साँझ बस होने को ही थी, दिन अब तक चुका था, हमारी पीठे पीछे, अस्तांचल में जाते सूर्य अब बस विश्राम करने जा ही रहे थे, दिन भर बहुत कुपित रहे थे प्रकृति और इसमें बसने वालों से! दिन में तो आग बरसा दी थी उन्होंने आग भी ऐसी कि दिखे ही नहीं, बस फूंके ही फूंके! न बाहर चैन और न अंदर चैन! पेड़ भी बेचारे क्या करते, उनकी नयी पत्तियां कुम्हला गयी र्थी! क्या पशु और क्या पक्षी! सभी जैसे अपनी मूक भाषा में, या अपनी अपनी बोली में उस आग से बचने की गुहार लगा रहे होते! हम भी दिन में, उस दिन अपनी अपनी देह बचाते, पानी का सहारा लेते दुबके पड़े थे एक कमरे में, कमरे में रौशनदान ऐसा था कि जैसे कोई खिड़की! उसी में से हवा आती थी और थोड़ा चैन पड़ता था, बत्ती का बार बार आना-जाना लगा रहता था, और वो पंखा, शायद अंग्रेजी ज़माने का था, और अब अति वृद्धावस्था में था, आवाज़ ऐसी करता कि आंधी आएगी उसकी पंखड़ियों से, और जब चलता तो वो आंधी, आंधी न हो, फूंक भी न रहती! वो तो बस हम इस सहारे थे कि एक आद बार कोई फूंक हमें भी टकरा जाती! हम उस समय इलाहबाद से कोई सौ किलोमीटर आगे थे, यहां गर्मी ने ऐसा कहर मचाया हुआ था कि कि कब जीभ बाहर निकल जाए, पता नहीं! हम उस शाम, उस एक रेलवे की अकेली पटरी के साथ साथ आगे बढ़ रहे थे, आगे एक जगह थी, जहां हमें जाना था, उस समय मेरे साथ एक बाबा अवधू थे, और एक उनका सहायक, रिच्छा, हम उन्ही के साथ साथ आगे बढ़ रहे थे, जूतों में से आग निकल रही थी, रुमाल से माथा पोंछते पोंछते, घायल हो गया था माथा! लाल पड़ गया था, जब पसीने उस पर आते, तो ऐसी जलन होती जैसे कोई चाकू से छील रहा हो त्वचा! "और कितना दूर है बाबा?" मैंने पूछा, गर्मी के मारे मेरी टांगें आपस में टकराने लगी थीं! शर्मा जी का भी यही हाल था! "है कोई आधा किलोमीटर" वे बोले, अब था तो ये आधा किलोमीटर, लेकिन वो आधा किलोमीटर तो हमें उस समय जीवन यात्रा सी लगी! आसपास पेड़-पौधों की इंडिया, पत्तियाँ टकरा जाती थी हमसे! वहाँ पर डीज़ल इंजन चलता था, गाड़ी को ले जाते हए, तो पत्तियाँ भी काली पड़ गयी थीं उनकी! तभी पीछे से गाड़ी ने हॉर्न दिया, मैंने पीछे देखा, काल धुआं निकालते हुए, एक गाड़ी आ रही थी हमारी तरफ ही, हम रुक गए एक जगह, वो गाड़ी गुजर जाए तो आगे चलें, और जब वो गाड़ी आई, तेज चिल्लाती हई, एक तो हॉर्न,ऊपर से इंजन की आवाज़, कान फट गए!! गाड़ी भी मालगाड़ी थी, वो भी काफी लम्बी! हालत खराब हो रही थी! पीछे की तरफ, एक तालाब था, जलसोख छायी हुई थी उस पर, कुछ मवेशी घुसे हुए थे उसमे, कितना आनंद आ
रहा होगा इन्हे! यही सोचा मैंने। मन तो किया, एक आद इबकी हम भी मार लें!
और फिर गाड़ी गुजर गयी, हम फिर से वो पटरी नापते हुए आगे बढ़ने लगे! शर्मा जी के पास पानी था, मैंने पानी की बोतल ली, और पानी पिया, गर्मी के कारण तो वो भी खौल गया था! क्या करता, हलक तो गीला करना ही था!! "मर गए शर्मा जी हम तो!" मैंने कहा, "अब जेठ की शाम तो ऐसी ही होती है!" वे हंस के बोले, "हाँ, लेकिन यहां तोजेठ बहुत ठेठ है!" मैंने कहा,
तभी एक छोटी सी पलिया आई, पलिया के नीचे कोई नहर आदि थी, लेकिन पानी नहीं था उसमे, वहाँ कुछ लोग आ जा रहे थे, कोई गाँव था शायद वहां, वहीं पुलिया से ऊपर आने के लिए एक पगडंडी जैसा रास्ता भी था! हम आगे चलते रहे! "बाबा आ गए क्या?" मैंने पूछा, "हाँ, आ गए" वे बोले, लेकिन आसपास तो जंगल ही था!! मैं जान गया था कि बाबा हिम्मत बंधा रहे हैं हमारी! अब क्या करते! चलते रहे उनके पीछे पीछे। और फिर एक जगह, वो रुके, नीचे जाने के लिए एक रास्ता था, वहाँ से नीचे हए हम, नीचे आये, तो एक रास्ता दिखा, सड़क थी वो, लेकिन आसपास कुछ न था! "यहां कहाँ आ आगये हम?" मैंने पूछा, "यहाँ से सवारी मिल जायेगी" वे बोले, कहर सा टूटा मुझ पर तो! अब यहाँ से भी सवारी?? शरीर का सारा पानी चूरहा था बूंद बूंद करके! और फिर कोई थोड़ी देर में, एक सवारी भी मिल गयी, ये जीप थी, उस से कुछ मोल भाव सा हुआ, और हम बैठ गए उसमे, जीप लगता था प्रथम या द्वितीय विश्व-युद्ध की गवाह थी, या हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के युद्ध में रसद ले जाती थी! ऐसी हालत थी उसकी, कहीं ऐसा नहीं था जहाँ वेल्डिंग न हुई हो उसमे! और आवाज़ ऐसी करती थी कि न जाने कब उसके पहियों वाला सस्पेंशन निकल जाएगा आगे,और हम उन सीटों के साथ रह जाएंगे पीछे।
और आखिर में, हम पहुँच गए एक जगह! ये कस्बा था कोई छोटा सा, अब तक शाम ढल चुकी थी, लोगबाग अपने अपने घरों को जाने लगे थे! दुकानों में हंडे जल उठे थे, यहाँ ट्रेक्टर बत खड़े थे, शायद खेती-बाड़ी के सामान को ढोने के लिए! "अब?" मैंने पूछा, "चलो" वो बोले,
अब हम फिर चले उनके पीछे!
और कोई आधा किलोमीटर चलने के बाद, हम एक रास्ते पर मुड़े! और फिर कोई सौ कदम के बाद, एक स्थान पर आ गए! ये स्थान भी न जाने किसने बनाया था, इतना दूर था, पहुँच से बाहर! कोई आना भी चाहे तो सौ बार सोचे! न कोई बसावट न कोई आदमजात! जंगल ही जंगल! बत्ती ज़रूर थी वहां, कुछ और भी स्थान थे वहाँ, लेकिन सभी दूर दूर! जहां हम आये तहे, ये कोई बहुत बड़ास्थान नहीं था, छोटा ही था, यहां हमें बाबा योगनाथ से मिलना था, बाबा योगनाथ कोई अस्सी वर्ष के थे, और उन्होंने ही मुझसे बात की थी, जब मैं इलाहबाद में था! बाबा अवधू भी वहीं थे, तो इस महीने में ही मिलना निर्धारित हुआ था, और उसी कार्यक्रम के अनुसार मैं उनसे मिलने चला आया था!
