कम से कम एक घंटे बाद खाना-पीना ख़त्म हुआ! और शर्मा जी विदा लेकर चले गए! मैं अपने कमरे में जाकर लेट गया और सो गया!
और फिर शनिवार भी आ गया, शर्मा जी रात को ही आ गये थे, शुक्रवार की रात को ही, हमने सुबह जाने का कार्यक्रम बनाया था, और अब सुबह का वक़्त था, हम दोनों चाय-नाश्ता कर के सुबह कोई सात बजे के करीब अलवर के लिए निकल पड़े! रास्ते में रुकते-रुकाते कोई ग्यारह बजे हम अलवर पहुंचे, यहाँ से हमको अब उनके गाँव जाना था, सो उनके गाँव के रास्ते पर चल दिए, गाँव यहाँ से करीब पच्चीस-तीस किलोमीटर दूर था, सो चल दिए, और करीब बारह बजे हम उनके गाँव में घुस गए, कुमार साहब से फ़ोन पर बात हुई तो उनके मार्गदर्शन के अनुसार हम उनके घर के लिए चल पड़े! और फिर कुमार साहब का भी घर आ गया, काफी बड़ा घर था, देहात जैसा! कुमार साहब वहीँ मिले, उन्होंने गाड़ी घर के अंदर लगवा दी, और हम अब बाहर निकले, कुमार साहब ने स्वागत किया हमारा! और फिर हम उनके घर की बैठक में चले गए, वहाँ बैठे, पानी मंगवाया गया, पानी पिया और फिर हालचाल आदि पूछा गया, उनके अन्य रिश्तेदार भी वहाँ आ पहुंचे थे, उनसे भी नमस्ते हुई और वे भी वहीँ बैठ गए!
फिर थोड़ी देर बाद चाय आदि आ गयी, हमने चाय पी और साथ में कुछ खाया भी, माहौल बड़ा शांत था वहाँ, आसपास पुराने घर बने थे, गाँव भी पुराना ही था वो वैसे तो, लेकिन चहल-पहल थी वहाँ! बड़े बड़े पेड़ और बढ़िया रौनक बढ़ा रहे थे, तोरई और कासीफल की बेलें घर की दीवार और बिटोरों पर चढ़ी हुई थीं! पक्का देहात था वो! शहर की धक्कामुक्की से एकदम अलग!
अब हम उठे, कुमार साहब ने हमको अपने साथ चलने को कहा, हम उनके पीछे चले, वे सीढ़ियां चढ़ गए तो हम भी चढ़ गए, छत पर आ गए, छत पर तीन कमरे बने थे, वे हमको एक कमरे में ले गए, हमारे आने का उनको पता था तो कमरा भी तैयार करवा दिया गया था! पीछे पीछे मेरा सामान लेकर उनका बेटा आ गया, मैंने सामान पकड़ा और रख दिया एक जगह, अब हम बैठे वहाँ, कुमार साहब भी एक कुर्सी खींच कर बैठ गए!
"और सुनाइये कुमार साहब!" शर्मा जी ने कहा,
"बस जी, काट रहे हैं समय" वे बोले,
"और लड़की कैसी है?" उन्होंने पूछा,
"वैसी ही है जी" वे बोले,
तभी उनका बेटा आया वहाँ, उसने खाने की पूछी, तो हमने मना कर दिया, अभी भूख नहीं थी, वो चला गया!
"और वो जो आदमी आया था अभी, क्या कह रहा था?" शर्मा जी ने पूछा,
"मना कर दिया जी उसको हमने, आदमी ही खराब लग रहा था वो" वे बोले,
"ठीक किया आपने" शर्मा जी ने कहा,
"कहाँ है लड़की?" मैंने पूछा,
"अपने कमरे में ही है" वे बोले,
"चलें मिलने?" मैंने पूछा,
"जी चलिए" वे बोले और खड़े हुए!
हम भी खड़े हुए, और उनके पीछे चल पड़े!
वे नीचे आ गए, और एक कमरे में घुस गए, हम बाहर ही रह गए, तब कमार साहब आये और हमको अंदर ले गए!
