मुझे भी रोका,
"कहाँ जा रहा है?" उसने पूछा,
"तेरे सपेरे के पास!" मैंने कहा,
"रुक जा! रुक जा! नहीं तो यही मार दिया जाएगा!" उसने धमकी दी मुझे!
"अच्छा? मार के दिखा!" मैंने कहा,
और चल पड़ा सीधा उस बड़े बाबा की ओर!
और दूसरे बाबा ने,
आवाज़ लगाई अपने साथियों को!
सभी साले अर्रा के पड़े और आ गए मेरे पास!
"रुक जा?" वो बाबा बोला,
मैं रुक गया!
सभी मुझे ही घूर रहे थे,
तब तक, ये शोर-शराबा सुन,
हमारे साथी भी आ गए थे वहाँ,
शर्मा जी दौड़ के मेरे पास आये,
"क्या हुआ?" उन्होंने पूछा,
"मैं जा रहा हूँ उस सपेरे से मिलने, और ये रोक रहे हैं मुझे!" मैंने कहा,
अब शर्मा जी ने बहुत समझाया उनको,
लेकिन कुत्ते की औलाद,
कोई न समझा!
कोई भी हराम का जना नहीं!
सपेरा यहां था नहीं!
एक जी तो किया कि,
अभी तातार को हाज़िर करूँ,
और इन सबका खोड़पा फ़ुड़वा दूँ!
भेजा बिखेर दूँ सालों का यहीं,
इस ज़मीन पर!
हड्डियां बिखरवा दूँ और आंतें यहीं पेड़ों पर लटकवा दूँ!
यही करता वो तातार!
छाती इनकी दबा के फोड़ देता!
और निकाल डेरा इनका सारा मलीदा और कोपच बाहर!
पर रुक गया मैं!
सही नहीं था ये!
गोली-बारी हो जाती वहाँ!
फावड़े और कुदाल तो ले ही आये थे ये सभी!
"मुझे मिलने दे बाबा!" मैंने कहा,
"अब निकल जा यहां से!" वो बोला,
और तभी वो बड़ा बाबा आ गया वहां!
धीरे धीरे चलता हुआ!
व्याघ्र-चर्म धारण किये हुए!
वाह!
क्या रूप बनाया था उसने!
ये कापालिक अपने आपको,
उन्ही का रूप मानते हैं!
वैसे ही रहा करते हैं!
और वैसा ही व्यवहार!
सभी हट गए वहाँ से!
रहा गए मैं और शर्मा जी!
मेरे कंधे पर हाथ रखा उसने!
"मिल लिया?" वो बोला,
"हाँ" मैंने कहा,
"तो जा अब" वो बोला,
"जा रहा हूँ, लेकिन मैं चाहता हूँ कि मेरी बात सुनी जाए" मैंने कहा,
"कह?" वो बोला,
"इस गोपी को हमारे साथ भेज दो" मैंने कहा,
"अच्छा! क्या होगा?" उसने पूछा,
"ठीक कर लेंगे उसको हम" मैंने कहा,
वो हंसा!
"कौन कर लेगा?" उसने पूछा,
"मैं" मैंने कहा,
"अच्छा!" वो बोला,
अब उसने एक संवाद-सूक्त पढ़ा!
मैंने उसका उत्तर दे दिया!
उसकी तो जैसे जटायें हिल गयीं!
यक़ीन ही नहीं हुआ उसे!
उसने फिर से एक सूक्त पढ़ा!
मैंने फिर से पूर्ण कर दिया!
उसने फिर से वृहद-सूक्त पढ़ा!
मैंने फिर से पूर्ण कर दिया!
"किसका छेवन है तू?" उसने पूछा,
मैं हंसा!
वो चौंका!
और बता दिया!
छेवन, छेवन मायने तरकश!
"भेज दो उस आदमी को!" वो बोला,
सभी चौंके!
ये क्या?
क्या कह रहा है ये बाबा?
बाबा जागड़?
और भेज रहा है?
ऐसा कैसे सम्भव है!
"लाओ उसे" वो बोला,
वो बाबा भागा!
और कोई पांच मिनट में,
गोपी को ले आया वो!
गोपी हमको,
बड़ी अनजान निगाहों से देखे!
"यही है न?" उस सपेरे ने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"जा! ले जा!" मैंने कहा,
अब मैंने शेखर बाबा को देखा!
वे तो खुश थे!
बहुत खुश!
लेकिन मैं जानता था!
