वर्ष २०१२ जिला अलवर...
 
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वर्ष २०१२ जिला अलवर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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"कौन हो तुम?" उसने पूछा,

मैंने अपना परिचय दे दिया!

"क्यों आये हो यहाँ?" उसने पूछा,

"माई से मिलने" मैंने कहा,

"यहाँ कोई माई नहीं" उसने कहा,

"अंदर है" मैंने कहा,

"नहीं है, जाओ यहाँ से अभी" उसने कहा,

"नहीं जाएँ तो?" मैंने पूछा,

"मार के दफ़न कर दूंगा मैं तुझे" वो बोला,

"तू मारेगा मुझे?" मैंने पूछा,

"हाँ!" उसने कहा,

"कोशिश करके देख ले!" मैंने कहा,

"नहीं जाएगा?" उसने पूछा,

"नहीं" मैंने कहा,

तब उसने किसी को आवाज़ दी! किसी का नाम पुकारा, नाम था भूदेव, यही बोला था उसने! उसने आवाज़ दी और वहाँ चार और आगे आ गए! दरबान से! वही पुराने ढर्रे के कपडे पहने!

"कौन हो तुम?" उनमे से एक ने पूछा,

"इसको बता दिया है मैंने" मैंने कहा,

उसने मेरा नाम आदि बता दिया उनको!

"क्या चाहते हो?" उसने पूछा,

"हमे अंदर जाना है" मैंने कहा,

"नहीं जा सकते" वो बोला,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्यों?" मैंने पूछा,

"नहीं जा सकते का मतलब नहीं जा सकते" वो बोला,

"अच्छा! और वो माई जा सकती है बाहर? एक मासूम लड़की को यहाँ तक लाती है इस उजड़े बसेरे में? ये ठीक है?" मैंने पूछा,

"कौन माई?" उसने पूछा,

"वही, जिसने उस लड़की को बुलाया था" मैंने कहा,

"ज़ुबान सम्भाल कर बात कर! माँ है वो हमारी!" वो बोला,

"वो लड़की भी किसी की बेटी है, सुना तूने?" मैंने कहा,

"चला जा यहाँ से नहीं तो यहीं दफ़न कर दूंगा तुझे!" वो चिल्लाया अब!

"सुन! अंदर तो मैं जाऊँगा ही! चाहे तू जाने दे या नहीं!" मैंने कहा,

"कैसे जाएगा अंदर?" उसने पूछा,

अब मैंने अपना बैग खोला, उसने देखा! मैंने बैग से भस्म निकाली और ये देखते ही वे चारों छिटक कर दूर हो गए!

"चला जा!" अब वे सारे एक साथ चिल्लाये!

मैं आगे बढ़ा!

वे मेरे सामने आये!

चारों ने भाले सामने किये!

अब मैं एक मंत्र पढ़ा! ताम-मंत्र! मंत्र पढ़ते ही मैं अपने हाथ से तीन बार चुटकी मारी, वे सभी गायब हुए वहाँ से! ताम-मंत्र की गंध आ गयी थी उनको!

"आओ शर्मा जी!" मैंने कहा,

"चलिए" वे बोले,

और तभी अंदर से कोई भागा भागा आया! मैं ठहर गया! वहाँ देखा, वे दो थे, एक लम्बा-चौड़ा आदमी था! कमर में तलवार खोंसे! पहलवानी जिस्म का था वो! अगर सच में होता वो ज़िंदा


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो मुझे और शर्मा जी को बिना किसी हथियार के ही खदेड़ देता! ऐसा था वो! जैसे कोई सिपहसलार!

और उसके साथ एक औरत थी! पचास वर्ष के आसपास! बाल खुले थे उसके, सजी-धजी थी वो! यही थी वो माई!

वे चारों दरबान फिर से हाज़िर हुए वहाँ!

माहौल गरमा गया था!

वे प्रेत-माया के सहारे थे और मैं यहाँ सिद्धियों के सहारे!

वे भी मुस्तैद और हम भी मुस्तैद!

