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वर्ष २०१२ गुड़गांव की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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"मैं पता करता हूँ" वे बोले,

"ठीक है" मैंने कहा,

फिर हम अपनी गाड़ी तक गए,

मैंने गाड़ी से अपना छोटा बैग निकाला, और फिर उनके घर में चला गया, शर्मा जी को चार कीलें दीं,

"लो, ये एक एक कमरे में गाड़ दो, चौखट में" मैंने कहा,

"जी" वे बोले,

अब प्रकाश जी हथौड़ी ले आये और शर्मा जी ने एक एक करके वो कीलें चारों कमरों में गाड़ दीं, उनकी चौखटों में!

अब हमारा काम फिलहाल के लिए पूरा हो गया था!

"अब हम चलेंगे" मैंने कहा,

"जी" वे बोले,

"मैंने इंतज़ाम तो किया है कि यहाँ कोई उपद्रव न हो, अगर कुछ भी हो तो मुझे बता देना उसी समय" मैंने कहा,

"जी" वे बोले,

अब हम गाड़ी में बैठे और गाड़ी स्टार्ट की, नमस्ते की और हम वहाँ से निकल पड़े!

"लड़के का नाम जानना ज़रूरी है" मैंने कहा शर्मा जी से,

"जी" वे बोले,

अब मैंने उनको अपनी शंका के बारे में बताया कि हो न हो वो लड़के का प्रेत अभी भी उस लड़की कृतिका को ढूंढ रहा है, इसीलिए यहाँ आता है,

"ये ही सटीक कारण दीखता है मुझे भी" वे बोले,

"लेकिन अब लड़के का पता कैसे चले?" मैंने कहा,

"अगर वो लड़की यहाँ रहती तो?" उन्होंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"तो सम्भव था" मैंने कहा,

''लेकिन वो डरी हुई है, वो नहीं ठहरने वाली यहाँ" वे बोले,

"यही बात है" मैंने कहा,

"अब क्या किया जाए?" उन्होंने कहा,

"देखते हैं" मैंने कहा,

"कारिंदा कोई मदद नहीं कर सकता?" उन्होंने पूछा,

"नहीं" मैंने कहा,

"ओह" वे बोले,

"हाँ, किसी को तैनात किया जा सकता है मियादी तौर पर, लेकिन अगर तब तक नहीं आया तो फिर पहरेदारी भी बेकार" मैंने कहा,

"ये तो है" वे बोले,

"फिर भी मैं तैनाती करता हूँ, हो सकता है कुछ हाथ लग जाए" मैंने कहा,

"जी" वे बोले,

वैसे ये ख़याल धूल में लाठी भांजने जैसा ही था, लग गया तो लग गया, नहीं लगा तो वही फिर खाली हाथ! वो प्रेत वहाँ मौजूद नहीं था, वहाँ उसका बसेरा या वास भी नहीं था, वो यहाँ आता था, कृति को ढूंढने, अब कहाँ था वो, ये नहीं पता था, और ये जानना ही ज़रूरी था!

खैर,

हम अपने स्थान पहुंचे,

वहाँ हमने थोड़ी देर आराम किया और फिर शर्मा जी अपने घर के लिए निकल गए, अब शाम को आना था उनको, मैं भी इसी विषय में सोचता रहा कि कैसे बात बने?

शाम हुई और शर्मा जी आये, माल-मसाला ले आये थे, सहायक आया तो उसको भी शर्मा जी ने उसका हिस्सा दे दिया, वो खुश अब! सारा सामान ले आया, हमने अब मदिरापान करना आरम्भ किया!

"कुछ निकला तरीक़ा?" उन्होंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"नहीं" मैंने कहा,

"अब कैसे बने बात?" वे बोले,

"यही सोच रहा हूँ" मैंने कहा,

"बड़ी उलझ सी गयी है ये कहानी तो" वे बोले,

"हाँ" मैंने कहा,

पैग उठाया और गटक लिया! गला तर हो गया! श्वास में ताज़गी बस गयी! अब दिमाग चलना शुरू हुआ!!

