वर्ष २०१२ काशी की ए...
 
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वर्ष २०१२ काशी की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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वो एक गहरी काली रात थी!
आकाश में न तो तारगण ही थे,
और न ही तारापति!
चारों ओर अन्धकार का साम्राज्य था!
चिमटे खड़क रहे थे!
अलख भड़क रही थी!
और रात के पुजारी!
कोई हंस रहा था!
कोई चिल्ला रहा था!
कोई अलख में ईंधन झोंक रहा था!
कोई मदिरा पी,
ढेर हो चला था!
और अभी भी,
मदिरा से द्वन्द में लगा हुआ था!
साध्वियां अपने नृत्य आदि में मस्त थीं!
वहाँ रखे,
सभी कपालों पर टिकाये हुए,
दीये, शांत जल रहे थे!
भोग लगाया जा चुका था!
अब गान हो रहा था!
चिताएँ चुपचाप,
सारा दृश्य देख रही थीं!
चटक चटक की आवाज़ करती हुईं वे चिताएँ,
प्रातःकाल की प्रतीक्षा कर रही थीं!
कब प्रातः हो और कब,
फूल चुने जाएँ!
और हम सब औघड़,
और श्री महाऔघड़ की स्तुति कर,
पूरे श्मशान को जीवित किये बैठे थे!
कंधे से कंधा सटा,
सभी अपने अपने क्रिया-कलाप में लगे हुए थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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मैं उस समय,
उसी श्मशान में,
बनी झोंपड़ी में, भूमि पर बैठ कर,
अपने चार साथियों के साथ,
मदिरा-पान कर रहा था!
तभी ज़ोर की हवा चली!
धूलम-धाल हो गया!
मुंह में धूल घुस गयी!
दांत किरकिरे हो गए!
मेरे साथ बैठा दत्तू फ़ौरन ही भाग बाहर,
और छप्पर से उस झोंपड़ी का मुंह बंद कर दिया!
अब कुछ चैन मिला!
पर तभी,
बत्ती चली गयी!
अब हुआ अँधेरा!
बाहर बस,
वो चिताएँ जल रही थीं,
उस अलख से अब वे औघड़ उठ चुके थे,
तभी बारिश की बूँदें टपकने लगीं!
मोटी मोटी बूँदें!
उस झोंपड़ी पर,
तिरपाल बिछी थी, सो पानी,
अंदर नहीं आ रहा था,
लेकिन बाहर अब बूंदा-बांदी तेज ही थी!
दत्तू ने दिया जलाया,
और कोने में रख दिया,
उसकी ओट में ही,
एक लकड़ा का फट्टा भी रख दिया,
ताकि हवा छन के अंदर आये, तो दीये को न बुझाए!
तभी बाहर वाला छप्पर हटा,
मैंने देखा,
ये सिम्मा थी,
कोई पचास वर्षीय चिलम,
बाबा सूथा की चिलम!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अंदर आ गयी वो और बैठ गयी!
दत्तू से बतियाने लगी,
रात का एक बज रहा था,
अब बस सोना ही था,
तो मैंने वहीँ अपना बिस्तर लगा लिया,
अब पड़ी बारिश!
घनघोर!
तिरपाल से टकराती बूंदों ने तो अब,
कहर उठा दिया!
मैंने तो ढका अपना सर एक चादर से,
और आराम से लेट गया!
शर्मा जी आज थे नहीं मेरे साथ,
वे वहीँ रह गए थे,
और फिर मैं, सो गया!
रात भर बारिश पड़ती रही!
सुबह उठा,
तो दत्तू दुल्लर हुआ पड़ा था,
ठंडा हो गया था माहौल, इसी कारण!
मैं उठा और उस झोंपड़ी से बाहर आया,
और अब मुख्य-भवन की ओर चला,
जैसे ही चला,
सामने मुझे सिम्मा दिखाई दी,
उसने प्रणाम किया और एक सन्देश दिया,
की बाबा रूपदेव मिलना चाहते हैं मुझसे, उनकी इच्छा है,
बाबा रूप देव एक बड़े बाबा हैं,
गढ़वाल के हैं,
और काफी पकड़ है उनकी इस क्षेत्र में!
