वर्ष २०१२ ऋषिकेश के...
 
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वर्ष २०१२ ऋषिकेश के पास की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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मेरी जिज्ञासा शांत हो जायेगी!" बोला मैं, "बस?" पूछा उसने, "हाँ बस!" कहा मैंने, "आपको क्या मिला?" पूछा उसने, "सुश्री!" कहा मैंने, हंस पड़ी! मेरे ये शब्द बहुत अच्छे लगे उसे! "सच में" बोली वो, 

"एक बार कहा तो मान लिया करो!" कहा मैंने, "हूँ!" बोली वो, रात करीब साढ़े बारह बजे मैं वापिस आया वहां से! सुबह जाना भी था, आराम कर लेते तो सुबह सही से उठते, सुश्री को सब समझा-बुझा दिया था ही, तो करीब एक बजे मैं सोया! सुबह हुई! हम फारिग हुए! 

और गया मैं बाबा के पास! सभी तैयार थे, बस नाश्ता हो जाए, तो निकल चलें! मैं आया वापसी अपने कमरे में, सुश्री अपन सामान ला चुकी थी, मैंने अपने पिडू-बैग में सामान खोंस लिया था उसका, और फिर नाश्ता किया, और हम उसके बाद हुए तैयार! ठीक साढ़े सात बजे, हम निकले वहाँ से, रस्ते से फल ले लिए थे, कुछ बेकरी का सामान भी, भूख लगने पर काम आ ही जाता! और चल पड़े वहीं! कोई दो घंटों में वहाँ पहुंचे! विनोद ने नीचे ही रहना था, सामान के साथ, किशन हमारे साथ चल रहा था, उन बाबाओं का सामान उठा कर! "चलो सब!" बोले बाबा हरु! "चलो!" बोले तेवत बाबा! "आओ सुश्री!" कहा मैंने, 

और उसका हाथ थाम, सहारा दे, उसको ले चला ऊपर की चढ़ाई पर! रास्ते में कई बार पाँव फिसला सुश्री का! मैंने कई बार बचाया उसको! "आया मजा?" पूछा मैंने, "बहुत!" बोली वो, "लेते रहो मजे ऐसे ही!" कहा मैंने, 

"चलते रहो!" बोली वो, सख्ती से! 

और हम सभी पहुँच गए ऊपर! "यहां बैठ जाओ!" कहा सुश्री से, और बिछा दिया था अंगोछा! बैठ गयी वो, मैं भी, और शर्मा जी भी! "अरुणा?" कहा मैंने, "हाँ जी?" बोली वो, "यहाँ आओ?" कहा मैंने, 

आई वो! "यहां बैठो!" जगह बना, मैं बोला, बैठ गयी! "क्या यही मंदिर ही देखा था?" कहा मैंने, उस मंदिर की तरफ इशारा करके! "हाँ, ऐसा ही था!" बोली अरुणा! आँखें फैला कर! "तब तो छोटा दीख रहा होगा?" पूछा मैंने, "नहीं, उतरते वक़्त देखा था, ऐसा ही था!" बोली वो, "काश कि यही हो!" कहा मैंने, "अभी एक और है, जंगल में!" बोली वो, "वहीं जा रहे हैं हम!" कहा मैंने! 

"वो जगह ऐसी ही थी?" पूछा मैंने, "हां, ऐसी ही, एक नदी पड़ेगी" बोली अरुणा, "नहीं, एक और पड़ेगी, और आगे जाकर मिल जाती है इस नदी से" बोली वो, "नदी?" कहा मैंने, "हाँ" बोली वो, "तो यहीं कहीं आसपास ही होनी चाहिए?" कहा मैंने, "हाँ, यहीं कहीं" बोली अरुणा, 

"चलो देख लेते हैं। कहा मैंने, 

और फिर अरुणा चली गयी बाबा तेवत के पास! "पानी देना शर्मा जी?" कहा मैंने, पानी दिया उन्होंने, और मैंने पिया! सुश्री ने भी पिया, 

और बोतल वापिस कर दी! मैंने यहां अंगुल-परिमाप किया, मिट्टी में, एक लकड़ी खोंसी, और उसकी परछाई के अंत पर, मैंने एक पत्थर रखा, हर दस मिनट में एक पत्थर, इस परिणाम


   
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श्रीशः उपदंडक
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अभी घंटे भर में निकल आता! कोई पौना घंटा हमने अब यहां आराम किया, यात्रा तो अब आरम्भ होनी थी! "चलें?" बोला मैं, "हाँ जी चलो!" बोला सोरन! 

और सब उठे अब! मैंने अपना अंगोछा उठाया, झाड़ा और रखा कंधे पर! "जाना कहाँ है?" पूछा बाबा तेवत ने! "अभी बताता हूँ" कहा मैंने, 

और तब अवलोकन किया मैंने उस अंगुल-परिमाप का! दिशा के लिए! इस से सटीक दिशा मिल जाती! परछाईं दायें घूम गयी थी! इसका अर्थ था, कि मैं पूरब की तरफ खड़ा होकर, उस परछाईं की सीध से, तो मुझे उत्तर-पूर्व दिशा मिल जायेगी! परिणाम सटीक होगा, नहीं तो वो स्थान, हमारे अगल-बगल से गुजर जाएगा और हमें पता भी नहीं चलेगा! मेरे इस अंगुल-परिमाप को सब देखें! कोई क्रिया सी लगे उन्हें! और तब मैंने किया दिशा निर्धारण! मिल गयी दिशा! 

"उधर! उधर से चलना है!" कहा मैंने, "चलो फिर!" बोले बाबा तेवत! 

और हम अपने अपने बैग संभाल, चल पड़े आगे! काफी चल लिए थे हम, पानी वैसे तो बहुत था, लेकिन उसकी कमी को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए, कुछ न कुछ विकल्प अवश्य ही होना चाहिए आपके पास! पहाड़ों पर वैसे पानी की कमी नहीं होती, पानी अक्सर मिल ही जाता है। 

हम कम से कम दो किलोमीटर चल लिए थे, उबड़-खाबड़ रास्ता था, कहीं ढलान और कहीं चढ़ाई! कहीं गड्ढे और कहीं कीचड़! सबसे बचते बचते आखिर में, एक बड़े से पत्थर के पास आ कर हम रुके! थक गया था सभी! जंगल घना नहीं था, शुक्र था, लेकिन दूरी नापने में, बड़ी तकलीफ होती थी! तो सभी बैठ गए वहाँ! हम भी! "थक गयीं?" पूछा मैंने, "नहीं तो!" बोली वो, "पाँव दिखाना?" पूछा मैंने, नहीं दिखाए! मैंने ज़बरस्ती देखे! गुलाबी एड़ियां अब रक्तिम हो चली थीं! "मना किया था न?" बोला मैं, "तो क्या हुआ?" बोली वो, "अभी न जाने कितनी दूर जाना है!" कहा मैंने, "कोई बात नहीं!" बोली वो, "रुको, एक काम करो" कहा मैंने, 

और मैंने ज़मीन में एक गड्ढा किया हाथों से, उसमे पानी भरा, मिट्टी गीली हुई, "इसमें रखो एड़ियां!" कहा मैंने, उसने रखी, जब तपिश मिली, तो आराम पहुंचा एड़ियों को! कोई आधा घंटा रुकने के बाद, हम फिर चले आगे! 

और इस बार एक नदी ने रास्ता रोका हमारा! पानी था उसमे, लेकिन कहीं कहीं टापू से बने थे! "अरुणा?" कहा मैंने, 

आई मेरे पास, "यही नदी थीन?" पूछा मैंने, "हाँ, शायद यही!" बोली वो, 

"ठीक, अब वो स्थान पास में ही होना चाहिए!" कहा मैंने, "हाँ, होना चाहिए!" बोली वो, "शर्मा जी, सुश्री, यहां से आओ' कहा मैंने, 

और चला एक तरफ, ज़मीन सूखी थी वहां, तो टाप ले मैंने, फिर शर्मा जी ने, और फिर मैंने सुश्री की मदद की! 

