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वर्ष २०१२ काशी की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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कोई सिरा नहीं मिला था,
जहां से पकड़ा जाए,
और आगे बढ़ें,
कुछ नहीं!
"कौन है ये बाबा जागड़?" उन्होंने पूछा,
"मुझे पता चला है" मैंने कहा,
"कौन है?" उन्होंने पूछा,
"मुझे भी नहीं पता" मैंने कहा,
"अब क्या किया जाए?" उन्होंने पूछा,
"मालूम किया जाए" मैंने कहा,
"किस से?" उन्होंने पूछा,
"यही सोच रहा हूँ मैं" मैंने कहा,
"कोई जानकार है आपका?" उन्होंने पूछा,
"असम में है, बात करता हूँ" मैंने कहा,
"शीघ्र कीजिये, अब रहा नहीं जाता" वे बोले,
"जानता हूँ" मैंने कहा,
और फिर वे चले गए,
एक सत्तर वर्षीय वृद्ध,
परेशान था अपने पुत्र के लिए,
उसकी पीड़ा, मैं समझ सकता था,
दो दिन बीते,
मैं उधेड़बुन में लगा रहा,
कोई हल नहीं निकला,
आखिर मैंने अपने एक जानकार,
बाबा काली से संपर्क साधा,
वे असम में ही थे,
और स्थान से अधिक दूर नहीं थे,
मैंने उनसे गुजारिश की,
उन्होंने मुझे आश्वासन दिया,
और अपने दो साथी,
रवाना कर दिए,
उस बाबा जागड़ की खोज में!
हफ्ता बीत गया,
और यहां बाबा शेखर के,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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रोज ही फ़ोन आते,
लेकिन अभी तक,
बाबा काली की तरफ से कोई खबर नहीं आई,
ठीक नौवें दिन,
बाबा काली का फ़ोन आया,
खबर मिली!
आखिर खबर मिली!
तमेंगलौंग के बीहड़ जंगल में,
एक स्थान था,
चौबटा का डेरा!
ये डेरा इसी बाबा जागड़ का था!
लेकिन वो दोनों साथी,
डेरे तक नहीं पहुँच सके थे,
उनको बताया गया था कि,
यदि बाबा जागड़ को कुछ पसंद नहीं आया,
तो वो उन दोनों को कटवा कर,
वहीँ किसी नदी में फिंकवा देगा!
हाँ,
जानकारी जितनी जुटा सकते थे,
जुटा ली थी!
ये बाबा जागड़,
साठ साल का महा-प्रबल बाबा था!
कापालिक बाबा!
अपनी मर्ज़ी का मालिक!
अथाह शक्तियां थीं उसके पास!
कोई उसके सामने खड़ा नहीं हो सकता था!
उसकी शक्तियां प्रबल थीं!
वो कई शक्तियों का स्वामी था!
और सबसे बड़ी शक्ति उसके पास,
सर्प-शक्ति थी!
वो पारंगत था इसमें!
लेकिन अब एक बात खटक रही थी मन में,
कि ये गोपी कैसे पहुँच गया वहाँ?
कहाँ काशी और कहाँ ये मणिपुर?


   
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श्रीशः उपदंडक
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ऐसा कैसे हुआ?
अब ये कैसे पता चले?
अब ये तो केवल,
स्वयं गोपी या,
स्वयं बाबा जागड़ ही बता सकता था!
जागड़ तक पहुंचना बहुत ज़रूरी था!
खबर पक्की थी!
और अब!
यहां से रवाना होना था!
मैंने बाबा शेखर से बात की,
उन्होंने योजना बनायी,
हम कुल ग्यारह आदमी थे,
जो अब वहाँ जा रहे थे,
इसमें बाबा शेखर के दो भाई,
उनका एक भतीजा,
बाबा रूपदेव के दोनों पुत्र,
बाबा रूपदेव के ये बाबा शेखर,
साले साहब लगते थे,
और अन्य कुछ और लोग,
एक दिन निर्धारित हुआ,
और हम काशी से रवाना हो गए!
उन दिनों मौसम साफ नहीं था,
अतः कंबल आदि ले लिए गए थे,
तीन दिन की,
थकाऊ और,
देह-तोडू यात्रा करने के बाद,
हम तमेंगलौंग पहुँच गए,
यहां एक धर्मशाला में ठहरे,
उस रात और उस दिन,
बस आराम किया,
भोजन किया,
और सो गए,
उसके बाद,
अब जांच-पड़ताल की,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और उस चौबटा तक जाने के लिए,
लोगों से पूछा,
कई लोगों ने बताया,
और आखिर हम बस पकड़ कर,
वहाँ के लिए चल दिए,
बहुत दूर था ये स्थान,
न आदमी और न ही,
आदमी की जात!