 

"कौन हो तुम लोग?" उस सिपहसालार ने पूछा,

"मैंने अपना परिचय दे दिया है" मैंने कहा,

"किसलिए आये हो?" उसने पूछा,

"अपनी माई से पूछिए" मैंने कहा,

अब उसने माई को देखा,

और समझ गया कि क्यों आये हैं हम!

"यहाँ आपके लिए कुछ भी नहीं" वो बोला,

"मुझे पता है" मैंने कहा,

"तो फिर किसलिए आये हो?" उसने पूछा,

"मेहमान बनने के लिए!" मैंने कहा,

वो थोडा सा विचलित हुआ! अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरा, कुछ सोचा, फिर मुझे देखा, फिर शर्मा जी को देखा!

"जेनुआ है ये" अब माई ने कहा,

"हाँ, पता है" वो बोला,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मैं कोई जेनुआ नहीं हूँ" मैंने कहा,

"हाँ, नहीं तो आ नहीं पाते यहाँ तक!" वो बोला,

मैं समझ गया! बहुत दूर की बात कही थी उसने! ये विश्वास का एक धागा था, पतला सा, जो मेरी तरफ उछाला गया था!

कुछ पल शांति!

मैं भी वहीँ और वे भी वहीँ!

"आइये, मलखान सिंह की हवेली में आपका स्वागत है! मैं ही हूँ मलखान, सूबेदार!" उसने कहा,

सूबेदार! अब समझा! समझा कि हवेली क्यों सजती है! सूबेदार जैसा ओहदा किसी ज़माने में ऐसा था जैसे कि आज किसी राज्यपाल का ओहदा!

मैंने सर झुकाकर निमंत्रण स्वीकार किया! प्रेत थे तो क्या, आखिर वो महफ़िल उनकी ही थी! और मलखान सिंह सूबेदार ने निमंत्रण दिया था! सो आदर करना औचित्य्पूर्ण था!

"आइये" वो बोला,

भाले वालों के भाले सीधे हुए, रास्ता छोड़ा गया! अलग पंक्ति बना कर खड़े हो गए!

और हम अब आगे आगे चले!

"आइए, इस तरफ" मलखान ने कहा,

हम वहीँ चले!

वो आज दोपहर तक का खंडहर अब एक आलीशान हवेली में तब्दील हो चुका था! दीवारों पर चित्र बने थे, परदे आदि सब लगे थे, कालीन और मसनद सब सजे थे! पकवानों की खुश्बू आ रही थी! चावल आदि की गंध भी छायी हुई थी वहाँ! तभी हमे वहाँ सारंगी की एक धुन सुनायी दी, ये अंदर चौक से आयी थी!

"आइये, यहाँ आइये" वो बोला,

अब उधर ही चले!

और जब वहाँ आये तो नज़ारा ऐसा था जैसे किसी बादशाह का रंग-प्रसाद! हर तरफ लोग बैठे हुए थे, अलग अलग कपड़ों में, रंग-बिरंगे कपड़े, चमड़े की फीते कसीं थीं उनके सीने और कमर


   
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श्रीशः उपदंडक
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में! कटार और खंजर सभ खोंसे हुए थे उन्होंने, हमको वहाँ देख जैसे महफ़िल का तारतम्य रुक गया! सभी हमे ही देखने लगे! लेकिन हम मलखान सिंह के मेहमान थे, खुद मेज़बान मलखान ने हमको निमंत्रित किया था! मलखान ने परिचय दिया हमारा और एक जगह बैठने को कहा!

हम वहाँ मसनद सम्भाल बैठ गए! इत्र की गंध आ रही थी वहाँ, भीनी भीनी सुगंध, शायद फर्श पर इत्र का पोंछा लगाया गया था! हर तरफ गंध फैली हुई थी! भीनी भीनी बेला के फूलों की गंध!

पानी रखा गया वहाँ!

चांदी के गिलासों में, हाँ, वो चांदी ही थी, और कोई धातु थी बर्तन बनाने वाली तो वो पीतल या सोना, लेकिन ये चांदी ही थी, आखिर मलखान सूबेदार की महफ़िल थी!