लड़की वहीँ बैठी थी!
एकदम शांत!
जैसे कहीं खोयी हुई हो!
अब हम बैठ गए वहाँ!
"मीतू?" कुमार साहब ने उसकी तन्द्रा भंग की!
उसने देखा, सभी को वहाँ! उसकी माता ही भी वहीँ थीं!
मीतू की निगाह अब मुझ पर टिकी!
"कैसी ही मीतू?" मैंने पूछा,
कुछ न बोली वो!
अब उसके पिता जी ने समझाया उसको!
"मीतू?" मैंने कहा,
"हाँ?" उसने उत्तर दिया!
"कैसी हो?" मैंने पूछा,
इस सवाल पर उसने अपने दोनों हाथ उठाये और मुझे दिखाए! जवाब नहीं दिया!
"कैसी हो?" मैंने कहा,
कुछ न बोली,
"कैसी हो मीतू?" मैंने फिर से पूछा,
उसने हाँ में गरदन हिलायी अब!
"ठीक हो?" मैंने पूछा,
"हाँ" अब उसने कहा,
"मलखान वाली हवेली जाती हो तुम?" मैंने पूछा,
चौंक पड़ी वो!
कैसे कि मुझे कैसे पता!
"बताओ?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"कहाँ है हवेली ये?" मैंने पूछा,
"पता नहीं" उसने कहा,
"तो जाती कैसे हो?" मैंने पूछा,
"वो आते हैं" उसने कहा,
"कौन आते हैं?" मैंने पूछा,
"वो" उसने हाथ के इशारे से बाहर की तरफ इशारा किया!
"कौन हैं वो?" मैंने पूछा,
"पता नहीं" उसने कहा,
"खाना खिलाते हैं?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"कितने लोग होते हैं वहाँ?" मैंने पूछा,
"बहुत सारे" उसने कहा,
"अच्छा! किसी का नाम पता है?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"तो ऐसे ही चली जाती हो?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
साफ़ था! वो अपने आपे में नहीं थी! बेचारी जो जानती थी, बता रही थी!
"औरतें या लड़कियां होती हैं वहाँ?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"किसी को जानती हो?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"क्या होता है वहाँ?" मैंने पूछा,
"बहुत लोग होते हैं" उसने कहा,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"हाँ, बहुत लोग" उसने कहा,
"तुम्हे डर नहीं लगता?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"क्यों?" मैंने पूछा,
"पता नहीं" उसने कहा,
"जाओगी उस हवेली में?" मैंने पुछा,
"हाँ" उसने कहा,
"मैं लेकर चलूँ?" मैंने पूछा,
"चलो" वो बोली,
जो देखना था, देख लिया! उसको कोई डराता या धमकाता नहीं था, जो भी कोई आता था वो उसकी राजी से ही ले जाता था उसको! वो अभी भी चलने को तैयार थी! इसका मतलब वो उन पर विश्वास करती थी!
मामला और गम्भीर हो गया था! ये लड़की तो गम्भीर थी ही, लेकिन जो इसके साथ हो रहा था वो बहुत खतरनाक भी था और रहस्यपूर्ण भी!
वो तो अब भी चलने के लिए तैयार थी! वहीँ, उस मलखान की हवेली तक! उसको डर भी नहीं था, हाँ, लालायित भी थी! अब किसलिए, ये तो यही बता सकती थी! लेकिन एक बात और, जो मैंने गौर की थी, उस पर कोई लपेट नहीं थी! मुझसे पहले जो आये थे उन्होंने क्या देखकर उसको ये कह दिया था कि उस पर कोई बड़ी ताक़त है, जो उस से खेल रही है! लेकिन मुझे कोई भी ताक़त नहीं दिखायी दी!
"कब चलोगी मीतू?" मैंने पूछा,
अब उसने अपने माँ-बाप को देखा!
मैं समझ गया, उसने इसलिए देखा कि वो नहीं जाने देते उसको उस हवेली तक!