बस जंगल ही जंगल!
पहाड़ी लोग,
और उनकी रंग-बिरंगी पोशाकें!
हमे घूरते,
तो सभी एक साथ घूरते लगते!
जैसे हम न जाने कहाँ से आ गए हैं!
इस देश के नहीं हैं!
भला ये था,
कि कुछ लोगों ने साधुओं जैसे,
आभूषण पहने थे,
वस्त्र भी,
और मालाएं भी,
इसी कारण से,
कुछ दया सी हुई उनकी!
नहीं तो लगता था,
कि बस से उठाकर बाहर फेंक देंगे!
कुछ पर्यटन-क्षेत्र था वहाँ,
बस यहीं रौनक सी थी,
नहीं तो निर्जन स्थान था!
जंगल ही जंगल!
जंगली पेड़,
जंगली पौधे!
तभी बस वाले एक लड़के ने,
हाथ के इशारे से बाहर का रास्ता दिखाया,
यहां कुछ मंदिर से बने थे,
यहीं आना था हमे,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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उतर गए सभी के सभी,
बस हम ही थे वहाँ!
और कोई नहीं!
लगता था कि,
उस बस वाले लड़के ने उपहास उड़ा दिया हमारा!
खैर, हम आगे बढ़े!

तो अब हम जहां उतरे थे,
वहाँ कोई नहीं था!
हाँ, पास में, थोड़ी दूर ही,
कुछ मंदिर से बने थे,
देखने में तो मंदिर ही लगते थे,
पता करने पर ही पता चलता,
असलियत का!
हम वहीँ की तरफ बढ़ चले,
वहाँ गए तो,
वहाँ पर मोटे मोटे पहाड़ी कुत्ते बैठे थे,
सभी खतरनाक!
और सभी भौंक पड़े हमारे ऊपर!
काटा तो किसी को नहीं,
लेकिन हमे वहीँ खड़े रहने को,
विवश कर दिया,
तभी एक पहाड़ी युवक आया,
उसने हमे देखा,
फिर उन कुत्तों को,
और फिर उसने वो सभी कुत्ते,
खदेड़ दिए वहाँ से,
जान में जान आई!
कुत्ते ऐसे खतरनाक की अगर भिड़ जाएँ,
तो ऐसे भँभोड़ दें कि जैसे कोई कुत्ता किसी,
बिल्ली को भँभोड़ता है!
अब बाबा शेखर ने उस युवक से बात की,
वो हिंदी जानता था, भले ही रा को री बोल रहा था,
लेकिन समझ में आ रहा था,
तब बाबा शेखर ने उस से उस बाबा जागड़ के विषय में पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने थोड़ा दिमाग पर ज़ोर लगाया,
और फिर बाबा शेखर को,
अपने संग ले गया,
शायद अंदर कोई था,
जो जानता हो बाबा जागड़ को,
कोई दस-पंद्रह मिनट बीते,
बाबा शेखर बाहर आये,
साथ ही वो युवक भी,
उस युवक से नमस्कार की उन्होंने,
मेरे पास आये वो अब,
"पता चला?" मैंने पूछा,
"हाँ, यहां से कोई बीस-पच्चीस किलोमीटर दूर है" वे बोले,
हवा खराब हो गयी!
"अब?" मैंने पूछा,
"अब बस आएगी, उसमे चलते हैं" वे बोले,
बस!
फिर क्या था,
अब किया इंतज़ार!
और कर भी क्या सकते थे!
करीब दो घंटे में बस आई एक,
बस खाली थी,
हम बैठ गए उसमे,
और चल पड़े,
कोई एक घंटे के बाद,
हम पहुंचे एक जगह,
ये जगह आबादी वाली सी लग रही थी,
कोई क़स्बा था ये,
लेकिन भाषा नहीं समझ आ रही थी!
किसी से पूछते तो,
हाथ खड़े कर देता था,
बड़ी समस्या हुई!
तभी एक महिला से मदद मिली,
वो हिंदी जानती थी,
उसने मदद की,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और अब हमे वहाँ से करीब दो किलोमीटर अंदर जाना था,
एक रास्ता जाता था वहाँ से,
यही वो रास्ता था,
अब हम चल पड़े!
रास्ता ऐसा की कोई मार के डाल दे,
तो महीने दो महीने में ही किसी को खबर पता चले!
ऐसा सुनसान रास्ता था वो!
