जैसा शर्मा जी कहें, वैसा ही करना” मैंने कहा,
“ठीक है” वो बोली,
मुंह से हाँ,
और अंदर से न!
“मेरा द्वन्द होगा आज, मैं सात बजे से मौन-व्रत में रहूंगा” मैंने कहा,
अब उसको मौन-व्रत के बारे में बताया,
और किसी तरह से राजी कर लिया मैंने उसको!
मित्रगण!
सात बजे से मैं मौन-व्रत धारण कर,
अपने स्थान की साफ़-सफाई में लग गया,
साफ़-सफाई की,
और फिर अपना सामान रखा!
फिर चिन्हांकित किया वो स्थान!
और चला अब स्नान करने!
स्नान किया,
और फिर एक एक सामान रख दिया वहाँ,
सजा कर!
कपाल,
त्रिशूल,
सामग्री,
चिमटा,
तंत्राभूषण,
भोग-थाल,
दीप,
आसन,
सभी कुछ!
और फिर गया मैं अपने जानकार के पास,
घाड़ आ चुका था!
ये एक पच्चीस-तीस वर्ष की आयु का घाड़ था,
देह सही थी उसकी!
मैंने चिन्ह लगाए उसको,
हाथ बांधे,
पाँव बांधे,
और मंत्र पढ़ता रहा!
फिर,
सहायकों की सहायता से उसको उस क्रिया-स्थल में रखवा दिया!
वे चले गए,
अब मैंने भस्म-स्नान किया!
तंत्राभूषण धारण किये,
और उस घाड़ का पूजन किया,
अब नमन किया,
गुरु नमन,
अघोर-पुरुष नमन,
स्थान नमन,
और फिर महानाद!
और अलख उठा दी अब!
अलख भोग दिया,
अलख लपलपाई!
और भोग!
फिर उस घाड़ को सीधा किया,
और बैठ गया उसके ऊपर,
अब आह्वान किया!
वाचाल महाप्रेत का!
वो प्रकट हुआ!
अट्ठहास!
प्रबल अट्ठहास!
और हुआ मुस्तैद!
अब!
फिर से आह्वान!
कर्ण-पिशाचिनी का आह्वान!
वो भी प्रकट हुई!
कान पुष्ट हुए मेरे!
और फिर अब देख लड़ाई!
देख भिड़ी!
और दृश्य स्पष्ट हुआ!
वहाँ का दृश्य!
जोधराज!
बाबा सरूप!
दोनों थे वहाँ!
अलख भड़की थी!
दो मेढ़े खड़े थे,
बंधे हुए!
थाल,
दीप,
दरी,
भोग-पात्र,
सब था वहाँ!
तभी उसने देख पकड़ी मेरी!
महानाद किया!
और अपने त्रिशूल से उसने,
एक चिन्ह बनाया!
हवा में!
क्लूप-चिन्ह!
और हंसा!
दोनों हँसे!
त्रिशूल लहराया उसने!
और फिर तीन बार भूमि पर मारा,
खड़ा हुआ!
और चिमटा बजाया!
मैंने भी यही किया!
मैं तैयार था!
उसने फिर अपने पाँव से भूमि पर थाप दी,
कि मैं क्षमा मांग लूँ उस से!
नहीं!
कभी नहीं!
मैंने भी थाप दी!
और वो बैठ गया!
मंत्रोच्चार में डूबा वो!
और मैं यहाँ हुआ चौकस!
तभी मेरे कानों में स्वर गूंजे!
काल-रूपा!
ओह!
तो वो काल-रूपा से,
मेरी जांच कर रहा था!
कोई बात नहीं!
वो मंत्रोच्चार में डूबा!
और मैं उसकी काट में!
मैंने अपना त्रिशूल अभिमंत्रित किया!
अपने चारों और घेरा खींचा!
और उसमे खड़ा हो गया!
मैंने किसी का आह्वान नहीं किया!
तेज पवन चली!
दुर्गन्ध के साथ!
सड़े मांस की दुर्गन्ध!
ताप बढ़ा वहाँ!
