पत्थर पड़े थे, उनसे बचना पड़ता था, बाबा तेवत और बाबा हरु, बार बार, उन सहायकों को लताड़ें, गाली-गलौज करें, आदेश दें ढूंढने के लिए! हम भी ढूंटें! कोई अता-पता नहीं!
तब मैंने, उस अरुणा के पाँव में पड़ी सैंडल की छाप ढूंढी उधर, ये सुश्री की छाप नहीं थी,
और चल पड़े, मिट्टी में उसके पांवों की छाप ढूंढने! दूर तक गए, तो एक जगह छाप मिली, हम वहीं चले, दूर तो जंगल था, टोर्च के रौशनी पर्याप्त नहीं थी, झाड़ियाँ थीं, कांटे थे, लेकिन हम चलते जा रहे थे! फिर से एक जगह छाप मिली,
तो पीछे उन बाबा की टोर्च की रौशनी आई, हमारे पीछे चले आ रहे थे! आ गए हमारे पास, "पता चला?" घबरा के पूछा तेवत बाबा ने, "ये छाप है, उसी की है" कहा मैंने, "चलो, ढूंढों फिर" बोले वो,
और खुद भी छाप ढूंढने लगे! अब छाप पास पास हो चले थे, इसका अर्थ था, वो थक गयी होगी,
और इसका अर्थ था, कि वो यहीं कहीं आसपास है! वो दोनों भी आ गए वहीं, किशन और सोरन,
और ढूंढने लगे छाप, छाप एक जगह के लिए चली गयीं थीं, हम भी चले,
यहां पेड़ थे, घने पेड़! जंगल था सघन!
और तभी शर्मा जी ने कुछ देखा! "वो क्या है?" बोले टोर्च मारते हुए,
अब मैंने और सभी ने टोर्च मारी उधर! "कोई कक्ष सा लगता है" बोले बाबा तेवत! "चलो' बोले बाबा हरु!
और हम चल पड़े, सुश्री मेरे संग ही थी, मेरा हाथ थाम रखा था उसने, मैरी घड़ी का घंटे वाला अलार्म बजा, मै घड़ी देखी, दो बज चुके थे, और हम उस कक्ष तक जा पहुंचे, कक्ष में घुसे, लेकिन कक्ष खाली था, कोई नहीं था वहाँ, कोई भी नहीं, कुछ सामान भी नहीं, बस टूटी छत के पत्थर,
और कुछ नहीं,
हमने आसपास बहुत तलाश किया, छाप अब खत्म हो गयी थीं, कहीं नहीं थीं, वो कहीं, आसपास ही थी, लेकिन कहाँ?
और अँधेरे में यहां तक कैसे आ गयी? अब हमने दो दो करके उसको ढूँढा, दो दो की टोली बनाकर, करीब आधा घंटा गुजर गया,
और तब आवाज़ आई किशन की! हम सभी भागे उधर, सामने एक चबूतरा था, उसी चबूतरे पर, बीच में, अरुणा पेट के बल लेटी पड़ी थी! मैं भागा ऊपर चबूतरे पर, बैठा और उसको उठाया, वो अचेत थी, साँसें देखीं, चल रही थीं, इतने में सभी ऊपर चढ़ आये, बाबा तेवत घबराये, उन्होंने अरुणा को पकड़ा, हिलाया-डुलाया, नाम पुकारा कई बार, कई बार! "बेहोश है" कहा मैंने, "कोई पानी लाओ?" बोले बाबा तेवत,
अब पानी कहाँ से लाते? पानी तो था ही नहीं हमारे पास यहां! "अरे को लाओ पानी?" बोले बाबा, अब तो रोने ही वाले थे, मै नीचे उतरा,
आसपास देखा, तो एक जगह मुझे केली के पौधे दिखे, बन गया काम! मैंने आवाज़ दी शर्मा जी को, शर्मा जी और सुश्री भी आये मेरे पास, "हाँ जी?" बोले वो, "ये केली है, इसके मध्य में पानी जमा है ओंस का!" कहा मैंने, "अच्छा!" कहा उन्होंने,
और मैं गया पेड़ों के पास, एक बड़ा सा शीतोल वृक्ष का पत्ता तोड़ लिया, साफ़ किया उसको, और बना लिया दोना, आया उधर, और केली के पौधों को झुका झुका, पानी लेने लगे! पांच मिनट में इतना पानी हो गया कि प्यास बुझ जाए! "चलो उधर" कहा मैंने,
और हम दौड़े उधर!