आखिर में जी हमने लंका जीत ली! पहुँच गए वहाँ हम! अंदर घुसे, और बाबा अवधू के साथ चल पड़े, रास्ते में पड़ा एक बरमा, मैं तो भाग चला उसकी तरफ, शर्मा जी को बुलाया, उन्होंने पानी खींचा उस से और मैंने अपना चेहरा, हाथ धोये! पानी ठंडा था! आनंद की प्राप्ति हो गयी थी उसी समय! फिर ध्म जी ने भी हाथ मुंह धोये, फिर तो बाबा ने भी और उस सहायक ने भी हाथ मुंह पोंछ कर, हम आगे बढ़े! आगे बाबा अवधू को एक व्यक्ति मिला, विष्णु, वो परिचित था उनका, वो हमें ले गए एक जगह वहां एक कक्ष में बिठाया, वे बातें करते रहे, और मैं उस स्थान का अवलोकन! अब अँधेरा घिर गया था, बाहर बत्ती भी नहीं जल रही थी, शायद बत्ती थी नहीं, छन्द जला रखा था वहां! "बाबा कहाँ हैं?" पूछा बाबा अवधू ने, "कल आएंगे वो तो"
वो बोला, "कहाँ गए हैं?" पूछा उन्होंने, "अमरेश बाबा के पास" वो बोला, "अच्छा" वो बोले, अब तक पानी आ गया था, सो पानी पिया हमने! "कल आ जाएंगे" बाबा बोले मुझसे, "कोई बात नहीं" मैंने कहा, फिर वे आपस में बतियाने लगे, "बाबा, स्नान करना है" मैंने कहा, "हाँ, आइये" विष्णु बोला, और खड़ा हुआ,
ले गया एक जगह, वहाँ स्नानागार था, मोमबत्ती जलायी, और फिर मैंने स्नान किया,
शर्मा जी ने भी स्नान किया, स्नान करते ही हमारे शरीर मोबाइल-फ़ोन की तरह से चार्ज हो गए! अब कल तक के लिए बैटरी चार्ज हो गयी थी। हम वापिस हुए, और हमको फिर एक कक्ष दिया गया, पलंग नहीं था, न ही चारपाई, ज़मीन पर गद्दे बिछे थे, तो हम जा बैठे वहां, रिच्छा हमारा सामान ले आया था!
थोड़ी देर बाद, विष्णु आया, "चाय लेंगे?" वो बोला, "अरे नहीं! अब चाय का समय नहीं!" मैंने हँसते हुए कहा, "अच्छा जी!" वो बोला, समझ गया था! थोड़ी देर बाबा बाबा अवधू भी आ गए!
और हम बैठे रहे, बातें करते रहे! थोड़ी देर बाद विष्णु ले आया सारा सामान, साथ में हमारा माल भी! माल बढ़िया था! तो हमने अब आनंद लेना शुरू किया! गर्मी तो थी, लेकिन नहाने के बाद आराम पड़ गया था! "वैसे बाबा को काम क्या है, पता है?" मैंने पूछा, "हाँ, पता है" वे बोले, "क्या?" मैंने पूछा, "वो ही बता देंगे" वो बोले, "किस विषय में?" मैंने पूछा, "आपका ही लाभ होगा" वे बोले, मुझे उत्सुकता हुई! कैसा लाभ! "बताइये तो?" मैंने कहा, "बता देंगे बाबा" वे बोले, "अरे! कुछ तो बताओ?" मैंने कहा, "कपालशंडी यक्षिणी के बारे में!" वे बोले, मेरे सीने में तो चाकी सी चली! कपालशुंडी! कपालशुंडी यक्षिणी! महा-विकराल यक्षिणी है ये! अत्यंत ही क्रूर और महाप्रबल! "अब इसमें मेरा क्या लाभ?" मैंने पूछा, "होगा!" वे बोले, कमाल था! वो कहें कि मैं भिड़ जाऊं कपालशंडी से, और बन जाऊं भिखारी, ये कैसा लाभ!
फिर तो मात्र मृत्यु ही दया करे तो करे। "लाभ, ये लाभ नहीं समझ आया" मैंने कहा, "वो बाबा बता देंगे" वे बोले, तभी उनके फ़ोन पर फ़ोन आया, ये बाबा अमरेश का था, बाबा योगनाथ ने बात करनी थी, विष्ण ने खबर कर दी थी उन्हें, तो उनकी बात हुई, फिर मुझसे बात हुई, और ये कहा कि कल सुबह ही आ जाएंगे वो वापिस! तभी विष्णु और माल-मसाला ले आया! और बत्ती ने भी दर्शन दे दिए। "ये बढ़िया हआ!" मैंने कहा, "हाँ वे अपना गिलास खाली करते हुए बोले, विष्णु एक टेबल-फैन ले आया था, वो चलाया तो चैन पड़ा!! "विष्णु, आ जा तू भी?"बोले बाबा, "आप लो, मैं बाद में" वो बोला, "तेरी मर्जी वे बोले,
और हम खाते-पीते रहे! "शर्मा जी?" मैंने कहा, "हाँ?" वे बोले, "यार निकालो बीड़ी!" मैंने कहा, "ये लो!" वो बोले,
और तीन बीड़ियाँ सुलगा ली! एक मुझे दी, एक बाबा को और एक खुद ने सूती! तो इस तरह हमने अपना अपना कोटा कर लिया समाप्त! माल-मसाला, सब लील गए हम! उसके बाद हाथ-मुंह धोये, कुल्ला आदि किया और फिर बिस्तर पकड़ा, खाना खा ही लिया था,अब आराम से नींद आ जाए तो चैन मिले! मैं और शर्मा जी,अब जा लेटे बिस्तर पर! खर्राटे मार कर सो रहे थे,
कि अचानक रात दो बजे, बत्ती फिर से मैके चली गयी! पता तब चला, जब पसीने छलछला गए! मेरी नींद खुली तो मैंने शर्मा जी को भी नहीं सोने दिया! उठा दिया उन्हें! खिड़की से बस चांदनी झाँक रही थी अंदर! हमारा उपहास उड़ा रही थी!! "क्या बात है?" वे आँखें मलते हुए बोले, "बत्ती गयी है" मैंने कहा, "अच्छा ?" वे बोले, "एक काम करते हैं" मैंने कहा, "क्या?" वे बोले,
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"ये गद्दा बाहर ले जाते हैं, चौखट के पास, कम से कम कुछ तो हवा आएगी?" मैंने कहा, "चलो फिर" वे बोले, अब हम गद्दा और तकिया ले आये बाहर, बिछा दिया, और लेट गए, हवा तो थी नहीं, बस इतना सुकून था कि जब भी हवा का झोंका आएगा, तो छू के तो जाएगा ही! सुबह हई! हम उठे! गर्मी तो सुबह से ही तांडव करने लगी थी! गद्दा अंदर रखा, और नहाने धोने, कुल्ला-दातुन करने, और फारिग होने चले हम! हुए फारिग! स्नान किया तो आराम पड़ा! फिर चाय भी आ गयी! साथ में बंद थे, वही खा लिए! और उसके बाद मैं और शर्मा जी ज़रा
चले बाहर के तरफ! जहां कुछ हवा मिल सके! बत्ती तो अभी तक अपने मैके में ही थी! उसे कोई मनाने नहीं गया था, बार बार भाग जाती थी, इसीलिए! तो हम चले अब बाहर की तरफ! आये बाहर, रास्ता कच्चा ही था वो, अन्य कई स्थान तो थे, लेकिन दूर सूर थे, और उनमे आपसे में कोई लेन देन नहीं था, भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के थे, भी भी मतों के! हम चले आगे, आगे जंगल सा था, वहीं घूम आते तो अच्छा था! और फिर हम चलते चलते पहुँच गए वहां! यहाँ अब जितने भी पेड़ थे, उन सभी पर टोने-टोटके किये हुए सामानों की
तो नुमाइश लगी हुई थी! कौवे कई पन्नियाँ फाड़ रहे थे। उसनमे मांस के टुकड़े होंगे, इसीलिए, नीचे चींटे और चीटियाँ गश्त लगा रहे थे! एक दूसरे से टकराते, तो कानाफूसी करते, और खबर, इधर की उधर हो जाती! बदबू फैली थी वहां! सीलन की भी और उस सड़े हए मांस की भी! पीछे एक जोहड़ थी, उसकी का पानी ऐसा बदबूदार था, वहाँ तो खड़ा न हआ गया, हम और आगे चले! "लोगबाग कैसे कैसे काम करवाते हैं, देख लो!" मैंने कहा, "हाँ, सब दूसरे के सुखों से चिढ़ते हैं!" वे बोले, "हाँ, अपने बस में नहीं तो दूसरे का भी न होने देंगे काम"मैंने कहा, "और ये करने वाले तो देखो" वे बोले, "हाँ! ये जो टट्पू जीये तांत्रिक हैं न, या जिन्हे एक आद प्रेत सिद्ध हआ, वही अपने आपको श्री कामाख्या पीठ का शीर्ष औघड़ समझ बैठता है, ये ओझे, गुनिये, यही करते हैं ऐसा काम!" मैंने कहा, "हाँ, साले कुत्ते भरे पड़े हैं!" वे बोले, "सच में" मैंने कहा, हम एक जगह आये, ये जगह साफ़ थी, पेड़ लगे थे, और घास भी थी, लेकिन बैठना सम्भव नहीं था, कीड़े-मकौड़ों के एकछत्र राज था वहां। उनके राज में हम दो बड़े कीड़े थे, इसीलिए सैना सहित हमला कर देते! हमने ही हाथ जोड़ लिए उनके! और अब हुए वापिस! हम कोई
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चालीस मिनट घूमे थे। अब वापिस आ गए थे! बाबा वहीं बैठे थे कुर्सी पर, चाय पी रहे थे, हम भी साथ वाली कुर्सियों पर बैठ गए! "चाय पी ली?" पूछा उन्होंने, "हाँ" मैंने कहा, "और पी लो?" वे बोले, "नहीं, वैसे ही गर्मी ने घमासान मचाया हुआ है!" मैंने कहा, "हाँ, गर्मी तो विकट
है वो बोले, "बुरा हाल है" मैंने कहा, तभी विष्णु आ गया वहां! "चल दिए बाबा वहां से, घंटे भर में पहुँच जाएंगे" वो बोला, "अच्छा" बोले बाबा, तभी हवा चली! हवा क्या थी लू थी!
