उस काले सूट में उसका गोरा रंग ऐसे निकला था बाहर जैसे,
काली घटाओं में से सूरज !
चमकता हुआ!
दमकता हुआ!
लश्कारे कौंधते हुए!
“बहुत सुंदर!” मैंने कहा,
हंस पड़ी वो!
मैं गया उसके पास!
उसको निहारा!
उसको खड़ा किया,
आगे पीछे घुमाया!
बहुत सुंदर!
उसका दुपट्टा सही किया,
“सच में बहुत सुंदर हो तुम!” मैंने कहा,
मुस्कुरा गयी वो!
“टीका लगा लो! नज़र लग जायेगी तुमको!” मैंने कहा,
उसने समझ नहीं आया!
सारी बात समझानी पड़ी उसको!
टीका, काजल आदि आदि!
दोपहर बीती!
रात आयी, खाना-पीना हुआ!
और फिर वो दिन भी आ गया!
आज मुझे विद्याएँ जागृत करनी थीं!
मुझे अब वहीँ जाना था!
वहीँ रहना था!
मैंने बताया ये सब एस्टेला को,
वो चौंकी!
“वहाँ जाना पड़ेगा?” उसने पूछा,
“हाँ” मैंने कहा,
“मैं भी चलूंगी” उसने कहा,
“नहीं, यहीं रहो तुम, कल आ जाना वहाँ, शर्मा जी के साथ” मैंने कहा,
“नहीं, मैं नहीं रहूंगी यहना, मैं चलूंगी” वो बोली,
“ज़िद न करो” मैंने कहा,
“नहीं, मैं चलूंगी” उसने कहा,
मैं खड़ा हुआ,
वो खड़ी हुई,
मेरा हाथ पकड़ा,
मुझे देखा,
“मैं चलूंगी” धीरे से बोली,
“नहीं” मैंने कहा,
“नहीं, मैं चलूंगी” वो बोली,
ज़िद पकड़ ली!
और!
आँखों में मोटे मोटे आंसू ले आयी!
हारना पड़ा मुझे!
नहीं समझी वो!
जीत गयी!
“ठीक है, चलो” मैंने कहा,
फ़ौरन अपना सामान डालने लगी बैग में!
बेतरतीबी से!
मैं मुस्कुरा गया!
मित्रगण!
शर्मा जी को साथ लिया,
और अपना सारा सामान लेकर हम चल पड़े उस स्थान की ओर,
जौहर बाबा से विदा ली,
आशीर्वाद लिया,
और हम चल पड़े!
अब सवारी पकड़ी,
और फोन करके वहाँ,
पहुँच गए!
यहाँ मेरे जानकार थे!
बाबा शामू!
वे मिले!
प्रसन्न हुए!
और दो कक्ष लिए हमने!
ये कोई बड़ा डेरा नहीं था,
बस आवास सा ही था!
कमरे भी कामचलाऊ ही थे!
बिस्तर नीचे ही लगे थे यहाँ!
और नहाने के लिए,
अलग से एक जगह थी!
हम आ गए अपने कक्ष में!
सामान रखा,
और फिर मैंने,
कक्ष खोला दूसरा,
वहन बिस्तर लगाया,
और सामान रख दिया उसका,
“बैठो” मैंने कहा,
बैठ गयी वो,
“बाहर कितना सुन्दर दृश्य है” वो बोली,
“हाँ” मैंने कहा,
“अब सुनो, मैं क्रिया-स्थल में जाऊँगा, वहीँ रहूँगा, तुम यहीं रहना, कुछ ज़रूरत हो तो शर्मा जी से कह देना” मैंने कहा,
“मैं चलूँ साथ?” उसने पूछा,
“नहीं” मैंने कहा,
गिड़गिड़ा गयी!
फिर से जीत गयी!
“चलो!” मैंने कहा,
मैं खड़ा हुआ,
वो भी खड़ी हुई,
“आओ” मैंने कहा,
“चलो” वो बोली,
हम चल पड़े!
मैं क्रिया-स्थल गया!
अलख बुझी हुई थी!
मैंने अब ईंधन डाला उसमे,
और फिर अपने वस्त्र उतारे!
केवल लंगोट ही रही शेष,
“यहाँ बैठ जाओ” मैंने कहा,
वो मेरे साथ बैठ गयी!