जानता था कि ये भी,
एक षड्यंत्र है इस बाबा जागड़ का!
"भूप क्या देगा?" उसने अब मुझसे पूछा!
और ये पूछते ही,
बाबा शेखर का चेहरा मुरझाया,
मैं जान गया था!
यदि मैं उसको भूप दूंगा,
तो मैं खाली हुआ समझो!
"कुछ नहीं!" मैंने कहा,
वो हंसा!
बहुत तेज!
अपने सांप को पुचकारा,
और सामने थूक दिया!
"चल निकल जा यहां से!" वो बोला,
अब उसके आदमियों में आया जोश!
कम से कम बीस थे वो!
और हम ग्यारह,
बाबा शेखर बुज़ुर्ग थे!
तो हम आधे थे उनके!
अब उन्होंने, हमे हमारे बालों से पकड़ा,
और खदेड़ने लगे बाहर!
मित्रगण!
अपमान तो हुआ था!
बहुत अपमान!
मुझे गुस्सा आया,
और मैंने जो मेरे बाल पकड़ कर चल रहा था,
उसको खींचा,
और एक दिया कसकर उसके गाल पर!
एक में ही उसके गाल से खून छलक आया!
बस!
फिर क्या था!
हो गयी घूसमपट्टी!
मैंने तभी इबु का शाही रुक्का पढ़ा!
और मेरे कहने, उद्देश्य जानने से पहले ही,
इबु टूट पड़ा!
बिछा दिए उसने!
एक एक को हवा में उछाला!
अब मची चीख-पुकार!
केवल बाबा ही तो रोक सकता था उसे!
ये टटपूंजिये नहीं!
हड्डियां चटका दीं सभी की!
ऐसा मारा कि उस गीली मिट्टी में,
गड्ढे बना दिए!
हमारे साथी,
सभी चौंक पड़े!
वो जो बाबा था, जो अभी तक आदेश दे रहा था,
साला दूर पड़ा कराह रहा था!
वो बीस के बीस,
धूल चाट रहे थे!
अब मैं मुड़ा पीछे!
और चिल्लाया!
आवाज़ दी उस सपेरे को!
सपेरा कमरे से बाहर आया!
और सब समझ गया!
अपने आदमी उसने देखे इधर उधर गिरे हुए!
सब समझ गया कि कोई,
जिन्नाती कहर है ये!
"अब तू आएगा इसको लेकर! वो भी अपने आप!" मैंने चिल्ला के बोला,
सपेरा सन्न!
आँखें फाड़,
देखता रहा!
और इबु लोप हुआ!
और अब हम निकले वहाँ से!
बाहर आये!
और सरपट दौड़े!
वो और आदमी भेजता तो,
गड़बड़ हो जाती!
या तो हम में से,
या उनमे से कोई न कोई मारा ही जाता!
हम दौड़े,
और आ गए बाहर,
यहाँ से एक ट्रक में बैठ गए,
निकलना तो था ही,
ट्रक वाले को मुंह-मांगे दाम चुकाए,
और सीधा वहाँ से अपनी,
उस धर्मशाला में आ गए!
अब किया आराम यहां!
और आज ही निकलना था वहाँ से!
अब हुई शाम,
और आज नहीं लगी हुड़क!
अब तो बस यही था कि यहां से निकलें बस!
किसी तरह,
बारिश में भीगते-भागते,
हम पहुँच गए,
वहाँ, अब बस ली वहाँ से,
बस में सभी ऊँघ रहे थे,
बाहर घुप्प अँधेरा सा था, कोई नहीं दीख रहा था,
ऊपर से वो बरसात,
न तेज और न धीरे,
लेकिन फुरफुरी ऐसी चढ़े,
कि जैसे किसी बिच्छू ने,
पाँव में चुम्मी ले ली हो!
खैर, हम पहुंचे यहां से स्टेशन,
नाम भी ऐसा कि एक बार सुन लो या पढ़ लो,
तो याद ही न रहे!
दौतुहजा!
कैसा अजीब सा नाम था!
खैर,
हम पहुँच गए वहां,
तभी मेरी नज़र वहाँ के,
कुछ शराबी दोस्तों पर पड़ी!
सभी प्रेमी थे यहां तो मदिरा के!
मैंने एक को पकड़ा,
उसे हिंदी नहीं आती थी,
उसकी प्लास्टिक की शीशी पर हाथ रख कर पूछा,
तो समझ गया,
और बता दिया खोखा,
मैं चला उधर,
शर्मा जी के साथ,
और चार शीशी ले लीं!