"ये नहीं मना करेंगे" मैंने कहा,
उसने अब मुझे देखा!
"बोलो?" मैंने कहा,
चुप!
"चलोगी?" मैंने कहा,
नहीं बोली कुछ!
"बताओ मीतू?" मैंने पूछा,
फिर से अपने माँ-बाप को देखा!
"ये नहीं कहेंगे कुछ!" मैंने कहा,
उसने मुझे देखा अब!
बेबस सी!
मुझे तरस आ गया उस पर उस समय!
"कुमार साहब?" मैंने कहा,
"जी?" वे बोले,
"आप थोड़ी देर के लिए बाहर चले जाइये, मैं बात करता हूँ इस से, और इनको भी लेते जाइये" मैंने उनकी पत्नी की तरफ इशारा करते हुए कहा,
वे चले गए,
अपनी पत्नी को भी ले गए!
"लो मीतू! गये वो" मैंने कहा,
वो अब बैठ गयी!
"बताओ?" मैंने कहा,
नहीं बोली कुछ!
"चलोगी मलखान की हवेली?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"कब?" मैंने घुमा-फिरकर फिर से वही पूछा!
फिर से चुप!
"बताओ कब?" मैंने पूछा,
"आज" उसने कहा,
"आज?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"कब, रात को?" मैंने कहा,
"हाँ" उसने कहा,
"कोई लेने आएगा या मैं लेके चलूँ?" मैंने पूछा,
"आप चलो" उसने कहा,
"ठीक है!" मैंने कहा,
उसके सर पर हाथ रखा!
"कुछ पूछूं?" मैंने पूछा,
"पूछो" उसने कहा,
"जो तुमको लेने आते हैं, वो कौन हैं?" मैंने पूछा,
"पता नहीं" उसने कहा,
"क्या पहनते हैं वो?" मैंने पूछा,
"कुरता सा" उसने कहा,
"दाढ़ी है उनके?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"मूछें हैं?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"कैसी, छोटी छोटी या बड़ी बड़ी?" मैंने पूछा,
"बड़ी बड़ी" उसने कहा,
"अच्छा!" मैंने कहा,
लेकिन अब भी रहस्य की कोई परत नहीं खुली थी!
"तुमको वे ले जाते हैं हवेली तक?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"तुम वहाँ जाती हो, क्या करती हो?" मैंने पूछा,
"बैठ जाती हूँ" उसने कहा,
"किसके साथ?" मैंने पूछा,
"बहुत होते हैं वहाँ" उसने कहा,
"तुमसे बात नहीं करते?" मैंने पूछा,
"करते हैं" उसने कहा,
"क्या कहते हैं?" मैंने पूछा,
"खाना खा लो" वो बोली,
"ये कहते हैं वो?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"खाना कौन लाता है?" मैंने पूछा,
"नौकर" उसने कहा!
नौकर! ये थी नयी बात!
"कैसे हैं वे नौकर?" मैंने पूछा,
"जैसे सब हैं" उसने कहा,
"वे देते हैं खाना?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोली,
"अच्छा! मुझे भी मिलेगा खाना वहाँ?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"तुम्हे कैसे पता?" मैंने पूछा,
"मैं कह दूँगी" उसने कहा,
"अच्छा! तुम्हारा नाम लेते हैं वो?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"फिर क्या कहते हैं?" मैंने पूछा,
"बेटी" उसने कहा,
बेटी?? ये क्या??
बेटी बुलाते हैं इसको वो?
अब तो और उलझ गया ये मामला!
"ठीक है मीतू, हम आज रात चलेंगे वहाँ!" मैंने कहा,
कुछ सोच-समझकर! मैं जानता था कि अब करना क्या है!
"हाँ" उसने कहा,
"आओ शर्मा जी" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले, और खड़े हुए,
मैं भी खड़ा हुआ और फिर हम दोनों कमरे से बाहर चले आये,
बाहर ही कुमार साहब बैठे थे, अब मैं उनको लेकर छत की ओर चला, छत पर पहुंचे और अपने कमरे में गए!
