ज़िद!
फिर से ज़िद!
मैं लेटा रहा,
कुछ नहीं बोला,
“सो गए फिर से?” उसने पूछा,
धीरे से,
“नहीं” मैंने कहा,
फिर वो उठी!
और मुझे मौक़ा मिला उठने का!
मैं भी उठ गया!
उसकी गले में पड़ी चैन उसके बालों में फंस गयी थी,
उस से निकल नहीं रही थी,
मैंने निकाली,
“उठो अब” मैंने कहा,
उठ गयी,
मैं गया हाथ-मुंह धोने!
फिर वो भी आ गयी!
मैं बाहर आया गुसलखाने से,
वो भी आ गयी!
“आओ चाय पीने चलते हैं” मैंने कहा,
‘चलो” उसने कहा,
अपना कुरता सही करते हुए,
चल पड़ी मेरे साथ,
हमने चाय ली, और पीने लगे!
तभी मेरा फ़ोन बजा,
ये मेरे उसी जानकार का था,
जिसे मैंने प्रबंध करने हेतु कहा था,
उसके अनुसार प्रबंध हो गया था,
बस घाड़ उसी दिन मिलना था!
मैंने धन्यवाद किया,
और फ़ोन काट दिया!
और चाय पी ली हमने!
हुए वापिस!
“आओ मेरे साथ” मैंने कहा,
“चलो” वो बोली,
हम बाहर आ गए!
सवारी पकड़ी!
“कहाँ?” उसने पूछा,
“चलो तो सही” मैंने कहा,
और आ गए हम घाट!
अब नज़ारा बदला गया था!
शाम हो चुकी थी!
मंदिरों में पूजा-अर्चना आरम्भ थी!
शंख और घंटियों की आवाज़ें आ रही थीं!
उस बहुत पसंद आयी वो जगह!
बहुत पसंद!
खो गयी वो वहाँ उस माहौल में!
और उसे अब दिखायी मैंने आरती!
“बहुत सुंदर! अलौकिक!” वो बोली,
नदी के बहते पानी में उन दीयों की रौशनी चमक रही थी!
अलौकिक दृश्य था वो!
मेरा हाथ थामे वो देखती रही!
जहां से भी कोई आवाज़ आती,
वहीँ देखने लग जाती!
डेढ़ घंटा वहीँ रहे हम!
“अब चलें?” मैंने पूछा,
“अभी नहीं” वो बोली,
“ठीक है” मैंने कहा,
वो देख रही थी!
सभी आने जाने वालों को!
सभी लोगों को!
मंत्रमुग्ध सी!
“यही श्रद्धा है एस्टेला!” मैंने कहा,
“हाँ, शुद्ध!” वो बोली,
आधा घंटा और बीता!
“अब चलें?” मैंने पूछा,
“हाँ” वो बोली,
और हम चले वापिस अब!
रास्ते से मैंने कुछ सामान ले लिया!
और फिर वापिस हुए!
अपने डेरे पहुंचे!
शर्मा जी से मिले!
“कहाँ घूम आये?” उन्होंने पूछा,
“आरती दिखाने ले गया था” मैंने कहा,
और सामान रखा!
”अच्छा!” वे बोले,
एस्टेला मुस्कुरायी!
“पसंद आयी?” पूछा शर्मा जी ने!
“हाँ! बहुत! बहुत!” वो बोली,
“ये तो आ ही नहीं रही थी!” मैंने कहा,
“शाम के वक़्त तो बहुत अलौकिक वातावरण होता है वहाँ का!” वे बोले,
“हाँ” मैंने कहा,
“अब पेट सही है?” मैंने पूछा,
“हाँ, ठीक है” वे बोले,
“तो आज?” मैंने पूछा,
“हाँ” वो बोले,
”सामान वो रखा” मैंने कहा,
“ठीक है” वो बोले,
फिर मैं उसको लेकर चला आया,
उसके कमरे में!
सामान रखा,
और पानी लेने चला गया,
पानी लाया,
और बैठ गया!
सामान खोला,
और फिर उसको भी बिठाया!
वो बैठी,
और हुए हम शुरू!
“ये है मेरा देश!” मैंने कहा,
“बहुत सुंदर है!” वो बोली,
“हाँ! गर्व है हमे इस पर!” मैंने कहा,
“इसकी संस्कृति, बहुत उत्तम है!” वो बोली,
“हाँ!” मैंने कहा,
और फिर पहला जाम!
पहला पैग ख़तम!
“एक बात कहूं?” उसने पूछा,
“कहो?” मैंने कहा,
“मैं गुरु जी कहूं आपको?” उसने कहा,
मैं हंसा!
“नहीं” मैंने कहा,
“क्यों?” उसने पूछा,
“ऐसे ही” मैंने कहा,
“मुझे अच्छा लगे तो?” उसने पूछा,
“नहीं” मैंने कहा,
मेरे सीने पर एक प्यार भरा मुक्का मारा!
“कठोर हो बहुत” उसने कहा,
“हाँ! बहुत” मैंने कहा,
वो हंस पड़ी!
