वर्ष २०१२ जिला अलवर...
 
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वर्ष २०१२ जिला अलवर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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"वो कुआँ भी यहीं होना चाहिए?" मैंने कहा,

मैंने आसपास टॉर्च मारी!

"शायद ऊपर हो?" शर्मा जी ने कहा,

"अजय क्या कोई रास्ता है ऊपर जाने का?" मैंने पूछा,

"है जी, लेकिन रास्ता झड़ी भरा है" वो बोला,

"कोई बात नहीं" मैंने कहा,

"यहाँ से है" वो बोला,

उसने रास्ता दिखाया, बेहद संकरा सा रास्ता था,

"आइये शर्मा जी" मैंने कहा,

अब वो मेरे पीछे पीछे हुए!

हम ऊपर चढ़े,

सम्भलते हुए!

झाड़ियों से बचते हुए, लेकिन फिर भी झाड़ियाँ टकरा रही थीं, डर ये कि कहीं मिट्टी ही न धसक जाए, ये जगह कम से कम दस फीट ऊंची थी, आखिर किसी तरह से चढ़ गए! ऊपर आये, कपड़े झाडे, और फिर मैंने आसपास टॉर्च मारी और सामने मुझे कुछ दिखायी दिया, मैं आगे बढ़ चला!

ये एक कुआँ ही था, लेकिन लगता नहीं था कुआँ, एकदम खंडहर, दीवारें भी टूट चुकी थीं, वहाँ कोई आता-जाता नहीं था, इसीलिए नहीं पता था इन लोगों को, बस इस मंदिर का पता था, अक्सर हाथ जोड़ लिया करते थे यहाँ से आते-जाते लोग! कोई पुराना बंजारों का बनाया मंदिर और कुआँ था वो!

"यही है वो कुआँ" मैंने कहा,

"अच्छा!" शर्मा जी बोले,

"अब?" उन्हों ेपूछा,

"यहाँ से पूर्व में एक रास्ता है कोई, वहीँ है वो हवेली" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अरे! इतनी दूर आती है वो?" वे बोले,

"हाँ!" मैंने कहा,

अब हम फिर से नीचे उतरे, सँभालते हुए, बैठते बैठते! और फिर नीचे उतर आये!

"अजय? यहाँ आगे से कोई रास्ता है?" मैंने टॉर्च मारके पूछा,

"हाँ जी, है तो, दो रास्ते हैं, एक तो जंगल में जाता है, और एक गाँव में, वो गाँव यहाँ से दो किलोमीटर होगा" वो बोला,

"चलो फिर आगे" मैंने कहा,

अब हम फिर से आगे बढ़े!

पूर्व में जाना था, सो पूर्व ही चल पड़े!

पहले उस गाँव का रास्ता आया, उसको छोड़ा, फिर आगे गए!

अजय रुका!

"ये है जी जंगल का रास्ता" वे बोले,

अब वहाँ झाड़-झंकाड़ थे बहुत! घुसना तो दूभर था! मैंने अच्छी तरह से देखा, कोई इंसान नहीं घुस सकता था वहाँ!

"और कोई भी रास्ता है क्या?" मैंने पूछा,

"नहीं जी" वो बोला,

अब अटके हम!

क्या करें?

कोई अन्य रास्ता नहीं था, मुझे कारिंदे को ही हाज़िर करना था! पता चलता कि आगे कहाँ है वो रास्ता?

अब मैं एक ओर गया, शर्मा जी को समझा दिया, शर्मा जी वहीं खड़े हो गए और में आगे बढ़ गया! यहाँ मुझे सुजान को हाज़िर करना था!