पहुंचे,
चढ़े चबूतरे पर, "लो पानी" कहा मैंने, बाबा ने पानी लिया, और मारे छींटे उसके मुंह पर, पानी ठंडा था, ओंस का था इसीलिए, हरकत हुई माथे पर उसके!
और खोल दी आँखें उसने तभी की तभी! बाबा ने पानी पिलाया उसको! पानी पी लिया उसने, लेकिन शांत रही! "क्यों भाग आयी तू?" बोले बाबा तेवत,
कुछ न बोली, "बता?" बोले वो, कुछ न बोले! चुप रहे! न देखे ऊपर! "बोल? बता?" बोले बाबा हरु, गुस्से से!
और तभी!!!!!!!!
तभी चल उठी! ठीक उस चबूतरे के ऊपर! जैसे कोई चमक का गोल बीच हवा में फूट पड़ा हो! ठीक हमारे ऊपर! हमारी परछाइयाँ दिखाई देने लगी! चमक ऐसी कि आँखें कब फूट जाएँ, पता ही न चले! अँधा हो जाए इंसान! ऐसी चमक! भिन्न भिन्न रंगों की चमक पड़ने लगी उस चबूतरे पर! एक कुआं भी दिखा मुझे उधर, उस चमक में, पुराना, खंडहर अब!
और फिर वो चमक, जैसे फूटी थी, वैसे ही लोप हो गयी! अँधेरा छा गया था एकदम से ही! मैं समझ गया था, ये उन्हीं महासिद्ध बाबा पुरुक्षा की चेतावनी थी! चेतावनी, उन बाबाओं के लिए! "चलो अरुणा" बाबा बोले, हरु, "हाँ, चल बेटी, अब देर नहीं" बोले बाबा तेवत! इतना सबकुछ देख लिया, जान लिया, फिर भी नहीं समझे! कैसी मति मारी गयी थी उन दोनों की!
अरुणा उठी, मुझे देखते हुए, एक नज़र! मैंने पलकें झपका दी दोनों एक क्षण के लिए, समझा दिया था उसे, कि घबराये नहीं, हम हैं उसके साथ! अरुणा उठी, और वो बाबा उसको सहारा दे, चले पड़े वापिस, वहीं ले चलने वाले थे उसको, जहां से भागी थी, लड़खड़ाते हुए, अरुणा चलती रही, हम उसके पीछे पीछे चलते रहे,
और आ गए वहीं, अलख शांत पड़ चुकी थी, पुनः उठायी गयी!
पुनः मंत्रोच्चार आरम्भ हुआ, और इस बार मैंने देखा, कि बाबा हरु ने, उन दोनों सहायकों को, उस रास्ते में खड़ा कर दिया था, ताकि अगर, वो भागे पुनः, तो न भागने दिया जाए! कोई आधा घंटा बीता, अपना सर पकड़, अरुणा चिल्लाई, "बस? बस बस?"
और रोने लगी ज़ोर ज़ोर से! वे कपटी, फिर भी नहीं रुके! अरुणा का अन्तःमन उसको झकझोर रहा था! उसको लताड़ रहा था, कि वो ऐसा न होने दे! इसीलिए चिल्ला रही थी!
