वर्ष २०१२ जिला अलवर...
 
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वर्ष २०१२ जिला अलवर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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"नीतू जानती है इस बारे में कुछ ना कुछ!" मैंने कहा,

"सम्भव है" वे बोले,

"हाँ!" मैंने कहा,

"माई ने कहा ये बेटी है हमारी, इसका मतलब नहीं समझ आया" वे बोले,

"कोई कहानी है इसके पीछे!" मैंने कहा,

"हाँ है तो कोई ना कोई कहानी!" वे बोले,

"पता चल जाएगा कल, नीतू से बात करके!" मैंने कहा,

"हाँ जी" वे बोले,

"हाँ, कल चलना भी है उस हवेली के लिए" मैंने कहा,

''हाँ जी, कुमार साहब से पूछ कर ही चलेंगे" वे बोले,

"हाँ, तब तक नीतू के आने के बारे में भी पता चल जाएगा, ये ठीक है" मैंने कहा,

"जी गुरु जी" वे बोले,

अपने अपने ख़याल और अपनी अपनी बातें! आँखें भारी हुईं और हम चले अब सोने! रात काफी हो चुकी थी! और कल काम भी काफी था, मेहनत! मेहनत बहुत थी! कल जाना भी था उस मलखान की हवेली के लिए भी!

सुबह हुई!

मैं और शर्मा जी संग संग ही जागे! एक एक करके स्नानादि से फ़ारिग हुए और अन्य कर्मों से भी, नहा-धो कर छत पर ही टहलते रहे, काफी विशाल गाँव था, पुराना तो था ही, पुरानी इमारतें, जो अब खंडहर का रूप ले चुकी थीं इसके पुरातन होने की साक्षी के रूप में अभी भी खड़ी थीं! बड़े बड़े पेड़ों से अटा पड़ा था गाँव!

तभी ऊपर कुमार साहब आ गए, नमस्कार हुई, साथ में उनका बेटा भी, चाय-नाश्ता लाये थे, तो हमने फिर चाय-नाश्ता किया!

"बात हो गयी नीतू से?" मैंने पूछा,

"हाँ जी" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कब तक आ रही है?" मैंने पूछा,

"जी दोपहर तक आ जायेगी" वे बोले,

"ठीक है" मैंने कहा,

"सुबह ही फ़ोन कर दिया था मैंने" वे बोले,

"ठीक किया" मैंने कहा,

चाय-नाश्ता हो चुका था, अब दोपहर तक का इंतज़ार करना था, सो किया, करना पड़ा!

और फिर दोपहर भी आ गयी!

नीतू आ गयी थी, साथ में उसके पति भी थे,

जब नीचे नीतू सभी से मिल ली तो कुमार साहब उसको ऊपर ले आये, साथ में उनके पति भी आ गये,

वे बैठ गए!

नमस्कार आदि हुई!

"नीतू, कुछ पूछना चाहता हूँ मैं मीतू के विषय में" मैंने कहा,

"जी पूछिए" वो बोली,

"मीतू की तबियत करीब नौ-दस महीने से खराब है, ये तो आपको मालूम ही है?" मैंने कहा,

"हाँ जी" वो बोली,

"मीतू, क्या कभी आपको याद है किसी औरत ने कुछ दिया हो आपको खाने को और जो खाया हो आपने?" मैंने पूछा,

"यहाँ घर में?" उसने पूछा,

"नहीं, कहीं बाहर" मैंने कहा,

अब उसने ज़ोर लगाया दिमाग पर!

"हाँ, एक बार हुआ था ऐसा!" उसने कहा,

"कब?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"उस दिन सक्रांत था, मैं और मीतू मंदिर से आ रहे थे, मैं उस दिन अपनी एक सहेली के घर भी गयी थी, गाँव में ही, वहाँ से आते समय एक जगह एक औरत मिली थी, उसके पास एक थाल था, और दो पत्तल, उसमे खाने का सामान था, उसने हमको दिया था, हमने रख लिया था, मैंने तो नहीं खाया लेकिन मीतू ने खाया हो शायद!" वो बोली,

"कहाँ दिया था उसने?" मैंने पूछा,

"बाहर गाँव के पास, मंदिर वहीँ है" उसने कहा,

"वो मंदिर से आ रगी थी?" मैंने पूछा,

"नहीं, वो जा रही थी, हमको उसने जाते देखा तो दिया था" उसने कहा,

अब खुलने लगा रहस्य!

