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वर्ष २०१२ गुड़गांव की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, ज़रूर आएगा" मैंने कहा,

मैंने भी करवट बदली और आँखें बंद कर लीं, पांच बज ही चुके थे, अब घंटा डेढ़ घंटा सोया जा सकता था, सो नींद आने के कोशिश करता रहा और न जाने कब आँख लग गयी! सो गया मैं!

जब आँख खुली मेरी तो आठ बजे थे, शर्मा जी उठ चुके थे, वे सोफे पर बैठे थे, आँख बंद किये, मैं भी उठा और फिर नित्य-कर्मों और स्नानादि से फारिग होने चला गया, वहाँ से आया तो प्रकाश जी चाय ला चुके थे! हमने चाय-नाश्ता किया और फिर बातें करते रहे! अब शर्मा जी ने रात वाली घटना बता दी उनको, वे कसमसाये सुनकर!

"हमे पता नहीं चला जी बिलकुल भी" वे बोले,

"वो यहीं आता है, इसी कमरे में" मैंने कहा,

"लेकिन उस दिन तो मेरे कमरे में भी उसने उपद्रव मचाया था?" उन्होंने कहा,

"उस दिन रूबी वहीँ सोयी थी क्या?" मैंने पूछा,

"रूबी तो थी ही नहीं" वे बोले,

''अच्छा! तब तो अजीब बात है, शायद गुस्सा हो आपसे!" मैंने कहा,

वो और घबराये!

चाय-नाश्ता कर लिया!

उनका बीटा बरतन ले गया!

अब शर्मा जी ने टीवी चला लिया, खबरें सुनने लगे हम! अब तो ऐसे ही समय काटना था, कभी टीवी देखते कभी अखबार पढ़ते, कभी कोई पुस्तिका पढ़ लेते! घर से बाहर नहीं गये हम!

दोपहर हो गयी!

उस समय हम खाना खा रहे थे उनके ड्राइंग रूम में बिछी डाइनिंग-टेबल पर, तभी धड़ाम की आवाज़ आयी पीछे से, मैं चौंका, लगा जैसे कोई गिरा है वहाँ, लेकिन सभी अंदर थे, मैंने खाना छोड़ा और शर्म अजी को साथ लिया, अब मैंने कलुष-मंत्र का जाप कर लिया, इसकी सबसे बड़ी आवश्यकता थी, मैंने अपने और शर्मा जी के नेत्र पोषित किये और सामने का दृश्य स्पष्ट हो गया!

"आइये" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"चलिए" वे बोले,

ये आवाज़ रूबी के कमरे से ही आयी थी, जहां हम सोये थे रात को! हम वहीँ के लिए चल पड़े, दरवाज़ा बंद था बाहर से, मैंने दरवाज़े की कुण्डी खोली और कमरे में आहिस्ता से घुसा, तभी मेरी बायीं बाजू पर एक मोटी सी क़िताब आकर टकरायी! मैंने पीछे हुआ और जैसे किसी ने मेरा हाथ पकड़ा अंदर खींचने के लिए, मुझे जैसे ही खींच उसने मैं उस से रु-ब-रु हो गया, मुझे छूते ही उसने छलां लगायी और बिस्तर के पास जाकर खड़ा हो गया! वो मुझे और शर्मा जी को, और मैं और शर्मा जी उसको देख रहे थे, वो एक लड़का था, करीब इक्कीस-बाइस बरस का, उसने ट्रैक-सूट पहन रखा था हरे रंग का, बाल घुंघराले थे उसके, चेहरा मोहरा सब सही था, अच्छे घर का दिखायी देता था, गोरा-चिट्टा था, वो गुस्से में खड़ा था, करीब पांच फीट आठ इंच का रहा होगा, देह मजबूत थी उसकी! पांवों में कुछ नहीं पहना था उसने! नंगे पाँव था वो! गुस्से में आँखें लाल थीं उसकी!

"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,

वो गुस्से में फुनकता रहा!

