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वर्ष २०१२ ऋषिकेश के पास की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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रौशनी मारी अंदर, तो अंदर, मिले हमें साँपों के कंकाल! एक दूसरे से बंधे हुए! "ये किसलिए?" बोले शर्मा जी, "अभी देखता हूँ" कहा मैंने, 

और वो कंकाल, निकले बाहर, रखे ज़मीन पर, वो सर से, बीच में से, और पूंछ से, बंधे हुए थे। सांप भी करीब छह फीट के रहे होंगे! "इसका क्या औचित्य?" बोले बाबा तेवत! "पता नहीं!" कहा मैंने, "डाल दो वापिस घड़े में ही" कहा मैंने, 

और सोरन ने डाल दिए वापिस, 

"लटका दो वहीं" कहा मैंने, "ले जो चलो?" बोले बाबा तेवत, "किसलिए?" बोला मैं, "इसका चूर्ण, मारण में काम आता है!" बोले वो, "और कहीं हमारा ही मारण हो जाए यहां!" बोले शर्मा जी! "हाँ, रख दो!" कहा मैंने, रख दिया सोरन ने वहीं, वहीं लटका दिया! बस, यही था वहां, और कुछ नहीं! "अब चलो वापिस" कहा मैंने, "कोई फायदा नहीं हुआ, मेहनत बेकार!" बोले बाबा तेवत! "हो जाएगा फायदा!" कहा मैंने, "पता नहीं कब होगा!" बोले वो, "अब इत्मीनान रखो!" कहा मैंने, 

और हम चले वापिस, कुछ न मिला था और! और हम आये बाहर, बाहर आये तो बदली सी छायी थी, बारिश पड़ने के आसार लग रहे थे! "अगर बरस गया तो सारा काम खराब!" बोले बाबा हरु! हम उलझे तो थे ही! बैठ गए एक जगह! "शर्मा जी?" कहा मैंने, "हाँ?" बोले वो, "उस कमरे में कुछ नहीं?" कहा मैंने, "हाँ? बस वो घड़ा?" बोले वो, "और ढक के रखा गया, क्यों?" कहा मैंने, "हाँ, बात तो सही है" बोले वो, "अगर बंद करना था, तो कम से कम में पत्थर ही भर देते?" बोला मैं, 

"अरे हाँ!" बोले वो, "तो ढका क्यों?" पूछा मैंने, "पता नहीं" बोले वो, "है कोई राज!" कहा मैंने, "यहाँ तो राज ही राज है, हाथ कुछ नहीं लग रहा!" बोले वो, "एक काम करोगे?" पूछा मैंने, "क्या?" बोले वो, "मेरे साथ चल रहे हो वापिस?" कहा मैंने, "वहीं, उसी कमरे में?" बोले वो, "हाँ" कहा मैंने, "चलो' बोले वो, "सुश्री यहीं बैठो' कहा मैंने, "नहीं, मैं भी!" बोली वो, "चलो फिर" कहा मैंने, 

और हम उठे, किशन से दोनों कटनी ले ली, "कहाँ चले?" बोले बाबा हरु, "वहीं" कहा मैंने, "वापिस?" बोले वो, "हाँ" कहा मैंने, "कुछ है तो है नहीं वहां?" बोले वो, "देख कर आते हैं। कहा मैंने, 

और हम, पहुंचे वहाँ, उसी कक्ष में! रौशनी मार, मुआयना किया उसका बारीकी से, कहीं कुछ नहीं! कुछ भी नहीं! 

सब वैसा का वैसा! "कुछ नहीं!" बोले शर्मा जी, "हाँ, सच में कहा मैंने, "ज़रा ये देखना?" बोली सुश्री, हम लपके फ़ौरन! "क्या?" पूछा मैंने, "ये सब पत्थर हैं, हैं न?" बोली वो, "हाँ" कहा मैंने, "लेकिन ये देखो!" बोली वो, एक दीवार को ऊँगली से खुरचा, तो मिट्टी सी निकली! पत्थर में से मिट्टी? नहीं! ये कुछ और है! और ये, ठीक इस चबूतरे के नीचे है! "हटो" कहा मैंने, 

और अब मैंने कटनी से छेद किया वहां वो मिट्टी ही थी! आराम से खुद रही थी! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और जब वो दो फ़ीट की दीवार खो दी, तो एक छेद हुआ, मारी रौशनी अंदर! "वो क्या है?" बोला मैं, "दिखाओ?" बोले शर्मा जी! "अरे हाँ!" बोले वो, "कुछ मूर्ति सी है!" कहा मैंने, फिर सुश्री ने भी पुष्टि की! "सुश्री! तुम्हें कैसे पता चला?" पूछा मैंने, 

"मैं तो ऊँगली से, खुरच रही थी!" बोली वो! "तुमने अनजाने में ही बहुत बड़ा सूत्र हाथ लगवा दिया सुश्री!" कहा मैंने, "इसीलिए तो आई थी!" बोली वो, मारी डींग! "शर्मा जी, बुलाओ उन्हें!" कहा मैंने, "अभी लाया!" बोले वो, 

और चले गए! मैं उस छेद को और बड़ा करता रहा, करता रहा! मिट्टी भुरभुरी थी, आराम से खुद रही थी! 

वे सब आ गए! वो सब देखा, तो बेहोश होते होते बचे! "खोदो इसको!" कहा मैंने, अब जुटे किशन और सोरन खोदने में! खोदा और मिट्टी निकाल दी! दरअसल, वहां, पत्थरों के स्तम्भ बने थे, बड़े बड़े! चबूतरा ऐसे ही चार स्तम्भों पर टिका था! 

और जो रिक्त-स्थान था, वो मिट्टी से भर दिया गया था! कुशल रहे होंगे वे लोग! जो भी थे! "आओ अंदर!" कहा मैंने, 

और मैं चला अंदर! बड़े बड़े पत्थर, और स्तम्भ! और तभी यकायक..................!! 

यकायक! हम सभी की टॉों की रौशनी वहां दीवार में बने एक बड़े से लहरदार सांप की आकृति बनी थी! उसका फन बाहर निकला हुआ था, बड़ा सा! क्या कुशल कारीगिरी थी! लगता था जैसे 

अभी निकल के आ जाएगा बाहर! उसके शल्क ऐसे खूबसूरत बनाये थे, जैसे सामने ही बिठा कर उस सर्प को, वो उत्कीर्ण किया गया हो! "इतना बड़ा सांप?" बोले बाबा हरूँ! "ऐसे तो आम हैं!" कहा मैंने, "हाँ हैं तो सही, लेकिन पत्थर से बना इतना बड़ा सांप?" बोले वो, "हाँ, ये कमाल की बात है!" कहा मैंने, "वहां घड़े में कंकाल साँपों के, यहां इतना बड़ा सांप, क्या माजरा है?" बोले बाबा हरूं! "साँपों से इस जगह का कुछ लेना देना है!" कहा मैंने, "लेकिन नज़र तो एक भी नहीं आया?" बोले बाबा हरु! "आया नहीं था? वो अजगर" कहा मैंने, "अरे हाँ!" बोले वो, "चलो जांचते हैं। बोले बाबा! 