"अगर मैं किसी पहरेदार को भेजूं. तो वो वहाँ नहीं आएगा" मैंने कहा,

"हाँ, सो तो है" वे बोले,

"ख़बीस को भेजूं, तो, तो बिलकुल नहीं आएगा!" मैंने कहा,

"हाँ!" वे बोले,

"अगर वो लड़की मान जाती तो आज ही काम हो जाता!" मैंने कहा,

"वो मानती तब न!" वे बोले,

"यही तो मुसीबत हो गयी" मैंने कहा,

"अब सुलझाएंगे कैसे इसको?" वे बोले,

"सुलझाना तो पड़ेगा ही" मैंने कहा,

"हाँ जी" वे बोले,

एक और पैग!

वो भी गटक लिया गया!

"एक सुझाव दूँ?" वे बोले,

"दो?" मैंने कहा,

"क्यों न किसी पहरेदार को दो दिन के लिए तैनात किया जाए? हो सकता है दबोच ले उसको?" उन्होंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"सम्भव है" मैंने कहा,

"तो आप यही कीजिये" वे बोले,

अब एक टुकड़ा दिया उन्होंने मुझे प्रसाद का! मैंने ले लिया!

"यही करता हूँ मैं आज" मैंने कहा,

तभी वही सहायक आया, और बैठ गया!

"क्या हुआ?" मैंने पूछा,

"साहू जी मिलना चाहते हैं" वो बोला,

"बुला लो" मैंने कहा,

साहू जी आ गए! दोनों हाथ उठाकर नमस्कार की!

"आइये बैठिये!" मैंने कहा,

"सुनो, एक गिलास और ले आओ" मैंने सहायक से कहा,

सहायक गया और एक गिलास धोकर ले आया! वहीँ रख दिया! अब शर्मा जी ने उनका गिलास भर दिया,

"लीजिये!" मैंने कहा,

उन्होंने ले लिया!

"कहिये साहू जी?" मैंने कहा,

"भेरी चाहिए, उधारी पर" वे बोले,

"कितने दिन?" मैंने पूछा,

"छह दिन" वे बोले,

"ले लो" मैंने कहा,

खुश हो गए वो! लेना देना तो चलता रहता है!

"कभी हमारे पास भी आ जाया करो दोनों?" उन्होंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ज़रूर!" मैंने कहा,

"कल आ जाओ" वे बोले,

"ठीक है" मैंने कहा,

वे जाने लगे, तभी मैंने रोक लिया उनको, बैठ गए, अब मैंने यही कहानी उनको सुना दी, रूबी वाली, वे भी गम्भीर हुए फिर बोले, "ये काम वहीँ बैठ के करो आप, प्रत्यक्ष लड़ाओ, सीमा बाँध दो, फिर देखो, तड़पता हुआ आ गिरेगा थाली में शिकार!" उन्होंने कहा,

वास्तव में!

वास्तव में सही कहा उन्होंने! मैंने धन्यवाद कहा उनको और फिर वे चले गए! राय-मशविरे ने सही राह दे दी!

 

साहू जी चले गए, लेकिन एक तरीक़ा दे गए, सीमा बांधो दो, मंत्र लड़ाओ, ये बढ़िया था! इस से बात बन सकती थी! किसी पहरेदार की आवश्यकता नहीं थी! किसी कारिंदे को भेजना के भी आवश्यकता नहीं थी, बस हमे उस घर में जाना था, एक क्रिया करनी थी और बस फिर आगे काम आरम्भ हो जाना था! ये सही था!

"बात तो सही कही साहू जी ने" मैंने कहा,

"हाँ जी" वे बोले,

"कल बात कीजिये आप प्रकाश जी से इस बारे में" मैंने कहा,

"मैं कर लेता हूँ" वे बोले,

"उसके बाद हम बनाते हैं कार्यक्रम वहाँ जाने का" मैंने कहा,

"ज़रूर" वे बोले,

इसके बाद हम खाते-पीते रहे, रात हो गयी, अब आराम करने का समय था, शर्मा जी ने भी वहीँ रुकने का निर्णय लिया और रुक गए!

रात को हम इसी विषय पर बातें करते रहे, काफी देर तक, जब तक कि नींद नहीं आयी, और फिर बाद में बातें करते करते ही सो गए,

नींद आ गयी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सुबह हुई!

