“किस बात से डर?” मैंने पूछा,
वो कुछ न बता सकी,
अब भय तो था,
खैर,
मैं समझ सकता था,
उसको डर था,
बाबा की शक्तियों का,
बाबा ने डराया होगा उसको,
कुछ अंट-शंट दिखा भी दिया होगा,
कोई क्रिया आदि,
इसीलिए डर गयी थी वो!
“मत डरो, मैंने कहा न, मत डरो” मैंने कहा,
“एस्टेला?” मैंने कहा,
“हाँ?” उसने मुझे देखते हुए कहा,
“कब से हो यहाँ तुम?” मैंने पूछा,
“एक महीने से” उसने कहा,
“और बाबा सरूप के पास?” मैंने पूछा,
“बीस-बाइस दिनों से” वो बोली,
“अच्छा” मैंने कहा,
बीस-बाइस दिन में तो क्रिया आदि दिखा भी दी होगी उसने,
इसी लिए डर गयी थी!
“एक काम करो” मैंने कहा,
“क्या?” उसने पूछा,
“अब सो जाओ, सुबह बात करते हैं” मैंने कहा,
“अच्छा, ठीक है” वो बोली,
“अब सुबह मिलते हैं, आराम करो अब” मैंने कहा,
और उठ गया,
“दरवाज़ा बंद कर लो अंदर से” मैंने कहा,
मैं बाहर गया,
और दरवाज़ा बंद हुआ,
और मैं अपने कमरे के लिए चल पड़ा!
वहाँ पहुंचा,
शर्मा जी लेटे हुए थे,
सो गये थे,
आज पी बहुत ज्य़ादा थी!
मैं भी लेटा और फिर आँखें बंद कर ली,
आयी नींद और सो गया मैं!
सुबह नींद देर से खुली,
आठ से ऊपर का समय था!
मैं उठा, सर भारी था बहुत,
अभी तक खुमारी बाकी थी,
शर्मा जी अभी तक सोये हुए थे,
मैंने सोने दिया,
मैं स्नानादि से फारिग होने चला गया,
वापिस आया,
और बैठा,
स्नान से ताज़गी मिली और फिर मैं बाहर गया,
बाहर बैठा,
अभी एस्टेला का कमरा बंद था, अभी नहीं उठी थी वो,
उसको सोने ही दिया जाए तो ठीक था,
मैं टहलता रहा वहीँ,
तभी, थोड़ी देर में दरवाज़ा खुला एस्टेला का,
मैं चल पड़ा उसकी तरफ,
“सुप्रभात!” वो मुस्कुरा के बोली,
“सुप्रभात” मैंने कहा,
स्नान आदि कर लिया था उसने!
हम बाहर ही टहलने लगे!
“चाय पीनी है?” मैंने पूछा,
“हाँ” वो बोली,
“चलो फिर” मैंने कहा,
और उसको लेकर मैं चला आया एक जगह,
बिठाया, और चाय ले आया,
हम चाय पीने लगे फिर,
“नींद सही आयी?” मैंने पूछा,
“हाँ” उसने कहा,
“चलो, ठीक है, रात तो नाटक हुआ!” मैंने कहा,
चुप ही रही!
“कौन था वो जो तुम्हे खींच रहा था?” मैंने पूछा,
“वो वहीँ का है वो” वो बोली,
“ऐसे ही व्यवहार करते हैं वे लोग?” मैंने पूछा,
उसके चेहरे से पता चला कि वो बर्दाश्त करती आ रही है, ऐसा व्यवहार!