और अब हम जांचने लगे वो कक्ष! दीवार, छत, स्तम्भ, फर्श, सब देख डाले, कुछ नहीं मिला! तो फिर ये गारे से चिना क्यों गया? कोई कारण तो रहा होगा? "वो क्या है, कोई गुमटी?" बोले शर्मा जी, "गुमटी?" कहा मैंने, "तो वो क्या है?" बोले वो, "देखता हूँ" कहा मैंने, "और इनको देखो, इन बाबाबों को, कैसे मंढ रहे हैं!" बोले वो, मैं हंसा! क्या क्या देखते रहते हैं वो भी! मैं आगे गया, और देखा, वो छत में बना हुआ कोई अलंकरण था, कोई गुमटी नहीं, ये चारों कोनों में बना था! अब फिर से खोपड़ा घूमा मेरा! ये कक्ष चिना क्यों गया? क्या कारण रहा होगा? किसलिए? 

"अरे यहां आप जल्दी!" बाबा तेवत की आवाज़ गूंजी! मैं सुश्री का हाथ थामे भागा आवाज़ की तरफ, शर्मा जी भी! पहुंचे वहाँ, "क्या हुआ?" बोला मैं, "वो बाबा हरूं उतर गए हैं नीचे, आओ आप भी!" बोले वो, एक रास्ता मिला था, नीचे जाने का! हम उतर लिए उस पर! मिल गए


   
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श्रीशः उपदंडक
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बाबा हरूं, वहीं खड़े थे किशन के साथ ही, "कुछ मिला?" पूछा मैंने, "कुछ नहीं बोले वो, "चलो, इसी रास्ते पर आगे बढ़ो!" कहा मैंने, 

और हम बढ़े, धीरे धीरे वहाँ प्रकाश आना शुरू हुआ, और हम! आ गए बाहर! ये खुला एक बगिया सी में! "अरे भई दिमाग खराब हो गया, ये क्या भूल-भुलैया है, मेरे समझ से बाहर है!" बोले वो! "दिमाग खराब हो गया सच में, कहीं जंगल में ही न भटक जाएँ!" बोले बाबा हरु, एक जगह बैठते हुए! "लेकिन मेरे समझ में कुछ आ रहा है!" कहा मैंने, सब चौंके! मुझे देखें, घूरें। "क्या समझ आया?" पूछा बाबा हरु ने, "यही, कि कोई नहीं चाहता कि हम वो स्थान ढूंढ सके!" कहा मैंने, "अब, अब कौन नहीं चाहता?" बोले वो, हर्क बाबा! "है कोई!" कहा मैंने, "कौन?" बोले वो, "उसका भी पता चल जाएगा!" कहा मैंने, 

और अब मैंने अरुणा से, और सवाल पूछे, उसने वही उत्तर दोहरा दिए। नया कुछ नहीं। अभी 

तक हम धूल में लट्ठ भांज रहे थे! अरुणा जा बैठी सुश्री के संग, बातें करने लगी उस से! 

और मैं बैठ गया शर्मा जी के संग! देख रहे थे दोनों ही बाबाओं को गौर से! "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "ये तो ऐसे कर रहे हैं जैसे स्थान मिलते ही ऊंटनी की *त में भाला घोंप देंगे!" बोले वो, मेरे तो पेट में घुम्मड़ उठा ये सुनते ही! हंसी का फव्वारा फूट पड़ा मुंह से! वे भी हंसने लगे! बाबा भी हमें देखने लगे! कि अचानक से क्या हुआ! तभी सुश्री और अरुणा को जाते हुए देखा मैंने, जा रही थीं कहीं, 'शंका-समाधान' आदि के लिए, "आओ यार, हम भी चलें" कहा मैंने, 

और हम दूसरी तरफ चले गए, निवृत हुए लघु-शंका से, क्षमा मांगते हुए कि कोई भी हो, तो क्षमा करें हमको, जानबूझकर ऐसा नहीं किया! "ज़रा आना?" बोला मैं, कुछ दिखा था मुझे, "क्या हुआ?" बोले वो, "ज़रा वो देखना?" कहा मैंने, चश्मा साफ़ किया और फिर देखा, "ये भी कोई गुफा सी है!" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, "बहन* *! यहां रहने वाले कुछ काम-धाम करते भी थे कि बस कस्सी-फावड़ा उठा, गुफाएं ही 

खोदते रहे थे! हमारी गां* खोदनी रह गयी थी, वो भी खुद रही हैं कल से!" बोले वो, मुझे आई हंसी! बात तो सच ही कही थी उन्होंने! यही तो हो रहा था कल से! "लो, पानी पियो!" कहा मैंने, "लाओ, पानी पिलाओ!" बोले वो, दे दी पानी की बोतल, और पीने लगे पानी! 

पी लिया, दे दी बोतल मुझे, "आओ, अब यहीं चलेंगे!" कहा मैंने, "चलो जी! क्या करें!" बोले वो, हम आ बैठे, सुश्री आ गयी थी हमारे पास ही, अब निकाला खाने का सामान, और खाने लगे! अब जो कुछ भी था, उसी से काम चलाना था! ये सामान भी बस कल तक ही चलता, कल की कल देखी जाती! वे भी खा रहे थे, जो लाये थे संग में, काम चला रहे थे, खा-पी लिए, और मैं लेट गया फिर, अब आराम किया थोड़ी देर! तभी बाबा तेवत आये, "अब क्या करें?" बोले वो, "एक गुफा है" कहा मैंने, "कहाँ?" बोले वो, "यहीं, पास में बताया मैंने, "तो चलो फिर?" बोले वो, "बस चलते हैं!" कहा मैंने, 

अब उन्होंने बता दिया कि एक और गुफा मिली है, वहीं जाना है। 

और फिर हम चल पड़े वहीं के लिए! अचानक से चीलें उड़ती दिखाई दीं! हुजूम का हुजूम! पता नहीं कहाँ से आई थीं! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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आयीं और गुजर गयीं! चीखते हुए! "इतनी सारी चीलें?" बोले बाबा तेवत! "हाँ जी!" कहा मैंने, "सारे जंगल की इकट्ठी हो गयीं शायद!" बोले वो, 

"लगता तो यही है!" बोला मैं, "बाबा! यही जगह है!" अरुणा ने चिल्ला के कहा! 

अब हुए हमारे कान खड़े इसका अर्थ, हम अब सही जगह आये थे! इस से पहले तो हम ख़ाक़ छान रहे थे! "अरुणा?" कहा मैंने, "यही जगह है वो!" बोली वो, "अंदर जाना है यहां से?" बोला मैं, "हाँ! यहीं उतारा था मुझे!" बोली वो! 

ओह! तसल्ली ! सुकून! राहत! मेहनत सफल! सफलता की खुशबु आये! मेहनत रंग लायी थी हमारी! कहाँ कहाँ नहीं घूमे थे! "आओ सभी!" कहा मैंने, अब तो दम में दम आ पहंचा था! टोर्च जलाईं, और चले अंदर! 

ये गुफा, बहुत साफ़ थी, बहुत साफ़! जैसे अभी अभी झाडू-बुहारी लगाई गयी हो! जैसे, कोई अभी भी रह रहा हो यहां! गुफा में से, अंदर से, शीतल वायु बह रही थी! "लगता है ये आरपार है" कहा मैंने, "हो सकता है" बोले शर्मा जी, 

"चलो देखते हैं!" कहा मैंने, "हाँ, पहुँच तो गए ही!" बोले वो, "हाँ, सो तो है!" कहा मैंने, अब गुफा में, पेड़ों की जड़ें दिखीं! हरी हरी सी काई और घास! 