आँख खुली, सात का समय था, मैं स्नान करने चला गया, नित्य-कर्म आदि से निवृत हुआ और फिर अपने कक्ष में आया, शर्मा जी भी जाग चुके थे, अब वो जाने की तैयारी में थे, मैंने चाय का पूछा तो उन्होंने मना किया, कोई आवश्यक काम था उनको! वे चले गए,

यहाँ मैंने चाय पी और नाश्ता भी किया और फिर अपने कार्यों में लग गया!

वहाँ शर्मा जी ने प्रकाश जी से बात कर ली थी, वे तैयार थे, बल्कि चाहते थे कि हम जल्दी से जल्दी वहाँ पहुँच जाएँ, घर में भय का माहौल था, सभी घबराये हुए थे, डर लगता था घर में रहने से उनको!

और फिर वो दिन आया, शर्मा जी मेरे पास सुबह सुबह पहुँच गए, हमने चाय साथ ही पी और फिर हम निकल पड़े वहाँ के लिए!

"क्या कहा उनको?" मैंने पूछा,

"मैंने कहा कि एक दो दिन लग सकते हैं" वे बोले,

"ठीक है" मैंने कहा,

"यही बताया कि हमको रहना होगा वहाँ एक दो दिन" वे बोले,

"हाँ सही कहा" मैंने कहा,

हम चलते गये बातें करते हुए!

और फिर हम वहाँ पहुँच गए!

प्रकश जी वहीँ मिले, मैं अपना सामान ले आया था, जिस वास्तु की ज़रुरत पड़ सकती थी वो सब ले आया था! अब बस वहाँ एक छोटी सी क्रिया करनी थी, हद-बंदी की! और फिर देखना था इसका नतीजा!हम अंदर गए, वहाँ बैठे,सभी से नमस्कार हुई, उनका बेटा आज वहीँ था, उस से भी मिले, फिर मैंने अपना सामान रख दिया वहीँ पर, पानी आया तो हमने पानी पिया, बाद में चाय का प्रबंध भी हुआ और फिर हमने चाय भी पी! अब मैंने प्रकाश जी को रूबी का कमरा खोलने को कहा, वे चाबी लेकर आये और चले हमारे साथ!

"आइये" वे बोले,

'चलो" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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रूबी के कमरे तक पहुंचे!

और दरवाज़ा खोला!

दरवाज़ा खोलते ही वहाँ का नज़ारा बदला हुआ मिला! वहाँ जाली हुई राख मिली, हर जगह, दीवार पर, छत पर, शीशे पर, फर्श पर! यही है प्रेत-लीला!

"ये? ये सब क्या?" उन्होंने पूछा,

"प्रेत-लीला!" मैंने कहा,

वे डर गए बहुत!

"घबराइये नहीं" मैंने कहा,

वे साँसें लेने लगे तेज तेज! भय सा बैठ गया उनको! चेहरे पर हवाइयां उड़ गयीं!

"कहीं? वो रूबी को...?" उन्होंने पूछा,

मैंने उनका आशय भांपा!

"नहीं, वो इस स्थान से जुड़ा है, वहाँ तक नहीं पहुंचेगा" मैंने कहा,

अब थोड़ी राहत हुई उनको!

"कमरे के सफाई करवा दीजिये" मैंने कहा,

"अभी कहता हूँ" वे बोले,

और बाहर चले गये, फिर आये, साथ में काम वाली थी, झाड़ू ले आयी थी, उसने हब देखा तो वो भी घबरा गयी! मैंने उसको सफाई करने को कह दिया! वो सफाई करने लगी, करीब आधे घंटे में सफाई हो गयी! छत आदि की सफाई मैंने कर दी थी, मैंने लम्बाई का फायदा उठा लिया था!

"शर्मा जी, ज़रा मेरा सामान ले आये" मैंने कहा,

"हाँ, लाता हूँ" वे बोले,

मैं वहीँ सोफे पर बैठ गया, शर्मा जी मेरा सामान ले आये, वो भी वहीँ बैठ गए, प्रकाश जी भी वहीँ खड़े रहे!