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं एक तरफ गया, देखा कोई गीली भूमि तो नहीं, आसपास देखा, वहाँ कोई गीली भूमि नहीं थी, अब मैंने सुजान का रुक्का पढ़ दिया, मुस्कुराता हुआ सुजान हाज़िर हो गया वहाँ, वो समझ गया था कि मैं मजिल पर जाकर अटक गया हूँ! इसीलिए मुस्कुरा रहा था, अब उसका भोग तो उधार हो गया था! लेकिन फिर मैंने उस से आगे का रास्ता पूछा, उसने मुझे कुछ बताया और फिर मैं समझ गया, अब मैंने उसको वापिस किया, वो वापिस हुआ, अब मैं चला वहाँ से और उन लोगों तक आया, वे लोग बेसब्री से मेरा इंतज़ार कर रहे थे!

"आओ आगे" मैंने कहा,

वे आगे चले!

"लेकिन आगे तो कुछ नहीं, जंगल है?" अजय ने कहा,

मैंने कोई ध्यान नहीं दिया और आगे बढ़ चला,

मैं एक जगह रुक गया!

"यहाँ! यहाँ से है वो रास्ता!" मैंने कहा,

वहाँ एक पगडण्डी सी थी! ऊपर जाने के लिए, अब मैं उस पर चल पड़ा आगे आगे, वे मेरे पीछे पीछे!

हम ऊपर चढ़ गए!

दम फूल गया!

मैंने थोडा आराम सा किया खड़े होकर!

शर्मा जी मेरे पास आये,

"यहीं है गुरु जी वो हवेली?" उन्होंने पूछा,

"लगता तो यहीं है" मैंने कहा,

अब हम फिर ऊपर चढ़े!

और ऊपर!

थोडा और ऊपर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर सामने दूर एक खंडहर सा दिखायी दिया! टूटा-फूटा खंडहर! वहाँ न कोई छत थी और नहीं ही अन्य कुछ बचीखुची इमारत! बस कुछ दीवारें! लेकिन वहाँ तक पहुंचा अपने आप में बड़ी मुसीबत थी! पेड़-पौधे फैले थे वहाँ, सांप-बिच्छू, ज़हरीले कीड़े-कांटे न जाने क्या क्या हो वहाँ? मैं तो निबट लेता किसी भी तरह लेकिन वे तीन नहीं निबट पाते अगर कुछ गलत होता तो!

शर्मा जी आगे आये!

"तो ये है वो हवेली" वे बोले,

"हाँ, अब खंडहर है" मैंने कहा,

"यहाँ सजती है महफ़िल!" वे बोले,

"हाँ!" मैंने कहा,

"अंदर चलें?" उन्होंने पूछा,

अब मैंने उनको अपना संदेह व्यक्त कर दिया,

"यहाँ सुबह आना ही बेहतर है" मैंने कहा,

"हम देख आयें?" उन्होंने पूछा,

"नहीं, अभी नहीं" मैंने कहा,

"ठीक है गुरु जी" वे बोले,

''चलो वापिस अब" मैंने कहा,

"चलो" वे बोले,

अब हम नीचे उतरे!

कुमार साहब और अजय की तो जैसे आँखें फट कर बाहर आने वाली थीं! न जाने कितने कितने कोसों के सवाल उनके दिमाग में घुस गए थे!

अब हम वापिस चले! जो ढूंढना था, मिल गया था! बड़ा ही मुश्किल था वहाँ तक आना, और फिर वापसी जाना!

"गुरु जी?" कुमार साहब ने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ कुमार साहब?" मैंने कहा,

"यही है वो हवेली?" उन्होंने पूछा,

"हाँ कुमार साहब" मैंने कहा,

"लेकिन यहाँ तो कुछ भी नहीं शेष?" वे बोले,

"जब यहाँ मेहमान और मेज़बान होते हैं तो यही हवेली चकाचौंध हो जाती है! इस दुनिया से एक अलग दुनिया! खंडहर है तो क्या? प्राण अभी शेष हैं!" मैंने कहा,

"यहाँ आती है मीतू?" उन्होंने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

उन्होंने अपने कानों को हाथ लगाया!