यही तो बताया था अरुणा ने! 

और अरुणा, अरुणा लम्बे क़दमों से चले जा रही थी आगे आगे! बाबा तेवत के संग! और तभी मैं रुका! कुछ दिखा........... 

तभी मेरी नज़र एक विशेष वस्तु पर पड़ी! ये यहां कैसे? वे सब आगे बढ़ गए थे


   
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श्रीशः उपदंडक
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और मैं, सुश्री 

और शर्मा जी, यहीं रुक गए थे! उस दीवार में, पेड़ों की जड़ें थीं, ये मैंने बताया था आपको, लेकिन ऐसी ही एक जड़ में, चांदी के कंगन से अड़े थे! मैंने छूकर देखा, हाँ! वो सच में ही चांदी के कंगन थे। लेकिन वो कंगन, यहां कैसे? थे भी स्त्री के ही कंगन! और ये कंगन, ऐसी कैसे गड़े? हैरत की बात! "ये यहां कैसे?" बोले शर्मा जी, "ये जड़ देख रहे हो?" बोला मैं, "हाँ?" बोले वो, "ये सम्भवतः, भूमि पर होंगे, अथवा किसी ने टाँगे होंगे, और जड़ों ने, इन कंगनों को जकड़ लिया होगा!" कहा मैंने, "और वो देखना?" बोली सुश्री, टोर्च की रौशनी मार, वहीं देखा, "ये क्या है?" कहा मैंने, 

अब छुकर देखा उसे, "ये भी चांदी ही है। कहा मैंने, "हाँ बोले वो, "ज़रा मेरा खंजर दो" कहा मैंने, उन्होंने बैग से निकाल कर दे दिया खंजर, 

और अब मैंने उस जड़ को काटा, उस चांदी के जेवर को निकालने के लिए, खूब काटा, और उसका सिर पकड़ लिया, 

और फिर काटना शुरू की जड़, बड़ी मज़बूत थी वो! लेकिन काट दी मैंने, और जो जेवर बाहर आया, और स्त्रियों द्वारा कमर में धारण की जाने वाली तगड़ी या कमरबंद था, कम से कम छह-सात किलो वजनी रहा होगा! मैंने सुश्री की कमर 

से लगा कर देखा, तो बड़ा निकला, स्पष्ट था, जिसका भी था, वो स्त्री, सुश्री से भी अधिक लम्बी-चौड़ी रही होगी! तभी सोरन आते दिखा, आ रहा था हमारे पास ही, मैंने वो तगड़ी उसी जड़ से टांग दी, खोंस दी अंदर! आ गया सोरन! मुस्कुरा रहा था! "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "बुला रहे हैं आपको!" बोला वो, "कुछ मिला?" पूछा मैंने, "हाँ!" बोला वो, "क्या?" पूछा मैंने, "आओ तो सही?" बोला वो, "चल" कहा मैंने, 

और हम अब चले उसके संग! और हम आये एक जगह! क्या जगह थी वो! दो बड़े से चबूतरे! एक बड़ी सी मूर्ति लगी थी, आदमकद! पहचान गयी थी 

अरुणा उस मूर्ति को! वही थी, वही कुपिका कामेषी! श्रृंगार भी वही थे, वस्त्र भी वही, मूर्ति काले रंग की थी! पत्थर में धंसी हुई! उस रूप देख, मैं तो जैसे बावरा ही हो गया। जैसे मैं साक्षात कामेषी को ही देख रहा होऊ! मैंने स्पर्श किया उसे! बर्फ सी शीतल! कुण्ड बना था उसके आगे! बड़ा सा कुण्ड! कुण्ड में मिट्टी जमी थी, और अब मिट्टी में, पौधे उग आये थे! अरुणा भाव-विभोर थी! आँखों से आंसू बहने लगे थे! बहते भी क्यों न! उसके प्राण वापिस किया थे उस कामेषी ने! मैंने, हाथ जोड़ लिए उस कामेषी के! वे दोनों बाबा, बारीकी से अवलोकन कर रहे थे वहाँ का! "अरुणा?" बोला मैं, "क्या यहां आयीं थीं तुम?" पूछा मैंने, "नहीं" बोली वो, नहीं? तो इसका अर्थ? यहां और भी कुछ है? "सुश्री? शर्मा जी? आओ इधर!" कहा मैंने, "क्या हुआ?"


   
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श्रीशः उपदंडक
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बोले शर्मा जी, "आओ तो सही?" कहा मैंने, आये वे, हए हम एक तरफ, "सुनो, अभी और भी कुछ बाकी है!" कहा मैंने, "क्या?" बोले शर्मा जी, "वो त्रिशूल!" कहा मैंने, "अरे हाँ!" कहा उन्होंने अचरज से! "आओ, बाहर चलें!" कहा मैंने, 

अब बाबाओं का मतलब हमसे समाप्त हो गया था! अरुणा की आवश्यकता खत्म! हम बाहर आ गए, किसी भी बाबा का ध्यान नहीं गया हम पर! वो बस, अपनी ही सनक में धुत्त वहीं जाँचे जा रहे थे! पता नहीं क्या चला रहा था मन में उनके। "आओ, यहां चलें।" कहा मैंने, 

हम चले, सुश्री का हाथ पकड़ रखा था मैंने, 

और अचानक से मैं रुका! मेरी दायीं तरफ कुछ था! था कुछ! 

और वो क्या था? वो पेड़! चार पेड़! लाल और पीले फलों वाले पेड़! "आओ!!" मैं जोश से बोला, 

और दौड़ा उधर! आये हम उधर, "वहां! वहाँ चलो!" कहा मैंने, 

और हम दौड़े वहाँ! भागे! अब चैन न पड़ता था! आये हम वहां! और! और! हाँ और! ये कहाँ आ गए? क्या ये कामेषी का अपना स्थान है? भूमि पटी पड़ी थी गुलाबी फूलों से! छोटे छोटे गुलाबी फूल! सुगंध ही सुगंध! ऐसी सुगंध कि शायद यक्ष-उपवन! सफ़ेद सफ़ेद रंग के फूल! छोटे छोटे, बड़े बड़े! खुशबूदार, हवा चले, तो मदहोशी आ जाए! वो पेड़, जंगली गूलर के थे, साधारण गूलर से अलग! फल भी बड़ा था, गुच्छे के गुच्छे लगे थे उन पर! शाखों पर, तने पर! हर जगह! 

और तभी आवाज़ आई, आवाज़ किसी मोर के चहकने की! उस समय तो हमारे मन का मयुर नाच उठा था! सच में, क्या हाल था हमारा, ये तो बस हम ही जानते थे! क्या आनंद था वहां! "आओ सुश्री!" कहा मैंने, 

और हम उन फूलों से बचते बचते आगे बढ़े! आये आगे! और हमें अब दिखा एक मुहाना, एक पत्थर की दीवार में! ऐसी सुगंध! ऐसी सुगंध! कि मन करे लेट जाओ! और उठो ही नहीं! दैविक सुगंध थी वो! उस सुगंध को आप रात की रानी की सुगंध को, चार गुना बढ़ाकर जान सकते हैं! मैं गया उस मुहाने के अंदर, सुश्री मेर बाजू थामे अंदर चल रही थी! शर्मा जी टोर्च लिया मेरे साथ ही थे! जैसे ही रौशनी डाली सामने, तो क्या देखा! एक बड़ा सा अग्नि-कुण्ड! 

