हुड़क नहीं लगी थी! अब जैसे ही बुलावा आया, हम भाग लिए, जैसे जीने-मरने का सवाल हो! और सच पूछो तो, जीवन-मरण का ही सवाल था ये! हम यहां पहुंचे, बाबा से प्रणाम हई,और हम बैठ गए वहाँ! मुझे पानी दिया विष्णु ने, तो मैंने पानी पिया, फिर शर्मा जी ने भी पिया, और अब हम अपने कान खोलकर, बैठ गए, एक एक शब्द सुनने के लिए! क्या हुआ आगे? कैसे हुआ? यही जानने के लिए! 

और अब कहानी आरम्भ हुई फिर से। अपने शब्दों में ही लिखूगा, उन टुकड़ों को, जो मैंने सुने बाबा योगनाथ के मुंह से! एक रोज की बात होगी, उस दिन, मंगल अपने मंदिर में लेटा हुआ था, कोई ग्यारह के आसपास का समय रहा होगा, उसके पास, कोई आया था गाँव से, उस बुजर्ग स्त्री को पहचाना गया था मंगल, लेकिन उसके साथ आई स्त्री को नहीं! प्रणाम हुई, तो वो बुजुर्ग


   
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श्रीशः उपदंडक
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स्त्री उस मंगल को देखते ही रह गयी! दैदीप्यमान चेहरा, बदन से एक तेज फूटता हुआ, मुख पर आभा-मंडल! "कैसे आयीं मौसी?" बोला मंगल, "तु मंगल ही है न?" उस स्त्री ने पूछा! "हाँ मौसी, मंगल ही हूँ" बोला वो! इस वृद्ध स्त्री ने उसके चेहरे पर हाथ फेरा! जैसे छू कर देखना चाहती हो! 

"ये कौन है मौसी?" उसने पूछा, उस साथ आई स्त्री के बारे में, अब उसने बताया कि वो उसके बेटे की पत्नी है,ब्याह को तीन बरस हुए, खूब तो इलाज करवाया, हर जगह गए, लेकिन कोई संतान नहीं हुई, इसीलिए मंदिर में आई हैं, अब मंगल कुछ कह दे तो उसे संतान सुख मिले! 

ये सुन, अब मंगल खूब हँसे! दोनों को देख हँसे! "तुझे विश्वास है मौसी?"बोला मंगल! "हाँ, गाँव में चर्चा है, कि मंगल के पास कोई सिद्धि है!" वो बोली, "नहीं कोई सिद्धि नहीं मौसी! लेकिन तू आई है, तो ठीक है, अब संतान हो जायेगी!" बोला मंगल! कुछ पता नहीं था उसको, कि क्या कहा उसने! लेकिन कह दिया! वे औरतें, उसको प्रणाम करके, चली गयीं वहां से! अब आप देखिये! वही हुआ! उस स्त्री के संतान हो गयी। जिसे बाँझ समझा जाता था, अब उसकी गोद में संतान थी। अब तो उस वृद्ध स्त्री ने ढिंढोरा पीट दिया। और मंगल, मंगल उसी दिन से सुर्खियों में आ गया! अब तो लोगबाग आने जाने लगे उसके पास! अब लोगों से घिरा रहता वो! और वो बुधवि, दो बार उसके पा आया करती! सुबह और शाम! लोगों की मुरादें पूर्ण होने ली! मंगल जो कह दे, वही हो! रोग कटने लगे, दुखी, सुखी हो गए! मंगल का नाम चलने लगा हर जगह! एक रात की बात है! मंगल अकेला ही लेटा था! रात का समय था, उसको प्यास लगी थी, पानी पीने गया घड़े तक, और जब पानी पिया, तो उसके किसी के चलने की आवाज़ आई! मंगल नीचे की तरफ देखने लगा, 

तो कोई स्त्री थी, "कौन है?" उसने पूछा, कोई उत्तर नहीं आया! वो गया नीचे तक, गौर से देखा, "अरे बुधवि?" बोला मंगल, "हाँ" वो बोली, "इतनी रात, क्या हुआ?" पूछा उसने, "कुछ नहीं, मैं आई हूँ मिलने" वो बोली, "इतनी रात? चल, कल आना, चल छोड़ के आता हूँ तुझे" बोला मंगल! 