खाल जलाने वाली हवा!! "वहां आ जाओ" विष्णु बोला,
और हमारी कुर्सियां, एक जगह ले गया, हम बैठ गए वहीं! हम घंटे भर वहीं बैठे रहे! कोई सवा घंटे में, बाबा योगनाथ, एक अन्य बाबा के साथ आ गए वहां! नमस्कार हई, हमने चरण-स्पर्श किये उनके वे सीधे अपने कक्ष की तरफ बढ़ गए, आयु भले ही अस्सी की थी, लेकिन जिस्म में अभी जान बाकी थी! पुराना देसी माल खाया था उन्होंने! आज तो नसीब ही नहीं हमें! हम भी अपने जमरे में चले गए थे फिर, पानी पिया और बैठ गए थे, बत्ती आ गयी थी! समझौता हो गया था उसका! कुछ देर बाद, हमें विष्णु लेने आया, बाबा ने बुलाया था हमें! "आओ" मैंने कहा, "चलिए" वो बोले, हमने जूते पहने और चल पड़े विष्णु के साथ! पहुंचे बाबा के पास! "आओ बैठो' वो बोले, हम बैठ गए! मैं अब उनके प्रयोजन के बारे में जानना चाहता था! "और आपके गुरु श्री कैसे हैं?" बाबा ने पूछा,
"कुशल से हैं" मैंने कहा, "अभी दो महीने पहले मिला था उनसे" वे बोले, "अच्छा" मैंने कहा, "हाँ, आपके बारे में भी पूछा था मैंने" वे बोले, "अच्छा" मैंने कहा, फिर वे चुप हुए!
और मैं बोला, "मुझे बाबा अवधू ने बताया था कि आप मुझसे मिलना चाहते हैं?" मैंने पूछा, "हाँ" वो बोले, "प्रयोजन बताएं!" मैंने कहा, "बाबा अवधू ने कुछ बताया?" पूछा उन्होंने, "हाँ, कपालशुंडी के बार में कुछ बताया था" मैंने कहा, "हाँ, लेकिन किसलिए, ये नहीं बताया?" उन्होंने पूछा, "नहीं, बोले बाबा ही बताएँगे" मैंने बाबा अवधू को देखते हुए कहा, "अच्छा ...." वे बोले, "आप बताएं?" मैंने कहा, "आप क्या जानते हैं कपालखंडी के बारे में?" उन्होंने पूछा, "अति-विकराल, अत्यंत-प्रबल, महाण्डिका और न सधने वाली यक्षिणी है ये!" मैंने कहा, "हाँ, सही" वे बोले, मुझे प्रसन्नता हुई, मेरा ज्ञान सही था! "क्या किसी ने साधा है इसको?"वे बोले, "मैंने नहीं सुना" मैंने कहा, वे चुप हुए! मैं उन्हें ही देखू! सोचूं, इसमें मेरा क्या काम? "मैंने भी नहीं सुना" वे बोले, मैं अंदर ही अंदर ठहाका मार कर हंसा! न मैंने सुना, न आपने! तो मुझे क्यों बुलाया!! "तो बाबा?" मैंने प्रश्न किया! "ऐसी विकारल शक्ति को कोई नहीं साध सकता, एक वर्ष की तो साधना ही है इसकी असम्भव है, है न?" वे बोले,
"हाँ, लगभग असम्भव" मैंने कहा, "और ऊपर से उसकी एक सैकड़ा क्रियाएँ!" वे बोले, "हाँ" मैंने कहा, "हाँ, कोई नहीं साध सकता" वे बोले, अजीब सी पहेलिया बुझा रहे थे बाबा! कोई नहीं साध सकता, वे स्वयं ही बता रहे थे! और वो बाबा अवधू, वो मेरे लाभ की बात कर रहे थे! "अच्छा , एक बात और" वे बोले, "क्या बाबा?" मैंने पूछा, "क्या कोई साधारण मनुष्य उसको साध सकता है?" उन्होंने पूछा, ये कैसा अजीब प्रश्न था!! लगता था रात को अधिक ही गटक ली थी बाबा ने! अब ऐसा कैसे सम्भव? मैं चुप!! "और वो, वो कपालशुंडी, उसकी प्रेयसी बन जाए तो?" वे बोले,
क्या???????? ये क्या सुना मैंने? कोई साधारण मनुष्य, उसको साध ले!
और फिर कपालशंडी उसकी प्रेयसि भी बन जाए? असम्भव! एकदम असम्भव! "असम्भव है बाबा ये तो!" मैंने कहा, वे मुस्कुराये, और मुझे देखा! पानी का गिलास उठाया, और दो घूट पानी पिया, पानी पीते हुए उनका टेंटुआ ऊपर नीचे हआ, गले का! मैंने वही देखा! गिलास नीचे रखा! "ऐसा सम्भव ही नहीं!" मैंने कहा, "लेकिन मंगल ने सम्भव कर दिखाया!" वे बोले, अब तो मेरे शरीर में कांटे चुभने लगे! लगा अभी सहस्त्र-धारा फूट पड़ेगी शरीर से, और शरीर का सारा रक्त बह जाएगा उस से! एक पल के लिए तो मेरा शरीर भी गुरुत्वाकर्षण से मुक्त हो चला था! "मगल? कौन मंगल बाबा?" मैंने अचरज से पूछा, आंखें फाड़कर! वे मुस्कुरा रहे थे!