और उसके साथ ही गड़ा, भूमि में धंसा एक त्रिशूल! त्रिशूल करीब छह फ़ीट का रहा होगा! वजन में भारी होगा, और जब छकर देखा तो ये भी चांदी का बना था! कम से कम, पच्चीस किलो वजन तो होगा उसमे! उसके फाल में, कुछ अक्षर से उकेरे गए थे। लेकिन काला पड़ा हुआ था वहां से, 

और वहीं पास में, एक चबूतरा था! मैं गया वहां, चबूतरा देखा, उस पर संस्कृत में कुछ शब्द लिखे थे! वे शब्द मैं यहां नहीं लिख सकता! बस इतना कि वहाँ जो कोई भी था, वो महाप्रबल रहा होगा! महातांत्रिक! अब गुत्थी खुलने लगी थी! गुत्थी ये, कि ये स्थान कुपिका कामेषी का था! सत्य! लेकिन इस स्थान को अस्तित्व में लाया कौन? ये नहीं पता! कौन था वो साधक? 

ये चबूतरा किसका है? 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और ये, कक्ष किसका है? और ये त्रिशूल? कौन है इसका असली स्वामी? किसने बनाया ये स्थान ऐसा दिव्य? अब कान में सीसा सा घुलने लगा! पलकों पर जैसे मोम टपकने लगा! रोएँ खड़े हो गए! कहीं कोई गलती तो नहीं कर दी? कोई सिद्धत्त्व प्राप्त सिद्ध तो नहीं यहां? मन सिहर उठा! हाथ-पाँव ठंडे हो गौए उसी क्षण! गला अवरुद्ध सा होने लगा! एक अंजाना सा भय, अब अपनी गिरफ्त में कसने लगा हमें अब जैसे हमारे प्राण संकट में थे! कहीं कुछ हो न जाए, कुछ अप्रत्याशित सा, कुछ अनहोनी के से घटने का अहसास.... "शर्मा जी?" कहा मैंने, "हाँ?" बोले वो, "बाहर चलो फौरन" कहा मैंने, मेरे बोलने के लहजे से, वे सब समझ गए! 

और मैं उस सुश्री की बाजू थामे चला बाहर, 

और जैसे ही हम बाहर आये, कि अचानक... 

.. 


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम जैसे ही बाहर आये, वैसे ही अचानक से कुछ आवाजें आने लगी! आवाजें, जैसे कहीं मंत्रोच्चार हो रहा हो! ये आवाजें ऐसी घनघोर थीं, कि हम तीनों ने सुनी, कहने की आवश्यकता नहीं कि हम तीनों ही भयभीत हो उठे थे! आवाजें जैसे भूमि में से, आकाश में से, शून्य में से आ रही थीं! हम कभी आकाश को देखते, कभी भूमि को! और मंत्र भी कोई साधारण नहीं थे, ये मंत्र किसी का आह्वान करने वाले थे। लेकिन ये बोल कौन रहा था? आवाज़ पुरुष की थी, लेकिन कभी कभी टंकार-मंत्र स्त्री स्वर में भी गूंज उठते थे। "जल्दी चलो यहाँ से!" कहा मैंने, 

और हम भाग चले वहाँ से! भागे, उस मुहाने तक आये, और सीधा अंदर की तरफ भागे! अब अँधेरा घिर चुका था, बस हमारी टोर्च ही जल रही थीं! अब वो स्थान किसी भयानक मरघट समान लगने लगा था! हम सीधा भागे, और जब वहां आये, तो वे सभी लोग उस बड़ी सी मूर्ति के नीचे बैठे थे। अलख उठा ली थी, और गहन मंत्रोच्चार ज़ारी था! "नहीं! बाबा नहीं!" मैं चिल्लाया! 

और भागा बाबा के पास, तेवत बाबा के पास! "रुक जाओ!" कहा मैंने, बाबा तेवत रुके लेकिन बाबा हर ने मंत्रोच्चार जारी रखा! "बाबा हरु! रुक जाओ!" कहा मैंने, न रुके, अलख में भोग अर्पित किया! बब तेवत उठे, और आये मेरे पास! "क्या बात है?" बोले वो, "बाबा, इस स्थान से अभी निकलो!" कहा मैंने, 

'वो क्यों? कितने कष्ट के बाद हम यहां आये हैं, हम अब नहीं जाने वाले, कुपिका कामेषी को प्रकट करना ही होगा!" बोले वो, "लेकिन उस से पहले कुछ दिखाना चाहता हूँ मैं!" कहा मैंने, 

"वो क्या?" पूछा उन्होंने, "ये स्थान किसी और का है, कोई सिद्ध हैं यहां!" कह गया मैं एक ही सांस में! 

जैसे ही मैंने ऐसा कहा, बाबा हरु भी रुक गए! खड़े हुए झट से! "क्या?" बोले वो, "हाँ, ये स्थान किसी सिद्ध का है!" कहा मैंने, "कौन सिद्ध?" बोले वो, "मुझे नहीं पता!" कहा मैंने, "तो फिर कैसे?" बोले वो, "आओ मेरे साथ!" कहा मैंने, 

और वे सभी, चल पड़े मेरे साथ! मैं ले आया उनको उसी जगह! दिखाया उनको वोस्थान! उन्होंने देखा, तो भय खाया अब! "ये त्रिशूल, उन्ही का है, जिन्होंने कुपिका कामेषी को सिद्ध किया और इस स्थान को भी सिद्ध कर दिया!" कहा मैंने, "सही कहते हो!" बोले बाबा हरु! "यहां


   
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श्रीशः उपदंडक
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से निकलना ही बेहतर है, क्षमा मांगो और निकलो!" कहा मैंने, "नहीं!" बोले बाबा हरु! "विवेक से काम लो बाबा! नहीं तो प्राण संकट में हैं!" कहा मैंने, 

और तभी बाहर चीलों के चिल्लाने की आवाजें आयीं! जैसे हज़ारों, लाखों चीलें वहाँ चली आई हों! "देख लो, अब चलो!" कहा मैंने, 

"नहीं! हम उन सिद्ध का आह्वान करेंगे!" बोले बाबा हरु! "हाँ, हम करेंगे!" बोले बाबा तेवत! कुंठित हो गयी बुद्धि उन दोनों की! अंजाम नहीं जानते थे इसका! वो सिद्ध क्या करे और क्या नहीं! पल भर में भस्म कर देने वाले वो सिद्ध कहीं कुपित हुए, तो क्या हो, कोई नहीं जानता! "ज़िद न करो! निकलो यहां से!" बोला मैं, "आपको जाना है, तो जाओ!" बोले बाबा हरु! "अरुणा सोरन? किशनर आओ मेरे साथ!" कहा मैंने, कोई नहीं आये, मुझसे अधिक उन्हें बाबा पर विश्वास था! 

और तभी फिर से मंत्रोच्चार की ध्वनि गूंजी! अब उन्हें आया मुझ पर विश्वास! "ये क्या है?" बोले बाबा तेवत, घबरा के, "पता नहीं!" बोले बाबा हरूं, मुंह फाड़ कर, "आह्वान!" कहा मैंने, "कामेषी का?" पूछा उन्होंने, "हाँ, शायद!" कहा मैंने, "ये तो और बढ़िया है!" बोले बब तेवत! 