"नहीं, अब मैं कहीं नहीं जाउंगी" बोली वो। "क्या कह रही है तू?" बोला मंगल, "हाँ, नहीं जाउंगी" वो बोली, 

और बैठ गयी वहीं! "नहीं बुधवि, अपने घर की सोच, माँ बाप की सोच" बोला मंगल, "मैं कह के आई हूँ, अब नहीं जाउंगी" वो बोली, "नहीं बुधवि, नहीं" बोला मंगल! "नहीं" वो बोली, "नहीं, ये अच्छी बात नहीं बुधवि" बोला मंगल, "नहीं, मैं नहीं जाउंगी" बोली वो, "जाना होगा तुझे,जाना होगा" बोला मंगल! अब चुप हुई वो! "चल, मैं छोड़ के आता हूँ तुझे" वो बोला, "तुम चाहते हो मैं जाऊं?" उसने पूछा, "हाँ, जाओ" वो बोला, "जाऊं?" उसने पूछा, "हाँ, अभी" वो बोला, वो पलटी, और भाग ली पीछे! मंगल पीछे भाग उसके! "रुक जा! बुधवि, मैं छोड़ के आता हूँ तुझे, बुधवि?" बोलते बोलते नीचे भागा वो! नहीं मिली कहीं! तक गया वो आवाज़ देते देते! आखिर आ गया वापिस! सो गया! नींद आ गयी! सुबह हुई, और उसने साफ़-सफाई शुरू की, हाथ-मुंह धोये, उस रोज सुबह से ही इक्का दुक्का लोग आने लगे थे, वो सभी के बात सुनता,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और भेज देता वापिस, किसी से कुछ लेता नहीं था, न पैसा, न भोजन और न ही कपड़ा! वो सब तो बुधवि ले ही आती थी! उस रोज, अकेला था मंगल! दोपहर से पहले का समय था! कपड़ा बिछाये, पानी का सकोरा भरे, वो उस रास्ते को देख रहा था, जहां से वो बुधवि आया करती थी, आधा घंटा बीता, फिर घंटा, और फिर दोपहर भी बीत गयी। उस रोज, बुधवि नहीं आई! 

ऐसा कैसे? वो तो रोज आती है? आज क्यों नहीं आई? क्या बात हुई? भूख-प्यास,सब जाती रही! उसको नहीं आना था, तो बताती तो सही? ऐसे कैसे नहीं आई? पागल का दिल धड़कने लगा! न जाने क्या क्या सोचने लगा! उस रोज, शाम को भी बहुत इंतज़ार किया उसने! जो लोग आते, उनको भगा देता, की बाद में आना! और आँखें गड़ाए रखता वो उस रास्ते पर! उस शाम, नहीं आई बुधवि! उस रात, नहीं सो सका वो! रात भर, उसको बुधवि की याद सताती रही! उठ उठ के उस रास्ते को देखता! बार बार जाता, वहाँ बैठ जाता, आवाज़ देता। लेकिन कोई नहीं आया। कोई भी नहीं। मित्रगण! ऐसे हफ्ता बीत गया! 

और अन्न का एक दाना नहीं खाया उस पागल ने! लोगों ने खिलाने की कोशिश की, तो सभी को मना किया, और जब ज़्यादा ज़बरदस्ती करते, तो भाग जाता वहां से! फिर एक डंडे से, सबको खदेड़ देता वो! सारा दिन ढूंढता उसको! उस रास्ते तक जाता! बैठ जाता, लोगों से पता पूछता, लेकिन कोई कैसे बताता! और आखिर में, वापिस आ जाता! अब, नहीं रहा जा रहा था उस से! कहाँ गयी बुधवि? बिन बताये? 