थोड़ा टापा-टूपी के बाद, आखिर वो नदी पार कर ली! वे लोग भी फलांग आये नदी को! और हम फिर चले आगे! आया फिर एक छायादार स्थान! और हम रुके वहीं सब के सब! पानी पिया और मैं तो लेट ही गया वहाँ, एक चादर बिछा कर! सुश्री वहाँ की छटा को निहारे! शर्मा जी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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बात करें उस सोरन से, "लेटना ही सुश्री?" पूछा मैंने, "नहीं" बोली वो, "थकावट मिट जायेगी" का मैंने, "आप मिटाओ!" बोली वो, "जैसी तुम्हारी मर्जी!" कहा मैंने, 

अब शर्मा जी आये वहां से उठकर, मुझसे जगह बनवायी, और लेट गए! "गर्मी बहुत है!" बोले वो, "हाँ, नमी है!" कहा मैंने, "बस इसी से थकावट होती है!" बोले वो, "हाँ, पानी की कमी होने लगती है बदन में!" बोला मैं! "हाँ!" कहा मैंने, "नींद आने लगी मुझे तो!" बोले वो, "सो जाओ!" कहा मैंने, "जगा लेना!" बोले वो, 

"जगा लूँगा!" कहा मैंने, 

और आँखें बंद कर, लेट गए! "सुश्री?" कहा मैंने, "हाँ?" बोली वो, "मैं सो जाऊं?" पूछा मैंने, "नहीं" बोली वो, "अरे क्यों?" पूछा मैंने, "जब तक मैं जागी हूँ तब तक तो नहीं!" बोली वो! 

सुना दिया फ़रमान! अब हुक्मतलफ़ी का तो सवाल ही नहीं! "ठीक है, कर लो तुम भी तंग!" कहा मैंने, हंस पड़ी मेरे शब्द सुनकर! "एक मिनट, आना तो?" बोली वो, "क्या हुआ?" कहा मैंने, "आओ तो?" बोली वो, "कोई शंका-समाधान है क्या? अरुणा को ले जाओ?" कहा मैंने, "नहीं, कोई समाधान नहीं, आप उठो तो?" बोली वो, "कोई कसर बाकी न रह जाए!" कहा मैंने, 

और उठा मैं, बोझिल सा! जैसे बदन की सारी जान निचुड़ गयी हो! "चलो, कहाँ चलना है?" बोला मैं, 

और जब मैंने देखा, तो सभी लेटे हुए थे! सो रहे थे! 'वो क्या है सामने?" पूछा उसने, "कहाँ?" बोला मैं, "अरे वहाँ देखो?" बोली वो, 

 

"फूल हैं!" कहा मैंने, "आना तो!" बोली वो, "चलो जी!" बोला मैं, पहुंचे वहां, तो नील पुष्पी की बेल लगी थी! फूल लगे थे घंटीनुमा उस पर! बहुत सुंदर से, केंद्र में स्जद रंग होता है उनमे, जैसे कि, सूर्य उदय हो रहा हो उनमे जैसे ही एक फूल तोड़ना चाह उसने, कोई गिरगिट भाग अचानक से ही! ऐसी डरी ऐसी डरी कि मुझसे चिपक गयी! मैं हंस पड़ा! हंसा तेज तेज! 

और हटाया उसको! आँखों में डर! मैंने दिल के पास कान लगाया! तो धक धक बहुत तेज! "गिरगिट था!" कहा मैंने, अभी भी डरे! "फूल चाहिए?" बोला मैं, हाँ में गर्दन हिलायी उसने! "तोड़ लो!" कहा मैंने, "आप तोड़ो!" बोली वो, "लो" मैंने एक फूल दे दिया तोड़कर! उसने ले लिया फूल! उसके हाथ बराबर फूल था वो! "क्या सुश्री! एक गिरगिट से डर गर्थी तुम!" कहा मैंने, फिर गुस्से से देखे मुझे! "अच्छा! ठीक है!" कहा मैंने, अब चली वापिस, मैं भी चला! आ गए वहीं, मैं बैठ गया, वो भी! "चलें क्या अब?" कहा मैंने, 

"हाँ चलो!" बोली वो, "उठो भाई उठो सब!" कहा मैंने, 

और एक एक करके सब उठने लगे! "शर्मा जी उठो?"बोला मैं, "हूँ!" बोले वो, "अरे जंगल में हैं!" कहा मैंने, उठे, आँखें मलते हुए! उठाया अपना अपना सामान, और लादा पीठ पर, और चले दिए आगे! "आगे चलो सुश्री!" कहा मैंने, हुई आगे, और चलने लगी! "कितनी देर सोया मैं?"


   
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श्रीशः उपदंडक
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पूछा शर्मा जी ने, "कोई पौना घंटा!" बोला मैं, "सर घूम रहा है तभी!" बोले वो, "कच्ची नींद रह गयी!" बोला मैं, "हाँ, इसीलिए शायद!" बोले वो! 

हम चल पड़े थे! यहीं जाना था हमको! लेकिन अभी तक न तो कोई चिन्ह ही मिला था और न ही कोई खंडहर या भग्नावशेष! बस एक आस थी कि हम सही रास्ते पर जा रहे हैं, और कुछ न कुछ तो दिखाई देगा ही! इसी आस में हम बढ़े जा रहे थे आगे आगे! भूख लगती, तो फल खा लेटे, कभी केला कभी अमरुद! कुछ तो पेट में जा ही रहा था। हाँ, पानी ज़रूर पी रहे थे, पानी की कमी नहीं होनी चाहिए! भूख तो बर्दाश्त हो जायेगी, लेकिन पानी की प्यास नहीं! तभी हालत होती है खराब! और तभी एक छोटी सी झील दिखाई दी! मन तो किया जा मारू छलांग उसमे 

और कर लूँ स्नान! लेकिन समय ही नहीं था! पानी इतना साफ़ कि मछलियाँ भी दीख रही थीं! बगुले और अन्य पक्षियां आज अपनी अपनी किस्मत आजमा रहे थे! उनमे और मछलियों में लुकाछिपी का खेल चल रहा था! हम वो भी पार कर गए! सामने देखा, तो एक और छोटी सी 

पहाड़ी थी! अब आगे चलते बाबा लोग रुके! "ये तो पहाड़ी आ गयी?" बोले बाबा हरु। "हाँ, है तो पहाड़ी ही!" कहा मैंने, "अब क्या करें?" बोले वो, "आप बताओ, क्या करें?" बोला मैं, "आप एक बार कारिंदे से पूछो!" बोले बाबा हरु! "ठीक है" मैंने बैग उतारते हुए, और शर्मा जी को देते हुए कहा, 

अब गया एक तरफ, पढ़ा रुक्का सुजान का! 

