ये अत्यंत गूढ़ जानकारी थी!
मैंने कुल सात प्रकार के यंत्रों का निर्माण किया,
इसके बाद,
उन्होंने जांचा उन्हें,
कुछ में संशोधन किया,
और फिर दुबारा से मुझे,
भूमि पर काढ़ने को कहा,
विशेष शारीरिक मुद्राओं में,
ये यन्त्र काढ़े जाने थे,
तभी उनमे प्राण प्रस्फुटित होते!
मैंने वही किया,
जैसा बताया गया था,
फिर भी,
मेरे बनाये हुए,
एक त्रिभुज में,
फिर से संशोधन किया उन्होंने,
और अपने हाथों से,
मेरा हाथ पकड़ कर,
वो त्रिभुज,
अंगूठे की,
विशेष मुद्रा के साथ,
काढ़ा!
अब सही था!
बिलकुल सही!
अब उन्होंने आशीर्वाद दिया मुझे!
अब ज़रुरत थी मुझे सभी सामग्री की!
अगले दिन वही सब एकत्रित की,
और रात्रि में,
एक अंतिम क्रिया की,
और उसके बाद,
गुरु-नमन!
गुरु-पूजन!
और गुरु का आशीर्वाद लिया!
फिर श्री श्री श्री महाबल नाथ जी का आशीर्वाद लिया!
उस समय से,
मैंने मौन-व्रत धारण कर लिया!
ये मुझे अब कल तक रखना था,
सूर्यास्त तक!
उसके पश्चात ही,
मैं वार्तालाप कर सकता था!
उस रात क्रिया-स्थल में ही शयन किया,
और फिर वो दिन भी,
वहीँ काटा,
न भोजन,
न जल!
न अन्न का दाना!
फिर हुई दोपहर,
और श्री श्री श्री जी आये,
सामान का एक बक्सा रख गए थे,
वे गए तो मैंने बक्सा खोला,
उसमे सभी सामान था,
जो अत्यंत ज़रूरी था,
जैसे थाल,
श्रृंगार-दान,
दीप,
लौह-पात्र,
काष्ठ-खरल,
आदि आदि!
फिर सूर्य चले अस्तांचल को,
और मेरा मौन-व्रत समाप्त हुआ अब!
अब मैं सीधा स्नान करने गया,
और स्नान करने के पश्चात,
अपने दादा श्री के स्थान पर,
फिर श्री श्री श्री महाबल नाथ जी के यहां,
उन्होंने कुछ मालाएं धारण करवायीं,
और वो उलूक,
जो अब स्वर्ण की डोर में लिपटा था,
उसका अंतिम बार पूजन हुआ,
और अब मुक्त कर दिया गया,
मित्रगण!
बाबा शेखर,
और शर्मा जी, इनसे मेरी बातें हुईं,
शर्मा जी से बातें हुईं कि,
वे घबराएं नहीं!
जब तक श्री श्री श्री जी हमारे साथ हैं,
वो जागड़ तो क्या,
उसके चौदह गुरु भी समक्ष आ जाएँ,
स्वयं बीड़ा उठा लें द्वन्द का,
तब भी श्री श्री श्री जी अकेले ही भारी हैं उन पर!
शेखर जी ने,
अपनी भीगी आँखों से,
मुझे गले लगाया!
और फिर आये स्वयं श्री श्री श्री जी!
छाती से लगा कर,
मुझे ले चले,
उस स्थान पर,
जहां ये द्वन्द होना था अब!
साथ में तीन सहायक भी थे,
वे सभी सामान उठकर चल रहे थे!
हम पहुँच गए वहां,
और सामान रख दिया,
और अब वे,
बिना कुछ कहे,
लौटे वहाँ से!
इस स्थान से,
मैंने कई द्वन्द जीते थे!
मेरे लिए नया नहीं था ये स्थान!
रात्रि दस बजे का वक़्त था!
आकाश काली चादर ओढ़,
नीचे ही झाँक रहा था,
उसकी झिलमिलाती चादर में,
वो तारे रुपी सितारे चमक रहे थे!