और उस रात.............उस रात... उस रात, वो बुधवि को याद कर कर के, सो गया था, भूख-प्यास, सब बुद्धवि के संग ही चली गयी थी, दिन भर, आँखें गड़ाए रखता उस रास्ते पर, बार बार जाता था उसको ढूंढने! फिर आ जाता था, कहीं दूर इसलिए नहीं जाता था, कि कहीं पीछे से न आ जाए बुधवि, और कही वो उसको मिले नहीं! हफ्ते से अन्न का एक दाना पेट में नहीं गया था उसके, बस मलाल था तो इस बात का कि उसे अगर जाना था तो कम से कम बता के तो जाती! बता के नहीं गयी थी, इसीलिए परेशान हो गया था। दुखी हो गया था बहुत, उस पागल के पागल हृदय में कुछ फूट रहा था, एक अंकुरण, एक अत्यंत ही पावन प्रेम का अंकुरण! जिसका, उसे स्वयं ही पता नहीं था! ऐसा पागल कहीं देखा है आपने? लेकिन था! था एक मंगल! उस रात वो सोते 

IIIIIIIIIIIIIIIIIIE 

सोते बड़बड़ा रहा था, बड़बड़ा रहा था उस बुधवि का नाम! उसे स्वयं को भी पता नहीं था कि वो नींद के आगोश में क्या बड़बड़ाये जा रहा है। देह तो सोयी थी उसकी, लेकिन उसका हृदय, उस प्रेम के अंकुरण को, सहेजे बैठा था, कहीं करवट बदलता तो वो नन्हा सा अंकुर 

क्षतिग्रस्त हो सकता था। इसी कारण से, बड़बड़ा रहा था वो उस बुधवि का नाम! और इसी प्रकार बड़बड़ाते हुए, उसकी आँखों से वो निश्छल प्रेम, निःस्वार्थ प्रेम, आंसुओं की बूंदों के रूप में बह निकला...........नाम बड़बड़ाये जाए, और आंसू निकलते जाएँ। न आंसुओं पर वश और न ही अपने हृदय से निकली, उस बड़बड़ाहट पर वश! बुधवि बहुत सता रही थी उसे! उसकी आवाज़, उसको खाना खिलाना, पानी पिलाना, कपड़े लाना, उसके अकेलेपन को दूर करना, सब बड़बड़ा


   
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श्रीशः उपदंडक
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रहा था मंगल! सोते सोते! कहीं देखा है ऐसा प्रेम? नहीं! मैंने तो कहीं नहीं देखा! सुना? हाँ सुना! एक था मंगल! ऐसा ही एक प्रेमी! 

और तभी उसके सर पर किसी ने हाथ फेरा! पागल को पता ही न चला! पता तब चला, जब उसने अपने सर पर हाथ लगाया, हाथ लगाया तो किसी का हाथ, हाथ से स्पर्श हुआ उसका, इस से पहले, बुधवि को कभी स्पर्श नहीं किया था उसने! हाथ का स्पर्श हुआ तो चौंक पड़ा, आँखें खुल गयीं उसकी, चौंक के उठ पड़ा, सामने देखा, तो बुधवि थी, बैठी हुई! मित्रगण! कैसे भाव होंगे वो! कैसे, जिनसे मैं अनभिज्ञ हूँ आज तक! इसीलिए लिखा नहीं पाया, बुधवि को देखते ही, अपनी भुजाओं में भर लिया उसने उसे! और उसका नाम ले, बुक्का फाड़, रोने लगा वो! बुधवि कभी उसके आंसू पोंछे! कभी उसके सर पर हाथ फेरे! कभी उसको गले से लगाए! "कहाँ चली गयी थी तू बुधवि?" सिसकते सिसकते उसने पूछा! एक वाक्य, बस इतना सा, दसियों अवरोध के साथ निकला मुंह से! "बुधवि? बता?" बोला मंगल, उसके वक्ष में सर घुसाये। "कहीं नहीं!" बुधवि ने कहा, "तोआई क्यों नहीं?" वो बोला, "मैं गयी ही कहाँ थी?" बोली वो! "तू गयी थी, झूठ न बोल, तो नहीं आई, मैं इंतज़ार करता रहा तेरा, रास्ते तक देख कर आता था तुझे, पता पूछता, तो कोई नहीं बताता था मुझे, पागल कह सब भगा देते थे मुझे, मुझे तेरा पता, पता होता तो पहुँच जाता मैं तेरे पास!" बोला मंगल! "मैं यहीं थी तुम्हारे पास" वो बोली, "झूठ" वो बोला, "मैं झूठ नहीं बोलती' बोली वो! "तूने बोला झूठ" वो लड़ने बैठ गया था उस से! 