और सुजान! आया ही नहीं! अब समझ गया मैं इसका मतलब! हम उस सिद्ध-स्थान में प्रवेश तो कर ही गए थे! बस अब ढूंढना बाकी था! मैं हुआ वापिस, और बता दिया सभी को! एक तरफ सब बहुत खुश! और दूसरी तरफ, उत्सुकता गला घोंटे! लेकिन ढूंढना तो था ही! "अब सब चाक-चौबंद हो जाएँ!" कहा मैंने, "बिलकुल!" बोले बाबा तेवत! "चलो आगे, नज़रें जमा कर!" कहा मैंने, "चलिए" बोले वो, 

और हम नज़रें जमाये हुए चल दिए! थोड़ी दूर पर, एक पहला चिन्ह दिखा! मैं भाग कर गया वहां! एक पत्थर था, उसमे कुछ अंकीर्ण था! लेकिन अब साफ़ साफ़ दीख नहीं रहा था! सभी आ गए थे वहाँ! "ये क्या है?" बोले बाबा हरु! "कोई टूटा हुआ पत्थर है, कुछ लिखा हुआ होगा, लेकिन अब झड़ गया है!" कहा मैंने, "इसका अर्थ हुआ हम आसपास ही हैं उस स्थान के!" बोले बाबा हरूं। 

"हाँ, निश्चित ही!" कहा मैंने, 

और खड़ा हुआ, आसपास देखा, भूगोल देखा वहाँ का, कोई रास्ता नहीं, बस झाड़-झंखाड़! और कुछ नहीं! आसपास तो कुछ था नहीं, तो पहाड़ी पर? क्यों न वहां चढ़ा जाए? देखा ही जाए? क्या हर्जा "ऊपर चढ़ना होगा!" कहा मैंने, "इतना ऊपर?" बोले बाबा तेवत! "हाँ, आसपास तो कुछ नहीं!" कहा मैंने, "ऊपर भी न हुआ तो?" बोले वो, "तो नीचे ढूंढेंगे!" कहा मैंने, "ठीक है जी!" बोले वो, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और तब मैंने एक रास्ता बनाया दिमाग में, यहां से ये छोटा रास्ता पड़ता! "आओ, यहां से" कहा मैंने, और चला मैं, दौड़ के सुश्री आई मेरे पास! "चलो, आगे चलो, बढ़ो आगे!" कहा मैंने, 

और सुश्री, कुछ गुनगुनाते हुए, बंद मुंह से, चढ़ने लगी ऊपर! मैं उसके पीछे पीछे चल रहा था, काफी दूर तक चढ़ आये थे हम! लेकिन अभी आधा रास्ता ही हुआ था! कभी कभार, उसका मुंह खुलता तो कुछ शब्द बाहर आते! लेकिन शब्द समझ नहीं आ रहे थे। हांफने लगती थी बीच बीच में! उसकी पाजामी पर, कभी-कभी जरोटन(जंगली घास के बीज) चिपक जाते थे, तो हटाने पड़ते 

मैं हुआ उसके करीब! पास आया और चला संग संग! 

अभी भी गुनगुना रही थी! "क्या गा रही हो?" पूछा मैंने, "कुछ नहीं!" बोली वो, नाक पर पसीने आने लगे थे, रुमाल से पोंछती थी बार बार! रुक गयी! थक गयी थी! "क्या हुआ?" पूछा मैंने, हंसी! मुझे देखा, नाक से पसीने पोंछे! "थक गयी अब!" बोली वो, "रुक जाओ!" कहा मैंने, 

और एक पत्थर पर, अंगोछा बिछा दिया! "यहां बैठ जाओ, सर पर दुपट्टा कर लो!" कहा मैंने, उसने ऐसा ही किया, बैठ गयी! "पत्थर गरम तो नहीं?" पूछा मैंने, "नहीं" बोली वो, "थी, लो पानी पियो" कहा मैंने, पानी लिया उसने, और पिया फिर! अब तक वे भी आ चुके थे, जिसको जहां जगह मिली टिक गया! अरुण आ गयी थी सुश्री के पास, और बैठ गयी थी, मैं हट गया वहाँ से फिर, आ गया शर्मा जी के पास! "बस!" बोले वो, "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "पानी निकलने की देर है!" बोले वो, "क्या?" पूछा मैंने, "बस! गां* में से पानी निकलने की देर है बस!" बोले वो, मेरे मुंह में पानी था। अब न निगले बना न फेंके बना। मेरे ऊपर ही गिर गया। 

और मैं हंसा बहुत तेज! सभी देखें मुझे! "आओ बैठे!" कहा मैंने, "हाँ, बहुत सख्त ज़रूरत है बैठने की!" कहा उन्होंने, 

और हम भी एक बड़े से पत्थर पर टिक गए! कोई बीस मिनट बाद, हम फिर चले! सुश्री आई दौड़ती मेरे पास! "चलो!" कहा मैंने, 

और हम फिर से चढ़े! कोई आधे घंटे के बाद, हम ऊपर आये! आये तो दूर दूर तक निगाह मारी! पहाड़ ही पहाड़! जंगल ही जंगल! 'वो देखो वहाँ!" बोले बाबा तेवत! मैंने देखा, तो एक टूटा हुआ सा मंदिर था वो! कोई एक किलोमीटर के आसपास! नीचे की तरफ! "आओ चलें वहाँ!" कहा मैंने, और हम फिर से नीचे उतरे! उतरना आसान होता है, चढ़ने से! तो हम कोई आधे घंटे में उतर आये नीचे! अब एक जगह रुके, आराम किया, पानी पिया, और फल खाए! बंद और मक्खन ले लिए थे, तो अब वो खाए! बढ़िया लगा बहुत! "देखो बनाने वाले ने भी कहाँ बनवाया है मंदिर!" बोले शर्मा जी, "हाँ, कमाल है!" कहा मैंने, "यही हो बस वो स्थान!" बोले वो, "उम्मीद तो है!" कहा मैंने, 

"सुश्री!" कहा मैंने, "हाँ?" बोली वो, "कैसा लग रहा है?" पूछा मैंने, "बहुत बढ़िया!" बोली वो, "अच्छा है!" कहा मैंने, कर लिया आराम, भर लिया पेट! और फिर चले! अब कोई आधा किलोमीटर रह गया होगा वो मंदिर! "अरे?" बोले बाबा हरु! "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "फिर से चढ़ाई?" बोले वो, "अब है तो है!" कहा मैंने, "ये चढ़ाई ही मार लेगी!" बोले वो, "अब मंजिल


   
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श्रीशः उपदंडक
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सामने हैं!" कहा मैंने, "हाँ, उसी को देख चल रहा हूँ!" बोले वो, मैं हंस पड़ा! "आने ही वाला है!" बोले शर्मा जी, "हाँ, वो तो रहा!" कहा मैंने, "बस, पहुँच जाएँ!" बोले वो, "अभी पहुंचे!" कहा मैंने, 

तो इस तरह हम आ गए उस स्थान पर! जहां से हमें ऊपर चढ़ना था! सब रुके! पानी पिया सभी ने! सभी ने 'शंका-समाधान' किया, जिसको भी शंका थी! 

और फिर चले ऊपर की तरफ! 

ये चढ़ाई थी जानलेवा! पत्थर ही पत्थर! झाड़ ही झाड़! कंटीले पौधे! 

और एक जगह मुझे, राम कचरिया की बेल दिखी! तोड़ ली मैंने, धोई और कच्ची ही खा लीं! बाकी सभी ने भी तोड़ ली थीं! स्वाद में हल्की खट्टी सी, लेकिन शरीर में जान के लिए आवश्यक तत्वों से भरपूर! 

और फिर चले! ऐसा दुष्कर रास्ता! ऐसा रास्ता कि कपड़े ही फट जाएँ! और हो जाएँ तन नंगे! बड़ी ही मुश्किल से निकले वहाँ से, सुश्री से तो कुछ अधिक ही बैर ले लिया था उन झाड़ियों ने! कभी दुपट्टा अटके, कभी पाजामी में कांटे घुसें! आधा किलोमीटर का वो रास्ता, हमने कोई डेढ़ घंटे में पार किया! 

और पहुँच गए वहाँ! वहां पहुंचे, तो वो मंदिर सामने ही था, कोई अस्सी या सौ फ़ीट आगे, लेकिन एक बात और विशेष थी, वहां खम्बे लगे थे पत्थरों के, छत नहीं थी, गोल गोल पत्थर हर जगह पड़े थे, पत्थर भी बहुत बड़े बड़े! नीचे भी पत्थर बिछे थे! जैसे किसी ने विशेष रूप से बनवाया हो इस मंदिर को, अब तो खंडहर मात्र ही था, कुछ नहीं शेष था वहां, जंगली झाड़ और झंखाड़ ने घेर लिया था उसको! पेड़ों ने ढक लिया था उसको अब! "आओ, आगे आओ" कहा मैंने, 

और मैं आगे चला, लेकिन बात नहीं बनी, "किशन?" कहा मैंने, किशन आया, "ये काट किशन" कहा मैंने, 

अब वो काटता चला गया वो झाड़ियाँ और हम आगे बढ़ते रहे! 