"बताओ मुझे?" मैंने कहा,

उसने फिर से गुस्से से देखा!

"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,

कुछ नहीं बोला वो!

"बताओ?" मैंने पूछा,

नहीं बोला कुछ!

मैं भी चुप हुआ,

वो पीछे हुआ!

"कृतिका को ढूंढ रहे हो?" मैंने पूछा,

उसने ये सुना और सीधा वहाँ से हटकर मेरे सामने आ खड़ा हुआ! आँखों से आँखें मिलाये देखता रहा, मेरी भी पलकें नहीं झपकीं और उसकी तो खैर झपकनी ही नहीं थीं!

"बताओ?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कुछ नहीं बोला!

शायद तोल रहा था मुझे! हर प्रेत यही करता है!

"कृतिका को ढूंढ रहे हो?" मैंने पूछा,

"हाँ" वो धीरे से बोला,

'वो यहाँ नहीं है अब" मैंने कहा,

"नहीं है?" उसने गुस्से से पूछा,

"हाँ! नहीं है" मैंने कहा,

"मैंने तो यहीं छोड़ा था उसको?" वो अब रोने लगा, सुबक सुबक कर! लेकिन प्रेतों के आंसू नहीं आते!

"कहाँ छोड़ा था?" मैंने पूछा,

"यहीं" उसने बिस्तर की तरफ इशारा किया,

"लेकिन यहाँ तो नहीं है वो?" मैंने कहा,

"कहाँ है?" उसने पूछा,

"पहले मुझे बताओ तुम कौन हो?" मैंने कहा,

वो चुप हुआ, रोना बंद हो गया!

"मेरा नाम सुशांत है" उसने बताया,

"कहाँ रहते हो?" मैंने पूछा,

''त्रिनगर" उसने कहा,

"दिल्ली में?" मैंने पूछा,

"हाँ" उसने कहा,

"ये कृति कौन है?" मैंने पूछा,

"मेरी दोस्त है" वो बोला,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"वो यहीं रहती है?" मैंने पूछा,

"हाँ यहीं, इसी घर में" उसने कहा,

"लेकिन यहाँ तो कोई नहीं है?" मैंने कहा,

"अब बताओ, कहाँ है वो?" उसने पूछा,

दया! बहुत दया आयी मुझे उस पर! चार साल से वो यहाँ आता है, रोज! अपनी दोस्त कृति को ढूंढने! समय के उसी खंड में अटका है अभी तक जब इसकी मृत्यु हुई थी, ये नहीं जान पाया कि क्या हुआ!

"बताओ मुझे?" उसने पूछा,

"बताता हूँ" मैंने कहा,

और तभी वो शून्य में लोप हो गया! ये गूढ़ विषय है कि वो कहाँ लोप हो गया! बस यूँ समझिये कि कुछ समयावधि चुरा के लाया था किसी से!

"गया?" शर्मा जी ने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"अब ये पक्का हो गया कि ये उस लड़की को ही ढूंढ रहा है, बेचारा!" वे बोले,

"हाँ!" मैंने कहा,

और मैं बैठ गया वहीँ!

कलुष-मंत्र वापिस किया!

"दुबारा आएगा?" उन्होंने पूछा,

"अवश्य!" मैंने कहा,

"लड़का तो अच्छे घर का लगता है" वे बोले,

"हाँ, त्रिनगर से है" मैंने कहा,

"इन दोनों ने आत्महत्या की होगी एक साथ, लेकिन दोनों की मौत एक साथ नहीं हुई होगी, लगता है लड़की छूट गयी लेकिन ये अटक गया!" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, लगता है इसकी मौत उस लड़की के बाद ही हुई होगी" मैंने कहा,

"हाँ हाँ!" वे बोले,

"अब तह में कैसे जाया जाए?" मैंने कहा,

"वो तो आप जानते हैं" वे बोले,

"मैं इसको डराना नहीं चाहता, कहीं छिटक जाएगा, इसके लिए साल का कोई मोल नहीं, कोई अर्थ नहीं, लेकिन साल भर हम इंतज़ार नहीं कर सकते" मैंने कहा,

"सही बात है" वे बोले,

लेकिन कोई न कोई तरीक़ा तो निकालना ही था, ताकि इस प्रेत की कहानी जानी जा सके! इसने कहा था कि उसने उस लड़की को यहीं छोड़ा था, इसका क्या मतलब हुआ? कहानी उलझ गयी थी अब!

