रास्ता बहुत खराब था! बस धीरे धीरे जा रही थी, एक तो बैठने की जगह भी छोटी थी, टांगें न आने से,
और समस्या हो रही थी, ले देके यही बस मिली थी, नहीं तो सारी रात वहीं गुजारनी पड़ती, एक तो जगह कम, ऊपर से बाहर बारिश थी, खिड़की ऐसी थी कि पूरी लगाओ, तो साथ वाले पर बारिश पड़ती, न लगाओ तो खुद भौगो! मैंने वैसे पर्दा लगा रखा था, लेकिन पानी चूकर आ ही जाता था, घुटनों और जांघ पर पड़ता, तो खारिश करता था, शर्मा जी ने मुझे एक पन्नी दे दी थी, मैंने पन्नी लगा तो ली थी, लेकिन पानी कहाँ मानने वाला था! उसने तो खिल्ली उड़ानी थी हमारी,
और उड़ाए जा रहा था! मौसम ठंडा तो नहीं था, लेकिन उस बारिश की वजह से आये बदलाव में, जब हवा चलती थी तो, फुरफुरी छूट जाती थी। समय अभी साढ़े ग्यारह हुए थे, खाना हम खा ही चुके थे, हम वापिस आ रहे थे गोरखपुर, कहीं दूर से,
आना भी ज़रूरी था, इसीलिए इस बस का सहारा लेना पड़ा था!
आखिर में बर्दाश्त नहीं हुआ, मैंने और दूसरी सीट की मांग कर दी, आखिर में, माथापच्ची के बाद, एक सीट मिल गयी पीछे, हालांकि वहां झटके और धचकियां बहुत लगतीं, लेकिन कम से कम उस आततायी पानी से तो बचाव हुआ! वोजीत गया और मैं हार गया!
आखिर में, पीछे बैठे हुए, मैंने तौलिया निकाला, सर के पीछे रखा और नींद लेने की कोशिश की, काफी मान-मुनव्वत के बाद नींद आई,
और जब आँख खुली, तो बाहर बारिश थी बहुत तेज! शर्मा जी आगे बैठे हुए थे, सर पीछे किये हुए, सो रहे थे, यहां गर्दन में अल्बेटा पड़ने लगा था, साथ में एक साहब बैठे थे, बार बार झुक जाते मुझ पर, मैं बार बार उन्हें टोकता! एक तो जगह कम, ऊपर से ऐसा आतंकी माहौल। आखिर जी, कोई सुबह छह बजे हम गोरखपुर पहुंचे,
और जब उतरे, तो देह का ऐसा कोई अंग नहीं था, जो अब कोस न रहा हो! मेरी गरदन तो अकड़ ही चली थी, हमने सामान उठाया, और आये बाहर,
वहां से सवारी पकड़ी और अपने एक जानकार के पास, फ़ोन करके चल दिए, वहाँ पहुंचे, अब आराम किया, नहाना धोना बाद में ही होता, पहले देह सीधी करनी थी! आराम किया,
और जब आँख खुली तो, बारह से ऊपर का समय था!
अब नहाये धोये,
और चाय-नाश्ता किया! उसके एक घंटे बाद भोजन किया,
और फिर से आराम! जीवेश को फ़ोन लगाया, वो काशी गया हुआ था, फिर उसके बाद, मैं अपने दो चार जानकारों से मिला,
और फिर अगले दिन की हमारी गाड़ी थी वहाँ से, तो उस रात मेरे जानकार ने दावत दी, दावत उड़ाई, और सो गए! अगले दिन उनसे विदा ले, हम गाड़ी पकड़, दिल्ली वापिस आ गए!
यहां आये, तो अगले ही दिन बाबा अंबरनाथ का आना हुआ मेरे पास, बड़े ही चिंतित थे, मैंने पूछा तो जो उन्होंने बताया, वो बड़ा ही अजीब सा था! उनको दो पुत्रियां हैं, अरुक्षा और पलोमा, दोनों ही गत छह माह से, मानसिक रूप से विक्षिप्त हो गयी थीं, कारण समझ ही नहीं आ रहा था, प्रथमदृष्टया कोई सिद्धि बिगड़ी थी, ऐसा प्रतीत होता था, न तो वे बात करती थीं, न ही कुछ ऐसा करती थीं कि कुछ पता चले, इलाज चल ही रहा था उनका, एक बाबा कलूप नाथ उनका इलाज कर रहे थे, दोनों ही लड़कियों का एक साथ, विक्षिप्त हो जाना,
ये अजीब सा कारण था! इसका कोई उत्तर प्राप्त नहीं हो सकता था, समस्या थी तो बहुत अजीब ही,
लेकिन कोई न कोई कारण तो रहा ही होगा! लेकिन क्या? ये नहीं समझ आ रहा था,
और यही समझ आ जाता, तो गाँठ खुल जाती, वे ठीक हो जाती, रह वे काशी के पास एक स्थान में रही थीं, शांत और एकांत जगह में, एक भाई था, लेकिन वो छोटा था, चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता था, बाबा अंबर नाथ को हिम्मत बंधाई मैंने,
और क्या करता, मात्र यही!
खैर, वो उसी दिन ही चले गए वापिस, बात आई गयी हो गयी, कोई तीन महीने बीत गए,
और मेरा एक दिन जाना हुआ काशी, मैं वहां कोई आठ दिन ठहरा, एक दिन मुझे बाबा अंबर नाथ का ख़याल आया, मैंने फ़ोन किया उन्हें,
वे कोई साठ किलोमीटर दूर, पूर्व में थे, उन लड़कियों की हालत में कोई फ़र्क नहीं आया था, जस की तस ही थीं, बाबा कलूप नाथ ने भी इलाज छोड़ दिया था, अब तो वे दोनों लड़कियां, अपने भाग्य भरोसे ही थीं, अब मेरे मन में, इच्छा बलवती हुई कि क्यों न एक बार, देख ही लिया जाए उन्हें? कोई हर्जा तो है ही नहीं? बस, उसी दिन सुबह हम निकल लिए, कोई डेढ़ घंटे में पहुंचे वहाँ, बाबा अंबरनाथ मिले, मायूस थे,
खैर, बातें हुईं, हाल-चाल जाना, अब मैंने उनसे वो लड़कियां दिखाने की बात कही, हमने चाय खत्म की,
और चल पड़े उन्हें देखने, एक कोठरी बनी थी, ज़्यादा बड़ी नहीं थी, छोटी ही थी, वे वहाँ तक गए, आवाज़ दी, एक स्त्री बाहर आई, उसके हाथ में हाथ वाला पंखा था,
ये कोई सहायिका थी, नाम था गौमा, उस से बातें हुई,
और हम फिर अंदर चले! कक्ष में अँधेरा था काफी, एक रौशनदान से दिन की रौशनी आ रही थी, बस वही मात्र उजाले का सहारा था, बत्ती थी नहीं, आवाज़ दी बाबा ने उन दोनों को, बिस्तर में हरकत हुई,
कोई उठ कर खड़ा हुआ, ये पुलोमा थी, वही खड़ी हुई थी,
छोटी बहन थी वो, अरुक्षा अभी लेटी ही हुई थी, हाथ पकड़ा बाबा ने उसका,
और लाये बाहर तक, देख कर तो नहीं लगता था कि वो, विक्षिप्त है! एकदम भलीचंगी लगी! मैंने देखा उसको,
चेहरा देखा, काठी देखी, सब ठीक,
कोई दोष नहीं, मैंने नाम लिया उसका, कोई जवाब नहीं, वो बैठ गयी, वहीं फर्श पर, मेरी नज़र उसकी गर्दन पर गयी, पीछे की तरफ, एक काला सा निशान था वहाँ, मैंने बाबा से पूछा, तो उन्होंने यही कहा कि, कभी देखा ही नहीं, ये निशान न छोटा था और न ही बड़ा, लेकिन था बीचों बीच, गोल सा, अब मैंने अरक्षा को देखने को कहा, हम वहाँ अंदर गए, मोबाइल की टोर्च जलायी, वो औंधी लेटी थी, मैंने गर्दन देखी उसकी, उसके भी वैसा ही निशान था! ठीक वैसा ही! अब दिमाग उलझा! ऐसे कैसे हो सकता है? ये दोनों जुड़वां भी नहीं?