और पहुंचे एक गर्भ-गृह जैसी जगह! सभी आ गए थे वहाँ! सुश्री मेरी बाजू पकड़े, आसपास देख रही थी! "अरुणा?" कहा मैंने, "हाँ जी?" बोली वो, "क्या यही मंदिर देखा था?" पूछा मैंने, "नहीं" बोली वो, "नहीं?" पूछा मैंने, "ये नहीं था, उसमे तो हरी काई और घास लगी थी?" बोली वो, हरी घास? काई? 

और ये तो सूखा है। इसका मतलब, ये नहीं है! दम सा निकला! साँस सी घुटी! पसीने छूटे! "एक मिनट!" कहा मैंने, 

और मैं चला वहाँ से ज़रा दूसरी तरफ, सुश्री मेरे संग ही! मैंने खूब जांच-पड़ताल की, लेकिन कुछ नहीं मिला! काई और हरी घास के लिए पानी चाहिए, और यहां तो सूखा पड़ा था! "क्या हुआ?" पूछा सुश्री ने! "काई और हरी घास!" कहा मैंने, "हाँ, काई और हरी घास!" बोली वो, "लेकिन यहां तो सूखा पड़ा है?" कहा मैंने, "आराम से, चिंता न करो!" बोली वो, मुस्कुराते हुई! 


   
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अब उसने देखा आसपास, कई जगह! कहीं कुछ नहीं! "कुछ नहीं है!" कहा मैंने, "हाँ, कुछ नहीं!" कहा उसने! "सारी मेहनत बेकार!" कहा मैंने, 

"नहीं होगी!" बोली वो, "काश कि न हो!" कहा मैंने, 

और तभी शर्मा जी आये भागे भागे! "आओ!" बोले वो, "क्या हुआ?" मैंने भी चला उनकी तरफ! "सोरन ने कुछ देखा है!" बोलू वो! "आओ सुश्री!" कहा मैंने और हम भागे वहाँ! 

आये उधर, वे सभी प्रसन्न से खड़े थे! "क्या दिखा सोरन?" पूछा मैंने! "इधर आइये ज़रा!" बोला वो, 

और मैं चला उसके साथ, वो थोड़ा आगे गए, फिर बाएं, और फिर बाएं! तभी सुश्री भी आ गयी, और शर्मा जी भी! अब सोरन ने जो दिखाया, वो हैरतअंगेज़ था! "ये तो कोई रास्ता लगता है!" कहा मैंने, "हाँ, नीचे जाने का!" बोले शर्मा जी, "टोर्च ले कर आ सोरन!" कहा मैंने, अब तक सभी आ गए थे वहाँ! सभी उत्सुकता के मरीज़ हुए पड़े थे! "ला!" कहा मैंने, टोर्च ले आया था वो! 

मैंने टोर्च जलायी! 

और मारी रौशनी नीचे की तरफ! तो सीढ़ियां दिखाई दीं! पत्थरों की बनी सीढ़िया, लेकिन एक ही आदमी अंदर जा सकता था, एक वक्त में संकरा था वो रास्ता! "मैं जाता हूँ!" कहा मैंने, 

और मैं उतरा नीचे! 

कोई आठ सीढ़ियां उतर गया था, सामने एक खुला सा स्थान था, कोई आठ गुना आठ फीट का! मैं वहीं आया, आसपास रौशनी डाली, कुछ नहीं था, पत्थरों की तेज गंध आ रही थी वहाँ! तभी बाएं में, मुझे एक और रास्ता दिखा, अब वहां गया, ये कहीं दूर जाकर खुल रहा था, मैं पीछे गए, और अब आवाज़ दी सभी को, और सभी नीचे उतरने लगे, एक एक करके! अब कई टोर्च र्थी हमारे पास! "कुछ दिखा क्या?" पूछा बाबा तेवत ने! सुश्री, झट से आगे आई और मेरा हाथ पकड़ लिया! "आगे एक रास्ता है!" कहा मैंने, "कहाँ?" बोले वो, "आओ मेरे साथ" कहा मैंने, 

और मैं चला वहाँ से फिर उनको लेकर, मैं, फिर सुश्री, फिर अरुणा, फिर शर्मा जी, ऐसे, एक एक, करके हम चलते गए आगे! वो रास्ता दायें मुड़ा, मैं भी दायें मुड़ा, ज़मीन साफ़ थी वैसे तो, लेकिन मिट्टी जमी थी, धूल उठती थी, नाक पर कपड़ा रख कर, ही चल रहे थे सारे के सारे! अचानक ही वो रास्ता, ख़त्म हुआ, और सीढ़ियां दिखाई दी फिर से! नीचे जाते हुए, "रुको!" कहा मैंने, सभी रुके, 

और मैं नीचे उतरा! और जब रास्ता खत्म हुआ, तो आँखें फटी के फटी रह गयीं! सामने एक कुण्ड सा बना था, चौकोर! स्वच्छ जल से भरा! पत्ते तैर रहे थे पानी पर! शीतल बयार बह रही थी! ये क्या है? कोई उपवन? ऐसा सुंदर? कौन सी जगह है ये? 

भौंचक्का रह गया था मैं उस पल! पीछे पलटा और भी को आने के लिए कहा, वे आये, आये और दांतों तले उंगलियां दबा ली! "ये क्या है?" शर्मा जी बोले, "कोई उपवन है!" कहा मैंने, तभी मेरे हाथ में अपनी उंगलियां फंसाई सुश्री ने! "ऐसा सुंदर?" बोले वो, "हाँ, अद्भुत!" कहा मैंने, "कमाल है!" बोले वो, हरु बाबा आगे आये, पास मेरे, "यही स्थान लगता है!" बोले वो, "अब ये


   
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उपवन कितना बड़ा है, क्या पता?" कहा मैंने, "पता तो करना होगा!" कहा उन्होंने, "तो चलो!" बोला मैं, "आओ सब!" बोले वो, 

और हम सब चले फिर, सिर्फ अंदाज़े से! उपवन ऐसा सुंदर था कि जैसे माया-रचित लगे! बड़े बड़े पेड़! सेमल, अर्जुन, शीशम, पीपल, बरगद! और भी न जाने कौन कौन से! 

जैसे कोई देखभाल करता हो उनकी! रोज ही! "रुको!" बोले बाबा हरूं! "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "तनिक विश्राम करें, और योजना बनायें!" बोले वो, तो एक जगह, हम लोग बैठ गए! मैं अरुणा को बुलाया अपने पास, 

आई अरुणा, 

"अरुणा? जैस उपवन तुमने देखा था, क्या ये वैसा ही है?" पूछा मैंने, "हाँ, वैसा ही है!" कहा उसने, "कोई निशानी आदि जो तुम्हें याद हो?" पूछा मैंने, "एक गुफा थी वहां, एक चबूतरा, त्रिशूल गड़ा था वहाँ, अँधेरा बहुत था, उस कुपिका के आने से ही प्रकाश हुआ था!" बोली वो, "गुफा?" पूछा मैंने, "हाँ!" बोली वो, "अब गुफा पहाड़ में होगी, और यहाँ तो दूर दूर तक, ऐसा कोई पहाड़ दीख नहीं रहा?" कहा मैंने, "अब क्या किया जाए?" मैंने अपने आप से ही पूछा! "अरे किशन?" बोला मैं, "हाँ जी?" बोला वो, "तू पेड़ पर चढ़ जाता है?" पूछा मैंने, "हाँ जी" बोला वो, "तो चढ़ ज़रा, इस पेड़ पर" कहा मैंने, "जी" बोला वो, 

और लपक कर तने से निकली शाख पकड़ ली, और बंदर की तरह से चढ़ गया! काफी ऊपर! "कोई पहाड़ है वहां?" पूछा मैंने, "दो हैं!" चिल्लाया वो! "कहाँ हैं?" पूछा मैंने, "उत्तर में!" बोला वो, "कितनी दूर?" पूछा मैंने, "पास ही लग रहे हैं" बोला वो, "चल आजा फिर" कहा मैंने, उतर आया नीचे और अब तफ़सील से बता दिया उसने! 