"गुरु जी, कुछ और चाहिए?" उन्होंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"नहीं, मुझे चाहिए होगी तो मैं मांग लूँगा" मैंने कहा,

"ठीक है गुरु जी" वे बोले,

अब मैंने बिस्तर ठीक किया, प्रकाश जी चले गए वहाँ से, मैंने ही कहा था उनको, उनके जाते ही मैंने दरवाज़ा अंदर से बंद कर दिया!

"ये राख?" शर्मा जी ने पूछा,

"वही डाल कर गया होगा" मैंने कहा,

"कैसी अजीब सी राख है?" वे बोले,

"मैंने इन्हे बताया नहीं, ये मुर्दे की राख है" मैंने कहा,

"क्या?" वे चौंके!

"हाँ!" मैंने कहा,

"मामला खतरनाक है" वे बोले,

"हाँ" मैंने कहा,

अब मैं बैठ गया वहाँ, बिस्तर पर! शर्मा जी सोफे पर बैठ गये, मैं तभी उठा और अपना सामान खोला, उसमे से कुछ निकाला और फिर वहाँ की दीवारों पर कुछ चिन्ह बना दिया, कुछ तांत्रिक चिन्ह! जो केवल प्रेतों को ही दमकते दिखायी देते हैं! फिर मैंने सीमा बाँधी अब, मन्त्रों से और हद-बंदी कर दी, मैंने दरवाज़ा खोला और घर से बाहर तक गया, वहाँ से मंत्र पढ़ते हुए तीन बार थूका, और अब मन्त्रों ने काम करना आरम्भ कर दिया!

वहाँ से मैं अंदर होते हुए उस कमरे तक आ गया! और कमरे में बैठ गया, अब शर्मा जी को मैंने बाहर भेजा, वे चले गए, और मित्रगण! अब मैंने असली काम करना आरम्भ किया, जैसे मछली को पकड़ने के लिए चारा डाला जाता है ऐसे ही मैंने वहाँ एक ऐसा ही काम किया! उस दिन भद्रा तिथि थी, जो कि बढ़िया थी, कम से कम मेरे लिए तो! मैए अपनी वो क्रिया पूर्ण कर ली!

अब दरवाज़ा खोला,

शर्मा जी को बुलाया,

वे आये, पीछे पीछे प्रकश जी भी आ गए!

"भोजन कर लीजिये" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, मैंने कहा, एक काम कीजिये, यहीं लगवा दीजिये" मैंने कहा,

"जी" वे बोले,

उनको पत्नी और बेटे ने भोजन लगा दिया, हमने भोजन किया फिर! और फिर उसके बाद आराम! हमने एक-दो झपकियाँ भी ले लीं!

जब उठे तो पांच का समय था! खुल के सोये थे हम!

"चाय मंगवाई जाए" वे बोले,

"हाँ!" मैंने कहा,

अब शर्मा जी बाहर गए और कह कर वापिस आ गए!

"कह दिया" मैंने पूछा,

"हाँ जी" वे बोले,

"ठीक" मैंने कहा,

थोड़ी देर में चाय आ गयी, प्रकाश जी ले आये थे, उनकी चाय भी उस ट्रे में थी! उन्होंने चाय रखी और हमने अपने अपने कप उठाये!

"प्रकाश जी?" मैंने कहा,

"जी?" उन्होंने कहा,

"रात्रि भोजन पश्चात, सभी को कहिये कि कोई भी अपने कमरे से बाहर न जाए, मेरा मतलब रात्रि ग्यारह बजे के बाद" मैंने कहा,

"जी" वे बोले,

"एहतियात के तौर पर" मैंने कहा,

"ज़रूर" वे बोले,

फिर मैंने एक बिस्कुट उठाया और खाया!

