कहा मैंने, "हाँ, करता हूँ हरू बाबा से बात!" बोले वो, "किसलिए?" पूछा मैंने, "वे ये विद्या जानते हैं!" बोले वो, "मुझे अनुमति दें!" कहा मैंने, "आप कर लोगे?" पूछा हैरानी से! "हाँ, प्रयास करने में क्या हर्ज?" कहा मैंने, "कोई हर्जा नहीं! अवश्य!" बोले वो, प्रसन्न हो गए थे बहुत! बहुत प्रसन्न! "तो बताइये कब?" कहा मैंने, "ये आयोजन हो जाए, तो चलो संग!" बोले वो, "हाँ, ठीक है!" कहा मैंने, "सरिता? ओ सरिता?" बोले बाबा और बुलाया किसी को! एक महिला आई, कोई बीस-बाइस बरस की,
"जी बाबा?" बोली वो, "बेटी कुछ ले ही आ?" बोले वो, "अभी लायी बाबा' बोली वो, और चली वहां से, बाहर चली गयी थी! "और महाबल जी कैसे हैं?" पूछा उन्होंने, "कुशल से हैं!" कहा मैंने, "मिला था उनसे कोई दो माह पहले!" बोले वो, "अच्छा !" कहा मैंने,
और थोड़ी ही देर में आई सरिता, गिलास में शरबत लेकर, दिए गिलास हमें! बढ़िया शरबत था! मीठा संतुलन में था, नीम्बू डाला गया था उसमे!
और तभी अरुणा आई कमरे में, नमस्कार की उसने हमें, और एक बैग खोलने लगी! "ये है अरुणा! मेरी बेटी है!" बोले वो, "हाँ, बात हुई थी मेरी उनसे!" कहा मैंने, "ये तो चली गयी थी, लेकिन लौट आई अपने बाबा के लिए!" बोले वो, "हाँ, बताया था अरुणा ने!" बोला मैं, "नयी राह लेकर आई है अब ये!" बोले वो, "निःसंदेह!" कहा मैंने, "ये मेरी जिंदगी की अंतिम साधना होगी!" बोले वो, "समझ सकता हूँ!" कहा मैंने, कुछ और बातें हुईं, और फिर हमने विदा ली बाबा से,
और चले आये अपने कमरे में! जूते खोल, लेट गए थे आराम से, और तभी आई सुश्री थोड़ी ही देर बाद "आओ!" कहा मैंने, "किसको पीट दिया?" पूछा उसने! "अरे कुछ नहीं!" कहा मैंने, "बताओ तो?" बोली वो,
अब बताया उसको मैंने, तो रह गयी सन्न! "तो पीट दिया?" बोली वो, "अब कोई हमारी, वो.....वो.....मतलब हमारी..उसको...फूल फेंके तो कैसे बर्दाश्त करता मैं!" कहा मैंने, हंस पड़ी! "वैसे फूल लगा नहीं था मुझे!" बोली वो, "तभी तो बच गया!" कहा मैंने, "मतलब?" बोली वो, "छू जाता तो शामत ना आ जाती उसकी!" कहा मैंने, मुस्कुरा पड़ी एकदम! "अरे सुनो सुश्री?" कहा मैंने, "हाँ?" बोली वो, "यहां से फारिग हो, मुझे जाना है कहीं, बाबा तेवत के यहां" बोला मैं, "किसलिए?" पूछा उसने, "है कुछ काम!" मैंने बताया!
"क्या काम है?" पूछा उसने! "अरे है कोई काम!" कहा मैंने, "बताने से नहीं होगा क्या?" बोली वो, "बताने से कोई लाभ नहीं" बोला मैं, "वो तो मैं जानूँ?" बोली वो, "क्या करोगी?" पोछा मैंने, "पहले बताओ?" बोली वो, "करोगी क्या?" पूछा मैंने,
अखबार उठाया, मोड़ा और डंडा बनाया उसका, और फेंका मेरे ऊपर!
"बताओ ना?' बोली गुस्से से! अखबार पकड़ लिया था मैंने बीच में ही! "ठीक है!" कहा मैंने,
और बता दिया उसको कि क्या काम है! अब तो उसके चेहरे से साफ़ झलकने लगा कि उसको उठी ललक! साफ़ दीख रहा था! "क्या नाम बताया? अरुणा?" बोली वो, "हाँ!" कहा मैंने, "यहीं हैं? बोली वो, "हाँ!" मैंने कहा, "मुझे मिलवाओ?" बोली वो, "अब ये कैसी ज़िद?" बोला मैं,
"मिलवाओ ना! मिलवाओ!" बोली, मीठे शब्दों से! कुछ मक्खन भी लगा था उसमे! "मिलवा दूंगा!" कहा मैंने, "कब?" पूछा उसने, "शाम को कहा मैंने, "अभी चलो ना!" बोली वो! "अभी आराम कर रही होगी!" कहा मैंने, "नहीं, आराम कैसा अब, इस वक़्त?" बोली वो, खड़ी हुई, मेरी बाजू पकड़ी और खींचने लगी! "अरे रुको तो सही! चलता हूँ!" कहा मैंने,
जूते पहने, और चला उसके साथ बाहर, रुका एक जगह, और धीरे से उसके कान में बोला, "तुम माँ के पेट में नौ महीने कैसे रुकीं?" घुसा मार दिया कमर में मेरी तभी के तभी! हाँ, मुस्कुराते हुए! गुस्से से नहीं! "हर चीज़ में जल्दी! हर चीज़ में!" कहा मैंने, "चलो आराम से!" बोली,
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"चल रहा हूँ!" कहा मैंने,
और ले आया उसको वहीं! सोरन मिला, उस से पूछा अरुणा के बारे में, वो हमें लेकर चला फिर! बगल के कमरे में ही थी अरुणा, सोरन ने आवाज़ दी और फिर अरुणा आई, हमें देखा तो अंदर बुला लिया, बैठे हम "अरुणा! ये है सुनिता! मिलना चाहती है आपसे!" कहा मैंने, मुस्कुरा के मिली वो सुश्री से! मैं और सोरन बाहर चले गए थे उठ कर! करीब बीस मिनट मिली सुश्री अरुणा से, और फिर आयी बाहर, और फिर हम उस्नको नमस्ते कह कर, चले वापिस! "क्या खिचड़ी पका ली?" पूछा मैंने! "तुम्हें क्यों बताऊँ?" बोली वो, "क्यों ना बताओगी?" पूछा मैंने, "मेरी मर्जी!" बोली वो! "फिर रोना नहीं बाद में?" कहा मैंने! "नहीं रोउंगी!" बोली वो, तभी वही दिखे हमें! वो हिमायती! खड़े हुए थे सारे के सारे, हमें ही देख रहे थे! मैंने तभी सुश्री की कमर में हाथ डाल दिया अपना, और ले चलने लगा उसको, वो समझ गयी थी, इसीलिए कुछ ना कहा! "यही थे?" बोली वो, "हाँ!" कहा मैंने,
और हटा लिया हाथ! "चलो जाओ अब! वो रहा तुम्हारा कक्ष!" बोला मैं, "जाती हूँ, लेकिन मैं भी जा रही हूँ!" बोली वो,
गुब्बारा सा फटा मेरे कानों के ठीक पास! "कहाँ?" पूछा मैंने, "अरुणा के यहां!" बोली वो,