और जन्म से दोनों के ही निशान हों, ऐसा कम ही सम्भव था! तभी जाग गयी अरुक्षा, हमे देखा, एकटक देखती रही, एक बात और, उस मोबाइल की टोर्च में उसकी पुतलियाँ, न फैली, न ही सिकुडीं! ये थी अजीब बात! बस यही बात घर कर गयी मेरे मन में! ये लड़कियां किसी के पाश में बंधी थीं!
लेकिन किस के? अब ये कौन बताये? बाबा अंबर से ही पूछताछ करनी थी, एक बात और, इन लड़कियों का शरीर कमज़ोर भी न था, देह पुष्ट थीं उन दोनों की, जैसे रोगियों की हआ करती है, ऐसे तो कदापि नहीं! अब हम चले वहां से, आये एक जगह, बैठे, भोजन की तैयारी थी वहाँ, भोजन किया
और अब बाबा से पूछताछ की, कोई ख़ास बात न पता चली, न वे कहीं आयीं, न गयीं, न किसी बाहरी से कोई मेल-जोल, हाँ, बस एक बार स्नान हेतु गंगा जी अवश्य ही गयीं थीं! स्नान करने! यहीं से कोई बला लगी थी पीछे! लेकिन बला कौन सी थी, ये पता चलाना मुश्किल काम था! बाबा से अन्य बातें भी हुई, अब मैंने एक जांच-क्रिया करने के लिए अनुमति मांगी उनकी, एक सहायिका और कोई भी एक लड़की बैठनी थी संग, प्रयास तो यही था कि, शीघ्रता से ही पता चल जाए तो बढ़िया रहे! वे मान गए, उनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं था, मैं उसी रात वो क्रिया करना चाहता था, स्थान था ही वहाँ, सो बात बन गयी! ठीक रात्रि ग्यारह बजे, वो सहायिका, पलोमा को संग ले, आ गयी वहीं, मैंने बिठाया उन दोनों को अपने संग,
और किया पूजन शुरू, टीका आदि में कोई दिक्कत नहीं हुई!
क्रिया आगे बढ़ी!
और जब मैंने देख लड़ाई उसकी हालत जानने के लिए, वो तो खड़ी हो गयी! घूर के देखने लगी!
और मुंह से अनाप-शनाप बकने लगी! वो आगे आई,
और नीचे बैठते ही, मेरे केश पकड़ लिए! मैंने भी ज़ोर लगाया! अब हो चली हाथापाई! वो सहायिका उठी और पकड़ा उसे, एक हाथ खींच के मारा उसको उसने! वो बेचारी नीचे गिर गयी! भय खा गयी! अब वो बढ़ी मेरी तरफ! मैं खड़ा हुआ, उसने हाथ उठाया, मैंने हाथ पकड़ा और दिया धक्का दिया उसको, नीचे गिरी वो! मुझे घूर के देखा,
और फिर बैठे बैठे ही, सारे कपड़े फाड़ने लगी अपने! अब जो मैंने देखा, वो बहुत अजीब था! बहुत अजीब! उसके सारे शरीर पर, वो काले काले धब्बे पड़े हए थे!
पूरे शरीर पर! ऐसा तो मैंने कभी नहीं देखा था! अब उसको किसी प्रकार से शांत करना था! मैं आगे बढ़ा! वो खड़ी हुई, लिपट गयी मुझे, मैं नीचे गिरा,
मेरे ऊपर चढ़ बैठी! प्रणय-मुद्रा में आ गयी! अपने बाल लहराने लगी! घूमने लगी! ज़ोर ज़ोर से! मैंने किसी तरह से हटने को ज़ोर लगाया, मैं भीग गया था उसके योनि-साव से, मैंने कोशिश की, और उसने मेरे केश फिर से पकड़ लिए! अब मैंने चांटे मारने शुरू किये उसे, एक आद घूसे भी! जब नहीं हटी तो मैंने अपना वो चिमटा, उसकी गरदन में फंसा, पीछे की ओर धकेल दिया! वो गिरी!
और मैं उठा! वो फिर से झपटी! मैंने खींच के एक चांटा दिया! खून बह निकला! वो सहायिका, मारे इर के भाग गयी थी! और तभी कुछ लोग आते दिखे मुझे, बाबा अंबर भी। तब जाकर वो पकड़ में आई! वे ले जाने लगे उसको वहां से,
और वो झपट कर मुझ पर पड़ती! मामला बेहद ही संगीन था! एक बात साफ़ थी, कोई छिपा हुआ 'खिलाड़ी नहीं था यहां यहां कोई खेल खेल रहा था, वो जो अभी तक पकड़ में नहीं आया था! वो प्रणय-मुद्रा में आई थी, इसका क्या अर्थ था? यही गुत्थी समझानी थी अब,
और वो काले निशान?
वो सब क्या थे? इस लड़की ने तो मुझे ही छका दिया था, दोनों होती तो मार ही डालती मुझे! वो रात मैंने इसी उहापोह में बितायी, बाबा अंबर नाथ को बता दिया था कि, गंभीर ही मसला था इसमें! लेकिन अभी तक, न कोई गंध, न कोई चिन्ह, स्पष्ट हुआ था! दुबारा जांच करना, मेरे लिए हिचकी लगने जैसा था!
खैर, सुबह हुई, अपना नहाये धोये, फिर चाय आदि पी,
और तदोपरांत भोजन भी कर लिया था, उस रोज, बाबा कलूपनाथ भी आ गए थे, उनसे भी बात हुई, उन्होंने कोई ठोस जानकारी नहीं दी,
या, दे नहीं सके, क्योंकि, मामला उनकी भी समझ से परे ही था! मैंने उनको रात वाली घटना भी बतायी, वे चौंके, उन्होंने अब बताया कि, ये दोनों लड़कियां ही, प्रणय-निवेदन किया करती थीं!
