"तुम यहाँ से अब मेरी मर्जी के बिना कहीं नहीं जा सकते!" मैंने कहा,
वो फिर से गुस्सा हुआ!
"गुस्सा करेगा तो भुगतना होगा!" मैंने कहा,
उसने फिर से कोशिश की, लेकिन हदबंदी के कारण नहीं कर सका कुछ भी! अब उड़े उसके होश! जब प्रेत इस स्थिति में होते हैं तो बेहद खतरनाक होते हैं! अगर सही से बाँधा न जाए तो मार भी डालते हैं! मारने में उनको एक क्षण का समय लगता है!
"चुपचाप खड़ा रह" मैंने कहा,
वो खड़ा हो गया!
"जैसा मैं कहूं वैसा करना, देख, नहीं तो तो यहीं किसी पेड़ पर लटका दिया जाएगा उल्टा या घड़े में बंद करके यहीं दफ़न हो जाएगा हमेशा के लिए!" मैंने बताया,
उसने फिर से गुस्से से देखा!
मैंने आव देखा न ताव, ताम-मंत्र पढ़ते हुए एक चुटकी भस्म उसके ऊपर फेंक मारी, वो चिल्लाया और तड़पते हुए नीचे बैठ गया! बिलबिला गया वो! ये प्रेत-झाड़न क्रिया होती है! जब किसी में कोई प्रेत प्रवेश करता है तो ऐसे ही उसको पीड़ित किया जाता है! इस पीड़ा को निरंतर बढ़ाया जाता है ताकि वो हार मान ले और उस शरीर को त्याग दे! मैंने भी ऐसी ही उसको पीड़ा पहुंचायी थी!
"खड़ा हो?" मैंने कहा,
वो अनमना सा खड़ा हुआ!
"नाम बता अपना?" मैंने पूछा,
"सुशांत" उसने कहा,
उसको अभी भी पीड़ा थी!
"बाप का नाम बता" मैंने कहा ,
उसने अपने बाप का नाम बताया,
"कहाँ रहता है?" मैंने पूछा,
"त्रिनगर" उसने कहा,
"ये लड़की कृतिका कौन है तेरी?" मैंने पूछा,
"मेरी दोस्त" उसने कहा,
"ज़हर क्यों खिलाया उसको तूने?" मैंने तुक्का मारा!
"मैंने नहीं खिलाया, उसने खुद खाया" उसने कहा,
"क्यों खाया उसने?" मैंने पूछा,
"हम शादी करना चाहते हैं" उसने कहा,
"फिर क्यों नहीं की?" मैंने पूछा,
"मुझे अब नहीं मिल रही वो" मैंने कहा,
"नहीं मिल रही?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"ये बता कि ज़हर खाने का क्या कारण था?" मैंने पूछा,
"हमारे घरवाले राजी नहीं थे" वो बोला,
"तो ज़हर खा लिया?" मैंने कहा,
"उसने खाया पहले फिर मैंने खाया" उसने कहा,
"वो तो मर गयी ज़हर खाने से!" मैंने कहा,
उसको यक़ीन ही नहीं हुआ! अगर वो नहीं बंधा होता तो मुझ पर अवश्य ही हमला कर देता उस समय!
"मर गयी वो लड़की" मैंने कहा,
"चुप?" उसने गुस्से से कहा,
"ज्य़ादा जुबां न चला, समझा?" मैंने कहा,
अब मेरी घुड़की का असर हुआ उस पर!
वो चुप हो गया!
"हाँ अब बता, क्या हुआ था?" मैंने पूछा,
"मैंने बता दिया" वो बोला,
"जो पूछता हूँ उसका जवाब देता जा" मैंने कहा,
वो बैठ गया!
"हां? बता?" मैंने पूछा,
अब चुप हो गया वो!
"सुना नहीं?" मैंने कहा,
चुप!
"नहीं सुन रहा?" मैंने पूछा,
अब मैंने फिर से चुटकी भर भस्म उठायी, तो वो खड़ा हो गया!