 

दोपहर बीत चुकी थी, खाना भी आधा छूट चुका था, अब मन नहीं था खाना खाने का, सुशांत को देखा था तभी से मैं उसमे खो सा गया था, चार साल का वक़्त कम नहीं होता एक ऐसे शख्स को खोजने के लिए जो अब इस संसार में है ही नहीं! ये सुशांत नहीं जानता था कि क्या हुआ था उस लड़की के साथ, इसीलिए ये अटका हुआ था, अपनी प्रेयसी को ढूंढने में! मुझे अब दया आयी उस पर, उसका गुस्सा जायज़ भी था! लेकिन अब वो एक प्रेत था, इस नश्वर संसार से अलग हो चुका था, लेकिन ये सब जब तक वो नहीं जान लेता तब तक उसका भटकाव ऐसे ही ज़ारी रहता!

मैं उसी कमरे में बैठा था शर्मा जी के साथ!

प्रकाश जी आये थे उसी समय, मैंने उनको बता दिया था कि उस से आमना-सामना हो चुका है, और वो उसी लड़की को ढूंढ रहा है, वो उसकी दोस्त और प्रेयसी कृतिका! अब उन्होंने भी दुःख हुआ सुशांत के बारे में जानकर,

"क्या ये मुक्त नहीं हो सकता? कोई शान्ति-कर्म या पूजा?" उन्होंने पूछा,

"हो सकता है, लेकिन इसमें उसको स्वीकृति चाहिए" मैंने कहा,

"ये तो बड़ा मुश्किल काम है" वे बोले,

"है तो मुश्किल ही" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कैसे समझायेंगे?" उन्होंने पूछा,

"समझाऊंगा, नहीं माना अगर तो उसको फिर पकड़ना होगा!" मैंने कहा,

"अच्छा!" वे बोले,

"शर्मा जी, आज तैयार रहिएगा" मैंने कहा,

"जी" वे बोले,

"आप प्रकाश जी के साथ जाकर कुछ सामान ले आओ, बाकी तो आपको पता ही है क्या लाना है" मैंने कहा,

"हाँ जी" वे बोले,

तब वे दोनों ही चले गए वहाँ से कुछ सामान लेने!

मैं रह गया कमरे में अकेला!

मुझे अब उसको समझाना था, अगर नहीं समझता है तो उसको पकड़ना अब मेरी मजबूरी थी! जिस प्रकार वो गुस्से में था वो अवश्य ही किसी को नुक्सान पहुंचा सकता था, कम से कम इस घर में तो निश्चित ही! इसीलिए अब ये ज़रूरी हो गया था!

मैं लेट गया!

आँखें बंद कर लीं,और फिर से उस सुशांत के ख़याल आने लगे! दया आने लगी थी मुझे उस पर!

सामान मैंने अपने खबीस के लिए बुलाया था, उसकी आज ज़रुरत पड़ सकती थी, आज खबीस ने उसको दबोच लेना था! इसके लिए मुझे उसको यानि कि सुशांत को रोकना था, ताकि वो वहाँ से भागे नहीं!

एक घंटा बीत गया!

तब जाकर वे दोनों आये!

सामान ले आये थे सारा, शर्मा जी को पता था कि क्या लाना है!

"बहुत देर लग गयी?" मैंने पूछा,

"कुछ सामान यहाँ नहीं था, वो दूर से लाना पड़ा" वे बोले,

"अच्छा" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"पूरा ले आये न?" मैंने पूछा,

"हाँ" वे बोले,

वे दोनों बैठ गए वहीँ!