अब बाबा ने क्रिया की भस्म, फेंक के मारी अरुणा पर! अरुणा खड़ी हुई, उसको खड़ा होते देखा, बाबा हरु ने हाथ पकड़ लिया उसका! मेरा मन तो किया कि जाकर छड़ाइँ हाथ, बेचारी कसमसा रही थी, देखा नहीं जा रहा था, मुंह फेर लिया मैंने वहाँ से, "बैठ जा?" बोले बाबा हरु, न बैठें,भागने को पड़े! "ओ लड़की? बैठ जा?" बोले वो, न बैठे, रोये, चिल्लाये! "अरुणा? बैठ जा?" बोले बाबा तेवत! वो रोये, गिड़गिड़ाए! बैठे नहीं! "नहीं मानेगी?" बोले बाबा हरु! बाबा हुए खड़े, और फेंक मारी भस्म अरुणा पर, ज़ोर से! मंत्र का असर हुआ, बैठती चली गयी अरुणा, और झूल गयी! झलती झलती गिरी नीचे, तो बाबा ने उसको लिटा दिया,
और मित्रगण तब! तब भूमि ऐसे हिली!
ऐसी हिली! कि वहां वो पेड़ों की जड़ें, चटक गयीं!
खुल गयी, और पटाक-पटाक की आवाज़ करते हुए, टूटने ली अलख ऐसे उठी! कि ऊपर तक उठते हुए, पूरी ही उठ गयी! जैसे आकाश ने लील लिया हो उसे! ऐसे घनघोर मेघों की सी आवाजें आयीं गड़गड़ाने की, कि जैसे आज फट ही जाएंगे! भम्म की आवाज़ करते हुए, रौशनी कौंधी! आँखें चुंधियाई!
और जब प्रकाश मद्धम हुआ, तो गोल गोल आँखें काढ़े भवना वहां प्रकट थी! त्यौरियां चढ़ी हुईं थीं! नज़रें, उन दोनों बाबाओं पर! हम तो हाथ जोड़ खड़े हुए थे!
और बाबा! वे दोनों सूखे पत्तों की तरह से थर-थर काँप रहे थे! एक और प्रकाश कौंधा! हरे रंग का! आँखें मिचमिचा गयीं! हाथों का मान हमारा लाल हो उठा! उस प्रकाश ने अस्थियां तक दिखा दी हाथ की!
और जब प्रकाश मद्धम हुआ, तो जो देखा, वो..... ऐसा कि, जैसे मै किसी शिव-गण को प्रत्यक्ष देख रहा हूँ! ऐसा ही रूप था उनका! सर की जटाएं नीचे तक लटकी थीं, उनमे रुद्राक्ष फंसे थे! जैसे कई रुद्राक्ष सजाये गए हों उनमे, जटाओं के संग! चटकदार रंग के बड़े बड़े रुद्राक्ष! ललाट बहुत चौड़ा, ललाट पर त्रिपुण्ड बना था! भस्म मली हुई थी पूरे शरीर पर, गले में मालाएं ही मालाएं, अस्थियों के बड़ी बड़ी मालाएं! नीचे पेट तक! भुज-बंध, अस्थियों के,
दाढ़ी? पेट तक! जटायें थीं दाढ़ी में उनकी! कलाइयों पर अस्थियां!
और वक्षः मेरे जैसे ढाई समा जाएँ उसमे!
और कद? करीब साढ़े सात फ़ीट! देह? भीमकाय! कमरबंद, अस्थियों का! पांवों में अस्थियां! कमर पर हिरण के सींग, दो! तमर-कुप्पी एक, लटक रही थी! कमर से! जंघाएँ? किसी अश्व समान उभरी हुईं! टांगें, जैसे कोई स्तम्भ!
और नेत्रों में? प्रेम!
सहजता! निश्छलता! होंठों पर मुस्कान! ये थे श्री महासिद्ध बाबा पुरुक्षा! सिद्धों के भी सिद्ध! महासिद्ध!
हम तो फौरन ही ज़मीन पर लेट गए थे! शीश झुकाये! हाथ जोड़े! भुजाएं, आगे किये! "उठ पुत्री!" बोली भवना! इतना बोलना था कि अरुणा जैसे जाग गयी! रोते रोते जा लिपटी अपनी माँ भवना से! बहुत ही करुणामय दृश्य था वो! बहुत ही!