और फिर मुझसे कोई तीस साल बड़े भी हैं,
मैंने सिम्मा से पूछा की वो कहाँ हैं वो,
तो उसने बताया और मैं चल पड़ा उनके पास,
वहाँ पहुंचा,
बाबा से मिला,
पाँव छुए,
और बैठ गया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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बाबा अभी किसी पूजन से उठे थे,
आये और बैठ गए,
"स्नान हो गया?" उन्होंने पूछा,
"अभी नहीं बाबा" मैंने कहा,
"स्नान कर आओ पहले" वे बोले,
"जी" मैंने कहा,
और उठ गया,
अब पहुंचा स्नानघर,
और अब स्नान किया,
फिर वापिस हुआ,
और बाबा के पास चला आया,
बिठाया मुझे उन्होंने,
और फिर अपने एक सहायक से चाय-दूध लाने को कहा,
सहायक चला गया,
और थोड़ी देर में ही,
चाय-नाश्ता आ गया,
बाबा ने नाश्ता करने को कहा,
तो अब मैंने नाश्ता किया,
"कहाँ जाओगे? वापिस दिल्ली?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, दिल्ली ही जाऊँगा" मैंने कहा,
"अच्छा!" वे बोले,
"कोई बात है क्या?' मैंने पूछा,
"हाँ, है तो" वे बोले,
"बताइये?" मैंने कहा,
"गोपी को जानते हो?" उन्होंने पूछा,
"कौन गोपी?" मैंने पूछा,
"शेखर का पुत्र" वे बोले,
"अच्छा! हाँ!" मैंने कहा,
"वही गोपी" वे बोले,
"क्या काम है इस गोपी से?'' मैंने पूछा,
"काम गोपी से नहीं" वो बोले,
"फिर?" मैंने पूछा,
वे चुप हुए,
और फिर मुझे देखा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"गोपी दो माह से गायब है" वे बोले,
"गायब?" मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
अब यहां पर,
इस गायब शब्द के बहुत मायने थे,
गायब,
अर्थात सब जांच कर ली थी,
कोई सुराग नहीं मिला था,
यदि जीवित नहीं भी था,
तो भी कोई चिन्ह नहीं मिला था उसकी आत्मा का,
अर्थात मामला गंभीर था,
गोपी कोई पैंतीस वर्ष का रहा होगा,
उसके पिता शेखर बाबा का इकलौता पुत्र था गोपी,
साधनाओं में निपुण था,
कोई चूक हो जाए, ऐसी भी संभावना नहीं थी!
"कहाँ से गायब हुआ?" मैंने पूछा,
"पता नहीं" वे बोले,
"अपने पिता को तो बताया होगा?" मैंने पूछा,
"नहीं" वे बोले,
"तो कहाँ गया?" मैंने कहा,
"यही तो नहीं पता" वे बोले,
"और ये शेखर बाबा कहाँ हैं?" मैंने पूछा,
"यहीं हैं" वे बोले,
"यहीं काशी में?" मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
"तो आप चाहते हैं की मैं खोजूं उसको?" मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
अब मैं सोच में डूबा!
जब ये नहीं ढूंढ पाये,
तो मैं कौन सा अनोखा कार्य करूँगा?
यदि मना करूँ,
तो गलत होगा,
सोच-विचार कर,
आखिर में,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने हाँ कर ही दी,
अब मुझे मिलना था,
उन शेखर बाबा से!
अब मैं उठा, बाबा से विदा ली,
और अपने स्थान के लिए रवाना हो गया!

मैं सीधा आया अपने ही स्थान पर,
शर्मा जी यहीं थे,
चाय नाश्ता आदि कर ही चुके थे,
बैठा वहाँ,
"निबट गया काम?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"चलो ठीक हुआ" वो बोले,
अब मैंने उन्हें बाबा रूपदेव से हुई,
सारी बात बतायी,
उन्हें भी हैरत हुई,
कि वो समझदार गोपी,
आखिर चला कहाँ गया?
कोई बालक तो नहीं था वो,
समझदार था,
कहीं गया भी था तो,
सूचना ही कर देता?
मामला बड़ा ही अजीब सा था,
सभी अटकलें,
खारिज़ हुए जा रही थीं!
