वो सोच में डूब गयी थी!
शायद, आंकलन कर रही थी!
कुछ संवर्धन!
फिर सर उठाया,
और फिर देखा मुझे!
मदिरा के मारे उसके सुर्ख होंठों पर लालिमा और निखर गयी थी!
“एक प्रश्न और पूछूं?” उसने पूछा,
“पूछो?” मैंने कहा,
“लालसा और पिपासा? क्या दोनों एक हैं?” उसने पूछा,
“नहीं!” मैंने कहा,
“कैसे?” उसने पूछा,
“लालसा कभी समाप्त नहीं होती! मृत्युशय्या पर होने के बावज़ूद भी स्वर्ग की लालसा लगी रहती है! और पिपासा! पिपासा किसी व्यक्ति-विशेष, ज्ञान-विशेष, वस्तु-विशेष के प्राप्त होने पर समाप्त हो जाती है!” मैंने कहा,
“ओह…” वो बोली,
“अंतर है सूक्ष्मता का केवल!” मैंने कहा,
“जैसे?” उसने पूछा,
“जैसे काम और हवस!” मैंने कहा,
“नहीं समझी” वो बोली,
मुस्कुरा कर!
“समझाता हूँ! काम कभी समाप्त नहीं होता, ये मूल सहित मन में सदा वास करता है, इसको नियंत्रित किया जा सकता है बस, परन्तु हवस को नहीं! ये एक प्रकार का मानसिक-विकार है! हवस का काम से कुछ लेना देना नहीं है! हालांकि एक जैसे प्रतीत होते हैं!” मैंने कहा,
अच्छा! और काम को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है?” उसने पूछा,
“अच्छा प्रश्न है! बताता हूँ! काम कैसे जागृत होता है? किस उद्देश्य से जागृत होता है? जब एक पति अपनी पत्नी के साथ रति-क्रिया में होता है तो ये काम है, चूंकि ये उस पति का पति-धर्म भी है अपनी भार्या के प्रति और इस से सृजन होता है, परन्तु यही पति यदि किसी अन्य स्त्री का गमन करता है, परस्त्रीगमन, तो ये काम नहीं, हवस है, इसी हवस को समूल नाश कर देना ही काम पर नियंत्रण रखना हुआ! ऐसे ही नियंत्रण रखा जा सकता है!” मैंने कहा,
“बहुत सुंदर!” वो बोली,
“परन्तु आज के युग में कोई बिरला ही होगा ऐसा!” मैंने कहा,
फिर उसने ही पैग बना लिया!
और दे दिया मुझे,
और फिर अपना बनाया!
हमने पिए और रख दिए गिलास नीचे!
“दुःख क्या है?” उसने पूछा,
मैं हंसा!
फिर चुप हुआ!
“बताऊँ?” मैंने पूछा,
“हाँ” वो बोली और पास खिसक गयी मेरे,
“बताता हूँ! हमारी इच्छा के विपरीत जब हमे अपने कर्म का फल मिलता है तो दुःख पैदा होता है! फिर से वही चक्र है, ये कर्म-भेद है! जैसे किसान ने बीज बोये, सिंचाई की, लेकिन फसल सही नहीं हुई, अतः दुःख उत्पन्न हुआ, हाँ, यदि पकी हुई बढ़िया फसल को प्राकृतिक कारणों से क्षति पहुंची हो तो भी दुःख हुआ! परन्तु इन्ही दोनों दुखों में एक अंतर है! दुःख का अंतर! प्रथम वाला कष्ट भी लाएगा, और द्वितीय वाला संतोष भी लाएगा! क्योंकि प्राकृतिक कारणों से घटने वाला फल उसके हाथ में नहीं था! वो संतोष करे तो अगली बार उन्नत फसल लगा सकता है! लेकिन हम ऐसा नहीं सोचते! हम उसी प्रथम में अटके रहते हैं! और दुखी होते रहते हैं! अर्थात, दूसरी बार वाली नौबत ही नहीं आती, और ये दुःख हमे सालता रहता है!” मैंने कहा,
दुःख कैसे हटाया जाए?” उसने पूछा,
“सुखों की कल्पना ही न की जाए!” मैंने उत्तर दिया!