और तब! तब हाथ रखा महासिद्ध बाबा ने अपना, उस अरुणा के सर पर! मेरे लिए तो, अरुणा भी पूज्य हो गयी! अब आगे आये बाबा! उन दोनों बाबाओं को देखा,
और अगले ही क्षण, उन दोनों के शरीर से हमने सफेद सफेद धुंआ उठता देखा! वे हैरत में पड़े! ये क्या हो रहा है? शरीर के हर हिस्से से, कपड़े से, आस्तीन से, गिरेबान से, सफ़ेद धुंआ निकले जा रहा था! उनको कोई पीड़ा नहीं पहुंची थी! शायद कामेषी को साधने वाले अब, किसी पशु को भी साधने वाले न बचे थे! अर्थात अब बुग्घी का भैंसा भी न सधता उनसे! शायद यही हुआ था!
रिक्त नहीं, महारिक्त हो गए थे शायद! देख-लेख-रेख सब उड़ गया उनका! पल भर में ही! और अगले ही पल, वे दोनों बाबा, घिसटने लगे! जैसे कोई घसीट रहा हो उन्हें! वे अब डरे! रोने लगे! क्षमा की गुहार लगाने लगे! अरुणा को, माँ कह कर पुकारने लगे! वे घिसटते घिसटते से मरे करीब से गुजरे! सच में, कोई खींच ही रहा था उनको! घिसटते घिसटते वे उस गुफा से ही बाहर चले गए! फिर कोई आवाज़ नहीं आई उनकी!
वे दोनों सहायक, किशन और सोरन,
झट से लेट गए नीचे! रोने लगे! क्षमा मांगने लगे! बाबा आगे बढ़े, अब मेरे मन में, भय उठा! मै उठा, घुटनों पर बैठा, हम सभी घुटनों पर बैठ गए, वे आगे बढे,
और आगे.....
वे आये हमारे पास, मै तो उनका वो विशाल शरीर देखते ही काँप उठा था! उनसे नेत्र नहीं मिला सकता था मै, साहस ही न था मुझमे! मै ऐसे नेत्र नहीं देख सकता! वे सिद्धों के सिद्ध, महासिद्ध हैं, मेरी क्या बिसात! गड्ढे का पानी सागर को कैसे ललकार सकता है? ठीक वैसे ही, मेरी क्या
औक़ात? मै और सभी ने, उठने की को कोशिश नही की, लेकिन हमारे शरीर, अपने आप उठते चले गए! ऐसा मैंने पहली बार देखा था, महसूस किया था कि शरीर पर, किसी और का नियंत्रण हो तो कैसा लगता है! हम हाथ जोड़े खड़े थे। उन्हें हाथ जोड़े, और हमारी नज़रें उनसे मिलीं! ओह! क्या बताऊँ आपको! एक समय में एक व्यक्ति एक से ही नज़रें मिला बात कर सकता है, लेकिन यहां तो बाबा जैसे सभी की निगाहों में झाँक रहे थे! शरीर में कंपकंपी छूटने लगी थी, हमारे चेहरे की सभी मांसपेशियाँ हमारे निंत्रण से बाहर थीं! वो हड़क रही थीं, होंठ फड़कते थे, बार बार लेकिन, कोई भी शब्द, निकलता ही नहीं था मुख से बाहर! सर पर हाथ रखा मेरे उन्होंने,
और जो रखा, मेरे नेत्र बंद हो गए! न जाने मै कौन कौन से लोकों में भ्रमण करने लगा! अजीब अजीब सी जगहें! अजीब अजीब से वन-उपवन! न जाने कौन कौन से लोग! जिन्हें मैंने कभी देखा भी नहीं! वे सभी मुझे देखें और मैं, उनको विस्मय से! वहाँ, पुष्प-वर्षा निरन्त हो रही थी! लेकिन मैं, किसी को नहीं जानता था, किसी को भी नहीं! लेकिन वो, जैसे मुझे न जाने कब से जानते हों! न जाने कब से! इसका अर्थ मै आज तक भी नहीं जान पाया!