"नहीं बोला, तुमने ही मुझे कहा था कि जा!" वो बोली, "तो मुझे बता देती कि नहीं आएगी तू?" वो बोला, "क्यों? नहीं आती तो क्या होता?" पूछा उसने! इस सवाल का उत्तर!! नहीं था बेचारे के पास! नहीं था! यहीं तो कच्चा था वो! उसे नहीं पता 

था! "बताओ?" वो बोली, "मैं मर जाता" वो बोला, "कैसे?" उसने पूछा, "मुझे भोजन नहीं मिलता तो, मैंने हफ्ते से कुछ नहीं खाया!" वो बोला, उसने ये बोला, तो उसकी सहजता देख, वो महा-विकराल यक्षिणी, चूर चूर होने लगी! लगा उसे, कि मंगल की ये सहजता उसे भ देगी, बहुत दूर! बहुत दूर! "आओ, भोजन कर लो" वो बोली, "लायी हो तुम?" उसने पूछा, "हाँ, लायी हूँ" वो बोली, "फिर ला" वो बोला, अब भोजन लगाया उसने उसके लिए, रोज की तरह, जैसे लगाती थी उसके लिए! वैसे ही, उसको खाते देख, उसको देखती रहती थी! मन ही मन क्या सोचती, न मैं जानता, न आप 

और न ये संसार! "कहाँ गयी थी तू?" पूछा उसने, "कहीं नहीं" वो बोली, "तो आई क्यों नहीं?" पूछा, "तुमने मना किया था" वो बोली, "रात बहुत थी, इसलिए मना किया था" वो बोला, खाना खाते खाते! बड़े बड़े टूक बना बना के खा रहा था, जल्दी जल्दी! "और आज?" उसने पूछा, मंगल चुप! 

आज भी तो रात है, बल्कि और गहरी! उसने रोटी रखी नीचे, "हाँ, आज इतनी रात को कैसे आई तू?" वो बोला, "जैसे उस रात आई थी" बोली वो! "सुबह आ जाती?" वो बोला, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"तुमने बुलाया मुझे, मैं आ गयी" वो बोली, "मैं जब भी बुलाऊंगा तुझे, तू आ जायेगी?" पूछा उस भले पागल ने! "हाँ!" वो बोली, "अच्छा! अच्छा! एक बात बता, तेरा गाँव कौन सा है?" पूछा उसने, "बहुत दूर" वो बोली, 

अब फिर रुका वो! "तो, तू आती कैसे है?" पूछा उसने! "मुझे कोई दूरी नहीं बाँध सकती।" वो बोली, मुस्कुराते हुए। नहीं समझ सका वो! जैसे, ये नहीं समझ सका कि इस समय वहां प्रकाश कैसे है? बिना सोत के! खाना खा लिया था उसने! बर्तन समेट लिए थे उसने! "अब इतनी रात, तू वापिस जायेगी?" पूछा उसने, "तुम बताओ?" बोली वो, "आज यहीं ठहर जा" वो बोला, "बस आज रात?" वो बोली, "हां, कल से तो दिन में आएगी न?" वो बोला, "हाँ, आउंगी" वो बोली, "अब तो ऐसा नहीं करेगी?" पूछा उसने, "नहीं, कभी नहीं" बोली वो! "ठीक है, जा, वहाँ लेट जा, मैं यहां लेट जाता हूँ" बोला मंगल, "तुम लेट जाओ, मैं लेट जाउंगी" बोली वो, मंगल लेट गया, वहीं, कपड़ा बिछा कर! लेटा, आँखें बंद हईं और सो गया! 

और वो! वो उसको देखती रही! एकटक! कुछ सोचते हुए। 

और फिर, थोड़ी देर में, मंगल के टेढ़े हुए सर को, अपने घुटने पर रख लिया, 

.. 

और देखती रही, उस भोले-भाले पागल को, जो शायद अपनी तरह का, एकमात्र ही था!! मंगल नाम था उसका! रात गुजरी, और सुबह हुई, नींद खुली मंगल की! नींद खुली तो बैठा पाया उसने बुधवि को! 

