हम बहुत देर तक बैठे वहाँ!
और हुए फिर वापिस!
आये,
मुझे अपने कमरे में ले गयी वो!
मैं बैठा!
वो भी बैठी!
“अब कल चलते हैं दिल्ली” मैंने कहा,
“ज़रूर!” वो बोली,
“अब सो जाओ” मैंने कहा,
“आप भी” वो बोली,
यहाँ मौसम ठंडा सा था!
मैं लेट गया!
वो भी लेट गयी!
एक खेस ओढ़ा,
और आँखें बंद कीं!
मेरे ऊपर हाथ रखा उसने,
एक पाँव भी,
मैं उसके सर पर हाथ फिराता रहा,
जब तक वो सो नहीं गयी!
जब सोयी,
तो मैं भी सो गया!
सारी रात कसे रही मुझे!
और मैं ढकता रहा उसको!
सुबह हुई!
हम जागे!
स्नान आदि से फारिग हुए!
चाय पी,
और फिर अपना सारा सामान उठाया!
और विदा ली अपने जानकारों से,
स्टेशन पहुंचे,
और फिर गाड़ी में हुए सवार!
सीट का प्रबंध किया,
हो गया!
और हम चल पड़े दिल्ली की ओर!
बहुत खुश थी एस्टेला!
उसका खिड़की से बाहर झांकना,
मुझे आज भी याद है!
हम पहुँच गए दिल्ली!
और फिर वहाँ से,
अपने स्थान!
अब शर्मा जी चले गये थे,
अपने आवास!
अब रह गए मैं और एस्टेला वहाँ!
पानी पिया हमने!
और फिर मैं उसको अपने कक्ष में ले गया!
उसको बिठाया!
और खुद भी बैठ गया!
“ये है मेरा स्थान” मैंने कहा,
“बहुत सुंदर है!” वो बोली,
फिर उठी!
मैं भी उठा,
सामने तक गयी!
यहाँ एक बेरी का पेड़ है!
गोल बेर आते हैं उस पर,
एकदम मीठे!
“ये बेर हैं न?” उसने पूछा,
“हाँ” मैंने कहा,
“वाह!” वो बोली,
“खाओगी?” मैंने पूछा,
“हाँ” वो बोली,
मैंने एक सहायक को आवाज़ दी,
और आया,
और उस से बेर तोड़ने को कह दिया,
“आओ” मैंने कहा,
वो चली!
“वाह!” वो बोली,
मैंने एक बगिया लगा रखी है उधर!
वही देखा उसने!
बेलें हैं,
काशीफल की,
तोरई की,
खीरे की,
घीये की,
आदि आदि सब्जियां!
“आओ” मैंने कहा,
“पूरा बंदोबस्त कर रखा है आपने तो!” वो बोली,
“हाँ” मैंने कहा,
“एकदम ताज़ा!” वो बोली,
“हाँ” मैंने कहा,
और फिर एक टमाटर तोड़ लिया!
दे दिया उसको,
उसने वहीँ पानी से साफ़ किया,
और खाना शुरू किया!
रसदार टमाटर था वो!
पिचकारियाँ छूट रही थीं!
वो हंस रही थी!
और मैं भी!
तभी सहायक आया,
और ढेर सारे बेर दे गया,
“ये लो” मैंने कहा,
उसने लिए,
और खाने शुरू किये,
“बहुत मीठे हैं!” वो बोली,
“ये पेड़ मैंने ही लगाया था, ये झांसी का है!” मैंने कहा,
“बहुत बढ़िया!” वो बोली,
और अब मैं ले चला उसको कमरे में!
वो बेर खाती रही!
और गुठलियां वहीँ रखती रही!
“यहाँ पांच कमरे हैं मेरे पास” मैंने कहा,
“अच्छा!” वो बोली,
“अब यहीं रहो” मैंने कहा,
“हमेशा के लिए?” उसने पूछा,
मैं मुस्कुरा गया!
“बैठो तुम, मैं स्नान करके आता हूँ” मैंने कहा,
“ठीक है” वो बोली,
और मैं चला गया,
स्नान किया,
और वापिस आया,
“ख़त्म बेर?” मैंने पूछा,
नहीं, हैं अभी, पेट भर गया मेरा!” वो बोली,
“कोई बात नहीं, बाद में खा लेना” मैंने कहा,
“हाँ” वो बोली,
सरसों का तेल लगाया मैंने बालों में,
और सूखने के लिए तौलिये से झाड़ा दिया,
“सुनो?” उसने कहा,
“हाँ?” मैंने कहा,
“मुझे भी नहाना है” वो बोली,
“अच्छा” मैंने कहा,
मैं बाहर गया,
सहायिका को आवाज़ दी,
वो आयी,
और साथ भेज दिया एस्टेला को उसके,
एस्टेला ने अपने वस्त्र उठाये और चली गयी,
अब मैं बैठ गया,
बाल सूख गए,
बाँध लिए,
और तौलिया बाहर लटका दिया,
तभी आ गयी वो!