"कैसी थी वो औरत?" मैंने पूछा,

"होगी कोई पचास साल की, अच्छे घर की लगती थी" वो बोली,

"गाँव की ही थी?" मैंने पूछा,

"ये नहीं पता" उसने कहा,

"कुछ कहा था उसने?" मैंने पूछा,

"नहीं, बस ये कि आज पूजा का दिन है, इसीलिए प्रसाद दे रही हूँ" वो बोली,

"अच्छा! तुमने नहीं खाया?" मैंने पूछा,

"नहीं, मैंने ले तो लिया था, लेकिन बाद में उसको मैंने वो एक पेड़ के नीचे रख दिया था" उसने कहा,

''और मीतू?" मैंने पूछा,

"उसने तो लेते ही खाना शुरू कर दिया था" वो बोली,

"क्या था उसमे?" मैंने पूछा,

"कुछ मिठाई थी" उसने बताया,

"वो औरत कहाँ गयी थी वहाँ से फिर?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"पता नहीं" उसने कहा,

"इसका मतलब वो मिठाई मीतू यहाँ घर तक लायी होगी!" मैंने कहा,

"हो सकता है" वो बोली,

"लायी होगी" मैंने कहा,

"तो क्या मिठाई में कुछ था?" उसने पूछा,

"हाँ, था, कुछ ऐसा ही समझ लो!" मैंने कहा,

अब राज खुल गया था!

बच गयी थी ये नीतू भी!

"चलिए कुमार साहब!" मैंने कहा,

''वहीँ?" उन्होंने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"चलिए" वे बोले,

अब मैंने अपना छोटा बैग उठा लिया, इसकी ज़रुरत पड़ सकती थी वहाँ, और फिर ज़रूरी भी था!

"तो क्या वही माई थी?" शर्मा जी ने पूछा,

"हाँ!" मैंने कहा,

''वो प्रसाद क्यों बांटेगी?" उन्होंने पूछा,

"प्रसाद कहाँ था वो?" मैंने पूछा,

"उस दिन सक्रांत का दिन था" वे बोले,

"तभी तो कोई भी खा लेता!" मैंने कहा,

"ओह! समझा!" वे बोले,

"लेकिन वो खिला क्यों रही थी?" उन्होंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"न्यौता!" मैंने बताया,

"कैसा न्यौता?" उन्होंने फिर पूछा,

"शामिल करने का!" मैंने कहा,

"अच्छा!" वे बोले,

"हाँ!" मैंने कहा,

"समझ गया! आखिर में ये लड़की चली जाती जान से!" वे बोले,

"हाँ!" मैंने कहा,

"ओह" वे बोले,

"हम सही समय पर आ गए!" मैंने कहा,

"हाँ, नहीं तो अनहोनी हो जाती!" वे बोले,

"ये लो, इनकी बाहर दहलीज में ये दो कीलें गढ़वा दो अभी" मैंने उनको बैग से

अनुभव क्र ५७ भाग ३

By Suhas Matondkar on Thursday, September 4, 2014 at 2:29pm

कील देते हुए कहा,

उन्होंने वो कीलें लीं और कुमार साहब के साथ चल पड़े दहलीज में कीलें गड़वाने, ये बहुत ज़रूरी था! ये सुरक्षा थी मीतू की!

अब हम निकल पड़े वहाँ से!

उन्ही कच्चे और मिट्टी वाले रास्ते से!

किसी तरह मिट्टी भांजते हुए पहुँच गए हम उस रास्ते पर, जहां से उस मलखान की हवेली तक जाने का रास्ता था!

 

अब हम ऊपर चढ़े, सम्भल-सम्भल के, रास्ते में कंटिली झाड़ियाँ थीं, खुजली करने वाले जंगली फूल भी थे वहाँ, एक बार रगड़ जाओ तो दो दिन तक खुजली न मिटे! मुंह पर रुमाल बाँध


   
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श्रीशः उपदंडक
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लिया हमने और ऊपर आ गए! उस रात ये फूल न देखे थे! न जाने कैसे चढ़ गए थे, अब जा कर पता चला था कि उस दिन मामला कितना कष्टपूर्ण हो सकता था! अच्छा किया था कि नहीं आये थे यहाँ!

खैर,

अब हम आगे बढ़े! उनसे बचते बचाते! यहाँ पेड़ों पर मधु-मक्खियों ने छत्ते बन रखे थे, ये भी मुसीबत थी! ज़रा सी असावधानी और उनका हमला! नीचे कूदने में हाथ-पाँव टूटने का पूरा पूरा जोखिम था! उस से भी बचना था!