और मेरा कंधा पकड़, चलने को कहा अपने साथ, मैं चल पड़ा उसके साथ! ले आई अपने कमरे में, और बिठा दिया कुर्सी पर, "क्या कहा था तुमने? अरुणा के यहां?" बोला मैं, "हाँ, मैंने कहा था अरुणा से!" बोली वो! अबकी बात तो अजगर डाल लिया था मैंने गरदन में अपनी! "अब भला तुम्हारा क्या काम?" पूछा मैंने, "वो मैं जानूँ!" बोली वो, "ये अच्छी बात नहीं है!" कहा मैंने, "मुझे नहीं पता अच्छा या बुरा?" बोली वो, "हाँ, पता तो है, लेकिन काम क्या है?" कहा मैंने, "कुछ नहीं, बस जा रही हूँ!" बोली वो, "तुम्हारी तो हद ही है वैसे!" कहा मैंने, "कैसे?" बोली वो, "वहां, करोगी क्या?" पूछा मैंने, "खिचड़ी पकाऊँगी! खाओगे?" बोली वो, ना समझने वाली थी, अब कोई फ़ायदा भी नहीं था! बेकार में मुंह-जोड़ी ही होती! "तुम्हारी मर्जी!" कहा मैंने, "पानी पियोगे?" पूछा उसने, "हाँ, पिला दो" कहा मैंने, तो बाहर गयी वो, और थोड़ी देर में आ गयी, एक बोतल लेकर ठंडे पानी की, गिलास में पानी डाला और मैंने दो गिलास पानी पिया फिर! फिर उसने पानी पिया, मैं देखता रहा उसको, दरअसल उसके निचले होंठ को! बहुत
सुंदर लग रहा था! पीनी पी लिया तो रख दिया गिलास! और बैठ गयी वहीं कुर्सी पर! "एक बात पू?" कहा मैंने, "मैं जाउंगी ज़रूर!" बोली वो,
मैं हंस पड़ा। सच में ही बहत तेज है। मेरा सवाल ही पकड़ लिया था! "ठीक है! लेकिन मेरे से लड़ाई-झगड़ा नहीं करना!" कहा मैंने, "मैं करती हूँ? कब किया?" बोली वो, उफान आ गया था! "पिछली बार याद है?" कहा मैंने, "तो गलती किसकी थी?" बोली वो, "तुम्हारी!" मैंने कहा, "अच्छा? अपनी बोलने में शर्म आती है?" बोली गुस्से से! मैं मुस्कुराया! "इतना गुस्सा क्यों करती हो!" कहा मैंने,
और उसके होंठों को छूने के लिए जैसे ही हाथ बढ़ाया, छूने मतलब, ऊँगली से बंद करना चाहता था मैं, लेकिन मेरे हाथ को झटका दे दिया! "तुम नहीं सुधर सकती सुश्री!" कहा मैंने, "उस दिन मेरा अपमान किया था आपने?" बोली गुस्से से! "कसम खाता हूँ सुश्री, मैंने कोई अपमान नहीं किया!" कहा मैंने, "मुझे जाने को बोला था ना?" बोली, रुआंसी आवाज़ से, "हाँ, वो इसलिए कि तुम चिल्ला रही थीं! सुन नहीं रही थीं!" कहा मैंने, "आपने मुझे बोला कि जाओ यहां से, अभी के अभी? याद है?" बोली, आँखों में आंसू लाते हुए! "बोला था, ताकि बात खत्म हो!" कहा मैंने,
और जैसे ही आंसू पोंछने चाहे, चेहरा घुमा लिया! "अभी भी गुस्सा हो?" पूछा मैंने, कुछ नहीं बोली, ऐसे ही बैठी रही, आंसुओं के मोती ठुलक चले थे गालों पर! अब स्थिति गंभीर थी! सुश्री बारूद की ढेरी है, अपनी ही गर्मी से उत्पन्न चिंगारी से ही कभी भी धमाका हो सकता है! अब कैसे ना कैसे करके, शान्ति लानी थी।
"मुझसे गुस्सा हो?" बोला मैं, "हाँ!" बोली, नज़रें मिलाते हुए! बिना हटाये! "मैं क्षमा मांग लूँ?" बोला मैं, देखे ही जाए! ना हटाये नज़रें! मुझे घबराहट हुई! "क्षमा मांग लूँ?" पूछा मैंने, नहीं बोली कुछ, बिना पलकें झपकाये मुझे घूरे! "अच्छा! अच्छा सुश्रिता! मुझे क्षमा. ..." इस से पहले मैं कुछ कहता, मेरे मुंह पर हाथ रख दिया उसने! अब इसका अर्थ क्या? बस यहीं ऐसे पलों में दिमाग ऐसा घूमता है कि जैसे
पहिया! "क्षमा कर दिया?" बोला मैं,
और बढ़ाया हाथ आगे, जैसे ही आँखों तक ले जाने लगा, मैंने सोचा कहीं चेहरा ना फेर ले, रुका ज़रा, नहीं फेरा तो मैंने आंसू पोंछ दिए उसने! उसकी साड़ी से ही पोंछ दिए थे मैंने! "शोभना ने भी कहा था कि जब भी मिलूं तुमसे, तो उसकी तरफ से भी क्षमा मांग लूँ" कहा मैंने, "कब चलना है?" पूछा उनसे, "कहाँ?" मैं चौंका और पूछा, "बाबा तेवत के यहां?" बोली वो, "परसों निकल लेते हैं!" कहा मैंने, "वो तो पास में ही हैं?" बोली वो, "हाँ, यहीं पास में हैं!" कहा मैंने, उठी फिर, बाहर गयी, और मैं इत्मीनान से कुर्सी से कमर सटा बैठ गया था! चिंगारी नहीं भड़की थी बारूद की ढेरी में! शुक्र था! "अब चलूँगा सुश्री! तुम्हें रुलाया, मुझे दुःख हुआ, क्षमाप्रार्थी हूँ" कहा मैंने, "मैं फिर से रो पडूंगी!" बोली, "अरे नहीं!" कहा मैंने,
"चलता हूँ' कहा मैंने, और हाथ माँगा उस से उसका, उठाया और मैंने पकड़ा, एक पल आँखों में देखा उसकी! और मुस्कुराते हुए, मैं चल पड़ा वहाँ से अपने कक्ष के लिए। हाथ, स्त्रियों के हाथ के विषय में कुछ बताता हूँ आपको, दाया हाथ! मणिबंध के मध्य स्थान पर ही यदि मध्यमा ऊँगली
का पोर हो ऊपर वाला, तो स्त्री लक्ष्मी स्वरुप होती है! यदि पोर, अंगूठे की तरफ झुका हो, तो राजसिक प्रवृति वाली होती है, सज धज के रहना, श्रृंगार में लिप्त रहना, व्यवहार में आदेश देने वाली और अपनी बात से ना डिगने वाली होती है! यदि पोर कनिष्ठ के ओर झुके तो धन-लोलुप प्रवृति होती है उसकी! शंस के लिए वो कुछ भी, कैसा भी कर सकती है, क्लेश और कलह तो कुछ भी नहीं उसके लिए, बंधुत्व का नाश करने वाली, अपने श्वसुर और सास के लिए कष्टकारी होती है! यदि स्त्री के हाथ में, अनामिका मध्यमा की ऊंचाई तक आये, तो ऐसी स्त्री परम सौभाग्यवान और दुःख-दारिद्र्य का नाश करने वाली होती है! संतान सुख प्रदान करने वाली और धन का संचय करने वाली, उचित प्रयोग करने वाली होती है! यदि अनामिका, मध्यमा ऊँगली के आधे पोर तक आये, तो ऐसी स्त्री, ढंग करने वालो, प्रपंची, षड्यंत्रकारी और लालची होती है! दोगलेपन से भरपूर रहने वाली होती है! यदि अनामिका, मध्यमा के नीचे तक रहे, उपरवाले पोर के अंत तक तो स्त्री कामुक, पित्त रोग से पीड़ित, संतान उत्पत्ति में बाधाएं झेलने वाली, धन का नाश करने वाली, रोगी, शरीर से भारी होती है! हाथ को पूरा फैलाया जाए और बीच में यदि गड्ढा बने, वो लक्ष्मी स्वरुप होती है! हाथ मांसल होना चाहिए, गड्ढा ना बने, तो वाचाल, कूटनीतिज्ञ और अपना ही भला करने वाली होती है! अंगूठे को फैलाते समय यदि अंगूठा समकोण बनाये, तो स्त्री सतित्व वाली, ईमानदार, विश्वास-योग्य, धन-संचयी और पति के लिए संजीवनी सिद्ध होती है! यदि अंगूठा न्यूनकोण बनाये तो स्त्री, मुंहफट, अच्छे-बुरे का ज्ञान ना रखने वाली, ज़िद्दी, धन का नाश करने वाली,
