"वाह द्वैपा! आनंद!" वो बोला,
और तब उसने त्रिशूल उठाया अपना!
और फेंक मारा मेरे सामने!
स्वर्ण से बना वो त्रिशूल,
मेरे सामने आ गड़ा!
ये क्या?
मैं उठा!
त्रिशूल खींचा!
मेरे बदन के आधे वजन का तो होगा ही वो त्रिशूल!
उसका फाल!
मेरे सीने बराबर!
इतना भारी और चौड़ा त्रिशूल!
अद्भुत!
"चल द्वैपा! मेरे बेटे! आगे बढ़!" बोला जागड़!
बार बार!
वो यही कहता था!
चल आगे बढ़!
बच्चे!
बेटे!
बेटा!
द्वैपा!
बार बार यही!
मैं भटक रहा था!
खो रहा था कहीं,
भाग रहा था वहाँ से!
कहीं, बैठ रहा था,
सोच रहा था,
कि ये सब है क्या?
ये कैसा द्वन्द है?
और ये,
बाबा जागड़!
ये कैसे औघड़ हैं!
ये तो इतने प्रबल है,
कि जब चाहें,
तब एक चुटकी में,
मेरा मस्तक धड़ से अलग कर दें!
"आगे बढ़ बेटा!" बोला जागड़!
"बाबा?" मैंने कहा,
"हाँ द्वैपा?" वो बोला,
"ये सब क्या है?" मैंने पूछा,
"मत पूछ! आगे बढ़!" मैंने कहा,
"नहीं! मैं नहीं बढूंगा आगे!" मैंने कहा,
"पीछे हटेगा?" बाबा ने पूछा,
अब मैं फंसा!
बहुत सोचा!
"बोल?" बोला जागड़!
"नहीं!" मैंने कहा,
"शाबाश!" बोला जागड़!
ये कैसी परीक्षा?
कहाँ फंस गया मैं?
"चल! आगे बढ़!" वो बोला,
और मैं खड़ा हुआ अब!
और वो चौड़ा त्रिशूल,
उठाया,
माथे से लगाया,
और फेंक दिया सामने!
वो त्रिशूल!
सीधा बाबा जागड़ के समक्ष गिरा!
लपक लिया था बाबा ने,
और औघड़ी मुद्रा में उसको लहरा भी लिया था,
अपने एक हाथ से!
एक हाथ से,
यहां तो मुझे दोनों हाथ लगाने पड़े थे!
कमाल था!
"चल द्वैपा! मैं तैयार हूँ!" बोला जागड़!
पर मैं तैयार नहीं था!
मैं उहापोह में फंसा था!
दुविधा में फंसा था!
कोई भी औघड़!
अपना त्रिशूल नहीं फेंकता शत्रु के दायरे में!
लेकिन बाबा जागड़ ने फेंका था!
और कोई शत्रु,
त्रिशूल वापिस नहीं करता,
लेकिन मैंने किया था!
क्यों?
ये थी दुविधा!
"द्वैपा! चल संभाल!" बोला जागड़!
मित्रगण!
न कोई आह्वान!
न कोई ध्यान!
न कोई मंत्रोच्चार!
मेरे सर के ठीक ऊपर,
एक पीला सा चक्र घूमने लगा!
उसमे से,
अंगार,
जला हुआ मांस,
राख,
अस्थियां,
सब बिखरने लगीं!
ये मलय-चक्र होता है!
जल-साधना से प्राप्त होता है!
ये शत्रु-भेदन में प्रयोग होता है!
जैसे,
क्षुद्र तांत्रिक,
हंडिया का प्रयोग करते हैं,
उसी प्रकार,
उच्च-स्तरीय औघड़,
इस मलय-चक्र का प्रयोग करते हैं!
ये दीखता नहीं!
मात्र,
शत्रु को ही दीखता है!
मुझे दीख रहा था!
मैंने फ़ौरन ही,
अपना त्रिशूल उठाया,
और एक मंत्र पढ़ा!
मेरे मुंह में,
रक्त भर आया!
गाल फूल गए!
इतना रक्त,
कि,
नाक से भी बहने लगा!
अब न रहा गया,
मैंने कुल्ला कर दिया उसका,
अपने सर को,
ऊपर करते हुए,
उस चक्र की ओर!
मैंने कुल्ला किया,
और उधर चक्र खंडित हुआ!
बिजली सी कड़क गयी वहाँ!
"अरे वाह द्वैपा! द्वैपा! वाह!" बोला जागड़!
बाबा जागड़ झूम उठा!
और मैं विस्मय में पड़ा!
"चल! चल! आगे बढ़!" बोला जागड़!
मित्रगण!
अब मैंने भी कुछ जांचने का प्रयास किया!