हम आगे बढ़े, अब हवेली के बड़े बड़े पत्थर आ गए, ये फर्श की तरह से बिछे थे, हवेली अब बची न थी, खंडहर हो चुकी थी, जगह जगह बड़े बड़े पत्थर पड़े थे, लेकिन हवेली कभी आलीशान रही होगी इसका पता चलता था! दीवारें बहुत मोटी मोटी और दरवाज़े भी बहुत चौड़े रहे होंगे और लम्बे भी, वे लोग अपने क़द के अनुसार ही ऐसी हवेलियां आदि बनवाया करते थे! तभी मुझे ध्यान आया कुछ, चौक! हवेली का चौक! जैसा बताया था मुझे मीतू ने!

"शर्मा जी?" मैंने कहा,

"हाँ जी?" वे बोले,

वे हवेली में ही खोये हुए थे! चौंक पड़े मेरे सवाल से!

"यहाँ चौक ढूँढिये!" मैंने कहा,

''अच्छा! अंदर चलते हैं!" वे बोले,

"चलो" मैंने कहा,

और फिर हम तीनों अंदर चले उसके!

घास-फूस का ढेर लगा था, पक्षियों ने घोंसले बना रखे थे, उल्लू के भी यहाँ बसेरे थे, उसकी विष्ठा वहाँ बिखरी पड़ी थी! चमगादड़ भी चैन से समय काट रहे थे वाहन! झुण्ड के झुण्ड लटके हुए थे वहाँ, पेड़ों पर!

"यहाँ तो एक अलग ही संसार है" शर्मा जी ने कहा,

"हाँ!" मैंने कहा,

"बरसों बाद ही किसी के क़दम पड़े हों यहाँ!" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, ये है मलखान की हवेली!" मैंने कहा,

''अपने समय में खूब रौशन रहती होगी ये हवेली!" वे बोले,

और फिर हम और अंदर गए!

अंदर एक जगह दीवारें काली हुई पड़ीं थीं! जैसे वहाँ कभी आग लगायी हो या लगी हो! कमरा बहुत बड़ा रहा होगा! अभी भी उसका परिमाप बहुत था, चार ट्रक आसानी से खड़े हो सकते थे उसमे, हाँ, अब छत नहीं थी उसके ऊपर!

"यहाँ तो आग लगी होगी, ऐसा लगता है" वे बोले,

"हाँ, यक़ीनन!" मैंने कहा,

"ओह" वे बोले,

तभी पीछे कुछ सरसराहट सी हुई, हम सब ने वहाँ देखा, वहाँ एक जानवर के बच्चे थे, शायद जंगली बिल्ली के! दो बच्चे थे वहाँ, हमे ही देख रहे थे!

"बिल्ली के बच्चे!" वो बोले,

"हाँ, सिवेट जाति के हैं" मैंने कहा,

"लग तो बिल्ली के ही रहे हैं!" कुमार साहब बोले,

"एक तरह की जंगली बिल्ली के हैं!" मैंने कहा,

"निकलो यहाँ से, इनकी माँ आ गयी तो हमला कर देगी!" मैंने कहा,

"चलो" वे बोले,

हम निकले वहाँ से!

पीछे आये,

वहाँ हमको एक चौक दिखायी दिया! हवेली के बीचोंबीच बना एक चौक! ये जगह साफ़ थी! पत्थर का फर्श था वहाँ, बीच बीच में से दूब-घास निकल आयी थी वहाँ! गहरे हरे रंग की!

"ये है वो चौक!" मैंने कहा,

"हाँ!" शर्मा जी बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"यहाँ लगती है महफ़िल!" मैंने कहा,

"अच्छा!" शर्मा जी बोले,

"कुमार साहब! यहाँ आती है मीतू!" मैंने कहा,

उनको झटका सा लगा!

जैसे बेचारे गिरने वाले ही हों!

"यहाँ का न्यौता मिलता है उसको!" मैं कहा!

"हे ******!" उन्होंने कहा,

"कुमार साहब! आप ज़रा यहाँ खड़े हो जाइये!" मैंने उनको एक साफ़ जगह खड़ा किया! मैं अब वहाँ कलुष-मंत्र पढ़ना चाहता था!

अब मैंने कलुष-मंत्र पढ़ा!