“मेरे जप के दौरान, मुझे छूना नहीं” मैंने कहा,
उसन यहाँ में गरदन हिलायी,
अब नमन किया मैंने,
गुरु नमन,
अघोर-पुरुष नमन,
दिशा नमन,
और एक महामंत्र पढ़ते हुए अलख उठा दी!
दहक गयी!
अब अलख भोग दिया!
और हुए मेरे मंत्रोच्चार आरम्भ!
वो मुझे देखते रही!
मूर्ति सी बनी!
और फिर मैंने एक एक करके,
सभी मंत्र और विद्याएँ जागृत कर लीं!
मुझे तीन घंटे लगे!
फिर से नमन करने के पश्चात,
मैं खड़ा हो गया,
“खड़ी हो जाओ” मैंने कहा,
खड़ी हो गयी वो,
“यहीं रहना, मैं स्नान कर आऊँ” मैंने कहा,
मुझे डर लग रहा है यहाँ” वो बोली,
“कमरे में लौट जाओ” मैंने कहा,
“नहीं, यहीं रह लूंगी” उसने बोला,
“ठीक है” मैंने कहा,
और निकल गया बाहर,
स्नान किया,
और वापिस आया,
वस्त्र पहने,
“डर तो नहीं लगा?” मैंने पूछा,
“मैंने आँखें बंद कर रखी थीं” वो बोली,
मैं हंसा!
“आओ, चलो” मैंने कहा,
और चल दिए अपने कक्ष की ओर!
वहाँ गए,
और बैठे!
बाबा ने चाय भिजवा दी,
हमने चाय पी,
उसके बाद, मैं ले गया उसको बाहर,
कक्ष के,
आसपास घुमाया,
तांत्रिक-वस्तुएं दिखायीं!
वो हैरत में पड़ी!
एक एक वस्तु को छू के देखा!
कपाल,
अस्थियां,
विभिन्न प्रकार के दांत,
सामग्री,
वस्त्र,
आदि आदि!
सारा सामान देखा था उसने!
और चकित थी!
कि ऐसी वस्तुएं क्या सच में अपना प्रभाव डालती हैं?
मैंने समझाया था उसे!
कि प्रत्येक पदार्थ में,
ऊर्जा समाहित होती है,
ऐसे ही मंत्र,
मंत्र भी शक्ति पैदा करते हैं,
ये मंत्र युग्म में हों तो,
महा शक्ति हो जाया करते हैं!
तब जाकर उसको समझ आया!
वो हैरान थी,
बहुत!
हमारी भारतीय संस्कृति से,
मैंने बताया उसे,
कि औघड़ों को मुख्य रूप से,
पृथक रखा गया है,
उनको मुख्य-धारा से नहीं जोड़ा गया!
बहिष्कार किया गया!
उनका बहिष्कार किया गया!
चूंकि उन्होंने खंडन किया!
खंडन उन मान्यताओं का,
जो प्रचलित हैं!
खैर,
ये भी एक,
अलग विषय है!
कभी फिर उल्लेख करूँगा!
अब फिर से ज़िद पकड़ ली एस्टेला ने!
घाट पर जाने की!
फिर से जीत गयी वो!
जाना ही पड़ा!
शर्मा जी को साथ लिया,
और चल पड़े!
वहाँ उसने आनंद उठाया!
नाव ली और फिर वही अठखेलियां!
हाँ,
वहाँ उसको उसके मुल्क की एक और मिल गयी थी महिला,
दोनों बातें करती रहीं,
मुझसे भी मिलवाया उसको,
शर्मा जी से भी,
ये अच्छा हुआ था!
अपना कोई मिल जाए परदेस में तो,
क्या कहने!
यही हुआ था!
वे दोनों बातें करती रहीं!
लेकिन एस्टेला, मेरी नज़रों में,
बनी रही!
उसको पता था,
कि डांट खानी पड़ेगी मेरी!
इसीलिए!
देख लेती थी हमको!
बार बार!
फिर आयी!
कुछ जानकारी का आदान-प्रदान हुआ उनके बीच!
और फिर आ गयी!
बैठ गयी!
सीढ़ियों पर,
जहां हम बैठे थे!
फिर हमने वहाँ कुछ खाया,
बढ़िया था!
और फिर वहाँ से वापिस हुए!
तीन घंटे बीत गये थे!
हम वापिस हुए,
और आ गए वापिस!
सीधा अपने कक्ष में!
हाँ,
शर्मा जी चाय लेने चले गये थे!