“अनुपम! सुंदर! बहुत सुंदर!” वो कह उठी!
खड़ी हुई!
आँखें बंद कीं!
और यही दोहराती रही!
फिर बैठी!
“लेकिन कल्पना न करना, बहुत कठिन है” उसने कहा,
“निःसंदेह! ऐसा करना इस संसार में सबसे कठिन है, लेकिन उस रचने वाले ने मनुष्य को इसीलिए तो रचा था! कि वो इस कठिनता को सरल बनाये!” मैंने कहा,
“वो कैसे?” उसने पूछा,
“यूँ समझिये, आपकी जीत किसी की हार है! और आपकी हार किसी की जीत! अर्थात सुख और दुःख एक साथ, एक को सुख और एक को दुःख!” मैंने कहा,
“सच में!” वो बोली,
“दुःख होने के कई कारण हैं!” मैंने कहा,
“जैसे?” उसने पूछा,
“एक बात बताओ, आपके पास आपका अपना क्या है?” मैंने पूछा,
“मेरा शरीर?” उसने कहा,
“नहीं ये भी आपका नहीं है!” मैंने कहा,
“कैसे?” उसने पूछा,
“क्या आप अपना पृष्ठ-भाग देख पाते हो?” मैंने पूछा,
“नहीं” उसने कहा,
“तो कैसे हुआ?” मैंने पूछा,
वो चुप!
“रोग आते हैं चुपचाप, आपको पता चलता है?” मैंने पूछा,
“नहीं” वो बोली,
“आपकी सांस कब टूट जाए, कुछ पता है?” मैंने पूछा,
“नहीं” वो बोली,
“आप सो जाओ, उठो ही नहीं, तो?” मैंने पूछा,
“सही बात है” वो बोली,
“तो ये शरीर भी आपका नहीं!” मैंने कहा,
“समझ गयी मैं” वो बोली,
“सब मिथ्या है! और ये मिथ्या रची है उस रचियता ने! समझिये कि ये परीक्षा है उसकी!” मैंने कहा,
“कैसे?” उसने पूछा,
“कभी सोचा? एक ही माँ? एक ही पिता? एक ही वीर्य? एक ही रज? एक ही कोख? तो भाइयों में इतना अंतर कैसे? एक की सोच क्या, और एक की क्या? एक लम्बा, और एक छोटा! कभी सोचा? सबकी शक्लों में अंतर अवश्य ही होगा! कभी सोचा?” मैंने पूछा,
“नहीं” वो बोली,
“तो मेरी प्रिय एस्टेला! आरम्भिक ज्ञान आवश्यक है, दूसरे ज्ञान को प्राप्त करने के लिए! एक साथ चाहिए!” मैंने कहा,
वो चुप रही!
और कुछ नहीं पूछा!
फिर से एक और पैग!
“क्या करती हो वहाँ, अपने देश में?” मैंने पूछा,
“मैं प्रेस में हूँ वहाँ” उसने कहा,
“अच्छा!” मैंने कहा,
“विवाह नहीं किया?” मैंने पूछा,
“सोचा ही नहीं” उसने कहा,
“क्या विचार है?” मैंने पूछा,
“नहीं सोचा” वो बोली,
“नहीं करना?” मैंने पूछा,
“पता नहीं” वो बोली,
“आपकी इच्छा” मैंने कहा,
फिर मैं उठा!
अंगड़ाई ली!
और फिर बैठ गया!
वहाँ एक किताब पड़ी थी!
अध्यात्म के विषय में!
मैंने उठायी,
किसी पश्चिमी लेखक की थी!
मैंने पढ़ी!