"चलो, उत्तर की तरफ!" कहा मैंने. 

और सब चल पड़े। "काफी समृद्ध उपवन है ये!" बोले शर्मा जी, "हाँ, वहाँ ऐसा नहीं था!" कहा मैंने, "दरअसल, हम उत्तर की तरफ चल रहे हैं, वनस्पति में समृद्ध हैं उत्तर के क्षेत्र!" बोले वो, "हाँ, ये तो है ही!" कहा मैंने, 

और हम चलते रहे, चलते रहे! और ठीक सामने, एक और पहाड़ी दिखी! हरी-भरी! और अब वो उपवन भी, जैसे समाप्त होने लगा था! 

हम आगे चले, और जो दृश्य अब हमारे सामने था, वो या तो माया-रचित था, या अभी तक इस 

संसार से अछूता था! शायद कोई मनुष्य यहां तक पहुँच नहीं सका था, अन्यथा इसका भी सर्वनाश कर दिया होता! कोई न पहुँच सका था, इस का अंदाजा मैंने लगा लिया था! वहां हिरण थे, बहुत सुंदर हिरण! कस्तूरी, लालिया आदि, उनके छौने फुदक रहे थे! वे हिरण हमें उत्सुकता से देख रहे थे, भाग नहीं रहे थे, इर भी नहीं रहे थे, नाहीत तो हिरण मनुष्य को देखते ही भाग लिया करते हैं। इसीलिए अंदाजा लगाया था मैंने, की उन्होंने या तो हम मनुष्यों को पहली बार देखा था, या उनमे साहस था! इसी भी के न रहने से, मॉरीशस और पूर्वी मैडागास्कर में पाया जाना वाला, उड़ानरहित, सीधा-सादा और मासूम पक्षी, डोडो मनुष्य की


   
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श्रीशः उपदंडक
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क्रूरता से इस संसार से सदा के लिए विलुप्त हो गया! उसको मनुष्यों से भय नहीं लगा था, पहली बार ही देखा था, वो करीब आ जाया करता था मनुष्यों के, और उन मनुष्यों को बिन मेहनत के ताज़ा मांस मिला, बस फिर क्या था, उनका ख़ात्मा करके ही दम लिया मनुष्य ने! मेरे पास एक ऐसे ही डोडो पक्षी का पंख है! मुझे बहुत दुःख होता है डोडो के लिए! खैर, आसपास केली के पौधे लगे थे, लाल और पीले रंग के झंडेनुमा फूल लगे थे! शानदार बड़े बड़े मानसरोवर के पौधे लगे थे, एक एक पत्ता इतना बड़ा कि मैं उसका बिस्तर बिस्तर बना सकता था! एक कि चादर भी! फूल लगे थे, मैं रुक नहीं पाता फूल देख कर, चला फूल देखने! मेरे संग सुश्री भी चली! वहां कपाणि, शौणिक, भुवा, 

जातिक्षा, नील-पुष्पी और अमरकण्टा के फूल लगे थे! एक से बढ़कर एक! जैसे, प्रकृति ने स्वयं ही उनका पालन किया हो! और भी कई अनजान फूल लगे थे! बहुत सुंदर। गांठनुमा फूलों से, रेशे निकले हुए थे! पीले रेशे! नीले रेशे! पत्ते चितकबरे, द्वी-रंगी, छींटदार, पीले और गहरे हरे! मन प्रफुल्लित हो उठा! क्या ऐसा ही होता है वो स्वर्ग? सुश्री ने कई फूल छूकर देखे, सूंघ कर देखे, और उन फूलों का धन्यवाद उसने मुस्कुरा कर दिया! "कितना प्यारा उपवन है!" बोली वो, "सच में, कोई संदेह नहीं!" बोला मैं, "यहीं बसने का जी करता है!" बोली वो! अपने दोनों हाथ बंद कर! "हाँ, ये भी सही है!" बोला मैं, और फिर हम चले वहाँ से, शर्मा जी आये हमारे पास, 

और हम चल पड़े फिर! भौर, तितलियाँ, बरै, ततैये आदि कीट जैसे उस प्राकृतिक खजाने को लूटने में लगे थे! कभी आपने एक बात सोची है मित्रगण? क्या पक्षी अपनी चोंच धोया करते हैं? पानी पीना एक अलग बात है! तोते को देखिये, ऐसे फल में ठोंग मारता है, तो निश्चित ही मीठा होता है और उसकी ये ठोंग, उस फल में, एक घाव बना देती है। लेकिन, फल अपना घाव भर लेता है, और, और मीठा हो जाता है! कभी नही सड़ता, और हम मनुष्य! एक नाखून भी मार दें, तो उसी क्षण से वो आई.सी.यू. में पहुँच जाता है, और शीघ्र ही दम भी तोड़ देता है। सड़ जाता है, और नीचे गिर जाता है, जिसको, कीड़े भी नहीं खाते! वाह रे मनुष्य! कितना स्वच्छ बनता है तू! हिरणों का झुण्ड हमें ऐसे देखे, जैसे जंगल में एक नयी प्रजाति आई है जीवों की! जो दो पांवों पर चलता है! शरीर को पता नहीं किस वस्तु से ढका है! ऐसे देखें! और वैसे भी इन पशुओं की सुंदरता के समक्ष हम कहाँ ठहरते हैं। कभी देखा आपने, पशुओं की सभी प्रजातियां, मेल खाती हैं एक दूसरे से, जैसे श्वान का रंग अलग हो सकता है, लेकिन रूप एक सा होगा! ऐसे ही सिंह, ऐसे ही हाथी, ऐसे ही हिरण और ऐसे ही कीट आदि! लेकिन यहां तो भाई-भाई की शक्लों में भी फ़र्क होता है। जबकि, गर्भ वही, अंडाणु वहीं और शुक्राणु भी वही! कैसा अजीब खेल है इस 

प्रकृति का! "अरे वो देखो?" चीखे बाबा तेवत! "क्या है?" पूछा मैंने, 'वो, एक मंदिर, वैसा ही!" बोले वो, मैंने देखा, गौर से! "अरे हाँ! ठीक वैसा ही!" कहा मैंने, "आओ, चलते हैं!" बोले वो, मंदिर दूर नहीं था, कोई दो सौ मीटर ही होगा! 

और हम दौड़ लिए वहां के लिए! लम्बे लम्बे क़दमों से, जा पहुंचे वहाँ! अब जो चीज़ हमने देखी, उस से अरुणा के कहे की पुष्टि हो गयी! वहाँ, पत्थरों पर, हरी काई और हरी घास जमा थी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अरुणा? यही है न?" पूछा बाबा हरु ने! "हाँ, यही लगता है!" बोली वो, "आओ, देखें!" कहा मैंने, और हम सब आगे गए! इस समय तक, धुंधलका छाने लगा था! थोड़ी देर में गहरी शाम हो जाती, और फिर रात्रि, इसीलिए जल्दी जल्दी देखना चाहते थे हम! वो मंदिर, खंडित अवस्था में, और अब खंडहर बन चुका था! "पत्थर तो देखो?" बोले शर्मा जी, "हाँ, बहुत बड़े हैं!" कहा मैंने, बाबा हरूं और बाबा तेवत, दौड़ के अंदर जा पहुंचे! हमसे पहले ही भाग लिए थे वे! चलते चलते हम भी वहीं आ गए! 