फिर विष्णु को आवाज़ दी, और अपना झोला मंगवाया! विष्णु ले आया झोला, दे दिया बाबा को, बाबा ने अंदर हाथ डाला और............ बाबा ने झोले में से एक डायरी और कुछ पत्र से निकाले, पत्र थे या कागज़, वे ही जानें! हाँ, उन्होंने टटोला था उनको, और अपने बूढ़े हाथों से एक कागज़ सा निकाला, वैसे वो कागज़ नहीं लगता था, लगता था जैसे कोई फोटो है, उन्होंने उसे देखा, और मेरी तरफ बढ़ाया, "ये देखो" वे बोले, मैंने लिया वो फोटो, हाँ, ये फोटो ही था! लेकिन था उसमे कुछ नहीं, एक छोटा सा मंदिर सा था, ये पहाड़ी सी पर बना था, मंदिर ही हो, ऐसा भी नहीं लगता था, ये तो मुझे कोई बुर्ज सी लगती थी, एक बुर्ज जिसमे कलाकारी तो थी नहीं, लेकिन चिनाई बढ़िया थी उसकी! "ये क्या, कोई बुर्ज है?" मैंने पूछा, "नही" वे बोले, "तो ये क्या है?" मैंने पूछा, "ये एक मंदिर है"वे बोले, "ऐसा मंदिर? पुराना है क्या?" मैंने पूछा, "हाँ, काफी पुराना" वे बोले, "और इसकी अहमियत?" मैंने पूछा, "मंगल से यहीं मिली थी वो शुण्डिका!" वे बोले, एक और विस्फोट! एक यक्षिणी, वो भी मंदिर में क्या करने गयी थी, पूजा-अर्चना करने? कैसी बातें कर रहे थे बाबा भी। "मंदिर में यक्षिणी?" मैंने पूछा, "मंदिर में नहीं, मंदिर के बाहर!" वे बोले, "अच्छा, समझा!" मैंने कहा, "यहीं मिली थी, पहली बार उसे!" वे बोले, यहीं मिली थी! लेकिन अभी भी मुझे विश्वास नहीं था! जिसको साधने में एक वर्ष लगता है, एक सैंकड़ा क्रियाएँ हैं, वो कैसे मिल गयी उसको? वो भी एक साधारण से मनुष्य को? जिसको तंत्र-मंत्र की दुनिया से कोई सरोकार नहीं? लगता है बाबा को, किसी ने बहका दिया है! बाबा उस कहानी से ही ओत-प्रोत हो गए हैं। यही लगता है! "बाबा?" मैंने उस फोटो को देखते हुए कहा, "हाँ?" वो बोले,
"वो मिली? कैसे विश्वास करूँ?"मैंने कहा, "समझता हूँ, कोई विश्वास नहीं करेगा!" वे बोले, "हाँ, कोई कैसे विश्वास करेगा?" मैंने कहा, अब उन्होंने झोले में हाथ डाला, और एक और डायरी निकाली, डायरी उन्नीस सौ चौरानवें की थी! संजो कर रखी गयी थी बहुत! उसको खोला, और एक और फोटो दी मुझे! मैंने फोटो ली, ध्यान से देखा, एक स्टूल पर, एक थाली रखी थी, पीतल की, और उस थाली में, एक कंगन था, कंगन में नीले रंग के रत्न से जड़े थे, कंगन सोने का नहीं था, सफ़ेद था, मुझे,सच कहूँ, तो वो धातु समझ ही नहीं आई कि क्या थी, प्लैटिनम भी नहीं था, प्लैटिनम में भी एक अलग ही रंग की आभा झलकती है, जब वो सूर्य-रश्मि से दूर होता है! और ये कंगन, आज की तो कोई स्त्रीधारण नहीं कर सकती थी, धारण करती भी तो उसके घुटने के ऊपर ही आता ये, या किसी हष्ट-पुष्ट महिला की पाँव की पिंडली
पर! मेरी तो गर्दन में भी आ जाता वो! एक बात और, वो, फोटो का कागज़, दानेदार सा था, ये विलायती कागज़ था, फोटो श्याम-श्वेत थी, और ऐसा कागज़ साठ के दशक में प्रचलन में रहा होगा! "ये कंगन है?" मैंने पूछा, "क्या लगता है?" वे बोले, "कंगन ही" मैंने कहा, "हाँ कंगन है" वे बोले, "किसका?" अनायास ही मेरे मुंह से निकला! "शुण्डिका का!" वे बोले,
अब तो जैसे मेरे शरीर में विद्युत सी बह निकली! चिंगारियां सी भड़क गयीं।
शोले से धधक उठे मेरे सीने में! "क्या कहते हो बाबा?" मैंने कहा! "सच कहता हूँ" वे बोले, अब तो मेरा जबड़ा हुआ जड़! बरगद की दाढ़ी समान सैंकड़ों प्रश्न उठ खड़े हुए!! ऐसा कैसे सम्भव है? कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा? वो रेलगाड़ी, वो जीप, सब सच था क्या? या फिर मैं किसी विक्षिप्त बाबा से उलझ गया हूँ???? दिमाग में छेद हो चले दिमाग जैसे कान
और नाक से बाहर आने को तैयार!! शर्मा जी, जो माचिस की तीली से अपने दांत कुरेद रहे थे, तीली को फेंका, और हाथों को
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मारी गाँठ, और लगे सुनने सबकुछ। जैसा मेरा हाल था, वैसा उनका ही हाल! "लेकिन..............." वे बोले, "लेकिन क्या बाबा?" मैंने पूछा, "ये कंगन अब नहीं है" वे बोले, "अब नहीं है, मतलब?" वे बोले, "हाँ, मंगल की मौत के साथ ये गायब है, मंगल ने कुछ नहीं बताया कभी, लेकिन 'खोज' से पता चला, वो कंगन, अभी भी इस मंदिर में है" वे बोले, अब जवाब ऐसा, कि कई सारे सवाल पैदा करें! यहाँ मेरा गला जिबह होने को तैयार था, मेरे ही सवालों से! "कब हई मंगल की मौत?" मैंने पूछा, "सन बहत्तर में वे बोले,
"इसी सन बहत्तर में?" मैंने पूछा, "हाँ" वे बोले
अब ये एक नया खुलासा! मेरे तो दिमाग का कीमा बने जा रहा था! "तो आप??" मैंने पूछा, "हाँ, मैं सन बहत्तर से इसमें लगा हूँ" वे बोले, "किसमें?" मैंने पूछा, "उस कंगन में" वे बोले, "किसलिए?" मैंने पूछा, "शुण्डिका के लिए" वे बोले, "आपको क्या मिलेगा?" मैंने पूछा, "जो
आज तक किसी को नहीं मिला?" वे बोले, अब समझा! मैं समझ गया!!!! तो बाबा वो कंगन चाहते थे। ताकि, मार्ग लघु हो जाए।
और वो कपालशंडी को प्राप्त कर सकें। ये था प्रयोजन! "लेकिन मैं ही क्यों?" मैंने पूछा,
"आपने ब्रह्म-आयाम तय किया है न!" वे बोले, अब मैं पड़ा सोच में! हाँ! किया है! अश्रा के कारण! लेकिन??? "लेकिन बाबा, इसमें मेरा क्या लाभ?" मैंने पूछा, "मेरे बाद आपका सब!" वे बोले, क्या लालच था। वाह! वाह! औघड़ होते हए भी लालसा! वाह! मित्रगण!
मैं मना कर सकता था! उसी क्षण ही! परन्तु........ मुझे कुछ जानना था! अतः, रुक गया मैं। "मुझे क्या करना होगा?" मैंने पूछा, "वो कंगन!" वो बोले, "मुझे ढूंढना होगा, यही न?" मैंने पूछा, "हाँ!" वे बोले,
अब, निर्णय क्या ? हाँ, या न?? अब फंसा मैं!!!! "ठीक है" मैंने कहा, मेरे मुंह से अनायास निकला! बाबा तो प्रसन्न हो उठे। "लेकिन बाबा??" मैंने कहा, "क्या, बोलो?" वे बोले, "मुझे जानना होगा सबकुछ" मैंने कहा, "जैसे?" वे बोले, "उनकी प्रेम-कहानी!" मैंने कहा, वे चुप हए! दाढ़ी खुजलाई।
खड़े हए!
"ठीक है" वे बोले, "लेकिन अब नहीं, कल" वे बोले, "कोई बात नहीं!" मैंने कहा,
अब मैं खड़ा हुआ, उस फोटो को, उनको देते हुए! आया बाहर, शर्मा जी के साथ! "दिमाग में ताला पड़ गया मेरे तो!" वे बोले, "हाँ, सच में"मैंने कहा, "ये कौन सी दुनिया है, हम ज़मीन पर ही हैं न?" वे बोले!