अपने व शर्मा जी के नेत्र पोषित किये और फिर हमने आँखें खोल लीं, दृश्य स्पष्ट हुआ! सामने दीवार पर चित्र बने थे, राजस्थानी चित्र! काले और पीले रंग के चित्र! बीच बीच में गहरा लाल भी! हवेली जागृत सी हो गयी! कम से कम वो चौक! प्रेत-माया थी ये सब! लेकिन, वहाँ कोई भी प्रेत नहीं था, कोई भी नहीं, न ही वो माई!

"यहाँ कोई नहीं!" मैंने कहा,

"हाँ, कोई नहीं!" मैंने कहा,

"ज़रा बाहर चलते हैं" वे बोले,

"चलो" मैंने कहा,

हम बाहर आये, कुमार साहब भी हमारे साथ आ गए! वे पहले से ही घबराये हुए थे!

"खंडहर ही है सारा!" मैंने कहा,

"हाँ, यहाँ कोई नहीं!" वे बोले,

"अब समझे कुछ?" मैंने कहा,

"नहीं तो?" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अब हमे रात को आना होगा यहाँ!" मैंने कहा,

''अच्छा!" वे बोले,

"क्या करें? चलें?" मैंने कहा,

"चलिए" वे बोले,

और हम वापिस चले वहाँ से! वहाँ कोई नहीं मिला था, मुझे उम्मीद थी कि कोई मिल जाए, लेकिन लगता था वे रात को है यहाँ आते हैं!

''चलो!" मैंने कहा,

हम उस खंडहर से निकलते हुए, रास्ता बनाते हुए, नीचे आने लगे! तभी शर्म अजी रुक गए, उन्होंने पीछे देखा, मैंने भी देखा, कुमार साहब ने भी देखा, उनको कुछ नहीं दिखा! मुझे और शर्मा जी को दिखा!

एक दरबान! उसके हाथ में भाला था! वो दूर खड़ा हमको ही देख रहा था! रौबदार मूंछें और दाढ़ी, कमरबंद बांधे हुए, सर पर रंग-बिरंगा साफ़ा बांधे हुए! कम से कम सौ फीट दूर होगा!

"आप यहीं रुको कुमार साहब!" मैंने कहा,

वे रुक गए!

''आओ शर्मा जी!" मैंने कहा,

मैंने उनका हाथ पकड़ा और उस दरबान की तरफ चल पड़ा!

वो जस का तस खड़ा था!

हम आगे चलते गए! चलते गए!

वो एकदम से मुड़ा और और फिर पीछे हुआ, जैसे हमको कहा हो वहाँ उसके पीछे आने के लिए, हम भागे उसके पीछे! वहाँ आ गए जहां वो खड़ा था, लेकिन वो नहीं था वहाँ! हमने फिर नीचे उतरने की सोची, पीछे की तरफ, जहां जंगल था! हम चल पड़े उसके पीछे, हालांकि वो वहाँ नहीं था अब!

 

हम उस जगह तक पहुंचे, आसपास देखा, कोई नहीं था, वहाँ कोई रास्ता भी नहीं था, छिप वो सकता नहीं था, तो गया कहाँ? और फिर, वो आया क्यों था? कोई तो कारण अवश्य ही था,


   
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श्रीशः उपदंडक
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लेकिन अब वो नहीं था वहाँ, वहाँ कोई रास्ता भी नहीं था, एक खड़ी सी ढलान थी, वहाँ उतरना खतरे से खाली नहीं था!

"कहाँ गया वो?" मैंने पूछा,

"पता नहीं" वे बोले,

"आया तो यहीं था?" मैंने कहा,

"हाँ" वे बोले,

हमने आसपास देखा, कहीं भी नहीं था!

"लगता है चला गया!" मैंने कहा,

"हाँ" वे बोले,

"चलो वापिस" मैंने कहा,

"चलिए" वे बोले,

अब हम वापिस हुए!

भागने की मेहनत बेकार हो गयी!

वापिस आये, कुमार साहब वहीँ खड़े थे!

"चलिए कुमार साहब" मैंने कहा,

''चलिए" वे बोले,

मैंने एक बार फिर से पीछे देखा, कोई नहीं था, हम ढलान उतर गए और अब वापिस हुए घर चलने के लिए, अब यहाँ रात को ही आना ठीक था!