और अपना सर, उसके घुटने पर! चौंक कर उठ पड़ा वो! बुधवि को देखा, और बुधवि ने उसको देखा! अपलक, दोनों देखते रहे एक दूसरे को! "तू सारी रात, ऐसे ही बैठी रही?" बोला मंगल! "हाँ वो बोली, "तु, सोयी नहीं?" पूछा, "नहीं" वो बोली, "मैं ऐसे ही सोता रहा?" उसने पूछा, उसके घुटने को देखते हुए! 

वो मुस्कुराई! "हाँ" फिर बोली! 

खड़ा हो गया मंगल ये सुनकर! एक तरफ जाकर, खड़ा हो गया! वो उठी, और गयी उसके पास, "क्या बात है?" उसने पूछा, "कुछ नही" वो बोला, अब उसने हाथ रखा मंगल के कंधे पर, "बताओ?" वो बोली, "कुछ नही" वो बोला, "नहीं बताओगे?" बोली वो, "अब तू दोपहर में नहीं आएगीन?"बोला वो! वो मुस्कुराई फिर से! "मुझे भेजो ही मत!" बोली वो! "और तेरे माँ-बाप?" पूछा उसने, "कोई कुछ नहीं कहेगा" वो बोली, "और भोजन?" वो बोला, ढूंढ रहा था बहाना! किसी बहाने की तलाश में थे! "यहीं बना दूंगी" वो बोली, "यहाँ कुछ नहीं है" वो बोला, "सब आ जाएगा" वो बोली! 

"नहीं, एक काम कर, अब तू जा, तेरी फिक्र होगी घर में, तू दोपहर को आ जाना!" वो बोला, "ठीक है, जाती हूँ" वो बोली, "आएगी न?" पूछा सरल भाव से मंगल ने! 

और इस प्रश्न ने, उस यक्षिणी के मन के सभी तार, झनझना दिए! नहीं रोक पायी अपने आपको, उस प्रेम-अभिव्यक्ति को, जिसके लिए एक यक्षिणी, एक नश्वर मनुष्य के प्रेम पाश में जकड़ी जा


   
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श्रीशः उपदंडक
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चुकी थी। उसने, तभी के तभी, मंगल को भींच लिया अपने अंदर! अपनी भुजाओं में! मंगल को स्पर्श मिला, तो उसने भी उसको आलिंगनबद्ध कर लिया! "हाँ, आउंगी!" वो बोली, "मैं इंतज़ार करूँगा" बोला मंगल! "हाँ, मैं ज़रूर आउंगी" वो बोली, "अब देर न कर, अब जा" वो बोला, खुद ही बर्तन समेटे और दे दिए उसको! वो चली गयी, और मंगल की निगाहें, उसको वहाँ तक छोड़ के आयीं, जहां तक वो ओझल न हो गयी! उसके बाद, उस स्पर्श को भूल न सका वो मंगल! हृदय में स्पंदन बढ़ गए थे, हर पल, बुधवि ही याद आती उसे! कैसे सारी रात, उसने सुलाया था उसको! यही सोचता रहा वो मंगल! 

और इसी सोच में,सो गया दुबारा से, अब लोग नहीं आ रहे थे, कारण स्पष्ट था, कपालशंडिका ने ही रचा था ये सब! कैसे आते! कौन था अब जो उनके बीच आता! रोक दिया था उसने सभी को! दोपहर से पहले का समय हुआ! 

और नज़रें गड़ी उस रास्ते पर मंगल की। और, उसो बुधवि नज़र आई, सामने से आते हुए, सामान लाते हुए! खुश हो गया, जैसे कोई शि* किलकारियाँ मारता है खुश होने पर! बुधवि आ गयी थी! जैसा उसने कहा था, जैसा उसने वचन दिया था! वो खड़ा हुआ, जल्दी से कपड़ा बिछाया, घड़े में से, सकोरे में पानी लाया और बैठ गया! आ गयी थी बुधवि! आई,बैठी, और भोजन लगाया उसके लिए! "मेरा इंतज़ार कर रहे थे?" पूछा उसने! "हाँ!" वो बोला, "मैं आ गयी!" वो बोली, "मुझे विश्वास था!" वो बोला! 