रक्त की छींटे पड़े मेरे शरीर पर,
गरम गरम रक्त!
मैं मुस्तैद!
और समक्ष प्रकट हुआ एक स्याह अन्धकार!
शून्य से प्रकट हुआ!
फिर पुंज!
पीले रंग का पुंज!
फिर आकृति!
भयानक आकृति!
मैंने त्रिशूल आगे किया!
और मन्त्र पढ़े!
मंत्र पढ़ते हुए,
भूमि में त्रिशूल धंसा दिया!
स्याह अन्धकार,
गायब हुआ!
शान्ति!
काल-रूपा,
लोप!
चली गयी!
मेरे महा-मंत्र ने कर दिखाया ये!
मैं अब बैठा,
देख लड़ाई!
वे हंस रहे थे!
दोनों!
दोनों ही!
घटिया इंसान!
भोग थाल उठाया सरूप ने!
और कुछ भोग लिया,
फिर मदिरापान किया!
और फिर से हंसा!
यहाँ मैंने ऑंधिया को भोग दिया,
और फिर मदिरपान किया!
कपाल उठाया,
और रखा अपनी गोद में!
मंत्र पढ़े!
और अब हुआ मैं आरम्भ!
वार-प्रतिवार के लिए!
वहाँ,
सरूप उठा!
भूमि पर चिन्ह काढ़े!
“वलयरूपा”
मेरे कान में स्वर पड़े!
अब मैंने भोग थाल उठाया,
कुछ चबाया,
और फिर निकाल कर,
तीन ढेरियां बनायी!
काल-रूढा!
हां.
इसी का आह्वान था ये!
अत्यंत प्रबल!
महा शक्तिशाली है,
ये काल-रूढा!
और किया अब मंत्रोच्चार!
आह्वान चल रहा था,
यहाँ भी और वहाँ भी!
सहसा!
मेरे कानों में कुछ स्वर पड़े!
विलम्ब!
विलम्ब!
मैंने देख लड़ाई!
सरूप का त्रिशूल गिर गया था हाथ से!
वो अपने पीछे बने एक गड्ढे में पाँव रखने से हुआ!
त्रिशूल गिरा उसके भोग पर!
भोग बिखर गया!
मदिरा बिखर गयी!
अपमान हो गया!
आँखें फट गयीं उन दोनों की!
हो गयी चूक!
हो गया आह्वान खंडित!
उसने त्रिशूल उठाया,
और रुकने को कहा!
मुद्रा!
यही है मुद्रा!
मुद्रा एक स्तभ है तंत्र में!
मुद्रा भंग!
तो समझो सत्यानाश!
और यही हुआ था!
अब या तो सरूप क्षमा मांगे,
या फिर परिणाम भुगते!
चुनौती मुझे दी थी उन्होंने!
मुझे बचाव करना था!
और इस से बढ़िया और क्या हो सकता था!
जोधराज सिहर गया अंदर तक!
सरूप को आँखें फाड़ कर देखे!
अब दो ही रास्ते थे!
या तो पीछे हटे!
या मेरा वार सम्भाले!
मैं क्या करता!
मात्र कुछ क्षणों में ही ये द्वन्द का अंत कर सकता था!
क्षमा उन्होंने मांगी नहीं!
मैं खड़ा हुआ!
आगे गया!
अट्ठहास किया!
वे सिहरे!
चूंकि अब भोग नया होना चाहिए!
मंत्र पुनः पढ़े जाते!
और इतना समय था नहीं!
मैं हंसा!
वे मुद्रा भंग कर चुके थे!
आह्वान सम्भव नहीं था!
इसीलिए,
मैंने अब शाही-रुक्का पढ़ा!
इबु का नहीं!
तातार का!
घुंघरू से बज उठे!
बड़े बड़े बेलन जैसे भूमि पर चलने लगे!
और फिर!
हाज़िर हो गया पीले नेत्र लिए मेरा क्रुद्ध सिपहसालार तातार!
उनको लगी खबर!
वे हुए अब दुल्लर!
घबरा गए!
अलख में ईंधन देना भूल बैठे!
ये मेरा वार था!