मैंने सामान जांचा और कुछ सामान फ्रिज में रखने को कह दिया, प्रकाश जी उसको फ्रिज में रखने के लिए चले गए, जाने से पहले चाय की कह गए थे!

थोड़ी देर में चाय आ गयी!

हम सभी चाय पीने लगे!

चाय पी ली गयी!

प्रकाश जी बर्तन लेकर चले गए!

अब मैंने कुछ सामान निकाल कर एक जगह बिस्तर के एक तरफ रख दिया! और फिर सोफे पर बैठ गया आकर!

"आज पकड़ लेंगे?" उन्होंने पूछा,

"हाँ, कोशिश करता हूँ" मैंने कहा,

"कोशिश क्या, इबु से ही पकड़वा दो?" उन्होंने कहा,

"इबु यहाँ होगा तो वो कभी नहीं आएगा" मैंने कहा,

"अरे हाँ" वे बोले,

"पहले उस से आराम से बात करूँगा, फिर देखते हैं क्या करना है" मैंने कहा,

"हाँ, कम से कम इनको तो तसल्ली हो? बेटी कब तक रहेगी वहाँ?" वे बोले,

"सही बात है" मैंने कहा,

"कर दो काम आज रात" वे बोले,

''ज़रूर" मैंने कहा,

तभी प्रकाश जी फिर आये, वहीँ बैठ गए!

"आज काम हो जाएगा आपका" शर्मा जी ने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उन्होंने हाथ जोड़कर धन्यवाद किया!

मित्रगण!

फिर शाम हुई,

और फिर कोई आठ बजे!

हमारी महफ़िल फिर से सज गयी!

आज खाना भी बढ़िया था साथ में! इस से और मजा आ गया था! पैग बना पहला, मैंने भोग दिया, शर्मा जी ने भी भोग दिया और फिर गटक गए!

"वैसे क्या बताया था उसने, त्रिनगर से है वो?" प्रकाश जी ने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"तो गुरु जी, वो अपने घर भी जाता होगा?" उन्होंने पूछा,

"नहीं, उसके लिए तो ये आज की ही बात है" मैंने कहा,

"मतलब?" उन्होंने पूछा,

समझ नहीं पाये वो!

"प्रेत के लिए समय कोई मायने नहीं रखता, उसके लिए उस लड़की का मरना ऐसा ही है जैसे अभी कुछ समय पहले, वो वहीँ अटक कर रह गया है" मैंने कहा,

शर्मा जी ने और समझा दिया!

"अच्छा! कैसे कैसे हिसाब-किताब हैं दुनिया में!" वे बोले,

"इसी कारण से ये प्रेत भटकते रहते हैं, सालों गुजर जाते हैं, फिर ऐसे ही भटकते भटकते कोई इन्हे क़ैद कर लेता है, कोई अपना समय-भोग कर आगे बढ़ जाता है!" मैंने कहा,

"प्रेत का अपना योनि काल बहुत लम्बा है! बहुत लम्बा! इतना कि मैं बता भी नहीं सकता, ये इसी योनि में क़ैद हो जाते हैं और फिर कोई उपद्रव मचाता है कोई शान्ति से कहीं वास करता है!" मैंने कहा,

"बड़ा ही भयानक है जी ये तो" वे बोले,

"हाँ!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"इसने तो आत्महत्या की थी ना?" उन्होंने पूछा,

"हाँ, लेकिन आत्महत्या से इस देह का अंत होता है, उस चिंता का नहीं, वो तो अनवरत उसके साथ लगी रहती है! यदि समय-संधि में नहीं अटके तो पार हो जायेंगे नहीं तो हश्र यही होगा जो इस सुशांत का है!" मैंने कहा!