पानी पिया हमने! ताज़ा ठंडा पानी! पानी में गुलाब की पंखुड़ियाँ मिलायी गयीं थी और एक तरह की मिठास सी थी उसमे, एक ख़ास मिठास, शहद जैसी! वैसे भी वहाँ का माहौल और वो महफ़िल मिली-जुली तहज़ीबो वाली लग रही थी, कहीं हिन्दू और कहीं मुस्लिम, लेकिन थीं दोनों ही आपस में कसी-मसी! पहचान करने में अवश्य ही देर लगती! कपडे भी मुस्लिम ढर्रे के थे लेकिन उनमे हिन्दुआनी तौर भी था! ये उस समय का रिवाज़ था! और वैसे भी वो महफ़िल लाजवाब और शानदार थी!

साथ में ही अपने सफ़ेद रंग के के शानदार गद्दे पर मलखान बैठ गया! यक़ीन मानिये मित्रगण! वहाँ सब में हमारा ही क़द सबसे छोटा था, सबसे मरियल यूँ कहिये, वे सभी कद्दावर, पहलवान और चौड़े कंधे और छाती वाले थे! वहाँ जो बांदियाँ खड़ीं थीं वो भी सर ढांपे, हमसे कहीं ऊंची और कद-काठी में मजबूत थीं! हमारे पास सिद्धियों की शक्ति न होती तो हम वहीँ उसी वक़्त वहाँ की खाक़ में मिल गए होते! अशरीरी प्रेतों में एक विशेष ऊर्जा विद्यमान रहती है, ये तेज कहा जा सकता है, ये तेज साधारण मनुष्य को पीड़ित कर सकता है, उसके स्नायु-तंत्र और तंत्रिका-तंत्र को प्रभावित कर सकता हा, इसी कारण से लपेट में आने वाला मनुष्य अक्सर इन्ही प्रभावों के कारण सामान्य नहीं रहता, उसको ताप की समस्या हो जाती है, मति-भ्रम या विक्षिप्तिकरण से प्रभावित हो सकता है, सिद्धियाँ इस तेज को शिथिल कर देती हैं और प्रेत ये समझ जाता है कि सामने वाला अमुक व्यक्ति सिद्धि से परिपूर्ण है! यहाँ भी यही हुआ था, इसी वजह से हमको निमंत्रण प्राप्त हो गया था, अन्यथा तो कुछ और ही होता!

तभी एक बांदी ने एक छोटी सी चांदी की तश्तरी आगे बधाई, उसमे पान थे, आजकल के पानों की तरह से उनका बीड़ा नहीं था, वे केसर के धागे जैसे किसी धागे में बांधे गए थे, आकार चौरस था उनका, किसी विशेष द्रव्य से जैसे लेप सा किया गया था उन पर! मैंने एक बीड़ा


   
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श्रीशः उपदंडक
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उठाया और शर्मा जी ने भी! और मुंह में रखने से पहले ही ध्यान आ या कि ये एक साथ नहीं खाया जा सकता, इसलिए हमने उसको दो भागों में तोडा और मुंह में रखा! पूरा मुंह भर गया उस से और वो एक तेज सा मीठा द्रव्य हमारे गले में रास्ता बनाता चला गया! लेकिन पान का कोई जवाब नहीं था! न आज है! मैंने आजतक ऐसा पान नहीं खाया फिर कभी!

वहाँ कुल या कमसे कम पच्चीस शख्स रहे होंगे, सभी एक से बढ़कर एक! कुछ बांदियाँ भी थीं, वे सेवा करने में लगी थीं! शायद अधिकाँश ने मखमल या शनील के वस्त्र पहने थे, कोने में जलते तसलिया-अलाव की रौशनी में उनके वस्त्र और उनके आभूषण ऐसे चमकते थे कि जैसे हीरों और रत्नों के हार टूट रहे हों उन पर!