झाड़-झंखाड़,
उस रास्ते पर ही आ गयी थी!
उनको लांघते, कूदते आगे बढ़े हम!
और फिर सामने, एक भवन सा बना दिखा!
बड़ा सा!
ये एक मंदिर था, स्तूप के जैसा,
अभी ईंटें ही थीं,
शायद काम चल रहा था,
जगह बहुत बड़ी थी वो!
अचानक से ही मौसम बदला,
और बारिश होने का सा आभास हुआ,
छोटी छोटी बौछारें,
अब गिरने लगी थीं!
हम जल्दी से उस जगह के लिए भागे,
और वहां एक बड़ी सी परछत्ती के नीचे,
जा खड़े हुए,
धुंध सी छा गयी थी!
यहां ऐसा ही मौसम रहता है,
कब बारिश हो जाए,
कुछ पता नहीं!
वही हुआ था,
अब बाबा शेखर ने उस जगह के बड़े से फाटक पर,
आवाज़ लगाई,
कोई नहीं आया,
बारिश अब तेज थी,
उस परछत्ती के नीचे,
खड़े खड़े अब मेरे कंधे गीले होने लगे थे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कई लोगों ने,
कपडा ओढ़ लिया था,
और फिर बारिश तेज हो गयी!
फाटक नहीं खुला,
और हम भीगते ही खड़े रहे!
फुरफुरी छूट गयी!
तभी एक जीप आ कर रुकी वहाँ,
उसमे से दो आदमी उतरे,
ये पहाड़ी नहीं थे,
उन्होंने हमे देखा,
हमने उन्हें,
अब बाबा शेखर ने सारी बात बतायी,
उस हरामज़ादे ने झिड़क दिया बाबा शेखर को,
तब शर्मा जी ने बात की,
और यही कहा कि,
एक बार बाबा जागड़ से बात हो जाए तो कोई बात नहीं,
उसके बाद हम चले ही जाएंगे!
दूसरे आदमी ने बात मान ली,
और फाटक खोल दिया उसने,
अब हम अंदर चले,
अब बचे बारिश से!
अंदर तो,
जैसे पूरा मोहल्ला ही बसा था!
पक्के कमरे बने थे,
मवेशी पाले हुए थे,
जैसे कि कोई,
गौशाला!
हरा-भरा चारा बंधा हुआ पड़ा था,
सीमेंट की तीन रखी थीं वहां,
खपरैल भी बहुत थीं वहाँ,
उस आदमी ने,
हमे एक चौपाल जैसी जगह पर बिठाया,
न बोरा, न कट्टा, न चारपाई, न कुछ,
बस ईंटों पर ही बैठ जाओ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कोई नहीं बैठा,
सब खड़े ही रहे,
तभी एक बाबा सा व्यक्ति आया,
बाबा शेखर ने बात की उस से,
उसने हमे संदेह की नज़र से घूरा,
"कहाँ से आये हो?" उसने पूछा,
"काशी से" बाबा ने उत्तर दिया,
"किसलिए आये हो?" उसने पूछा,
अब शेखर बाबा ने मुझे देखा,
मैं आगे बढ़ा,
"गोपी, गोपी को ले जाने आये हैं" मैंने कहा,
"कौन गोपी?" वो बोला,
"इनका पुत्र" मैंने कहा,
"वो यहां क्यों होगा?" उसने पूछा,
"आप बाबा जागड़ से मिलवाओ, फिर बताता हूँ" मैंने कहा,
उसने तो नाप लिया मुझे!
ऊपर नीचे,
दायें बाएं!
"तुम्हे किसने बताया ये?" उसने पूछा,
"मैं जान गया था" मैंने कहा,
"कैसे?" उसने पूछा,
"अपनी विद्या से" मैंने कहा,
"यहां कोई विद्या नहीं चलती" वो बोला,
"आप बाबा से मिलवाओ तो सही?" मैंने कहा,
"जाओ वापिस" वो बोला,
अब गुस्सा तो इतना आया,
कि साले के गर्दन पर एक हाथ मारूं,
और खींच के ले जाऊं बाहर!
फुटबॉल बना दूँ साले की!
"एक बार मिलवा तो दो?" मैंने कहा,
"नहीं" वो बोला,
और जाने लगा,
तभी मैं भागा,
मुझे उन दोनों ने पकड़ लिया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और वो बाबा रुक गया!