न तो कोई ओर मिल रहा था,
न कोई छोर,
"बाबा शेखर से ही सूत्र मिलेगा" वो बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"कहाँ है वो आजकल?" उन्होंने पूछा,
"यहीं हैं, काशी में" मैंने कहा,
"तो चलो फिर, देर कैसी?" वे बोले,
'चलते हैं, भोजन कर लें" मैंने कहा,
और फिर दो घंटे आराम किया,
और फिर भोजन,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और उसके बाद, बाबा रूपदेव से बात हुई,
बाबा शेखर के पते के बारे में पूछा,
और फिर निकल पड़े हम वहाँ के लिए!
करीब दो घंटे में पहुंचे वहां,
कोई जुलूस था सड़कों पर,
इसी कारण से देर हो गयी,
खैर,
पहुँच गए,
और पूछताछ कर,
बाबा शेखर के पास चले गए,
वे हमे प्रसन्नता के साथ मिले,
बाबा रूपदेव ने बता ही दिया था उनको,
कि,
हम आ रहे हैं उनसे मिलने,
तो बात सीधे ही शुरू कर दी हमने,
"कुछ बता कर नहीं गया था?" मैंने पूछा,
"नहीं" वे बोले,
"कोई झगड़ा तो नहीं हुआ था?" मैंने पूछा,
"नहीं" वे बोले,
"कोई प्रेम-प्रसंग?" मैंने पूछा,
"नहीं" वे बोले,
"कोई चूक साधना की?" मैंने पूछा,
"नहीं" वे बोले,
नहीं!
सभी अहम वजुहात का जवाब, नहीं!
"कोई शत्रुता?" मैंने पूछा,
"नहीं" वे बोले,
अब मैं चुप हुआ,
कहाँ से शुरुआत करें?
कहाँ गया ये गोपी?
"आपने ढूँढा?" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
"कुछ पता चला?" मैंने पूछा,
"कुछ भी नहीं" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"खोज की?" मैंने पूछा,
"बहुत खोज की" वे बोले,
मैंने गरदन हिलायी,
कुछ सोचा,
"कोई तस्वीर है?" मैंने पूछा,
"हाँ है" वे बोले,
और एक तस्वीर ले आये, एक किताब में से निकाल कर,
"बस! यही चाहिए थी!" मैंने कहा,
अब हम उठे,
बाबा ने रोका हमे,
चाय आदि के लिए,
हम धन्यवाद करते हुए,
आ गए वहाँ से वापिस,
सीधा अपने स्थान पहुंचे,
बैठे अपने कक्ष में!
"ऐसा कहाँ जा सकता है ये गोपी?" शर्मा जी ने पूछा,
"पता नहीं कहाँ गया" मैंने कहा,
"आप इबु को भेजेंगे?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, वही जाएगा" मैंने कहा,
"हाँ! वो तो निकाल लाएगा पता!" वे बोले,
"मुझे भी उम्मीद है" मैंने कहा,
मित्रगण!
उसी रात्रि को,
मैंने क्रिया-स्थल में जाकर,
इबु को हाज़िर किया,
उसका शाही-रुक्का पढ़कर!
वो हाज़िर हुआ!
मुस्कुराते हुए!
अब मैंने उसको उसका उद्देश्य बताया,
वो तस्वीर वहीँ रखी थी!
इबु ने अपना उद्देश्य जाना,
और उड़ चला वो आसमानी पहलवान!
दस मिनट बीते,
फिर बीस,


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर आधा घंटा हो गया!
अब मैं घबराया!
कहीं कोई अनहोनी तो नहीं हो गयी?
क्या हुआ?
आया क्यों नहीं?
और तभी हाज़िर हुआ वो!
शांत सा!
हाथ में,
कुछ लिए हुए,
मुझे दिया उसने वो,
ये तो सांप की केंचुलियाँ थीं!
और कुछ नहीं बोला वो!
बस एक शब्द 'तमेंगलौंग'
बस यही एक शब्द!
और झम्म से लोप!
अब फंसा मैं!
ये तमेंगलौंग है क्या?
कोई स्थान?
नाम तो नहीं लगता था किसी का,
इबु आगे जा नहीं सकता था,
अर्थात,
वहाँ पर कोई सुरक्षा-घेरा था!
उसको लांघ नहीं सका था इबु,
इसी कारण से वो जो कुछ भी ला सका था,
वो ले आया था,
गहरे भूरे रंग की सांप की केंचुलियाँ!
