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वर्ष २०१२ काशी के पास की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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मैंने भाव देखे उसके, वो सच कह रहा था, वो सच में ही नहीं जानता था इस बारे में, "तो उस दिन क्यों नहीं आया हमसे बात करने?" मैंने पूछा, "मैं डर गया था" वो बोला, अब बिठा दिया था मैंने उसे, "क्यों डर गया था?" मैंने पूछा, 

अब वो चुप हुआ, मैंने आराम से बातें करना शुरू किया उस से अब, ताकि डरे नहीं वो, जो जानता है, सच बताये, वो काँप रहा था, डर रहा था, बोल नहीं निकल रहे थे मुंह से, "मैं....और....." वो बोला धीरे धीरे, "बोल, बोल?" मैंने कहा, "मैं और...अरूक्षा.प्रेम करते हैं एक-दूसरे से" वो बोल गया, मैं तो जैसे अभी पछाड़ ही खा जाता ये सुनकर, शर्मा जी का भी मुंह खुला रहा गया, इसीलिए वो डर रहा था, इसीलिए नहीं आया था बाहर HMAARE साथ, यहां तो सारा आंकलन ही खराब हो गया था मेरा! अब मुझे तरस आया उस पर! बुरा लगा मेरा उसके साथ ऐसा दुर्व्यवहार करना, मेरा मन खिन्न हो गया अपने आप से, ये तो बेचारा प्रेम करता है उसे, ये क्यों करेगा उसका अहित? या क्यों करवाएगा? लेकिन क्या? 

और क्या अरुक्षा भी? "क्या अरूक्षा भी प्रेम करती है तुमसे?" मैंने पूछा, "हाँ, वो भी करती है" वो बोला, "ये बात और किसे मालूम है?" मैंने पूछा, "पलोमा को वो बोला, अब शर्मा जी और मैं, एक दूसरे को देखें, कहाँ से आये थे कहाँ जाने के लिए, 

और कहाँ पहुँच गए! क्या सोचा था और क्या हो गया? "तो इनकी तबीयत क्यों खराब हई?" मैंने पूछा, "मुझे नहीं पता, सच में" वो सिसकियाँ ले और बोले, "कब से खराब है?" मैंने पूछा, मेरे इस सवाल ने चेहरा लाल कर दिया उसका! वो बुक्का फाड़कर रो पड़ा, "गलती, मेरी गलती!" वो बोला, गलती? 

क्या गलती? बस, यहीं तो है कहानी का असली राज! यहीं तो है वो बला जो खाये जा रही है इन लड़कियों को! क्या गलती? यही पूछा मैंने! 

और जो हमें पता चला, वो बहुत ही चौंका देने वाली घटना थी! जिसके बारे में मैं कभी सोच भी नहीं सकता था! 

न शर्मा जी, न ही अंबर नाथ, न ही ये गिरि, 

और नहीं ही वो अरूक्षा! मित्रगण! 

ये गिरि और वो अरुक्षा, प्रेम करते थे एक दूसरे से, बहुत अधिक, गिरि सीधा-साधा युवक था अपने पिता से मिलने आता, तोअरक्षा से भी मिलता, कब प्रेम हो गया, पता ही नहीं चला, लेकिन गिरि अपना स्थान जानता था, बाबा अंबर नाथ कभी तैयार नहीं होते, 

क्योंकि गिरि का पिता एक सहायक ही था, बाबा अंबर नाथ के संग काफी वर्षों से रहता था, 

बाबा अंबर नाथ का रसूख था, बा अंबर नाथ ये कभी नहीं मानते, लेकिन प्रेम ये कहाँ देखे! पहले अंकुर फूटा, फिर पौधा बना और फिर वृक्ष! 

जवानी की रौ में दोनों ही बहे जा रहे थे। 

और यहीं गलती हो गयी इन दोनों से! इन दोनों के बीच, शारीरिक संबंध बन गए, 

और इसी प्रकार, अरक्षा ने गर्भ-धारण कर लिया, अब घबराये दोनों ही, क्या करें? गिरि नहीं चाहता था कि ये बात, किसी और को पता चले, न अरुक्षा ही, उसको जहां निष्कासित किया


   
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श्रीशः उपदंडक
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जाता, उसके अधिकार भी छीन लिए जाते, उसका कोई अस्तित्व ही नहीं रहता, कम से कम उस तंत्र-जगत में! 