और कन्या-संतति को जन्म देने वाली होती है। यदि अंगूठा, अधिककोण बनाये तो, आन-बान और शान में रहने वाली! छिप के व्यसन करने वाली, पुरुषों में रहने वाली, और पर-पुरुषगामी होती है! चलते समय, यदि हाथ की सभी उंगलियां अंदर को रहती हों, तो स्त्री लक्ष्मी स्वरुप होती है, समस्त सुखों को भोगने वाली और अपने कुल और पति को शीर्ष पर ले जाने वाली होती है। यदि कनिष्ठा ही रहे अंदर, तो निर्धन, मान-सम्मान से रहित और क्लेषकारी होती है।
यदि अनामिका और कनिष्ठा अंदर रहें, तो कामुक और काम के लिए सबकुछ दांव पर लगा देने वाली होती है! यदि मध्यमा रहे इन दोनों के संग, तो स्त्री भाग्यशाली, कुल का नाम आगे बढ़ाने वाली, पुरुष-संतति प्रदान करने वाली होती है! धन की कभी अल्पता नहीं होती उसके घर में! हाथ की उँगलियों में यदि रिक्त स्थान हों, तो रोगी, ना हों, तो सर्वगुण सम्पन्न होती है! ऐसे ही प्रत्येक अंग पर विचार किया जाता है! ग्रीवा, वक्ष, उदर, नितम्ब, कमर, जांघे, नाभि आदि आदि! ऐसे ही पुरुषों में भी पाया जाता है! खैर, मैं आ गया था अपने कमरे में थोड़ी देर में ही संध्या हो जाने वाली थी, और हुड़क चल कर आने ही वाली थी पास में! "लेटे रहोगे क्या?" बोला मैं, "तबीयत सही नहीं लग रही' बोले वो, "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "हरारत सी है" बोले वो, मैंने हाथ छुआ, गरम था हाथ, "बुखार है शर्मा जी!" कहा मैंने, "हाँ, लग रहा है!" बोले वो, "गोली खाओ?" कहा मैंने, "अभी खाता हूँ" बोली वो,
और बदली करवट! "हुड़क मिटानी है?" पूछा मैंने, "हाँ" बोले वो, "मैं करता हूँ इंतज़ाम" कहा मैंने, "ठीक है" बोले वो,
और मैं चला बाहर, गया सहायक के पास, और कह दिया सामान लाने के लिए, और आया वापिस, "अब नहीं खाना गोली" बोला मैं,
"क्यों?" बोले वो, "अब मदिरा नहीं लेनी क्या?" बोला मैं, "अरे हाँ" बोले वो,
और बैठ गए! और तभी सुश्री भी आ गयी वहां! बैठ गयी! "क्या बात है? तबीयत खराब है क्या?" पूछा शर्मा जी से उसने, "हाँ बेटा, लग रहा है" बोले वो, "दवाई लाऊँ?" बोली वो, "नहीं, दूसरी दवाई लेंगे अभी!" कहा मैंने, "अच्छा, समझ गयी!" बोली वो, "हाँ!" बोला मैं,
और तभी सहायक भी आ गया वहीं, रख दिया सामान! "गलत वक़्त पर आ गयी मैं!" बोली वो, "नहीं नहीं! बैठ जाओ!" कहा मैंने! अब बैग से मैंने निकाला माल! और दिया शर्मा जी को, उन्होंने ढक्कन खोला उसका और स्थान-भोग दिया, फिर उत्तम-भोग, और उसके बाद, गिलासों में डाल दी, दो गिलासों में! एक मुझे दिया और एक खुद ने रखा, मैंने लेकर किसी का नाम और खींचा गिलास अपना! सलाद लाया था, तो सलाद खायी फिर! चुकंदर खाया! आपने देखा होगा कि हीमोग्लोबिन कम हो जाता है रोग होने पर, खासतौर से स्त्रियों में ये आम है, उनको माहवारी होने से, रक्ताल्पता हो जाती है, इसको देसी इलाज से ठीक किया जा सकता है, एक चुकंदर लें शाम को, सूरज छिपने के बाद, सूरज छिपने के बाद, कई वनस्पतियों की प्रकृति बदल जाया करती यही, इसीलिए, उस चुकंदर के टुकड़े कर लीजिये आठ, साबुत सरसों के बीज, कोई दो चुटकी, पीस कर, आप किसी बर्तन में इतना पानी डालें की चुकंदर के टुकड़े डूब जाएँ और उबल जाएँ, अब इसमें सरसों डालिये. थोड़ा सा नमक, थोड़ा सा दूध, एक चम्मच, और उबाल लीजिये, जब एक कप रहा जाए, तो उतार लीजिये, छानिये पानी को, और फिर, ठंडा होने पर, उन टुकड़ों को चबाते रहिये
पानी पीने के साथ साथ, वही चुकंदर का पानी, पंद्रह दिनों में ही हीमोग्लोबिन छह से बारह हो जाएगा, कम से कम दस तो पार कर ही जाएगा! कर के देखिए! "सुश्री भी चल रही है संग हमारे!" कहा मैंने, "बढ़िया है!" बोले वो, "है तो बढ़िया!" मैंने कहा, उसने देखा मुझे तो मैंने शरारत की नजरें गड़ा दी उस पर! "सुश्री?" बोला मैं, "हाँ?" जवाब दिया, "दिल्ली चलो ना?" कहा मैंने, "ले चलो!" बोली वो, "चलोगी ना?" पूछा मैंने, "हाँ!" बोली वो, "वाह!" कहा मैंने, वो भी मुस्कुराई! “भेज देंगे पिता जी?" पूछा मैंने, "क्यों नहीं!" बोली वो, "कुछ न कहेंगे?" पूछा मैंने, "नहीं! मेरी बुआ भी रहती हैं वहां!" बोली वो, "कहाँ? दिल्ली में?" पूछा मैंने, "हाँ!" बोली वो, "अरे वाह!" कहा मैंने, फिर दूसरा गिलास लिया और खींचा मैंने, अबकी बार सेब का टुकड़ा खाया! "चलो सुश्री! मजा आएगा!" कहा मैंने, "ले चलना!" बोली वो, "ठीक है!" कहा मैंने,
और फिर उठी वो, चली वापिस, अब सुबह ही मिलती! "गुस्सा उतर गया इसका?' पूछा शर्मा जी ने, "हाँ, उतर गया!" कहा मैंने, "ठीक!" बोले वो, सहायक आया अंदर तभी, और दे गया भुना हुआ माल! "ये है बढ़िया चीज़!" कहा मैंने, "हाँ! यही है!" बोले वो, मैंने खाया और उन्होंने भी खाया, लज़ीज़! "फिर तो कोई नहीं मिला?" पूछा उन्होंने, "कौन?" पूछा मैंने, "अरे वही जीजा साले जो आये थे उस दिलफेंकू के?" बोले वो, "मिले थे!" कहा मैंने, "कुछ कहा तो नहीं?" पूछा उन्होंने, "नहीं!" कहा मैंने,
और बता दिया कि कहाँ मिले थे! और तभी के तभी सुश्री आ गयी, प्लेट में कुछ लेकर! "क्या ले आयीं?" पूछा मैंने, "कपड़ा उठाओ?" बोली वो, मैंने उठाया, तो सलाद थी, फ्रूट-सलाद! "अरे वाह भाई! मजा आ गया सुश्री!" कहा मैंने,
और खाया एक पपीते का टुकड़ा! "तुमने बनायी?" पूछा मैंने, "नहीं, पड़ोस में से लायी हूँ!" बोली हंस कर, मज़ाक किया था! "चलो! बहुत बढ़िया!" कहा मैंने, "और लाऊँ?" पूछा उनसे.