बीच में कुछ गाने-बजाने के तैयारी चल रही थी! मुझे उनके वाद्य समझ नहीं आये थे, सारंगी, और छोटा सा तबला ज़रूर पहचान गया था, या फिर एकतारा सा था वहाँ, बजान एवाले एकदम सफ़ेद वस्त्र पहने थे, माथे पर टीका लगाया हुआ था उन्होंने! बदन पर सुनहरी डोरे बंधे हुए थे! उनकी नाचने-गाने वाली बांदियाँ या नृतकियां अभी घूंघट किये बैठी थीं! वहाँ जैसे समय रुक गया था और वहाँ जाइए मुझे और शर्मा जी को जैसे समय ने वर्त्तमान से उठाकर ढाई या तीन सौ साल पहले की एक हवेली में भेज दिया था!

सब अचरज से भरपूर था!

ये थी वो महफ़िल!

ये थी वो जगह जहां वो मीतू आया करती थी!

'बहुत हैं' अब मैं समझ गया था उसका अर्थ!

भाले! भाले वाले! तलवार वाले, जो उसके कहने भर पर काट देते मुझे! सब समझ गया था मैं! वो गलत नहीं थी! एक अक्षर भी गलत नहीं!

अब मुझे आगे की बात करनी थी!

तभी किसी ने तान सी छेड़ी!

उनका शोर सा हुआ!

शायद सारंगी की धुन की जांच थी!

उसके तार बिठाये जा रहे थे या फिर कुछ और, लेकिन था यही! इतना ही पता चला मुझे!

"सूबेदार साहब!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जी, कहिये?" उसने गर्दन घुमाते हुए पूछा,

"मुझे कुछ बात करनी है" मैंने कहा,

"अभी?" उसने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"थोडा रुकिए!" उसने कहा!

तब दो शख्श वहाँ एक मीना ले आये! सागर! हाँ कई सागर थे उनके पास! इसमें मौज-मस्ती का सामान था! आज की मदिरा से दूर!

मैं पल पल वहाँ की सभी गतिविधि देखता रहा!

ये थी प्रेत-माया!

समय-खंड में अटके वे प्रेत और उनकी अबूझ माया!

 

प्याले सजाये गए! चांदी के बड़े बड़े प्याले! बड़ी बड़ी तश्तरियों में पकवान! पकवान ऐसे कि जैसे साबुत ही सबकुछ बना दिया गया हो! जैसे साबुत ही गोभी और साबुत ही आलू! बड़े बड़े पकवान! प्यालों में अब मदिरा परोसी गई और दो प्याले हमारे सामने भी रखे गये! प्याले ऊपर तक भरे थे!

"लीजिये!" वो बोला,

अब हमने प्याले उठाये!

"लीजिये?" उसने कहा,

मैंने पहला घूँट भरा!

और भरते ही प्याला मुंह से हटाया!

ये अफ़ीम का घोटा था!

स्वाद थोडा सा कड़वा था, स्वाद के लिए शायद खसखस मिलायी गयी थी उसमे! ऐसे दो प्याले पी लिए जाते तो महफ़िल उठने के बाद ही हमे होश आता! सो मैंने और शर्मा जी ने प्याला रख दिया अपना अपना!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सूबेदार मुस्कुराया!

उसने फिर एक नाम लिया, ये नाम था नारो, नारो या अनारो, था यही नाम! एक बांदी आयी, चुपचाप, हाथ में एक छोटा सा भांड लिए, उसने दो प्याले उठाये एक बड़ी तश्तरी से, और हमारे सामने रख दिए, और भांड में से अब कुछ परोसा प्यालों में, महक आयी, ये कच्ची शराब थी! उस समय की बेहतरीन शराब!

"लीजिये" उसने कहा,

बांदी उठ कर खड़ी हो गयी!

"लीजिये?" उसने कहा,

मैंने प्याला उठाया, शर्मा जी ने भी उठाया,

और मैंने प्याला मुंह को लगाया, खुश्बू लाजवाब थी! और शराब भी बेहतरीन, मैं खींच गया पूरा प्याला! मेरी देखादेख शर्मा जी भी खींच गए! गले को चीरती हुई सीने में दाखिल हो गयी! हमने अजीब सा मुंह बनाया, वे सभी हंस पड़े ये देखकर! हमे भी हंसी आ गयी!