कमांडर लिखा था उन पर!
चलो आज कमांडर ही बन जाएँ!
अब मैंने ली,
तो और भी संगी-साथी आ गए,
वहां औरत बैठी थी एक,
उसी ने दीं वो बोतलें!
बैठने की जगह भी थी वहां,
लेकिन अंदर का माहौल कुछ ऐसा था,
जैसा अक्सर फिल्मों में होता है,
अंदर लड़कियां भी थीं,
कहीं कोई अकराव-टकराव न हो जाए,
इसीलिए हमने तो वहाँ से कन्नी काट ली!
हाँ, उस औरत से कुछ ले लिया था साथ में,
खाने के लिए,
पानी की थैलियां और गिलास भी,
गिलास ऐसे थे कि जैसे चाय के गिलास!
लेकिन काम तो चलाना ही था!
भूमि-भोग देकर,
हमने पहला गिलास चढ़ाया,
ओह हो!!!
गले से ऐसे गयी चीरती हुई पेट तक,
कि जैसे तलवार घुसेड़ दी हो!
जैसा नाम था मदिरा का,
वैसा ही काम!
कमांडर!
किसी तरह से पहली शीशी खत्म की!
मुंह बकबका हो गया!
लेकिन फुरफुरी बंद हो गयी!
हमारे संगी साथी भी,
उस टूटी टीन के नीचे,
महफ़िल जमाये बैठे रहे!
मैं और पानी लेने गया,
ले आया,
और साथ में मछली के टुकड़े भी,
वही था वहां,
और कुछ छोटे छोटे झींगे थे,
साले बाहर तक बास मार रहे थे!
मैंने तो मछली ही ली!
टुकड़ा ऐसा,
कि एक बार में ही खत्म हो जाए!
कागज़ में रख कर,
ऊपर से चटनी की एक चम्मच डालकर,
दिया जा रहा था!
कर ली सारी पेट के अंदर!
अब आँखें खुलीं हमारी!
सफर बहुत लम्बा था यहां से!
तभी और हुड़क लगी!
टक्कर नहीं लगी थी अभी!
मैं दो और ले आया,
इस बार कोई और मिली,
मनिया नाम था उसका,
वही ली!
और लगी फिर टक्कर!
अब आया मजा!
और फिर चले हम स्टेशन के लिए!
सारिणी देखी,
गाड़ियां लेट थीं,
मुख्य शहर के लिए एक पैसेंजर आनी थी,
उसी का इंतज़ार किया!
अब वहां जो मिला रूखा-सूखा,
खा लिया!
रात दस बजे,
तो गाड़ी आई,
हम घुसे उसमे!
और जाकर लेट गए!
जिसको जहां जगह मिली,
वहीँ टिक गया!
और सो गया!
मैं भी सो गया!
नींद खुली कोई पांच बजे!
गाड़ी तभी पहुंची थी,
लगता था, रात को,
गाड़ी ने बहुत लम्बा विश्राम किया था कहीं!
खैर,
पहुंचे वहां!
और अब ली गाड़ी अपने स्थान के लिए,
पहले असम आये, और फिर वहाँ से काशी!
चार दिन में पहुंचे!
कमर धनुष हो गयी थी!
टांगें,
गालियां दे रही थीं!
पेट गुस्सा हो कर बैठा था,
पेट में,
अंट-शंट खा कर,
गुरड़-गुरड़ की आवाज़ें आ रही थीं!
पूरे दो दिन लगे सीधे होने में!
दो दिन के बाद,
मैं पहुंचा बाबा शेखर के पास,
अब आगे की रणनीति बनानी थी,
अभी तक,
कोई भी देख,
पूख,
सर्री,
नहीं लड़ी थी!
अर्थात,
बाबा जागड़,
हमारा ही इंतज़ार कर रहा था!
और सच में,
हमे ही कुछ करना था!
तभी बात बनती!
और बात आगे बढ़ती!
अब मैंने सलाह-मशविरा की,
मैं बाबा शेखर को लेकर,
श्री श्री श्री महाबल नाथ जी के पास आया,
उनको मालूम तो था ही,
तो उन्होंने एक सलाह दी,
कि उस बाबा जागड़ को उसके स्थान से ही चुनौती दी जाए,
अर्थात,
बाबा जागड़ को बताया जाए!
और उसके लिए,
उस बाबा जागड़ के पास कुछ खेल दिखाना था!
ताकि वो स्वीकार करे!