बड़ी बड़ी!
कोई दस फ़ीट लम्बी!
लेकिन इस से बात नहीं बन सकती थी!
अब इस तमेंगलौंग के बारे में जानना था!
और ये काम मुश्किल था!
मैं वापिस आया,
और शर्मा जी को अब,
सारी बातें बतायीं,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे भी हैरान हुए!
कोई नतीजा नहीं निकला था!
और वो तमेंगलौंग,
ये क्या था?
जब तक इसका पता नहीं चलता,
तब तक तो,
अँधेरा ही अँधेरा था!
तभी एक विचार कौंधा,
मैंने अपना लैपटॉप चालू किया,
मैप्स देखे,
और फिर इस शब्द को ढूँढा,
और अचानक ही,
ये तमेंगलौंग मिल गया!
ये मणिपुर का एक जिला था!
ठीक!
ये तमेंगलौंग तो मिल गया!
इसका अर्थ हुआ,
कि गोपी जीवित है,
और इस तमेंगलौंग में है!
लेकिन वो केंचुलियाँ?
वो नहीं समझ आयीं,
वो केंचुलियाँ,
लगती तो,
करैत सांप की ही थीं,
लेकिन उनके शल्क,
करैत जैसे नहीं थे,
ये संकरे,
और आगे को,
त्रिकोण रूप में थे,
जबकि,
करैत में ये चौभुज हुआ करते हैं,
समभुज जैसे!
ये पीलिया, दानू, रम्भस् आदि के भी नहीं थे,
काले नाग की भी नहीं थीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ये कोई,
अलग ही जाति लग रही थी,
कोई पहाड़ी जाति,
या ऐसी,
जिस से मैं अभी तक,
अनभिज्ञ ही था!

अब तक बस यही हाथ लगा था,
वो नाम तमेंगलौंग,
और वो तीन सांप की केंचुलियाँ!
लेकिन मात्र इनके सहारे ही आगे नहीं,
बढ़ा जा सकता था!
तमेंगलौंग बहुत बड़ा जिला था,
और जंगल बहुत विशाल था यहां,
वो भी अत्यंत खतरनाक!
दुष्कर!
और दुर्गम!
ये सांप,
भरे पड़े थे वहाँ, मणिपुर में,
इस जिले में!
तो सांप से हमारे को,
कोई भी मदद नहीं मिल पा रही थी,
और न मिल ही सकती थी!
तो ये जिला,
और वो केंचुलियाँ,
सब बेकार थीं!
लेकिन एक बात,
की ये गोपी,
वहाँ कैसे पहुँच गया?
काशी के इर्द-गिर्द रहने वाला वो गोपी,
वहाँ कैसे पहुंचा?
ये अजीब सी पहेली थी,
एक आद जिला ही नहीं,
वो तो कई प्रांत लांघ गया था!
लेकिन कैसे?


   
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श्रीशः उपदंडक
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कौन था वहाँ?
अब उसका उत्तर,
बाबा शेखर ही दे सकते थे,
और अब सुबह ही पूछना था उनसे ये सब,
तो उस रात हम खा-पीकर अपना सो गए,
सुबह फारिग हुए,
नहाये-धोये,
और फिर चाय-नाश्ता किया,
और अब किया बाबा शेखर को फ़ोन,
बात हुई,
वे चौंके!
मणिपुर?
लेकिन मणिपुर में तो उनका कोई नहीं?
न कोई जान-पहचान,
न कोई रिश्तेदारी?
वो कैसे पहुंचा वहाँ?
लेकिन वे खुश हुए कि,
गोपी ज़िंदा था!
उनको बहुत तसल्ली हुई!
और इसी दिन दोपहर में वो,
मुझसे मिलने आ गए,
बाबा रूपदेव भी साथ ही थे,
वे दोनों प्रसन्न थे,
कि गोपी जीवित है!
लेकिन वो मणिपुर के इस जिले में कहाँ है,
ये जानना बहुत मुश्किल था!
क्या किया जाए?