"एक और!" सूबेदार बोला,

"अभी रुकिए!" मैंने कहा,

"एक और लीजिये!" वो बेहद अदब से बोला!

"लूँगा, ज़रा सा इंतज़ार!" मैंने कहा,

"ज़रूर!" वो बोला,

और तभी थाप चली!

नाच-गाना शुरू हो गया!

लगा किसी शाही महफ़िल में आ गए हम!

शाही, हाँ,

शाही ही तो थी वो महफ़िल!

इतिहास का एक सूबेदार मलखान!

बैठा था वहाँ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हमारे साथ!

कितना वक़्त बीत गया था! लेकिन इस सूबेदार की महफ़िल आज भी जवान थी! आज भी अपने नाच-गाने से सज रही थी!

और इसमें शरीक़ थे हम!

नाच-गान ज़ोर से शुरू हो गया था! सभी मजे ले रहे थे, सभी के सभी, थिरकने लगते थे, बेखबर! इस दीन-ओ-जहां से क़तई बेखबर! उनको नहीं मालूम बाहर क्या है! कौन है, क्या हो रहा है! नहीं मालूम कि वे अब इतिहास हैं! एक जीता-जागता इतिहास!

अब पकवान लाये गए!

वे भी थोड़े बहुत खाये!

मैंने खांडसीरी से बने सेब उठाये और खाये, लाजवाब थे, ताजे और गरमा-गरम! शर्मा जी ने भी उठा के खाये! यही तो दावत थी!

"सूबेदार साहब!" मैंने कहा,

"जी कहिये?" उसन एकः,

"मुझे कुछ बेहद ज़रूरी बात करनी है" मैंने कहा,

"बहुत वक़्त बाकी है" उसने कहा,

"मेरे पास नहीं है" मैंने कहा,

उसने गौर से मुझे देखा!

उसकी सुरमे लगीं आँखों से झांकती उसकी बड़ी बड़ी पुतलिया! कोई और देख ले तो मारे भय के पछाड़ खा जाए!

"आइये" वो उठा,

हम भी उठे,

मैंने अपने जूते पहने,

शर्मा जी ने भी पहने,

उसने भी अपनी तौबदार जूतियां पहनीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आइये!" वो बोला,

हम एक कमरे के सामने थे!

वो कमरे में घुसा!

हम भी घुसे!

"बैठिए" उसने कहा,

शानदार कमरा! हथियारों से सुसज्जित कमरा!

हम बैठ गये!

"कहिये अब?" उसने कहा,

"वो लड़की मीतू!" मैंने कहा,

"अच्छा!" वो बोला,

"हाँ!" मैंने कहा,

वो चुप हुआ!

"आपकी माँ उसको यहाँ लायी है, अब उस लड़की को आज़ाद कर दो, वो भी किसी की बेटी है, उसका भी ब्याह होना है, आगे आप समझदार हैं सूबेदार साहब!" मैंने कहा,

तभी वो माई भी वहाँ आ गयी!

उसने अपनी माँ को देखा!

माँ ने उसको देखा!

"वो लड़की हमारी बाहन है" उसने कहा,

"मेरी बेटी" माई ने कहा,

"आप प्यार से ऐसा कह रहे हैं!" मैंने कहा,

"नहीं!" सूबेदार गंभीर हुआ, खड़ा हुआ, मुझे देखा, फिर माई को देखा,

फिर टहला,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आइये मेरे साथ" उसने कहा,

हम उठ खड़े हुए,

उसने पीछे चले!

वो हमको चौक के सामने से लेकर पीछे की तरफ ले गया,

वहीँ!

वहीं जहां वो जला हुआ कमरा था!

मेरा दिमाग घूमा!

कोई कहानी है इसके पीछे!