"किशन?" बोला मैं, "हाँ जी?" बोला वो, "टोर्च जला लो अब" कहा मैंने, 

और तब चार टोर्च जला ली गयीं! एक मैंने ले ली, और हम अब उसके सहारे अंदर चले! मंदिर काफी बड़ा था, काफी बड़ा, दीवारें अभी भी थीं, लेकिन छत नहीं! कोई मूर्ति नहीं, कोई गर्भ-गृह नहीं! बस खंडहर! और कुछ नहीं! "अँधेरा छा गया!" बोले बाबा हरूं। "हाँ!" कहा मैंने, "अब सुबह ही देख सकते हैं" बोले वो, "हाँ, सही बात है" बोला मैं, "तो रात काटने का प्रबंध किया जाए!" बोले वो, "हाँ, कीजिये!" कहा मैंने, स्थान ढूँढा गया, कोई ठीक सा, जहां कोई जानवर आदि आये तो पता चल जाए, कोई अन्य जीव भी आये, तो पता चल सके! कई स्थान देखने पर, एक स्थान सही लगा! और वहीं अब दरियां बिछा ली गयीं! और फिर, हम सब बैठे वहाँ! सब अब अपने अपने में मस्त हो गए! शर्मा जी हमारे साथ थे, सुश्री भी मेरे साथ थी, मैंने जूते उतारे, जुराब नहीं, न जाने कब कोई ज़रूरत आन पड़े! किशन ने, एक छोटा सा हण्डा जला दिया था, पर्याप्त रौशनी थी उसकी! "शर्मा जी?" कहा मैंने, "हाँ?" बोले वो, "खाने का सामान निकालो?" बोला मैं, 

अब बैग खोला गया, मक्खन तो पिघल चुका था अब तक, जैसे तैसे कर, उसको बन्दों पर लगाया! और खाया, कुछ बिस्कुट, कुछ मेवे, खजूर आदि खाए! और पानी पिया, डकार मारी! 

भर गया पेट! घड़ी में उस समय, साढ़े नौ का समय था! शर्म अजी, आराम से लेट गए थे, और अब सो भी गए थे! बाबा तेवत ने, सुरक्षा घेरा खींच दिया था, कीट-पतंगों और कीड़े-मकौड़ों से रक्षा के लिए, सांप 

भी नहीं आ सकता था वहाँ! और हाँ, मच्छर भी नहीं थे वहाँ! "सुश्री?" बोला मैं, "हाँ?" बोली वो, "लेट जाओ अब!" कहा मैंने, "अभी लेटती हूँ!" बोली, 

और अपना दुपट्टा उतारा गले से, मैंने पकड़ा, अपना बैग दिया उसको, तकिया बनाने के लिए, 

और लिटा दिया फिर, दुपट्टा दे दिया! "आज थक गयीं न?" पूछा मैंने, "हाँ!" बोली, मुझे देखते हुए! "मैंने तो पहले ही कहा था!" कहा मैंने, "कोई बात नहीं!" बोली वो, "कल देखते हैं अब!" कहा मैंने, "आप भी लेटो?" बोली वो, "लेटता हूँ" कहा मैंने, वो खिसकी ज़रा पीछे और मैं भी लेट गया! आकाश में तारे चमक रहे थे! गुच्छे से लगे थे! आकाशगंगा की दूधिया चमक, आकाश में फैली थी! सीरियस-ए तारा सबसे अधिक चमक रहा था! ये सबसे अधिक चमकदार तार है हमारे आकाश में! 

बहुत बड़ा रहस्य छिपाए है ये! इसका एक और कनिष्ठ है! सीरियस-बी, कभी आप माली देश की डोगोन सभ्यता के बारे में पढ़िए! जान जाएंगे कि क्या है रहस्य! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और तभी हाथ रखा उसने मेरी छाती पर, सुश्री ने, मैंने देखा, आँखें बंद थीं उसकी, सो गयी थी, मैंने उसके हाथ पर हाथ रखा और आँखें मूंद ली! रात भर, किसी गुड़िया के समान, घुटने मोड़, सोये रही सुश्री, मैं उसको बार बार चादर उढ़ाता और वो बार बार, चादर हटा देती थी! लेकिन उसको नींद अच्छी आई, ये ठीक हुआ, थक भी तो गयी थी! सुबह हुई, पक्षीगण चहके, हम उठे, हाथ-मुंह धोये, मंजन किया और फिर, बैठे एक साथ, सुबह बहुत प्यारी थी वहाँ की! वो मंदिर मुझे तो स्वर्गलोक में बना हो, ऐसा लग रहा था! सभी वहाँ की खूबसूरती से घायल हो चुके थे! क्या फूल थे वहां! क्या वनस्पतियाँ! और क्या चहकते हुए वो रंग बिरंगे पक्षी! ये पृथ्वी की सुंदरता थी! प्रकृति की मनमोहक सुंदरता! इसका कोई सानी नहीं! की आठ बजे, हमने उस मंदिर का मुआयना किया, मंदिर, में कभी तीन कक्ष रहे होंगे, एक बड़ा सा गर्भ-गृह और एक बड़ा सा आँगन, मूर्तियां नहीं थीं यहां, बस बड़े बड़े पत्थर पड़े थे, शायद कभी किसी भूकम्प या भूस्खलन से ऐसा हुआ होगा! कोई एक घंटा मुआयना करने के बाद, हमें कुछ हाथ नहीं लगा! कम से कम उस स्थान पर तो, अब हमने दो टोलियां बनायीं, किशन को अपने साथ लिया, और हम दायें से, और दूसरी टोली बाएं से जानी 

थीं! 

और हमें ऐसा ही किया! जब तक हम एक दूसरे से नहीं मिल जाते, तब तक निरंतर जांच करते रहनी थी! और यही किया हमने! हम चल पड़े, उस जांच का दायरा बहुत बड़ा था, दोपहर हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता था। लेकिन हिम्मत नहीं हारी हमने! और चल दिए! उस पहाड़ पर, किस्म किस्म की वनस्पतियाँ थीं, ऐसी, जैसी मैंने भी कभी नहीं देखी थीं! अजीब अजीब सी! दूर, एक बरगद के पेड़ तले, पीले रंग के फूलों की झाड़ियाँ थीं! फूलों की चादर बिछी हो, ऐसा लग रहा था! हिरन भाग रहे थे इधर उधर! ये कोई अभ्यारण्य सा प्रतीत होता 

"ये कैसा फूल है?" बोले शर्मा जी, "वाक़ई! बड़ा अजीब है!" कहा मैंने, चौकोर सी पत्तियों वाला वो फूल, दुरंगा था! पीला और नीला सा! गंधहीन था, लेकिन था चिपचिपा सा! था बहुत सुंदर! "और ये देखो!" बोली सुश्री! "अरे!" कहा मैंने, एक झाडी पर, सांप की सी फलियां लटकी र्थी! उस पर सफ़ेद रंग के फूल थे! छोटे छोटे, गुच्छेदार! "कमाल का फूल है!" बोले शर्मा जी, हम देखते जा रहे थे, और आगे बढ़ते जा रहे थे! तभी किशन की निगाह एक जगह पड़ी! "वो क्या है?" बोला वो, "आओ, देखते हैं!" कहा मैंने, वो एक कुआं सा था! बड़ा सा कुआँ! 