सफ़ेद सूट में!
बाल पोंछती हुई!
बैठ गयी!
सहायिका आयी,
और उसके कपड़े दे गयी,
भूल गयी थी वो!
“कुछ खाओगी?” मैंने पूछा,
“नहीं, अभी नहीं” वो बोली,
मैं लेट गया फिर,
और वो बैठी रही!
चाय ले आया सहायक,
सो, अब चाय पी,
और फिर लेट गया!
वो बैठी रही,
और अपनी वो पत्रिका पढ़ती रही!
मुझे नींद आ गयी,
और मैं सो गया फिर!
काफी देर तक सोया मैं,
कोई तीन घंटे!
एस्टेला भी सो गयी थी, वहां उसी बिस्तर पर,
मैं उठा,
अब शाम हो चुकी थी,
लगी हुड़क!
और तभी शर्मा जी का फ़ोन आ गया,
कहीं बात करने को बोला मुझे,
मैंने बात की उधर फिर,
और यहाँ मैंने अपनी बोतल निकाल ली थी,
मैं सहायक को खाने के लिए कुछ लाने को कहा,
और वापिस हुआ कमरे में,
एस्टेला जाग गयी थी!
मुस्कुरायी!
और फिर हाथ-मुंह धोने चली गयी!
सहायक आ गया,
सामान रख दिया,
सलाद और दही थी!
वो गया और एस्टेला आयी,
मैंने अब गिलास बनाये दो,
एक दिया उसको और लिया मैंने,
भोग दिया,
और गटक लिया!
उसने भी पी लिया,
और दही ली साथ!
“क्या यही जीवन है?” उसने पूछा,
प्रश्न गम्भीर था!
“नहीं, ये जीवन नहीं है!” मैंने कहा,
“समझाइये” वो बोली,
“एस्टेला, इस संसार में हम उस पर यक़ीन कर लेते हैं जो इस आँख से देखते हैं, जो हम अपने कान, नाक आदि से गृहण करते हैं, परन्तु यही संसार नहीं! संसार इन आँखों के परे है! ये संसार भौतिक है, और वो सूक्ष्म!” मैंने कहा,
“अंतर क्या है?” उसने पूछा,
“प्रत्येक स्थूल-तत्व पर गुरुत्व का प्रभाव पड़ता है, परन्तु सूक्ष्म पर नहीं!” मैंने कहा,
“जैसे?” उसने पूछा,
“आत्मा, भूत, प्रेत आदि ये सब सूक्ष्म तत्व हैं, इनमे शक्तियां हैं, स्थूल में केवल बल होता है, शारीरिक बल! ये स्थूल-तत्व किसी भी सूक्ष्म तत्व से की अपेक्षा सदैव कमज़ोर रहता है, ये सूक्ष्म इसपर कब्ज़ा कर सकता है!” मैंने कहा,
”अच्छा!” वो बोली,
“फिर आप कैसे वश में करते हैं इन आत्माओं को?” उसने पूछा,
“सिद्धियाँ!” मैंने कहा,
“अच्छा! केवल एक सिद्धि से ऐसा सम्भव है?” उसने पूछा,
“नहीं, देखने के लिए अलग, वार्तालाप के लिए अलग! उनको पकड़ने के लिए अलग!” मैंने बताया,
“ये तो बहुत लम्बा सफर है” वो बोली,
“हाँ, बहुत लम्बा!” मैंने कहा,
“क्या एक गृहस्थ ऐसा कर सकता है?” उसने पूछा,
“कर सकता है” मैंने कहा,
“कैसे?” उसने पूछा,
“नियमों का पालन करना!” मैंने कहा,
“ओह…मुश्किल है” वो बोली,
“बहुत मुश्किल है” मैंने कहा,
“आप कैसे आये इस क्षेत्र में?” उसने पूछा,
अब मैंने बता दिया उसे!
“मैं बहुत अव्वल छात्र था अपने छात्र-जीवन में, इन बातों पर यक़ीन नहीं करता था, परन्तु जब मैं अपने दादा श्री के संपर्क में आया तब मैं जाना, कि जो हम देखते हैं वो सत्य है ही नहीं!” मैंने कहा,
“सच कहा आपने” वो बोली,
फिर से एक और पैग!
और पिया हमने!
मैंने उसको अपने दादा श्री की तस्वीर भी दिखायी!
उसने प्रणाम किया!
“मैं इनकी बदौलत से हूँ, जो कुछ भी हूँ” मैंने कहा,
“सच है” वो बोली,
फिर कुछ खाया,
वो खोयी,
कुछ सोच रही थी!
“कहाँ खो गयीं?” मैंने पूछा,
“कहीं नहीं” वो बोली,
“जब वापिस जाओगी तो मेरा देश याद रहेगा तुमको!” मैंने कहा,
“हाँ, हमेशा!” वो बोली,
“आपका स्वागत है, हर बार!” मैंने कहा,
वो मुस्कुरायी!