कुमार साहब चिंतित थे!
"कुछ पता चला गुरु जी?" उन्होंने पूछा,
"अभी तक तो कुछ नहीं, हाँ कुछ टुकड़े हाथ लगे हैं, अब देखता हूँ क्या हैं वो?" मैंने बताया,
"अच्छा गुरु जी" वे बोले,
"एक बात हैरत की है, लड़की को कोई लेने आता है, और लड़की अपनी मर्जी से वहाँ जाती है, लड़की के साथ कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं करता!" मैंने कहा,
"ऐसा? ऐसे क्यों?" उन्होंने पूछा,
"यही बात हैरत में डालती है!" मैंने कहा,
"मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा" वे बोले,
"आ जाएगा! ये लड़की ही है वो कुंजी!" मैंने कहा,
"एक बात बताइये गुरु जी?" अब शर्मा जी ने पूछा,
"पूछिए?" मैंने कहा,
"ऐसा इस लड़की के साथ नौ-दस महीने से हो रहा है, कभी न कभी तो इसकी शुरुआत हुई ही होगी?'' उन्होंने कहा,
"मैं समझा नहीं?' मैंने कहा,
"मतलब ये कि या तो वहाँ से कोई आया है लिवाने, या फिर ये स्वयं गयी है वहाँ!" वे बोले,
"हाँ, ये भी बात है!" मैंने कहा,
"अब पहले क्या हुआ? इसको बुलाया गया या ये खुद गयी वहाँ?" उन्होंने पूछा,
"हाँ! सही बात पकड़ी!" मैंने कहा,
"अब ये देखना है कि इन दोनों में से हुआ क्या?" उन्होंने कहा,
"हाँ, सही बात है!" मैंने कहा,
"वैसे गुरु जी, ये मलखान की हवेली है कहाँ यहाँ?" कुमार साहब ने पूछा,
"जो मेरे पास खबर है, वो यहाँ आसपास ही है, कहीं दूर नहीं" मैंने कहा,
"अब यहाँ तो खंडहर हैं हर तरफ" वे बोले,
"उन्ही में से एक होगी" मैंने कहा,
"अच्छा!" उन्होंने गरदन हिला के कहा,
तभी उनका बेटा आ गया वहाँ, खाना पूछा, तो हमने हाँ कर दी, हाथ-मुंह धो कर फिर भोजन किया और बैठ गए आराम से! लेकिन मन में बहुत प्रश्न कुलबुला रहे थे!
कुमार साहब वहीँ बने हुए थे!
"तो गुरु जी, आज रात आप ले जाओगे उसको?" उन्होंने पूछा,
"नहीं कुमार साहब!" मैंने कहा,
"फिर?" उन्होंने हैरत से पूछा!
"हम जायेंगे वहाँ!" मैंने कहा,
"हम?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, मैं, शर्मा जी और आप!" मैंने कहा,
''अच्छा अच्छा!" वे बोले!
"देखते हैं, कहाँ है ये हवेली!" मैंने कहा,
"हाँ जी" वे बोले,
"रात को तैयार रहिये, एक टॉर्च ले लेना साथ में" मैंने कहा,
"जी गुरु जी" वे बोले,
अब वे खड़े हुए,
"आप अब आराम कीजिये, मैं संध्या समय आता हूँ, किसी भी चीज़ की ज़रुरत हो तो बता दीजिये" वे बोले और चले गए,
अब मैं लेट गया! शर्म अजी भी लेट गए!
दोनों ही अपने अपने ख्यालों में खोये हुए!