"मैंने बता दिया" उसने कहा,
"मैंने पूछा ज़हर क्यों खाया?" मैंने पूछा,
"हमारी शादी में अड़चन थी हमारे परिवारों के कारण" वो बोला,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"हाँ" वो बोला,
"तू उसके घर कैसे पहुंचा?" मैंने पूछा,
"मुझे बुलाया था उसने" वो बोला,
"घर में और कोई नहीं था?" मैंने पूछा,
"सब बाहर थे दो दिनों के लिए, मुझे बताया था कृति ने" उसने कहा,
"तो तू वहाँ पहुंचा" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"क्या तारीख थी?" मैंने पूछा,
"छह जून" उसने कहा,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"तुझे पता है अब वो लड़की नहीं है ज़िंदा? मर गयी वो" मैंने बताया उसे!
ये सुन अब वो सकपकाया!
"मर गयी?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"नहीं, नहीं मरी, वो वहीँ है" वो बोला,
"मैं झूठ बोल रहा हूँ?" मैंने पूछा,
चुप हो गया!
"और सुन! तू भी मर गया है!" मैंने कहा,
मेरी बात सुनकर उसको जैसे झटका लगा! मेरे करीब चला आया वो!
वो मेरे करीब चला आया, मुझे घूरा और फिर बैठ गया, उसे मेरी बातों पर यक़ीन नहीं हो रहा था! कैसे यक़ीन करता वो! उसे तो लगता था कि कृति अभी पिछले ही पल तो उसके साथ थी? ऐसे कहाँ जा सकती है? उसे नहीं पता था कि चार साल का लम्बा वक़्त गुजर गया!
"मुझे बताओ, कहाँ है कृति?" उसने पूछा,
"परली पार" मैंने कहा,
"क्या परली पार?" उसने पूछा,
"वो मुक्त हो गयी इस संसार से सुशांत और तुम यहीं फंसे रह गए!" मैंने कहा,
"नहीं, नहीं, सब झूठ" उसने कहा,
"मैं झूठ बोलूंगा?" मैंने पूछा,
"पता नहीं?" उसने कहा,
"मैं सच कह रहा हूँ, अब कृति का कोई नामोनिशान नहीं है इस संसार में" मैंने कहा,
"नहीं, मुझे छोड़ दो, मैं खुद ढूंढ लूँगा" उसने कहा,
"सुन! जैसे मैंने तुझे पकड़ा है, ऐसे कोई भी तुझे पकड़ लेगा, तू गुलाम बन जाएगा, हमेशा हमेशा के लिए, न जाने कहाँ कहाँ अदला-बदला जाएगा! तू उस लड़की कृति को हमशा ही ढूँढता रहेगा और तेरे हाथ कुछ नही लगेगा! अब तू इस नश्वर संसार में नहीं है सुशांत! अब तू उस संसार से अलग हो चुका है!" मैंने कहा,
"मुझे छोड़ दो, छोड़ दो" उसने कहा,
"नहीं छोडूंगा" मैंने कहा,
"मुझे छोड़ दो" उसने अब याचना भरे स्वर में कहा,
"नहीं छोड़ सकता!" मैंने कहा,
"क्यों?" उसने पूछा,
"क्योंकि तू फिर से कहीं पकड़ा जाएगा, तेरे जैसे प्रेत के लिए कोई भी कुछ भी कर गुजरेगा!" मैंने कहा,
"मैं ढूंढ के वापिस आ जाऊँगा" उसने कहा,
"लड़के! तू तो चार सालों से उसको ढूंढ ही रहा है! मिली तुझे वो? नहीं! अगर वो रही होती तो तेरे साथ ही होती, तुम दोनों अभी भी साथ होते, लेकिन अब वो नहीं है, वो आगे बढ़ चुकी है!" मैंने कहा,
"आगे?" उसने पूछा,
"हाँ, आगे, तू जाना चाहता है आगे?" मैंने पूछा,
"नहीं नहीं!" उसने कहा,
वो फिर से खड़ा हुआ! मुझसे अलग हुआ और फिर एक कोने में जाकर रोने लगा, तड़पने लगा, हाँ तड़पना सही होगा उसके लिए कहना! चार साल से एक तड़प लिए वो भटक रहा था! उसके लिए जो अब कहीं नहीं थी!