"अब जाओ यहां से, नहीं तो कभी नहीं जाओगे!" वो बोला,
"सुनो बाबा! छोटी सी बात है, हम एक व्यक्ति को लेने आये हैं, जो काशी का रहने वाला है, और आपके यहीं है वो" मैंने कहा,
"कोई नहीं है यहां" वो बोला,
"हो सकता है, आपको न पता हो?" मैंने कहा,
"मुझे सब पता है" वो बोला,
"तो एक बार मिलने दो" मैंने कहा,
परदेस था!
इसीलिए रुक गए!
इतनी बात सह गए!
नहीं तो इस हरामज़ादे का वो हाल करते हम!
कि बाबा जागड़ ही संजीवनी चलाये, तो बात बने!
अब उसने कुछ सोचा!

उसने सोचा,
मुझे देखा,
और मेरा परिचय माँगा,
मैंने परिचय दिया,
"यहीं ठहरो" वो बोला,
और चला गया वहाँ से,
वो दोनों आदमी,
वहीँ खड़े रहे,
जैसे नज़र रख रहे हों हमारे ऊपर,
मामला संदिग्ध था यहां!
कोई दस मिनट बीते,
वही बाबा आया, इस बार छतरी लिए हाथों में,
"आओ, दो आदमी आओ" वो बोला,
चलो!
बात मान ली गयी थी!
अच्छा हुआ!
अब कुछ बात बने!
अब मैं और बाबा शेखर,
चले उसके साथ,
वो हमे गलियारे से होता हुआ,


   
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श्रीशः उपदंडक
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काफी दूर तक ले गया,
वहाँ पिंजरे पड़े थे,
एक दूसरे के ऊपर रखे हुए,
न जाने क्या करते थे ये इन पिंजरों का,
शायद शिकार आदि पकड़ते हों!
और तब,
एक जगह रुके हम,
जूते तो गीले थे ही हमारे,
मिट्टी लग कर,
निशान बन गए थे,
"जूते उतार लो" वो बोला,
हमने जूते उतार लिए,
"आओ" वो बोला,
और हम एक बड़े से कमरे में घुसे,
यहाँ भी पिंजरे थे,
और मेरी नज़र पड़ी उन पर,
उन पिंजरों में,
सांप भरे पड़े थे!
बड़े बड़े सांप!
जैसी केंचुली वो इबु लाया था,
अब समझा!
यहीं से लाया था वो केंचुलियाँ!
लेकिन ये सांप का करते क्या है?
पालते है?
या अन्य कुछ?
एक कमरा पार किया,
फिर दूसरा,
और फिर तीसरा!
"यहीं रुको" वो बोला,
हम रुक गए!
बड़ा अजीब सा माहौल था वहां!
जैसे कोई गुप्त प्रयोगशाला!
वो बाबा एक कमरे में घुस गया था,
बाहर आया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आओ" वो बोला,
और हम कमरे में घुसे,
सामने एक बाबा बैठा था!
लम्बा-चौड़ा!
एकदम श्री महाऔघड़ का रूप बना कर!
गले में सांप धारण कर रखा था!
असंख्य मालाएं धारण किये हुए!
त्रिशूल एक और गड़ा हुआ,
चिमटा सामने रखा हुआ,
दो बड़े कपाल रखे थे,
धूनी जल रही थी!
दीये जल रहे थे बड़े बड़े!
उसने अपनी आँखें खोलीं,
और हमे देखा,
वो बाबा जो संग आया था,
भूमि पर लेट गया!
"बाबा ये हैं वो लोग" वो बाबा बोला,
उस बाबा ने हमको देखा,
यहां तक कि,
उसके गले में धारण हुए सर्प ने भी हमे देखा!
फन चौड़ा कर के!
"किसलिए आये हो?" उसने पूछा अब!
"बाबा, आपके यहां पर एक व्यक्ति है गोपी" मैंने कहा,
"हाँ है!" वो बोला,
हम चौंके!
पहुँच गए सही ठिकाने पर!
"ये उसके पिता हैं" मैंने कहा,
उस बाबा ने शेखर बाबा को देखा अब,
"तो?" वो बोला,
"वो गोपी इनका पुत्र है, ये संग ले जाने आये हैं उसको!" मैंने कहा,
वो खड़ा हो गया!
जैसे गुस्सा आ गया हो उसे!
त्यौरियां चढ़ा लीं उसने!
फिर मुझे देखा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अब वो इनका पुत्र कहाँ?" वो बोला,
"मैं, समझा नहीं?" मैंने कहा,
"वो इनका पुत्र था, वो मर गया!" वो बोला,
ये क्या बात हुई?
पुत्र था?
मर गया?
तो यहां कौन है अब?