और फिर से दौर शुरू!
सहायक आया,
खाना रख गया,
फिर पानी ले आया,
और पानी रख दिया,
मैंने पानी लिया,
और भर लिया जग में,
और फिर से भर दिए गिलास!
और पीते रहे हम!
कुछ और प्रश्न,
और कुछ और जवाब!
फिर खाना,
और फिर आराम!
रात हो ही चुकी थी!
मित्रगण!
दो दिन और गुजरे,
मेरे पास कोई खबर नहीं आयी थी,
न सरूप से और न ही जोधराज के पास से,
और न ही मेरे जानकार बाबा जौहर की ही खबर आयी थी,
आशय स्पष्ट था,
कि जोधराज अब लड़ने लायक नहीं बचा है,
रहा सरूप तो वो क्या करता है,
ये प्रश्न था शेष,
हालांकि उसने क्षमा मांग ली थी,
लेकिन सरूप जैसे व्यक्ति भरोसे के क़ाबिल नहीं हुआ करते,
वो ज़रूर किसी न किसी प्रबंध में लगा ही होगा,
ऐसा मेरा मानना था,
हाँ,
बाबा जौहर से मैंने उनके बारे में पता करने को अवश्य ही बोला था,
सो, वो पता कर लेते और मुझे खबर लग जाती फिर,
अब यहाँ,
यहाँ अब ज़िद पकड़ी एस्टेला ने दिल्ली घूमने की,
तो एक दिन उसको पूरी दिल्ली घुमाई, उसने खरीदारी भी की,
और फिर अपने घर पर फ़ोन भी किये,
मेरी भी बात करवायी अपनी माता जी से,
अपने भाई से,
मैंने भी बात की,
दिल्ली घूमे,
तो फिर ताज महल देखने की बात आयी,
उसको आगरा ले गए हम,
दो दिन रहे,
और उसको आगरा भी घुमा दिया!
ताज महल बहुत पसंद आया उसको!
उसने फ़ोटो और विडियो भी बनाये अपने और हमारे,
वहीँ घूमते हुए,
कुल मिलकर उसका भारत आने का उद्देश्य अब पूर्ण हो चुका था!
मित्रगण!
उसको साथ रहते रहते मेरे,
करीब एक महीना गुजर चुका था!
और फिर एक दिन बाबा जौहर का फ़ोन आया,
उन्होंने बताया कि जोधराज तो मृत्यु-शैया पर लेटा है,
कुछ कहा नहीं जा सकता,
कि जीवित बचेगा या नहीं,
और सरूप वापिस चला गया है,
एक महीना बीत चुका था,
अब वो कुछ करेगा कि भी नहीं, ये पता नहीं था!
खैर,
दो माह पूर्ण हो तो द्वन्द नहीं होता,
पुनः चुनौती आवश्यक है!
अब देगा तो देखा जाएगा!
एक शाम की बात है,
मेरे फ़ोन पर एक फ़ोन आया,
ये मेरे एक जानकार का था,
इलाहबाद से,
कुछ काम था उनका,
कुछ पहले से ही चल रहा था,
उन्होंने बुलाया था मुझे,
दो दिन का काम था,
सो मैं, शर्मा जी और एस्टेला,
हम तीनों निकल गए!
एस्टेला को और भी घूमने को मिला,
तो प्रसन्न हो गयी!
इलाहबाद से वापिस हुए हम,
दिल्ली पहुंचे,
और रही मेरे साथ वो!
अब देसी रंग चढ़ने लगा था उसको!
और मित्रगण!
आया फिर वो दिन!
जब उसको जाना था,
वापिस!
मुझे याद है,
आज भी,
वो रात,
वो आखिरी रात जब मेरे साथ थी वो,
नहीं सोयी थी,
मेरे लाख कहने पर भी!
आँखें सुजा ली थीं उसने!
उसका मन नहीं था जाने का,
लेकिन विवशता थी!
मेरा दिल भी द्रवित था!
उसके साथ मैंने बहुत समय बिता लिया था,
वो अब परदेसी नहीं थी मेरे लिए,
मेरी अपनी ही सी!
बस, मेरा कोई अपना कहीं दूर बसता था!
अगली सुबह,
नहाने-धोने के बाद,
मैए उसको नाश्ता, चाय आदि दिए,
मन मार के लिए,
फिर भोजन कराया!
अरहर की दाल!
कच्चा आम डालकर!
उसने खाया,
और दोपहर बाद,
मैंने उसका सामान उठाया,
आज उसको विदा करना था,
मैं बहुत भावुक था उस दिन!
ऊपर से उसकी बातें!
मुझे छीले जा रही थीं!
खैर,
हम हवाई-अड्डा पहुंचे,
और फिर उसको विदा किया,