इस पर विचार हुआ,
और ये निर्णय हुआ कि बाबा शेखर,
अपने कुछ आदमियों के साथ वहाँ जाएंगे,
जो बन पड़ा, वो करेंगे,
लेकिन ये सब,
धूल में लाठी भांजने जैसा था,
भूसे में से एक सुइन ढूंढने जैसा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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लेकिन मैंने नहीं रोका,
एक तो पुत्र-प्रेम,
ऊपर से अनहोनी की आशंका,
इसी कारण से नहीं रोका मैंने उनको,
और वो अगले दिन,
मणिपुर के इस जिले,
तमेंगलौंग के लिए रवाना हो गए!
चार दिन बीते,
और बाबा शेखर का फ़ोन आया,
वही हुआ,
वहाँ घोर जंगली प्रदेश था!
भाषा के कारण,
बड़ी समस्या आ रही थी,
और उनके पास कोई सूत्र नहीं था,
कि कैसे और कहाँ ढूंढें उस गोपी को,
निराशा ही हाथ लगी,
और उनको फिर,
वापिस ही आना पड़ा,
अन्य कोई विकल्प नहीं था!
अब ये कौन बताये?
और फंस मैं गया था!
बाबा शेखर के पास अब,
मात्र मैं ही था जो कि,
आगे बढ़ सकता था,
लेकिन,
यहां मैं विवश था!
करूँ तो क्या करूँ?
वे वापिस आ रहे थे,
एक आशा लिए,
और मैं,
झंझावत में फंसा था!
मैं लेटा हुआ था अपने बिस्तर पर,
कि तभी मुझे ख़याल आया कुछ,
क्यों न तातार को भेजा जाए?


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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हो सकता ही कि,
कोई बात बन ही जाए?
उम्मीद हालांकि न के बराबर ही थी,
लेकिन भेजने में,
कोई दिक्कत न थी!
मैं उठा!
और क्रिया-स्थल में गया!
और शाही-रुक्का पढ़ा तातार का!
दहाड़ता हुआ तातार हाज़िर हुआ!
कमरे की जैसे हर वस्तु जैसे पिघलने लगी!
मैंने अब,
उद्देश्य बताया उसको,
और वही तस्वीर भी आगे बढ़ायी,
तातार ने जैसे गंध ली,
और एक पल के सौवें हिस्से में ही,
वो झम्म से लोप हो गया!
उड़ चला था मेरा,
आसमानी सिपहसालार!
कोई दस मिनट में वो हाज़िर हुआ!
हाथ में कुछ मिट्टी लेकर,
उस मिट्टी में,
कुछ टूटे हुए से अण्डों के छिलके थे,
मैंने सूंघ के देखा,
ये सांप के अंडे थे!
फिर से सांप?
ये क्या मतलब है?
और जो शब्द अब तातार ने कहे,
उस से कुछ गुत्थी सुलझी!
जागड़ बाबा!
और ये बता,
तातार लोप हुआ!
अब एक नाम आया था मेरे सामने!
जागड़ बाबा!
अब सवाल ये,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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कि कौन है ये जागड़ बाबा?
इस गोपी का,
और इस जागड़ बाबा का क्या लेना देना?
पहेली अभी भी नहीं सुलझी थी,
और उलझे जा रही थी!
जांच सम्भव नहीं थी,
ये बाबा जागड़ जो भी था,
प्रबल था!
कोई भी ख़बीस,
नहीं भेद पा रहा था उसका ये किला!
सवाल बहुत थे!
सवालों की गाड़ी,
तेजी से आँखों के सामने से गुजरती,
और अँधेरे में जा लोप होती!
बहुत ही अजीब सा मामला था!
अब मुझे इंतज़ार करना था,
बाबा शेखर का,
तभी उनसे इस बाबा जागड़ के विषय में,
पता चलता,
चार दिन बीते,
और बाबा शेखर आ गए वापिस,
मायूस तो थे ही,
सीधा मेरे पास ही आये थे!

बाबा शेखर आ चुके थे,
अब मैंने उसने कुछ सवाल पूछने आरम्भ किये,
"बाबा? ये बताइये, क्या किसी बाबा जागड़ को जानते हो आप?" मैंने पूछा,
उन्होंने ज़ोर लगाया,
खूब सोचा,
विचार किया,
"नहीं, मैंने नहीं सुना कभी" वे बोले,
"और सोचो?" मैंने कहा,
"नहीं, कभी नहीं सुना" वे बोले,
वे चुप हुआ,
अभी भी कोई हल नहीं हुआ था,


   
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