“अब क्या करना है?” मैंने पूछा,
“मैं समझी नहीं?” उसने पूछा,
“मतलब अब कहाँ जाओगी? अपने देश वापिस या यहीं रहोगी और अभी?” मैंने पूछा,
“अभी नहीं सोचा मैंने” वो बोली,
“एक सलाह दूँ?” मैंने कहा,
“हाँ?” वो बोली,
“सुनो, एक बात बताना चाहूंगा, ये जो ऐसे बाबा लोग हैं, ये गंदे मिजाज़ के लोग हैं, इनकी मानसिकता बहुत गन्दी है, ये तो यहीं लड़कियों का और महिलाओं का शोषण किया करते हैं, और फिर तो विदेशी हो, तुम्हे कैसे छोड़ेंगे? और तुम देखने में भी काफी अच्छी हो” मैंने कहा,
“तो मैं क्या करूँ?” उसने पूछा,
“वापिस चली जाओ” मैंने कहा,
और चाय ख़तम की मैंने,
वो अभी पी रही थी,
उसने मुझे देखा, अजीब सी निगाह से,
“क्या हुआ?” मैंने पूछा,
“कुछ नहीं” वो बोली,
“एक बात और पूछूं?” मैंने कहा,
“हाँ, पूछिए?” उसने कहा,
“क्या उम्र है तुम्हारी?” मैंने पूछा,
“कितनी होगी?” उसने मुझ से ही पूछ लिया,
“अ…कोई पच्चीस-छब्बीस?” मैंने कहा,
“सत्ताइस” उसने कहा,
“अच्छा!” मैंने कहा,
चाय ख़तम कर ली उसने!
“चलो” मैंने कहा,
और हम चले फिर,
उसके कमरे में आये,
बैठे,
फिर उसने अपना बैग खोला,
और फिर एक फोल्डर,
फिर मुझे दो फ़ोटो दिए,
“ये मेरी माँ और मेरा भाई” उसने कहा,
“वाह! और तुम कहाँ हो?’ मैंने पूछा,
“मैं फ़ोटो खींच रही हूँ” बोला कर हंस पड़ी!
मैं भी हंस पड़ा!
“ये तुम्हारा घर है?” मैंने पूछा,
“हाँ” उसने कहा,
“बहुत खूबसूरत है!” मैंने कहा,
“धन्यवाद!” वो बोली,
वैसे एक बात है!
दाद देनी पड़ेगी! वो अकेली इतनी दूर से यहाँ अनजान लोगों में चली आयी थी! कमाल की बात थी! उसने विश्वास किया था हम लोगों पर! और हम ही चीर-फाड़ करने को आमादा थे! निहायत ही शर्म की बात है ये!
“ये बाबा सरूप कहाँ से मिला तुमको?” मैंने पूछा,
“मुझे मिलवाया था किसी ने” वो बोली,
“कौन किसी?” मैंने पूछा,
“मेरी एक आंटी यहाँ रह कर गयी हैं, उन्होंने ही भिजवाया था मुझे उसके पास” वो बोली,
“अच्छा, अब मैं समझा!” मैंने कहा,
“उन्होंने ही बताया था मुझे” वो बोली,
“इसीलिए तुम आयीं यहाँ” मैंने कहा,
“हाँ” वो बोली,
“क्या प्रश्न हैं तुम्हारे जिनके उत्तर चाहियें तुम्हे?” मैंने पूछा,
“बहुत प्रश्न हैं” उसने कहा,
“जैसे?” मैंने पूछा,
“सत्य और असत्य में क्या भेद है?” उसने पूछा,
“ओह! समझा मैं! मैं दूंगा तुम्हे उत्तर! जितना जानता हूँ, उतना दूंगा उत्तर!” मैंने कहा,
“धन्यवाद” वो बोली,
उसके प्रश्न आध्यात्म के विषय में थे!
मैं जान गया था!
भारतीय आध्यात्म और रहस्यवाद से खींचे चले आते हैं पश्चिम से कुछ बुद्धिजीवी! एस्टेला उन्ही में से एक थी!
मैं उठा,
“आउंगा मैं बाद में, कुछ चाहिए हो तो मुझे बुला लेना या फिर खुद ले लेना” मैंने कहा,
हाँ” वो बोली,
और मैं फिर निकल आया कमरे से बाहर!
और चला अपने कमरे के लिए,
वहाँ पहुंचा,
शर्मा जी उठ चुके थे,
और अब नहाने-धोने की तैयारी में लगे थे!