मैं हंसा! उनके कंधे पर हाथ रखा, और चल पड़ा अपने कक्ष की ओर! "बाबा ने जो बताया, आपको यक़ीन हुआ उस पर?" मैंने शर्मा जी से पूछा, "नहीं, पता नहीं कैसी अजीब सी बात बोली उन्होंने!" वे बोले, "यदि ऐसा हआ, तो यक़ीनन ये किसी चमत्कार से कम नहीं!" मैंने कहा, "हाँ, चमत्कार ही होगा वो!" वे बोले,
और हम लौट आये अपने कमरे में बैठे, फिर लेट गए। और तो और, ये कोई दो सौ,तीन सौ सालों की बात नहीं, ये अभी पचास-साठ साल पहले के बात है! कमाल है!" मैंने कहा, "हाँ, सही कहा!" वे बोले, मैं तो अभी भी उस कहानी पर शक़ की नज़र से ही देख रहा था! कैसे एक साधारण सा मनुष्य, उस कपालशेंडिका यक्षिणी को अपने प्रेयसी बना सकता है! हैरत की बात थी! आँख देखे मक्खी तो निगली जा सकती है, लेकिन हाथी कैसे!! और ये तो हाथी से भी बड़ी बात
थी! "अब कहानी बताएं तो पता चले!" मैंने कहा, "हाँ, मैं भी सुनना चाहता हूँ!" वे बोले, "सच में, व्याकुलता के तार बज उठे हैं!" मैंने कहा, "हाँ, सच बात है!" वो बोले,
और फिर वो दिन भी बीता और रात भी! अगला दिन आया, सुबह कोई दस बजे विष्णु आया वहाँ, हमारे पास, हम तो वैसे ही बेसब्री से इंतज़ार कर ही रहे थे। हम झट से खड़े हुए, जूते पहने, और निकल पड़े उसके साथ! वहां बाबा अवधू और बाबा योगनाथ बैठे हुए थे! हमारा ही इंतज़ार कर रहे थे! उसने प्रणाम
हुई, और हम बैठ गए वहाँ! चारपाई पर! पानी दिया विष्णु ने, तो हमने पानी पिया और हो
गए तैयार वो कहानी सुनने को! "सुनाऊँ उनकी कहानी?" बाबा ने पूछा, मुस्कुराते हुए! हम तो कान लगाये बैठे थे! "हाँ बाबा! सुनाइए!" मैंने अपनी कमर पीछे दीवार से लगाते हुए कहा!
और मित्रगण! बाबा ने कहानी सुनानी आरम्भ की! हम, समय में पीछे चलते चले गए! और एक कहानी, एक सत्य कहानी से रु-ब-रु हुए। उन्होंने जो कहानी सुनाई, वो कहानी अब मैं आपको सुनाता हूँ! अपने शब्दों में! आज का वर्तमान गोरखपुर! एक बड़ा शहर! शहरी जिंदगी की भाग-दौड़! किसी दूसरे शहर की तरह! उस से कोई अस्सी किलोमीटर आगे, पूर्व में! एक छोटा सा गाँव है! प्राकृतिक सौंदर्य की भरमार है वहां! जंगल है सघन! बड़े बड़े पेड़ हैं, कुछ टीले भी हैं वहाँ, जो पहाड़ी का सा आभास देते हैं! मैं उस गाँव का नाम नहीं लिखा रहा हूँ, इसी गाँव में एक परिवार रहा करता था, रामचरण का, रामचरण खेती किया करते थे, तीन लड़के थे और चार लड़कियां उनकी, बड़े दो लड़के, पिता संग ही खेती किया करते थे, खेती साझा ही थी, रामचरण के दो बड़े भाई थे, सबसे बड़े भाई का देहांत हो चुका था, उनके चार पुत्र अब खेती ही किया करते थे,राम चरण के तीसरे पुत्र का नाम था मंगल! एक अल्हड़ सा, हंसमुख और बेफिक्र मिजाज़ का युवक था ये मंगल! उम कोई बीस इक्कीस की रही होगी उसकी! खेती में कभी मदद करता, कभी कहीं घूमने चला जाता! अपने पिता से बनती न थी उसकी, लेकिन पलट के कभी जवाब नहीं दिया करता था! माँ से प्रेम था बहुत! अपनी बहनों का भी लाड़ला था मंगल! हना, पूजा पाठ का पक्का था मंगल! रोज सुबह, तड़के ही, स्नान करता और सीधा एक छोटे से मंदिर में जाया करता था, जिज्ञासु भी था बहुत! जिज्ञासा शांत करने के लिए, कहीं दूर भी जाना पड़े, तो चला जाता। अपनी धुन का पक्का था मंगल! ऐसे ही एक दिन की बात है, वो मंदिर की सीढ़ियां उतर रहा था, तो उसको मंदिर के नीचे एक जगह दो बाबा बैठे दिखाई दिए, मंगल ने प्रणाम किया उनसे, और मंदिर से मिला प्रसाद दे दिया उनको! बाबाओं ने आशीर्वाद दिया उसको, और भोजन करवाने को कहा उस से, मंगल ले आया उनको घर, और घर पर, माँ से कह कर, उनको भोजन करवा दिया! दोनों ही बाबा बहत प्रसन्न हुए, और उसको आशीर्वाद दिया, जाते जाते एक बाबा ने, अपने झोले से निकाल कर उसको एक अंगूठी दे दी! अंगूठी, साधारण ही थी, लेकिन मगल के लिए किसी आश्रीवाद से कम नहीं थी! "इसको पहन के रखना बेटा, हमेशा!" बोले बाबा, "जी बाबा" बोला वो,
इतन एमए, मंगल की माँ ने एक समय की रोटी-सब्जी, बाँध दी थी, मंगल ने अपने हाथों से वो दे दी उनको! बाबा प्रसन्न हए, और सभी को आशीर्वाद दिया, और चले गए! मंगल को बाबा बहुत अच्छे लगे! उसने वो अंगूठी देखी, और पहन ली! पहन कर तो इतराने लगा वो मंगल! कुछ दिन बीते, मंगल का मन अब आध्यात्म में लगने लगा था! वो मंदिर में बैठा रहता, बातें करता वहाँ पंडित जी से, और अन्य लोगों से भी! और की कई बार तो संध्या समय ही वापिस लौटता घर अपने! घर लौटता तो पिता से अनबन होती! रोज की तरह उसकी माँ ही ये अनबन खत्म करवाती कुछ हफ्ते बीते, और एक रोज वापिस आया घर मंगल, रात के समय, पिता से फिर अनबन हई,और गुस्से में पिता ने, एक बर्तन फेंक मारा! बर्तन सीधा उसी चेहरे पर लगा,