"मर गया?" मैंने पूछा,
"हाँ, मर गया" वो बोला,
"कैसे मर गया?" मैंने पूछा,
अब उस बाबा ने,
उस दूसरे बाबा को देखा,
वो आगे आया,
और हमे देखा, हमारी आँखों में झाँका!
"वो काशी का व्यक्ति था न?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"तीन महीने से गायब है न?" वो बोला,
"हाँ" मैंने कहा,
"देखो, बाबा जी और हम, गंगा-स्नान करने आये थे पूर्णिमा पर, और फिर जब हम अपने एक डेरे पर पहुंचे, तो हमे वहाँ नदी में बह कर आई एक लाश मिली, उसको खींचा गया, जब उसको देखा, तो कोई निशान नहीं था किसी चोट का, हाँ, उसकी पिंडली पर, एक निशान था, सांप काटे का, तो वो व्यक्ति, सांप के काटने से मर गया था, हमने उसको सात दिन गोबर में ढांप कर रखा, और मन्त्रों से, विद्याओं से उसको जीवित किया, अब वो जीवित है, यहीं है, परन्तु उसकी स्मृति लोप है!" वो बोला,
अब आई सारी बात समझ में!
कहाँ गया था वो!
कहाँ था अभी तक!
क्यों सम्पर्क नहीं किया!
सब समझ आ गया!
जो इस बाबा ने कहा,
वो सम्भव है,
सांप का काटा व्यक्ति, यदि चिकित्सक भी उसको,
मृत घोषित कर दें, तो भी,
उस व्यक्ति के प्राण, सर में एक विशेष स्थान में,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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रहते हैं,
इसी कारण से उसका दाह-संस्कार नहीं किया जाता,
उसको बहा दिया जाता है,
यही हुआ था!
बचा लिया था इन लोगों ने!
और अब उस व्यक्ति पर,
इनका अधिकार था!
इनके हिसाब से!
बाबा शेखर रो पड़े,
लेकिन उन दोनों को दया नहीं आई!
"क्या एक बार मिलवा देंगे?" मैंने पूछा,
"कोई लाभ नहीं" वो बोला,
"मात्र एक बार" मैंने कहा,
"कोई लाभ नहीं" वो फिर बोला,
अब बाबा शेखर,
पाँव में पड़ गए उस बाबा जागड़ के!
बाबा जागड़ ने,
अपने पाँव से ही,
दुत्कार दिया उनको!
गुस्सा ऐसा आया,
कि इसका सांप साले के,
मुंह में ही घुसेड़ दूँ!
लेकिन ऐसा सम्भव नहीं था उस समय!
अब बाबा शेखर बहुत गिड़गिड़ाए!
तब जाकर,
बाबा जागड़ ने,
मान ली बात,
वो खेला-खाया आदमी था,
सब जानता था कि कहीं आगे,
भविष्य में कोई समस्या न हो,
आखिर उसने कह दिया उस बाबा को,
और वो बाबा अब चला,
हमे साथ लेकर,
हम चले एक गलियारे से होते हुए,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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और एक खाली से स्थान में आये,
एक व्यक्ति बैठा था वहां,
कुछ रस्सियाँ सी लिए!
शेखर बाबा ने जैसे ही देखा,
वो भाग लिए उसकी तरफ!
और जा लिपटे उस से!
वो व्यक्ति चौंक पड़ा,
हटाने लगा उनको!
और भाग निकला वहां से!
यही था वो गोपी!
पहचान नहीं पाया था अपने पिता को!
विस्मृति का शिकार था वो अब!
बाब शेखर का बड़ा बुरा हाल था!
मुझसे देखा नहीं जा रहा था,
एक वृद्ध पिता,
आंसू बहा रहा था!
"बस! अब जाओ" वो बाबा बोला,
लेकिन न मैंने सुना,
और न ही शेखर बाबा ने!
तब उस बाबा ने,
बाजू से पकड़ कर,
शेखर बाबा को वहाँ से जाने को कहा!

मैंने उस बाबा की बाजू छुड़ा दी शेखर बाबा से,
उस बाबा ने ऐसे देखा मुझे,
कि जैसे मैंने बहुत बड़ी,
हिमाक़त की हो!
अब मैंने शांत कराया शेखर बाबा को,
और मैं तभी पीछे पलटा,
और चला उस सांप वाले बाबा की ओर!
तभी वो बाबा भागा मेरे पीछे!
मेरा कन्धा पकड़ा,
तो मैंने उसका कंधा झिड़का!
अब वो सामने आया मेरे,
और रुक गया,


   
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