लोक-लाज के डर से उन्होंने इलाज करना छोड़ दिया था उनका! तो ये लड़कियां, प्रणय-निवेदन करती थीं, बड़ी ही अजीब बात थी! ऐसा तो होता नहीं, हाँ, किसी शक्ति के आवेश में हों,
तो भले ही सम्भव है, अन्यथा ऐसा नहीं होता, कोई खिलाड़ी भी होता, तो ऐसा हरगिज़ नहीं करता! वो अपनी प्रेयसी को, क्यों हाथ लगाने देता? सबकुछ गड्ड-मड्ड था! कुछ हल नहीं निकल रहा था! तभी मेरे दिमाग में एक ख़याल आया, क्यों न इनको स्नान कराने ले जाया जाए दुबारा, देखें, क्या प्रतिक्रिया होती है इनकी? ये राय सभी ने मानी,
और उसी दिन हम बाबा कलूप नाथ के संग, चल दिए उन दोनों लड़कियों को लेकर, गंगा-तट पर,स्नान के लिए! गाड़ी बाबा अंबर नाथ ने कर ही ली थी, हम पहुँच गए एक घाट पर, वे
लड़कियां वहाँ पहुँच कर, सजग हो उठीं! मुस्कुरा पड़ी! हाव-भाव स्पष्ट रूप से समझ आने लगे, अर्थात, वे बहुत खुश हुई थीं यहां आ कर! वे तो कूद पड़ीं पानी में! हमारा प्रवेश नहीं था वहां, हाँ, जो सहायिका थी, उनके संग, उसने ही बताना था हमे सब! कोई डेढ़ घंटा हो गया! अब उनको वापिस चलने के लिए कहा गया,
भाग छूटीं वहाँ से! बड़ी मुश्किल से घेरा उन्हें! बाबा अंबर नाथ ने समझाया उनको! तब जाकर मानी वो! अब एक बात साफ़ हो चली थी! जो कोई भी बला थे वहां वो, यहीं से लगी थी! बाबा कलप नाथ और मैं,
अपने अपने ढंग से जांच में लगे थे! हम वापिस चले अब!
अब वे दोनों!
उदास! परेशान! रोने लगी। तड़पने लगी।
और कुछ बड़बड़ाने लगी! ये कोई अजीब सी भाषा था! डामरी नहीं थी, सुटौला भी नहीं थी, एक अजीब सी भाषा!
खैर, हम पहुँच गए वहां! बाबा कलूप तो किसी भी निष्कर्ष पर न पहुंचे थे, मुझे कुछ सूत्र हाथ लगा था! उसी की जांच करनी थी! रात हुई,
और मैं बाबा अंबरनाथ के संग उनके कमरे में गया! दोनों ही लेटी हुई थीं! मुझे देख,
आँखें खोल लीं! "पलोमा?" मैंने कहा, "हाँ!" वो बोली, आनंदित सी! "उठो' मैंने कहा, वो उठ गयी! "आओ!" मैंने कहा, वो आ गयी! मैंने बाबा अंबरनाथ का हाथ दबाया, और उस पलोमा को बाहर ले आया! वो आ गयी! मेरी कमर में हाथ डाले! बाहर अंधेरा था!
घुप्प अँधेरा! "पलोमा!" मैंने कहा, वो रुक गयी, अपने आँखों से घूरा मुझे, चांदनी ही बिखरी थी, उसकी आँखों में चाँद की रौशनी जन परावर्तित होती,
तो एक अंजाना सा भय प्रकट होता! मैं बैठ गया एक चारपाई पर, "आओ बैठी" मैंने कहा, वो बैठ गयी, मुझे घूरते हुए! "कैसी हो?" मैंने बात आगे बढ़ायी, उसने सांस छोड़ी, एक बात और,
जो खटकी मुझे, वो पलक नहीं मार रही थी! एकटक, मुझे ही घूर रही थी!
आँखों में आँखें गाढ़े! लग रहा था कि, अभी झपट पड़ेगी! गला पकड़ लेगी। कोई था भी नहीं! जो मदद करता! वो मुझे ऐसे घूर रही थी कि जैसे कोई, शिकारीजानवर घात लगाकर अपने किसी, शिकार को देखता है,
आशंका तो मेरे मन में थी ही, इसीलिए मैं चौकस हो चला था! मैं स्त्रियों पर, कभी भी कोई, ऐसा-वैसा मंत्र-प्रहार नहीं किया करता, ये नियम के विरुद्ध है, स्त्री को तंत्र में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है, इसी कारण से मन्त्र-प्रहार नहीं हुआ करता,
और जो करता है, उसकी वो विद्या आखिरी हआ करती है! वो उठी, आकाश को देखा, फिर चाँद को,
और एक झटके से मुझे, दांत पीसते हुए, हाथ कसमसाते हुए,
अब मुझे कुछ आशंका हुई। मैं भी खड़ा हो गया, "वो!" उसने कहा, हाथ का इशारा करके, जहां इशारा किया था, वो एक पेड़ था, पेड़ बरगद का था, मैंने देखा, "क्या है?" मैंने कहा, "मैं" वो बोली, बड़ी ही डरावनी बात थी!
मैं?
इसका क्या मतलब? "कहाँ?" मैंने पूछा, "वो" उसने कहा, पेड़ की तरफ इशारा करके, मैंने फिर से देखा, मुझे कुछ नहीं दिखा, "मैं, वो" फिर बोली, "नहीं, तुम तो यही हो?" मैंने कहा, "नहीं, मैं, वो, वहाँ!" वो बोली, अब मुस्कुराते हुए, "तुम तो यही हो?" मैंने कहा, अब उसको गुस्सा आ गया! मुझे पकड़ा मेरे गिरेबान से,
और नीचे बिठाया, और सामने दिखाया,
सामने!
ओह! इरावनी बात थी! उस पेड़ के पास, कोई लड़की थी! अवश्य ही थी! उलटी लटकी हुई! मेरी तो आँखें फट गयीं! वो, पलोमा, उसे ही देखे जा रही थी! "मैं! वो!" वो बोली, वो पेड़ कोई, तीस फ़ीट दूर था, अँधेरा था, दृश्य स्पष्ट नहीं था, मैंने आगे जाने का निश्चय किया, और आगे चलने को जैसे ही बढ़ा, पलोमा ने रोक लिया, ऊँगली के इशारे से मना किया उसने! "रुको! यहीं रुको!" मैंने कहा,
और मैं भाग लिया! उस पेड़ के पास पहुंचा, मेरे होश उड़ गए! ये पलोमा थी! उलटी लटकी हुई! नग्न! मुंह खुला था, गले में काले रंग का रुमाल सा बंधा था, केश भूमि पर लटके थे! "पलोमा?" मैंने आवाज़ दी उसे, उसने गर्दन हिलायी अपनी! कोई रस्सी नहीं थी, जिस से बाँधा गया हो उसे, वो बस, हवा में लटकी थी! "पलोमा?" मैंने फिर से आवाज़ दी, अभी मैं उस से बात कर ही रहा था कि,
असली पलों भाग आई वहाँ, उस पेड़ से लटकी लड़की को, अपनी बाजुओं में भर लिया! वो लड़की, रोने लगी अब! अब वो लड़की, जो उलटी लटकी थी, सीधी हो गयी! जैसे कोई चक्री घूमी हो! ये क्या था? कोई प्रेत लीला नहीं थी ये! मेरे सामने दो दो पलोमा खड़ी थीं! ये कैसे सम्भव था? फिर वो नग्न लड़की आई मेरे पास, सांसरहित थी वो! ठंडी! पत्थर जैसी, देह अकड़ी हुई थी, जैसे किसी मुर्दे की अकड़ जाती है!