अब क्या किया जाए। स्थिति गंभीर थी, गिरि ने अभी कुछ दवाएं दी उसको, ताकि गर्भ गिर जाए, लेकिन ये कार्य भी यहां नहीं हो सकता था, अतः अपनी एक योजना के अनुसार, गिरि के कहे पर, 

वे दोनों बहनें, एक स्थान पर लायी गयीं, किसी पूजन विशेष के अवसर का बहाना बना कर, मित्रगण, 

वे तीन दिन रहीं वहाँ पर, 

और इस प्रकार, एक दिन दवाओं के कारण, 

रात्रि-समय वो गर्भ गिर गया, गिरि, पलोमा और अरुक्षा, इस भ्रूण को ठिकाने लगाने के लिए, तैयार हुए, जहां बालक-बालिकाएं दफनाए जाते थे, वो जगह अधिक दूर नहीं थी, ये नदी किनारे बस थोड़ी ही दूर थी, वे लोग गए, 

और उस स्थान में, वस्त्र में लिपटा वो भूण, उन्होंने दबा दिया, अब राहत हुई उनको, अगले ही दिन, अरुक्षा और पलोमा, चली गयीं वापिस, गिरि यहां ही रह गया था, यहाँ तो तो कहानी समझ आती थी! लेकिन जो अब हुआ था, वो न केवल वीभत्स था बल्कि, सोच से भी परे था! ये भ्रूण दबा तो दिया गया था, लेकिन शिशु-भक्षण करने वाली, कंड-कपालिका महामसानी ने इसका भक्षण किया था! अब जैसा कि अक्सर होता है, ये समस्त शक्तियां गंध को महत्त्व दिया करती हैं! उस भ्रूण की गंध इस कंड को चख गयी! 

और हई अब इन लड़कियों से और भूण की मांग शुरू! अब खेल कंड-कपालिका महामसानी ने अपना खेल! इसी कारण से ये लड़कियां, प्रणय-निवेदन किया करती थीं! इसी कारण से, उनकी उल्टियों में, शिशु-कलेजे ले अवशेष, भण के अवशेष, 

योनि से प्रसव होने की प्रक्रिया, अरूक्षा की योनि से उस भूण का निकलना, 

आदि हुआ करता था! अब सब समझ आ चुका था! तस्वीर साफ़ थी अब! वो काले निशान, सब याद आ गया था। मानव-भक्षण करने वाले जो भी नरपिशाच हुए हैं, उनके शरीर पर, ऐसे ही काले निशान पड़ जाया करते हैं, 

ये था रहस्य! 

और रही बात अब कंड की! तो कंड से लड़ना, कोई सरल कार्य नहीं! या तो अरुक्षा ही अपने प्राण दे, या फिर उसको मनचाहे भ्रूण प्राप्त हों! ये महामसानी है! इसी स्थान पर वास किया करती है! इसी कारण से मृत बालक-बालिकाओं के शरीर, मन्त्रों द्वारा दग्ध किये जाते हैं दफनाने से पहले, 

और उनके ऊपर एक बड़ा सा पत्थर रख दिया जाता है, इन्होने ऐसा नहीं किया था! 

और फल, अब ये लड़कियां भोग रही थीं! एक ऐसी समस्या, भयानक समस्या, जिसके बारे में, अब तक किसी को एक रत्ती भर भी ज्ञात नहीं था! 

अपनी अथक मेहनत, और विद्याओं के ज़ोर पर, हम आ पहुंचे थे, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और सामने थी, कंड-कपालिका महामसानी! रहस्य तो खुल चुका था, लेकिन अब राह बहुत कठिन थीं, अब इन लड़कियों को झुलसना था, 

मानव शरीर के पीड़ा सहन करने की, अंतिम सीमा तक जाना था उन्हें! क्रिया के लिए भी एक 'पेठा' चाहिए था, 

ताज़ा और निरोगी, रंग में लाल होना चाहिए था, तभी वो महा-क्रिया सम्भव थी, कंड से भिड़ना मौत से भिड़ने समान हुआ करता है! 

अब फंसा मैं था, दो रास्ते थे, या तो अन्य कोई ये कार्य करे क्योंकि रहस्य मैंने खोल ही दिया था, या फिर मैं इस क्रिया को करूँ, मैंने पहले बाबा अंबर नाथ से बात करने की सोची, गिरि को अब समझा दिया गया था की वो चिंता न करे, सच्चाई बता कर उसने भला काम ही किया है, 

और प्रशंसा के लायक है, अब उसको डरने की आवश्यकता नहीं थी, बस यही कि हमारा साथ दे, वो तैयार था, हर प्रकार से, हमने उसी रात बाबा अंबर नाथ को सच्चाई से अवगत करवा दिया, 

वे बेचारे बहुत दुखी हुई, आनकेहन लाल हो गयीं सोच सोच कर, उनको ढांढस बंधवाया हमने, बहुत हिम्मत दी, वे मान गए, लेकिन उन्होंने एक मांग और रख दी, कि ये क्रिया मैं ही करूँ, किसी और पर विश्वास नहीं, कहीं कुछ गलत हुआ, चूक हुई तो इन दोनों लड़कियों का शरीर फट जाएगा, दाह-संस्कार के समय भी, शरीर जलेगा नहीं, बहाना ही पड़ेगा, ये कंड का प्रभाव हआ करता है! दर्गति हो जाया करती है शरीर की! कुल्हाड़े से टुकड़े टुकड़े कर, पत्थर से बाँध नदी में डाल दिया जाता है, उन्हें इसी बात का डर था, आखिर मैं, सोच विचार के बाद मैंने महा-क्रिया करने के लिए हाँ कह दी, अब मुझे विशेष क्रियाएँ करनी थीं, कंड-कपालिका को आमंत्रित करना था! वो जब आती, तो तबाही ला सकती थी, हमारी अलख ही, हमारा भक्षण कर जाती! आग लग जाती उस स्थान पर, 

और फिर कभी भी कोई वनस्पति भी पैदा नहीं होती वहाँ, कभी भी! 