भौंह फट गयी उसकी! भाग के माँ के पास गया, अब तो माँ ने पूरा घर आसमान पर उठा लिया! चेहरा खून से नहा गया था उसका, पिता को भी दुःख हुआ बहत, लेकिन जब तल पिता उसके पास जाते, वो घर से भाग गया था बाहर! अब माँ को चिंता! की बाहर कैसे रहेगा? चोट लगी है उसे! माँ का रो रो के बुरा हाल! पिता और उनके दोनों बेटे भाग लिए उसको ढूंढने! बहत ढूंढा! बहत ढूंढा। जहां जहां जाता था वो, वहाँ वहाँ देखा! चप्पा चप्पा छान मारा! लेकिन नहीं मिला वो! खाली हाथ, लौटना पड़ा घर सभी को, घर में बहुत दुःख सा छ गया! माँ तो चढ़ बैठी! माँ ने खरीखोटी सुना दी मंगल के पिता को! मंगल के पिता सर पर हाथ रखे, सबकुछ सुनते रहे! "जाओ, जाओ, ढूंढ ले लाओ अभी, अभी!" माँ रोते रोते बोली! दोनों बेटे, चुप! शांत! बहनों का बुरा हाल! "आ जाएगा, कहाँ जाएगा?" बोले पिता जी! "आ जाए तो फिर से मारना। मार देना उसको!" माँ बोली गुस्से से। "नहीं मारूंगा" बोले पिता जी,
और फिर से भेज दिया अपने दोनों बेटों को मंगल को ढूंढने! मित्रगण! रात की सुबह हो गयी! लेकिन मंगल नहीं लौटा! सुबह सुबह, पिता जी गए मंदिर, वहीं जाता था मंगल सुबह सुबह! पंडित जी से पूछा तो पता चला, मंगल नहीं आय था उस दिन! पिता जी ने इंतज़ार किया, कि अब आये, अब आये, नहीं आया उस दिन मंगल! उस दिन भी रात होने को आई! घर में अब, मातम सा छा गया। माँ का बुरा हाल, बहनों का बुरा हाल, उस रात चूल्हा नहीं चढ़ा! किसी ने भी भोजन नहीं किया। कुछ दिन और बीते,
और मंगल नहीं लौटा! माँ ने अब खटिया पकड़ ली थी! पिता के मन में, बहुत प्रायश्चित था,
नवे मारते फेंक कर वो बर्तन, और न कुछ ऐसा होता, लेकिन अफ़सोस करने के अलावा कुछ नहीं था उनके पास! वहां मंगल! मंगल उस रात, भाग गया था एक बियाबान जंगल में! एक कपड़े से उसने अपना सर बाँधा था, और पैदल पैदल चलता गया था किसी अनजान डगर पर, सारी रात! अगले दिन, जब वो एक जगह, पेड़ के नीचे सो रहा था, तो कुछ लोगों की निगाह उस पर पड़ी, वो खून से लथपथ था, उसको वे लोग ले गए साथ अपने, सबसे पहले इलाज करवाया उसका, और उसके बाद उस से पूछा उसके बारे में। मंगल ने कुछ नहीं बताया, और उसी दिन वहां से चला गया वो! घर की याद नहीं आई उसे, बस, माँ की याद, बहनों की याद! और फिर उसके बाद, वो लौट आया अपने घर! जब घर लौटा, तो माँ-बाप, भाई, बन, बहुत खुश हए, पिता तो रो पड़े, उसकी चोट को देखा, चोट अभी हरी ही थी, उसका इलाज करवाया गया, और इस तरह, मंगल फिर से अपने परिवार में रच-बस गया। मंगल के दोनों भाइयों का ब्याह हो चुका था, उनका परिवार भी उनके संग ही रहता था, बस, उनके घर के पीछे वाली भाग में, अब पिता ने कुछ भी कहना छोड़ दिया था उस से! मंगल, अलमस्त सा, कहीं भी घूमता रहता, जो मिलता खा लेता, कभी खेत में चला जाता, कभी मंदिर में बैठा रहता! एक शाम, मंगल टहलता टहलता दूर जंगल में जा पहुंचा। उस जंगल में, शायद ही कोई आता हो! पेड़ पौधों के बीच से रास्ता बनाता हआ, वो चलता गया जंगल में, और सामने उसको एक अलग सा ही स्थान दिखा! शांत स्थान! वहां, दो तालाब थे, एक छोटा, और एक बड़ा! वो वहाँ
की सुंदरता देख, मंत्रमुग्ध सा रह गया! जब रात ढली, तो वापिस हआ घर के लिए। घर आया, भोजन किया और सो गया!
अगली सुबह, त्यौहार था, तीज का त्यहार, मंदिर में भीड़ थी उस दिन, मंगल ने भी काम करवाया मंदिर में, सहायता की लोगों की! इसमें ही आनंद मिलता था उसे! वो दिन उसने मंदिर में ही काटा! और जब संध्या हई,तो चल पड़ा वो उन तालाबों के पास जाने को! वहाँ पहुंचा, और बैठ गया! बैठा तो सुस्ताने के लिए लेटा, अब लेटा तो आँख लगी! और जो आँख लगी, तो सुधबुध खोई!
और जब आँख खुली, तो स्याह अँधेरा था! जंगल में से, अजीब अजीब सी आवाजें आ रही थीं! लेकिन वो मज़बूत जीवट वाला युवक था। उसने एक सुरक्षित सा स्थान देखा, वो वहीं लेट गया, हाँ, नींद नहीं आई उसे! इस तरह से भोर हो गयी! सुबह सुबह, उसने वहीं स्नान किया, और अब चला वापिस! पहले मंदिर गया, फिर अपने घर, बता दिया कि किसी के साथ था, इसीलिए नहीं आ सकारात को!
मित्रगण
ये सिलसिला ऐसे ही चलता रहा! वो जंगल जाता! वहां बैठता, रात गुजारता! उसे प्रेम हो चला था उस स्थान से!
और इस तरह एक वर्ष बीत गया! और कोई वर्ष भर के बाद, पिता चल बसे, जब पिता चल बसे, तो अब खेती का जिम्मा उसके हाथों में आ गया, अपने भाइयों के साथ, वो खेती पर जाने लगा, लेकिन अब भी वो जंगल में जाता, और वहाँ रात गुजारता!
और समय बीता! घर में मंगल का रिश्ता आया, तो मना कर दिया उसने, सभी ने समझाया, लेकिन नहीं माना, और उसी वर्ष दो बहनों के भी हाथ पीले कर दिए थे उन्होंने! एक रात की बात है, मंगल जिस रात नहीं लौटा था, माँ की तबियत खराब हुई, और सुबह होते होते प्राण छोड़ दिए माँ ने! जब मंगल वहां पहंचा, तो माँ के दःख में, पागल सा हो गया था वो! माँ से उसको बहुत प्यार था! अब बदल गया था मंगल! अब घर में कभी रहता, कभी नहीं! कभी कहीं, तो कभी कहीं!
खेती पर जाना भी छोड़ दिया था उसने! भाइयों ने बहुत समझाया, लेकिन उस पर कि असर नहीं पड़ता! एक दिन, मंगल मंदिर में था, तो उसको एक बाबा मिले,बाबा कहीं दूर से आ रहे थे। उस दिन बाबा से बातें करता रहा वो, सेवा करता रहा उनकी, रात भर बतियाता रहा उनसे! उनके पाँव दबाये, भोजन भी लाया उनके लिए घर से अपने! उसको मंदिर में रहना बहत अच्छा लगता था! जब भी कोई बाबा आते, वो लग जाता था पूरी तरह से उनकी सेवा में!