एक प्रकार की तांत्रिक-सन्देश-वाहिका!
और यही किया!
ये काम मैंने श्री श्री श्री महाबल नाथ जी से ही,
करने को कहा,
उन्होंने, ठीक, चार दिन बाद,
सन्देश भेजने के लिए,
अपनी क्रिया में बैठ गए!
मैं भी साथ था,
और बाबा शेखर भी!
वहां जागड़ का जाल था!
वो प्रबल औघड़ था!
क़ाबिल कापालिक था!
और तभी श्री श्री श्री महाबल नाथ जी ने!
दे दिया सन्देश!
भूमि पर एक चिन्ह बनाया,
उस पर,
कपाल रखा!
कपाल के सर पर,
मांस का टुकड़ा,
और रक्त के छींटे दिए!
और दी हाथ से भूमि पर थाप!
कपाल हवा में उछला!
और नीचे गिरा!
टुकड़ा गायब!
और बाबा जागड़ के समक्ष,
असंख्य टुकड़े जा पड़े!
ये चेतावनी थी!
अब उसने उत्तर देना था!
नहीं दिया उस दिन!
रात्रि एक बजे तक भी नहीं!
और फिर,
तीन दिन और बीत गए!
कोई उत्तर नहीं!
और ठीक,
चौथी रात.........
और फिर चौथी रात!
चौथी रात जैसे पोथी-पत्रा आ गया उसका!
उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया था!
वो तैयार था किसी भी द्वन्द के लिए!
मुझे ये बात सुबह पता चली,
जब बिन्दो ने मुझे ये बताया की मुझे,
श्री श्री श्री महाबल नाथ जी ने बुलाया है,
मैं तो दौड़ कर गया वहाँ!
मैं गया,
उनके पाँव छुए,
और फिर उन्होंने मुझे बताया कि,
बाबा जागड़ तैयार है!
हाँ, जिस प्रकार उसने संदेशा भेजा है,
वो बहुत ही निपुण और कुशल औघड़ का परिचायक है!
ये विधा प्राचीन है,
और ये बाबा जागड़ बहुत कुशल है,
इसको हलके में नहीं लिया जा सकता!
अब तिथि निर्धारण होना है,
दोनों ने अपने स्थान का परिचय भी देना है,
और ऐसा होते ही वे मुझे सूचित कर देंगे,
एक बात और समझ में आई,
ये बाबा जागड़, सच में ही कुशल औघड़ था!
इसको इतना सरल नहीं माना जा सकता था,
अन्यथा वो अवसर मिलते ही,
वार करता और फिर द्वन्द तो ख़त्म ही,
सब कुछ ख़त्म!
श्री श्री श्री महाबल नाथ ने मुझे चेता दिया था,
अब, मुझे उन्ही के मार्गदर्शन में, ऐसी ही,
कुछ तैयारियां करनी थीं,
जिस से उसका मुक़ाबला किया जा सके!
बाबा शेखर,
लगातार वहाँ आ जा रहे थे,
हरसम्भव मदद करने के लिए तैयार थे,
मैं उनको लगातार हिम्मत बंधा रहा था!
और फिर मुझे हिदायत दी गयी,
और कुछ क्रियाएँ करने को कहा गया,
मैं लगा रहा उनमे!
एक एक करके सभी क्रियाएँ सम्पूर्ण करता रहा!
चार दिन और बीते,
और फिर से मुझे बुलावा आया उन्ही का,
मैं फिर से गया,
और ये पता चला कि,
बाबा जागड़ द्वन्द के लिए,
काशी से कोई पचास किलोमीटर दूर,
आ चुका है!
खबर लग चुकी है!
और उसके संग वो गोपी भी है!
अब ये आन की लड़ाई होने वाली थी,
बाबा जागड़,
खुद आ गया था यहां!
उस गोपी को लेकर!
अर्थात, उसको कोई भी डर नहीं था!
और यही एक प्रबल औघड़ की पहचान थी!
मामला बेहद खतरनाक था!
एक एक क़दम संभाल कर रखना था!
मुझे श्री श्री श्री महाबल नाथ जी ने,
ये और बताया था कि,
ये बाबा जागड़,
ज्वाल-विद्या का परम ज्ञाता था!
उसके बारे में यहां तो कोई जानता ही नहीं था,
हाँ, असम और नेपाल में उसके क़िस्से,
अघोर जगत में बिखरे पड़े थे!
इस बाबा जागड़ ने, अपने चौदह गुरुओं से,
एक साथ ही शिक्षा ली थी!