इसमें न तो मेरा वाचाल ही मदद करता, न कर्ण-पिशाचिनी ही! न अन्य कोई! हाँ एक वस्तु थी मेरे पास, जिसे, सदैव अपने पास ही रखता हूँ, बाबा नौमना का वो माल, वो हारड़ा, जिसे मैं धारण करता और, उसके उस महाभीषण रूप से अपनी रक्षा करता! साथ किसी और को बिठा नहीं सकता था, गल के मारा जाता वो, बहुत बुरी तरह, उसकी हड्डियां ही, उसका, भक्षण कर जातीं! स्थिति बहुत भयानक थी! अब मैंने तिथि का निर्धारण किया, दो दिन के बाद, ये क्रिया की जानी थी, मैंने अगले दिन से ही, 

सारी तैयारियां आरम्भ की, और एक एक करके सभी भीषण विद्याएँ जागृत करता चला गया। 

और फिर वो दिन भी आ गया, बाबा अंबर नाथ ने एक ताज़ा 'पेठा' मंगवा लिया था, उसको कुटी हुई बर्फ में रखा गया था, मैंने देखा उसे, सही था, काम अवश्य ही करता, गिरि भी वहीं था, वो भी मदद कर रहा था हमारी, भरसक मदद, अब मुझे एक ब्रह्म-श्मशान जाना था, इसका प्रबंध भी बाबा अंबरनाथ ने ही किया था, उस श्मशान में तैयारियां कर ली गयी थीं, बस देर थी तो, वहाँ जाने भर की, हम करीब सात बजे निकले वहां से, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और कोई पौने नौ बजे पहुंचे, वहाँ पहुँच कर, उन लड़कियों को बाँधा गया, नहीं तो विरोध करती, विरोध तो अब भी किया था उन्होंने, लेकिन अब बाबा अंबर नाथ, 

और गिरि ने भी मदद की थी, 

चार सहायिकाएं भी थीं, मैंने स्नान किया वहाँ, फिर भस्म-स्नान, फिर सभी सामग्री रखी वहां, भोग आदि, न जाने कब क्या आवश्यकता पड़ जाए, एक पात्र में, नीम्बू के रस में डूबा वो 'पेठा' रखा, 

और उसके आसपास नौ दीये प्रज्ज्वलित किये, अपने तंत्राभूषण धारण किये, 

और अब अलख उठायी! और उन लड़कियों को बुला लिया, वे लड़कियां चिल्लाती, गालियां देती, विरोध करती ले आई गयीं, अब उनके वस्त्र उतरवा दिए गए, अब मैंने उसके शरीर पर, चिन्ह बनाये, ये रक्षण-प्रणाली थी, भस्म छिड़की, त्रिशूल से शरीर दागा, 

और बैठ गया अपने आसन पर! महानाद किया। घोर नाद! फिर गुरु नमन, श्मशान नमन, अघोर-पुरुष नमन! 

और फिर अलख में ईंधन झोंक, महा-क्रिया आरम्भ की! तमंग और त्रिपाश विद्या संचरण में लायी गयीं, मैं मंत्र पढ़ता जाता, 

और वे चिल्लाते जाती! मुझ पर थूक फेंकती! पाँव पटकतीं, पाँव बंधे थे उनके, 

नहीं तो भाग जाती वहाँ से, और फिर बहुत बुरा होता! मैंने मंत्र भीषण, 

और भीषण होते चले गए! जैसे जैसे क्रिया आगे बढ़ी, उनकी हालत खराब होने लगी। रोने लगी। गिड़गिड़ाने लगी! कभी वे स्वयं, स्वयं होती, 

और कभी, स्वयं, स्वयं न होती! मैं खड़ा हुआ अब! त्रिशूल उठाया, 

और मंत्र पढ़ते हुए अरुक्षा के सर पर रख दिया! उसने झटके खाये! 

और नीचे गिर पड़ी! फिर त्रिशूल रखा पलोमा के सर पर, उसने भी झटके खाये, और गिर पड़ी औंधी, सामने की तरफ! अब मैंने प्रत्यक्ष मंत्र पढ़ा, उस कंड का आह्वान किया। मंत्रोच्चार अत्यंत सघन था, मैं खोया हुआ था उसी में, श्मशान गूंज रहा था मंत्रों से, कीट-पतंगे भी दूर ही उड़ रहे थे! उल्लू अपने अपने घोंसले छोड़ जा चुके थे। भयानक माहौल था वहाँ! अचानक से अरुक्षा खड़ी हो गयी! 

आँखें चौड़ी कर! अपने दोनों हाथ, चलाते हुए, हाथ जबकि पीछे बंधे थे उसके! वो गुर्रा रही थी! 