मैंने अब,
एक महा-शक्ति का आह्वान किया!
बाबा जागड़,
अपने आसन पर बैठ गया,
जैसे ही मेरा एक मंत्र समाप्त होता,
वो फ़ौरन से,
अपना खंजर,
भूमि में गाड़ देता,
और निकाल लेता!
मुझे आधा घंटा लगा!
और हैरत हुई मुझे!
सांप सूंघ गया!
वो महा-शक्ति,
जिसने मुझे कभी धोखा नहीं दिया,
प्रकट ही न हुई!
अब तो जैसे,
मेरा चीखने को मन हुआ!
चिल्लाने को!
भय बस गया मेरे अंदर!
खाली होने का भय!
मृत्यु का भय!
जो कमाया था,
आज गंवाने वाला था मैं!
"द्वैपा! छिद्रण! छिद्रण!" वो बोला,
ओह!
समझ गया!
उसने मेरे आह्वानिक-मंत्र ही,
बींध दिए थे!
कहाँ से होती शक्ति प्रकट?
ऐसा प्रबल औघड़,
न मैंने कभी देखा,
न सुना!
मैं तो जैसे हार गया था!
हार मान ली थी!
लेकिन,
अभी भी!
मुझमे हिम्मत थी!
मेरे पास,
अन्य बहुत विद्याएँ थीं!
मैं चुपचाप बैठा था!
अलख को,
निहारते हुए!
"द्वैपा? आगे बढ़?" वो बोला,
शक्ति का संचार हुआ मुझमे,
ये सुनकर!
मैंने फिर से आह्वान किया!
और इस बार न भेदा उसने!
बीस मिनट में,
शैल-त्रिजा का आह्वान करते करते,
मैं खो सा गया!
और तभी!
गहरा भूरा प्रकाश कौंधा!
पत्थरों की बरसात सी हो गयी वहाँ!
भयानक रूप वाली,
श्यामा-सुंदरी!
शरीर में वक्र-वाली,
वक्र-सुंदरी!
प्रकट हो गयी!
मैं खड़ा हुआ,
भोग अर्पित किया!
और उद्देश्य बता दिया!
भयानक अट्ठहास करते हुए,
वक्र-सुंदरी,
दौड़ पड़ी!
शत्रु-भेदन को!
और जब वहाँ पहुंची!
तो बाबा जागड़,
कूष्माण्ड-सुंदरी को,
भोग लगा रहा था!
शैल-त्रिजा,
झप्प से लोप हुई!
अब हार निकट थी!
कोई संदेह नहीं था इसमें अब!
एक से एक काट थी बाबा जागड़ के पास!
मैं पागल सा हो उठा!
रो पड़ा!
अपना जीवन,
व्यर्थ सा लगा!
गुस्से में आया,
तो अंट-शंट बकने लगा!
"द्वैपा! आगे बढ़!" आवाज़ आई बाबा जागड़ की!
बाबा जागड़,
अपनी व्याघ्र-चर्म को,
पोंछ रहा था!
मुझे देखा!
और अट्ठहास किया!
मेरा उपहास किया उसने!
मुझ से नहीं बर्दाश्त हुआ!
मैं अलख पर बैठा,
अपनी जटा तोड़ी एक,
अलख में झोंकी,
और फिर आह्वान किया,
ब्रह्म-कपालि का!
मैं नृत्य करता जाता,
और आह्वान करता जाता!
आधे घंटे में मैं पस्त हो गया!
बैठ गया,
आह्वान ज़ारी था!
कपाल गिरने लगे!
अस्थियों की,
आंधी आ गयी वहाँ!
सैंकड़ों आकृतियाँ,
यहाँ से वहाँ भागने लगीं!
स्त्रियों के हंसने के स्वर गूँज उठे!
ताप बहुत बढ़ गया!
मैंने अपने विशेष शक्ति का आह्वान किया था!
इसका वार अचूक है!
शक्ति अमोघ है!
कभी खाली नहीं जाता इसका वार!
अब यही देखना था,
कि बाबा जागड़,
कैसे संभालता है इस इस,
ब्रह्म-कपालि को!
कपाल फूटने लगे!
अस्थियां,
राख होने लगीं!
ढेरियां बन गयीं उनकी!
वो सभी आकृतियाँ,
अब मूर्त रूप लेने लगीं!
ये सभी उप-सहोदरियां हैं इसकी!
ये ब्रह्म-कपालि,
आज भी पूजी जाती है,
तंत्र जगत में!
साधारण सी सिद्धि है इसकी,
कीकर के पेड़ पर,
नौ दिन,
दही का पानी चढ़ाना है,
फिर नौ दिन इसका मंत्र पढ़ना है!