"कैसी कहाँ किस चक्कर में फंस गयी ये लड़की?" वे बोले,

"अब आता जा रहा है सबकुछ समझ कुमार साहब!" मैंने कहा,

"लड़की ठीक तो हो जायेगी न?" उन्होंने पूछा,

"हाँ! हो जायेगी!" मैंने कहा,

"गुरु जी, ज़माना गुजर गया, आजतक ये हवेली न देखी, न सुनी!" वे बोले,

"होता है ऐसा!" मैंने कहा,

अब रास्ते में मंदिर पड़ा!

मैंने मंदिर को देखा!

"अब देखो न कुमार साहब? ये मंदिर न जाने किसने बनवाया होगा, इसमें पूजन भी होता होगा, लोग-बाग़ भी आते होंगे, और आज? आज ज़माना बदल गया है! वे लोग चले गए यहाँ से! अब ये जगह गुमनामी के सफ़े में दर्ज़ होकर शुमार हैं!" मैंने कहा,

"हाँ जी" वे बोले,

"ऐसी न जाने कितनी जगह हैं अभी इस संसार में!" मैंने कहा,

"अजी संसार छोड़िए, हमारे देश को ही ले लो!" शर्मा जी ने एक सिगरेट सुलगाते हुए कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ जी" मैंने कहा,

हम आगे बढ़ते रहे! वहीँ, जहां से आये थे!

आखिर घर पहुँच गये!

हाथ-मुंह धोया!

खाना लगा दिया गया था, सो खाना खाया!

कुमार साहब वहीँ बैठे थे!

"अब सुबह चलते हैं वहाँ" मैंने कहा,

"जी" वे बोले,

तभी वहाँ उनका बेटा आ गया, ऊपर ही, उसने बताया कि मीतू रोये जा रही है! मैं समझ गया कि क्यों!

"आइये कुमार साहब!" मैंने कहा,

मैं सीधा मीतू के कमरे में आया, वो सुबक रही थी!

मैं बैठ गया वहाँ!

"क्या हुआ मीतू?" मैंने पूछा,

"मुझे नहीं ले गए?" उसने कहा,

"तुम्हे किसने बताया कि हम वहाँ गए थे?" मैए पूछा,

"मेरे पास खबर आ गयी थी" उसने कहा,

"खबर? कौन लाया?" मैंने पूछा,

चुप!

"कौन लाया खबर?" मैंने पूछा,

माहौल भय से भर गया!

मेरी नाक के तले ये कौन आ गया था कि मुझे गंध भी न लगी? कौन था ये?


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बताओ?" मैंने पूछा,

"माई" उसने कहा,

"कौन माई?" मैंने पूछा,

"प्रसाद वाली माई" उसने कहा,

मैंने झटका खाया अब!

अब समझ में आयी कहानी!

मैं चुप हो गया! दिमागे के घोड़े लगाम तोड़कर भाग छूटे!

"कुमार साहब! अपनी बड़ी बेटी को बुलाइये!" मैंने कहा,

'जी?" उन्होंने आश्चर्य से पूछा,

"वो भले ही यहाँ एक घंटे को आये, उसको बुलाइये" मैंने कहा,

मेरे हाथ एक सूत्र लग चुका था!

 

'हाँ मीतू, तुमको नहीं ले गया मैं वहाँ" मैंने कहा,

'आपने तो कहा था" उसने कहा,

"हाँ, कहा तो था" मैंने कहा,

"मुझे भी जाना है" उसने कहा,

"अब कल ले जाऊँगा" मैंने कहा,

"नहीं अभी" उसने कहा,

"अभी नहीं" मैंने कहा,

"नहीं अभी" उसने कहा,

"नहीं" मैंने कहा,

"अभी" उसने कहा और फिर ज़ोर से रो पड़ी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मीतू? मैं ले जाऊँगा" मैंने कहा,

"अभी" उसने कहा,

"अभी वहाँ कोई नहीं है" मैंने कहा,

"हैं" उसने कहा,

"नहीं हैं" मैंने कहा,

"हैं, मुझे बुलाया है" उसने कहा,

ज़िद सी पकड़ी!