"रोना बंद कर?" मैंने कहा,
उसने मुझे देखा,
एक बेचैनी वाला भाव!
एक तड़पने वाला भाव!
"सुन लड़के! मेरी बात मान! तू आगे बढ़ जा! हो सकता है तू फिर से पा ले अपनी कृति को!" मैंने कहा,
वो झट से मेरे पास आया!
बैठ गया!
"कैसे?" उसने पूछा,
"तू इस संसार में अटक गया है! मैं तुझे यहाँ से मुक्त कर दूंगा, फिर तू आगे बढ़ जाएगा, कोई क़ैद नहीं कर सकेगा तुझे! और सम्भव है तू पा ले उस लड़की कृति को!" मैंने कहा,
वो खड़ा हुआ,
कुछ सोचा!
"नहीं!" उसने कहा,
वो नहीं माना!
"क्यों?" मैंने पूछा,
"नहीं! वो वहीँ है, अभी भी, कमरे में, मेरा इंतज़ार करती हुई" उसने कहा,
"वो वहाँ नहीं है" मैंने बताया,
"मैंने देखा है" उसने कहा,
"वो कृति नहीं है" मैंने कहा,
"नहीं झूठ बोल रहे हो तुम" उसने कहा,
"मैं झूठ नहीं बोल रहा!" मैंने कहा,
"नहीं, वो उसी घर में है" उसने कहा,
"वो वहाँ नहीं है" मैंने कहा,
"तुम्हे नहीं पता" वो बोला,
"मुझे मालूम है" मैंने कहा,
"नहीं, कुछ नहीं पता" वो बोला,
"सब पता है" मैंने कहा,
"नहीं, वो मुझे नहीं छोड़ सकती ऐसे, मैं जा रहा हूँ, अभी जा रहा हूँ" उसने कहा और फिर से जाने की कोशिश की, मन्त्र-सीमा में बंधे होने से वो हिल भी नहीं पाया जाने के लिए!
"मुझे जाने दो" उसने कहा,
"नहीं" मैंने कहा,
"ऐसा मत करो" उसने कहा,
"नहीं कर रहा" मैंने कहा,
"मुझे जाने दो" वो बोला,
"कहाँ जायेगा?" मैंने पूछा,
"वहीँ, उसके घर" उसने कहा,
"वो अब उसका घर नहीं है" मैंने कहा,
"झूठ!" उसने कहा,
"नहीं, सच है ये" मैंने कहा,
"नहीं!" उसने कहा,
और नीचे बैठ गया!
"मेरी बात मान ले लड़के!" मैंने कहा,
वो चुप!
कहीं खो गया!
शायद यादों में!
"याद आ रही है कृति?" मैंने पूछा,
उसने मुझे देखा,
"बता?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"तो तूने मौत क्यों चुनी?" मैंने पूछा,
"मैंने नहीं चुनी" उसने कहा,
''फिर?" मैंने पूछा,
वो चुप हुआ!
खड़ा हुआ!
और मेरे पास आया!
वहाँ उकडू बैठ गया!
मुझे देखा!