और फिर अँधेरा हो गया!
मै वापिस आ गया! मेरे से खड़ा न हुआ जाए! मै बस, अब गिरा और अब गिरा! सभी के सर पर हाथ रखा उन्होंने और हुए मेरी तरफ! मै जैसे रेत गिरता हैं न किसी बोरे में से, ऐसे मेरा अस्तित्व रिसने लगा! कब तक खड़ा हो पाउँगा, पता नहीं, सच में ही नहीं पता! "सतत लीन रहो! सो कर नहीं, जाग कर सोचो!" बोले वो, एक मधुर से स्वर में! ऐसा मधुर स्वर, जैसे उस से मधुर इस संसार में हो ही नहीं कुछ!
और कहा भी क्या था! सतत लीन रहो! आप समझिए कि कहाँ रहना है लीन! सो कर नहीं, अर्थात, हम मनुष्य सो ही तो रहे हैं? सोचिये आप? कि कैसे? कैसे सो रहे हैं! और जाग कर सोचो! ओह! जीवन का समूल सार है इसमें! जागना ही होगा! सोते नहीं रहना! "कूप खुदता रहे, तो स्वच्छ रहता है, स्वछता से निर्मलता आती है! इतना गहरा खोदो, कि बाह्य-संसार की अपशिष्टता न सुनाई दें न दिखाई दें!" बोले वो!
अब इसका अर्थ आपको ही समझना ही मित्रगण! यही सार है! यही ज्ञान है। यही है जो छिपा हुआ है। यही है! जो प्राप्त करना है। जागकर! सोकर नहीं! इतन बोले, वो वापिस चले!
और हुए वहीं खड़े! अरुणा के सर पर हाथ रखा,
और तीव्र प्रकाश कौंधा! और वे दोनों ही लोप!
अरुणा झम्म से नीचे जा पड़ी! उसको भागकर उठाया हमने! उसको वहीं रखा,
और सुश्री को छोड़ा वहाँ! और हम भागे अब उन बाबाओं को देखने! बाबा बेहोश पड़े थे! देह तो सही थी उनकी! मित्रगण! दो घंटे बाद सुबह हुई!
और सुबह, उन बाबाओं को भी होश आ गया! लेकिन वो तो, अब अपना नाम भी भूल चुके थे! उनको कैसे लाये हम वापिस, ये हम ही जानते हैं! हम आ गए वापिस! बाबा तेवत के यहां! बाबा हरु को भी ले आये थे! डेरे में सन्नाटा छा गया
था!
बहुत इलाज कराया, लेकिन कुछ न हुआ, आज दोनों ही, प्रतीक्षारत हैं उस मृत्यु-देवी का! कि कब आये और मुक्ति मिले! अरुणा! वो अब संचालक है वहां की! उसके बाद दो बार मिला उस से! हाँ एक बात और, अगर अरुणा हमारे संग नहीं होती, तो हम वो स्थान कभी न ढूंढ पाते! ऐसा अरुणा ने बताया! अब वो स्थान ढका हुआ है, किसी के आवरण में मात्र अरुणा ही वो कुंजी है! अब सुश्री! उसको ले आया था मै दिल्ली! पंद्रह दिन रुकी! हाँ, कोई नखरा नहीं किया उसने इस बार! फिर छोड़ के आया! वचन के साथ! और आज तक, निभा रहा हूँ वचन! गुस्सा वैसा का वैसा ही है अभी भी
खैर, तो मित्रगण! सफलता के लिए कोई लघु-मार्ग नहीं! कोई बूटी नहीं! कोई दवा नहीं! अब सभी के लिए सफलता के मायने अलग अलग हैं!
आप समझ सकते हैं मेरा आशय! मेरे लिए अलग है! बस, सोइये नहीं! जागिये! समय कम है! जागिये! प्रणाम महासिद्ध बाबा पुरुक्षा को, माँ भवना को, और मातेश्वरी केशी को! साधुवाद!
माँ कुपिका कामेषी