और तभी वहाँ, एक ध्वनि हुई। एक पुरुष की ध्वनि! एक गरजदार ध्वनि, हम्म्म की जैसी ध्वनि! और अगले ही क्षण! अगले ही क्षण, वहां, उस त्रिशूल के नीचे रखे अग्नि-कुण्ड में, आग की लपटें उठ गयीं! सभी अवाक! सभी दंग! मैंने सुश्री को पकड़ लिया, शर्मा जी का हाथ थाम लिया, अग्नि की लपटों से वो बड़ा सा कक्ष चमक उठा था! पूरा कक्ष लाल रंग की रौशनी से, लाल हो उठा था! "पीछे हटो!" बोला मैं, 

और सुश्री, शर्मा जी को हटाया पीछे! 

जैसे ही पीछे हटे, उन पेड़ों पर झट से आग लग गयी! पूरा वो स्थान आग की लपटों से घिर गया! उसके ताप से हमारे बदन झुलस उठे! 

और मैं उन दोनों को ले भाग लिया वहाँ से! आया खुले स्थान पर! रुका वहां! लेकिन नज़रें तलाशें उन्ही को, मूर्ख हैं तो क्या, है तो इंसान! किशन, सोरन और वो अरुणा, कहीं यहीं राख न हो जाएँ! "आप दोनों यहीं रुको, मैं आया!" बोला मैं, "नहीं, आप नहीं जाओ! आप नहीं जाओ!" सुश्री मेरा हाथ पकड़, जैसे रो पड़ी! "सुह, वे मारे जाएंगे, समझो! रुको यहीं!" कहा मैंने, "नहीं, नहीं जाने दूंगी!" मुझसे लिपटते हुए बोली, "मत जाओ!" बोले शर्मा जी, "समझा करो, कुछ नहीं होगा मुझे, मैं क्षमा मांग लूँगा! समझा करो!" कहा मैंने, "तो हम भी चलेंगे!" बोले शर्मा जी, "नहीं, कोई नहीं, मैं जाऊँगा!" कहा मैंने, हाथ छुड़ाऊं तो छोड़े नहीं, आँखों में डर और भय! 

और वहाँ पेड़, धूधू कर जलें! "ठीक है, चलो!" कहा मैंने, 

और हम चले वापिस, वे सब, वहां एक झुण्ड सा बनाये खड़े थे, पता नहीं बाबा तेवत किसका इंतज़ार कर रहे थे, बुद्धि कुंठित हो चली थी उनकी! इसमें अब कोई संदेह नहीं शेष था! "बाबा?" चिल्लाया मैं, सब ने देखा मुझे, "आ जाओ वापिस?" कहा मैंने, 

"अरुणा?" चिल्लाई सुश्री! बुलाया उसे! लेकिन कोई नहीं आवे! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और अगले ही पल, वो अग्नि समाप्त! लोप हो गयी! रह गया तो मात्र उसका ताप! पेड़, पहले जैसे ही हो गए! कहीं ये किसी की आमद तो नहीं? लेकिन कौन? कामेषी? या स्वयं वो सिद्ध? अब साँसें अटकी! आँखें, पलक पीटना भूली! छोटी सी आँखें, सारा दृश्य, अधिक से अधिक, समेटें अपने पर्दे पर! 

और फिर से मंत्रोचार! इस बार, और गहन! जैसे कोई डूब गया हो मंत्रों में! सन्नाटा छाया ही हुआ था, और ऊपर से मंत्रोच्चार की डरावनी ध्वनि! पूरा स्थान मरघटी सन्नाटे से भयभीत हो जैसे! "बाबा! मान जाओ! चलो यहां से!" कहा मैंने! इस से पहले की वो कुछ कहते, कुण्ड में अग्नि फिर से प्रकट हुई, वे बाहर थे, और अंदर उस कक्ष के फिर से आग भड़क गयी! सिहर तो हम भी गए थे, उन पेड़ों से दूर हो लिए। 

धम्म! धम्म! बड़े बड़े पत्थर गिरने लगे वहां! हम भाग कर, एक बड़े से पत्थर से सट गए, वो उनमें, भगदड़ ही मच गयी! वे भागे! बाबा भागे, सोरन भाग और किशन, वहीं उसी दीवार के साथ चिपक गया। 

और अरुणा, वो बेचारी भागी सामने! बचती बचाती! एक बड़ा सा पत्थर जैसे ही गिरा उसके सामने, वो रोक नहीं पायी अपना वेग, 

और टकरा गयी पत्थर से! लेकिन या क्या? जैसे ही टकराई, वो पत्थर, चूर्ण हो गया! अद्भुत! सच में अद्भुत! ये क्या देखा था हमने! क्या कामेषी का सरंक्षण अभी भी था उस पर? दिमाग भन्ना गया! सोच कुन्द पड़ गयी! 

और तभी, वो पत्थर गिरना बंद हो गए! और तब, तब वहाँ छाया सन्नाटा! अब कोई मंत्रोचार नहीं! बस वो अग्नि जलती रही! अब सब जैसे अपने अपने दड़बे से बाहर निकले! हम सब, एक जगह आ इकट्ठे हुए। फूल गिरने लगे! हर तरफ! हर तरफ, जहां देखो वहाँ! माहौल में सुगंध फूट पड़ी! एक अलग ही, दैविक सुगंध! फूल सफ़ेद रंग के थे, लहराते लहराते गिर रहे थे नीचे! पूरी भूमि उनसे ढक गयी! फर्श सा बन गया उन फूलों से! सफेद ही सफेद फूल! 

हम पर भी गिरे थे वे फूल, हिम से शीतल! 

औंस से भीगे, सुगन्धि से लबरेज़! तभी तेज बयार बहने लगी! वो पेड़ लहलहा उठे! ज़मीन पर पड़े फूल, गोल गोल घूमने लगे! हवा में ठंडक थी! जैसे बर्फीली हवा बह रही हो! रोये खड़े हो गए थे हमारे! जैसे, मौसम बदल कर, शीत का हो गया था! सुश्री, मेरे से सट कर खड़ी थी, उसका बदन ठंडा हो चला था, रोएँ ऐसे खड़े थे, की जब मैंने उसका हाथ पकड़ा, तो कलाई के नीचे रोएँ साफ़ साफ़ स्पर्श हुए! शर्मा जी ने भी, अपने दोनों हाथ बाँध लिए थे! सच में, मौसम शीत ऋतु समान हो गया था! हवा और शीतल बह रहे थी, बदन से टकराती तो फुरफुरी उठा देती थी! फूल लगातार गिर रहे थे, कोई कोई फूल जब गरदन के पीछे कमीज के कॉलर में गिरता, तो ऐसी फुरफुरी उठती कि जैसे बर्फ का टुकड़ा गिरा हो! उसको झट से निकालना पड़ता था, सुश्री ने, अपना सर, अपने दुपट्टे से ढक लिया था, और शर्मा जी ने, वहां अपना रुमाल बाँध लिया था, मैंने कमीज का ऊपरवाला, गले वाला बटन लगा लिया था, कम से कम कुछ तो राहत मिले! चिरक-चिरक की सी आवाज़ हुई! जैसे केले के तने को जब चीरा जाता है,


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो जैसी आवाज़ होती है, वैसी, न जाने वो था क्या, कैसी आवाज़ थी, लेकिन आ हर तरफ से रही थी! 