"नहीं, यही बहुत है!" कहा मैंने, "रुको, अभी लायी!" चली गयी ये कहते हुए! "ये बढ़िया काम किया सुश्री ने!" बोले केले का एक टुकड़ा उठाते हुए! "हाँ! मजा बाँध दिया!" बोला मैं,
और सुश्री फिर से एक प्लेट और ले आई! "अरे बहुत ज़्यादा हो जाएगा!" कहा मैंने, "इसको खत्म कर देना बस!" बोली वो,
और मेरे कंधे पर घूसा मारते हुए, चली गयी वापिस! चलिए मैं आपको स्त्री-वक्ष के विषय में जानकारी देता हूँ, अब इसके लिए आपको स्त्री के वक्ष को नग्न देखना होगा, वस्त्रों में इसका आंकलन नहीं होगा, मित्रगण, वक्ष में कई प्रकार हैं, आकार और रूप में, वैसे स्त्री का वक्ष उसके शरीर के अनुसार ही विकसित हुआ करता है, परन्तु, स्त्री का वक्ष उसकी मेरुदण्ड के निचले हिस्से द्वारा ही विकसित किया जाता है, इसका उदाहरण आपको मिल जाएगा यदि आप गौर से देखें तो, जिस स्त्री के नितम्ब भारी और गोलाई लिए होंगे, उसका वक्ष-स्थल कम विकसित होगा, आप ये देख सकते हैं, कि कोई कोई स्त्री ही ऐसी होगी जिसका वक्ष और नितम्ब पूर्ण रूप से विकसित होंगे, अब ऐसा होता है तो ये उसकी हंसली अस्थियों द्वारा विकसित किया जाता है, यदि स्तन, ढलवाँ हों, अर्थात स्तनाग्र नीचे की तरफ हों तो स्त्री रोगों से पीड़ित, अक्सर वायु रोगों से, संतान प्राप्ति में कष्ट उठाने वाली, काम सुख में कमी लाने वाली, गर्भ रोग से पीड़ित रहने वाली होती है, स्तनाग्र यदि उठे हुए हों, अर्थात, स्पष्ट रूप से दीखें तो भाग्यवान, सनतान-सुख प्रदान करने वाली, ऐसी स्त्री का संतान भी भाग्यशाली हुआ करती है, और उसकी संतानें राज-योग का भोग किया करती हैं। पति के लिए सौभाग्यशाली और पति के सब दुखों का हरण करने वाली होती हैं! निरोगी काया वाली और वाणी से शुभ हुआ करती हैं। यदि स्तनाग्र ऊपर की तरफ हों, अर्थात किसी आम की चिबुक की तरह, तो ऐसी स्त्री वाचाल, पर-पुरुषगामी, खर्चीली, कुल-द्रोही, माता-पिता और पति का सम्मान न करने वाली होती हैं! ये छिप कर सभी कर्म करने वाली और अत्यंत ही कामुक
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हुआ करती हैं! कलहप्रिया होती हैं और उन्नति में बाधक हुआ करती हैं। अब, ये कि, दोनों ही स्तनों के बीच यदि रिक्त-स्थान(मध्य में) एक अंगुल हो तो, भाग्यवान, रूपवान और पति के लिए परम भाग्यशाली होती हैं! यदि दो अंगुल हों, तो बुद्धिमान, चतुर, धनवान और पति के लिए भाग्यशाली होती हैं। तीन अंगुल या अधिक हो तो वाचाल, वेश्या समान, कलहप्रिया, क्लेषकारी और दोगली हुआ करती हैं! स्त्री के स्तन का आकर, यदि उसके बाएं हाथ के आकार से अधिक हो, तो शुभ लाभ वाली, लक्ष्मी स्वरूपा, धन लाभ करने वाली और पति की आय वद्धि करती है, यदि आकार कम हो, तो रोगी, कलहप्रिया, अपनी ही बात मनवाने वाली और
ज़िद्दी स्वभाव की होती हैं। अब स्तनाग्र का घेरा, यदि घेरा पूर्ण स्तन का एक बटे दस हो, तो भाग्यशाली, संतान सुख प्रदान करने वाली, ईमानदार और सम्मान प्राप्त करने वाली होती है, यदि दो बटा दस हो, तो ये फल और बढ़ जाते हैं, तीन बटा दस हों, तो वेश्या समान, राजनीति करने वाली, स्वकुल हितैषी, और पति के कुल को डुबोने वाली होती हैं! शिशु के लिया दुग्ध उत्पादन करने में अक्षम होती है! और उदर रोग से पीड़ित रहती हैं, यदि स्त्री के स्तनों पर चोली बाँधी जाए, ब्रा नहीं, चोली, अक्सर ब्रा को ही चोली समझ लिया जाता है, चोली एक ही वस्त्र होता है, जिसमे दोनों ही स्तन बांधे जाते हैं, यदि बांधे जाए और वो गरदन झुका कर अपनी नाभि देख सके, तो परम भाग्यवान, कुशलवक्ता, पति को उच्च-शीर्ष पर ले जाने वाली होती है। यदि न देख सके, या कष्ट हो, तो ये फल उलटे हो जाते हैं। एक और रहस्य बताता हूँ आपको! यदि काम-क्रीड़ा समय, अर्थात लिंग-प्रवेश के समय यदि स्त्री के स्तनाग्रों को छुआ जाए, तो काम-पिपासा तत्क्षण घट जाया करती है स्त्री की! अब आप समझ सकते हैं कि पुरुष ही स्खलित क्यों हो जाता है शीघ्र ही! आप पकड़िए नहीं उन्हें, पकड़ने ही हों तो उनको स्पर्श न कीजिये, पकड़ें भी ऐसे कि स्तनागों को आप मात्र हिलाएं, ताकि रासायनिक प्रक्रिया को अधिक बल मिले, इस से स्त्री स्खलित हो जाती है। और यही काम-सूत्र भी है, अन्य सूत्रों में से! अब इसी प्रकार से नाभि, नितम्ब, पिंडलियाँ आदि से फल प्राप्त किये जाते हैं! चलिए अब घटना का वर्णन! वो चली गयी थी, और हम खाते-पीते रहे, अब भोजन करने के लिए पेट में अतिरिक्त जगह न बची थी, सहायक आया भी था लेकिन मैंने मना कर दिया था, नहीं तो रात भर पेट में भूकम्प
आता रहता और सुबह शायद बुरा ही हाल होता! तो हम सो गए थे आराम से! सुबह हुई, हम उठे, बाहर झाँका तो बारिश सी हो रही थी, हल्की-हल्की! तभी खिड़की से सौंधी सौंधी मिट्टी की सुगंध और शीतल बयार आ रही थी अंदर! हम फारिग है और आ बैठे! चाय नाश्ता आया, आज आलू-पूरी लाया था सहायक, साथ मैं गाजर का अचार, बड़ी ही बेतरतीबी से कटी गयीं थीं गाजर! एक का आकार भी दूसरे से नहीं मिलता था, लेकिन स्वाद में लाजवाब थीं! आलू की सब्जी में मलाईदार दही पड़ी थी, इस से स्वाद और बढ़ गया था, पूरी का आकार बड़ा था, रोटी जैसा! मजा आ गया! अब देसी खाने से बढ़िया और कौन सा खाना होगा! मैंने तो छह और शर्मा जी ने भी छह जीम ली! "मौसम बढ़िया हो गया!" बोले शर्मा जी, "हाँ, ठंडा हो गया है!" बोला मैं, "ये बढ़िया हुआ!" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने,
और तभी अंदर आई सुश्री! उसको और कोई ठौर नहीं! भले ही गुस्सेवाली है, लेकिन प्रेम भी बहुत है हृदय में उसके "आओ सुश्री!" बोला मैं, नमस्कार की उसने, और बैठ गयी! लाल रंग का कुर्ती और पीले रंग की पाजामी! बहुत फब रहे थे उस पर! नाक में पड़ा छल्ला तो
और ही गज़ब ढा रहा था! हाथों के उँगलियों में पड़ी अंगूठियां इतरा रही थीं। लम्बी लम्बी उंगलियां और मांसल गुलाबी हाथ! अस्थियां तो दीख ही नहीं रही थीं। "आज तो बारिश करवा दे तुमने!" कहा मैंने, "हाँ, कल गर्मी थी न!" बोली वो, "हाँ, और तुम्हे तो वैसे भी ज़्यादा लगती
होगी?" कहा मैंने, "वो क्यों?" पूछा उसने, "अब दिमाग में गुस्से की गर्मी भी तो है?" कहा मैंने, हंसकर! "हाँ, सही कहा!" बोली, नखरा दिखा कर।
आँखें घुमाते हुए, अपना एक घुटना दूसरे घुटने पर टिकाते हुए! "रात को नींद सही आई?" पूछा मैंने, "नहीं" बोली वो, "क्यों?" पूछा मैंने, "पता नहीं!" बोली वो, "मुझे पता है!" कहा मैंने, हँसते हुए! "बताओ?" बोली वो, "वही! 'गर्मी !!" कहा मैंने! "हाँ! गर्मी!" बोली वो, सब समझते हुए! "अब सुबह सुबह से गुस्सा?" पूछा मैंने, "कहाँ हूँ गुस्सा?" बोली वो, "तुम्हारा एक एक शब्द, और भाव-भंगिमा, इसी गुस्से से सिंका हुआ है!" कहा मैंने, टाल गयी मेरी बात! जवाब नहीं दिया! "आओ मेरे साथ" बोली वो, खड़े होते हुए, "कहाँ? ऐसी बारिश में?" पूछा मैंने, "मैं गली क्या? नहीं गलोगी, आओ?" बोली वो, "चलो जी!" कहा मैंने, मानना तो था नहीं, हथियार मुझे ही डालने थे! सो डाल दिए। उठाया अपना रुमाल मैंने, रखा जेब में, "चलो जी!" कहा मैंने,
और वो निकली बाहर! मैं भी! और चल पड़ी उसी गलियारे में, आगे, मैं भी चलता रहा! एक जगह ले आई मुझे, एक बड़ा सा कक्ष था वो, वहाँ चारपाइयां आदि रखी थीं, कुछ बल्लियां आदि भी, शायद मंडप आदि का सामान था! "यहां क्या है?" पूछा मैंने,
"रुको ज़रा!" बोली वो, वो गयी आगे एक जगह, कुछ उठाया और लायी मेरे पास, खोली मुट्ठी, दिखाया मुझे, "ये क्या है?" पूछा उसने, मैंने उठाकर देखा, "रक्त-चंदन!" कहा मैंने, "किस काम आता है?" पूछा उसने, "बहुत से काम आता है!" कहा मैंने, "क्या मोहन में भी?" बोली वो, "अधिकाँश उसी में!" कहा मैंने, उसने फेंक दिया वहीं वो रक्त-चंदन, "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "बता दूंगी!" बोली वो,
और चलने लगी वहां से! मैंने झट से हाथ पकड़ लिया उसका! और खींचा अपनी तरफ! "बताओ मुझे?" कहा मैंने, मुझे देखे! आँखें घुमाए! बहुत सुंदर आँखें हैं उसकी! गुस्से की नज़ाक़त भरी! "बताओ?" कहा मैंने, अब छुड़ाया अपना हाथ, और देखा मुझे, "बता दूंगी न?" बोली ज़ोर से! "ये क्या मोहन?" पूछा मैंने, "बता दूंगी!" बोली वो, "कब?" कहा मैंने, "अरे?? बता दूँगी न?" बोली वो, खीझ कर!