आँखें अंदर धंस रही थीं! जैसे कोई मुर्दा! "मैं! मैं।" हाथ मारते हुए बोली पलोमा उसे। अब मेरा दिमाग शून्य हुआ! ये सब क्या है? ये कैसा दृश्य है? कभी मेरा अवचेतन, खेल तो नहीं खेल रहा मेरे साथ? कोई स्वपन तो नहीं देख रहा मैं? वो लड़की, मुझसे टकराई, एक कराह भरी,
और नीचे गिरने लगी, मैंने पकड़ा उसे, उसका हाथ मेरे हाथ में रह गया,
और वो झूल गयी नीचे! पलोमा ने गश खाया,
और नीचे गिरी, मैंने उस लड़की को छोड़ा, पलोमा की ओर भागा! उसे उठाया,
और वो लड़की गायब! जब तक मैंने निगाह भरी, वो गायब, मेरे हाथ,
और वस्त्र, रक्त से सन गए थे! मैंने पलोमा को उठाया,
और ले चला वापिस, बीच रास्ते में ही उसकी आँख खुल गयी! उसने ज़बरदस्ती की, और नीचे उतर गयी! नीचे बैठ गयी वो! कभी मुझे देखती, कभी उस पेड़ को! वो खड़ी हुई,
और भाग पड़ी पेड़ की तरफ मैं उसके पीछे भागा! और जैसे ही भागा, मेरे बाल किसी ने पकड़े! मुझे धक्का दिया!
ये वही मुर्दा लड़की थी! अब अट्टहास भर रही थी! मेरे ऊपर कूदी,
और लिपटने लगी! मैंने धक्का दिया उसे, उसने मेरा हाथ पकड़ रखा था, नहीं छोड़ा हाथ उसने,
अब मज़बूरी थी मेरी, मैंने लहुषा-मंत्र का जाप किया!
और थूक दिया उस पर! वो चिल्लाई! जहां थूक पड़ा था, वो जगह दहक उठी! और अब गायब हुई! मैं भागा पलों की तरफ!
आवाज़ दी, लेकिन वो वहां नहीं थी! मैंने हर तरफ देखा, कहीं नहीं!
और जब ऊपर नज़र डाली, तो वो गरदन नीचे किये अपनी, पेड़ की एक शाख से लटकी थी! मुझे ही घूरते हुए! वो पेड़ पर लटकी थी! ऐसा लगता था कि जैसे, उसको बाँध दिया गया हो उस पेड़ पर! "पलोमा?" मैंने आवाज़ दी, वो झुंझलाई। "पलोमा?" मैंने फिर से पुकारा, "चला जा! चला जा!" वो बोली, इस बार आवाज़ बदली हुई थी उसकी! लगता था जैसे कि, तीन-चार स्त्रियां एक साथ बोल रही हों! अब शायद रहस्य से पर्दा उठा बस मुझे वहीं बने रहना था! "पलोमा?" मैंने कहा, "जा! जा!" वो बोली, ऐसे बाज नहीं आती वो! ये साफ़ और स्पष्ट था, कोई शक्ति, सवार थी उस पर उस समय!
मैंने अब एक मंत्र पढ़ा,
और उसको देखा, वो तिलमिलाई! पेड़ पर ऊपर नीचे झूलने लगी!
और फिर, नीचे आने को हुई, मैं पीछे हट गया, कहीं मेरे ऊपर ही न कूद जाए! वो पेड़ से उतरने लगी! आहिस्ता आहिस्ता से, अपने पेट पर हाथ रखे! जब वो नीचे उतरी, तो उसका पेट फूला था, अधिक फूला हुआ, जैसे गर्भवती हुई हो वो, मेरे तो होश ही उड़ गए! ऐसा कैसे सम्भव है? वो नीचे बैठ गयी, अपना पेट उघाड़ा, उस पर हाथ फेरा,
और फिर मुझे देखा, सच कहता हूँ, मेरे पांवों तले ज़मीन अब बस, खिसकने ही वाली थी!
पता नहीं क्या क्या देख लिया था मैंने, अभी घंटे भर में ही! वो लेटने लगी! पेड़ की टेक ली, अपनी सलवार खोल ली, घुटने तक,
और ज़ोर लगाने लगी, जैसे प्रसव पीड़ा हो रही हो उसे,
और प्रसव होने ही वाला हो! अब तो जी किया कि,
भाग ही जाऊं मैं वहाँ से! वो कराह रही थी, तड़प रही थी, मेरा हाथ मांग रही थी, मैं तो किसी मकड़-जाल में फंस चुका था! बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं, वो मेरा हाथ मांगे जा रही थी, बार बार, तेज तेज साँसें लेते हुए! प्रसव जैसे होने को ही था, बहुत बुरा फंसा था मैं, इसके कैसे छोड़ दूँ? मर जायेगी ये? ऐसी माया ने मुझे भी ग्रस्त कर लिया था!
आखिर में, मैंने हाथ दे दिया उसे, उसने दोनों हाथों से, मेरा हाथ पकड़ लिया, और ज़ोर लगाने लगी! सहसा, रक्त का फब्बारा फूटा! प्रसव तो नहीं हुआ, हाँ, रक्त बह निकला!
ये दृश्य देख, मेरा जी मिचला उठा! आँखें हटा लीं मैंने वहाँ से। और जब वापिस देखा उसे तो, सब ठीक! वो बैठी थी! मुस्कुराते हुए! मेरा हाथ पकड़े,
न रक्त ! न कि क्रोध! मैंने उठाया उसको, वो उठ गयी, मैं चलने को हआ आगे, कि कहीं और कुछ न देखने को मिले! लेकिन उसने, मेरा हाथ रोक लिया, मेरे से लिपटने की कोशिश की, चिपकने की, मैं झिंझोड़ा उसे, तो अब हाथापाई पर आ गई,
नाखून खरोंच मारे मेरी गर्दन और हाथों पर! अब मुझे आया गुस्सा! मैंने खींचा उसे,
और पकड़ लिया, उसको उसकी कमर से, हाथ पीछे कर लिए उसके, उसने अपने हाथों से मेरे पेट में नाखून मारने चाहे,
लेकिन मैं बच गया। बचा गया उसके वार! अब ले जाने लगा खींच आकर उसे!
और वो हंसी! क्षमा मांगे! छोड़ने को कहे! हँसे। ठिठोली करे!
आखिर मैंने छोड़ा उसे। अब शांत थी वो! अब तो, हंस रही थी! बस बार बार मुझसे लिपटने को करती थी! मैं लाने लगा उसे वापिस, वो बीच तक तो आई, लेकिन हंसती हुई फिर भाग गयी! आगे जाकर गिर पड़ी! रोने लगी। "हम गिर गए हैं, हमें उठाओ!" वो बोल रही थी! मैं तो आजिज आ गया था उसके इस खेल से, मैं गया वहां तक, उसको उठाया, वो उठी,
और फिर गिर गयी। फिर से वही बोली, हम गिर गए! मैंने फिर से उठाया!
और इस बार कस के पकड़ा उसका हाथ, और खींचने लगा उसको! वो फिर से गिर गयी! क्या आफत थी!
फिर से उठाया!