अभी तो खेल शुरू ही हुआ था! अभी तो भौमाणियाँ आनी थीं! कंड की सेविकाएं। 

ये वही थीं! मैं खड़ा हुआ, त्रिशूल लिया, उस 'पेठे' मैं गाड़ा, त्रिशूल लाल हुआ, 

अब गया अरक्षा के पास, उसने जीभ बाहर निकाली, मैंने त्रिशूल पर लगा रक्त, 

चटा दिया उसे! उसे आनंद आ गया! हुंकार भर दी! इतने में ही वो पलोमा! वो भी उठ खड़ी हुई, हुंकार भरती हुई जीभ निकाली उसने बाहर, मैंने फिर से त्रिशूल गाड़ा उस 'पेठे' में, 

और चटा दिया उसे भी! वो भी खुश! यही तो करना था मुझे! भौमाणियाँ खुश होती तो, तब ही तो आती कंड-कपालिका वहाँ! अब मैं फिर से बैठ गया आसन पर, मंत्र पढ़े, मित्रगण! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो बार बार, जीभ बाहर निकालती, 

और मैं बार बार उन्हें वो 'पेठे' का रस, चटाता! कम से कम, बीस बार ऐसा हुआ! मैं खड़ा हुआ, 

और फिर वे छटपटायीं! 

दोनों ही! बुरी तरह से, पेट फूल गए दोनों के, जैसे गर्भ धारण किया हो उन्होंने! स्तन भारी हो चले, उनमे से पानी सा बहने लगा, 

वो ज़ोर लगाती, तो स्तनों से बूंदें छिटक जाती, मेरे पास तक गिरती, फिर रक्त की बूंदें निकलती, 

ऐसा ही होता जा रहा था! मैंने एक बार फिर से, भौमांगी-मंत्र पढ़ा 

और फेंक दी भस्म उनके ऊपर, वे पीछे गिरी! शांत हो कर! लेकिन पेट, बहुत फूले थे, नाभियां, बाहर आ रही थीं, लगता था जैसे कि अभी पेट फट जाएंगे उनके! मैंने तभी एक नाद किया, तमोलिष मंत्र का जाप किया! खड़ा हुआ, वहां तक गया, 

और अपना त्रिशूल अरुक्षा के पेट से छुआ दिया! जैसे ही पेट को छुआ मैंने, वैसे ही वो चीखी, जैसे प्रसव-पीड़ा में हो! ये कंड का ही प्रभाव था! मैंने फिर से भौमांगी-मंत्र पढ़ा, 

भस्म उठायी, 

और उसके पेट पर दे मारी! उसका चीखना बंद हो गया, उस पेट नीचे हो गया एकदम! 

भौमांगी मंत्र प्रेत-क्रिया का शमन कर दिया करता है, तत्काल ही! वही किया था इसने अभी! अब पलोमा चीखने लगी! पेट उठाने लगी अपना, तड़पने लगी, जैसे प्रसव-वेदना हो, मैंने फिर से भौमांगी का सहारा लिया, 

और अब वो भी शांत, और तभी, तभी दोनों उठ पड़ीं! हंसने लगी। 

एक साथ, एक ही स्वर में! उनके स्तनों से पीला दूध बहे जा रहा था, ये सब उस कंड का प्रभाव था, ऐसा ही करती है कंड! फिर दोनों ने मूत्र-त्याग किया, 

वेग से, कोई साधारण स्त्री ऐसा नहीं करती, इन्होने किया, ये कंड का ही वेग था! मैंने फ्री से प्रत्यक्ष मंत्र का जाप किया, भस्म फेंकता रहा उन पर, वे हंसती रही, बहुत देर तक और अचानक! अचानक जैसे दम घुटा दोनों का, साँसें अटकी, गला रुंध सा गया, 

आँखें बाहर आ गयीं, मुंह खुला रह गया, जीभ बाहर लटक गयी, 

और दोनों ही गिर गयौं अागे! मैं जानता था ये कंड का ही खेल था! क्रिया में व्यवाधान हो, मात्र इसीलिए, तमोलिष मंत्र पढ़ा मैंने, और अपने समक्ष रखे, मेढ़े के रक्त से भी पात्र से, 

कुछ छींटे डाले उन पर, फौरन हरकत हुई शरीर में उनके 

और उठ बैठी, अपने सर नीचे लटकाये! थोड़ी ही देर में, पलोमा, नीचे गिर गयी, लेकिन अरुक्षा ने घूरा मुझे, मैं समझ गया था की किसी की सवारी आ गयी है! कोई प्रबल सेविका कंड की! उसने फ़ौरन ही कुछ पढ़ा, अजीब सा, मैं जान गया कि ये शवपाला है! आँखें पीली हो गयीं थी उसकी! मुंह खुला था! जीभ बाहर थी, लाल रंग की जीभ! जैसे रक्त पिया हो! अब मैंने जाप आरम्भ किया महारटा का! महारूढा अत्यंत रौद्र शक्ति है, शवपाला भारी नहीं पड़ती फिर, जैसे जैसे मैं जाप करता गया, वैसे वैसे, शवपाला बिगड़ती चली गई। कभी अंट-शंट बके, कभी मन्त्र


   
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श्रीशः उपदंडक
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से पढ़े, कभी अट्टहास लगाए, कभी रो पड़े, कभी अस्क्षा का नाम ले, भक्षण करने की धमकी दे! मेरा महारूढा का मंत्र जागृत हो चुका था, मैंने रक्त के पात्र को उठाया, एक घुट भरा, मंत्र मन ही मन पढ़ा, 

खड़ा हुआ, वो चिल्लाई! 

