हम जाने लगे, वे सभी वहाँ खड़े थे, हमको देखते हुए, हंसते हुए! माई ने भी देखा हमको! हम वहाँ से नीछे उतरने लगे, और तभी, तभी अँधेरे की गिरफ्त में आ गयी वो हवेली! मैंने टॉर्च जला ली और पोटली उठाये नीचे उतर गये हम! छोटी पोटली शर्मा जी के हाथ में थी! हम नीचे आये,
वे दोनों वहीँ खड़े थे, हमको चार घंटे से ज़यादा हो चुके थे! अब सवा तीन का समय था! मैंने एक बार फिर से पीछे देखा, कुछ नहीं था, खाली, खाली अन्धकार!
अब हम वहाँ से चले!
घर पहुंचे,
मैं एमीतु को बुलाया ऊपर, उसको खाना खिलाया, हमने भी खाया, मीतू को उसके पिता जी नीचे ले गए! अब जो भी बात करनी थी वो सुबह, लेकिन नींद नहीं आ सकी रात भर! सुबह हो गयी! सुबह कुछ नींद आयी, तीन घंटे सोये हम!
और फिर,
अगले सुबह कोई ग्यारह बजे,
मैंने कुमार साहब को बुलाया, वो पोटली दी और सारी बात बता दी, वे हैरत में पड़ गए, पोटली खोली, उसमे सोने के ज़ेवर थे, चांदी के ज़ेवर, एक नव-ब्याहता का सारा सामान! मैंने सारा सामान उनको दे दिया!
जब सुबह करीं ग्यारह बजे मीतू उठी, तो सबकुछ भूल चुकी थी! वो नौ-दस महीने सब गायब थे उसके दिमाग से, बस वो नीतू से बातचीत में मशगूल थी! सभी खुश थे, मैं तो सबसे ज्य़ादा!
मित्रगण!
मीतू ठीक हो गयी!
हवेली आज भी वहीँ है!
मैं कभी नहीं गया वहाँ फिर!
मीतू का ब्याह भी हो गया! मैं तब भी नहीं गया!
वचन से बंधा हूँ!
लेकिन वे पच्चीस लोग, माई और वो सूबेदार! आज भी वहीँ हैं! अपने दुःख को महफ़िल की आड़ में दबाये हुए!
दुःख तो होता है लेकिन किया कुछ नहीं जा सकता!
खैर, जो मुझे करना था, जो कर सकता था, सो किया!
ये संसार भरा पड़ा है ऐसे ही सूबेदारों से! अपने अपने दुःख से जूझते हुए! बीहड़ों में, बियाबान में! आज भी महफिलें सज रही हैं!
------------------------------------------साधुवाद-------------------------------------------