ये सर्प-विद्या में माहिर था,
मणिपुर में ही उसको,
कुछ विशेष शक्तियां प्राप्त हुईं थीं,
इसी कारण से ये बाबा जागड़,
अब स्थायी रूप से वहाँ रहा करता था!
उसके वार अचूक थे!
विद्या अमोघ थीं!
मणिपुर ऐसी नाग शक्तियों का गढ़ है!
ये बात सभी को मालूम है!
मणिपुर का नाम भी ऐसी ही एक,
विलक्षण सर्प-मणि के नाम पर ही रखा गया है!
मित्रगण!
अब देर थी तो बस,
उसकी तिथि निर्धारण की!
अब वो संदेशा भेजे,
और कब ये द्वन्द आरम्भ हो!
गोपी अभी भी उसी के साथ था,
ये तो ज्ञात है, कि सपेरे ऐसे किसी व्यक्ति को जब,
जीवित कर लेते हैं, तो उसे,
वापिस नहीं जाने देते,
यदि उनकी इच्छा हो तो,
ऐसा सम्भव है!
और यहां!
यहां तो एक प्रबल बाबा आगे खड़ा था!
जिसने आज तक कभी भी,
पराजय का मुंह न देखा था!
इसीलिए वो यहां तक,
स्वयं चल कर आया था!
जिस जगह वो आया था, वो,
जगह भी अत्यंत प्रभावी थी!
यहां, उस बाबा जागड़ के कोई जानकार थे!
भयानक और खतरनाक!
नरबलि को तैयार!
ऐसे औघड़ लोग!
जागड़ ने अभी तक ऐसी कोई बात नहीं की थी,
कि, जिस से उसकी कमी के बारे में कुछ पता चले!
हर क़दम वो,
फूंक फूंक के जांच रहा था!
और तब वो पाँव रखता!
चुनौती हमने दी थी,
तो तैयार भी हम ही ने रहना था!
दो दिन और बीत गए!
और मध्य-रात्रि कोई दो बजे,
उसका तिथि का संदेशा भी आ गया!
ये उस दिन से ग्यारह दिन बाद की तिथि थी!
ये चौदस की तिथि थी!
चौदस को,
सर्प-मोचनी विद्या विशेष रूप से प्रभावी रहती है!
वो अपनी इस सर्प-विद्या पर बहुत ऐतबार करता था,
ये पता चल रहा था!
अब मुझे,
इन ग्यारह दिनों में,
नौ विशेष विद्याएँ सम्पूर्ण करनी थीं!
इनमे से सबसे विशेष थी,
उलूक-विद्या!
ये विद्या ही,
उसकी उस सर्प-विद्या की काट थी!
उलूक और सर्प,
एक दूसरे के,
नैसर्गिक शत्रु हैं!
इसके लिए मुझे,
एक सुनहरे उलूक की आवश्यकता थी,
और ये कार्य किया बाबा शेखर ने,
उन्होंने एक नर उलूक पकड़ लिया,
और मेरे यहाँ ले आये,
उस उलूक को को अब,
एक स्थान में रख कर,
उसको देव मान,
उसका पूजन करना आरम्भ किया!
न तो इस उलूक को,
बाँधा जा सकता है, न ही,
पिंजरे में रखा जा सकता है,
इसको एक कक्ष में,
इसके भोग आदि रखकर,
इसका पूजन किया जाता है,
मित्रगण!
कप्लाव-उलूक विद्या से यदि ये पोषित हो जाए,
तो मानव स्वर में वार्तालाप किया करता है!
इसी कारण से तंत्र में इस उलूक का एक विशेष महत्त्व है!
अब यही किया,
सारी क्रियाएँ निबटायीं,
और उस उलूक का पूजन भी चलता रहा!
चार दिन बीत गए!
और फिर,
अब दो क्लिष्ट क्रियाएँ करवायीं उन्होंने!
ये अत्यंत क्लिष्ट और पीड़ा-दायक थीं!
करनी पड़ीं!
अन्य कोई विकल्प शेष नहीं था!
दो दिन के बाद,
श्री श्री श्री महाबल नाथ जी आये,
उस समय मैं, क्रिया-स्थल में था,
उन्होंने मुझ कुछ दुर्लभ ज्ञान दिया,
कुछ यंत्रों का ज्ञान,
इन यंत्रों से भूमि-पाश और शून्य-पाश आदि को,
सृजित किया जा सकता था!