अब हाथ पकड़ा उसका, और खींच कर चला बाहर, खींच रहा था मैं ज़बरदस्ती उसको! रोका एक जगह! "वो, वहाँ है तुम्हारा कक्ष, जाओ अभी, अभी!" कहा मैंने सख्ती से, यक़ीन न आये उसे, कि अब मैं गुस्सा हूँ उस से! "जाओ उधर?" कहा मैंने, मुझे देखे, विश्वास न हो उसे! कई मित्रों ने कहा है कि पुरुष शरीरांग के विषय में बताऊँ, बताता हूँ, सबसे पहले मुख, जिस पुरुष के होंठ मोटे हों, सामान्य से अधिक, आपने देखा भी होगा, वो अत्यंत ही कामी और लालची हुआ करता है, काम-प्राप्ति हेतु वो सभी से बैर ले सकता है, माँ-पिता का सम्मान कोई मायने नहीं रखता उसके लिए! स्वभाव से भीरु परन्तु प्रपंची हुआ करता है! होठ जितने पतले होंगे, वो गुणों में वृद्धि करेंगे, यदि पतले हों तो ऐसा पुरुष कर्मठ, मेहनती, सभी का सम्मान करने वाला, व्यसनों से बच के रहने वाला और वृहद-मानसिकता वाला होता है! अब चिबुक, चिबुक जितनी
चौड़ी होगी, मांसल होगी, भारी होगी, वो अच्छे स्वास्थ्य की पहचान है! ऐसा जातक मज़बूत कद-काठी वाला, अपनी बात को रखने वाला, शब्दों को ही स्वर्ण समझने वाला, आज्ञाकार, विश्वास करने योग्य, अडिग रहने वाला और संतोषी हुआ करता है। चिबुक में गड्ढा या चीर पड़े, और ऐसे गुण और बढ़ जाया करते हैं। नासिका, यदि नासिका चौड़ी हो, तो मेहनती, मेहनत से धन-अर्जन करने वाला, समभाव रखने वाला, कर्तव्यों का पालन करने वाला और समझदार होता है! नासिका पतली हो, तो कूटनीतिज्ञ, झगड़ालू, ज़िद्दी और प्रपंची हुआ करता है, नासिक-छिद्र गोल हों, तो राजसिक प्रवृति वाला होता है, लम्बे हों तो वैरागी हुआ करता है, आत्म-संतोषी हुआ करता है! आँखें छोटी हो तो, दोगला, और अविश्वासी हुआ करता है, आँखें बड़ी हों या अनुपात में हों, तो वर्चस्व स्थापित करने वाला होता है। अब माथा, माथा जितना चौड़ा हो, उतना ही भाग्यशाली, ज्ञानवान, शीलवान, आदर-सम्मान हेतु प्राण देने वाला, बंधुत्व स्थापित करने वाला, और काम को महत्व कम देने वाला होता है! कान यदि बड़े हों, तो ज्ञानवान, मेहनती, और राजनीतिज्ञ होता है, छोटे कान व्यक्ति को, चापलूस परन्तु चतुर,
षड्यंत्रकारी और धन-प्रेमी बनाते हैं। अब ग्रीवा, ग्रीवा में यदि टैंटुआ दिखाई दे, तो कामी, पत्नी या प्रेमिका को सबसे मूल्यवान समझने वाला, चाहे माँ-बाप अपमान ही करना पड़े, करता है! यदि टेंटुआ नहीं दीखे, तो सभी के साथ समभाव से रहता है, माँ-बाप और बुजुर्गों की सेवा करने वाला होता है! पत्नी से प्रेम तो करता है लेकिन पत्नी से आदेश सुनने वाला नहीं होता! बल्कि आदेश सुनाने वाला होता है! अब हाथ, अंगूठा जितना अधिक गोल होगा, उतना ही ज़िद्दी, अविश्वासी, धन-पूजक, क्रूर और व्यसनों में रहने वाला होता है! जितना लचकदार होगा, उतना ही नम, समझदार, कुशल, और धनोपार्जन करने वाला होता है! अंगूठे के नीचे का मांस, यदि उभरा हुआ हो, तो काम-शक्ति उतनी ही प्रबल होती है, जितना अधिक मांस, उतनी ही अधिक काम-शक्ति! यदि मांस न हो, कम हो, अस्थि दीखे तो काम-शक्ति शिथिल हुआ करती है उसमे उँगलियों में गांठे हों, तो कर्मठ, मेहनती, और उसूलों का पक्का होता है! गांठे न हों, और उंगलियां मांसल हों, तो राजसिक प्रवृति वाला होता है! उच्च-पदाधिकारी, विशेष अधिकारीगण के हाथों की उंगलियां ऐसी ही हुआ करती हैं! यदि हाथों के दोनों अंगूठों में अंतर हो, छोटा बड़ा, या समानुपात न हो, या एक अधिक लचकदार हो, तो ऐसा जातक, वैरागी, वाम-मार्गी, गूढ विषयों का ज्ञाता और एक समय में, दो संसारों में विचरण करने वाला होता है! तर्जनी ऊँगली, जितनी अधिक लम्बी हो, उतना ही उच्च उसका जीवन होता है, छोटी हो, तो जीवन में बार बार संघर्ष करता है! मध्यमा सीधी हो, तो धनोपार्जन में कभी दिक्कत नहीं झेलता, यदि झुकाव वाली हो, तो निरंतर नुकसान और कम फायदा उठाने वाला होता है! अनामिका, यदि मध्यमा से ऊपर तक छए, तो ऐसे जातक की संतानें आज्ञकारी होती हैं, यदि रिक्त स्थान रहे, तो संतान विद्रोही हुआ करती हैं। कनिष्ठ जितनी लम्बी होगी, व्यक्ति उतना ही अधिक भाग्यशाली होगा, जितनी छोटी उतना ही कष्ट उठाने वाला! मणिबंध पर तीन रेखाएं या अधिक हों, तो स्त्रियों में प्रेमी होता है, दो हों, तो अवैध संबंध या कोई अन्य प्रेम-संबंध रखने वाला होता है! एक भी न हों, तो मेहनतकश होगा! स्त्री से दगा खाने वाला होगा! चलते समय
हाथ बंद जाए, तो उच्च-विचार वाला, कुशलवक्ता, सामाजिक और आदर प्राप्त करने वाला होता है, हाथ खोल कर चले, और उंगलियां अंदर की तरफ हों, तो जीवन में संघर्ष सदैव रहते हैं उसके लिए! अब घटना का वर्णन!