“अच्छा, भूत क्या है?” उसने पूछा,
“बताता हूँ, अकाल-मृत्यु जब होती है, तो शेष आयु भोग आत्मा भूत बन कर भोगती है, इसको भूत कहते हैं” मैंने कहा,
”और प्रेत?” उसने पूछा,
“ये एक उच्च योनि है भूत से, यहाँ प्रेत में कुछ नैसर्गिक शक्तियां आ जाती है, ये प्रेत योनि कुछ दिन से लेकर सैंकड़ों वर्षों तक की भी हो सकती है” मैंने बताया,
”अच्छा!” वो बोली,
“कहाँ सुना तुमने?” मैंने पूछा,
“पढ़ा था कहीं” उसने कहा,
“अच्छा” मैंने कहा,
फिर से एक और पैग!
“क्या किसी प्रेत से संपर्क किया जा सकता है? यदि कोई विद्या न आती हो तो?” उसने पूछा,
“हाँ, किया जा सकता है” मैंने कहा,
“नहीं, बताऊंगा नहीं” मैंने कहा,
“क्यों?” उसने पूछा,
“ये खतरनाक है” मैंने कहा,
“मैं नहीं करुँगी” उसने कहा,
“नहीं” मैंने कहा,
उसने ज़िद पकड़ी,
लेकिन मैंने बताया नहीं!
कोई फायदा नहीं!
और ये विदेशी!
इनमे बहुत जीवट होता है!
घबराते नहीं!
चाहे प्राण ही चले जाएँ!
“ठीक है, मत बताइये” वो बोली,
“ठीक है” मैंने कहा,
चुप!
वो भी!
और मैं भी!
“अच्छा?” उसने चुप्पी तोड़ी!
“हाँ, बोलो?” मैंने कहा,
“आपने बताया था कि पाप और पुण्य ये संचित होते हैं, कैसे पता चले?” उसने पूछा,
“ये जो आपका वर्त्तमान जीवन है, उए आपके पिछले संचित पाप और पुण्य का फल है, उनके कारण से अआप यहाँ हो, जो हो, जैसे हो, उन्ही के कारण, इस जीवन के संचित पाप और पुण्य आपके आगामी जन्म में फल देंगे” मैंने कहा,
“ओह…” वो बोली,
“इसीलिए इस जीवन को सदैव पापरहित रखना चाहिए!” मैंने कहा,
“अब पाप के विषय में समझाइये” उसने पूछा,
“पाप, मन और वचन, सोच और कर्म से होता है!” मैंने कहा,
“कैसे?” उसने पूछा,
“आप मन में किसी के लिए दुर्भावना रखते हैं, ये पाप है, उसको गलत बोलते हो, ये भी पाप है, उसके बारे में गलत सोचते हो, ये भी पाप है और उसको मारते-पीटते हो तो भी पाप है” मैंने कहा,
“अच्छा” वो बोली,
“पाप के कई भेद हैं” मैंने बताया,
“कैसे?” उसने पूछा,
“छल, कपट, हत्या, विश्वासघात, चोरी, घृणा, भेद करना, अपमान करना, अनादर करना, छोटा-बड़ा करना, इंसान को धन से तोलना, ये सभी पाप के साथी हैं!” मैंने कहा,
“सच है” वो बोली,
“इसीलिए इस से सदैव दूर रहिये” मैंने कहा,
“हाँ” वो बोली,
“जितना परिश्रम से आय होती है, उसी में संतुष्ट होना चाहिए, इच्छा की माया में नहीं आना चाहिए, चूंकि इच्छा कभी समाप्त नहीं होती, बस रूप बदलती रहती है” मैंने कहा,
“सत्य है” उसने कहा,
फिर से एक और पैग!
तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई,
मैं उठा,
दरवाज़ा खोला,
बाहर गया,
एक सहायक था,
खबर लाया था,
बाबा जौहर ने बुलाया था,
मैंने बताया एस्टेला को और चला गया साथ उसके,
बैठे थे बाबा जौहर,
मैं भी बैठा,
“तैयारी हुई?” उन्होंने पूछा,
“मैं तैयार हूँ” मैंने कहा,
“स्थान?” उन्होंने पूछा,
“है मेरे पास” मैंने कहा,
“घाड़?” उन्होंने पूछा,
“वो भी हो जाएगा’ मैंने कहा,
“फिर ठीक है” वो बोले,
और मैं उठ गया!
वापिस हुआ,
एस्टेला के पास आया,
“क्या हुआ?” उसने पूछा,
“बाबा ने बुलाया था” मैंने कहा,
“किस काम से?” उसने पूछा,
“तैयारी के लिए” मैंने कहा,
“अच्छा” वो बोली,
घबरा गई!
“पैग बनाओ” मैंने कहा,
बनाया उसने,
और फिर हमने पिया!
“क्या हुआ?” मैंने पूछा,
रुआंसी सी हो गई थी!
“कुछ नहीं” वो बोली,
“फिर डर गयीं?” मैंने पूछा,
“हाँ” उसने कहा,
“मत डरा करो एस्टेला!” मैंने कहा,
किसी तरह से बात घुमाई मैंने!