मैंने शर्मा जी को देखा,

उन्होंने मुझे देखा,

दोनों स्तब्ध हुए!

लेकिन क्या कहानी?

अब बस कहानी सुननी थी, उस सूबेदार की ज़ुबानी और रहस्य अँधेरे से बाहर आ जाता! मैं अब बेताब था!

बहुत बेताब!

वो अंदर गया, हम भी अंदर गये!

उसने दीवारों को देखा, हाथ फेरा!

उसी समय में दाखिल हो गया!

पीछे से कराह सी उठी,

मैंने पीछे देखा, मुंह ढके ये माई थी!

वही कराही थी!

"बहादुर की सेना" वो बोला,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बहादुर की सेना?" मैंने पूछा,

"हाँ, वही सेना'' वो बोला,

कौन बहादुर?

किसकी सेना?

मुझे कुछ समझ नहीं आया!

होगा कोई न कोई ये बहादुर भी!

"क्या हुआ था?" मैंने पूछा,

"क़त्ल-ए-आम" उसने कहा,

"क़त्ल-ए-आम?" मैंने हैरत से पूछा,

"हाँ" उसने कहा,

"क्या हुआ था?" मैंने पूछा,

"यहाँ आये थे वो मुझे ढूंढते ढूंढते, मैं यहाँ से दूर था, यहाँ आने के लिए मशक्कत कर रहा था, मुझे खबर मिल चुकी थी, लेकिन मैं जब तक यहाँ आया, सब ख़त्म हो चुका था, मेरी माँ, मेरे पिता जी, मेरी छोटी बहन मीना, मेरे भाई सब, सब ख़तम हो चुके थे, उन दिनों यहाँ नदी थी नीचे, सूख चली थी, मुझे यहाँ सिर्फ दो आदमी ज़िंदा मिले थे, उन्होंने ही बताया था कि क्या हुआ था, कोई नहीं बचा, हाँ, इतना पता चला कि मेरी बहन मीना को उठाके ले गये थे वे, यहाँ आग लगा दी गयी थी, सब खाक़ हो गया था, शासन दहक रहा था, बुनियादें हिल रही थीं, कई बाग़ी हो गए थे, मैं भी एक जंग में मुलव्विस था, तभी ऐसा हुआ था, मैं क्रोध में भर चला, भाग चला यहाँ से अपने साथियों के पास, बदला लेने और अपनी बहन को बचाने के लिए, लें कुछ न हो सका, राव की टुकड़ी से भिड़ंत हो गयी..................और मैं यहाँ चला आया, यहाँ...........सब थे यहाँ.........सभी.........लेकिन मेरी बहन नहीं................" वो बोला,

ओह! मुझे बहुत दुःख हुआ ये जानकर, इस सजी-धजी महफ़िल का इतिहास इतना करुणा से भरा था ये मुझे नहीं पता था, बहुत दुखभरी कहानी थी!

दिमाग में समय-चक्र घूम उठा अपनी पूरी गति से, कड़ियाँ जुड़ती चलीं गयीं, मीना और मीतू एक तो नहीं थे, लेकिन मीतू मीना का ही रूप थी, यही बात थी, तभी मीतू को देखकर माई ने


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसको खाना दिया था, उसको मीना चाहिए थी, तभी मीतू किसी की बेटी बनी थी और किसी की बहन!

"अब आप समझ सकते हैं" सूबेदार ने कहा,

"हाँ मैं समझ सकता हूँ" मैंने कहा,

"मैं जानता हूँ कि वो सब गलत था, लेकिन मैं माँ को रोक नहीं सका, मुझे अंजाम भी मालूम था, हम वो नहीं हैं आज जो होने चाहिए थे" वो बोला,

तभी माई आ गयी वहाँ,

दीवारों को हाथ लगाती हुई!

वे अब सब प्रेत थे!

इस हवेली में बसते प्रेत!

सब!

मित्रगण!

बहुत लोग हैं जिन्होंने इस घटना को कभी भी सही नहीं माना, न माने, मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, मैं तो बता ही सकता हूँ, अब समझने वाला या पढ़ने वाला सही माने या नहीं ये उनका फैंसला!