"मैंने नहीं चुनी" उसने कहा,
"तो?" मैंने कहा,
"बताता हूँ" उसने कहा,
"बता" मैंने कहा,
"मेरे पिता जी को कृतिके पिता जी ने धमकी दी थी, कि इस लड़के को उनकी बेटी से दूर रखें, नहीं तो वो इसके हाथ-पाँव तोड़कर रख देंगे, पुलिस में रिपोर्ट लिखवा देंगे, और फिर ऐसा सबक देंगे कि इस लड़के के साथ उनका पूरा परिवार याद रखेगा, लेकिन मैंने ध्यान नहीं दिया, हम फिर भी मिलते रहे, एक दिन उसके बड़े भाई ने मुझे कृति के साथ देख लिया, उसने अपने दोस्तों के साथ मुझे मारा-पीटा और कृति को ले गए, मैं करीब महीने तक नहीं मिला उस से, कोई फ़ोन भी नहीं आया, एक दिन कोई महीने बाद कृति का फ़ोन आया, उसने बताया कि उसके साथ भी मार-पीट की गयी है, मैं तड़प उठा, कृति ने मुझे कहा कि हम जी नहीं सकते एक साथ एक होकर तो मर तो सकते हैं? मैंने उसको समझाया कि मौत से कुछ हांसिल नहीं होगा, मैंने बहुत समझाया, ऐसे ही एक दिन छह जून को उसका फ़ोन आया कि वो घर पर अकेली है, वो आ जाए, क्योंकि उसके बाद वो कभी उस से मिले या न मिले, मैं घबरा गया, वहीँ भागा,
वहाँ पहुंचा, घर में कोई नहीं था, वे सब गये हुए थे कहीं दो दिनों के लिए, घर में कृति और एक कामवाली थी बस, मैं और कृति कमरे में थे उस दिन, उसके कमरे में, हमने बहुत बातें कीं, उसने मेरी एक न सुनी और मेरे मना करने के बावज़ूद उसने चुपके से ज़हर खा लिया, मुझे कुछ समझ नहीं आया, क्या करूँ? तभी मुझे लगा कृति सही है, अब कोई फायदा नहीं, औए मैंने भी ज़हर खा लिया, हम एक दूसरे के साथ लिपटे हुए सो गए....................................मैं जागा, कृति वहीँ लेटी थी मैंने उसको बहुत जगाया, वो नहीं जागी, मैं परेशान हुआ, भागा बाहर.........बाहर कामवाली सोयी हुई थी, मैं और बाहर भागा, किसको बुलाऊँ? कहाँ जाऊं? उसके बाद मुझे पता नहीं, मैं शायद...........बाद में लौटा घर में, कृति का दरवाज़ा बंद था, घर में कोई नहीं था, मैंने उसको ढूँढा, बहुत ढूँढा, आज तक ढूंढ रहा हूँ.........अब आप मेरी मदद करो" ये कहते हुए सिसक पड़ा वो!
मुझे उसकी कहानी सुनकर बहुत दुःख हुआ, इसका मतलब पहले कृति की मौत हुई थी, किसी तरह उसकी आत्मा मुक्त हो गयी, और ये बेचारा उसी क्षण में फंसा रह गया!
"सुशांत!" मैंने कहा,
उसने मुझे देखा!
"सुनो, अब वो लड़की यहाँ नहीं है, वो अब जा चुकी यहाँ से बहुत दूर!" मैंने कहा,
"कहाँ?" उसने मिमियाती आवाज़ में पूछा,
"जहां से आगे की यात्रा शुरू होती है" मैंने कहा,
वो चुप हो गया!
स्पष्ट था, उसको समझ नहीं आया था!
वो शांत बैठा रहा!
"अब क्या करोगे?" मैंने पूछा,
"मैं नहीं जानता" वो बोला,
"कुछ तो करोगे सुशांत?" मैंने कहा,
"उसकी यादों के सहारे जी लूँगा" उसने कहा,
"जी लूँगा?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"तुम जी लिए हो जितना जीना था, तुमने आत्महत्या की उस लड़की के साथ, जिस कारण तुम दोनों की मौत हुई! अब तुम केवल प्रेत शेष हो! उस लड़के सुशांत के प्रेत!" मैंने कहा,
चौंका वो!
"नहीं!" उसने कहा,
"तुम घर गये हो कभी?' मैंने पूछा,
"किसके?" उसने पूछा,
"अपने?" मैंने कहा,
"नहीं" वो बोला,
"क्यों? मैंने पूछा,
"वो बेहोश पड़ी है, मैं कैसे जाऊं?" उसने कहा,
"पड़ी थी, और वो बेहोश नहीं, मर चुकी थी!" मैंने कहा,
"नहीं, वो नहीं मर सकती!" उसने कहा,
"वो मर गयी, जैसे कि तुम!" मैंने कहा,
"नहीं, नहीं, कोई नहीं मरा, वो वहीँ है" उसने कहा,
"वो वहाँ नहीं है सुशांत!" मैंने फिर से समझाया!