और एक दिन! एक दिन एक बाबा आये वहाँ! वो बाबा, सबसे अलग थे। सबसे अलग! उन बाबा से मुलाक़ात हुई मंगल की! बाबा का नाम पता चला उसको, बाबा का नाम था पंचम नाथ! बाबा काशी के थे, और अब वापिस वहीं जा रहे थे! उस रात जब मंगल बाबा पंचम नाथ के साथ था, बाबा पंचम नाथ ने उसे किसी दूसरे ही संसार में पहुंचा दिया! एक ऐसा संसार, जिसके बारे में उसने सोचा तो क्या, सुना भी नहीं था! कल्पना से परे था सबकुछ। बाबा पंचम
नाथ उस रात वहीं ठहरे थे और रात में भोजन करने के पश्चात, उस मंगल से बातें करने के पश्चात, सो गए थे। उस सारी रात सो नहीं सका था मंगल! ये बाबा अन्य बाबाओं से अलग थे, उनके पास उसके सवालों का उत्तर था, हाँ, उत्तर ज़रा टेढ़ा था, लेकिन था तो सही! बाबा पंचम नाथ से बहुत प्रभावित हुआ था
मंगल! और जब सुबह हुई, बाबा ने स्नान आदि किया, तो चलने को तैयार हुए वो, बस! मंगल ने ज़िद पकड़ ली कि वो भी साथ चलेगा उनके! बाबा पंचम नाथ ने बहुत समझाया उसे, उस से बहुत बातें कीं, लेकिन मंगल तो अटल था! नहीं मान रहा था, आंसू भी बहाने लगा था उस समय! बाबा पंचम नाथ का दिल पसीजा, उसके संग घर गए वो, बड़े भाइयों से आज्ञा दिलवाई, और ले गए उसको संग अपने! बाबा पंचम नाथ ने भी उसको तब हंसी-खुशी अपने संग रख लिया! समय बीता। मंगल ढलने लगा बाबा के रंग में। बाबा की सेवा करता, उनके संग आता जाता, हारी-बीमारी में साथ देता उनका, बाबा पंचम नाथ उसको पुत्र ही मानते थे, क्योंकि अपनी कोई संतान नहीं थी उनके! लेकिन उन दो वर्षों में न बाबा ने उसको कुछ सिखाया ही, और न कुछ बताया ही! और मंगल, मंगल ने भी कभी नहीं कहा सीखने के लिए, वो तो बस उनका झोला संभालता, सामान लाता, ले जाता! छह महीने और बीत गए! मंगल को कभी घर की याद न आई! न बुलाया ही भेजा, न कोई आया ही उसके पास! मंगल तो बस अपने आप में ही मस्त था! बाबा का साथ उसे बहुत भाता! एक बार की बात है, बाबा पंचम नाथ के पास एक बुलावा आया, बाबा पंचम नाथ को ये बुलावा गोरखपुर से आया था, गोरखपुर में बाबा पंचम नाथ के छोटे भाई भी थे, बुलावा वहीं से था! बुलावा एक महा-क्रिया करने का था! एक महा-क्रिया, जिसे मात्र जीवन में एक बार ही किया जा सकता है। और ये महा-क्रिया थी उस कपालशुंडी की! मित्रगण! मैं आपको कपालशंडी के विषय में बताऊँ ज़रा! ये एक महा-विकराल यक्षिणी है! सदैव उन्मत्त रहा करती है, इसके वर और वरदान अचूक हुआ करते हैं। ये परा-विद्या की महा-दाता है! रूप में कपाल रुपी है, देह भारी और विशाल है,आयु में, नवयौवना लगती यही! लेकिन इसकी साधना वर्ष भर की है। इसकी साधना करने वाले कई साधक इसका ग्रास बन जाया करते हैं। बड़े से बड़ा साधक भी इसके क्रोध से बच नहीं पाता। ये कुपित हो जाए तो अन्य सिद्धियां
भी कीलित हो जाया करती हैं। साधक ठूठ हो जाता है। पंचम नाथ इसी साधना के लिए निकलने वाले थे! वो क्रिया के सात दिन और रात इसमें लगते, और इस तरह फिर सात दिन कोई और! चालीस दिन से पहले, पूनः सात दिन-रात क्रिया में बैठना था, अन्यथा क्रिया खंडित हो जाती! हर साधक साधना चाहता है इसको! तो बाबा पंचम नाथ भी इसमें शामिल होने वाले थे! बाबा पंचम नाथ ने तैयारी शुरू कर दी थी, मंगल से कह दिया था कि वो भी चलेगा उनके साथ, मंगल तो बहुत खुश था! तो वो जा पहुंचे वहाँ, गोरखपुर के पास! वहां क्रिया की सारी तैयारियां पूर्ण कर ली गयी थीं! हाँ, मंगल को अनुमति नहीं थी कि वो उनके संग बैठे! मंगल को कोई आपत्ति नहीं थी! वो आज तक बैठा ही कहाँ था ऐसी या किसी और क्रिया में! वो बाबा के साथ था, बस यही बहत
था! तो वे जा पहुंचे थे!! और एक रात्रि निश्चित की गयी थी! मंगल उस स्थान में बने आवासीय क्षेत्र में था! और जिस श्मशान में वो क्रिया की जानी थी, वो अधिक दूर भी नहीं था! वहाँ से! वो रात्रि आई, और क्रिया आरम्भ हुई! मंगल अपने कक्ष में ही रहता! रात भर इंतज़ार करता बाबा का, बाबा सुबह चार के करीब आते थे वापिस! ऐसा लगातार छह रात हुआ! लेकिन सातवीं रात, बाबा नहीं लौटे चार बजे तक! उसको चिंता हुई, और वो चल पड़ा उन्हें देखने, वहाँ पहुंचा, तो क्या देखा! चार लोग वहां लहूलुहान पड़े थे! अलख उठ रही थी अभी तक! मंगल घबराया! "बाबा?" आवाज़ दी उसने, चारों तरफ देखते हुए! बाबा नहीं थे वहाँ! कहीं भी! उसने एक एक कोई पलट पलट के देखा! "बाबा?" वो चिल्ला कर बोला, उसका रोना छूट गया! बाबा का सामान तो था वहां, उनका त्रिशुल भी था, सारा सामान पड़ा था उनका, लेकिन बाबा नहीं थे। वहाँ तो कहीं नहीं! "बाबा?" वो फिर से चिल्लाया!
और तभी हवा का बवंडर सा उठा! बढ़ा उसकी तरफ! उसकी हुई आँखें बंद! लेकिन, खड़ा रहा! आँखें खोलता तो धूल घुसती मुंह में वो बैठा, और जैसे ही बैठा, गिर पड़ा। जैसे ही गिरा, तो हवा के वेग से ज़मीन पर घिसटता चला गया। कुछ समझ नहीं आया उसे! इसी एक पेड़ हाथ में नहीं आया होता, तो न जाने कहाँ रुकता! वो जैसे ही पेड़ पकड़ कर उठा, हवा शांत!
आँखें खोली! तो वो करीब पचास फ़ीट बह आया था आगे! वो वापिस भागा! "बाबा?" फिर चिल्लाया!
और तभी उसके पाँव उखड़े! धम्म से गिरा ज़मीन पर! जब गिरा, तो नज़र ऊपर गयी! ऊपर देखा, तो कोई पेड़ पर टंगा हुआ था! कोई नहीं, बल्कि दो आदमी! वो झट से उठा। और चढ़ा पेड़ पर, जैसे ही उस डाल पर आया, डाल चटकी और नीचे गिरे वे सब! डाल नहीं छोड़ी थी उसने! डाल के संग ही आया था वो नीचे, लेकिन वो, दो
आदमी धम्म से नीचे गिरे थे! और जब मंगल ने देखा, तो उनमे से एक बाबा पंचम नाथ थे, उनका पेट उधड़ गया था, आंतें बाहर आ गयी थीं, और बाबा की दर्दनाक मौत हो चुकी थी! बाबा को पकड़े के, बहुत रोया! बहुत रोया वो!
और अब आया क्रोध! उठा, बाबा का त्रिशूल लिया, और दे लगा धमकियां! कि अगर हिम्मत है तो सामने आये! आये सामने! गाली-गलौज करने लगा। त्रिशूल को हथियार बना, धमकियां देता रहा! लेकिन कोई नहीं आया! कोई भी नहीं! मित्रगण, बाबा की मौत से, उसको सदमा लगा, वो आपने में न रह सका अपने, बाबा के दाह-संस्कार के बाद, पैदल पैदल, चल पड़ा न जाने कहाँ के लिए! भटकता भटकता, आ गया अपने गाँव! गाँव आया तो भाइयों ने उसकी हालत देखी, लेकिन उसको आसरा दिया उन्होंने, मंगल अब किसी से बात नहीं किया करता था, लेटा रहता, घूमता रहता, जहाँ भोजन मिल जाए, कर लेता था! पागलों की तरह हालत थी उसकी! वो मंदिर आता, और घंटों वहीं पड़ा रहता, रात को वहीं सो जाता था, उसे अब कुछ याद नहीं था, कुछ भी याद नहीं था, बाबा की मौत ने तोड़ दिया था उसको! मंदिर के वो पंडित जी भी परलोक पहुँच चुके थे, मंदिर का काम अब गाँव के ही एक बूढ़े पंडित किया करते थे, जितना बन पड़ता, किया करते! धीरे धीरे मंदिर, मात्र तीज-त्यौहारों के लिए ही रह गया। लेकिन
मंगल, अब वहीं रहने लगा था! लोग उसकी हालत पर तरस खा, कपड़े लत्ते, भोजन आदि दे ही दिया करते थे! कुल छह महीने बीत गए! मंदिर में अब लोग कम ही आते जाते। गाँव में ही एक नया मंदिर बन चुका था, अब यहां इतनी दूर, इस चढ़ाई पर कौन आये! बस, मंगल ही रहता वहाँ! एक रात, मंगल की आँख खुली! मंगल जागा, उठ बैठा, रात का घुप्प अँधेरा था, मंगल को कुछ दिखाई तो नहीं दिया, बस, लगा कि कुछ आवाज़ सी आई थी उसको! जब कुछ पता नहीं चल सका, तो फिर से लेट गया! एक दिन कि बात है, मंगल को बाबा पंचम नाथ की याद आई, वो उनको याद कर, हंसने लगा, अब विक्षिप्तता की कगार आ पहुंची थी! वो हँसता, खुद ही बातें करता, और खुद ही जवाब दिया करता! धीरे धीरे, गाँव वालों ने उसके पागल मान ही लिया! एक बार, जब वो मंदिर आया, तो उसके हाथ में एक छोटा सा त्रिशूल था, कहीं से उखाड़ लाया था वो! अब वो वही करता, जैसा बाबा पंचम नाथ किया करते थे। वो बैठ जाता, और बस, बाबा पंचम नाथ का ही नाम जपा करता! जो दे जाता भोजन,खा लिया करता था!