"बेटी कहते हैं, हम्म्म!" शर्मा जी ने कहा,
"हाँ, ये बड़ी अजीब सी बात है" मैंने कहा,
"क्या ये कोई जिन्नाती मामला तो नहीं?" उन्होंने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"कैसे?" उन्होंने और कुरेदा!,
"जिन्न चाहता तो अब तक बहुत समय हो गया, वो अब तक अपना खेल खेल चुका होता, समझे?" मैंने कहा,
"हाँ, ये भी तो है!" वे बोले,
"तो कौन सजाता है वहाँ महफ़िल?" उन्होंने पूछा,
''ऐसी तो बहुत जगह है शर्मा जी, जहां आज भी रास-रंग होते हैं, महफ़िलें सजती हैं, दांव खेले जाते हैं! युद्ध तक होते हैं!" मैंने कहा,
"हाँ जी, ये वो राणा!" वो बोले,
"हाँ वो राणा!" मैंने कहा,
"तो मलखान की हवेली आज भी सज रही है!" वे बोले!
"हाँ!" मैंने कहा,
"और मेहमान बनी ये लड़की!" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा,
"लेकिन फिर से वो ही बात?" वे बोले,
"क्या बात?" मैंने पूछा,
"वो महफ़िल तो रात को ही सजती होगी?" उन्होंने पूछा,
"हाँ?" मैंने कहा,
"अब रात को तो ये जाने से रही वहाँ, मेरा मतलब पहली बार?" उन्होंने एकदम सटीक निशाना लगाया था ऐसा कह कर!
"हाँ?" मैंने कहा,
"तो इसको न्यौता मिला?' उन्होंने कहा,
"हाँ?" मैंने कहा,
"इसका मतलब इसको किसी ने न्यौता ही दिया है, पहली बार!" वे बोले!
''वाह! हाँ, सही कहा आपने!" मैंने कहा!
"अब किसने दिया, ये, ये बता नहीं रही!" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा,
"या कोई इसके बतवाना नहीं चाहता!" वे बोले,
''एकदम ठीक!" मैंने कहा,
"नहीं तो भेद खुल जाएगा!" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा,
"अब समझ में आयी बात!" वे बोले,
"समझे! हम कहाँ अटके हैं!" मैंने कहा,
"समझ गया मैं अब!" वे बोले,
"लेकिन आज रात देखते हैं, कहाँ है ये हवेली!" मैंने कहा,
"हाँ, अब जानना ही होगा!" वे बोले,
"हाँ! कब निकलना है?" उन्होंने पूछा,
"कोई दस बजे निकलते हैं" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
और इस तरह हमारा कार्यक्रम रात दस बजे के लिए निर्धारित हो गया! अब वहीँ जाकर ही पता चलना था, आखिर कैसी है ये हवेली? कौन सजा रहा है उसको? कब से सज रही है? और किसने न्यौता दिया इस लड़की को वहाँ? कौन है वो?
सवाल बहुत थे, और उत्तर अभी भी कहीं दूर खड़े थे! और इसीलिए इस हवेली की खोज ज़रूरी थी! बहुत ज़रूरी!
और फिर बजे दस!
मित्रगण! मुझे ये तो पता नहीं था कि किस ओर जाना है हमको, ये हवेली उनके दायें है या बाएं, आगे या पीछे, लेकिन कुछ निशानियाँ थीं मेरे पास जिसकी मदद से हम वहाँ पहुँच सकते थे! अब मैंने कुमार साहब से एक कुँए के बार में पूछा, ये कुआँ काफी बड़ा था, जो कि अब बंद था, उसको बाद में बंद कर दिया गया था, लेकिन वो अधिक समय तक बंद नहीं रह सका और उसके ऊपर रखी पटिया धसक गयी थी, मैंने पूछा, "कोई है ऐसा कुआँ?"
"गुरु जी, ऐसे तो गाँव में दो कुँए हैं, लेकिन वो कभी ढके नहीं गए" वे बोले,
"गाँव के आसपास?" मैंने पूछा,
"पता नहीं जी, मैं अपने भाई से पूछता हूँ" वे बोले और उठ कर चले गये नीचे,
अनुभव क्र ५७ भाग २
By Suhas Matondkar on Thursday, September 4, 2014 at 2:27pm
और थोड़ी देर बाद उनके बड़े भी आ गए वहाँ, वे खेती-बाड़ी ही करते थे, हो सकता था वे जानते हों ऐसे किसी कुँए के बारे में?