बहुत तेज! 

जैसे मैं बलि देने जा रहा होऊं उसकी! मैं वो घूट, फैंक दिया उस पर! भन्न सी आवाज़ हुई! जैसे गरम तवे पर पानी की बूंदें नाच रही हों! जैसे ही रक्त पड़ा उसके ऊपर, शवपाला भाग खड़ी हुई! छोड़ गयी मैदान! मैं मंत्रोच्चार ज़ारी रखा, पलोमा अचेत ही पड़ी थी, अब वो मोहरा नहीं थी! अब जिसने आना था, मैं उसको भी जानता था, अतिरूपा! ये भी महारौद्र है। रक्त पसंद है इसको! मानव अवशेषों का भक्षण करती है! परन्तु अपने ही क्षेत्र में, अथवा जिसने इसको सिद्ध किया हो, उसके शत्रु का भक्षण! अरक्षा ने अट्टहास लगाया। खड़े होने की कोशिश की! ज़ोर लगाया रस्सी तोड़ने के लिए, लेकिन ये तो सम्भव नहीं था, वो घेरे में थी, 

और घेरा तोडना उसके लिए सम्भव नहीं था! हाँ, कंड तोड़ सकती थी! हंसने लगी वो! 

मेरा नाम पुकारने लगी, मेरी माता श्री का नाम पुकारने लगी, मेरी दादी श्री का, पुरानी पुरानी मेरे बचपन की, घटनाएँ बखाने लगी! मेरे जो परिचित, प्रियजन स्वर्गवासी हो चुके थे, उन सबकी मृत्यु का, 

कारण बताने लगी! मेरी गलतियां गिनाने लगी! मुझे पाप और पुण्य का बखान सुनाने लगी! यही करती है ये अतिरूपा! अपने आपको परम-सत से युक्त बताना, यही है इसका असली रूप! बहुत कुशल होती है, बहुत कुशल, यही अतिरूपा उन कुछ शक्तियों में से है, जो मृत्यु पश्चात, मृत-देह में प्रवेश कर जाती है! मैंने मंत्र पढ़ा! ज्वाल-मंत्र! 

और भस्म छिड़क कर मारी उस पर! उसको हिचकियाँ सी लगीं। उल्टियाँ कर दी, न जाने क्या क्या निकला उसमे से, सड़ा हुआ सब मांस, 

आँखें, होंठ, काक और न जाने क्या क्या, बालकों के, बस बालकों के ही! बदबू फैल गयी बहुत बुरी! मैं खड़ा हुआ, त्रिमाक्ष-मंत्र पढ़ा, 

और अपना त्रिशूल उठाया, तब तक वो उगला हुआ मांस सब, 

खा चुकी थी वापिस, मुंह में से, 

आंतें लटक रही थीं, जिन्हे वो धीरे धीरे गले में उतार रही थी, मुंह खोल कर! 

स दृश्य था! मैंने महानाद लगाया! अपने त्रिशूल को अभिमंत्रित किया, और छुआ दिया उसकी गर्दन के पीछे! 

मंत्रण सफल हुआ, नीचे लेट गयी, तड़पने लगी! बिलखने लगी! मैंने फिर से त्रिशूल उसके पेट से छुआ दिया! 

अतिरूपा भाग खड़ी हुई! और अरुक्षा शांत! एकदम शांत! अब कोई बदबू नहीं थी! कोई मांस नहीं था! "अरक्षा?" मैंने आवाज़ दी, वो चुप रही! "अरक्षा?" मैंने फिर से आवाज़ दी, फिर चुप! मैं आगे बढ़ा, देखा तो, उसकी योनि से रक्त बहने लगा था, मैंने फिर से भौमांगी मन्त्र जपा, 


   
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और फेंक मारी भस्म! देह में वक्र पड़ा उसकी! 

और रक्त प्रवाह बंद हुआ। अब शांत हुई वो, लेकिन अभी भी बदन में वक्र पड़े जा रहे थे, बदन सक्रिय था उसका अभी भी, ये सब आमद के कारण था, 

और तभी! तभी पलोमा उठी, ऐसे देखा अपने आसपास जैसे, किसी नयी जगह आई हो! 

आँखें चौड़ी किये हुए, अपनी बहन को देखे, अचरज से! मुझे देखे अचरज से! 

हैरान थी वो! "कौन?" मैंने पूछा, 

झटके से सर उठाया, मुझे घूरा, जैसे कोई बिल्ली देखा करती है, वैसे! "कौन है तू?" मैंने पूछा, थूका उसने! अपने सामने थूका! "नहीं बोलेगी?" मैंने कहा, फिर से थूका! 