आयु अभी पच्चीस की भी नहीं हुई थी उसकी! वो रात को बैठ जाता, नाम लेता और फिर सो
जाता! एक रात! उस रात मंगल को कुछ याद आया! बहुत रोया वो! बहुत!
और उसे याद आये बाबा पंचम नाथ! उनका मृत शरीर! वो उठ खड़ा हुआ। ऊपर देखा! "कौन है? किसने मारा?" चिल्लाया वो! "आ! मेरे सामने आ!" बोलता रहा वो!
और त्रिशूल लहराता रहा! जो देखता उसे, पागल कह निकल जाता था! लेकिन मंगल, अब ऐसा रोज करता! रोज! दिन में, रात में! "किसने मारा?" वो चिल्लाता! "सामने आ मेरे!" वो बोलता जाता!
और थक-हार कर, सो जाता! अब तो हर समय वो पागल मंगल, उसको पुकारता रहता, जिसने उसके बाबा को मार दिया था, किसी प्रबल औघड़ के समान और आँखें दिखाता आकाश को, मिट्टी फेंकता सामने, और बाबा पंचम नाथ का ही नाम लेता रहता! आम लोगों से मिलता जुलता नहीं था, कभी नहाया तो नहाया, नहीं तो सारी सुधबुध खो, हमेशा पागल सा, मैला-कुचैला बना घूमता रहता! पाँव में कुछ नहीं, नंगे पाँव, फटेहाल, भूख लगती नहीं थी, लेकिन जो दे देता उसे, खा लेता था, त्रिशूल उठाकर, आशीर्वाद भी दे देता था! दिन भर न जाने कहाँ कहना घूमता । रहता! कभी कहीं और कभी कहीं, हाँ, रात को आता मंदिर पर ही, वही जगह थी उसकी, वहीं उसके पत्थरों पर जाकर सो जाता, जब नींद खुलती, तो बैठा जाता, त्रिशूल उठाता, आकाश को देखता और धमकियां देता उसको, उसको धमकियां देता जिसने उसके बाबा को मार डाला था! धमकियां देते देते, अनाप-शनाप बकता! कभी रोता और कभी हँसता! फिर सो जाता! उसके घरवाले कभी नहीं आते देखने उसे! कभी नहीं, मंगल अब पागल हो चुका था! कोई नहीं था उसका, वो भी कभी घर नहीं जाता था, किसी संगी-साथी को भी नहीं पहचानता था, लोग अब उस मंदिर में आते नहीं थे, वहां अब साफ़-सफाई नहीं हुआ करती
थी! पेड़-पौधे सब बेतरतीब बढ़ गए थे! ये अब मंगल का मंदिर था! वही बसता था उसमे
अब! एक पागल का मंदिर! लोगबाग दूर ही रहते थे उस से! हालांकि कभी उलझता नहीं था किसी से, लेकिन वो पागल था, इसीलिए दूर रहते थे उस से, कुछ अच्छे लोग, उस से बात
भी करते थे, उसको भोजन भी देते, कपड़े भी देते, वो खुश होता और आ जाता मंदिर अपने! यही थी दिनचर्या उसकी! इस तरह से एक वर्ष और बीत गया! एक रात, वो वैसे ही बैठा था, धमकियां देता! आकाश को घूरता, मिट्टी फेंकता हुआ, अनाप शनाप बकता हुआ! गाली-गलौज करता हुआ! रोता हुआ, हँसता हुआ! बाबा पंचम नाथ का नाम लेता हुआ! कि अचानक, उस स्थान पर प्रकाश सा कौंध पड़ा! सुनहरा प्रकाश! नहीं देख सका वो, आँखें बंद कर ली उसने! वो प्रकाश वहीं, हवा में स्थिर हो चुका था, बड़ी हिम्मत कर, उसने आँखें खोली! उस प्रकाश के कारण, उसकी आँखें बार बार बंद हो जाती
थीं।
"कौन है?" वो बोला, आँखें बंद किये हए ही! कोई उत्तर नहीं आया! "जवाब दो?" वो बोला, कोई जवाब नहीं आया! "जवाब दो?" वे बोला, कोई जवाब नहीं! हाँ, प्रकाश थोड़ा मंद हुआ! वो खड़ा हुआ, उस सुनहरे प्रकाश मैं उसे कोई नज़र नहीं आया! "कौन है?" उसने फिर से पूछा,
कोई उत्तर नहीं! बस, आकाश से पुष्पों की बरसात होने लगी! बड़े बड़े पुष्प नीचे गिरने लगे! वो थोड़ा चौंका! ऐसा उसने नहीं देखा था कभी! बाबा पंचम नाथ ने भी नहीं बताया था उसको! अचानक से पुष्प-वर्ष बंद हई। और मनमोहक सुगंध फैली! और उसको, उस समय बाबा पंचम नाथ और उसके बीच होने वाले वार्तालाप के अंश से सुनाई दिए! "बाबा??" वो चिल्लाया! खुश हुआ! "बाबा? आ गए वापिस?" वो बोला,और भाग लिया उस प्रकाश की ओर! प्रकाश में घुसा और हो गया पार! फिर से प्रकाश को पकड़ने के लिए वो भाग, लेकिन फिर से पार! "बाबा?? आ गए? मुझे दिखाई क्यों नहीं देते आप?" वो बोला, एक पागल, सच में पागल हुआ उस क्षण! "मुझसे क्या भूल हुई बाबा?? कहाँ हो बाबा?" वो बोला,
और रो पड़ा, आंसू बहाने लगा! नीचे बैठ गया, बुक्का फाड़ फाड़ रोये! बार बार बाबा, बाबा, चिल्लाये!
और फिर अचानक से सब खत्म हो गया! न वो प्रकाश, न वो पुष्प और न ही वो सुगंध! कुछ नहीं, और वो मंगल, वहीं ज़मीन पर लेटे लेटे, सो गया! सोते सोते भी, बाबा को ही पुकारे! सुबह हुई, और सब भूल गया मंगल! सब! दिन भर घूमता रहा, और फिर शाम को आ गया वापिस! सो गया था, रात को जाएगा, जब जागा, तो फिर से बैठ गया! और फिर से लगा वही करने! धमकी देने लगा। गालियां देने लगा। अगर हिम्मत है तो सामने आ! ऐसा वैसा कहने लगा! मिट्टी फेंकने लगा! और तभी वही, सुनहरा प्रकाश कौंधा! इस बार डर गे वो,
और आँखें बंद कर ली! "कौन है?" वो बोला, आँखें बंद किये हुए!
लेकिन कोई उत्तर नहीं आया! वो खड़ा हुआ, और हिम्मत कर, दुबारा से पूछा, "कौन है?" वो बोला, कोई उत्तर नहीं। "बताओ?"वो चिल्ला के बोला अब तो! सुंगंध फ़ैल गयी थी वहां!
और तभी किसी स्त्री के स्वर गूंजे। हंसने के उसके आभूषणों के खनकने की आवाज़ आई! अब नेत्र खोल दिए उसने! लेकिन न तो प्रकाश था अब, और न ही कोई स्त्री वहां! "कौन हंसा?" वो बोला, चारों तरफ देखता हुआ! फिर से हंसने के स्वर आये। "सामने क्यों नहीं आती तू?" वो बोला, वो आगे पीछे बार देखता, दीवार के पीछे देखता, नीचे जाने वाले रास्ते को देखता!