समझ नहीं आयी उसकी बात!
उलझी हुई बात थी!
मतलब कि सरल सी बात को कठिन बना दिया गया था!
मैंने रख दी वहीँ!
फिर से एक और गिलास!
जैसे ही उसके लिए बनाने लगा,
पानी खतम हो गया था,
“मैं लाती हूँ” उसने कहा,
“नहीं, मैं लाता हूँ” मैंने कहा,
“लाइए?” उसने कहा,
“बैठी यहाँ!” मैंने कहा,
और मैं चला गया बाहर!
पानी ले आया!
और फिर बना दिया उसका गिलास!
और फिर पिया हमने!
अब मदिरा से उसका चेहरा खुमारी पकड़ गया!
लालिमा छा गयी!
उसने अपने बाल खोले,
झटका दिया,
और फिर से बाँध लिए!
बहुत सुंदर है वो!
सच में!
बहुत सुंदर!
कद उसका कोई होगा पांच फीट और दस इंच!
तंदुरुस्त है!
भरी भरी!
गोल गोल!
खैर!
“क्या सोचा फिर?” मैंने पूछा,
“किस बारे में?” उसने पूछा,
“जाओगी वापिस?” मैंने पूछा,
“नहीं, अभी नहीं” उसने कहा,
“अब सरूप तो गया, अब कहाँ जाओगी?” मैंने पूछा,
“आपके साथ” उसने कहा,
गड्ढा सा खुद गया मेरे सामने!
और मैं गिरते गिरते बचा उसमे!
“मेरा कोई स्थान नहीं” मैंने कहा,
“कोई बात नहीं” उसने मुस्कुरा के कहा,
“मैं दिल्ली में रहता हूँ, अब निकलूंगा एक दो दिन में” मैंने कहा,
“मैं भी चलूंगी” उसने कहा,
मैंने लिखा था न!
कि मुसीबत आमंत्रित कर ली थी मैंने!
“वहाँ एक छोटा सा स्थान है मेरा” मैंने कहा,
“कोई बात नहीं, मैं रह लूंगी” वो बोली,
“नीचे सोना होगा!” मैंने कहा,
“सो लूंगी” उसने कहा,
“कच्चा-पक्का खाना होगा” मैंने कहा,
“कोई बात नहीं” वो बोली,
अड़ गयी थी वो तो!
मैं लाल हुआ अब!
रंग चढ़ने लगा!
एक तो मदिरा!
और ऊपर से उसकी ज़िद!
झट से!
एक और पैग!
उसने भी लिया!
“सुंदर हो तुम!” मैंने कहा,
मुस्कुरायी!
“शुक्रिया!” उसने कहा,
वो उठी, और फिर गुसलखाने में चली गयी!
और मैं सोचता रह गया!
वो आयी वापिस!
और बैठ गयी!
मैंने बोतल देखी!
अभी थी मदिरा शेष उसमे!
मैंने और डाली!
और उस से पूछा,
उसने हाँ कहा,
और मैंने उसका गिलास भर दिया!
और फिर हम दोनों पी गए!
“एक और प्रश्न करूँ?” उसने पूछा,
“करो” मैंने कहा,
“पुनर्जन्म होता है?” उसने पूछा,
“हाँ” होता है,
“कैसे?” उसने पूछा,
“उदाहरण देता हूँ, सुनो ध्यान से!” मैंने कहा,
उसने कान लगा दिए!
आखों की पुतलियाँ केंद्रित हो गयीं!