बहुत देर तक मैं, यही सवाल करता रहा! लेकिन कोई जवाब नहीं दिया उसने! मैंने तभी तमंग-मंत्र का जाप किया, भस्म हाथ में ले,अभिमंत्रित की, 

और फैंक मारी उसके मुंह पर! वो चिल्लाई! कराहने लगी! मर गयी! मर गयी! जल गयी! जल गयी! यही चिल्लाते रही! फूंक मार मार कर, अपने शरीर को टेढ़ा-मेढ़ा करती रही। मैंने फिर से अभिमंत्रित भस्म मारी फेंक कर! 

वो फिर चिल्लाई! रोने लगी! जाने दे! जाने दे! यही बोलने लगी! ये कोई भौमाणी ही थी, और कुछ नहीं! मैंने भौमांगी मंत्र जाप कर, जैसे ही भस्म फेंकी, वो भाग ली! पलोमा अब शांत हो गयी थी! सर नीचे लटकाये बैठे रही! "पलोमा?" मैंने कहा, "हँ" वो बोली, 

चलो! होश में थी! जानती थी अपना नाम! अब मैं उठा, पलोमा को उठाया, और दूसरी जगह बिठा दिया, वो आराम से बैठ गयी, अब मैं आया अरुक्षा के पास, वो अब भी कराह रही थी। मुंह से आवाजें आ रही थीं उसके, "अरक्षा? अरुक्षा?" मैंने आवाजें दी उसे, लेकिन कोई प्रभाव नहीं! मैंने अब फिर से प्रत्यक्ष-मंत्र पढ़ा, 

और फेंका उसके ऊपर! शरीर उछला उसका! हवा में कोई आधा फ़ीट! 

और धम्म से नीचे! और एकदम झटके से खड़ी हई! अपने पाँव को उठाया, दोनों पांवों को, 

और अपने नितम्बों को उछालते उछालते बढ़ी मेरी तरफ! गुर्राते हए! उसका इरादाभांप लिया था मैंने, शरीर पर उसके अब फफोले से पड़ने लगे थे, पानी भरा नज़र आ रहा था उनमे, वो मुझ पर हमला करना चाहती थी, मैंने खड़ा हुआ, त्रिशूल उठाया, 

अभिमंत्रित किया, और लगा दिया उस आती हुई अरुक्षा को! खंक की सी आवाज़ हुई! और वो जाकर पीछे गिरी! अब वो गुस्से में आई! अपना नाम बोला, अपना बखान किया! अपनी ताकत के बारे बताया, नाम था लंगडा! प्रधान भौमाणी! 

तो अब वो आई थी! मैंने अब एक विशेष मंत्र पढ़ा! ऐसा मंत्र कि ये रंगडा ऐसी मार खायेगी, ऐसी मार खायेगी कि, 

कभी किसी को तंग नहीं करेगी आइन्दा! वो बहुत शोर मचा रही थी! बहुत ज़्यादा, मैंने मंत्र जपा और त्रिशूल अभिमंत्रित किया! दौड़ पड़ा उसकी तरफ और छुआ दिया उसकी टांगों से! झटके। बिजली जैसे झटके खाये उसने। खूब तड़पी! 


   
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और भाग खड़ी हुई। अब अरुक्षा शांत हो चली थी! भौमाणी आ गयीं थीं, अंत में ये रूगडा भी आ गयी थी! अब वक़्त था उस कंड-कपालिनी महामसानी के आने का! अब क्रिया अपने अंतिम चरण में थी! अब मैं भी तैयार था! नेत्र बंद किये हुए, एक भीषण विद्या का जाप कर रहा था! कि अचानक, पलोमा और अरूक्षा चिल्लाई बुरी तरह से, गला फाड़ कर! ढप्प ढप्प! ढप्प! ढप्प! मृत-बालक और शिशु गिरने लगे वहाँ! कोई काला पड़ा था, कोई नीला, किसी का हाथ नहीं था, किसी का पाँव, किसी का सर नहीं था, किसी की छाती खुली थी, 

सड़ांध फ़ैल गयी थी! 

और फिर एक प्रबल अट्टहास हुआ! महा-अट्टहास! किसी रूक्ष और बलवती स्त्री का अट्टहास 

और अरक्षा! अपने सारे बंधन तोड़, आ गयी थी मेरे सामने कंड आ चुकी थी! अरुक्षा खड़ी थी, योनि से रक्त-साव हो रहा था, 

लाल लाल और पीला! पीला मेद! साव को वो चाटे जा रही थी, 

और फिर, झपट पड़ी वो उन मृत शिशुओं पर! चीर फाड़ मचा दी उसने वहां! हर तरफ, बदबू ही बदबू! मांस, मांस के लोथड़े! खूब भक्षण किया उसने! और फिर अपने घुटनों पर बैठ गयी! अपना मुंह पोंछने लगी अपने गंदे हाथों से, मज्जा लगी थी हाथों पर शवों की, कीड़े रेंग रहे थे उसके गालों पर, बालों पर, छाती पर, बहुत बुरा दृश्य था वो! "कंड?" मैंने पुकारा! उसने अट्टहास किया! 