एक बड़ा सा तारा चाँद बन,
चमक रहा था!
सभी नीचे ही देख रहे थे!
घुप्प अँधेरा था वहाँ!
वे सहायक,
सारा सामान रख चुके थे,
अब मैंने,
एक एक करके,
वो सारा सामान,
सजाया,
नौ दीप जलाये,
मंत्र पढ़ते हुए!
फिर आसन लगाया,
और भोग भरा सभी थालों में!
और अब अघोर-पुरुष नमन किया!
फिर गुरु नमन!
फिर स्थान नमन!
और अंत में श्मशान और दश-दिशा नमन!
और अब चारों दिशाओं में,
थाप दी अपने पांवों से!
अब आह्वान करना था अपने,
उस दुर्दांत महाप्रेत वाचाल का!
उसका आह्वान किया!
प्रबल अट्ठहास करता हुआ वो प्रकट हुआ,
भोग लिया,
और मुस्तैद खड़ा हो गया!
और उसके बाद!
अपनी सबसे महत्वपूर्ण और पल पल की खबर देने वाली,
उस कर्ण-पिशाचिनी का आह्वान किया,
जिसके बिना द्वन्द अधूरा ही रहता है!
शरीर को तोड़ती-मोड़ती!
गर्दन में भयानक ज़ोर डालती,
पेट में आँतों को सुखाती,
मसूड़ों से रक्त निकालती,
आँखों से गर्म पानी निकालती,,
बदन में गर्मी भर्ती वो कर्ण-पिशाचिनी,
प्रकट हो गयी!
प्रबल अट्ठहास किया उसने!
और अपना भोग स्वीकार कर,
शून्य में लोप हो,
मुस्तैद हो गयी!
अब द्वन्द की भेरी बज चुकी थी!
और अब!
मैंने अपनी अलख, ईंधन झोंक,
श्री महाऔघड़ का नाम ले, भड़का दी!
और अब लड़ाई देख!
सामने का नज़ारा दिखा!
और फिर...............
देख लड़ी!
और बाबा जागड़ ने देख पकड़ी!
ठहाका लगाया उसने!
ज़ोरदार ठहाका!
अलख भड़की थी!
सर पर,
कपड़ा बांधे,
और उस कपड़े पर,
अस्थि-माल बांधे,
बाबा जागड़ सच में ही एक क्रूर औघड़ लगा रहा था!
एक प्रबल औघड़!
अकेला ही था वहाँ वो!
और!
मैं एक चीज़ देखकर चौंका!
ऐसा मैंने कभी पहले नहीं देखा था!
उसके सामने जहां,
चार कपाल रखे थे,
वहीँ एक कटा सर भी रखा था!
किसी घाड़ का कटा सर!
उसने वो सर,
लकड़ी के एक पटरे पर रखा था!
सर की आँखें खुलीं थीं!
और पलकें भी मारता था वो!
ये तो महा-प्रबल क्रिया थी!
उसको सारे द्वन्द का हाल,
यही कटा सर बताएगा!
वाह बाबा जागड़ वाह!
मेरे मुंह से निकला!
सत्रहवीं शताब्दी तक,
यही द्वन्द-क्रिया थी!
एक कटा सर,
जो पल पल की खबर बताएगा!
एक बार को तो,
वाचाल भी हिचकी ले गया होगा!
वो उठा!
खड़ा हुआ,
अपना त्रिशूल अपनी अलख से छुआ दिया!
और हवा में उठाया!
और ज़ोर से,
भूमि में दे मारा!
उस श्मशान का मसान भी,
भाग खड़ा हुआ होगा उसका ये रूप देख कर!
प्रेत जैसे मक्खियाँ उड़ जाती हैं,
ऐसी उड़ गए थे उस श्मशान से!
उसने अपना व्याघ्र-चर्म संतुलित किया!
और फिर अपना त्रिशूल निकाला भूमि से!
और अब मेरी दिशा में किया!
और मेरा नाम लेते हुए,
त्रिशूल फिर से भूमि में दे मारा!
और अट्ठहास किया!