"ये समय-संधि क्या है?" उन्होंने पूछा,

"यदि लिखने वाले ने इतनी ही आयु लिखी हो और कारण उसका आत्महत्या ही हो तो सम्भव है कि समय-संधि से बच जाएँ, यदि नहीं बच सके तो भूत बनता है वो व्यक्ति, अपनी शेष आयु भोग तक और फिर उसके बाद वो प्रेत योनि में प्रवेश कर जाता है!" मैंने कहा,

"अच्छा!" उन्होंने कहा,

ये नयी जानकारी थी उनके लिए!

"ये बातें कौन बताता है आजकल?" वे बोले,

"कोई नहीं, हाँ, बड़े-बुज़ुर्ग आज भी जानते हैं ये सब" मैंने कहा,

"हाँ जी, और आजकल के लोग तो इनको अंधविश्वास मानते हैं! वे बोले,

"मानने दो, सबकी अपनी अपनी सोच है!" मैंने कहा,

"ये तो है" वे बोले,

अब थोड़ा खाया हमने अपना माल!

और फिर से एक पैग लगा लिया!

"और जी ये जिन्न क्या होते हैं?" उन्होंने पूछा,

अब शर्मा जी ने बता दिया उनको विस्तार से!

"बड़ा ही रहस्यमय संसार है!" वे बोले,

वे अपनी जिज्ञासाएं मिटाते चले गए! और मैं उनको उत्तर देता चला गया!

"ये खा के देखिये, नया आइटम है!" उन्होंने वो पन्नी खोलते हुए कहा!

"ज़रूर!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मैंने चखा वो! लाजवाब ज़ायक़ा था उसका!

"बढ़िया है!" मैंने कहा,

फिर से एक पैग उसके साथ लगाया!

अब तक साढ़े नौ बज चुके थे!

रात साढ़े दस तक हम आराम से खाते-पीते रहे! उसके बाद आज रात सोना नहीं था, पता नहीं वो कब आ धमके!

साढ़े दस बजे हमारी महफ़िल ख़त्म हो गयी, हम सब उठ गए, प्रकाश जी भी उठ के चले गए, और मैंने और शर्मा जी ने अपने हाथ मुंह धोये, फिर आ बैठे वहीँ सोफे पर! जैसा मैंने कहा था, सोना नहीं है, एक बार सोये तो पता नहीं कहीं मौक़ा ना निकल जाए हाथ से! मैं और शर्मा जी बातें करते रहे! करीब साढ़े ग्यारह बज गए! अब आँखें भारी होने लगीं, टीवी पर भी नज़र नहीं जा रही थी, मैं अलसाया हुआ लेट गया आखिर बिस्तर पर, शर्मा जी बातें कटे रहे तो मैं हाँ-हूँ में जवाब देने लगा! नींद का ज़ोर था अब, मैं नहीं जाग सका और सो गया! शर्मा जी भी सो गए फिर बाद में, सोफे पर ही बैठे बैठे! फिर बाद में वे भी बिस्तर पर आ लेटे थे! क्या करते, नशे की हालत थी, रोम रोम में नशा भरा हुआ था! नींद आना लाजमी था, नहीं तो सुबह सर पकड़ कर घूमते रहते! हम सो गए फिर दोनों!

हम खर्राटे मार कर सो रहे थे! कोई सुध नहीं थी! तभी रात में मुझे दरवाज़े पर फिर से खरोंचने की आवाज़ आई, मिया फ़ौरन ही समझ गया सारा मामला, मैं झट से उठा, और शर्मा जी को भी उठाया, वे भी उठ गए, घड़ी देखी, घड़ी में दो बजे थे! वो आज दो बजे आया था, मैं और शर्मा जी वहीँ दरवाज़े के पास चले दबे पाँव और दरवाज़े से कान सटा दिए! ये वही था, वो दरवाज़े पर नाख़ून से खरोंच रहा था! बीच बीच में वो रो रो कर 'कृति कृति' पुकारता था! फिर वो नीचे बैठा दरवाज़े से रगड़ता हुआ, हम भी नीचे बैठ गए! वो सिसकियाँ भरते रोता रहा! अब मैंने कलुष-मंत्र पढ़ा और अपने और शर्मा जी के नेत्र पोषित कर लिए! वो लड़का फिर से खड़ा हुआ और 'कृति? कृति?' आवाज़ देने लगा! उसको यक़ीन था कि उसकी प्रेयसी कृति अंदर ही है! वो बार बार दरवाज़े पर दस्तक देता हलके हलके! कभी रोता और कभी बैठ जाता, मैंने तभी दरवाज़ा खोल दिया, कोई भागा वहाँ से, और रुक गया, मैं बाहर आया, वो वहीँ खड़ा था! उसने मुझे गुस्से से देखा, मुझे गुस्सा नहीं आया उस पर!