"वो..गुरु जी..आपके लिए कुछ माँगा के रखा है" वे बोले,

"क्या?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"वो..आपका प्रसाद" वे बोले,

"अच्छा! वो तो हम ले आये थे!" मैंने कहा,

"आज इस गरीब की तरफ से" वे बोले,

"कैसी बात करते हो आप!" मैंने कहा,

"गुरु जी, आपसे आत्मियता सी हो गयी है, नहीं तो कौन है आज जो दूसरे के दुःख को अपना दुःख समझता है?" वे बोले,

"देखिये प्रकाश जी, ये संसार है, मैं कुछ भी सही, लेकिन, सबसे पहले इंसान हूँ! मैं ही इतना सबकुछ जानने के बाद किसी काम न आया, तो प्रेत योनि में भटकूंगा! मेरी विद्याएँ कल्याण से दोगुनी होती हैं, और रही रूबी! वो भी तो मेरी बेटी बराबर है!" मैंने कहा,

"आपका बड़प्पन है ये गुरु जी" वे बोले,

"नहीं! ठीक है, प्रकाश जी, आज हम वही लेंगे जो आपने मंगवाया है!" मैंने कहा,

उन्होंने मेरे हाथों को उठा अपने माथे से लगाया!

कितनी बड़ी बात! कितना आत्म-सुख! जो मुझ पर यक़ीन कर रहे थे! यही सिखाया गया था मुझे, कट जाना, मर जाना, लेकिन जो आप पर यक़ीन करे उसको धोखा नहीं देना! ये कोई माने या न माने, मैं मानता हूँ मित्रगण!

शाम हुई, और अब मैंने भी तैयारियां करनी शुरू कीं, मंत्रादि तो मैंने पहले ही जागृत कर लिए थे, अब बस उस क्षण का इंतज़ार था कि कब वो प्रेत यहाँ आये, और फिर खेल शुरू हो! तभी प्रकाश जी आये, और अपने द्वारा खरीदा सामान ले आये साथ में, वे भी शौक़ फरमाते थे तो हमारी तिकड़ी बैठ गयी, खाने आदि का सामान मंगा लिया गया और फिर हमारी महफ़िल धीरे धीरे जवान होने लगी!

"गुरु जी?" प्रकाश जी ने पूछा,

"जी?" मैंने कहा,

"कुछ पूछना चाहता हूँ" वे बोले,

"पूछा?' मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आपने बताया कि यहाँ उस लड़की ने और लड़के ने एक साथ आत्महत्या की थी, लड़के को तो प्रेत योनि मिल गयी, लेकिन लड़की कहाँ है?" उन्होंने पूछा,

"प्रकाश जी, ये अभी केवल मेरे ही विचार हैं, ये प्रेत कौन है ये मुझे भी नहीं पता, हाँ, इतना पता है कि वो जब नाम ले रहा है अपनी महिला-मित्र का तो उसको वही लड़का होना चाहिए" मैंने कहा,

"अच्छा" वे बोले,

"तभी वो आ रहा है यहाँ?" उन्होंने पूछा,

"हाँ, विशेषकर इस कमरे में, इसका अर्थ ये है कि यही है वो कमरा जहां उन्होंने आत्महत्या की थी" मैंने कहा,

वे घबराये!

"अब लड़की कहाँ है? और ये प्रेत कौन है? जैसा कि माता जी ने बताया था कि दो प्रेत हैं, दो भूत हैं, तो ये दूसरा कौन है? ऐसे बहुत सवाल हैं अभी" मैंने कहा,

"जी" वे बोले,

"गुरु जी, हमने तो अपने जनम-करम में ऐसा कभी नहीं देखा, बस सुना था, हमे क्या पता था हमे भी रु-ब-रु होना पड़ेगा ऐसे ही किसी मामले से" वे बोले,

"ऐसा अक्सर हो जाता है प्रकाश जी" मैंने कहा,

"अच्छा? वो प्रेत रूबी से क्या चाहता है?" उन्होंने पूछा,

"मुझे भी नहीं पता" मैंने कहा,

"वो शायद रूबी को ही कृति मानता है, या मान रहा है, या ये सोचता है कि कृति इसी कमरे में है अभी, इसीलिए उसके पास आता है" अब शर्मा जी बोले,

"ये भी सम्भव है" मैंने कहा,

"तो वो नुक्सान क्यों पहुंचा रहा है उसको?" उन्होंने पूछा,

"अपने साथ ले जाने के लिए" शर्मा जी ने बताया,

"ओह..." वे डर गए बुरी तरह से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"पता नहीं कौन है?" वे बोले,

"आपने कोई खोजबीन की?" मैंने पूछा,

"हाँ जी, लेकिन कुछ पता नहीं चला" वे बोले,

"अच्छा.." मैंने कहा,

"अब आप आ गये हैं तो मैंने सोचा कि अब तो काम हो ही जाएगा" वे बोले,

"हो जाएगा" मैंने कहा,

बोतल के करीब आ गये हम! प्रकाश जी उठे और बाहर चले गये, एक और अद्धा ले आये अपने कमरे से, वो भी खोल दिया गया!