अब उसने मेरा नाम लिया! मैं चौंका! इसे मेरा नाम कैसे पता? वो हंसने लगी! "तुम आये हो न?" वो बोली, मैं चुप रहा! "मेरे लिए आये हो न?" वो बोली, उसकी बातें, मेरे दिमाग से बाहर थीं! मैं आया हूँ? किसलिए? उसके लिए? "बताओ?" उसने ज़िद सी पकड़ी! "हाँ, आया हूँ!" मैंने कहा, कहना पड़ा! वो खुश हुई, चली मेरे साथ और आ गयी हंसी-खुशी वापिस! जान बची, लाखों पाये! मैं ले आया पलोमा को वापिस, कैसे लाया,
ये तो मैं ही जानता हूँ! घुटने रगड़वा दिए उस लड़की ने तो मेरे! उम्र में बस यही कोई,
अठारह या उन्नीस की रही होगी, लेकिन उसके तौर-तरीके, बड़े ही हठीले थे! कभी उसको पकड़े के लाता, कभी खींच के, कभी उसको समझा कर, पांच मिनट का काम, घंटे भर का कर दिया था उसने,
खैर, मैं ले आया उसको,
छोड़ दिया उसके कक्ष में, वो अंदर गयी तो बाबा अंबर नाथ बाहर आये, अब उनको बताया मैंने सबकुछ, आंसू झड़ने लगे आँखों से, मैं क्या करता, जितना कर सकता था, कर रहा था, दिलासा दी उन्हें, समझाया, हिम्मत बनाये रखने को कहा,
और अब वापिस हुआ मैं, शर्मा जी सो रहे थे, जब मैं आया, तो जागे, अब मैंने उन्हें सारा हाल बताया, सुनकर उनके भी रोंगटे अपने चरम पर जा पहुंचे! और भी कई बातें हुईं, और फिर हम
लेट गए, आज खाना नहीं खाया था मैंने, वो उस प्रसव के रक्त की गंध अभी तक नथुनों में थी, वो योनि से बाहर निकली शिशु-नाल, अभी तक याद थी, मितली ही आ जाती,
जो मैंने देखा था, उस पर कोई भी यक़ीन नहीं कर सकता था, बड़ा ही खौफनाक मंज़र था वो सब! सुबह हुई, स्नान-ध्यान किया, चाय-नाश्ता आया, वो किया,
और मध्यान्ह पूर्व, भोजन भी कर लिया, दिन में कोई दो बजे करीब मैं,
अरुक्षा से मिलने गया, एक सहायिका अंदर बैठी थी, मुझे देख प्रणाम किया, और चली गयी बाहर, पलोमा जागी थी, मुझे देखा तो बैठ गयी, अपने बाल बांधे, और मुझे बैठने को कहा,
मैं बैठ गया वहीं, "पलोमा, अरुक्षा को जगाओ" मैंने कहा, "खुद जगा लो" वो बोली, बड़ा ही अटपटा सा जवाब मिला था! मैंने कई आवाजें दी उसे,
लेकिन कोई उत्तर नहीं मिला, पलोमा हँसे जाए। "वो नहीं जागेगी अभी" बोली वो, "तो कब जागेगी?" मैंने पूछा, "अपनी मर्जी से" वो बोली, "तुम हटो ज़रा" मैंने कहा, वो हट गयी, अब मैंने अरूक्षा को बहुत हिलाया-डुलाया, लेकिन लगता था वो तो जैसे, अफीम खा कर लेटी हुई है! बहुत कोशिश की, न जागी! मैंने पलोमा से पानी मंगवाया,
साफ मना कर दिया उसने, मैं उठा, और पानी लिया, जैसे ही लाया, हाथ मार कर गिरा दिया उसने,
जी तो किया एक कस के झापड़ रसीद कर , उसको! लेकिन गुस्सा पी गया मैं, "हटो यहां से" मैंने कहा, न हटी!
और जम कर खड़ी हो गयी! अब मैंने एक सहायिका को आवाज़ दी, गौमा दौड़ी दौड़ी आई, उस से एक को और बुलाने को कहा, दूसरी भी आ गयी, अब पलोमा को वहाँ से ले जाने को कहा, अब तो पलोमा ने ऐसी ऐसी गालियां सुनायीं,
कि मेरे भी कान लाल हो गए! लेकिन फिर भी, भिजवा दिया उसको बाहर,
पलोमा गयी, तो अरुक्षा अपने आप खड़ी हो गयी, अंगड़ाई ली, हाथों की कलाई पर, वैसे ही काले निशान थे, "कैसी हो?" मैंने पूछा, मुझे देखा, कुछ न बोली, अपना सूट उठाया उसने, पेट पर हाथ फेरा, उबासी लेते हुए, वहाँ कई निशान थे, एक निशान तो बहुत बड़ा था, वही खुजलाने लगी, बार बार, नोंच लेती वो वहाँ,
क्या हाल हो रहा था इन बेचारियों का! ये कोई रोग नहीं था, यदि होता, तो पहले दिन ही पता पड़ जाता, लेकिन कुछ नहीं पता चला! "कैसी हो?" मैंने पूछा, कुछ न बोली, पलोमा को आवाजें देती रही! "अरुक्षा?" मैंने कहा, अब देखा मुझे, मुस्कुराई, अंगड़ाई ली,
और लेट गयी! मुझे देखे देखे ही!
अरुक्षा का तो और बुरा हाल था, ये तो अब अरूक्षा बची ही नहीं थी, अपने आपे से बाहर चली गयी थी! फिर से उठी,
और खड़ी हो गयी, मुझे खड़े होने का इशारा किया, मैं खड़ा हो गया, मेरे हाथ पकड़ा उसने,
और ले चली बाहर, बाहर, वहीं उस पेड़ के पास जाने के लिए, वो जगह अब साफ़ दीख रही थी, झबाइ-कबाड़ पड़ा था वहां, बस वो पेड़ और उसके पास की वो जगह ही साफ़ थी, नहीं तो
गंदगी ही गंदगी थी, "हाँ?" मैंने कहा, "वो, वहाँ वो बोली, उचकते हुए, मैंने भी देखा वहाँ, कुछ न था, "क्या?" मैंने पूछा, "वो!" वो बोली,
वो! कौन बो! अब गुत्थी सुलझ सकती थी! अब हुआ मैं मुस्तैद! "हाँ अरुक्षा! क्या?" मैंने पूछा, उसने अपने पेट को हाथ लगाया,
खारिश की,
और पेट को उघाड़ा, फिर से खुजली की,
अब बैठ गयी! सर पर हाथ रखे!
मैं भी बैठ गया! "वो, वहाँ!" बोली वो,
अब मैं खड़ा हुआ, वहीं गया, वहाँ देखा, दूर तक कुछ नहीं था! पता नहीं क्या देख रही थी! मैं वापिस आया, जब वापिस आया, तो उसको कै सी हो रही थी, उबकाई सी आ रही थी,
और फिर उसने उलटी कर दी, भयानक बदबू उठी!
और जो बाहर निकला, उसको देख तो मेरे पसीने भी जम गए! उसकी उलटी में, इंसानी कलेजे के टुकड़े थे, वो सड़ चुके थे, जैसे कोई पांच-छह महीने पुराने हों, वो टुकड़े करीब ढाई सौ ग्राम होंगे, उसकी नाक बहने लगी थी, वो साफ़ करती जाती,
और उल्टियाँ करती जाती! मेरा तो दिमाग झन्ना गया अब! कुछ समझ नहीं आया,
और उलटी तो तब आई मुझे, जब वो वापसी उसको खाने लगी! मैंने मना किया उसे, उसने मुझे एक हाथ से ही फेंका के धक्का दिया, मैं जाकर गिरा कोई दस फ़ीट दूर! एक शहतीर लगा मेरी कमर में, दर्द उठ गया, फिर से उठा,
उसको रोका! न मानी! और सारा वापिस खा गयी, बदबू के मारे हाल खराब था मेरा! लेकिन वो, अपने मिट्टी से सने मुंह को, बार बार अपने सूट से पोंछती!