और उठ कर, नृत्य करने लगी! भयानक नृत्य! मसानी नृत्य। मैंने तभी भौमांगी मंत्र पढ़ा, 

और भस्म ली, अभिमंत्रित की, और फेंक मारी उसके ऊपर! अट्टहास! कुछ न हुआ। कुछ भी नहीं! अब स्थिति विकट थी बहुत! मैं भाग कर अपने आसन पर बैठ गया! "तेरा भक्षण होगा आज!" वो बोली, 

और नृत्य करने लगी! मैं अलख पर गया, ईंधन झोंका! 

और एक महा मंत्र पढ़ा! त्रिशूल को अलख के ऊपर सेंका, 

और दौड़ पड़ा उस कंड के लिए, कंड जो अब अरुक्षा में सवार थी! देह फूल गयी थी उसकी, शरीर अब, पूरा काला पड़ चुका था। वे सब निशान अब, एक हो चुके थे! मैं खड़ा ही था की, मेरे ऊपर, पीछे से पलोमा झपट पड़ी! मैं नीचे गिरा, त्रिशूल छूट गया हाथ से, किसी तरह से त्रिशूल थामा! 

और छुआ दिया पलोमा को! पलोमा उछलती चली गयी बहुत दूर तक! 

अब मैं उठा, अरूक्षा मेरे ऊपर कूदने ही वाली थी, मैं हटा, 

और एक लात जमाई उसे, कोई असर नहीं हुआ उसको! मैंने त्रिशूल को आगे किया, 

और उसकी कमर से छुआ दिया, पछाड़ खायी उसने, 

और खाते ही, फिर से खड़ी हो गयी! मैं अब तेज तेज, महा-रुद्र-विद्या का जाप करता रहा! वो अट्टहास पर अट्ठास लगाती रही! वो और मैं, दो पहलवानों कि तरह एक दूसरे को, तोल रहे थे। उसके पास नैसर्गिक शक्ति थी! 


   
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और मेरे पास अपने दादा श्री का आशीर्वाद! मैं भागा उसकी तरफ! महा-रुद्र का जाप करते हुए, 

वो भागी मेरी तरफ! मैंने खींच कर त्रिशूल घुमाया, त्रिशूल उसकी गर्दन में लगा, 

वो धड़ाम से नीचे गिरी! मैं भागा उसकी तरफ, जाप करते हुए, 

और इस से पहले वो उठे, मैं सवार हो गया उसकी छाती पर! हाथ पकड़ लिए, 

और जाप करते हुए, थूकता रहा उस पर! मैं लगातार थूक रहा था, वो बार बार तड़प जाती थी, लेकिन बहुत हठी थी, मान ही नहीं रही थी! तभी गुस्सा हुई वो, भयानक रूप से चिल्लाई, अपने एक हाथ से मेरा कंधा पकड़ा, 

और फेंक दिया बाएं मुझे! और खुद खड़ी हो गयी! मैं उठता उस से पहले ही, वो सवार हुई मुझ पर! ठीक वैसे ही जैसे मैं हुआ था! अब अट्टहास किया उसने! खूब ज़ोर से! 

और मुझे मेरे हाथ से पकड़ कर, उठाने लगी, मैंने बहुत ज़ोर लगाया, लेकिन नहीं मानी वो! मुझे उठा ही लिया, कस दिया था मुझे बहुत मज़बूती से, 

और अब प्रणय-मुद्रा में आ गयी, मुझे, मेरे हाथ छोड़, अपने वक्ष से लगा लिया, हँसे जाए, और क्रीड़ा तेज किये जाए, 

मैं खूब कोशिश करूं छूटने की, लेकिन सब बेकार, मैंने तबी अपना त्रिशूल उठाया, 

उसकी आँखें बंद र्थी, मैंने तभी अभिमंत्रित किया अपना त्रिशूल, हंसा! 

उसने आँखें खोलीं, क्रीड़ा रोकी, 

और इतने में ही अपना त्रिशूल मारा खींच कर उसके, वो उठ कर जा पड़ी पीछे! अब मैं भागा उसकी तरफा, उसके उठने से पहले ही, अपना त्रिशूल उसकी कमर में टिका दिया! उसने झटके खाये, खब कोशिश की उसने, लेकिन मैंने अपना पाँव उसकी कमर के बीच रखा था! वो हंसती जाए! में त्रिशुल गड़ाता जाऊं। तभी उसने ज़ोर लगाया, त्रिशूल के फाल चीरते चले गए उसे, 

और मैं, पीछे जा गिरा! वो भागी मेरी तरफ! मैं हटा, वो कूदी मेरी ओर, 

और मेरे ऊपर सीधा, फिर से हंसी! 

और चढ़ गयी मेरे ऊपर! मुझे देखा, चुप हो कर, 

और मुंह खोला, भयानक काली जिव्हा उसकी! 