वो हैरान थी! कि अचानक से मुझे क्या हुआ? "जाओ सुश्री?" कहा मैंने, उसने झटके से हाथ छुड़ाया! नथुने फड़के, और टप्प-टप्प मटकती हुई चली गयी! मैं भी वापिस हुआ, पीछे मुड़कर नहीं देखा उसको! खुद का गुस्सा, गुस्सा है, और दूसरे का फूस! आया कमरे में अपने, तो सोरन आया हुआ बैठा था, "आ भाई सोरन!" मैं बैठते हुए बोला, उसने नमस्कार की, और बैठ गया! "और सुना, कैसा है?" पूछा मैंने, "कृपा है जी!" बोला वो, "कैसे आया?" पूछा मैंने, "कल निकल लें न?" बोला वो, "हाँ, देर कैसी?" कहा मैंने, "बस ठीक है!" बोला वो, थोड़ी देर और बातें हुईं और फिर चला गया वो! वो गया तो मैं लेट गया! "बारिश हो रही है अभी भी!" बोले शर्मा जी, 'हाँ' कहा मैंने, "आषाढ़ी बारिश है" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, "भादों फीका जाएगा!" बोले वो, "हाँ, बरसात कम होगी!" कहा मैंने,
और तभी किसी के आने की आहट हुई, मैंने गरदन घुमायी तो वही आई थी, उसे न तो खुद को चैन था और न किसी और को चैन लेने दे सकती थी! आई, नज़रें मिलीं, लेकिन मैंने कुछ नहीं कहा, गरदन घुमायी मैंने और लेट गया, फिर से, तभी मेरे पाँव पर चिकोटी काटी उसने, बहुत तेज, नाखून गड़ा दिए थे, मैंने गरदन घुमायी, तो उसने मुझे ऊँगली से उठने को कहा, मैं उठ गया, मेरा हाथ पकड़ा, और इशारा किया कि मैं
बाहर चलूँ उसके साथ! मैं खड़ा हुआ, पता नहीं अब कौन सी मुसीबत आने वाली थी! उसकी
आँखों में प्रतिकार' सा भरा था! मैंने जूते पहने और चल पड़ा उसके साथ! "कहाँ?" पूछा मैंने, "मेरे कमरे में" बोली वो, "ठीक है" कहा मैंने,
और ले आई मुझे अंदर, मैं बैठा कुर्सी पर, और वो भी बैठी साथ वाली कुर्सी पर! "हाँ, बोलो?" बोला मैं, कुछ न बोले! दांत भींचे! "बोलो?" कहा मैंने, "मुझे क्यों भगाया?" बोली वो, "तुमने क्यों नहीं बताया?" कहा मैंने, "क्या कहा था?" बोली वो, "क्या?" पूछा मैंने, "बता दंगी? कहा था न?" बोली वो, "तब बताने में क्या......?" बोलते बोलते रुका, गाली ही निकल जाने वाली थी! "मुझे ये पूछना था कि वो मोहन में प्रयोग होता है?" बोली वो, "हाँ होता है!" कहा मैंने, "तो इसमें लड़ने की क्या बात थी?" पूछा उसने, "किसी ने मोहन किया तुम पर?" बोला मैं, "नहीं" बोली वो, "तो?" कहा मैंने, "किसी लड़की पर किया जा रहा है शायद!" बोली वो, "कौन है?" पूछा मैंने, "है वहीं" बोली वो,
"कौन कर रहा है?" पूछा मैंने, "दिखा दूंगी" बोली वो, "क्यों कर रहा है?" पूछा मैंने, "नहीं जानते?" बोली वो, "अच्छा, हरामजादा!" कहा मैने, "यही बात थी' बोली वो, "तो इसमें गुस्से की क्या बात थी?" पूछा मैंने, "किसने किया गुस्सा? मैंने या आपने?" बोली वो, "आहा! कितनी भोली हो!" कहा मैंने, "सो तो हूँ!" नखरे से बोली! "हाँ! सो तो है!" कहा मैंने, फिर चुप हम दोनों ही!
और तभी मैंने उसका हाथ पकड़ा, मुझे देखती रही वो! "सुनो?" बोला मैं, "बोलो?" बोली वो, "चलें?" कहा मैंने, "कहाँ?" बोली वो, "जहां मैं ले जाऊं?" कहा मैंने, "किसलिए?" बोली वो, "नहीं जानती?" बोला मैं, "नहीं: बोली वो, हाथ छोड़ा मैंने तभी! "फिर क्या फायदा!" कहा मैंने, और वो खिलखिलाकर हंसी! गालों में गड्ढे पड़ गए उसके। बहुत सुंदर लगे।
"पानी पिला दो!" कहा मैंने! "प्यास लग गयी?" बोली वो, "प्यास? हाँ!" कहा मैंने, "लाऊँ पानी?" बोली वो, "हाँ!" कहा मैंने, "सच में?" बोली वो, "अरे हाँ! लाओ पानी!" कहा मैंने, मुस्कुराई, उठी, गयी बाहर और थोड़ी ही देर में ले आई पानी! दिया मुझे, मैंने पिया और बैठ गया! "इसीलिए लायीं थीं यहां?" कहा मैंने, "आपने क्या सोचा?" बोली वो, "अब जो सोचा था वो तो होने से रहा!" कहा मैंने, हँसते हुए! "साफ़ साफ़ बोलो?" बोली वो, "नहीं जी! माफ़ करो!" कहा मैंने, "न करूँ तो?" बोली वो, "आपकी मर्जी!" कहा मैंने,
और तभी कमरे में एक स्त्री का प्रवेश हुआ, हमें देखा तो नमस्कार हुई हमारी, वो स्त्री सहायिका थी इस सुश्री की, उसने वस्त्र उठाये, और चली गयी बाहर!
अब इस तरह की नोंक-झोंक और चुहलबाजी होती ही रहती है! प्रत्येक से खुला नहीं जाता और प्रत्येक खुलता भी नहीं! और स्त्रियां तो अलग ही हैं! वे यूँ ही नहीं खुल जाया करती! और जब खुल जाती हैं तो आपको ऐसा खोलती हैं कि अपने आपको बांधना मुश्किल हो जाता है। सुश्री
और मेरी ये कोई पहली या पहली चुहलबाजी नहीं थी! सुश्री के संग मेरी कई मुलाकातें हुईं थीं, सुश्री जहां भी मिलती थी, सदैव मेरे इर्द-गिर्द ही रहा करती थी! कभी ऐसा भी नहीं हुआ कि मैंने उसको जो कहा वो नहीं हुआ, उनसे कभी मेरी बात नहीं काटी, और सदैव मेरा मान रखा! सुश्री
को मैंने कभी अकेला भी नहीं छोड़ा,जहाँ भी मिलती तो संग ही रखता था, ताकि उसके साथ कोई बदतमीजी न हो जाए! सबसे पहली बार की मुलाकात में तो एक नज़र देखती भी नहीं थी!
और अब, अब नज़र नहीं हटने देती! तो मेरा उस से और उसका मुझसे मज़ाक, छेड़छाड़, चुहलबाजी आदि चलते ही रहते हैं! हाँ, एक बार वो एक ग़लतफ़हमी का शिकार हो गयी थी, जब शोभना भी वहीं मिली थी! वो सुश्री से बर्दाश्त नहीं हुआ और पूरे आठ दिन तक, मुझसे बात नहीं की, यहाँ तक की आखिरी दिन, जब मैं और शोभना वहाँ से निकल रहे थे, तो सुश्री भिड़ गयी थी शोभना से! शोभना शांत प्रकृति की है, सुनती रही, मुस्कुराती रही, गलतफहमी का शिकार थी, इसीलिए मैंने बहुत समझाया उसे, जब नहीं समझी, तब मैंने, मज़बूरन उसको डाँट लगाई थी और कमरे से भगा दिया था! बुरा तो लगा था मुझे, लेकिन क्या करता! बहुत जली कटी सुनाई थी इस सुश्री ने! उस बार के बाद, अब मिली थी, तो वो गुबार अभी भी अंदर ही मौजूद था, कहीं और 'बलवा' न हो जाए तो इस बार मैं ही दब रहा था उस से! प्रवृति ऐसे और इतनी आसानी से नहीं बदली जा सकती! अब सुश्री है बहुत गर्म-मिजाज़! तुनक-मिजाज़! उस से तो बच के ही रहो तो अच्छा! अब बैठी थी मेरे पास ही, और मैं उसके कक्ष में! "सुश्री?" कहा मैंने, "बोलो?" बोली वो, "आज रात्रि आयोजन है!" कहा मैंने, "हाँ!" बोली वो, "संग ही
रहोगी मेरे?" बोला मैं, "हाँ, नहीं रखोगे?" बोली, "इतना तेज क्यों भागती हो तुम?" कहा मैंने, "हाँ या न बोलो?" बोली वो, "अरे हाँ! हाँ जी हाँ!" कहा मैंने, "बस, सब सवाल नहीं!" बोली वो, "जी!" कहा मैंने, मुस्कुरा गयी, मैंने हाथ जोड़कर जी कहा था, इसलिए।
"चलो, चलता हूँ अब!" कहा मैंने, "क्या हुआ?' बोली वो, "कुछ हुआ ही तो नहीं!" कहा मैंने, हँसते हुए! "बैठ जाओ!" बोली वो, "लो जी!" कहा मैंने और बैठ गया! बिठा दिया, हाथ पकड़ कर! "एक बात पू?" बोली वो, "अनुमति? पहली बार ले रही हो!" कहा मैंने, "पू?" बोली वो, "हाँ जी पूछो!" कहा मैंने, "मेरी याद नहीं आई कभी? या उस शोभना ने नहीं आने दी?" बोली वो, "याद? हाँ बहुत आई! और शोभना क्यों ऐसा करेगी भला?" मैंने कहा, "तो जब याद आई, तो बात नहीं की जा सकती थी?" बोली वो, "की थी, योगेन्द्र से पूछना तुम!" कहा मैंने, "मैं क्या जानूँ योगेन्द्र को मुझसे तो नहीं की न?" बोली वो, "हाँ, नहीं की!" कहा मैंने, "शोभना से तो अक्सर ही बात होती होंगी?" बोली वो, "हाँ अक्सर ही!" कहा मैंने, "मुझसे नहीं न" बोली वो, "देखो सुश्री!" कहा मैंने, "बोलो?" बोली वो, तुनक कर, "मैं तुमसे बात करता भी, तो तुमने सुननी तो थी नहीं, बल्कि गुस्से में कुछ निकल जाता मुंह से! इसलिए नहीं की!" कहा मैंने, "अब बस!" बोली होंठों पर ऊँगली रखते हुए! "ठीक है!" कहा मैंने, बला टली, हवा चली!