वो कटा सर!
उसने भी अट्ठहास किया!
अब मैं खड़ा हुआ,
अपना त्रिशूल उखाड़ा,
और लहराया,
और भूमि में दे मारा!
श्मशान में कराह उड़ पड़ी!
सारे रात्रि-पक्षी,
सभी भाग खड़े हुए!
शोर-शराब उठ खड़ा हुआ!
चमगादड़ फ़ड़फ़ड़ा उठे!
और हाँ!
वहाँ अथाह सन्नाटा पसर गया!
अब मैंने अपने गुरु का नाम लिया,
और अट्ठहास किया!
बाबा जागड़ ने भी अट्ठहास किया!
कटा सर,
बहुत ज़ोर से हंसा!
उसके मुंह से रक्त का फव्वारा फूट पड़ा!
पर हंसना बंद न हुआ उसका!
अब जागड़ बैठा अपने आसन पर!
अपना सर्प,
एक पिटारे में रखा!
और पिटारा बंद कर दिया!
एक झोली उठायी,
और उसमे हाथ डाला,
अस्थियों के टुकड़े निकाले,
दो टुकड़े मुंह में रखे,
बाकी हाथ में!
और फेंक दिए सामने अलख में!
मित्रगण!
अचम्भा हुआ!
चौंका पड़ा मैं!
उसके वे टुकड़े फेंकते ही,
मेरे सभी परिजनों के शव,
हवा में से प्रकट होकर,
मेरे इर्द-गिर्द आ पड़े!
ये चेतावनी थी उसकी!
मैंने देखा,
वे तड़प रहे थे,
चेहरों को छोड़,
सभी के शरीर भयानक ज़हर से नीले पड़े थे,
फोड़े, फूट चले थे,
हड्डियां जैसे पिघल चली थीं!
मुझे क्रोध!
अत्यंत क्रोध!
मैंने अपने माल में लटकी,
एक बड़ी अस्थि ली,
अलख पर रखते हुए, उसको तपाया,
और मंत्र पढ़ते हुए,
चिमटे से उठाकर,
उसको भूमि से स्पर्श किया,
वे सभी शव लोप हुए!
और वहां जागड़ के पास,
उसकी दो कन्यायों, दो स्त्रियों,
जो कि उसकी पत्नियां थीं,
उसके दो पुत्रों के,
उनकी भार्याओं के,
और एक पौत्र के,
शव,
भरभरा कर वहाँ आ गिरे!
कटे-फ़टे!
सड़े हुए!
कीड़े रेंगते हुए,
जैसे कि,
कई माह बाद उनको निकाला गया हो,
भूमि से!
मैंने भी चेतावनी भेज दी थी!
ये देख!
जागड़ चिल्लाया!
और मंत्र पढ़ने लगा!
पहले वो शव लोप हुए!
और फिर उसने अपना सांप का,
वो पिटारा खोला!
और अपने सर्प को फूंक मारी!
उस सर्प ने,
एक ही क्षण में,
बाबा जागड़ के गले में काट लिया!
और जा लिपटा गले से!
ऐसा हुआ,
और मेरे यहां विषैले सर्पों की,
बरसात हो गयी!
क्या छोटे और क्या बड़े!
क्या काले और क्या पीले!
ये मायावी नहीं थे!
ये तंत्र-बल से सधी हुई क्रिया थी!
ये असली थी,
इनका विष भी असली था!
सभ भाग पड़े मेरी तरफ!
मैंने तभी एक घेरा खींचा!
और बाबा ऋद्धा से सीखी हुई,
एक महा-विद्या का संधान किया!
विद्या जागृत हुई,
और मैंने अब भूमि पर थूका!
मेरे थूकते ही,
वे सर्प फट पड़े!
उनके लोथड़े,
यहां वहाँ फ़ैल गए!
दुर्गन्ध फ़ैल गयी वहाँ!
जागड़ फिर से चिल्लाया!
और अगले पल हंसा!
वो सर भी हंसा!
बाबा खड़ा हुआ,
अलख में ईंधन झोंका!