और हुए हम शुरू फिर से!
“एस्टेला?” मैंने कहा,
“हाँ?” उसने कहा,
“एक व्यक्तिगत प्रश्न करूँ?” मैंने पूछा,
“हाँ, करो” वो बोली,
“कोई पुरुष-मित्र है तुम्हारा?” मैंने पूछा,
“नहीं” उसने कहा,
“कोई था?” मैंने पूछा,
“नहीं” उसने कहा,
“तो फिर….” मैंने पूछा,
“हाँ” उसने उत्तर दिया!
हैरत की बात थी ये!
खैर,
दौर आगे बढ़ा!
और फिर हम निबट गए!
रात गहरा गयी!
बर्तन आदि रखे नीचे,
हाथ-मुंह धोये,
और लेट गया मैं!
वो भी लेट गयी!
मैंने करवट लेने के लिए जैसे ही अपने आपको घुमाया,
पकड़ लिया उसने,
“ऐसे ही लेटो” उसने कहा,
“ठीक है” मैंने कहा,
और वैसे ही लेट गया!
आँखें बंद कर लीं,
और फिर आँखें हुईं भारी,
नशे के कारण!
और सो गया!
दस मिनट में ही!
रात को नींद खुली!
एस्टेला नहीं थी बिस्तर पर,
दरवाज़ा भी बंद था,
तभी नल की आवाज़ आयी,
गुसलखाने में थी,
आयी!
“मैं तो डर गया था!” मैंने कहा,
“क्यों?” उसने पूछा,
“मैं सोचा कहाँ गयी?” मैंने कहा,
हंस पड़ी!
फिर लेट गयी!
“और जब मैं चली जाउंगी तो?” उसने पूछा,
“बहुत याद आओगी” मैंने कहा,
“सच?” उसने पूछा,
“हाँ” मैंने कहा,
“मुझे भी बहुत याद आओगे आप” उसने कहा,
“बढ़िया है” मैंने कहा,
हंस पड़ी!
“चलो सो जाओ अब” मैंने कहा,
“ठीक है” वो बोली,
और खिसक कर आ गयी मेरे पास!
मैंने हाथ रखा और आँखें बंद कर लीं,
और सो गए हम!
सुबह हुई!
नहाये-धोये!
चाय पी,
नाश्ता किया,
और फिर शर्मा जी के साथ हम बाहर चले अब!
वहीँ घाट पर!
एस्टेला की ज़िद थी!
वहाँ पहुंचे,
नाव में बैठे!
और उसने खूब मजे किये!
पानी डाले मेरे ऊपर,
शर्मा जी के ऊपर!
मैं भी डालूं!
साथ बैठे लोग,
सभी हँसे!
फिर खाना खाया वहाँ!
बढ़िया था खाना!
करीब दो घंटे के बाद हम चले वहाँ से वापिस!
अपने स्थान आ गए!
चाय पी अब!
और मैं ले आया उसको अपने कमरे में.
यहाँ बैठे काफी देर!
फिर चले बाहर!
मैं और वो!
बाहर आ गए!
उसे कुछ खरीदना था बाज़ार से,
मैं वहीँ खड़ा हो गया,
कपड़ों की दुकान थी वो!
उसने खरीदा और फिर हुए वापिस!
“क्या ले लिया?” मैंने पूछा,
“कुछ नहीं” वो बोली,
“तो ये क्या है?” मैंने पूछा,
“कपड़े” उसने कहा,
“कपड़े लिए हैं” मैंने कहा,
“हाँ” वो बोली,
“क्या लिया? कुरता?” मैंने पूछा,
“सूट” उसने कहा,
“बढ़िया!” मैंने कहा,
और हम हुए वापिस!
पहुँच गए अपने स्थान!
अब मैंने कपड़े देखे उसके!
चार सूट और स्लैक्स लायी थी!
पसंद बढ़िया थी उसकी!
रंग भी बढ़िया था!
सूती कपड़ा था!
उस पर फबते वे कपड़े!
एक काले रंग का सूट था!
सफ़ेद फूल छपे थे!
“ये पहनना कल” मैंने कहा,
“ठीक है” उसने कहा,
और रख दिए एक तरफ!
“आओ चाय पीकर आते हैं” मैंने कहा,
“चलो” वो बोली,
और हम चल दिए चाय पीने!
अगला दिन!
मैं कमरे में था अपने,
स्नान करके आया तो बैठा हुआ था वहीँ,
शर्मा जी के साथ,
दशमी के विषय पर बात हो रही थी,
जहां जाना था हमे,
वो स्थान कोई बीस किलोमीटर दूर था वहाँ से,
मुझे एक दिन पहले जाना था वहाँ,
अर्थात परसों निकल जाना था!
तभी ध्यान आया मुझे एस्टेला का,
मैं उठा और चल दिया उसके कमरे की तरफ,
वहाँ पहुंचा,
उसको देखा तो जैसे मेरे सामने को जिन्नी खड़ी थी!