मैं बैठ गया वहीँ,
और वे चले गए नहाने!
मैंने एक पत्रिका उठायी,
और पढ़ने लगा!
एक लेख था,
बढ़िया लगा,
तो सारा पढ़ गया!
लेखक ने बढ़िया लिखा था वो लेख!
शर्मा जी आ गए,
“चाय पी ली?” उन्होंने पूछा,
“हाँ” मैंने कहा,
“और उसने?” उन्होंने पूछा,
“हाँ, पी ली” मैंने कहा,
“ठीक है, मैं ले के आता हूँ” वे बोले,
वे चले गए!
थोड़ी देर बाद आये,
दो कप ले आये थे!
सो पीनी ही पड़ी!
“ठीक है लड़की?” उन्होंने पूछा,
“हाँ ठीक है” मैंने कहा,
“ठीक है” वे बोले,
और चाय पीने लगे हम!
चाय ख़तम की,
और मैं लेट गया!
आज दोपहर को कुछ काम था कहीं,
वहाँ जाना था, एक बजे का समय तय था,
भोजन करते ही निकल जाना था वहाँ,
कुछ देर आराम किया,
और फिर कोई एक घंटे के बाद,
एस्टेला आयी मेरे कमरे में,
शर्मा जी ने बिठाया उसको,
वो बैठ गयी!
“क्या बात है?” मैंने पूछा,
“कुछ नहीं, अकेले नहीं बैठे जा रहा था, इसीलिए आ गयी मैं यहाँ” वो बोली,
“चलो ठीक है” मैंने कहा,
मैं बैठ गया था,
हम बातें करते रहे,
“एस्टेला?” मैंने कहा,
“हाँ?” वो बोली,
“मुझे कुछ काम है, दो घंटे लग जायेंगे, अकेले रह लोगी?” मैंने पूछा,
रंग उड़ गया चेहरे का उसके!
मैं भांप गया!
“नहीं, मैं भी…चलती हूँ” वो बोली,
“ठीक है, चलो” मैंने कहा,
फिर हम तीनों अपने अपने कमरों को ताला लगा कर, निकल पड़े!
सवारी पकड़ी और पहुंचे वहाँ!
यहाँ मैंने शर्मा जी और एस्टेला को एक जगह बिठा दिया,
और खुद चल पड़ा मिलने,
अपने एक जानकार से,
कृष्णकांत नाम है उनका,
काम था उनसे सो,
मैं मिला,
करीब डेढ़ घंटा लगा गया!
और फिर मैं वापिस हुआ,
शर्मा जी और एस्टेला वहीँ बैठे थे!
अब हम चले तीनों वहाँ से बाहर!
सवारी पकड़ी और फिर वापिस हुए वहाँ से!
और पहुंचे अपने डेरे!
अपने अपने कक्ष में गए!
और फिर आ गयी एस्टेला मेरे कक्ष में!
अकेले नहीं रह पाती थी वो!
“भोजन हो जाए अब” मैंने कहा,
“आप बैठो, मैं कह कर आता हूँ” वे बोले,
और चले गए!
फिर आये!
और खाना भी लगा दिया गया!
हम तीनों ने भोजन किया!
और फिर हाथ-मुंह धोकर बैठ गए!
एस्टेला को मैं छोड़ने चला गया उसके कमरे में!
अब थोडा सा आराम करना उचित था!
सो आराम किया अब!
तो साहब!
अब हुई शाम!
और लगी हुड़क!
एस्टेला भी हमारे साथ ही बैठी थी!
आज शर्मा जी का मन नहीं था पीने का,
पेट खराब था उनका, सो उन्होंने रहने दिया,
अब रहे मैं और एस्टेला!
मैंने सोचा कि क्यों न एस्टेला के कमरे में ही बैठ कर मदिरा का आनंद लिया जाए!
शर्मा जी आराम भी कर लेंगे!
तो हम चल पड़े उसके कमरे की तरफ!
एस्टेला कमरे में गयी, और मैंने बोतल दी उसको, और चला गया सामान लेने!