मैं खड़ा हुआ फिर, "अब चलता हूँ!" कहा मैंने, "बैठ जाओ!" बोली, गुस्से से! "अब जाने दो?" कहा मैंने, "क्यों?" बोली वो, "समझा करो!" बोला मैं, "सब समझ गयी हूँ!" बोली वो, "कहाँ की ईंट कहाँ का रोड़ा!" कहा मैंने, "बैठो?" बोली वो,
नहीं बैठा मैं! तो खुद खड़ी हो गयी! "बाहर चलें?" बोली वो, "अब?" कहा मैंने, "तो?" बोली वो, "बारिश हो रही है!" कहा मैंने, "तो बारिश में नाचना थोड़े ही है?" बोली वो, "तो बाहर कहाँ?" कहा मैंने, "आओ!" बोली वो, साड़ी के सर पर अपने और मेरे हाथ पकड़ा, खींचने लगी! "अरे आराम से!" कहा मैंने,
और चले हम बाहर! बारिश पड़ रही थी, लेकिन भागे जा रहे थे हम! मुझे तो पता नहीं कहाँ ले जा रही थी वो! और आये एक जगह हम, बड़ा सा कक्ष था, बंद पड़ा था, दरवाज़ा बंद था बाहर से, ऊपर टीन पड़ी थी सीमेंट की! "ये कहाँ ले आयीं?" कहा मैंने, उसने दरवाज़ा खोला, और मैंने अंदर झाँका। दरियां पड़ी थीं, चादरें, और फूलों का ढेर लगा था
वहाँ! शायद कोई भंडार-गृह था! "ये क्या है?" पूछा मैंने, "आओ अंदर!" बोली वो, मैं अंदर चला, वो भी अंदर आई, उसने दरी बिछाई एक, खोलकर! "बैठो!" बोली वो, मैं बैठ गया, वो भी बैठी मेरे सामने ही! "यहाँ क्यों लायीं?" पूछा मैंने, "आपसे बात करने!" बोली मुस्कुरा कर, "वहां क्या कमी थी?" पूछा मैंने, "थी कुछ!" बोली वो, "और यहां कोई आ गया तो?" बोला मैं, "तो भगा दूंगी!" बोली शरारत से! मैं मुस्कुरा पड़ा, सच में, कोई आता तो भगा ही देती वो! डरती नहीं है! "अब बोलो?" कहा मैंने, न बोले कुछ भी, बस देखे ही जाए! अकेलापन! कोई आहट नहीं, बस छत पर बूंदें टपकने की आवाज़! लेकिन मुझे लगे अब डर! सुश्री के संग पहले भी बैठा हूँ, लेकिन ऐसे नहीं! सच में लगे डर! "क्या हुआ?" पूछा उसने, भाव पढ़ लिए मेरे
उसने! "कुछ नहीं सुश्री!" कहा मैंने, "डर लग रहा है न?" बोली मुस्कुरा कर! "हाँ, लग रहा है!" कहा मैंने, "तो लगने दो आज!" बोली वो,
और लेट गयी! ओफ्फ्फ्फ़ ! अब तो लगे कि गले में पड़ा फन्दा! "सुश्री?" कहा मैंने,
"हूँ?" बोली वो, अपने केशों में ऊँगली फिराते हुए! "चलो यहां से!" कहा मैंने, "नहीं!" बोली वो, "चलो! समझा करो!" कहा मैंने, मेरा हाथ पकड़ा और खींच लिया नीचे!
ओहो! अब तो नियंत्रण-कला आजमानी थी! सो आजमाने लगा! और कोई एक घंटे के बाद, हम वहां से निकले! एक घंटे में नियंत्रण-कला आजमाता रहा! और सफल रहा! बातों में उलझाये रहा उसे! एक न चलने दी उसकी, उसके बाणों का डट कर मुकाबला किया! और इस प्रकार अपना मुकुट नहीं गिरने दिया! एक घंटे बाद हम उठे वहां से, अब बारिश बंद थी, और उसके बाद वो अपने कमरे में चली गयी और मैं लौट आया अपने कमरे में! कमरे में पहुंचा, दो गिलास पानी पिया और हुआ तरोताज़ा फिर! फिर भोजन मंगवाया और भोजन किया! और उसके बाद आराम किया हमने! शर्मा जी का बुखार बना हुआ था, दवा दिलवानी थी उन्हें, दिन में ही, उनको संग ले, हम दवा लेने चले गए थे, दवा ली थी चिकित्सक
से, और फिर वापिस हो लिए थे, जा पहुंचे थे वहाँ, अपने कक्ष में!
और फिर हुई शाम! आज की रौनक अलग ही थी! मैं भी तैयार हुआ, शर्मा जी आराम करते रहे, उनके लिए यही सही था, आराम करें अधिक से अधिक तो शीघ्र ही भले-चंगे हो ही जाएंगे!
और इस प्रकार हुई रात! रात हुई बजे गए थे आठ! अब मुझे इतंजार था सुश्री का, कब वो आये और कब हम चले, आयोजन-मंडप में! बीते कोई दस मिनट और वो आ गयी, छमकते हुए, चमकते-दमकते हुए! एक तो लम्बी है, भरी-भरी है, साड़ी तो खूब फब्ती है उस पर! और आज तो गहरे नीले रंग की साड़ी पहन कर आयी थी! सजी-धजी! साड़ी में सफेद रंग के छोटे छोटे चमकदार फूल बने थे! बेहतरीन थे वे! कोहनी के नीचे तक का ब्लाउज, नीले रंग का, और गले में पड़े आभूषण! हाथ में सोने के कंगन! आज तो सुश्री सच में ही मेरा मन डुलवा रही थी! मैं तो देखता ही रह गया था उसका शारीरिक-सौंदर्य! अब बनाने वाला भी कभी कभी कुछ न कुछ हेरा-फेरी कर ही देता है!