"कोई नहीं है" मैंने कहा,

"हैं?" वो चिल्ला के बोली!

खीझ समझ आ सकती थी उसकी!

"मीतू, जब मैं वहाँ गया वहाँ कोई नहीं था" मैंने कहा,

''वहाँ हैं" उसने कहा,

"नहीं हैं" मैंने कहा,

"अंदर गए आप?" उसने पूछा,

"नहीं तो?" मैंने कहा,

'वहीँ हैं वो" उसने कहा,

"कौन वो? माई?" मैंने पूछा,

''सब!" उसने गुस्से से कहा,

"वहाँ कोई नहीं था, बताओ कुमार साहब? वहाँ था कोई?" मैंने पूछा,

"नहीं जी, कोई नहीं था" अब कुमार साहब बोले,

"चौक में गए थे?" उसने पूछा,

वो बोलने लगी थी जो मैं बुलवाना चाहता था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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'वहाँ कोई चौक नहीं दिखा मुझे?" मैंने कहा,

"है वहाँ" उसने फिर चिल्ला के बोला,

"नहीं है" मैंने कहा,

"है, वहीँ माई है अभी" उसने कहा,

माई है वहाँ अभी, अभी भी!

मैंने गौर किया!

"नहीं है मीतू?" मैंने कहा,

"मुझे ले चलो, मैं दिखाती हूँ" उसने कहा,

"कल" मैंने कहा,

'आज" उसने कहा,

"आज नहीं" मैंने कहा,

"आज ही" उसने कहा,

"सुना नहीं? कल?" मैंने डाँट कर कहा!

वो बैठ गयी!

सुबकने लगी!

"ऐसा करती है ये गुरु जी" कुमार साहब बोले,

"कि बात नहीं" मैंने कहा,

"हम तो बड़े परेशान हो लिए गुरु जी" वे बोले,

"मीतू को कोई बुलाता है वहाँ, तो ही ये ज़िद करती है! है न मीतू?" मैंने मीतू से मुख़ातिब होकर कहा!

"हाँ" उसने सुबकते हुए ही कहा!

"अब रोओ नहीं, कल ले चलूँगा!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब वो और रोई!

नहीं चुप हुई किसी से भी!

"देखो मीतू, ज़रा सी देर लगती है, तुम वहाँ का रास्ता तलक भूल जाओगी, मुझे मज़बूर नहीं करो, अब जो कहा है वो मानो" मैंने कहा,

अब उसने मुझे गुस्से से देखा!

"मुझे धमकाना नहीं" उसने उठते हुए कहा!

हाँ!

यही तो चाहता था मैं!

''क्या कर लोगी?" मैंने कहा,

"मुझे रोका तो गरदन काट देंगे वो, तलवार, भाले सब हैं उनके पास!" वो बोली,

"कौन काटेगा?" मैंने पूछा,

"बहुत हैं वहाँ" उसने हाथ झिड़कते हुए कहा!

''अच्छा! उनमे है इतनी हिम्मत?" मैंने पूछा,

"हाँ, काट देंगे मेरे कहते ही" वो बोली,

मीतू के माँ-बाप डरे अब!

"अच्छा मीतू! बुलाओ उन्हें!" मैंने कहा,

चुप!

"बुलाओ मीतू?" मैंने कहा,

चुप, बस गुसे से देखे मुझे!

"बुलाओ! नहीं तो तुम्हारी बहुत पिटाई करूँगा मैं आज!" मैंने कहा,

वो डर के मारे बैठ गई बिस्तर पर!

पाँव ऊपर कर लिए उसने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बुलाओ मीतू?" मैंने कहा,

चुप!