''अंदर है कृति" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो झट से दीवार में से पार होता हुआ अंदर आ गया, बिस्तर को देखा, हर जगह देखा उसने, टटोला!

"कहाँ है?" उसने पूछा,

अब मेरा मन किया कि अभी इबु का शाही-रुक्का पढूं और इसको क़ैद कर लूँ! लेकिन फिर में रुक गया! अभी नहीं!

"सुशांत?" मैंने कहा,

उसने मुझे देखा!

"नहीं मिली कृति?" मैंने पूछा,

"नहीं" वो रुंधे हुए गले से बोला,

"वो मिलेगी भी नहीं" मैंने कहा,

उसको जैसे गुस्सा आ गया सुनकर!

"क्या बोले तुम?" उनसे पूछा,

''वो नहीं मिलेगी" मैंने कहा,

"वो यहीं है" उसने कहा,

"नहीं है" मैंने कहा,

"मैंने उसको यहीं छोड़ा था?" उसने कहा,

"हाँ, लेकिन अब नहीं है" मैंने कहा,

"कहाँ है?" उसने पूछा,

"वो जा चुकी" मैंने कहा,

वो चिंतित हुआ!

"कहाँ?" उसने पूछा,

"परली पार!" मैंने कहा,

उसे समझ नहीं आया!


   
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"कहाँ?" उसने पूछा,

"बताया ना? परली पार" मैंने कहा,

उसे अब भी समझ नहीं आया!

"नहीं! वो यहीं है" उसने कहा,

"ढूंढ लो" मैंने कहा,

वो वही खड़ा रहा! और तभी वो मुझ पर झपटा और मुझे नीचे गिरा दिया! मैं नीचे गिर गया, शर्मा जी उठे तो उनका भी गला पकड़ लिया उसने! मैंने उसको छोड़ने को कहा लेकिन वो गुस्से में फुनक रहा था! उसने मुझे फिर से मारने की कोशिश की, अब मामला गम्भीर हुआ, ना मेरे पास तंत्राभूषण थे और ना शर्मा जी के पास, वो शर्मा जी का गला भींचे जा रहा था! और तभी मैंने शाही-रुक्का पढ़ा दिया इबु का! उसने शर्मा जी को फेंका सामने की तरफ, वे सोफे से टकराए! और तभी उसी पल वहाँ इबु हाज़िर हुआ! हाज़िर होते ही उसने उस लड़के को उसके बालों से पकड़ लिया और ऊपर उठा लिया, इबु भयानक क्रोध में था! अब वो लड़का कांपा थर थर! इबु उसको खींच कर अपनी तरफ लाया और गुस्से से फड़कती हुईं लाल आँखों से उसको देखा! वो डर के मारे कुछ नहीं कह सका! बस देखता रहा! और फिर इबु ने उसकी प्रेतिया-पिटाई शुरू कर दी! खबीसी पिटाई! इबु ने उसको बहुत मारा! बहुत! बहुत पीटा! सारा गुस्सा निकाल दिया उसका! और फिर उसको उठा कर ज़मीन से ऊपर उठा लिया! वो प्रेत डरा-शमा वहीँ पत्थर बने खड़ा रहा!

"इसको ले जाओ अपने साथ" मैं इबु से कहा,

और इबु लोप हुआ वहाँ से!