अब कुछ नहीं था उसमे, बस पत्थर ही पड़े थे! "कोई पुराना कुआं लगता है!" कहा मैंने, "वही है" बोले वो, "तो कभी आबादी रही होगी यहां?" बोला मैं, "लगता तो यही है!" कहा उन्होंने, 

अब और आगे चले, "ये क्या है?" कहा मैंने, "कहाँ?" बोले शर्मा जी, "वो देखो न?" कहा मैंने, 

"कोई खंडहर है!" बोले वो, अब तो नाम मात्र का खंडहर था! बस नींव की दीवारें ही बची थीं! हम वहीं गए, गौर से देखा! "आपने एक बात देखी?" कहा मैंने, "क्या?" बोले शर्मा जी, "ये नींव देखो!" कहा मैंने, "हाँ?" बोले वो, "है न अष्टबाहु रूप में?" बोला मैं, "अरे हाँ!" बोले वो, "लेकिन प्रयोजन?" बोली सुश्री, "कोई मंदिर रहा होगा!" कहा मैंने, "पहाड़ों में ऐसे ही मंदिर मिलते हैं!" बोले शर्मा जी, "हाँ, अक्सर ऐसे ही!" कहा मैंने, अब वहां से आगे चले, एक बड़ा सा पेड़ लगा


   
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श्रीशः उपदंडक
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था, अर्जुन जैसा लगता था, लेकिन उसके पत्ते बड़े अजीब से थे, जैसे कढे के होते हैं! "आओ, ज़रा आराम करें!" कहा मैंने, 

और हम वहीं घास पर बैठ गए! पानी पिया, और साथ लाये फल खाए! थोड़ी देर आराम किया, और फिर चले, जहां हम रात को रुके थे, वो जगह अब बहुत दूर थी! लेकिन अभी तक ऐसा कुछ मिला ही नहीं था हमें! चलते रहे! चलते रहे! 

और एक जगह! 

"रुको!" बोली सुश्री! "वो क्या है?" पूछा उसने, "देखना पड़ेगा!" कहा मैंने, 

और हम भाग चले उधर ही! वहाँ पहुंचे, तो हुए दंग! "ये तो गुफा है कोई!" कहा मैंने, "गुफा ही है!" बोली सुश्री! हर्ष के मारे उछल पड़ा मैं तो! "आने दो उनको!" कहा मैंने, 

और हम, एक जगह बैठ गए! उस गुफा को ही देखते रहे, उसका मुहाना छहः फीट ऊंचा और चार फ़ीट चौड़ा था! इतना ही रहा होगा, मापन से तो ऐसा ही लगता था! कोई घंटे के बाद, वे लोग आये नज़र! शायद बीच में से ही कट आये थे! "किशन?" बोला मैं, "हाँ जी?" बोला वो, "जा के बुला ला उन्हें!" कहा मैंने, "जाता हूँ" बोला वो, 

और चला गया बुलाने! वे आये, थके मांदे! जैसे मीलों की यात्रा की हो पैदल पैदल! आये तो गुफा देखी! गुफा देखी तो उनका मुंह गुफा बना! फटा ही रह गया! "ये है वो गुफा!" बोले बाबा हरु! "अरुणा?" कहा मैंने और हाथ के इशारे से बुलाया मैंने, "क्या यही गुफा है?" पूछा मैंने, "पता नहीं, तब अँधेरा था" बोली वो, 

"ज़रा आसपास देखो, ऐसी ही जगह थी?" पूछा मैंने, "थी तो ऐसी ही!" बोली वो, "अच्छा!" बोले बाबा तेवत! 'चलो, चलें अंदर?" बोले बाबा हरु, "टोर्च और कटनी निकाल लो किशन!" कहा मैंने, निकाल लिया सामान उसने, एक कटनी मैंने ले ली! "आओ!" कहा मैंने, 

और मैं चला फिर अंदर! घुप्प अँधेरा! दीवारों पर, चमगादड़! छत पर चमगादड़! नाक फटने लगी उनकी विष्ठा से हमारी तो! मुंह ढका रुमाल से, और चले आगे! गुफा कोई तीस फ़ीट तक गयी, और फिर एक और गुफा दिखी! "आओ" कहा मैंने, 

और जैसे ही मैं उस गुफा में घुसा, मेरे सर पर पानी की बूंद टपकी! पानी रिस रहा था उस मुहाने से! "आराम से आओ" कहा मैंने, "नीचे भी कीचड़ है!" बोले बाबा हरु! 

और हम घुस गए अंदर! पत्थरों की गंध! सड़ांध सी! बुरा हाल हमारा! दीवारों पर कीचड़ जमा थी! कृमि रेंग रहे थे उसमे! 'आराम से" कहा मैंने, और चलते रहे हम! 

अब सामने आया पानी! "ओह!" बोले शर्मा जी, "अब क्या करें?" बोले बाबा तेवत! "बाहर चलो!" कहा मैंने, "क्या रास्ता है ही नहीं?" बोले बाबा हरु! "आकर देख लो न?" कहा मैंने, वे आये आगे, देखा, "अरे रे!" बोले वो, "वापस चलो!" कहा मैंने, "और कोई चारा भी नहीं!" कहा मैंने, 

और तभी पानी में आवाज़ हुई पीछे! हम सभी ने देखा पलट कर! लगा, कोई जीव है उसमे, पानी में कोई चल रहा था अंदर ही अंदर! "क्या है?" बोले बाबा हरु! "पता नहीं!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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पानी में फिर से आवाज़ सी हुई! जैसे, कोई मछली फड़कती है पानी में! "बाहर चलो जल्दी!" कहा मैंने, 

और हम भागे वहाँ से! अब पता नहीं क्या था उस पानी में! शायद कोई सांप हो! जलीय सांप! या कुछ और, कोई मछली! बड़ी मछली! पता नहीं क्या था, बस हम भाग लिए वहाँ से! 

हम भागे, और सीधा बाहर आये! सांस थामी अपनी अपनी! "वो, हो क्या सकता है?" बोले बाबा तेवत! 

"कोई सांप होगा!" बोले बाबा हरूं! "तो सर तो ऊपर रखता?" बोले शर्मा जी, "कोई मछली होगी फिर" बोले बाबा तेवत! "हो सकता है" कहा मैंने, "अब क्या करें?" बोले बाबा हरु, "इसी स्थान के पीछे चलते हैं" कहा मैंने, "चलते हैं, रुको ज़रा' कहा मैंने, अब मैंने गुफा को देखा, सोच, इस पहाड़ी पर चढ़ा जाए, ताकि कुछ नज़र आये! "आप यहीं रहना सभी" कहा मैंने, "आप कहाँ चले?" बोली सुश्री, घबराहट के भाव लिए, "ऊपर जा रहा हूँ, इस पहाड़ी पर" कहा मैंने, "मैं भी चलती हँ" बोली वो, "चलो' कहा मैंने, मानती तो है नहीं! और न मानती ही! अब मैंने कोई जगह देखी चढ़ने के लिए, एक जगह मिली, "आओ' कहा मैंने, "रुको?" बोले शर्मा जी, "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "मैं भी आ रहा हूँ" बोले वो, "आ जाओ" कहा मैंने, "मैं चढ़ता हूँ पहले" कहा मैंने, 

और झाड़ियाँ आराम आराम से पकड़ता हुआ, चढ़ने लगा ऊपर, "आओ" कहा मैंने, 

और सुश्री का हाथ पकड़, चढ़ने लगा ऊपर पहाड़ी पर, ज़्यादा ऊँची न थी, हम चढ़ आये ऊपर, और जैसे ही आये ऊपर, और देखा सामने, होश 

फ़ास्ता! 