ठीक नवें दिन,
ये प्रकट होती है,
और साधक से,
अनेक प्रश्न पूछती है,
यदि प्रश्न के उत्तर सही हों,
तो वार देती है,
अन्यथा, कुष्ठ-रोग मिलता है,
इस जीवन में!
एक सौ एक,
कपाल इसकी कमर में माल की तरह से,
बंधे रहते हैं,
भुजाओं में,
शिशु-कपाल सजाये होते हैं!
गले में,
ब्रह्म-कपाल की माल होती है!
जब सिद्ध हो जाती है, तो,
अप्सरा समान रूप में रहती है!
भार्या समान सेवा करती है!
काम में साधक प्रवीण हो जाता है!
और शत्रु-भेदन में,
ये अपने साधक की,
हर क्षण रक्षा करती है!
ब्रह्म-कपालि प्रकट हुई!
और मैं दंडवत लेट गया!
भोग आगे किया,
और एक उद्देश्य मंत्र पढ़ा!
उड़ चली ब्रह्म-कपालि!
अपनी सेना के साथ!
और वहाँ पहुंची!
वहाँ पहुंची,
तो क्या देखता हूँ!
बाबा जागड़,
अपने आसन पर बैठा था!
शांत!
बेख़ौफ़!
हाँ!
उसका वो त्रिशूल,
किसी तीर की तरह,
घूम रहा था उसके चारों ओर!
चक्कर लगा रहा था!
मैं भौंचक्का रह गया!
ये कैसी रक्षा-प्रणाली?
ये कैसी विद्या?
ये तो त्रिशूल-वाहिनि विद्या है!
अब लुप्त-प्रायः है!
लेकिन बाबा जागड़?
ये त्रिशूल तो,
स्वयं श्री महाऔघड़ का सा प्रतीत होता है!
उन्ही की तो शक्ति है ये!
और वही हुआ!
उस अभेद्य रक्षा-चक्र को,
न भेद सकी ब्रह्म-कपालि!
और वापिस हुई!
मेरे यहां आते ही,
नभ में,
लोप हो गयी!
अब हुआ मैं ढेर!
मैं बैठ गया!
अपने हाथ अपने घुटनों पर रख कर!
एक हारा हुआ खिलाड़ी!
एक हारा हुआ जुआरी!
ठीक वैसा ही!
दांव हार गया था मैं!
मेरे आंसू बह निकले!
दादा श्री से,
क्षमा मांगने लगा!
श्री श्री श्री से भी क्षमा मांगने लगा!
अब कुछ शेष नहीं था मेरे पास!
अब हार की बजाय,
मृत्यु ही अधिक प्रिय थी!
"द्वैपा? न! न! आंसू न बहा! न! उठ! खड़ा हो!" आवाज़ आई!
मैंने देखा उसे!
उसने अपना त्रिशूल,
अपने कंधे पर टिका रखा था!
"खड़ा हो?" वो बोला,
मैं खड़ा हुआ,
मैं जानता था,
कि अब,
बाबा जागड़ मात्र एक ऊँगली आगे करेगा,
और मेरा सीना बिंध जाएगा!
समाप्त!
इहलीला,
समाप्त!
आ गया अन्त!
बस!
टूट गयी डोर!
कोई विजय सिद्धि होती,
तो उसी को सिद्ध करता मैं!
अफ़सोस!
ऐसी कोई सिद्धि नहीं!
"आगे बढ़ द्वैपा?" उसने कहा,
अब नहीं बढ़ सकता था!
चाह कर भी नहीं!
कुछ नहीं कर सकता था!
बाबा जागड़,
तुम जीत गए हो!
मैं हार गया!
तुम विजयी हुए,
और मैं पराजित!
"द्वैपा?" वो बोला,
"हाँ?" मैंने रुंधे गले से कहा,
"ये द्वन्द नहीं है!" उसने कहा,
मैं चौंका!
"हाँ! ये द्वन्द नहीं है द्वैपा! द्वन्द किसने आरम्भ किया? किसी ने भी नहीं! न तूने, न मैंने!" वो बोला,
मेरे होंठ काँप उठे!
ये क्या कह रहा है जागड़?
द्वन्द नहीं है ये?
तो फिर क्या है?
क्या है?
"चल! आगे बढ़!" वो बोला,
"नहीं बढ़ सकता मैं आगे!" मैंने कहा,
"क्यों?" उसने पूछा,
"मुझमे साहस नहीं" मैंने कहा,
अब हंसा वो!
अट्ठहास किया!
"चल! आगे बढ़!" उसने कहा,
"नहीं बाबा!" मैंने हाथ हिलाते हुए कहा,
"नहीं बढ़ेगा?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"घुटने टेक दिए?" उसने पूछा,
बड़ा अजीब सा सवाल था!