अब मैं पलटा शर्मा जी की तरफ! वे उठ गए थे, लेकिन उनके माथे पर गूमड़ उभर आया था, ये शायद उनको सोफा लगा था सर पर!

"आप ठीक हो?" मैंने पूछा,

"हाँ, ठीक हूँ" वे बोले,

"पकड़ लिया मैंने उसको" वे बोले,

"अच्छा किया, खतरनाक प्रेत है वो" वे बोले,

"इबु ने सही खातिरदारी की है उसकी!" मैंने कहा,


   
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"मैंने रुक्का सुना था!" वे बोले,

"हाँ!" मैंने कहा,

अनुभव क्र. ६६ भाग ३

By Suhas Matondkar on Thursday, September 18, 2014 at 3:25pm

उन्होंने अपने माथे को छुआ और फिर रुमाल लगा लिया वहाँ!

"खेल ख़त्म उसका!" मैंने कहा,

"अच्छा हुआ" वे बोले,

अब मैं फिर से बिस्तर पर बैठा! इबु ना होता तो आज ये मार ही डालता हम में से किसी को! यही होता है, इन प्रेतों का कभी यक़ीन नहीं करना चाहिए, कब मित्रवत व्यवहार करें और कब शत्रुवत! कुछ नहीं पता! प्रेतों में असीम शक्ति होती है! वे किसी को भी पल में ही मार सकते हैं! उनको मौक़ा मिलना चाहिए वे कभी कभार साधक पर भी हमला करने से बाज नहीं आते! इसीलिए इनका पुख्ता इंतज़ाम करना आवश्यक है! और इस प्रेत का मैंने पुख्ता इंतज़ाम कर दिया था! सारी अकड़ और गुस्सा, सब निकाल दिया था इबु ने!

''आइये, अब लेट जाओ" मैंने कहा,

वे खड़े हुए, एक गिलास पानी पिया, मैंने भी पानी माँगा उनसे और पानी पिया, फिर हम लेट गए! सारी घटना आँखों के सामने घूम गयी!

"खतरनाक है ये लड़का!" वे बोले,

"वो भड़क गया था मेरे मना करने से" मैंने कहा,

"हाँ, तभी गुस्सा आया उसको" वे बोले,

"हाँ, यही कारण है" मैंने कहा,

फिर हम और बातें करते रहे उसी लड़के के बार में, करीब चार बज गए, उसके बाद फिर हम सो गए!

सुबह हुई!

मेरी आँख खुली, साढ़े आठ बजे थे!


   
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मैंने शर्मा जी को भी जगाया, उनके माथे का गूमड़ अब ठीक सा हो गया था, लेकिन उनके दर्द था अभी था माथे में, मैं फिर स्नान करने गया, बाद में शर्मा जी भी चले गए, स्नान के पश्चात हम बैठे वहीँ पर! तभी प्रकाश जी आ गए! नमस्कार हुई! अब मैंने उनको सबकुछ बता दिया! मारे डर के वे घबरा गए! लेकिन फिर मैंने उनको समझा दिया कि अब कोई प्रेत-लीला नहीं होगी उनके घर में! अब घर ठीक है! अब वो चाहें तो रूबी को बुला सकते हैं, वो प्रेत अब मेरी क़ैद में है! तब जाकर उनको शान्ति हुई! उन्होंने हमारा बहुत धन्यवाद किया! और फिर उनका बेटा कमरे में चाय ले आया! हम चाय पीने लगे!

दोपहर में हमने कहना खाया और फिर उसके बाद वहाँ से जाने की इच्छा व्यक्त की, हमारा काम अब खत्म हो चुका था वहाँ, अब जो भी करना था वो मुझे अपने स्थान से ही करना था! आखिर हमने उन सबसे विदा ली! और हम अपने स्थान के लिए निकल पड़े!

अपने स्थान पहुंचे!