"ये क्या है?" बोले शर्मा जी, "ये कोई दूसरी गुफा है" कहा मैंने, "गुफा के ऊपर गुफा?" बोले वो, "हाँ, देख तो रहे हो" कहा मैंने, दरअसल, सामने, पहाड़ी के, बीच, एक गुफा थी! ठीक वैसी ही! "बुलाओ सबको" कहा मैंने, 

तो अब शर्मा जी ने अपना फ़ोन निकाला, फ़ोन देखा, तो कोई सिग्नल नहीं! अब नीचे कौन जाए? जाना तो होगा? अब क्या करें? "मैं जाता हूँ" कहा मैंने, 

और चला मैं, सुश्री और शर्मा जी वहीं रह गए, मैं गया, और उतरा आधा पहाड़ी तक, और किया उनको इशारा ऊपर आने का, वे आने लगे ऊपर, और मैं लौट चला फिर, आ गया उन दोनों तक, "आ रहे हैं?" पूछा उन्होंने, "हाँ" कहा मैंने, 

और हम बैठे फिर वहाँ! कोई आधे घंटे में, आ गए सारे, अरुणा के पाँव में काँटा लग गया था, इसीलिए देर हुई सभी को, 

खैर, आ गए सारे! और जब उस गुफा को देखा, तो होश उड़े उनके भी! "एक और गुफा?" बोले बाबा तेवत! "हाँ!" कहा मैंने, "क्या पहेली है?" बोले वो, "आपको सुलझानी है!" बोला मैं, अब उन्होंने आराम किया, घुटने मले अपने, अरुणा के पाँव में कांटे से घाव बन गया था, रुमाल बाँधा हुआ था उसने, हमारे बैग में दवा थी, लगा दी पाँव में, फिर रुमाल बाँध दिया, कोई आधे


   
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घंटे के बाद, हम उस गुफा के तरफ बढ़े! आये गुफा के मुहाने तक, टोर्च जलायी, और मैं चला अंदर, ये गुफा साफ़ थी, कम से कम उस पहली वाली से, मैं चला आगे और झट से रुका 

एकदम! "रुको?" कहा मैंने, 

सामने एक बड़ा सा अजगर लेटा था! बड़ा था काफी! "ओह! अब ये क्या मुसीबत?" बोले बाबा तेवत! "अब घर है उसका!" कहा मैंने, "करें क्या अब?" बोले वो, "हटाते हैं इसे?" कहा मैंने, "कैसे हटेगा?" पूछा उन्होंने, "देखो!" कहा मैंने, एक लकड़ी ली मैंने, और उसके सर से छुआई, उसने मुंह खोला, और मार झपट्टा आगे! बहुत देर खेल हुआ उसके साथ मेरा! और फिर वो अंदर जाने लगा, मैंने पकड़ी अब उसकी पूंछ! और खींचा पीछे! "किशन, जल्दी आ!" कहा मैंने, 

वो आया, पूंछ पकड़ी और हमने खींचा बाहर उसे! ले आये बाहर, वो मारे झपट्टा बार बार! "ध्यान से, कहीं काट न ले, काट लिया तो वहीं से मांस उड़ा देगा!" कहा मैंने, 

और कर दिया एक तरफ! और चला अब अपनी जान बचा कर! "कमाल कर दिया! कमाल ही कर दिया।" बोले बाबा तेवत! "आप भी सीख लो! काम आता है बहुत!" कहा मैंने, "अभी तो आप हो!" बोले वो, अब पानी पिया मैंने, मुंह धोया, और फिर पानी पिया, "आओ अब" कहा मैंने, 

और अब चले हम अंदर! घुप्प अँधेरा! झींगुर बोलें! 

कनकट्टी चिल्लाएं! मंझीरे गायें! टोर्च की रौशनी से, कीट पतंगें आएं! 

मुंह ढका, आगे बढ़ते रहे! "रुको?" कहा मैंने, सभी रुके! "क्या हुआ?" बोले बाबा हरु! "रास्ता मुड़ गया है। कहा मैंने, "तो बढ़ो आगे?" बोले वो, "बढ़ता हूँ" कहा मैंने, 

और चला मैं आगे फिर, सभी मेरे पीछे! 

आ गए एक जगह! बड़ी सी जगह! छत पर, धुंए जैसे निशान! दीवारों पर, धागे से बंधे हुए! "ये कौन सी जगह है?" बोले बाबा हरु, "गर्भ-गृह सा लगता है" कहा मैंने, "हाँ!" बोले शर्मा जी, 

और तभी मेरी नज़र, एक और रास्ते पर पड़ी! मैं चला उधर, सभी मेरे पीछे, मारी रौशनी उस रास्ते पर, सामने देखा, ये क्या है??? मैं रुका, गौर से देखा, आगे गया, रौशनी मारी, चबूतरा? एक चौकोर सा चबूतरा! "अरुणा?" कहा मैंने, 

"हाँ जी?" बोली वो, "क्या ये देखा था?" कहा मैंने, उसने ध्यान से देखा, स्पर्श भी किया, मिट्टी उडी! धसक उठी उसे! "नहीं" बोली वो, "ये नहीं देखा था?" पूछा मैंने, "नहीं" बोली वो, अब उस कक्ष में और रौशनी मारी, कुछ नहीं, बस वही एक चबूतरा, और कुछ नहीं, 

और रास्ता बंद! अब कोई रास्ता नहीं! "क्या हुआ?" बोले बाबा हरु! "कोई लाभ नहीं हुआ!" कहा मैंने, "चलो वापिस फिर" बोले वो, "चलते हैं" कहा मैंने, 

लेकिन एक बात? ये चबूतरा है किसलिए? किसलिए बनवाया? कोई समाधि तो नहीं? कोई रखना तो नहीं? इसका औचित्य क्या? कुछ न कुछ तो है। कुछ न कुछ! लेकिन क्या? दिमाग़ दौड़ाया मैंने, क्या हो सकता है? "चलो भई?" बोले बाबा हरूं। "रुको अभी!" बोले शर्मा जी, 

और तब मैं बैठा, उस चबूतरे को ध्यान से देखा, कभी इधर से, कभी उधर से, 


   
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और जैसे ही देख रहा था की तभी मेरे घुटने के पास कुछ चुभा, मैंने रौशनी मारी, वो एक खूटा सा था, मैंने मिट्टी हटाई वहाँ से, ध्यान से, तो मुझे वहाँ, एक चटाई सी दिखी! चटाई का एक कोना, इसी खूटे से गाड़ दिया गया था! मैंने चटाई टटोली, तो मिली, लेकिन खिंची नहीं, 

खूटा उखाड़ने की कोशिश की तो सब बेकार! 

और तब मैंने... 

अब सभी मुझे ही देख रहे थे! कि मैं कर क्या रहा हूँ! हाँ, शर्मा जी आ गए थे मेरे पास, "ये क्या है, कोई चटाई?" बोले वो. "यही लगती है, जैसे खजूर के पत्तों से बनायीं गयी हो" कहा मैंने, उन दोनों बाबाओं को कुछ समझ न आये। नज़रें गड़ाए, हमें ही देखें, सुश्री मुझे नज़रों से बाँध कर रखे! "कटनी लाओ" कहा मैंने, "किशन, कटनी दे" कहा शर्मा जी ने, मैंने किशन को ही पकड़ा दी थी पहले, 

और अब कटनी से, वो खूटा हिलाया, बड़ी मेहनत लगी! आखिर में, वो खूटा निकल आया बाहर! और तब मैंने उसका वो कोना उठाया, मिट्टी उडी, रुमाल न होता तो खांसते खांसते बेहोश हो जाते! 

और जब धूल छंटी, तो दिखा एक रास्ता! एक नीचे जाने का रास्ता! "अरे वाह! वाह!" बोले बाबा हरु! 

आए दौड़े दौड़े, मारी रौशनी, सीढ़ियां बनी थीं वहाँ! नीचे जाने के लिए! 

"इस चटाई को हटाओ!" बोले वो, 

और फिर, हटा दिए गए खूटे! और वो चटाई भी! अब रास्ता दिखा साफ़ साफ़! "चलो अंदर!" बोले हरु बाबा! "आओ' कहा मैंने, 

और हम, अपना सर झुका, उतरे नीचे! घुप्पम्घुप्प बड़ा सा कक्ष! खाली! पत्थरों की दीवारें! पत्थरों का ही फर्श! न कोई चित्र, न कोई चिन्ह! न कोई लिपि आदि। "वो क्या लटका है?" बोले शर्मा जी, मैंने देखा, भाग उधर, दीवार पर ठुके एक खूटे पर कुछ बंधा था! एक मृद-भांड! "उतारो इसे!" बोला मैं, सोरन ने झट से उतार लिया, भारी था वो! "सोरन, खोल इसे" कहा मैंने, उसका मुंह एक फूस से बने ढक्कन से बंधा था, फिर एक रस्सी से, काटा उसको, और खोला,


   
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