और अगले ही पल, फिर से उलटी कर दी मुझ पर! मैंने मुंह बंद कर लिया था अपना, 

लेकिन वो माल-मलीदा मेरी गर्दन से होता हुआ नीचे गिर रहा था! वि हँसे जा रही थी, 

और मैं ज़ोर लगाए जा रहा था छूटने को! तभी ऐसा कोण बना कि मेरी लात ठीक उसके मुंह के सामने आई, 

मैंने कस के लात दी उसको! अब गिरी वो पीछे! अब आया मुझे गुस्सा, मैं अलख पर बैठा, वो हारूड़ा-माल धारण किया और एक महा- 

विद्या का संधान किया! ये संधान जान, वो तड़प उठी! कानों पर हाथ रख कर, रोये जाए! पाँव पटके, सर धुनें, बाल खींचे, सर ज़मीन में पटके! विद्या जागृत हुई। 

और मैं बढ़ा उसकी तरफ, मेरे हाथ में अब वो रक्त-पात्र था! मैं आगे बढ़ा, 


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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और वो पीछे हटी! लेटे लेटे ही! मैंने श्री अघोर-पुरुष का नाम लिया, और वो पात्र फेंक मारा उसके ऊपर! अब वो तड़पी! ऐसे हिली जैसे, कम्पन्न की शिकार हुई हो, अजीब अजीब से मुंह बनाये, 

और अब उसका रंग, बदलने लगा, काला रंग हटने लगा, अपने दोनों हाथ उठाकर, मंत्र से पढ़ती रही! 

और फिर, उसका वो काला रंग सब गायब हो गया! वो धब्बे भी! मैं भाग कर पलों के पास गया! उसके भी धब्बे खतम हो गए थे! कंड-कपालिनी उस महा-विद्या से नहीं टकराई थी! हट गयी थी पीछे! 

और फिर, दो चार लम्बी सी साँसें लेकर, 

लेट गयी वहीं! मैं तक आगे था, वहीं बैठ गया, कोई दस मिनट के बाद, मैं उसके पास गया, "कंड?" मैंने पूछा, वो उठ खड़ी हुई। लेकिन शांत थी! मुस्कुराई! "बारह! बारह मांग रही हूँ! दे दो! छोड़ देती हूँ इनको! जाओ!" वो बोली, बारह! अर्थात बारह मेढ़े! ठीक है। मैंने हाँ कर ली, वो उठी, मुझे देखा, 

और मेरे सर पर हाथ रखा! फिर जाकर पलोमा को उठाया, पलोमा अचेत थी! 

और इसी तरह, वो अरुक्षा भी भड़भड़ा कर गिर गयी! चली गयी कांड-कपालिनी! अब मैं बैठ गया वहीं जोड़ जोड़ दर्द कर रहा था मेरा! पास रखी मदिरा कपाल कटोरे में उड़ेली, 

और तीन कटोरे पी गया! अब नमन किया! सभी को! अपने गुरु को! श्री महाऔघड़ को! उस श्मशान को! जिसने दो जीवन बचाये थे! तभी उनको होश आ गया, अपने आपको नग्न देखा तो ढकने के लिए ढूंढने लगी वस्त्र, मैंने वहाँ रखे वस्त्र दे दिए उन्हें, 

मुझे विस्मय से देखा उन्होंने, डर से, भय से, मैंने उनको वहीं ठहरने को कहा, वस्त्र पहने, और आ गया बाहर, सीधा गया बाबा अंबर नाथ के पास, उनको सब बताया, वे सभी भाग लिए उनके पास! मैं स्नान करने गया था फिर! मित्रगण! दोनों ही लड़कियां अब ठीक हो चुकी थीं! स्वास्थ्य और शरीर पर लगी चोटें सही होने लगी थीं! जब मेरे बारे में पता चला उन्हें, वो आँखों में आंसू के सिवाय कुछ नहीं था उनके पास! यही बहुत, बहुत था! उसी माह की अमावस को, कंड-कपालिनी को बारह मेढ़े भेंट दिए गए। अब सब ठीक था! बाबा अंबरनाथ बहुत खुश थे। बहुत खुश! आशीर्वाद देते देते थकते ही नहीं थे! मित्रगण, मैंने बाबा अंबर नाथ को सलाह दी, की गिरि से ब्याह कर दिया जाए अरुक्षा का, तो, इस से भला कुछ न होगा! वे सहर्ष मान गए। सब समाप्त हो गया! 

और ये औघड़, अपना झोला लटकाये वापिस आ गया काशी! काशी में, गिरि ने तीन दिन तलक दावत दी, वो खुश था, बहुत खुश! दो माह बाद ब्याह हो गया, मुझे जाना पड़ा, ब्याह बढ़िया हुआ, आज दोनों ही खुश हैं! अब पलोमा के ब्याह का इंतज़ार है! मैं जो कर सकता था, किया, आगे भी यथासम्भव करूँगा! ताकि इस जीवन की कालिख, कुछ तो कम हो! साधुवाद! 

 


   
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