और तभी प्रकाश फूटा! तेज प्रकाश! नीले और सफ़ेद से रंग का! मध्य में, संतरी प्रकाश था उसमे! वो प्रकाश ऐसा तेज था, कि आँखें देख नहीं पायीं और फेरनी पड़ी! जब प्रकाश मद्धम पड़ा, तब देखा! वो रेखाओं के रूप में चमक रहा था! फिर वो प्रकाश भूमि पर उतरने लगा! और वहां, उसी क्षण, वो प्रकाश की रेखाएं, उस कक्ष में घुस गयीं और सीधे ही उस चबूतरे में प्रवेश कर गयीं! अब हम न केवल सिहरे अपितु जड़त्व का भी आखेट हो गए। वो जो वहां थे, सभी के सभी, अब पीछे हटने लगे! अब हिम्मत जवाब देने लगी थी उन बाबाओं की! अब मै आगे चला, मेरे संग सुश्री और शर्मा जी भी! और मै उन बाबाओं के पास आ खड़ा हुआ! सामने देखते हुए, बाबा लोगों का तो वो हाल कि काटो तो खून नहीं! "बाबा?" बोला मै, बाबा तेवत से, मुझे देखा, लेकिन बोले कुछ नहीं, 

"मान जाओ, यहां से निकल लेते हैं, क्यों किसी के विश्राम में बाधा डालें हम?" कहा मैंने, "नहीं बोले वो, "कोई लाभ नहीं कहा मैंने, "चुप रहो और देखो अभी" बोले वो, चराट!! ऐसी आवाज़ हुई तभी! बहुत तेज! कान फाड़ देने वाली! हम सभी चौकस! 

और तभी सोरन चीखा! "वो देखो! वो देखो!" कहते हुए, दौड़ पड़ा पीछे! हमने भी देखा, 

ओह! ये क्या? क्या है ये? आकाश से जैसे धूल के बादल नीचे आ रहे थे! जैसे आकाश फट पड़ा था! उन बादलों के बीच, लाल लाल रंग की सुलगती हुई सी अग्नि थी! लगता था कि जैसे ही ये नीचे गिरें इस स्थान समेत, हम सब भस्म! तत्क्षण! सभी के होश उड़ गए! सौरन, एक पेड़ पकड़ कर ऊपर देख रहा था, किशन, उस दीवार के साथ खड़ा था, और हम, खुले में, ऊपर देख रहे थे! कहीं भी छिपो! नहीं बच सकते! कहीं भी छिपो! 

और अगले ही पल! भम्म की आवाज़ हुई! और हम, सब गिरे नीचे, आँखें बंद और अचेत! दूसरे ही क्षण, नेत्र खुले सभी के, कोई आहत नहीं! कोई धूल नहीं! कोई चोट नहीं! कोई चिन्ह नहीं! खड़े हुए, आश्चर्यचकित! ऊपर देखते हुए। 

आकाश साफ़! तारे चमक रहे थे! वो फिर वो, था क्या? तभी हमारे पीछे से प्रकाश फूटा! ऐसा तेज, कि हम देख नहीं सके,हाथ आगे करने पड़े। "वहीं चलो!" कहा मैंने, 

और हम सब वही के लिए चल पड़े! पहुंचे वहाँ! क्या अद्भुत दृश्य था वहाँ! एक झोंपड़ी बनी थी वहाँ! झोंपड़ी के बाहर, लहसुन लगा था, क्यारियों में, काफी बड़ा बड़ा! धान लगा था, छोटा छोटा! छोटी सी जगह ही! झोपड़ी में से, प्रकाश आ रहा था बाहर, जैसे, कोई लौ जल रही हो वहाँ! झोंपड़ी के बाहर, उसकी दीवार से सटे हुए, टोकरे रखे थे, एक खजूर की झाडू, और एक चाकी, अन्न पीसने वाली! अत्यंत ही अद्भुत! हम चले झोंपड़ी की तरफ! उसके एक झरोखे में से झाँक कर देखा, 

जो देखा, वो आज तलक याद है! एक वृद्धा स्त्री अनाज फटकार रही थी! बाल सफेद थे उसके, चेहरे पर झरियां पड़ी थीं! उसके शरीर से लौ प्रकट होती थी, बार बार! कभी माथे से, कभी


   
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श्रीशः उपदंडक
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वक्ष से, कभी हार्थों से और कभी उस अन्न से! प्रकाश यहीं से आ रहा था! देख तो लिया था हमने, लेकिन जैसे ज़मीन में धंसने वाले थे हम! ये स्त्री कौन है? 

और इसका नज़र आने का क्या अर्थ है? 

और सबसे बड़ी बात, ये है कौन? हम सब एक दूसरे का मुंह ताकें! अटकलें लगाएं। 

और तभी, बाबा हरु चले उस स्त्री के पास! जा पहुंचे, हाथ जोड़े, और बैठ गए! फिर बाबा तेवत! वे भी चले गए! जा बैठे, हाथ जोड़कर! 

लेकिन! वो स्त्री, न तो उन्हें देखें, न ही बात करें! बस अन्न ही फटकारती जाए! ये क्या माया? अब हिम्मत कर, हम सभी चले! बाहर ही खड़े रहे, अंदर जगह नहीं थी! बाबा लोग, ध्यान बताएं उसका, न देखे वो उन्हें! अन्न साफ़ करें, एक तरफ रखे, मुट्ठी भरे अन्न की ढेरी से, छाज पर धरे और फटकारे! बस! तब बाबा हरु ने, वो छाज पकड़ना चाहा! जैसे ही पकड़ा, आग के लौ उठी! 

और बाबा का हाथ झुलस गया! वो स्त्री रुकी! 

छाज रखा, 

और सामने हाथ किया, ओह! ये अम्मा तो नेत्रहीन हैं! अब समझा मै सारा मसला! सामने हाथ किया तो बाबा तेवत हुए पीछे! बाबा हरु भी! घबरा गए थे शायद वो! उठ लिए! वो स्त्री भी उठी, सामने हाथ करती हुई बढ़ी आगे, अब वो पलटे और भागे! वो स्त्री बाहर तक आई, खड़ी हुई, 

और आवाज़ दी एक, एक शब्द कहा, "भवना?" अपनी वृद्ध वाणी में! और जैसे ही बोली वो, हम जा गिरे पीछे, करीब दो दो फ़ीट! चोट तो नहीं लगी लेकिन, क्षण के इतने ही प्रखंड में, वो झोंपड़ी, वो खेत सा, छोटा सा, सब लोप हो गया! 

हम उठे, कपड़े झाड़ते हुए! और तभी हमारे सामने, कोई आठ फ़ीट आगे, एक स्त्री प्रकट हुई। आयु कोई चालीस वर्ष होगी उसकी, मज़बूत कद-काठी! गले में मालाएं पड़ी! माथे पर, भस्म मली हुई, हाथों में, कोहनी तक, रुद्राक्ष पड़े हुए, 

आँखों में मढ़ा हुआ काजल, चेहरा चौड़ा, कंधे चौड़े! 

लम्बाई करीब साढ़े छह फीट! बदन बेहद सुगठित! श्वेत वस्त्र और कमरबंद नीले रंग का! पांवों में मालाएं! हाथ में एक काष्ठ-दंड! 