"कैसी अजीब सी हवेली है वो" कुमार साहब बोले,

"हाँ कुमार साहब" मैंने कहा,

"यहाँ तो दिन में ही डर लग रहा है, रात में न जाने क्या हो!" वे बोले,

"हाँ, डरने की बात तो है ही" मैंने कहा,

"अब यहाँ रात को आना है?" उन्होंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, लेकिन अब सिर्फ मैं और शर्मा जी ही आयेंगे" मैंने कहा,

"क्यों गुरु जी?" कुमार साहब ने पूछा,

"वहाँ न जाने क्या हो?" मैंने समझाया!

"अच्छा" वे बोले,

"हाँ, आप नहीं आना" मैंने कहा,

"गुरु जी, हम नीचे ही रुक जायेंगे?" वे बोले,

"ये ठीक है" मैंने कहा,

वहाँ वे नीचे रुक सकते थे!

"लेकिन न जाने कितना समय लग जाए?" मैंने कहा,

"कोई बात नहीं गुरु जी, आप जब इतना सब कर रहे हैं, अपनी जान पर खेल रहे हैं तो हम तो केवल नीचे ही खड़े हैं" वे बोले,

"चलिए कोई बात नहीं" मैंने कहा,

अब हम बातें करते करते घर आ गए!

घर आये तो खाना लगवा दिया गया, सो खाना खाया और फिर कुछ देर आराम किया! कुमार साहब नीचे चले गये!

"अब रात को चलना है?" शर्मा जी ने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"कितने बजे करीब?" उन्होंने पूछा,

"यही कोई ग्यारह बजे" मैंने कहा,

"ग्यारह बजे, लेकिन कुमार साहब ने तो कहा कि मीतू अक्सर दो बजे निकलती थी घर से?" वे बोले,

"उसको बुलावा आता था" मैंने कहा,

"अच्छा! समझ में आ गया!" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ग्यारह बजे भी कोई न कोई तो होगा ही वहाँ? प्रेत-काल संधि के समय हम वहीँ होंगे" मैंने कहा,

"ठीक है" वे बोले,

उसके बाद बातें करते करते आँख लग गयी! थक भी गए थे, सो हम सो गए!

जब आँख खुली तो छह बज रहे थे!

मैंने शर्मा जी को जगाया अब,

वे जागे,

''छह बज गए?" उन्होंने पूछा,

"हाँ!" मैंने कहा,

"बड़ी तेजी से भाग समय!" वे बोले,

"हम गहरी नींद सोये!" मैंने कहा,

"यही बात है!" वे बोले,

अब ऊपर कुमार साहब आ गए, वे जान गए कि हम उठ चुके हैं!

अंदर आये और बैठ गए!

"कुछ भोजन?" उन्होंने पूछा,

"नहीं नहीं!" मैंने कहा,

"चाय पिलवा दीजिये" शर्मा जी ने कहा,

"आ रही है चाय" वे बोले,

और फिर उनका बेटा चाय ले आया!

हमने अपने अपने कप उठाये और चाय का धीरे धीरे आनंद लिया!

"वो अजय भी कह रहा है साथ चलने को" वे बोले,

"कोई बात नहीं" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"टॉर्च ही चाहियें न?" उन्होंने पूछा,

"हाँ बस" मैंने कहा,

'और कुछ तो नहीं?" उन्होंने पूछा,

"नहीं" मैंने कहा,

"आज नयी टॉर्च मंगवा ली हैं मैंने!" वे बोले,

''अच्छा किया आपने!" मैंने कहा,

चाय खत्म हो गयी!

कप रख दिए वहीं प्लेट में!

"अब लड़की कैसी है?" मैंने पूछा,

'वही, गुमसुम" वे बोले,

"आज ये क़िस्सा ही ख़तम कर दूंगा!" मैंने कहा,

''बड़ी मेहरबानी होगी आपकी" वे बोले,

"फिर इसके भी हाथ पीले कर दीजिये!" मैंने कहा,

"आपके आशीर्वाद से ऐसा ही होगा!" वे बोले,

बर्तन ले कर चला गया उनका लड़का! और फिर कुमार साहब भी चले गए!

"शर्मा जी, मेरे बड़े बैग से एक लाल रंग का थैला निकाल लेना, आज उसकी ज़रुरत है" मैंने कहा,

''अभी निकाल देता हूँ" वे बोले,

"जाने से पहले तंत्राभूषण धारण करवाऊंगा, लेकिन ध्यान रहे, मेरी नज़र में ही रहना!" मैंने कहा,

"जी गुरु जी" वे बोले,

"और हाँ, वहाँ जो भी हो, सावधान रहना!" मैंने कहा,

"जी" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसके बाद उन्होंने एक लाल रंग का थैला निकाल कर रख लिया उस छोटे बैग में, आज ज़रूरत थी इसकी!