चाय आयी,
साथ ही पी हमने,
और फिर मैं चला गया एस्टेला के कक्ष में,
बैठा,
वो भी बैठी!
खुश थी!
“एस्टेला!” मैंने कहा,
“हाँ?” वो बोली,
“भारत में ऐसी बहुत जगह हैं, जहां श्रद्धा टूट के पड़ती है, किसी भी कोने में चले जाओ आप! कहीं भी!” मैंने कहा,
“मुझे दिखाओगे आप?” उसने पूछा,
“हाँ, दिखा दूंगा!” मैंने कहा,
“मुझे ताज महल देखना है” उसने कहा,
“वो दिल्ली के पास ही है, ले जाऊँगा” मैंने कहा,
“बड़ा देश है भारत!” वो बोली,
“हाँ, बहुत बड़ा!” मैंने कहा,
और बहुत सी बातें हुईं!
बहुत सारी!
भारत के बारे में!
“एस्टेला, कल मैं शाम पांच बजे के बाद से अलग रहूँगा, अगले दिन सुबह मिलूंगा तुमसे” मैंने कहा,
“हूँ” वो बोली,
“शर्मा जी के साथ रहना” मैंने कहा,
“ठीक है” वो बोली,
बातें करते करते ही पूरा दिन बिता दिया!
हुई रात!
मदिरापान किया!
और सो गए हम!
हुई सुबह!
आज दशमी थी!
आज ही था द्वन्द!
आज जोधराज और मुझे टकराना था!
ऊँट किसी भी करवट बैठ सकता था!
यहाँ भी,
और वहाँ भी!
खैर!
चुनौती उसने दी थी,
मुझे बचाव करना था!
मुझे,
एस्टेला की सूरत ही दिखायी देती थी!
वापिस वो जाना नहीं चाहती थी!
सरूप के यहाँ भी नहीं!
उसका विश्वास था मुझपर!
और,
मैं चाहता था कि ये विशवास,
ऐसे ही बना रहे!
विश्वास से बड़ा कुछ नहीं!
और इस से कच्चा भी कोई नहीं!
बहुत हल्का!
बहुत महीन होता है ये विश्वास!
एक बार जो टूटा,
तो जुड़ेगा नहीं!
चाहे कुछ भी कर लो!
चाहे क्षमा ही मांगो!
चाहे आंसू बहाओ!
नहीं जुड़ेगा!
कभी नहीं!
विशवास चाहे माँ का हो,
चाहे पिता का,
चाहे भार्या का,
चाहे भाई का,
चाहे मित्र का,
चाहे प्रेयसी का,
चाहे पुत्र-पुत्री का,
कभी नहीं टूटना चाहिए!
अब चाहे,
कोई भी बलिदान करना पड़े!
कोई भी!
बस!
इसीलिए,
मैं खड़ा हो गया था!
वो मेरी इनमे से कोई भी नहीं थी!
न मित्र,
न प्रेयसी!
परन्तु,
उनसे कहीं अधिक!
एक परदेसी!
और उसका विश्वास!
ये था एक मात्र कारण!
इसीलिए,
ये द्वन्द आवश्यक था!
चुनौती दी थी,
पालन करना था नियमों का!
और अब,
मैं तैयार था!
अब सामने जोधराज हो,
या अन्य कोई भी!
कोई दो बजे होंगे उस दिन,
भोजन कर लिया था,
मेरे जानकार ने सारा प्रबंध कर दिया था,
सामान, सामग्री इत्यादि सबका,
प्रबंध कर दिया था,
हाँ,
वो घाड़ आठ बजे आना था यहाँ,
बस वही था,
जिसका इंतज़ार था!
सामान-सट्टा सब देख लिया था मैंने!
सब सही था!
मैं कमरे में बैठा था अपने,
शर्मा जी को समझा दिया था,
कि ध्यान रखना था एस्टेला का,
वो ज़िद करे तो डांट देना था,
चाहे कुछ भी हो!
उसको नहीं निकलने देना कहीं भी!
फिर मैं गया एस्टेला के पास!
वो लेटी हुई थी,
एक किताब पढ़ती हुई,
मैं आया तो बैठ गयी!
किताब एक तरफ रख दी,
उसका वो पन्ना मोड़ कर!
मैं बैठ गया!
“सुनो एस्टेला” मैंने कहा,
“हाँ?” वो बोली,