सामान लाया और फिर हम हुए शुरू!
एक दो पैग हम ले चुके थे!
“एस्टेला?” मैंने कहा,
“हाँ?” वो बोली,
“तुमने पूछा था न कि सत्य और असत्य में क्या भेद है?” मैंने कहा,
“हाँ” वो बोली,
“भेद है! बहुत बड़ा भेद है!” मैंने कहा,
“क्या?” उसने पूछा,
“जैसे दिन और रात! जैसे ज़मीन और आकाश!” मैंने कहा,
“मैं नहीं समझी?” वो बोली,
“एस्टेला! कर्म के कई भेद हैं, एक जो जिव्हा से किया जाता है, एक जो मन से किया जाता है, एक जो अंगों द्वारा किया जाता है, एक जो नेत्रों द्वारा किया जाता है, ऐसे कई कर्म है! जिसका भान हमको सदैव रहता है! और कुछ कर्म ऐसे हैं जिसका भान हमको बाद में होता है, जैसे अवचेतन में प्रकट हुए स्वप्न! जैसे नथुनों में ली हुई गंध! जैसे कानों से सुनी हुई ध्वनि! ग्रास किया हुआ भोजन, उसका स्वाद, इनका भान हमको उस कर्म के हो चुकने के बाद होता है! इन पर हमारा बस नहीं है!” मैंने कहा,
वो हैरान थी सुन कर!
कि पूछा क्या और खुला क्या!
“बताता हूँ, जिनका भान हमको रहता है, असत्य उसी में जन्म लेता है! अर्थात प्रत्यक्ष कर्म! इनमे जन्म लेता है असत्य! अप्रत्यक्ष कर्मों में असत्य जन्म नहीं लेता!” मैंने कहा,
वो गौर से सुन रही थी!
“ज्ञान के दो प्रकार हैं! प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष! प्रत्यक्ष वो जिसको हम अपने गुरु, पुस्तकों आदि से ग्रहण करते हैं और मौखिक होता है, अप्रत्यक्ष वो जिसको हम स्व्यं प्रकृति, अपने अनुभव से
सीखते हैं! ये अप्रत्यक्ष ज्ञान स्थायी होता है! यहाँ तक कि विक्षिप्तता में भी ये ज्ञान जागृत रहता है, जैसे आग जलाती है, पानी गीला करता है आदि आदि!” मैंने कहा,
उसने आँखें मेरे ऊपर ही टिका रखी थीं!
गौर से सुन रही थी!
“जिस कर्मा का हमे भान रहता है और उसे हम नहीं मानते या झुठला देते हैं तो असत्य का जन्म होता है! सत्य तो सदा विद्यमान रहता है! ये न धुंधला होता है और न ही लोप! हाँ, असत्य के परदे से कुछ समय के लिए अस्थायी रूप से लोप हो ज़रूर सकता है, परन्तु मिटता कभी नहीं! ये है मूल भेद!” मैंने कहा,
वो अवाक!
“अब समझ गयीं?” मैंने पूछा,
वो तो प्रतिमा सी देखे मुझे,
“एस्टेला?” मैंने कहा,
चुप!
“कहाँ खो गयीं?” मैंने कहा,
शून्य से निकली वो!
“क्या हुआ?” मैंने पूछा,
चुप!
बिलकुल चुप!
“सत्य को कैसे झुठलाया जा सकता है?” उसने पूछा,
“यही कह कर कि सूर्य पूर्व से नहीं, पश्चिम से उदय होता है!” मैंने कहा!
“वो कैसे?” उसने पूछा,
“एस्टेला! सत्ता! सत्ता जो कहती है, मान लिया जाता है, या मनवा लिया जाता है, अपने उद्देश्य हेतु शाश्वत सत्य को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है! अपने अपने मार्ग को उच्च और दूसरे के मार्ग को हीं कहा जाता है!” मैंने कहा,
सत्य!” वो बोली,
“हाँ, सत्य!” मैंने कहा!