“आपके पास दस मोमबत्तियां हैं! आपने एक मोमबत्ती को प्रज्ज्वलित किया, फिर उस से दूसरी, और दूसरी से तीसरी, तीसरी से चौथी, और इसी तरह नौवीं से दसवीं! अब इसमें से कौन सी पहली है? अर्थात, कौन सी असली है?” मैंने पूछा,
“सभी असली हैं” वो बोली,
“इसी प्रकार! आप कह सकते हैं कि पहली मोमबत्ती के लौ ही आगे तक जलती रही! और ऐसे ही निरंतर मोमबत्तियां जलती रहेंगी! जलाने वाला वो! रचियता! ज्योत! अर्थात आत्मा! और मोमबत्ती! अर्थात शरीर! क्षय किसका हुआ? मोमबत्ती का! अर्थात शरीर का! लेकिन लौ सदैव आगे बढ़ती रहती है!”
मैंने समझाया!
वो नहीं समझी!
“नहीं समझी मैं?” उसने कहा,
तड़प सी गयी!
“बताता हूँ! ये जो लौ है, इसमें रंग हैं! पीला, लाल, नीला, सफ़ेद आदि आदि, ये हमारे कर्मों का विपाक है! विपाक दो तरह के हैं, अच्छा और बुरा! विपाक जितना शुद्ध होगा, उतना ही भार होगा उस लौ में! इसी कारण से एक भाई पतला-दुबला और एक हृष्ट-पुष्ट होता है! ये विपाक फल है! विपाक के अनुसार ही आपको मोमबत्ती मिलती है! कभी मज़बूत और कभी कमज़ोर! और हम! केवल जलते रहते हैं! जलते रहते हैं और क्षय हो जाते हैं! इसका कारण है इच्छा! ये इच्छा ही जब पूर्ण नहीं हो पाती और उस संधि पर टूट जाती है जहाँ ये लौ बुझती है,
वो छूट पड़ती है, इसी इच्छा के आवरण में लिपटी हुई और किसी भी गर्भ में प्रवेश कर जाती है, उस जातक को फिर अपना पूर्व-जन्म याद रहता है! ये है आपके प्रश्न वाले पुनर्जन्म का उत्तर!” मैंने कहा,
“ओह…बहुत विस्तृत है ये ज्ञान” वो बोली,
“अत्यंत गूढ़ है!” मैंने कहा,
फिर से एक और पैग!
अब उसने नहीं लिया!
वो उलझ गयी थी!
मैंने भी नहीं टोका!
और अपना गिलास गटक लिया!
तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई!
दरवाज़ा खोला एस्टेला ने!
ये शर्मा जी थे!
“आओ” मैंने कहा,
“वो बाबा जौहर न बुलाया है आपको” वे बोले,
“अच्छा” मैंने कहा,
“तुम बैठो, मैं आता हूँ” मैंने कहा और मैं चला गया!
वहाँ पहुंचा!
बाबा जौहर बैठे थे वहाँ!
और वो सरूप भी!
और एक और बाबा! वृद्ध था वो!
मैं बैठा,
“हाँ जी?” मैंने कहा,
“ये लड़की को लेने आये हैं” वे बोले,
“लड़की ने तो मना कर दिया जाने से?” मैंने कहा,
“ये कहते हैं कि इन्होने बात की उस लड़की की ऑन्टी से, अब ऑन्टी ने कहा है कि एक बात बात करवा दें उसकी” वे बोले,
“ठीक है” मैंने कहा,
मैं उठा,
और लेने चला गया उसको!
उसको लाया,
और बिठा दिया उधर!
वो घबरा गयी!
मैंने आँखों से इशारा कर दिया!
आराम से बैठो, ऐसे!
तब जौहर ने फ़ोन लगाया,
गंती गयी,
और काट दिया,
अब वहाँ से आना था फ़ोन,
आ गया!
जौहर ने बात की,
और फिर फ़ोन दे दिया एस्टेला को,
अब उसने बात की,
काफी देर तक,
फिर उसने मना कर दिया साथ जाने को!
एक दम साफ़ साफ़ मना!
फ़ोन काट दिया उसने!
और दे दिया मुझे,
मैंने दे दिया जौहर बाबा को!
मैं मुस्कुराया!
वो बैठ गयी मेरे साथ!