आखिर में खाना-पीना हो गया, अब प्रकाश जी चले अपने कमरे की तरफ और हमने उस कमरे का दरवाज़ा बंद कर लिया अंदर से, ताक़ीद कर ही दी थी कि कोई ग्यारह बजे के बाद अपने अपने कमरे से बाहर न निकले, सो अब ग्यारह बजे का समय हो चला था!

अब मैंने कुछ सामान निकाला, उसके अंदर से कुछ भस्म निकाली और कमरे में छिड़क दी, जो करना था, जो आवश्यक था वो कर लिया!

मैं भी बैठा हुआ था और शर्मा जी भी!

"आप सोइए शर्मा जी" मैंने कहा,

"कोई बात नहीं" वे बोले,

"नींद आ रही है तो सो जाइये" मैंने कहा, उनको जम्हाईयां आ रही थीं, इसीलिए मैंने पूछा था!

"अभी नहीं" वे बोले,

"मुझे तो समय लगेगा अभी" मैंने कहा,

"कोई बात नहीं" वे बोले और बैठे रहे,

"क्या लगता है? वो आएगा?" उन्होंने पूछा,

"आना चाहिए" मैंने कहा,

"और नहीं आया तो, कहीं डर गया तो?" उन्होंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मैंने उसके डरने जैसा कोई काम नहीं किया है" मैंने कहा,

"मतलब?" उन्होंने पूछा,

"मतलब मैंने तो यही दर्शाया है कि जो भी बात है वो बताये" मैंने कहा,

"ओह अच्छा!" वे बोले,

"सबसे पहले तो ये कि हम उसको पकड़ने नहीं आये, वो तो बेचारा वैसे ही दुःख भोग रहा है, और क्यों दुःख दिया जाए उसको?" मैंने कहा,

"सही बात है" वे बोले,

"बस मैं जानना चाहता हूँ कि वो कौन है, क्या चाहता है अदि आदि" मैंने कहा,

'समझ गया मैं" वे बोले, फिर से जम्हाई ली उन्होंने,

"नींद का ज़ोर है, सो जाओ" मैंने कहा,

"ठीक है जी" वे बोले और बिस्तर पर लेट गए!

मैं वहीँ सोफे पर बैठा रहा!

मैंने तभी उठकर कमरे की बत्ती बंद कर दी, और नाईट-लैंप जला दिया, मद्धम सी रौशनी, संतरी रंग की छा गयी कमरे की सफ़ेद दीवारों पर!

मैं बहुत देर तक बैठा रहा!

अनुभव क्र. ६६ भाग २

By Suhas Matondkar on Thursday, September 18, 2014 at 3:23pm

अब मुझे भी उबासियाँ आने लगीं, घड़ी देखी तो साढ़े बारह बज रहे थे, मैंने भी सोने की ठानी और मैं भी बिस्तर पर ही लेट गया! थोड़ी देर में ही आँख लग गयी!

हम दोनों ही खर्राटेदार नींद ले रहे थे कि तभी लगा कमरे में कोई है, मेरी आँख खुली, मैंने कनखियों से देखा, कोई नहीं था, मैं बैठ गया, और फिर देखा, कोई भी नहीं था, शायद वहम हुआ था मुझे, घड़ी देखी तो पौने दो का समय था!

मैं फिर से लेट गया!


   
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अब नींद थोडा दूर खिसक गयी मुझसे, नींद टूट गयी थी, अब करवट बदल बदल कर मनाता रहा नींद को, आखिर उसकी दया हुई और मैं कोई सवा दो बजे सो गया! शर्मा जी आराम से नींद ले रहे थे!