और मुझे देखे जाती! इंसानी कलेजे के टुकड़े? वो कहाँ से आये? कोई क्रिया की थी क्या इसने? फिर ऐसा क्या हुआ?
और वो भी, ऐसी तीक्ष्ण क्रिया? समझ नहीं आया कुछ भी! मैं गया उसके पास,
आँखें लाल र्थी उसकी! "चला जा! चला जा!" वो बोली, फिर से कोई चार-पांच औरतों की, मिलीजुली आवाज़!
मैं गौर से देखता रहा उसको, वो दांतों में फंसे, टुकड़ों को, अपनी जीभ से निकाल आकर, अपने हाथ पर रखती, और इकट्ठा कर, फिर से खा जाती! मैंने अब उसको उठाया, वो उठी, सर पकड़ा उसने अचानक,
और गिर पड़ी, अब उठाया उसको मैंने, बदबू अभी भी फैली थी वहाँ, भयानक बदबू!
मैंने उठाया उसे,
और ले गया वापिस, अब तो कुछ न कुछ करना ही था! अरुक्षा को मैं छोड़ने आ गया, वहाँ आया और उस सहायिका से, उसको नहलाने-धुलाने के लिए कह दिया, बदबू अभी भी आ रही थी, घिन्न चढ़ रही थी बुरी तरह से, उसके कपड़ों पर, अभी भी उलटी के दाग थे, उन्ही में से उलटी की बदबू आ रही थी, मुंह में आया थूक गटका नहीं जा रहा था, पेट में मरोड़ सी उठने
लगी थी, मैं भागा वहां से, शौचालय में आया और यहां आते ही, उल्टियाँ शुरू हो गयीं, जो खाया-पिया था, सब बाहर आ गया, लेकिन जैसे ही वो बदबू याद आती, पेट में दर्द उठता, आंतें खिंचती और, उलटी आ जाती, मैं बहुत देर बाद संयत हो सका था, सर में दर्द हो रहा था, पेट में दर्द था, दांत उलटी के कारण खट्टे हो चुके थे,
आंतें खिंच गयी थीं, दर्द था बहुत, मैं वापिस चला,
और बिना कुछ शर्मा जी से कहे, बिस्तर पर लेट गया!
शर्मा जी ने बहत पूछा, लेकिन मैं बोल न सका, वे समझ गए कि मेरी तबीयत खराब है, उन्होंने पूछा तो अब उनको सारी बात बतायी, उन्हें भी उबकाई आ गयी, भागे गुसलखाने की तरफ,
मेरे पेट में फिर से मरोड़ उठने लगीं, जब वे आये तो मैं गया, लेकिन अब उलटी नहीं आई, हाथ-मुंह पोंछे,
और फिर आया वापिस, सर फ़टे जा रहा था, मैंने अपने बैग से गोलियां निकाल ली,
और पानी के साथ निगल गया, और फिर लेट गया, जब मेरी नींद खुली तब पांच बजे का वक्त था, सर दर्द अब ठीक था, पेट भी ठीक था, अब मुझे जाना था फिर से उनके पास, अब मैंने एक काम किया, मैंने भस्म आदि ली अपने साथ, हिम्मत जुटाई मैंने, और चल पड़ा उनके पास, वे दोनों बहनें सो रही थीं, मैंने डिम्बाक्ष-विद्या का संधान किया,
और वो भस्म उनके सिरहाने रख दी, और आ गया वहाँ से, मैं रात्रि कोई आठ बजे क्रिया-स्थल में गया, डिम्बाक्ष-ईष्ट का आह्वान किया,
आँखें बंद कीं, बहुत ज़ोर लगाया, दृश्य आते लेकिन ठहरते नहीं, बार बार एक नाम गूंज जाता, गिरि! बस एक नाम गिरि! मैंने बहुत प्रयास किया, लेकिन डिम्बाक्ष-ईष्ट न प्रकट हुआ! मैं उठ गया, कोई रोक रहा था मुझे, मेरी विद्या को दग्ध किया था उसने, लेकिन ये था कौन? मैं अब बेचैन हो उठा, बहुत बेचैन! मैं वापिस हुआ, उन दोनों बहनों के पास आया, अरुक्षा तो देखते ही खड़ी हो गयी!
हाँ, पलोमा बैठे ही रही, मुझे गुस्से से ही देखती रही, मैं बैठा वहाँ, बाबा अंबर भी आ गए, उनसे बात हुई.
आज मैं अरुक्षा को क्रिया-स्थल ले जाना चाहता था, वो इतने आराम से तो जाती नहीं, अतः, बल प्रयोग करना था, अब बाबा अंबरनाथ से मैंने बात की, वो तो तैयार ही होते, विवशता थी, मैं पहुंचा निया-स्थल, अपने सामान के साथ, सबकुछ तैयार कर लिया मैंने,
और ठीक समय पर, बाबा अंबर नाथ और उनके दो साथी, अरुक्षा के मुंह में कपड़ा ठूस कर, बाँध कर, ले आये मेरे पास! अब बिठा दिया उसको सामने मैंने, वो बिफरी! गुस्सा हो! आँखें तरेड़े! पाँव पटके! अब मैंने उन सभी लोगों को बाहर भेज दिया, बस गौमा को साथ रखा मैंने, गौमा उसके साथ ही बैठी थी, हाथ में एक मोरपंख लेकर, जब प्रेत का ताव चढ़ता है तो ये मोरपंख शांत कर देता है उसको, भले ही कुछ पलों को। लेकिन समय मिल जाता है इसमें,
अगले कदम के लिए! अब मैंने उसके मुंह में ठंसा कपड़ा निकाला! उसकी देह की घेराबंदी की, देह-रक्षण किया, प्राण-रक्षण किया
और भस्म छिड़क दी! और चिल्लाई! गला फाड़ लिया अपना! पाँव पटकने लगी! गौमा ने मोरपंख छुआ दिया उसे, वो शांत हो जाती, लेकिन गौमा को गालियां देती! मुझे भी गालियां देती! क्रिया आगे बढ़ी!
प्रत्यक्ष-मंत्र लड़ाया! वो तड़पी! चिल्लाई!
लेकिन कोई नहीं हाज़िर हुआ! क्रिया आगे बढ़ती रही,
और तभी, तभी वो शांत हो गयी, उसको फिर से उबकाई आने लगी, बहुत तेज तेज, और आखिर में, उसने उलटी कर ही दी,
और इस बार उलटी में जो देखा मैंने, सिहर गया मैं तो! किसी भूण के अवशेष थे वो,
छोटे छोटे हाथ, पाँव, कलेजा, साबुत ही, खोपड़ी के टुकड़े, पसलियां,
आंतें, मज्जा और श्लेष्मा! सब बाहर निकाल दिया उसने! गौमा ये न देख सही, भाग गयी वो बाहर! अब अकेले ही निबटना था मुझे उस से, जब उलटी समाप्त हुई, तो वो नीचे झुकी, और फिर से वापिस खाने लगी, चबा चबा कर। बदबू ऐसी फैली थी, कि कोई चील या गिद्ध भी हो, तो वो भी, दस बार सोचे मुंह मारने को! मैंने खाने दिया उसे, मैं देखना चाहता था कि,
और क्या करती है ये,
वो सब चाट गयी! और अब लगी हंसने! बुरी तरह से! बहुत तेज!