सीने को चीर दिया इस सवाल ने!
फिर सोचा,
जब मरणा ही है,
तो क्यों न लड़कर मरा जाए!
ऐसे काहे निरीह बना जाए?
"घुटने टेक दिए?" उसने पूछा,
"नहीं!" मैंने कहा!
"वाह! द्वैपा! वाह!" वो बोला,
"ले! संभाल!" वो बोला,
और अब उसने अपने हाथ की मुद्रा बनायी!
मैंने देखा,
ये, वृतिका विद्या थी!
मैंने शूतलक विद्या का संधान किया!
वृतिका,
किसी तेज वायु के प्रवाह जैसी,
सामने आई!
और मेरी विद्या ने उसका मार्ग रोका!
खींचम-खेंच हुई!
और दोनों ही विद्याएँ,
समाप्त हुईं!
"ले! संभाल!" उसने कहा,
ये करुत विद्या थी!
पल भर में ही,
मुझसे टकराते ही,
चीथड़े उड़ा देती मेरे!
मैंने रोहिकाक्षी विद्या भिड़ाई!
और दोनों विद्याओं में.
टंकार हुई!
मैं जा गिरा पीछे!
कीचड़ में!
भाग कर आया!
मुंह साफ़ किया!
और आसन पर आ बैठा!
"ले!" फिर से आवाज़ आई!
भूमि हिली!
फटी!
और उसमे से,
जलते हुए कोयले दिखे!
तपते हुए पत्थर!
भीषण ताप!
और जो उसकी भाप थी,
वो मुझे अंदर खींचे जा रही थी!
मेरी वस्तुएं उड़ चलीं!
मेरे केश उड़ चले!
मेरा त्रिशूल झूल गया!
मेरी अलख उस ओर बहने लगी!
मैंने तभी,
भूमि को तीन बार थाप दी,
और स्तम्भन-शूल विद्या का प्रयोग किया!
सब ठीक हो गया!
गड्ढा भर गया!
वस्तुएं,
ठहर गयीं!
मेरे केश,
ठीक हो गए!
रह गया शेष,
तो वो,
भीषण ताप!
बाबा जागड़ की,
ये अनूठी विद्याएँ,
सच में बहुत अनुपम और,
अनूठी थीं!
सबसे बड़ी बात!
वो कुशलता से,
उनका संधान करता था!
एक क्षण में ही,
वो उनको साध लेता था!
जितना समय मैं सोचने में लगाता,
उतने में तो वार हो जाता था!
"वाह द्वैपा वाह!" बोला जागड़!
"चल द्वैपा! चल बेटे! आगे बढ़! मत रुक! रुकना नहीं है! आगे बढ़!" बोला जागड़!
मत रुक!
आगे बढ़!
रुकना नहीं है!
बेटा!
बाबा जागड़ ने,
फंसा रखा था मुझे अपने इस शब्द-जाल में!
ये कैसी विधा थी,
पता नहीं!
लेकिन अंदर तक,
झकझोड़ देती थी!
उसका ऐसा कहना,
लगता था,
कि जैसे,
मुझे प्रोत्साहित किया जा रहा हो!
बार बार!
लगातार!
मुझे कोई घबराहट नहीं थी,
परिणाम मुझे पता था!
अंत आ ही चुका था,
आज सुबह का सूर्य,
देखना नसीब नहीं होगा!
सब जानता था मैं!
इसीलिए,
मैं मुस्कुराया,
हंसा,
और फिर खिलखिलाकर हंसा!
और फिर,
रोने लगा!
मुझे परिणाम से डर लगने लगा!
मैं घबरा गया!
श्मशान पर नज़र डाली मैंने,
जहां,
वे सब ठहरे थे,
वहाँ नज़र डाली,
वो रास्ता,
जो जाता था मुख्य-स्थान को,
आज बहुत बड़ा हो गया था!
मीलों बड़ा!
"चल द्वैपा! दो प्रहर गए! आगे बढ़!" बोला जागड़!
सहसा!
मैं खड़ा हुआ!
अलख तक गया,
कपाल कटोरा उठाया,
अलख से भस्म निकाली,
कटोरे में डाली,
उकडू बैठा,
मदिरा डाली,
केतकी का आह्वान किया!
केतकी,
एक असुर-कन्या!
भयानक!
रौद्र!
किसी,
यम-गणिका समान!
उसी का आह्वान किया!
मैं ऐसे नहीं मरना चाहता था!
कुछ करके,
कुछ दिखा के,
कुछ जता के,
ही, मरना चाहता था!
ताकि,
बाबा जागड़ देख ले,
कि सामने वाला प्रतिद्वंदी,
कोई सहज नहीं था!