और फिर एक झोली से,
कुछ रेत सी निकाली!
और फेंक मारी अलख में!
सर्प-सुन्दरियां!
सर्प-सुन्दरियां प्रकट हो गयीं वहां!
कम से कम बीस-इक्कीस!
वैसी ही,
जैसी बाबा ऋद्धा ने उस,
भयानक जंगल में दिखाई थीं!
आधा धड़ सर्प का,
आधा धड़ किसी काम-कन्या का!
लेकिन!
ये अत्यंत विषैली थीं!
इनकी श्वास भी पड़े मानव-देह पर,
तो वहीँ गड्ढा हो जाए!
जो जीवनपर्यन्त तक भी न भरे!
और नासूर बन,
अंत समय तक साथ रहे!
मुझे फ़ौरन ही कुछ करना था!
अतः मैंने उसी क्षण,
सर्प-उत्खंडा का जाप किया!
इस से मेरे शरीर पर,
कोई प्रभाव नहीं पड़ता!
न मुझे दंश ही मार सकती थीं,
और न ही मेरा कुछ अहित कर सकती थीं!
ये विद्या भी मैंने,
बाबा ऋद्धा से ही सीखी थी!
आज बाबा ऋद्धा की याद आई थी,
बहुत समय बाद!
मैं जाप में लगा,
और कुछ ही क्षणों में,
मेरे नेत्रों से रक्त बह निकला!
विद्या जागृत हुई!
और जब मैंने नेत्र खोले अपने,
तो मेरे पूरे शरीर पर,
वो सर्प-कन्याएं,
नागिन बन,
लिपटी पड़ीं थीं!
काटने का,
दंश मारने का अब कोई प्रश्न ही नहीं था!
वे प्रयास करतीं,
उनके दंश लगते मेरी त्वचा पर,
मेरी पिंडलियों पर,
मेरे लिंग और अंडकोषों पर,
पर,
टूट जाते!
कुछ न हो सका!
और मैंने खींच खींच के उन्हें,
अपने शरीर से अलग किया,
वो गिरतीं, और फिर से लिपट जातीं!
मैंने फिर से,
सर्प-अधुर्यका का जाप किया,
और वे ऐसे भागीं जैसे,
बिल्ली कुत्ते को देखकर भाग जाती हैं!
भागते भागते,
कराह सी जातीं!
खाली हो गया वार जागड़ का!
और अब मैंने नाद किया!
अपना विजय नाद!
और वहाँ!
वहाँ उसने कटा सर उठाया!
और उस कटे सर से बहता रक्त,
भूमि पर गिराया,
बैठा,
और अपनी अनामिका ऊँगली से,
एक यन्त्र बनाया,
और अब उसमे मूत्र-त्याग किया!
धूम्र उठा!
और एक और कन्या प्रकट हुई!
रक्त से रंजित!
जैसे उसके हर अंग से रक्त फूट कर बह रहा हो!
उसकी जिव्हा!
जिव्हा सांप जैसी थी,
मैंने ऐसा कभी नहीं देखा था!
वो जिव्हा बाहर निकालती,
और अपने गले में लपेट लेती!
क्या क्या था इस बाबा जागड़ के पास!
तभी वाचाल के स्वर गूंजे!
सर्प-धौर्त्य!
यही थी वो!
एक श्रापित सर्प कन्या!
परन्तु, एक तांत्रिक सर्प-कन्या!
रूपकुलिका!
कर्ण-पिशाचिनी के स्वर गूंजे!
बस!
मैं बैठ गया नीचे,
एक यन्त्र बनाया,
अष्टावक्र यन्त्र,
मदिरा से पोषित किया,
सात घूँट मदिरा पी,
और फिर आह्वान किया!
अगले ही क्षण!
रूपककुलिका प्रकट हुई!
रूपकुलिका!
ये उस मन्त्र की शक्ति है,
जिसके जाप से,
कैसा भी सर्प हो,
कैसा भी,
शिथिल हो जाता है!
ये उसमे गुरुत्व पैदा कर देती है,
कई सहस्त्र गुना!