यहाँ साफ़ दीख रही थी वो हेरा-फेरी, एक तो तसल्ली और फुर्सत में ढाला गया था सुश्री को, और ऊपर से, मिट्टी कुछ अधिक ही लगाई थी! शरीर में कहीं कहीं। इस से उसका सौंदर्य अपने आप में ही दम्भ से भरा था! और भरे भी क्यों न! उसकी सटीक वजह भी थी! "आ जाओ!" कहा मैंने, आ गयी थी, खड़ी रही! "शर्मा जी?" कहा मैंने, "हाँ?" बोले वो, "जा रहा हूँ मैं, फोन मेरे पास है, कोई तकलीफ़ हो, तो फ़ोन कर देना!" कहा मैंने, "ठीक है, जाइएबोले वो, "तबीयत ठीक नहीं हुई आपकी?" पूछा सुश्री ने, "दवा ली है आज बेटा!" बोले वो, "खा ली?" पूछा उसने, "हाँ" बोले वो, "दूध ले आऊँ बोली वो, "अभी नहीं, आप देर न करो, हो कर आओ!" बोले वो,
और हम निकल आये बाहर! लोग-बाग आ-जा रहे थे, साध्वियां सजी-धजी जा रही थी, बाबा लोग सीना चौड़ा किये जा रहे थे! जिसकी भी निगाह पड़ती सुश्री पर, दोबार ज़रूर देखता! और मैं! मैं निगरानी कर रहा था उसकी! बहुत मनचले होते हैं ऐसे, जो बदतमीज़ी करने से
बाज नहीं आते! हम पहुँच गए वहाँ! बैठने का कोई स्थान शेष नहीं था, भीड़ बहुत थी, ब्रह्म-दीप प्रज्ज्वलित किया जा चुका था और अब आरती चल रही थी। मैंने सुश्री को अपने आगे खड़ा किया, और उसको लपेट लिया था अपनी बाजुओं में, आसपास भीड़ थी, धक्का लग ही जाता था कन्धों को, टांगों को, इसीलिए आगे किया था उसको खड़ा, तो इस तरह कार्यक्रम आरम्भ हुआ, नयी नयी जानकारियां मिलीं, कितने नए डेरे तंत्र को समर्पित हुए ये भी पता चला, किस किस का अवसान हुआ, ये भी पता चला, कौन कहाँ पहुंचा, कितना दर्जा आगे हुआ, ये भी बताया गया! और कोई एक घंटे के बाद, सबसे मिलना-जुलना आरम्भ हुआ, हम भी बहुत से
नए लोगों से मिले! आदि आदि! दो घंटे लग गए थे! और तब कार्यक्रम समाप्त हुआ था, और उसके बाद भोजन का प्रबंध था, मैंने और सुश्री ने भोजन किया और कोई ग्यारह बजे हम वापिस हुए! मैंने उस दिन मदिरा नहीं पी थी, सुश्री संग थी इसलिए! और फिर हम वापिस हुए, मैं अपने कक्ष में जाना चाहता था लेकिन सुश्री मुझे अपने कक्ष में ले गयी, मैं बैठ गया वहां! "पानी पिलाओ ज़रा!" कहा मैंने, "अभी लायी" बोली वो,
और पल्लू संभाल, चली बाहर, और थोड़ी ही देर में ले आई पानी, मुझे दिया, और मैंने पानी पिया, दे दिया गिलास वापिस, रख दिया मेज़ पर उसने!
और आ बैठी संग मेरे ही, साथ वाली कुर्सी पर! "आज तो ग़ज़ब ढा दिया तुमने!" बोला मैं, "कैसे?" बोली वो, "कईयों की तो गरदन में लहक पड़ गयी होगी, और कई तड़प गए होंगे! आज तुम्हारा रूप ही ऐसा था!" कहा मैंने, "और आप?" पूछा तपाक से! अब ऐसे प्रश्न की मुझे कोई उम्मीद ही नहीं थी! अचानक से पूछा था, और जैसे सुनते ही, मुझे गश ही आ जाने वाला था! अब कहूँ क्या? कहाँ से शब्द लाऊँ? "और आप?" बोली वो, "अब मैं कोई अछूता थोड़े ही हूँ!" कहा मैंने, "बताया तो है नहीं आपने?" बोली वो, "बताने से कोई फायदा नहीं!" बोला मैं, "क्यों लगा ऐसे?" पूछा उसने, "ऐसा इसलिए लगा कि तुमने मेरी बात तो काट ही देनी है!" कहा मैंने, "कह कर देखो?" बोली वो.
क्या हिम्मत है! क्या जज़्बा है। मैं ही गिरा!
"अच्छा छोड़ो अब! कल की बताओ?" कहा मैंने, "छोड़ो नहीं, पकड़ो!" बोली वो,
अब हंसा मैं! मुझसे खेल रही थी! शब्दों से भेद रही थी! "जाने दो!" कहा मैंने, "क्यों?" बोली वो, "अब क्यों पहाड़ बना रही हो?" कहा मैंने, "पहाड़ी अभी तो टेरी भी नहीं बनी!" बोली वो, "देखो सुश्री, बस! अब बस करो!" कहा मैंने, अब मुस्कुराई वो! आगे आई, और पास से देखा मुझे! उस पल मैं थोड़ा घबरा गया था! मैं बात आगे नहीं बढ़ाना चाहता था! इसलिए! "अब चलूँगा! बारह का समय हो गया है!" कहा मैंने, "तो क्या हुआ?" बोली वो, "हुआ नहीं तो हो जाएगा!" कहा मैंने खीझ के इस बार! हंसी वो, जैसे समझ गयी हो मेरा सारा मतलब! "अब चलता हूँ सुबह मिलूंगा!" कहा मैंने,
और चल दिया बाहर! सुश्री से तो कभी कभी बहुत डर लगने लगता है! बहुत भेदी बाण चलाती है कभी कभी तो! मैं आ गया था अपने कमरे में, कमरे में आया तो शर्मा जी सो रहे थे, मैंने भी अपने कपड़े बदले, और मैं भी सो गया! आराम से नींद आई! सुबह हुई, शर्मा जी जाग चुके थे
पहले ही, हम फारिग हो लिए थे! "अब बुखार तो नहीं?" पूछा मैंने, "नहीं, अब ठीक हूँ' बोले वो, चाय-नाश्ता आ गया था, फिर हमने नाश्ता किया, और मैं उठकर, चला ज़रा अब उस सुश्री के पास, पहुंचा वहां, अपने कमरे में नहीं थी वो, मैंने आसपास देखा, तो थी नहीं वो वहाँ! तो मैं पलटा वापिस जाने के लिए, और तभी नज़र आ गयी मुझे, आते हुए! वहीं खड़ा रहा मैं फिर! आई मेरे पास, नमस्कार हुई, और उसने दरवाज़ा खोला फिर,
"आओ!" बोली वो, और मैं चला अंदर! बैठा एक कुर्सी पर, वो भी बैठी, "कहाँ गयी थी?" पूछा मैंने, "अरे कहीं नहीं! वस्त्र देखने गयी थी!" कहा उसने, "अच्छा!" बोला मैं, "नाश्ता कर लिया?" पूछा उसने, "हाँ! तुमने?" पूछा मैंने, "हाँ कर लिया!" बोली वो, "ठीक, ग्यारह बजे निकल जाएंगे हम!" कहा मैंने, "ठीक है!" बोली वो, "और वहां फिर! फिर!" कहा मैंने कुछ इशारा करते हुए! "रहने दो!" बोली वो, मैं ये सुन, बहुत तेज हंसा! "सच में!" कहा मैंने, "रहने दो!" बोली वो, "चलो ठीक! अच्छा अब तैयार हो जाना, तुम साथ चल रही हो, और बाकी वापिस वहीं?" पूछा
मैंने,
"हाँ" बोली वो, "ठीक है, मैं ग्यारह बजे आता हूँ" बोला मैं, "मैं आ जाउंगी!" बोली वो, "ये भी ठीक है" कहा मैंने,
और निकला वहाँ से फिर, अब पहुंचा सोरन के पास, उस से भी पूछा, तो ग्यारह बजे निकलेंगे यही बताया! तो मैं वापिस हुआ, और आया अपने ही कक्ष में! "ग्यारह बजे निकल रहे हैं" कहा मैंने,
"ठीक" बोले वो, "मैं सामान बाँध लेता हूँ' कहा मैंने, "बाँध दिया है!" बोले वो, "ठीक!" कहा मैंने, "आनन-फानन में आराम से नहीं हो पाता!" बोले वो, "हाँ, ये बात तो है" कहा मैंने "तो मैंने बाँध दिया सभी सामान" बोले वो, "भोजन करना है?" पूछा मैंने, "मेरा मन नहीं है" बोले वो, "कोई बात नहीं, दूध तो चलेगा?" पूछा मैंने, "हाँ, दूध ले लूँगा" बोले वो, तो उसके बाद, उनको दूध दिया, मैंने हल्का-फुल्का भोजन किया और इस तरह बज गए ग्यारह!
ग्यारह बज गए थे, हम तैयार थे, सोरन भी आया था थोड़े ही समय पहले, वे भी तैयार थे, बस मुझे इंतज़ार था तो उस सुश्री का, मैं कक्ष में बैठा उसी का इंतज़ार कर रहा था, और कुछ ही देर में, मुझे आती दिखी, और मैं खड़ा हुआ, और चला बाहर, उसके हाथ में एक बैग था, बैग लिया उस से, और ले आया अंदर उसे, नीला कुरता और सफ़ेद चुस्त पाजामी! अच्छी लग रही थी! "अब चलें?" पूछा मैंने, "हाँ, चलिए!" बोली वो, "आओ फिर' कहा मैंने,
और उठाया सामान हमने, अपन बैग टांगा कंधे पर, और उसका बैग उठाया, और चल पड़े बाहर, शर्मा जी अपना बैग उठाकर ले आये, दरवाज़े कोई ताला लगाया, और चले हम सब अब बाबा तेवत के साथ, वे भी तैयार थे, नमस्कार हुई उनसे, और हम निकल पड़े, चाबियां वापसी दी, और चल पड़े वापिस, काफी लोग जा रहे थे आज, कुछ जो दूर से आये थे, वे भी आज कल में