“सत्य को परखा जा सकता है, असत्य को नहीं! चूंकि असत्य का कोई रूप ही नहीं है!” मैंने कहा!
“हाँ!” वो बोली,
फिर से एक और पैग!
“सत्य के कई रूप हैं! यदि छिद्रान्वेषण किया जाए तो, मूल रूप से मैं तुमको दो बताता हूँ, एक मौखिक सत्य और दूसरा शाश्वत सत्य!” मैंने कहा,
“मौखिक सत्य कौन से हैं?”
“वो सत्य जो हमको हमारे माता-पिता अथवा बुज़ुर्गों द्वारा उनके अनुभव से प्राप्त होते हैं!” मैंने कहा,
“और शाश्वत सत्य?” उसने पूछा,
“जो अटल हैं!” मैंने कहा,
“जैसे?” उसने पूछा,
“मृत्यु, वृद्धावस्था, क्षय आदि ये शाश्वत सत्य हैं” मैंने कहा,
“ओह..” वो बोली,
“एक और सत्य है, ये लघु-सत्य कहा जाता है!” मैंने कहा,
“कैसे?” उसने पूछा,
“स्वर्ग! नरक!” मैंने कहा,
“नहीं समझी” उसने कहा,
“स्वर्ग किसी ने नहीं देखा, कोई वर्णन नहीं, कोई लौट कर नहीं आया, कोई अनुभव नहीं, कोई साक्ष्य नहीं! ऐसे ही नरक! परन्तु इनको स्थायी माना जाता है, ये लघु-सत्य है!” मैंने कहा,
“ओह..हाँ!” वो बोली,
खो गयी!
इन उत्तरों में खो गयी वो!
सुघ-बुध गँवा बैठी!
मैं देखता रहा उसे!
वो भी कभी-कभार मुझे देखती!
मुस्कुराती!
और मैं भी!
“आपने कहाँ से अर्जित किया ये ज्ञान?” उसने पूछा,
“ज्ञान तो प्रकृति में कूट कूट के भरा है! लेने वाला होना चाहिए!” मैंने कहा,
“कैसे?” उसने पूछा,
“मेह से पहले, चींटियाँ अपने अंडे उठाकर ले जाती हैं दूसरे स्थान पर, सुरक्षित स्थान पर, चिड़िया रेत में लोटने लगती हैं, नहाने लगती हैं, मिट्टी में नहाती हैं, उनको ये भान होता है, कि उस चमकते-दमकते सूरज वाले दिन ही बरसात होगी, अच्छी-खासी बरसात!” मैंने कहा!
“अच्छा?” उसने कहा,
“हाँ!” मैंने उत्तर दिया!
“और कुछ ऐसा ही?” उसने पूछा,
“श्वान बैठने से पहले या तो ज़मीन खोदता है या फिर पूँछ से साफ़ करता है, इसका अर्थ क्या हुआ?” मैंने पूछा,
“पता नहीं?” वो बोली,
“अर्थात, उसको कष्ट देने वाला कोई कीड़ा-मकौड़ा हो तो हट जाए! अर्थात हमको वहीँ बैठना चाहिए जहां कोई दोष न हो! चूंकि निरंतर चलते रहना ही मानव जीवन है!” मैंने कहा,
“हाँ, सही कहा!” वो बोली,
“तो ज्ञान तो सर्वत्र है!” मैंने कहा,
“हाँ” वो बोली,
फिर से एक और पैग!
फिर से खोयी वो!
अध्यात्म!
इसका कोई अन्त नहीं!
कोई लघु-रूप नहीं!
कोई पिंड नहीं!
ज्ञान!
कोई सूक्ष्म नहीं!
ये तो दीर्घ है!
और बहुत हल्का!
जितना ग्रहण कीजिये उतना ही कम!
इसीलिए,
ज्ञान सदैव अर्जित करते रहना चाहिए!
प्रकृति से!
पेड़ों से!
पौधों से!
जानवरों से!
भूमि से!
आकाश से!
ये सर्वत्र उपलब्ध है!