और फिर बजे पौने ग्यारह! खाना खा लिया था, अब महफ़िल में शिरक़त करनी थी, हम चार लोग निकल पड़े उस हवेली की तरफ!

 

ठीक ग्यारह बजे हम वहाँ के लिए निकल लिए! मैंने तंत्राभूषण धारण कर लिए थे और शर्मा जी को भी धारण करवा दिए थे, अजय और कुमार साहब के भी मैंने मालाएं दे दीं थीं ताकि वे भी धारण कर लें और सुरक्षित रहें! अब धीरे धीरे वहाँ के लिए निकल पड़े! एकदम सुनसान था वहाँ, हवा भी नहीं चल रही थी, झींगुर और मंझीरे अपनी अपनी रात की नौकरी पर लग गए थे! वे मुस्तैद थे, कहीं ऐसी कोई जगह नहीं थी जहां इनका वर्चस्व न हो! हम खरामा-खरामा आगे बढ़ते रहो!

पहले वो खंडहर मंदिर आया, और फिर हम आगे बढ़े, टॉर्च लगातार जल रही थीं! सामने से कीड़े-मकौड़े हमला कर रहे थे उस पर! कभी कभार चेहरे से भी टकरा जाते थे! खैर, अब हमारी मंजिल वही थी जहां सुबह गए थे, मलखान की हवेली! देखना था वहाँ क्या हो रहा है! कौन सजाता है महफ़िल वहाँ!

और हम पहुँच गए वहाँ!

अब मैंने अजय और कुमार साहब को वहीँ रोका, और दो टॉर्च लेकर अब हम ऊपर चढ़े, मेरे पीछे शर्मा जी थे!

''आराम से आइये" मैंने कहा,

''चलिए" वे बोले,

"इनसे बचना" मैंने जंगली फूलों की तरफ रौशनी करते हुए कहा,

"हाँ जी" वे बोले,

और हम ऊपर आ गए!

"रुको!" मैंने कहा,

वे रुक गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने कलुष-मंत्र पढ़ा अब और अपने और शर्मा जी के नेत्र पोषित कर दिए! और अब नेत्र खोले! सामने का दृश्य स्पष्ट हुआ!

हवेली के बीचोंबीच रौशनी फैली थी! ये वही चौक था जहां हम आज सुबह गए थे!

''वो देखो!" मैंने कहा,

''अरे हाँ!" वे बोले,

"यहाँ जो भी है उसको पता चल गया होगा कि हम यहाँ हैं, अब सावधानी से मेरे पीछे पीछे ही रहना!" मैंने कहा,

"जी" वे बोले,

मित्रगण! ऐसी महफिलों में मैं पहली बार जा रहा था, ऐसा नहीं था, ऐसी कई महफिलें हैं जहां मैं गया हूँ, जहां आज भी महफिलें सज रही हैं! जहां आज भी आलिम लोग आया करते हैं! आ रहे हैं आज भी! ऐसा भारत में हर जगह होता है! और राजस्थान इसमें अव्वल है! कनवाह या खानवा में आज भी युद्ध लड़ा जाता है! कई किलों में आज भी महफिलें होती हैं! नाच-गाना, भव्य-भोज आदि सब होता है! ये प्रेत हैं, जो अपने उसी समय में अटके हुए हैं, इस संसार में उनका संसार भी रौशन है आज भी! कई ऐसी पहाड़ियां हैं जहां ऐसा होता है! जहाँ रात के वक़्त सूखे कुँए भी पानी वाले हो जाते हैं और सुबह फिर वही बंजर! ऐसा ही ये स्थान था, लेकिन मीतू के साथ जो हुआ था, वो मैं पहली बार ही देखा रहा था, क्योंकि महफिलों से कोई भी बाहर नहीं जाता! ये मेरे जीवन का पहला वाक़या था जो हुआ था, जो मैंने देखा था!

"चलो आगे मेरे साथ" मैंने कहा,

अब मैं आगे बढ़ा!

शर्मा जी पीछे!

हमने रास्ता बनाया और आगे बढ़े!

"ठहरो!" एक भारी-भरकम आवाज़ आयी!

मैंने सामने देखा, कोई नहीं था, अपने बाएं देखा तो वही दरबान था! वहीँ जो सुबह भाग गया था!

हम ठहर गए!


   
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