और तभी आँखें चमक उठीं बधवि की! विश्वास! हाँ विश्वास! इसी विश्वास ने ही तो, एक यक्षिणी को, खींच लिया था उसके लोक से! एक पागल का विश्वास! मंगल खाना खा रहा था! और वो, उसके खाते हए देख रही थी! मंगल खाता था, तो एक अजीब सा सुकून उस यक्षिणी के माथे पर दीखता! उसकी आँखें चमकने लगती! ये प्रेम था! कोई सिद्धि नहीं! कोई सिद्धि-बल नहीं! कोई मंत्र-बंधन नहीं! कोई विवशता नहीं! मात्र प्रेम! विशुद्ध प्रेम! भोजन कर लिया था उसने! 

और बर्तन भी समेटने लगा था वो मंगल! लेकिन रोक दिया था उसको, वही किया करती थी ये काम! हाथ-मुंह धो लिए थे मंगल ने, पोंछ कर, आ बैठा था वहीं! "बुधवि?" बोला मंगल, "हाँ?" बोली वो! "तेरा गाँव कौन सा है?" पूछा मंगल ने! "बहुत दूर है" वो बोली, "मुझे ले जायेगी?" बोला वो, अब चुप वो! बिलकुल चुप! 

और अब, चेहरे के हाव-भाव बदले मंगल के! चेहरा नीचे कर लिया! समझ तो सब गयी वो! सब! लेकिन बोली कुछ नहीं! "कोई बात नहीं, पागल को कोई नहीं पसंद करता, रहने दे" बोला मंगल! 

वो कुछ न बोली! बस एक आह सी निकली मुंह से! 

और भींच लिया उसको अपनी बाहों में! "कोई बात नहीं, तेरी ही बेइज्जती होगी, रहने दे" बोला मंगल! कसक सी उठी! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और भुजाओं में और गठन जागी! अपना चेहरा, उस बुधवि ने रख दिया था मंगल के कंधे पर! मंगल, न रोक सका अपने आपको, आंसू, बहने ही वाले थी कि, कुछ शब्द मुंह से निकले उसके! "तू यहां तक आती है, वही बहुत है, मुझे और क्या चाहिए, अब नहीं कहूँगा, कभी" वो बोला, 

अब अपना चेहरा हटाया उसने, 

मंगल का सर उठाया ऊँगली से! "मेरे गाँव चलोगे?" पूछा अब उसने! "नहीं, रहने दे" वो बोला, "चलोगे?" पूछा उसने, 

और जैसे ही कुछ बोलने लगा मंगल, बुधवि ने ऊँगली रख दी उसके होंठों पर! "चलोगे?" उसने पूछा, होंठ तो बंद थे। 

सर हिलाया उसने! सर हिलाकर, हाँ कहा! 

और फिर, भींच लिया उस पागल को, उस बुधवि ने, अपने अंदर! मंगल.. 

............ होंठों पर ऊँगली रखे, वो बुधवि, उसे निहारे जा रही थी! झाँक रही थी उसकी आँखों में, उतर गयी थी समूचा उसके अंदर! और मंगल! मंगल, सोच रहा था, कि कहीं, इस पागल की वजह से, इस बुधवि की बेइज्जती न हो जाए! यही सोच रहा था वो! गाँव गाँव जानते थे कि एक हैं मंगल, पुराने मंदिर में रहता है, पागल है वो! और अगर ये पागल इस बुधवि के घर गया, और उन्होंने पहचान लिया, तो क्या होगा! कहीं बुधवि को उसके घरवाले मना न कर दें आने से! तब क्या करेगा वो? इस दुविधा में लटका हुआ था मंगल! तब उसके होंठों से ऊँगली हटाई उसने! मंगल अभी भी, अपलक,उसकी आँखों में ही घरे जा रहा था। उसकी जगह कोई और होता, तो अब तक भस्मीकृत हो चुका होता! और वो, वो उसकी आँखों में उतरे जा रहा था! उसको बाजुओं में भर लेती थी वो, अपने अंदर समा लेती थी, कोई और होता, तो संभवतः भस्म भी शेष न रहती उसकी! लेकिन मंगल, न उसे स्पर्श ही करता था, अपितु उसको अपनी भुजाओं में भी कैद कर लेता था! अब ये प्रेम नहीं तो और क्या है? मेरे पास कुछ और शब्द होते,


   
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