वे आये और बैठ गए, साथ में उनका बड़ा लड़का भी था, नाम था अजय,
नमस्ते हुई,
"जी ऐसा तो कोई कुआँ हमारी नज़र में नहीं है" वे भी बोले,
"कोई नहीं है?" मैंने पूछा,
"नहीं जी" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
अब मैंने दूसरी निशानी की ओर सोचा,
"क्या ऐसा कोई पेड़ है यहाँ जहां कभी मंदिर रहा हो, वो ढह गया हो? लेकिन वहाँ अभी भी लोहे के जाल और शहतीर लगे हों?" मैंने पूछा,
दोनों सोच में डूबे,
"हाँ जी, एक है ऐसा, लेकिन वो नीचे ढलान के पास है" अजय ने बताया,
"कहाँ?" उसने पिता ने पूछा,
अब उन्होंने आपस में सलाह मशविरा किया और ये बात आयी निकल कर की वहाँ ऐसा एक स्थान है!
"कितनी दूर है यहाँ से?'' मैंने पूछा,
"आधा किलोमीटर होगा जी" वे बोले,
"कहा को, यहाँ से बायीं ओर" अजय ने बताया,
"वहाँ चबूतरे भी बने हैं?" मैंने पूछा,
"हाँ जी! हाँ जी!" अजय ने कहा,
वे समझ गए! लेकिन कुआँ भी तो वहीँ पास में ही हैं ऐसा? वो क्यों नहीं पता चला इनको? अब देख कर ही पता चलता, सो मैंने कहा, "कुमार साहब, अजय को भी साथ ले लो, अजय ने वो जगह देखी है"
अजय तैयार हो गया चलने के लिए!
और हम चल पड़े!
बाहर घुप्प अँधेरा था! आकाश के औंधे थाल में तारे चमचमा रहे थे, जैसे अभी नीचे गिर जायेंगे! उनका मद्धम प्रकाश फैला था, चाँद बदली के घूंघट में छिपा था, कभी आता बाहर कभी पूरा छिप जाता! झींगुरों और मंझीरों ने अपने अपने वाद्य-यन्त्र निकाल लिए थे और गज़ब की ताल से बजा रहे थे! अपने अपने राग!
सबसे आगे अजय चला!
हम उसके पीछे!
हम बाहर आये, गाँव से बाहर, एक कच्चा रास्ता पकड़ा और चल दिए, खेती लगी थी, शायद सरसों या तरा रहा होगा, काफी लम्बा पौधा था उसका, उनके बीच से होते हुए हम चलते रहे, कहीं कहीं मिट्टी थी और कहीं कहीं पत्थर भी थे! हम चले जा रहे थे, फिर एक ढलान सी आयी, यहाँ मिट्टी थी, पाँव धंस गए हमारे तो, बड़ी मुश्किल से जूते उठा उठा कर हम आगे बढ़े!
ढलान से नीचे उतरे, तो एक साफ़ मैदान से आ गया, ये एक ऐसी जगह थी जैसे यहाँ कोई नदी बहती हो, दोनों तरह के किनारे उठे हुए थे, और हम एक दम नीचे चल रहे थे! हम आगे चले, बियाबान था वहाँ, बीहड़! निर्जन! हाँ, गाँव से ही पीछे लगे कुत्ते ज़रूर चल रहे थे हमारे साथ, सूंघते सूंघते, आगे आगे!
तभी एक जगह अजय रुक गया!
हम भी रुक गए,
उसने ऊपर की तरफ टॉर्च मारी, ये एक विशाल पेड़ था, अब मैंने टॉर्च ली उसके हाथ से, मैंने आसपास का जायज़ा लिया, ये कोई टूटा हुआ सा खंडहरनुमा मंदिर था, कोई पुराना मंदिर, लोहे के जाल अभी भी पड़े थे वहाँ, हाँ! ये वही जगह थी जहां के लिए सुजान ने बताया था, अब यहाँ से पूर्व जाना था, इसी मंदिर के आसपास एक कुआँ भी था, लेकिन वो कहाँ था?