"वहीँ है, मुझे ले जाओ वहाँ" उसने कहा,
"कोई फायदा नहीं!" मैंने कहा,
"मुझे ले जाओ वहाँ?" उसने कहा,
"नहीं" मैंने कहा,
"मैं क्या करूँ?" उसने झुंझला के कहा,
"जैसा मैं कहता हूँ!" मैंने कहा,
"क्या?" उसने पूछा,
"आगे बढ़ जाओ" मैंने कहा,
"नहीं, मैं उसको नहीं छोड़ सकता" उसने कहा,
"लेकिन वो तो छोड़ गयी न तुम्हे?' मैंने पूछा,
"नहीं, वो वहीँ है" उसने कहा,
"नहीं है सुशांत! नहीं है!" मैंने कहा,
"वहीँ है" उसने कहा,
"अच्छा, तुम्हे कैसे यक़ीन आये?" मैंने पूछा,
"मुझे वहाँ ले जाओ" उसने कहा,
"ठीक है, और अगर न मिली तो वो वहाँ?" मैंने पूछा,
"वो वहीँ है" उसने तो जैसे रट लगायी हुई थी!
"न हुई तो?" मैंने कहा,
"तो मैं वैसा ही करूँगा जैसा आप कहते हैं" उसने कहा,
बस! अब काम बन गया था! या बनने वाला ही था!
"ठीक है, मैं तुमको ले जाता हूँ वहाँ, लेकिन एक बात याद रखना, अगर इसके बाद भी अगर ज़िद की तो यहीं किसी घड़े में डाल कर दफ़न कर दूंगा, सैंकड़ों साल दफ़न रहना उसी में!" मैंने कहा,
वो घबरा गया!
फिर उसने हाँ कहा,
मान गया मेरी बात!
"कब ले चलोगे?' उसने फिर से रोते से स्वर में पूछा,
"कल?" मैंने कहा,
"नहीं आज" उसने कहा,
''आज नहीं" मैंने कहा,
"नहीं आज" उसने कहा,
मैं उसकी बेसब्री समझ सकता था!
"घर जाना है उसके?" मैंने घुमा-फिरा के पूछा,
"हाँ!" वो खुश हुआ!
"अभी भेजता हूँ" मैंने कहा,
और फिर मैंने इबु का शाही रुक्का पढ़ दिया! भड़भड़ाता हुआ इबु हाज़िर हुआ, होते ही अपनी निगाह उसने उस लड़के पर डाली, वो काँप गया एक बार को तो! अब मैंने इबु से कुछ कहा, कुछ समझाया और फिर इबु उसको उठाकर उड़ चला वहाँ से!
दस मिनट बीते,
फिर पंद्रह!
फिर बीस!
और इबु उस लड़के को पकड़ता हुआ हाज़िर हुआ!
लड़का मायूस था!
मैं समझ गया था कि क्यों!
मैंने अब इबु को वापिस किया, उसने जाते हुए लड़के को फेंक के मारा नीचे! वो उठ खड़ा हुआ!
"मिल गयी?" मैंने पूछा,
वो चुप अब!
"जवाब दे?" मैंने पूछा,
चुप क़तई!
"मैंने झूठ बोला था?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"वही हुआ न जो मैंने कहा था?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"अब?" मैंने पूछा,
वो बैठा,
चुप रहा!
मैंने उसके बोलने का इंतज़ार किया!
"मैं...अपने घर जाना चाहता हूँ" उसने कहा,
"क्या करने?" मैंने पूछा,
"सभी को देखने" उसने कहा,
"ठीक है" मैंने कहा,
वो सर झुकाये बैठे रहा!
"लेकिन कोई हरक़त नहीं करना, किसी को तंग नहीं करना, अब वो तुम्हारा घर नहीं बचा, समझे?" मैंने कहा,
"हाँ" वो बोला,
मैंने फिर से इबु का शाही-रुक्का पढ़ा! इबु झम्म से हाज़िर हुआ! मैंने इबु को समझाया और फिर से इबु उस लड़के को उठाकर उड़ चला!
फिर से मैंने इंतज़ार किया!पांच मिनट!
दस मिनट!
और अगले ही पल इबु वहाँ उतरा!