और मैं यहां सोच में डूबा! ये भूण? ये कहाँ से आया? कोई ऐसी वीभत्स क्रिया क्यों करेगा? वो भी इन लड़कियों पर? मैंने फिर से क्रिया आगे बढ़ायी! अब उसने अपने पाँव पटके, टांगें चौडी की, और रोने लगी! बुरी तरह से, बहुत बुरी तरह से! टांगें चौड़ी की उसने और तभी, उसकी योनि के स्थान से रक्त निकलने लगा, वो झुक कर, रक्त देखने लगी, फिर रोने लगी, उसकी सलवार उठी ऊपर वहाँ से, वो रोई। मैं उठा, जाकर उसकी सलवार खोल दी,
और जैसे ही खोली, मुझे चक्कर सा आया, उसकी योनि से पाँव निकले थे किसी भूण के, बाहर! ये क्या था? कैसे? ये हो क्या रहा था? वो खड़ी हुई, पाँव लटके थे बाहर,
छोटे छोटे पाँव, रक्त बहे जा रहा था। वो रो रही थी, उसे अपने शरीर से अलग करने के लिए, तड़प रही थी, बेचारी! मैंने तभी कुछ निर्णय लिया!
मैंने भौमांगी-मंत्र का जाप किया,
और भस्म की एक मुट्ठी उस पर छिड़क दी, उसने कलाबाजी खायी, और जा गिरी पीछे, भ्रूण अब नहीं था, मात्र रक्त ही था, वो अचेत हो गयी थी, में आगे बढ़ा, एक वस्त्र से उसका रक्त साफ़ किया,
और उसको उसके वस्त्र पहनाये, मैं उठने ही लगा कि, उसने मेरा पाँव पकड़ लिया,
और खींचा नीचे! मैंने कोशिश की छुड़ाने की, लेकिन अब तो, जैसे हाथी की सी ताक़त थी उसमे, मेरी तो हड्डी ही टूट जाती! मुझे विवशतावश नीचे बैठना पड़ा, मैं बैठा और उसने प्रणय-निवेदन किया, एक मधुर आवाज़ में, कुम्हला कर, हंस कर,
मुस्कुरा कर, अपनी योनि पर, हाथ फेर कर, मेरे शरीर पर भी लगातार, हाथ फिरा रही थी वो, मैं सब देखे जा रहा था, सारे उतार, सारे चढ़ाव! सारे भाव!
और सारे बदलाव! और फिर एक झटके से, उठ खड़ी हुई वो! मैं भी खड़ा हुआ, उसने मुझसे फिर प्रणय-निवेदन किया, मैं चुपचाप सुने जा रहा था,
वि चिपकती मुझे, लिपटती, और मांग करती, बैठ जाती, घूर के देखती,
और मुझे विवश करने के लिए, सभी प्रपंच करती। मैं जानता था, ये अरुक्षा नहीं कर रही है। ये कोई और है, लेकिन ये कौन है? कौन है ये प्रणय-प्रिया? समझ नहीं आ रहा था बिलकुल भी, ये जो भी थी, बहुत सध के खेल रही थी, बिना किसी को भान होने के कारण से!
ये प्रेत नहीं था, न कोई डाकिनी, न कोई शाकिनी, न भुण्डा, ये जो कोई भी थी, काम-प्रिया थी और मानव-भक्षण करती थी, ऐसी कौन है?
यूँ तो बहुत हैं, बहुत असंख्य, लेकिन एक बात विशेष थी, ये शिशु देह का ही भक्षण कर रही थी, अचानक दिमाग ने झटका लगा! दिमाग घोड़े की तरह से भागा आगे आगे!
और मेरे होश उसके पीछे पीछे। कुछ सूत्र हाथ लगा, लेकिन ये अरुक्षा तो व्याहता है ही नहीं?
और यर किसी के साथ संबंध बनाये, ऐसा भी सम्भव प्रतीत नहीं होता? तो फिर माजरा क्या है? वो उधर, बार बार काम-पिपासा में, तड़पे जा रही थी,
और मैं, अपने दिमाग के पीछे भाग रहा था! और तभी डिम्बाक्ष-वाणी याद आई! गिरि! मैंने फिर से भौमांगी-मंत्र पढ़ा और भस्म उसके माथे पर लगा दी, वो, धम्म से नीचे गिरी, मैंने हाथ पकड़ लिया था उसका,
चोट लगने से बच गयी थी, अब उसको उठाया मैंने, कमर पर रखा,
और ले गया उसको उसके कक्ष में, वहाँ लिटा दिया, बाबा अंबरनाथ को अपने संग ले आया,
और बिठाया,
वे बैठ गए,
चिंतित थे बहुत, दिन-प्रतिदिन ये लड़कियां मौत के करीब जा रही थीं, अब मैंने उनसे प्रश्न किया, "गिरि? कोई है?" मैंने पूछा, उन्होंने दिमाग पर ज़ोर लगाया, बहुत सोचा, पीछे दिनों में वापिस गए, "हाँ! है एक गिरि" वे बोले, मझे हैरत हई अब। मैंने पहले क्यों नहीं पूछा इस बारे में, हो न हो, इस गिरि से कोई संबंध है इन लड़कियों का, "कौन है ये गिरि?" मैंने पूछा, "यहां रहने वाले एक बाबा का बेटा है" वे बोले, "अब कहाँ है?" मैंने पूछा, "काशी में वे बोले, दिमाग का पहिया भागे जा रहा था!
सारे प्रश्न दिमाग में ढेर बनाये जा रहे थे! "हो न हो, इस गिरि का इस समस्या से लेना देना अवश्य ही है" मैंने कहा, अब वे चौके! उनको यकीन नहीं हुआ, "लेकिन वो तो कोरा है अभी?" वे बोले, "कोरा है?" मैंने पूछा,
झटका लगा मुझे! घोड़ा जो बेतहाशा दौड़े जा रहा था, लगाम लग गयी उसमे यहां आ आकर बात बिगड़ गयी थी! अब फिर से अँधेरे भरे दो राहे पर आ खड़ा हुआ था मैं, कहाँ जाऊं?
इधर? या उधर? "कोई बात नहीं, अब मैं पता कर लूँगा!" मैंने कहा, अब हम खड़े हुए, बाबा अंबर नाथ को बाहर छोड़ा,
और उस क्रिया-स्थल के एक दूसरे, साफ़ सुथरे स्थान पर आ गया मैं, भोग ले आया था अपने संग, ये एक अलग कक्ष था, यहां पर, कोई क्रिया आदि नहीं होती, बस क्रिया का सामान आदि रखा जाता है, अभी साफ़ थी ये जगह,
और अब मुझे हाज़िर करना था अपन सिपाहसालार इब! वो निकाल सकता था इस गिरि का राज, और मुझे आगे बढ़ने की राह मिल जाती! मैंने शाही-रुक्का पढ़ा उसका, झिलमिलाता हुआ इबु हाज़िर हुआ! कड़े खड़खड़ा गए उसके! अब मैंने उसको उसका उद्देश्य बताया, उस गिरि के बारे में जानकारों काढ़ने को कहा, इबु उड़ चला! मैं वहीं बैठ गया, देख लड़ाता रहा, कोई पांच मिनट के बाद वो आया, अपने हाथ में मिट्टी ले आया था, अर्थात, जहां ये गिरि था, वहां घुस न सका था इबु!