वहाँ से शर्मा जी अपने निवास के लिए चले गए! शाम को वो नहीं आने वाले थे, उन्होंने बताया, और मैं वहाँ अपने कामों में लग गया! वहाँ मुझसे मिलने कोई आया हुआ था असम से, उनसे मिला, वे एक रात वहीँ रहे! अगली सुबह वे भी चले गए!

उसी शाम को शर्मा जी आये, अब माथा ठीक था उनका, हम बैठे और बातें हुईं, वे सामान लाये थे साथ में, हमेशा की तरह! सहायक को बुलाया और बाकी सामान मंगवा लिया उस से! वो ले आया! और फिर हम अब खाने-पीने में लगे!

 

उस शाम मैं और शर्मा जी बैठे थे, हम खा-पी रहे थे, और फिर उस लड़के की बात चल निकली, हमने कुछ बातें की, तभी प्रकाश जी का फ़ोन आ गया, उन्होंने रूबी को आज बुलवा लिया था, मैंने भी उनको समझा दिया था कि अब कोई समस्या नहीं होगी उसके साथ, घर में भी कुछ नहीं होगा गड़बड़! अब शांति रहेगी, फिर उन्होंने उस लड़के के बारे में पूछा कि क्या हुआ उसका, मैंने बताया कि अभी मैंने उसको पेश नहीं किया है, अभी जल्दी में ऐसी कोई तिथि नहीं है जिसमे मुक्ति-क्रिया हो सके, फिर उन्होंने कहा कि इसमें जो भी खर्चा आये वे देने को तैयार हैं, सहर्ष! आखिर वो भटक रहा था, उसका भटकाव समाप्त होना चाहिए था अब! मैंने उनको बता दिया कि जब मैं वो क्रिया करूँगा तो उनको सूचित कर दूंगा और फिर हमारी बात खत्म हो गयी! अब शर्मा जी ने पूछा उस लड़के के बारे में, "कब पेश करोगे उसको आप गुरु जी?"

"अभी छह दिन हैं" मैंने कहा,


   
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"अच्छा" वे बोले,

"मैंने उसकी कहानी भी जाननी है" मैंने कहा,

"हाँ, सभी को उत्सुकता है" वे बोले,

"हाँ" मैंने कहा,

"पेश तो कर ही सकते हैं?" उन्होंने पूछा,

"हाँ, पेश तो कर ही सकते हैं" मैंने कहा,

"तो आज ही कर लीजिये, मैं आज यहीं रुक जाऊँगा" वे बोले,

"ठीक है" मैंने कहा,

अब उन्होंने घर में फ़ोन कर दिया कि वे आज नहीं आयेंगे, कल सुबह पहुंचेंगे घर और फ़ोन काट दिया!

"ठीक है, मैं आज ही पेश करता हूँ उसको" मैंने कहा,

"हाँ, पता तो चले" वे बोले,

"हाँ" मैंने कहा,

फिर हमने खाना-पीना ख़तम किया, बातचीत करते करते! और फिर शर्मा जी लेट गए बिस्तर पर!

और मैं चला अब क्रिया-स्थल के लिए! पहले स्नान किया और फिर वहाँ से मैंने क्रिया-स्थल में प्रवेश किया!

अलख नमन किया, फिर स्थान नमन, फिर दिशा-पूजन और फिर अघोर-पुरुष को नमन करते हुए गुरु नमन किया! और फिर अपने आसन पर बैठ गया! अब मैंने इबु का शाही-रुक्का पढ़ा! इबु झमाक से हाज़िर हुआ! मैंने खड़ा हुआ और इबु से उस प्रेत को पेश करने को कहा, इबु ने एक झटके से ही उसको खींच कर वहाँ पेश कर दिया! अब मैंने इबु को वहाँ से भेज दिया! लड़का वहीँ खड़ा था, उसने अपने आसपास देखा, और वहाँ से भागने को तैयार हुआ!

"सब बेकार है सुशांत!" मैंने कहा,

वो रुका!


   
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