अपने दोनों घुटनों पर अब उसने अपना सर टिकाया और मुझे देखा! घूर कर! उसकी आँखें बदलीं अब! लाल और लाल होती गयीं, मैंने मौका ताड़ा और फ़ौरन ही उसके माँ-बाप को भेज दिया बाहर! वे डर के मारे कांपते हुए बाहर भागे!

अब उसने अपना सर उठाया!

मैं जान गया, ये किसी की आमद है!

कोई आ पहुंचा था!

मीतू को बचाने!

उसके नथुने फड़के!

आँखें चौड़ी हुईं!

हाथ कस गए!

मैं तैयार हो गया!

"मीतू?" मैंने पूछा,

कोई जवाब नहीं!

बस ऐसी आवाज़ निकाले जैसे किसी बिल्ली के सीने से आती है!

मसानी-आवाज़!

"कौन है तू?" मैंने पूछा,

"चल? दूर हो जा यहाँ से?" वो बोली,

एक औरत की आवाज़ में! कड़क आवाज़!

"कौन है तू?" मैंने पूछा,

''चल?" उसने फिर से झिड़का मुझे!

"बता? कौन है तू?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"नहीं सुना? चल?" उने कहा,

"कौन है तू?" मैंने फिर से पूछा,

"चल? भाग?" वो बोली,

जो भी था! बहुत ज़िद्दी था!

अब मामला सुलझ सकता था, बस और बशर्ते ये कुछ बके!

 

"नाम बता? कौन है तू?" मैंने पूछा,

"भाग?" उसने कहा,

"नहीं बताएगी?" मैंने पूछा,

"इस लड़की को अगर हाथ लगाया तो हाथ काट के फेंक दूँगी तेरे!" वो बोली,

"अच्छा! कौन है तू को इसका पक्ष ले रही है?" मैंने पूछा,

"ये बेटी है हमारी" वो बोली,

"कैसी बेटी?" मैंने पूछा,

"हम सबकी" वो बोली,

"कौन हो तुम लोग?" मैंने पूछा,

"तेरी औक़ात से बहुत ऊपर" उसने कहा!

वो ऐसी बोली जैसे किसी अमीर-ओ-उमरा की बीवी हो! जिसका रसूख हो और सर चढ़के बोलता हो!

"है कौन तू?" मैंने पूछा,

"माई" उसने कहा,

"कौन माई?" मैंने पूछा,

"बहुत हुआ, चल भाग यहाँ से?" वो बोली,


   
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श्रीशः उपदंडक
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माई ही आयी थी! उसको बचाने के लिए!

"एक बात बता माई?" मैंने पूछा,

"बहुत हुआ?" वो चिल्ला के बोली!

'सुन माई, जो पूछता हूँ, उसका जवाब देती जा! नहीं तो तू कभी अब वापिस नहीं पहुँच पायेगी उस हवेली!" मैंने कहा,

''अरे जा ना! थू!" वो थूकते हुए बोली!

बहुत अकड़ थी उसमे! बहुत अकड़!

"लगता है ऐसे नहीं मानेगी तू?" मैंने पूछा, गुस्से से!

"क्या कर लेगा तू, तू जेनुआ?" उसने कहा,

जेनुआ? ये शब्द मैंने कहीं सुना था! कहाँ? हाँ! याद आया! जेनुआ! ओझा को कहते हैं, अब बहुत कम प्रयोग होता है ये अलफ़ाज़! अंग्रेजी ज़माने में कहा जाता था ये अलफ़ाज़! बाद में ओझा और गुनिया प्रचलित हो गए!

"जेनुआ!" मैंने कहा,

"हाँ! थू!" उसने फिर से थूक कर कहा!

"जेनुआ का जादू देख फिर तू!" मैंने कहा,

अब मैंने एक मंत्र पढ़ा! और उसको अपनी दायीं हथेली से लेकर हाथ की मध्यमा ऊँगली तक फूंका! और फिर उस लड़को को हाथ छुआ दिया! वो उछली! पीछे गिरी! और झट से खड़ी हो गयी!