उस लड़के को पीठ से पकड़े हुए!
अब मैंने इबु को वापिस किया!
इबु लौट पड़ा, लोप हो गया!
मिट्टी उड़ाते हुए!
और वो लड़का!
किसी हारे हुए खिलाड़ी की तरह से चुप खड़ा हो गया!
"मिल लिया?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"सब से मिला?" मैंने पूछा,
"हाँ, लेकिन में छोटी बहन वहाँ नहीं थी" उसने कहा,
"उसका ब्याह हो गया होगा" मैंने कहा,
अब वो बैठ गया!
चौकड़ी मार!
और मुझे देखा!
मुझे उस क्षण उस पर तरस आया!
बहुत तरस!
मैंने उसकी दोनों इच्छाएं पूर्ण कर दीं थीं! और मुक्ति-क्रिया से पहले ये सब करना अत्यंत आवश्यक रहता है, अन्यथा बोझ वहाँ करना पड़ता है! बोझ मानो तो बहुत है और न मानो तो कुछ भी नहीं! जैसे कि मानो पिता हैं तो पिता हैं, यदि नहीं मानो तो केवल एक पुरुष के अतिरिक्त कुछ नहीं! ऐसे ही ये बोझ है! इसको प्रेत-उद्धार कहा जाता है! ये एक पुण्य का कार्य है! अब मेरे सामने एक लड़का बैठा था, अब सच्चाई से अवगत हो चुका था! जितना मैं कर सकता था किया था और जो करना था वो भी मैं अवश्य ही करता! मुक्ति-क्रिया की तिथि आने में अभी पांच छह दिन शेष थे! तब तक मुझे इस लड़के के प्रेत को क़ैद करके ही रखना था अपने पास! अब मैंने इबु को नहीं बुलाया, बल्कि मांदलिया का प्रयोग करना ही उचित समझा! मैंने सुशांत को उस मांदलिया में आने को कहा, वो बिना किसी विरोध के उस में आ गया, और मुझे देखते हुए समा गया उसमे! मैंने मांदलिया बंद की और वहीँ अपने एक स्थान पर रख दिया सहेज कर! इसका उधार बाकी था अभी, सो चुकता करना था! अब मैंने स्थान-नमन किया, अलख नमन करते हुए शेष दो नमन भी किये और क्रिया-स्थल से बाहर आ गया! स्नान करने गया और फिर वहाँ से शर्मा जी के पास, वे मेरे कक्ष में लेटे हुए थे, आँखें बंद किये, घड़ी देखी तो उसमे तीन बजे का वक़्त था!
"सो गए क्या?" मैंने पूछा,
वो चौंके!
उठ गए!
"नहीं तो" वे बोले,
अब मैं बैठा अपने बिस्तर पर!
"पेश किया?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"क्या रहा?" उन्होंने पूछा,
अब मैंने उनको सारा वाक़या बता दिया!
उन्होंने पूरी कहानी सुनी और माथे को हाथ लगाया, वे दुखी हो गए उस लड़के के प्यार को देखकर! दुःख तो मुझे भी था, और इसी कारण से मैं उसको अब मुक्त करना चाहता था! चार साल भटका था वो लड़का! अपनी प्रेयसी कृतिका के लिए! रोज चक्कर मार रहा था वहाँ! अब उसको समझ आ गया था, कि वो लड़की जो रह रही है वो कृति नहीं रूबी है, उसको गुस्सा आता था कि कृति के कमरे में ये कौन है? कहाँ से आ गयी? इसी कारण से गुस्सा करता था! उसको यही लगता था कि कृति वहीँ है! लेकिन अब वो सच्चाई जान गया था! उसको पता चल गया था!
"चार से से भटक रहा था वो!" शर्मा जी बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"अब मुक्त होने का समय आ गया है उसका" वे बोले,
"हाँ शर्मा जी" मैंने कहा,
"मुक्ति दिला दीजिये इसको गुरु जी" वे बोले,
"हाँ शर्मा जी, आज से पांच दिन बाद!" मैंने कहा,
मित्रगण!
पांच दिन भी बीते गए!