करीब चार बजे मुझे लगा कि दरवाज़े पर कोई है! किसी ने दरवाज़े को नाख़ून से खुरचा था शायद, और आवाज़ काफी साफ़ थी, मैंने पहले सोचा कि कोई चूहा या बिल्ली आदि होगी, लेकिन ऐसा नहीं था, मैंने पूरी तरह ध्यान से सुना और फिर मैंने शर्मा जी को जगाया, वे जागे, मैंने अपने होंठों पर ऊँगली रखते हुए उनको चुप रहने को कहा, उन्होंने कान लगाए अपने, अब मैं उठा और दबे पानों से वहीँ दरवाज़े के पास चला, शर्म अजी भी आ गए मेरे साथ, कोई अभी भी खरोंच रहा था, मैंने ध्यान दिया, और तभी एक सिसकी सी उभरी, जैसे कोई रो रहा हो, बीच बीच में सिसकियाँ लेता हो, सिसकियाँ काफी साफ़ थीं जैसे दरवाज़े के पीछे ही कोई खड़ा हो और रो रहा हो!

और फिर,

जैसे किसी ने दरवाज़े से अपनी कमर टिकाई हो, दरवाज़ा अंदर की तरफ झुक गया था हल्का सा, चटकनी भी आवाज़ कर गयी थी, और फिर वहाँ जो कोई भी था वो बैठ गया, और सिसकियाँ भरता रहा! हम दोनों दरवाज़े के इधर अपनी साँसें रोके सब देख रहे थे! सुन रहे थे!

फिर वो खड़ा हुआ, और हलके से बोला, फुसफुसाकर 'कृति, कृति' हम चुप! बिलकुल चुप! ये वही प्रेत था जो यहाँ रूबी को तंग कर रहा था! मैं तैयार था, लेकिन वो अभी तक अंदर नहीं आया था! और मैंने तो ऐसा कोई काम नहीं किया था जो उसको रोकता!

''कृति?" वो फिर से फुसफुसाया!

हमने साफ़ साफ़ सुना!

"आ जाओ" वो फिर से बोला, फुसफुसाकर!

हम एकदम चुप!

"आ जाओ" वो फिर से बोला,

हम जस के तस!

"आ जाओ, आ जाओ?" उसने अबकी बार तेजी से कहा,

ये किसी लड़के की आवाज़ थी, तेज़ तर्रार से लड़के की!


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर कुछ पल शान्ति!

कुछ नहीं हुआ,

दो मिनट गुजरे!

पांच मिनट हुए!

दस मिनट हो गए!

अब मैंने झट से दरवाज़ा खोल दिया! कोई नहीं था वहाँ!

"चला गया शायद" शर्मा जी ने कहा,

"हाँ" मैंने कहा,

और वो जो कोई भी था, चला गया था! ऐसा ही लगता था!

मैंने दरवाज़ा बंद कर दिया,

और जैसे ही मैं पलट कर बिस्तर की तरफ चला, दरवाज़े पर किसी ने लात मारी! मैं फ़ौरन दरवाज़े की तरफ भाग, वो लातें मारता जा रहा था, और मैंने फिर से दरवाज़ा खोला, और इस बार भी कोई नहीं था! मुझे समय ही नहीं मिला कलुष-मंत्र पढ़ने का! मैं वहीँ खड़ा हो गया!

 

फिर कोई नज़र नहीं आया, जो कोई भी था वो अब नदारद था, हाथ आया मौक़ा निकला गया था हाथ से, वो मध्य-रात्रि पश्चात आया था, और रूबी ने जो बताया था, उसके अनुसार वो वहीँ था दिन में भी, इसका मतलब दिन में भी हमे कोई न कोई मौक़ा अवश्य ही मिल सकता था! मैंने घड़ी देखी, पाँच का समय हो चला था, अब उसके आने का कोई पता नहीं था, आये या न आये, इसीलिए मैं वापिस बिस्तर पर लेट गया!

"निकल गया हाथ से?" शर्मा जी बोले,

"हाँ" मैंने कहा,

"सबकुछ बहुत जल्दी हो गया" वे बोले,

"हाँ" मैंने कहा,

"कोई बात नहीं, दुबारा सही" वे करवट बदलते हुए बोले,


   
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