अब मैंने उद्देश्य बताया उसे!
झम्म!
झम्म से उड़ चला तातार!
मैं हंसा!
तातार वहाँ प्रकट हुआ!
और वो कांपे अब!
जब भय होता है तो विद्या और विवेक साथ छोड़ने लगती हैं!
यही हुआ!
साथ छूटा उनका!
जोधराज भाग निकला!
और तातार का पहला शिकार बना!
तातार ने उसको भागते हुए ही एक लात मारी जमकर!
वहीँ टूट गया वो!
पसलियां टूट गयीं!
रीढ़ की हड्डी टूट गयी बीच में से!
और कटे पेड़ सा बायीं तरफ झूल गया वो!
अब रहा सरूप!
जैसे ही तातार पलटा उसकी तरफ!
उसने क्षमा मांगी!
लेट गया भूमि पर!
आँखें बंद किये!
क्षमा क्षमा!
चिल्लाता रहा!
बस!
ये था विराम!
द्वन्द का विराम!
द्वन्द अभी समाप्त नहीं हुआ था!
समाप्त तो जोधराज ने करना था!
विराम!
द्वन्द में विराम!
और फिर मैंने वापिस किया तातार को!
वो पल में ही वापिस हुआ!
और फिर मैंने उसको भोग दिया!
और हुआ लोप!
द्वन्द का अस्थायी अंत हो गया!
अब मैंने,
तातार क्यों इस्तेमाल किया?
क्या कोई नियम तोड़ा?
नहीं!
कोई नियम नहीं तोड़ा!
मैंने बचाव किया अपना!
वे मुद्रा-भंग के दोषी बने!
यदि मैं बनता,
तो क्या छोड़ते मुझे?
नहीं!
कभी नहीं!
मैं उठा!
और चला वापिस!
मेरे जानकार मुझे देख चौंक पड़े!
मैंने इशारे से बता दिया उनको!
सहायक दौड़ पड़े वहीँ,
सामान लेने,
और उस घाड़ को सम्मानपूर्वक लाने के लिए,
और मैं चला स्नान करने!
स्नान किया!
और हुआ वापिस!
मैं आया शर्मा जी के पास!
वे खुश!
“ख़तम?” उन्होंने पूछा,
अब मैंने बता दिया उनको!
वे झूम उठे!
मुझे गले से लगाया!
और की गाली-गलौज उन दोनों को!
तभी दरवाज़े पर आ खड़ी हुई एस्टेला!
सीधी भागी और लिपट गयी मुझसे!
मैंने भी बाहों में भर लिया उसको!
उसने मुझे देखा,
नम आँखों से!
फिर खींच कर ले गयी अपने कमरे में!
चिपकी रही मुझसे!
अब मैंने उसको सब बता दिया!
खुश हो गयी वो!
बहुत खुश!
“मेरे संग आओ” वो बोली,
“इस रात में?” मैंने पूछा,
“आओ तो सही” उसने कहा,
मैं उठा,
और चला!
उसने टॉर्च ले ली थी,
रास्ता बनाते हुए मुझे ले गयी एक तरफ!
“कहाँ?” मैंने पूछा,
“वो सामने” वो बोली,
तारों और चन्द्र का प्रकाश था वहाँ!
और नदी बह रही थी!
एक उप-शाखा सी थी वो!
नदी की उप-शाखा!
वहीँ ले गयी मुझे!
“यहाँ का कैसे पता चला?” मैंने पूछा,
“शाम को आयी थी मैं यहाँ” उसने कहा,
“अकेले?” मैंने पूछा,
“हाँ” उसने कहा,
“शर्मा जी को पता है?” मैंने पूछा,
“नहीं” आँखें नीचे करते हुए बोली वो!
पहुँच गये हम वहाँ!
नदी बहुत सुंदर लग रही थी!
एक जगह, किनारे पर,
बैठ गए हम!
“ये गंगा है! गंगा माँ!” मैंने कहा,
और प्रणाम किया!
“ये गंगा है! गंगा माँ!” यही बोली वो!
और प्रणाम किया उसने भी!