'शर्मा जी, मेरा छोटा बैग दीजिये" मैंने कहा,

उन्होंने तभी वो बैग मुझे दे दिया! वे हमेशा अपने साथ ही रखते हैं उसको! जैसे यहाँ अचानक से उसकी ज़रुरत पड़ गयी!

"इस लड़की को छोड़ दे" अब वो बोली,

भयभीत सी!

"अरे माई, तेरी दुनिया अलग है और इसकी अलग!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बेटी है ये हमारी" वो बोली,

''अच्छी बात है, लेकिन ये गलत तो है ना!" मैंने कहा,

"क्या गलत है?" उसने पूछा,

"सबकुछ!" मैंने कहा,

"नहीं ये बेटी है हमारी!" उसने कहा,

"इसकी माँ है यहाँ, इसका बाप भी है यहाँ!" मैंने कहा,

"मुझे नहीं पता!" वो बोली,

और फिर उसने एक दम से झटका खाया! इस से पहले कि कुछ और बात होती, वो चली गयी! मुझे समझाने आयी थी कि मैं इस मामले में दखल ना दूँ! और चला जाऊं! लेकिन अभी तो जंग शुरू हुई थी! मैं मैदान कैसे छोड़ता!

मीतू बिस्तर पर लेट गयी! तेज तेज साँसें लेने लग गयी! खांसने लगी, तब मैंने शर्मा जी से कह कर उसके माँ-बाप को अंदर बुला लिया! वे अंदर आये और बेटी को देखकर घबरा गए!

"कुमार साहब! खेल शुरू हो गया है!" मैंने कहा,

वे समझे नहीं!

तब शर्मा जी ने उनको समझा दिया!

वे घबरा गए ये सुनकर!

लाजमी था घबराना!

"अब कैसे होगी गुरु जी?" उन्होंने पूछा,

"सब ठीक होगा!" मैंने कहा,

"जी" वे बोले,

"आप सुबह अपनी बड़ी लड़की को फोन करना, उसको बुला लो यहाँ कैसे भी करके" मैंने कहा,

"मैं कर दूंगा फ़ोन कल सुबह" वे बोले,

अब मैं शर्मा जी के साथ छत पर जाने के लिए निकल पड़ा, पीछे कुमार साहब भी आ गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम बैठे वहाँ!

"आज माई की सवारी थी मीतू के ऊपर!" मैंने कहा,

"जी" वे बोले, भयत्रस्त!

"मुझे रोकने आयी थी, कि मैं चला जाऊं यहाँ से!" मैंने कहा,

चुप वे!

"नीतू आ जाए तो मैं कुछ पूछना चाहता हूँ उस से"मैंने कहा,

"क्या गुरु जी?" उन्होंने पूछा,

"ये माई कहाँ टकराई उनको" मैंने कहा,

"मतलब गुरु जी?" उन्होंने पूछा,

''आने दीजिये, तभी पता चल जाएगा!" मैंने कहा,

"मैं कह देता हूँ सुबह उसको, आ जायेगी!" वे बोले,

अब रात गहरा गयी थी!

''अच्छा गुरु जी, आप आराम कीजिये" वे बोले और चले गए!

अब मैं लेट गया!

शर्मा जी भी लेट गए!

"मैंने जो अंदाजा लगाया था वो सही निकला!" शर्मा जी बोले,

"जी हाँ!" मैंने कहा,

"वो टकराई है इसको कहीं ना कहीं!" वे बोले,

"यही मैं भी कह रहा हूँ!" मैंने कहा,

"अब नीतू ही बताये कि कहाँ" वे बोले,

"इसीलिए मैंने बुलाया है उसको" मैंने कहा,

"मैं समझ गया था" वे बोले,


   
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