और नेत्रों में, ज्वाला! ये कौन हैं? कोई साधिका? क्या कामेषी? नहीं? तो भवना? ये भवना कौन? हम सब, झुक गए उसके आगे! हमारे हृदयों में बिजली सी कड़क पड़ी! 

नसों का खून जमने लगा! नाक की आती-जाती साँसें बेहद गर्म हो उठीं! वो आगे आई, 

और हमने अपने सर झुकाये! आई वो आगे, मालाओं की आवाज़ हुई! पाँव की मालों की आवाज़ हुई! उसका रूप ऐसा था कि मै तो वर्णन ही नहीं कर सकता! केश काले थे। नीचे पांवों तक आते हुए, खुले हुए! गौर-वर्ण था उसका, और उसकी कलाइयां ऐसी मज़बूत थीं कि, मेरे जैसे का गला पकड़ ले तो क्षमा मांगने पर ही छूटे! आगे बढ़ी, 

और रुक गयी! हमने सर झुकाये हुए थे ही, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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बस पाँव ही देख रहे थे उसके, पाँव भी ऐसे भारी कि छाती पर बस एक ही पाँव रखे, तो जीभ हलक से उखड़, बाहर आ जाए मुंह से! "अरुणा? पुत्री?" बोली वो, 

क्या ? 

अरुणा? 

पुत्री? 

और आवाज़! आवाज़ दैविक! मधुर! कोमल! प्रेम से भरी हुई! करुणा से चिपड़ी हुई! 

ये अप्रत्याशित था मेरे लिए! परन्तु सबसे बड़ा प्रश्न जो मुंह फाड़े और पेट पीटे खड़ा था वो ये, कि ये हैं कौन? कौन हैं ये? सर घूम रहा था फिरकी के समान! सर में हथौड़े बजने लगे थे! 

और जब उसने पुकारा था उस अरुणा को, ममत्व भरे लहजे से, 

तो अरुणा, मंत्र-मुग्ध सी हो, उठ कर, चल पड़ी थी उस स्त्री की ओर! हम सब भौंचक्के थे! हतप्रभ थे! कि ये हो क्या रहा है? अरुणा? जानती है क्या इसे? या कोई अन्य ही कारण है? अब मैंने सर उठा लिया था, और देख रहा था उसे ही, वो दोनों बाजुएँ फैला, जैसे अरुणा की प्रतीक्षा में थी! मुस्कुराते हुए! ममता भरी निगाहों से! अरुणा पहुंची, तो लगा लिया गले अरुणा को! अरुणा ने भी भर लिया उसको अपनी बाजुओं में! लेकिन हमारी बाजुएँ कट पड़ी! कुछ समझ नहीं आया, कम से कम मुझे तो! ये हो क्या रहा है? कोई तो बताये? "अरुणा?" कहते हुए, मैं अचानक से खड़ा हो गया! उसी क्षण अरुणा ने मुझे देखा, स्नेह की दृष्टि से! "अरुणा?" कहा मैंने, उसने फिर देखा, उस स्त्री ने भी देखा! मैंने उस स्त्री को प्रणाम किया, उसने सर झुका, मेरा प्रणाम स्वीकार किया! मुझे बहुत प्रसन्नता हुई! रोम रोम खिल उठा! "आप कौन हैं माँ" प्रश्न किया मैंने, "भवना!" बोली वो, "कौन भवना?" पूछा मैंने, "ये स्थान महासिद्ध, बाबा पुरुक्षा का है! ये स्थान!" उसने हाथों से इशारा कर, समझाया! महासिद्ध! महासिद्ध पुरुक्षा! उनका पावन स्थान! कोई पुण्य किये होंगे जो इस स्थान पर पग धरे। 

"और मै, भवना, उन महासिद्ध पुरुक्षा की अर्धागिनी!" बोली वो, सच कहता हूँ, मै मूर्छित ही हो जाता ये सुनकर तो! भवना! महासिद्ध बाबा पुरुक्षा की अर्धांगिनी! ऐसे कौन से भाग थे मेरे जो इनके दर्शन हुए! ऐसे कौन से पुण्य संचित किये हुए था मै! अब सभी ने, ज़मीन को सर लगा लिया! अब शब्द निकालना चाहूँ मुंह से, तो शब्द न निकलें! ऐसा भंवर में चक्कर काटूं कि कुछ समझ न आये! जितना निकलूं उतना ही फंसू! हिम्मत बनाई अपनी! और अब शब्द ढूंढें! "माँ! वो वृद्धा स्त्री कौन थीं?" पूछा मैंने, "माँ केशी! महासिद्ध बाबा पुरुक्षा की माता श्री!" बोली वो! 

ओह! धन्य हुआ मै, उस मातेश्वरी के दर्शन कर! धन्य हुआ मै और हम सब! उस माँ के दर्शन कर, जिसने एक महासिद्ध पुत्र को जन्म दिया! "और माँ? ये अरुणा?" पूछा मैंने, यही सबसे बड़ा सवाल था! इसी सवाल में सारी कहानी गुथी थी! सारा निचोड़ इसी सवाल में था। क्या आई थी कामेषी मात्र उसी अरुणा के पास? क्यों ले गयी थी वो उसको अपने संग? क्यों लायी थी उसको इस स्थान पर? सब निचोड़ और उत्तर इसी सवाल में थे! "पुत्री! हमारी पुत्री!" बोलीं वो! 

पुत्री? 


   
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श्रीशः उपदंडक
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किसकी पुत्री? 

बाबा पुरुक्षा और माँ भवना की पुत्री? ये क्या सुन रहा हूँ मैं? ये क्या चक्रव्यूह है! मै इसी पृथ्वी पर ही हूँ न? कहीं और तो नहीं चला गया? कहीं मेरा मस्तिष्क प्रक्षेपित तो नहीं हो गया? "अरुणा! यहीं आयीं थीं तुम! बाबा ने ही बुलाया था! कैसे देखते तुझे रोते हुए? बिलखते हुए? छटपटाते हुए? गिड़गिड़ाते हुए? इसीलिए बुलाया था तुझे!" बोली भवना! 

ओह! अब समझा! समझ गया मै! आया सूत्र मेरे हाथों में! मित्रगण! 

अब आपको बताता हूँ कि किस प्रकार पुत्री थी ये अरुणा उनकी! अरुणा मात्र एक ही संतान थी उनकी! जैसे ही अरुणा यौवन में पहुंची, अरुणा को ये संसार छोड़ना पड़ा, कारण नहीं बताऊंगा, मै बाबा पुरुक्षा का मान रख रहा हूँ इसीलिए, मृत्यु का अब कोई अर्थ शेष नहीं उनके लिए! न जन्म और न मृत्यु! इस सभी से दूर हैं वो अब! तब बाबा अपने सिद्धत्त्व प्राप्ति के लिए घोर साधनाओं में लीन थे, और अरुणा, छोड़ चली थी उनको! अरुणा का नाम, उस समय अरुणा का नाम लाभेषि था! और अरुणा ने फिर कई वर्षों बाद जन्म लिया! और बाबा तेवत के डेरे में उसकी माँ को शरण मिली! अब इसको समय की सूक्ष्मता ही कहिये कि अरुणा की मृत्यु हुई सन दो हज़ार दस में, तब, सम्भवतः बाबा को स्मरण रहा हो अरुणा का! उसका विलाप सुना होगा! और तब ये प्रकरण हुआ! अब सक में क्या हुआ होगा, ये तो बस बाबा ही जाने, माँ भवना ही जानें, पूछने का साहस नहीं था मुझमे! तो कारण आज तक ज्ञात ही रहा! और ये जो कुछ बताया मैंने आपको, कि अरुणा उनकी ही संतान थी, ये मुझे स्वयं उसी स्थान पर, अरुणा ने बताया था! मैंने उस रात्रि अरुणा में दैवत्व देखा था! वाणी में ओजस्विता देखी थी! "हाँ माँ!" बोली अरुणा! और तीव्र प्रकाश उठा। 

वे दोनों उस तीव्र प्रकाश में न बैठे। हमसे देखा ही नहीं गया! आँखें बंद हो गयीं हमारी! न फेरते तो हाथ अवश्य ही धोते अपनी नेत्र ज्योति से! 