खैर, कोई बात नहीं! मैंने वापसी भेजा उसे, भोग देकर! वो हँसता हुआ वापिस हुआ! अब मैं दुबारा फिर से वहीं आ खड़ा हुआ था, जहां से चला था! कोई राह नहीं थी आगे! अब मैंने क्रिया-स्थल बंद किया,
और आ गया वापिस, स्नान किया,
और फिर भोजन, शर्मा जी को सारी बात बतायी, खूब घोड़े दौड़ाये हमने, लेकिन कोई हल नहीं निकला! आखिर सो गए हम! अगले दिन कोई ग्यारह बजे करीब, मैं बाबा अंबरनाथ के पास गया,
और उनसे बातें की, जो जानकारी मैं चाहता था, वो नहीं मिल सकी, बस इतना कि गिरि एक भला-भाला युबक है,
और उस पर संदेह नहीं किया जा सकता, बात तो सही थी, लेकिन मेरा संदेह अभी भी उसी पर था! मैंने बताया नहीं बाबा अंबर नाथ को इस बारे में, हाँ, पता ज़रूर ले लिया मैंने उस गिरि का! उसी दिन, दोपहर को ही, मैं और शर्मा जी निकल पड़े काशी के लिए, पहुँच गए उस जगह, गिरि था नहीं वहाँ, कुछ देर इंतज़ार किया,
और फिर वो कोई एक घंटे बाद आ ही गया, उस से मिले, सीधा-साधा युवक था गिरि, कोई पच्चीस साल का, लेकिन एक बात मैंने गौर की, वो हमसे, घबरा रहा था, कोई न कोई बात तो ज़रूर थी, अब ज़रा टेढ़ी ऊँगली करनी ही थी, भाव तो भांप ही गए थे उसके हम! लेकिन ये उसकी जगह थी, यहां, कुछ करते तो हम भी धुल जाते, कोई पचास आदमी तो होंगे ही वहाँ! मैंने उसको बाहर चलने को कहा,
और जैसा मुझे यक़ीन था, वो नहीं आया हमारे साथ बाहर!
संदेह पुख्ता हो चला! ये गिरि, कुछ न कुछ तो जानता ही था! खैर, मौका देख, अवसर ताड़, हम आ गए वापिस वहाँ से, मैं सीधा अपने डेरे गया, भोजन आदि किया वहाँ, और फिर वहीं रात काटी, सुबह सुबह हम फिर से बाबा अंबर नाथ के स्थान के लिए निकले, वहां पहुंचे, बाबा अंबर नाथ को अब सब बताया, पहले तो यकीन नहीं किया उन्होंने,
और फिर उस गिरि को अपने स्थान पर बुलाने को राजी हो गए, उन्होंने फ़ोन लगाया, उस गिरि इन बात की,
और सबसे पहले यही पूछा कि, हम दोनों तो नहीं हैं वहाँ! अब बाबा अंबर नाथ की भी घड़ी घूमने लगी! कोई न कोई बात तो है। कोई न कोई बात! अवश्य ही! आखिर, उन्होंने उसे मना ही लिया! दो दिन बाद वो आना था वहाँ!
और दो दिन तक, हम उसके आने का इंतज़ार करते रहे! जिस दिन वो आया, उस दिन उसके पिता काशी गए थे,
ये भी अच्छा हुआ था। वो उस दिन दो बजे आया दिन में, बाबा अंबर नाथ से मिला, खूब बातें की,
और फिर उन लड़कियों के बारे में पूछा, गिरि को बहुत दुःख था उनका,
ये तो सत्य ही था! भाव सब स्पष्ट कर दिया करते हैं! हमारे बारे में भी पूछताछ की उसने! कोई आठ बजे रात को, जब गिरि अपने कक्ष में अकेला था, हम तीनों गए उसके पास! हमे देख के तो उसके होश ही उड़ गए। मैंने दरवाज़ा बंद कर लिया!
अंदर से! अब उसकी बोलती बंद! "हाँ भाई गिरि! बैठ यहाँ!" बोले शर्मा जी! वो बार बार, बाबा अंबर नाथ को देखे! लेकिन बैठे नहीं! अब आया मुझे गुस्सा! मैं खड़ा हुआ! उसका गिरेबान पकड़ा,
और एक दिया खींच कर कान पर! वो रो पड़ा! एक में ही! हाथ जोड़ने लगा। बिलखने लगा!
शब्द ही न निकलें गले से! काँप उठा! मैंने एक झटके से उसको बिठा दिया वहाँ! वो बैठ गया! बार बार काँपता सा, बाबा अंबरनाथ को देखे! अब बाबा अंबर नाथ भांप चुके थे कि, इस गिरि से ही सम्बंधित है ये मामला, किसी न किसी तरह तो अवश्य ही, इसीलिए उनको कतई बुरा नहीं लगा मेरा, उस गिरि से ऐसा व्यवहार करना, उन लड़कियों की जान पर बनी थीं,
तिल तिल कर मर रही थीं बुरी तरह से, अंदर ही अंदर कोई खाये जा रहा था उनको, क़तरा कतरा कर कर, और ये हाल था कि, न तो बेचारी ज़िन्दे में थीं और न ही मरे में, "हाँ गिरि? ये लड़कियां कैसे बीमार हुई?" शर्मा जी ने पूछा,
चुप! कुछ न बोले, शर्मा जी ने बाल पकड़े उसके, खींचे और हिला दिया कई बार! अपने सर को मसले वो! लेकिन बोले कुछ नहीं! "नहीं बोलेगा?" बोले वो, रोये जाए, लेकिन बोले न कुछ भी! मैं वहीं बैठा था, मैंने एक और दिया खींच कर, गिरता गिरता बचा! आंसू बहाने लगा, हाथ जोड़ने लगा, लेकिन मुंह से एक शब्द नहीं! "बता? कैसे बीमार हुईं?" मैंने पूछा,
अब बाबा अंबर नाथ को देखे वो, बाबा अंबर नाथ भी गुस्से से ही देखें उसे, लेकिन बोले कुछ भी नहीं। "नहीं मानेगा? ऐसे नहीं मानेगा तू?" बोले शर्मा जी, अब तो हाथ-पाँव पड़े! लेकिन बोले नहीं! अंबरनाथ को देखे, मैं कुछ समझा, और मैंने बाबा अंबर नाथ से बाहर जाने को कहा, वे बाहर चले गए, "हाँ, अब बता?" शर्मा जी ने पूछा, अब वो खड़ा हुआ, रोते रोते!
और अब बोला, "मुझे नहीं पता कि कैसे बीमार हुईं, सच में नहीं पता, मुझे मेरी माँ की सौगंध मैं झूठ बोलूं तो" वो बोला, हाथ जोड़ते हुए, कांपते हाथों से,