तब, उसका मस्तक काट कर,
अलग कर दिया जाता है,
और धड़ और मस्तक,
अलग अलग दिशा में,
भूमि में गाड़ दिया जाता है!
अगले ही क्षण,
रक्त की बौछार करती वो सर्प कन्या मेरे समक्ष प्रकट हुई!
वो प्रकट हुई,
और इधर,
रूपकुलिका का रूप बदला!
गहरे पीले रंग की हो गयी वो!
उसको रूप परिवर्तित करते देख,
वो वहां से लोप हुई!
भाग गयी!
ये वार भी झेल गया मैं!
रूपकुलिका भी लोप हुई!
और कर्ण-पिशाचिनी का अट्ठहास गूंजा!
मैंने और मदिरा पी!
और खड़े हो,
अट्ठहास किया!
वहां!
बाबा जागड़!
तनिक भी नहीं घबराया!
वो हंसा!
दहाड़ा!
जैसे उसने मुझे अभी तक,
मात्र जांचा हो!
मेरी द्वन्द-विद्या ही देखी हो!
अब वो कटा सर कुछ बोला,
बाबा जांगड़े ने,
उसको उठाया,
और चूम लिया!
कटा सर चिल्ला उठा!
झूम उठा हो जैसे!
जैसे कोई कुंजी,
मिल गयी हो उसे!
जैसे अगला वार,
मेरी इहलीला के रूप में ही आएगा!
मैं भी तैयार था यहाँ!
"औघड़! बहुत खेल हुआ!" वो बोला,
मैं हंसा!
और अट्ठहास किया!
"तुझे आज जीवित नहीं छोड़ूंगा मैं!" वो दहाड़ा!
और वो कटा सर!
वो भी हंसने लगा!
मैं नहीं हंसा अब!
अब मुझे प्रतीक्षा थी उसके अगले आह्वान की!
और अब कि बार!
उसने जो आह्वान किया!
वो मैंने न कभी सुना!
न देखा!
न पढ़ा!
न जाना!
औङ्ङिल्ल्या!
ये क्या है?
कौन है?
वाचाल के स्वर थे वो!
कर्ण-पिशाचिनी न जाने,
क्या क्या बकने लगी!
अब मुसीबत थी!
बहुत बड़ी मुसीबत!
औङ्ङिल्ल्या!
ये मेरे लिए एक नया ही रूप था!
मैंने कभी नहीं देखा था,
कभी नहीं पढ़ा था,
और तो और,
कभी सुना भी नहीं था किसी के मुख से!
मैं भौंचक्का था!
अब तो मृत्यु समक्ष थी!
एक पल में ही,
मुझे सब याद आ गए!
दृश्य दिख गया कि,
मैं नीचे पड़ा हूँ,
और वो बाबा जागड़,
खड़ा है अपना पाँव रखे मेरे सीने पर!
और तभी!
तभी वाचाल के शब्द गूंजे!
पकड़ लाया था वो एक सूत्र!
रिक्तिक्षा!
अच्छा!
अब समझा!
ये थी रिक्तिक्षा!
ये औङ्ङिल्ल्या भी इसका ही पर्यायवाची ही होगा!
अब समझ में आ गया!
मैं झट से कूदा अपने आसन पर!
और इस औङ्ङिल्ल्या की काट के लिए,
फ़ौरन ही,
तेमेक्षा का संधान किया!
जैसे जैसे संधान किया,
मेरे त्रिशूल का फाल,
दहकने लगा!
ये तेमेक्षा भी असम की एक विद्या है!
ये भी सर्प से ही सम्बंधित है!
बाबा जागड़,
सभी अपनी विद्याएँ और आह्वान इन्ही सर्पों से सम्बंधित,
ही कर रहा था!
ये कमाल था!
ये पहला औघड़ देखा था मैंने जो,
सर्प-विद्या में इतना निपुण था!
प्रतीत होता था कि,
जैसे स्वयं उसको ये घातक विद्याएँ,
नागराज वासुकि ने सिखाई हों!
या तक्षक से मित्रता हो इस,
बाबा जागड़ की!