“जाओ अपने कमरे में जाओ” मैंने कहा,
वो जाने लगी तो वो वृद्ध खड़ा हो गया!
“सुन लड़की?” वो बोला,
“अरे जाओ तुम” मैंने कहा,
वो चली गयी!
“कौन है तू?” उसने मुझसे पूछा,
मैंने नहीं बताया उसे!
“अच्छा नहीं किया तूने!” वो बोला,
“बाबा, इनको भेजो यहाँ से” मैंने कहा,
बाबा ने उनको जाने को कह दिया!
वे उठे!
“जान से मार दूंगा तुझे” वो वृद्ध बोला,
मैं हंसा!
“कब्र में पाँव लटकाये बैठे हो, इतनी बड़ी बात नहीं करते, बाबा!” मैंने कहा,
“नहीं जानता मैं कौन हूँ” उसने कहा,
“कौन हो?” मैंने पूछा,
“मैं जोधराज औघड़ हूँ” वो बोला,
“अच्छा!” मैंने कहा,
“समझ ले, भेज दे लड़की को” वो बोला,
“ऐसा है, अब निकल ले यहाँ से, इसी क्षण” मैंने कहा,
“बॉट बुरा कर रहा है तू” उसने कहा,
“कर दिया!” मैंने कहा,
“तो सुन! इस दशमी को तैयार हो जा! तेरी अर्थी उठ जायेगी उस दिन!” वो बोला,
ये चुनौती थी!
“जा! दशमी को ही देखते हैं” मैंने कहा,
उसने चादर लपेटी!
और जौहर को लेकर निकल गया!
“कौन है ये जोधराज?” मैंने पूछा बाबा से,
“है, पहुंचा हुआ है!” वे वोले,
“कहाँ का है?” मैंने पूछा,
“यहीं का है, परले घाट का” वे बोले,
“चुनौती दे गया है!” मैंने कहा,
“हाँ” वो बोले,
“कोई बात नही” मैंने कहा,
और निकल आया वहाँ से!
सीधा एस्टेला के पास पहुंचा!
वो खड़ी हुई!
मेरा इंतज़ार कर रही थी!
मेरे सामने आयी!
बेचैन!
परेशान!
“क्या हुआ?” मैंने पूछा,
कुछ न बोली,
हाथ से हाथ रगड़ती रही!
मैंने हाथ पकड़ा उसका!
पसीने से तर था हाथ!
“घबरा गयीं?” मैंने पूछा,
कुछ न बोली!
“आओ बैठो” मैंने कहा,
और बैठ गए हम!
“मुझे धमकाने आया था!” मैंने कहा,
घबरा गयी!
“लेकिन डरो नहीं!” मैंने कहा,
उसने डरती आँखों से देखा मुझे!
“ऐसे डरोगी तो कैसे होगा?” मैंने पूछा,
“अब आराम करो, मैं चलता हूँ” मैंने कहा,
तो मेरा हाथ पकड़ लिया उसने!
मुझे देखा!
मैंने भी देखा!
मैं बैठ गया!
माथे पर पसीने छलक आये थे उसके!
मैंने हाथ से पोंछे!
आँखें नीचे कीं उसने!
“वो खतरनाक हैं” वो बोली,
“अच्छा!” मैंने कहा,
और मुस्कुराया!
“सच में” वो बोली,
“होने दो!” मैंने कहा,
मैं फिर से उठा!
फिर से मेरी कमीज़ पकड़ ली!
“इतना मत डरो एस्टेला?” मैंने कहा,
सर नीचे थे उसका,
कुछ न बोली,
मैं बैठा,
उसकी चिबुक पर आंसू की बूँदें आयीं,
मैंने चेहरा उठाया उसका,
आँखें आंसूओं से लबालब!
अब क्या कहूं?
समझा तो चुका मैं!
“अरे एस्टेला! मज़बूत बनो!” मैंने कहा,
आंसूं पोंछे उसने!
और मुझे देखा!