"मुझे बहुत दुःख है सूबेदार साहब" मैंने कहा,

मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा,

कुछ पल शान्ति छायी वहाँ!

मैंने शर्मा जी को देखा, उन्होंने मुझे देखा!

केवल हमारी ही परछाईं वहाँ अलाव की रौशनी में नाच रही थीं! और किसी की नहीं!

"आइये मेरे साथ" वो बोला,

"एक बात और सूबेदार साहब?" मैंने कहा,

"क्या? पूछिए?" उसने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"वो मीना? उसका क्या हुआ?"

अब जैसे मैंने दुखती रग पर हाथ रख दिया उनके!

"वो कभी नही मिली हमको" अब माई ने कहा,

"समझ गया मैं" मैंने कहा,

"माई, मीतू मीना लगती है आपको?" मैंने पूछा,

चुप!

मुंह छिपा लिया उसने!

"बताइये?" मैंने पूछा,

"हाँ, वही चेहरा, वही रूप, वही मेरी बेटी मीना!" वो बोली, सुबकते हुए!

मैंने और कुछ नहीं कहा न पूछा, दुःख के मारों का और दुःख उलीचना नहीं चाहता था मैं!

सवाल मेरा ही अजीब था! मनुष्य हूँ ना, इसीलिए भूल कर गया!

"आइये" वो बोला,

"चलिए" मैंने कहा,

हम फिर से उसी कमरे में आ गए!

माई भी आ गयी!

"आज के बाद कोई नहीं जाएगा उस लड़की को बुलाने, मैं वचन देता हूँ" मैंने कहा,

मैंने उसका हाथ थामा! एकदम सर्द हाथ! जैसे जमे हुए रक्त का होता है!

मैंने गर्दन हिलाकर सहमति जताई!

तभी माई आगे आयी, एक बक्सा सा खोला, धूल का गुबार उठा, मुझे धसक उठी, शर्मा जी को भी, माई ने एक छोटी सी पोटली निकाली,

"ये लो जेनुआ" उसने कहा,

"ये क्या है माई?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मेरी बेटी को देना" उसने कहा,

पोटली मैंने हाथ में ली, काफी भारी थी, पता नहीं चला क्या था उसमे!

"हमारा पता आपको मालूम है..........." सूबेदार ने कहा,

लेकिन इस से पहले वो कुछ कहे, मैंने उसकी बात काट दी, मैंने कहा, "मैं भी वचन देता हूँ, हम यहाँ आखिरी इंसान हैं जो आये हैं, आज के बाद यहाँ कोई नहीं आएगा!" मैंने कहा!

लेकिन तभी!

तभी एक टीस सी उभर गयी दिल में!

"सूबेदार! मैं आपको इस हद से निजात दिल सकता हूँ, आप सभी आगे बढ़ जाओगे!" मैंने कहा,

वो हंसा!

"हम तो क़ैदी हैं वक़्त के, खुश हैं!" बड़े भारी दिल से उसने ऐसा कहा,

मैं जानता था, भांप गया था किसलिए!

उसको इंतज़ार था, मीना का कमसे कम उसकी खबर का!

"अब हम चलेंगे!" मैंने कहा,

"रुकिए" उसने कहा,

और आवाज़ दी किसी को, एक आदमी आया वहाँ, उसन एकुछ कहा उसको, इशारा किया और फिर थोड़ी देर बाद एक पोटली आ गयी वहाँ, वो ले आया, चावल आदि की खुश्बू से वो कमरा भर गया!

"ये लीजिये! मैं आपको और क्या दे सकता हूँ!" सूबेदार ने कहा,

"आपने बहुत कुछ दिया है सूबेदार साहब! आपने लड़की की ज़िंदगी बख्श दी!" मैंने कहा,

"बहन के लिए!" उसने कहा,

"अब चलते हैं हम" मैंने कहा,

"जाइये!" उसने मुस्कुराते हुए कहा,


   
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