और जब प्रकाश लोप हुआ, तो अरुणा खड़ी थी वहां अकेले ही! आँखों में आंसू लिए, स्मरण हो आया था अपना पूर्व जीवन! अपनी माँ, अपनी दादी और अपने पिता! इसी कारण से नेत्र भीग गए थे! अब हम सब समझ गए थे! सारी कहानी और सारे होल-झोल! अब और कुछ शेष नहीं था! औचित्य और उद्देश्य, पूर्ण हो चुके थे! अब वापिस लौटने का समय था! लेकिन कहते हैं न! कि मनुष्य सदैव छोटे रस्ते ढूंढता है बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने में बाबा तेवत ने भी ऐसा ही किया! बाबा हरु ने भी ऐसा ही किया! अब बाबा तेवत को सब पता तो चल ही गया था! उनको लगा, सफलता की सबसे बड़ी कुंजी उन्ही के हाथ है! अरुणा ही वो कुंजी! अरुण चाहे, तो अब क्या नहीं हो सकता! कामेषी तो ऐसे दौड़ी चली आएगी जैसे बुलाने पर मवेशी चले आते हैं! मूर्खता की पराकाष्ठा! मैंने बहुत समझाया! बहुत ओर-छोर बताये! 

बहुत अच्छा-बुरा समझाया! लेकिन मेरी एक न चली! अरुणा को झुकना ही पड़ा! बाबा के एहसान थे उसके ऊपर! 

और इस लम्पट बाबा ने आज एहसान बेक दिया थे! आज अरुणा से कीमत वसूल रहे थे उनकी! जहां उन्हें अरुणा को सुसम्मान और सुरक्षित रखना चाहिए था, आज वहीं, उसी को हल का बैल


   
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श्रीशः उपदंडक
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बना दिया था! "ये क्या कर रहे हैं?" पूछा सुश्री ने, "बहुत बुरा" कहा मैंने, "मैं अरुणा को समझाऊं?" बोली वो, "नहीं" कहा मैंने, "तो अब क्या करें?" बोली वो, "देखते रहो सुश्री!" कहा मैंने, 

मै और सुश्री, शर्मा जी के साथ आ बैठे एक जगह, समझ नहीं आ रहा था कि कैसे, इन बाबाओं की नीयत बदल गयी अचानक! "ये भी अंजाम भुगतेंगे!" बोले शर्मा जी, "हाँ!" कहा मैंने, "ये तो सरासर, अन्याय है इस अरुणा के साथ" बोले वो, "हाँ" कहा मैंने, "अब हम क्या कर सकते हैं?" पूछा उन्होंने, "कुछ नहीं" कहा मैंने, "क्या सौंगड़ लड़ा सकते हैं?" बोले वो, 

"यहां नहीं लड़ेगा" कहा मैंने, मै सोच में डूबा था, क्या किया जाए, यही सोच रहा था! अब बाजी मेरे हाथों में नहीं थी, निकल चुकी थी! 

अब तो मै जैसे, दूध में से मक्खी निकाल कर, फेंक दिया जाता है, ऐसे फेंक दिया गया था! 

अब मेरा कोई औचित्य नहीं बचा था! बस इतना, कि वापिस ले जाएँ हमें, तो एहसानमंद हों हम उनके! हम बीहड़ में थे, इसी लिए! इसी सोच में डूबा हुआ मै, यही सोचे जा रहा था, सोचता, विचार करता, और दुबारा सोचता! 

अरुणा को कुछ समझाया उन्होंने, उसका दमन किया गया था, भाव तो उसके चेहरे से दीख ही रहे थे, वो नहीं चाहती थी ऐसा करना, लेकिन क्या करे, मानव थी, एहसानों का ऋण चुकाना ही था! विवशता थी उस बेचारी की, और मुझे बहुत दुःख था इस बात का, कि बाबा ने, कहाँ किस भवजाल में फंसा दिया है उस अरुणा को! "बेचारी" बोले शर्मा जी, "सच में" कहा मैंने, "अब न जाने क्या होने वाला है" बोले वो, "हाँ, मै भी नहीं जानता" कहा मैंने, "मै एक बार, बात करके देखू?" बोली सुश्री, 

"नहीं, कोई लाभ नहीं" कहा मैंने, "हो सकता है मान जाए?" बोली वो, "नहीं सुश्री" कहा मैंने, 

और तभी, वे बाबा उस अरुणा को ले चले अपने संग, वे दोनों सहायक भी चले, मैंने सोरन को आवाज़ दी, तो वो रुक गया, हम पहुंचे वहां तक, "कहाँ ले चले?" पूछा मैंने, "अब आहवान होगा" बोला वो, "किस का?" पूछा मैंने, "बाबा पुरुक्षा का" बोला वो, "वो किसलिए?" पूछा मैंने, "कामेषी-सिद्धि के लिए!" बोला वो, "बहुत गलत बात है ये!" कहा मैंने, "जानता हूँ" बोला वो, "तो मना नहीं कर सकता था?" कहा मैंने, "मेरी कौन मानेगा?" बोला वो, बात भी सच थी, कौन मानता उसकी! हम भी चल पड़े वहीं जहां वो आहवान होना था! वे उसी स्थान पर आ गए, जहां हम सबसे पहले आये थे, वहीं उसी गुफा में, जहां कामेषी के प्रतिमा थी! अरुण नीचे बैठी थी, चादर बिछा दी गयी थी, अलख भी उठा दी थी उन बाबाओं ने और अब, मंत्रोच्चार चल रहा था! ये प्रत्यक्ष-मंत्र थे, वे बाबा का नाम बोलते और मंत्र पढ़ते! 

कम से कम एक घंटा ऐसे ही चला! तभी अरुणा झट से खड़ी हो गयी, और भाग छूटी बाहर! चिल्लाते हुए! "बाबा! बाबा!" बोलते हुए! चीखते हुए! इस से पहले कि कोई कुछ समझता, उसको पकड़ा, वो भाग निकली वहाँ से! अब सब भागे उसके पीछे, हम भी भागे! लेकिन वो गयी कहाँ थी, कुछ नहीं पता था! हम उसको ढूंढते रहे, नाम ले ले कर चिल्लाते रहे, लेकिन, उसका कोई अता-पता नहीं! कहाँ गयी, कुछ नहीं पता! गहन अन्धकार था वहाँ, कुछ दीखे नहीं,


   
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